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जैन धर्म का मौलिक इतिहास- द्वितीय भाग [म. म. को देखकर विचार
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अपने मन में इस प्रकार के विचारों के उत्पन्न होते ही इन्द्रभूति सशंक हो उठे । स्फटिक सिंहासन पर विराजमान तथा देव-देवेन्द्रों एवं नर-नरेन्द्रों द्वारा सेव्यमान त्रिलोकपूज्य भगवान् महावीर को देख कर इन्द्रभूति मन ही मन सोचने लगे – “शोक ! महाशोक ! मैंने स्वयं अपने लिये एक बड़ी विकट समस्या उत्पन्न कर ली है । मेरा समस्त पूर्वोपार्जित यश अब धूलि में मिलने जा रहा है। जिस प्रकार एक मूर्ख व्यक्ति एक साधारण कील को प्राप्त करने के लिये अपने विशाल, भव्य भवन को गिरा देने जैसी भयंकर मूर्खता कर बैठता है, ठीक उसी प्रकार की मूर्खता मैं ग्राज कर बैठा है। इस एक वादी को न जीतने की दशा में मेरे मान-सम्मान को कहाँ ठेस पहुंचती थी ? अपने विश्वविजयी नाम की लज्जा, अब मैं किस प्रकार रखूंगा। मैंने मदान्ध हो अपनी अदूरदर्शिता के कारण बिना विचारे ही यह मूर्खता की, जो मैं इन त्रिलोकीनाथ को जीतने को दुराशा लिये यहां चला आया । इनके समक्ष मैं बोलने का साहस ही किस प्रकार कर सकूंगा ? अब मैं यहां आकर पीछे की ओर भी किस प्रकार लौटू ? क्योंकि मेरे इस प्रकार लीटने को संसार में पलायन की संज्ञा दी जायगी । पलायनजन्य अपकीति तो मृत्यु से भी अधिक घोर कष्टप्रद होती है । मैंने अपने प्रापको घोर संकट में डाल लिया है। अब तो इस संकट से भगवती भवानी ही मेरी रक्षा कर सकती है। यदि सद्भाग्य से किसी न किसी प्रकार प्राज मेरी विजय हो जाय तव तो निश्चित रूप से त्रैलोक्य के विद्वानों का शिरोमरिण होने का मेरा विरुद सुरक्षित रह सकता है ।"
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स्थाणु के समान निश्चल इन्द्रभूति गौतम जिस समय मन ही मन इस प्रकार विचारसागर में गोते लगा रहे थे, ठीक उसी समय सर्वज्ञ- सर्वदर्शी श्रमण भगवान् महावीर ने अमृत से भी प्रति मधुर अनिर्वचनीय ग्रानंदप्रदायिनी वाणी में उन्हें उनके नाम - गोत्रोच्चाररण पूर्वक सम्बोधित करते हुए कहा - "हे इन्द्रभूति गौतम ! सागयं 'सु ग्रागतं स्व-पर कल्याणकारी होने से - तुम्हारा श्रागमन अच्छा है, लाभकारी है ।""
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इतना सुनते ही इन्द्रभूति सोचने लगे " आश्चर्य है ! ये मेरा नाम भी जानते हैं ।" पर क्षण भर में आश्वस्त हो उन्होंने मन ही मन विचार किया - " इसमें प्राश्चर्य की कोई बात नहीं। तीनों लोकों में विख्यात लब्धप्रतिष्ठ इन्द्रभूति गौतम को भला कौन नहीं पहिचानता ? सूर्य भी कभी कहीं किसी आबाल-वृद्ध से छुपा रह सकता है ? यदि ये मेरे मन में छुपे मेरे गुप्तत सन्देह को प्रकट कर दें तो मैं इन्हें सर्वज्ञ मान सकता हूँ, अन्यथा मेरी दृष्टि में ये नगण्य ही रहेंगे ।"
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● आभट्ठो य जिरणेणं, जाइ-जरा-मरणविप्पमुक्केणं ।
नामेण य गुतेण य, सव्वन्नू सव्वदरिसिरणा ||५६६ ।। हे इंदभूइ ! गोग्रम ! सागयमुत्ते जिणेण चितेइ ।
नामपि मे विप्राणs, श्रहवा को मं न यागेइ ।। १२५ ।।
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[ श्रावश्यक, मलय, ( समवसरण ), पत्र ३१३]
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