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मतोत्पत्ति के सम्बन्ध में किये गये उल्लेखों को यथावत् उन्हीं के मृदु प्रथवा कटु शब्दों में प्रस्तुत किया गया है, उसी रूप में इस प्रकरण में भी " जैन- शासन में सम्प्रदायभेद" नामक उपशीर्षक में दिगम्बर मतोत्पत्ति विषयक श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों के उल्लेख को यथावत प्रस्तुत किया गया है। इसमें हमारा उद्देश्य दोनों ओर के उल्लेखों को यथा रूप में इतिहासज्ञों, अनुसन्धाताओं एवं पाठकों के समक्ष रखना मात्र है । वस्तुस्थिति को रखने के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार की भावना नहीं रही है ।
इस प्रकार प्रज्ञापना सूत्र और षट्खण्डागम का तुलनात्मक विवेचन तथा नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली को दिगम्बर परम्परा के कतिपय चोटी के विद्वानों द्वारा तिलोयपण्णत्ती, हरिवंश पुराण, उत्तर पुराण, धवला, जय धवला प्रादि प्राचीन ग्रन्थों से भी अधिक महत्व देने के फलस्वरूप उत्पन्न हुई भ्रान्त मान्यता का निराकरण करते समय हमें कतिपय ऐसे विद्वानों की मान्यताओं को प्रामाणिक सिद्ध करना पड़ा है जिन्होंने जैन इतिहास, साहित्य एवं शोध के क्षेत्र में उल्लेखनीय सेवाएं देकर बड़ी ख्याति प्राप्त की है। ऐसा करने में हमारा विशुद्ध लक्ष्य तथ्यों को प्रकाश में लाना मात्र रहा है।
इस प्रकरण के अन्त में "केवलिकाल से पूर्वघर काल तक की साध्वीपरम्परा" विषयक शीर्षक में आर्य सुधर्मा से देवद्ध क्षमाश्रमरण तक की १००० वर्ष की अवधि में हुई परम प्रभाविका प्रवर्तिनियों एवं साध्वियों का यथोपलब्ध परिचय दिया गया है ।
उपसंहार
प्रस्तुत ग्रन्थ वोर नि० सं० १ से १००० तक का जैनधर्म का इतिहास / दिया गया है । उसमें प्राचार्यों, ग्रागमों, साधु-साध्वियों, गरणों, गच्छों, कुलों शाखा-उपशाखाओं, जन-साधारण से लेकर शासकवर्ग तक के श्रावक-श्राविकाओं, उन आचार्यों के समय में घटित हुई प्रमुख धार्मिक एवं ऐतिहासिक महत्व की घटनाओं के उल्लेख के साथ-साथ उक्त अवधि में हुए राजवंशों, उनकी परम्पराओंों, राज्यविप्लवों, विदेशियों द्वारा भारत पर किये गये आक्रमणों आदि का भी यथावश्यक जो संक्षिप्त अथवा विस्तारपूर्वक परिचय दिया गया है, उसकी पृष्ठभूमि में मुख्यतः निम्नलिखित उद्देश्य रहे हैं :
१. समसामयिक धार्मिक एवं राजनैतिक घटनाचक्र का साथ-साथ विवरण प्रस्तुत कर धार्मिक इतिहास को विश्वसनीय एवं सर्वांगपूर्ण बनाना ।
२. जैन धर्म के प्रामाणिक ग्रन्थों के परिप्रेक्ष्य में ऐतिहासिक घटनाओं का पर्यवेक्षण कर निहित स्वार्थ इतिहासकारों द्वारा उत्पन्न की गई प्रथवा उत्पन्न की जाने वाली भ्रान्तियों का निराकरण ।
३. जैन धर्म के इतिहास की विविध कारणों से उलझी हुई जटिल
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