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गुत्थियों को ( राजनैतिक ) इतिहास ग्रन्थों एवं जैन धर्म के प्रामाणिक ग्रन्थों के तुलनात्मक अध्ययन से सुलझाने का प्रयास करना ।
४. स्वतन्त्रता तथा धर्मनिष्ठ शासकों के शासन काल में धर्म की सर्वतो - मुखी प्रभ्युन्नति एवं जन-जीवन की समृद्धि में शासक वर्ग द्वारा दिये गये योग के सुफल से पाठकों को परिचित कराना ।
५. अधर्मिष्ठ कुशासकों एवं विदेशी आतताइयों के शासन में परतन्त्र प्रजा के सर्वतोमुखी पतन एवं धर्म के ह्रास के कुफल से पाठकों को परिचित कराना ।
६. धार्मिक, सामाजिक प्रार्थिक एवं राजनैतिक दृष्टि से सुशासक अथवा स्वशासित सुशासन जहां सर्वतोमुखी समुन्नति की मूल कुंजी है, वहां कुशासन प्रभाव-अभियोगों एवं घोर अवनति का जनक, इस तथ्य का निरूपण ।
७. प्रत्येक जैन को सुनागरिक के उन सभी परमावश्यक कर्त्तव्यों से अवगत कराना, जिनके पालन से देश में लोक कल्याणकारी सुशासन सशक्त एवं समुन्नत होता और उन कर्त्तव्यों से च्युत होने की दशा में कुशासन के पनपने के साथ साथ देश अवनति के गहरे गड्ढे में गिरता है ।
८. भारतीय इतिहास के जिस-जिस समय को ऐतिहासिक घटनाओं की अनुपलब्धि के कारण अन्धकारपूर्ण बताया गया है, उस समय की ऐतिहासिक घटनाओं को जैन धर्म के प्रामाणिक ग्रन्थों, शिलालेखों आदि के ठोस आधार पर प्रकाश में लाकर भारतीय इतिहास की टूटी कड़ियों को जोड़ना और इस प्रकार अन्धकारपूर्ण समय को प्रकाशपूर्ण बनाना ।
६. स्वातन्त्र्य मूलक सुशासन की सुखद शीतल छाया में ही भौतिक तथा आध्यात्मिक सौख्य- समृद्धि का कल्पतरु अंकुरित, पुष्पित, पल्लवित एवं सुफल समन्वित होता है । इससे विपरीत पारतन्त्र्य मूलक कुशासन के प्रपावन पंक में सुरतरु के स्थान पर वैषम्य का विषवृक्ष अंकुरित हो देखते ही देखते बीभत्स रूप धारण कर लेता है । उस विषवृक्ष के प्रसितुल्य पत्र, दुर्वासना की दुस्सह्य दुर्गन्ध पूर्ण पुष्प, पग-पग पर कुत्सित क्लेशजनक प्रति तीक्ष्ण त्रिशूलतुल्य कण्टक और प्रभाव, अभियोग, शान्ति, ईर्ष्या, कलह, अन्याय, अनीति, अनाचार रूपी विषाक्त फलों से मानव वस्तुतः मानवता को भूल कर किस प्रकार नारकीय कीट से भी निकृष्ट बन जाता है - इस तथ्य से प्रत्येक पाठक को अवगत कराने के अभिप्राय से ही प्रस्तुत खण्ड में धर्म एवं धर्माचार्यों के इतिहास के साथ साथ उसके समसामायिक इतिहास का भी दिग्दर्शन कराया गया है । मानवता को दानवता में परिवर्तित कर देने वाली भूतकालीन भूलों की पुनः किसी भी दशा में इस धर्मप्रारण देश के निवासी पुनरावृत्ति न करें, वस्तुतः यही मुख्य लक्ष्य इस वर्णन के पीछे रहा है । आशा है केवल जैन ही नहीं प्रत्येक देशवासी इससे प्रेरणा लेकर सदा धर्म, देश और समाज के प्रति अपने दायित्वों के निर्वहन में जागरूक बना रहेगा ।
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