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आर्य रक्षित ने वस्त्रधारी अपने पिता खन्त मुनि से किस प्रकार पूर्णतः वस का त्याग करवाया, इसका उल्लेख प्रभावक चरित्र में है ।"
आर्य वज्र और ग्रायं रक्षित के आख्यानों से यह सिद्ध होता है कि उनके समय तक वस्त्रधारी और निर्वस्त्र दोनों ही प्रकार के मुनियों की परम्पराएं विद्यमान थीं । उन दोनों परम्पराम्रों के मुनि परस्पर एक दूसरे का पूरा सम्मान ही नहीं अपितु द्वादशांगी का अध्ययन अध्यापन भी करते रहते थे । सवस्त्रता और निर्वस्त्रता उनके पारस्परिक श्रमणोचित ऋजु मृदु सम्बन्धों में कभी कहीं याक नहीं बनी।
इन सब ऐतिहासिक तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में अनेक विद्वानों द्वारा प्रकट किये गये सम्प्रदाय भेद विषयक विभिन्न अभिमतों पर निष्पक्ष दृष्टि से विचार करने पर उनके सभी अभिमत प्रमाणाभाव में निराधार और अटकलबाजी मात्र सिद्ध होते हैं । सम्पूर्ण प्राचीन जैन साहित्य में केवल एक ही ऐसा दृष्टान्त उपलब्ध होता हैं, जिससे कुछ क्षणों के लिये संघ में विचार भेद की झलक प्रकट होती है । वह है प्रार्य महागिरि और आर्य सुहस्ति के बीच सम्भोग विच्छेद की क्षरणस्थायी घटना | उस अचिरस्थायिनी घटना के पीछे भी मूल कारण विशुद्ध पिण्डेषरणा का था, न कि सचीवरत्व प्रचीवरत्व का ।
इन सब प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि वस्तुतः सम्प्रदाय भेद दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार वीर निर्वारण सम्वत् ६०६ और श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार वीर नि० सं० ६०६ में हुआ ।
इस ग्रन्थ के सम्पादन में पं० मुनि श्री लक्ष्मीचन्दजी, श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री तथा सम्पादक मण्डल के अन्य सभी सदस्यों का समय २ पर सहयोग मिलता रहा । इसके लेखन एवं सूची निर्माण आदि कार्यों में श्री हीरामुनि, श्री शीतल मुनि सेवा सहयोग से लघु लक्ष्मीचन्द्रजी, मान मुनि, शुभ मुनि, चंपक मुनि आदि का सहयोग भी भुलाया नहीं जा सकता । प्राचार्यों के साथ-साथ उनके समसामयिक राजवंशों के क्रमबद्ध इतिहास के प्रालेखन तथा कतिपय प्राचार्यों के काल - निर्णय में इस ग्रन्थ के मुख्य सम्पादक श्री राठोड़ ने बड़ी सहायता की। लगन और निष्ठा पूर्वक गवेषणा तथा उपलब्ध साहित्य के आलोडन के अतिरिक्त इतिहासज्ञ
प्रत्यूह संघातो, वेदमंत्र मंया हतः ।
राष्ट्रस्य नृपतेस्तथा ।। १७६ ।।
१ पुरा समस्तस्यापि राज्यस्य, संवोदुरस्यांशे, शवं शबरथस्थितम् । ग्राचकर्षनिर्वसन, शिशवः पूर्वशिक्षिताः ।। १७७ ।। गुच्छ कि नग्नस्तात ! मोऽप्युत्तरं ददौ ।
उपसर्गः समुत्तस्थौ त्वद्वचो ह्यनृतं ताक पिता प्राह, ट्रष्टव्यं दृष्टमेव यत् ।
नहि ।। १७६ ।।
को नः परिग्रहस्तस्मात् नाग्न्यमेवास्त्वतः परम् ।। १८१ ।। ( प्रभावक चरित्र, पृ० १५ )
ततः
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