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केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम
इन्द्रभूति गौतम महागणनायक इन्द्रभूति गौतम के अलौकिक गौरवपूर्ण विराट व्यक्तित्व का यथातथ्य रूप से चित्रण करने का प्रयास, अनन्त उन्मुक्त प्रकाश को अपने बाहुपाश में प्राबद्ध कर लेने और उत्तुंग तरंगों से उद्वेलित सागरों की अपार जलराशि को एक गागर में भर लेने के समान हास्यास्पद प्रयास है फिर भी सत्य के अनन्य उपासक, प्राणिमात्र के परम हितैषी और अनुपम लोकोपकारी उस महामानव द्वारा मानव जाति ही नहीं अपितु प्राणिमात्र के लिये किये गये अनन्त उपकारों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने हेतु कुछ लिखना आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य है। इसीलिये यहां गौतमस्वामी का यत्किंचित् परिचय दिया जा रहा है।
- जन्म और बंश मावि जैन वाङ्मय में इन्द्रभूति गौतम का उनके श्रमण-जीवन से पूर्व का कोई विशिष्ट तो नहीं किन्तु थोडा आवश्यक नियुक्ति में जन्मभूमि, नक्षत्र, मातापिता, गोत्र, गहवास और फिर श्रमण-जीवन के छद्मस्थकाल, केवलिकाल, पूर्ण पायु, ज्ञान, निर्वाणकालीन तप, निर्वाण, संहनन तथा संस्थान का वर्णन उपलब्ध होता है, जो इस प्रकार है :
इन्द्रभूति गौतम का जन्म ईसा से ६०७ वर्ष पूर्व मगध राज्य के सत्ताकेन्द्र राजगृह के समीपवर्ती गोब्बर ग्राम (गौवर्यग्राम) नामक एक ग्राम के गौतम गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में हुप्रा । गौतम गोत्र.७ प्रकार का है। आपके जन्म के समय ज्येष्ठा नक्षत्र था। आपके पिता का नाम वसुभूति गौतम और माता का नाम पृथ्वी था। इनके अग्निभूति और वायुभूति नामक दो सहोदर थे। इन तीनों भाइयों में इन्द्रभूति सबसे बड़े, अग्निभूति मंझले और वायुभूति सबसे कनिष्ठ थे।
शिक्षा इन तीनों भाइयों ने विद्वान् शिक्षा-गुरु की सेवा में रह कर ऋग्, यजु,. साम एवं अथर्व इन चारों वेदों; शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दस् तथा ज्योतिष -- इन छहों वेदांगों और मीमांसा, न्याय, धर्मशास्त्र एवं पुराण- इन चारों उपांगों का- इस प्रकार कुल मिलाकर सम्पूर्ण चौदह विद्याओं का सम्यक् अध्ययन किया। ' आवश्यक मलयवृत्ति, गा. ६४३ से ६५६, पृ. ३३७-३६. २ जे गोयमा ते सत्तविहा पण्णता। तं-जहा - ते गोयमा, ते गागा, ते भारदाया, ते अंगिरसा, ते सक्कराभा, ते भक्खराभा, ते उदत्ताभा।
[स्थानांग, ७ ठारणा] 3 अंगानि वेदाश्चत्वारो, मीमांसा न्याय-विस्तरः । धर्मशास्त्रं पुराणं च, विद्यास्त्वेता चतुर्दशा ।।.. शिक्षा कल्पो व्याकरणं, निरुक्त छन्दसां चयः । ज्योतिषामयनं चैव, वेदांगानि षडेव तु॥
[प्रावश्यक, मलयवृत्ति, पृ० ३३६]
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