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और श्वेताम्बर परम्परा में कैवल्यालोकशाली हो जाने के कारण गौतम के प्रति पट्टधर से भी अत्यधिक सर्वोच्च सम्मान प्रदर्शित करते हुए प्रार्य सुधर्मा को भगवान् महावीर का प्रथम पट्टधर माना गया है । दोनों परम्पराओं के सुविशाल माहित्य में कहीं किंचित्मात्र भी इस प्रकार का उल्लेख नहीं है, जिससे निर्वाण पश्चात् के ६४ अथवा ६२ वर्ष के केवलिकाल में पारस्परिक कलह, मतभेद अथवा धर्म मच में विघटन का ग्राभास तक प्रकट होता हो।
___ पूर्वकाल में जैन और बौद्ध धर्मावलम्बियों में बड़े लम्बे समय तक परस्पर प्रतिस्पर्धा रही है । ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् महायीर के समक्ष उनके प्रथम निह्नव जमाली के साथ इन्द्रभूति गौतम का जो वादविवाद हुआ उस ही को अतिशयोक्तिपूर्ण विकृत रूप देकर बौद्धपरम्परा के ग्रन्थ मज्झिमनिकाय में उपरोक्त उल्लेख कर दिया गया है। किसी धर्मग्रन्थ द्वारा अपने प्रमुख प्रतिस्पर्धी धर्म के सम्बन्ध में किया गया कटू उल्लेख वस्तुतः कितना प्रामाणिक और विश्वसनीय होता है यह किसी विचारक से छुपा नहीं है। __आर्य जम्बू के पश्चात् पाँच श्रुतकेवली प्राचार्यों में से भद्रबाहु को छोड़ शेष चारों के नाम दोनों परम्परात्रों में पूर्णतः भिन्न देखकर कुछ विद्वान् यह ग्रनुमान लगाते हैं कि आर्य जम्बू के पश्चात् भगवान् महावीर के धर्मसंघ में मतभेद उत्पन्न हो गया था। पर वस्तुतः चार श्रुतकेवलियों के नाम भेद के अतिरिक्त दोनों परम्पराओं के साहित्य में इस प्रकार का एक भी स्पष्ट उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता जिससे उन विद्वानों के इस अनुमान की पुष्टि होती हों।
स्वयं भगवान् महावीर के लिये, उनकी श्रमण एवं श्रमणी परम्परा के लिये शास्त्रों में प्रयुक्त "णिग्गंठ" विशेषण को देख कर जिन विद्वानों ने अपनी यह धारणा बना ली है कि प्रभू महावीर ने तीर्थप्रवर्तन के प्रथम दिन से ही श्रमणों के लिए एकान्ततः जिनकल्प का-नग्नत्व का ही विधान किया था, वे विद्वान् आर्य शय्यंभव द्वारा द्वादशांगी में से विर्यढ अथवा संकलित दसवैकालिकसूत्र में मुनियों के लिये वस्त्र, पात्र, कम्बल एवं पादपंछन का उल्लेख देखकर यह अनुमान लगाते हैं कि अन्तिम केवली जम्बू के निर्वाण के पश्चात् भगवान् महावीर के संघ में नग्नता और सोपधिता को लेकर मतभेद उत्पन्न हो गया। इस प्रकार का अनुमान लगाते समय वे विद्वान् संभवतः इस बात को भूल जाते हैं अथवा नजरंदाज कर देते हैं कि शास्त्रों में जिस प्रकार श्रमणों के लिये निग्गंठ शब्द का प्रयोग किया है, उसी प्रकार श्रमरिणयों के लिये भी "रिणग्गंठियो" विशेषण प्रयुक्त किया गया है। (क) गोयमा जेग रिणग्गथे वा रिणगंथी वा फासुएसरिणज्ज.........[भगवती सूत्र, मतक
७, ३, १, क्षेत्रातिकान्तादि दोष] (ख) निगन्यो धिइमंतो, रिणगंधीवि न करेज्ज छहिं चेव । ........॥३४॥
[उत्तराध्ययन, अध्ययन २६]
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