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एकात्मवाद]
केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम आदि एकात्मवादपोषक उक्तियों के अनुसार समग्र संसार में भिन्न-भिन्न मात्माएं नहीं अपितु अाकाश की तरह सर्वत्र व्याप्त एक ही प्रात्मा है -"
इन्द्रभूति गौतम के हृदय में उत्पन्न हुए इस प्रकार के संशय का भी बड़ी युक्तिपूर्ण मधुर वाणी से समाधान करते हुए भगवान महावीर ने फरमाया"इन्द्रभूते! यदि निर्मल अनन्त आकाश के समान विराट् एक ही प्रात्मा सब पिण्डों में विद्यमान होता तो जिस प्रकार प्रकाश सभी भिन्न-भिन्न पिण्डों में एक ही रूप से विद्यमान है, आकाश की नानारूपता, विचित्रता और विलक्षणता उन पिण्डों में दिखाई नहीं देती उसी प्रकार जीव भी सब भूतसंघों में नानारूपता, वैचित्र्य एवं विलक्षणता से रहित एकरूपता में ही दिखाई देता पर प्राणी-समूह में ऐसी समानरूपता एवं एकरूपता का नितान्त अभाव है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि एक प्रारपी के लक्षणों से दूसरे प्राणी के लक्षण बिलकुल ही भिन्न दिखाई देते हैं। इससे सहज ही यह सिद्ध होता है कि सब प्राणियों में एक ही पात्मा नहीं अपितु भिन्न-भिन्न आत्माएं हैं। लक्षणभेद होने पर लक्ष्यभेद स्वतः ही सिद्ध हो जाता है। यदि सभी देहसमूहों में आकाश की तरह सर्वव्यापी एक ही प्रात्मा होता तो, कर्ता, भोक्ता, मन्ता, एवं सुख-दुःख, बन्ध-मोक्ष प्रादि की विभिन्न दशाएं प्राणियों में विद्यमान नहीं रहतीं। पर वस्तुस्थिति सर्वथा प्रत्यक्ष है कि सुख-दुःख आदि की समानता प्राणिवर्ग में दृष्टिगोचर नहीं होती। प्राज अनेकों प्राणी दुःख के,कारण छटपटाते और कई प्राणी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं। प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला यह अन्तर इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि समस्त भूतसंघों में व्योम की तरह कोई विराट् एक प्रात्मा नहीं बल्कि अलग अलग अनन्त प्रात्माएँ हैं।"
"जीव का प्रमुख लक्षण है उपयोग । वह उपयोग प्रत्येक प्राणी में एक दूसरे से भिन्न-भिन्न, स्वल्पाधिक मात्रा में और विभिन्न प्रकार का पाया जाता है। इस प्रकार प्रत्येक देहधारी में उपयोग के उत्कर्ष-अपकर्ष एवं न्यूनाधिक्य भेद के कारण संसार में आत्माओं की संख्या भी अनन्त है। वस्तुतः प्रात्मा अविनाशीध्रौव्य है । संसारी आत्माओं में घटपटादि के इन्द्रियगोचर होने पर जो घटोपयोग, पटोपयोग प्रादि ज्ञान-पर्यायें उत्पन्न होती हैं उस दृष्टि से प्रात्मा के उत्पाद स्वभाव का तथा उसमें पटोपयोग के उत्पन्न हो जाने पर पूर्व के घटोपयोग रूपी ज्ञानपर्याय का व्यय अर्थात् विनाश हो जाने के कारण प्रात्मा के व्यय स्वभाव का परिचय प्राप्त होता है। पर उत्पाद और व्यय की उन दोनों ही परिस्थितियों में प्रात्मा का अविनाशी स्वभाव सदा सर्वदा अपने शाश्वत ध्रुव स्वरूप में विद्यमान रहता है अतः प्रात्मा ध्रौव्य स्वभाव वाला माना गया है । ज्ञान-पर्यायों के उत्पाद एवं व्यय के कारण हो आत्मः उत्पाद और व्यय रूप में परिलक्षित होता है अन्यथा वह शाश्वत-ध्रौव्य-अविनाशी है।"
इस प्रकार पंचभूतवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, एकात्मवाद प्रादि का निरसन करते हुए भगवान् महावीर ने अपनी गुरुगम्भीर मृदुवारणी द्वारा अनुपम कुशलता.
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