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स्वर्णिमकाल
प्रादि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के निर्वाण तक के काल को भारतवर्ष का तीर्थंकर-काल माना गया है । इसे हम भरतखण्ड का स्वर्णिमकाल भी कह सकते हैं ।
उस स्वगिगमकाल में भगवान ऋषभदेव से लेकर महावीर तक चौवीस तीर्थकर हुए। उन्होंने जन्म-जरा-व्याधि एवं मृत्यु के घोर दुःखों से पूर्ण, अनादिकाल से चलती आ रही करालकाल की विशाल चक्की में पिसते हुए अनन्त प्राणियों की दारुण एवं दयनीय दशा से रक्षा करने और भवताप से उनका उद्धार करने हेतु अपने-अपने समय में धर्मतीर्थ की स्थापना की।
उन्होंने मानव को न केवल मानव के प्रति अपितु संसार के समस्त प्राणियों के प्रति नौहार्द, प्रात्मीयता, निश्छल-विशुद्ध प्रेम एवं विश्व-बन्धुत्व का सक्रिय पाठ पढ़ाते हुए वास्तविक मानवता का प्रशस्त पथ प्रदर्शित किया। सम्वे जीवावि इच्छंति जीविउंन मरिज्जिउं'२ तथा 'धम्मो मंगलमूक्किद; अहिमा संजमो तवो' के अन्तस्तलस्पर्शी दिव्य घोपों से तीर्थंकरों ने जाति, वर्ग, वर्ग एवं रंग-भेद से विहीन एक ऐसे मानव-समाज की स्थापना की, जिसमें न केवल मानव के ही प्रति अपितु निखिल विश्व के समस्त प्राणियों के प्रति यात्मीयता का अथाह प्रेम लबालब भरा हुआ था।
उन करुगगाकर तीर्थंकरों ने जगह-जगह अप्रतिहत विहार कर भीपगा भवज्वालाओं में निरन्तर झुलसते हुए संसार के अमित प्राणियों को अपनी पीयुगवपिणी अमृततुल्य अमोघ वाणी से प्राप्यायित करते हुए उनका उद्धार कर उन्हें अनन्त-अक्षय सुखसागर, शिवधाम का अधिकारी बनाया।
उस अनिर्वचनीय सुखमय तीर्थंकर-काल में तेवीस अन्तरालों और पौने तीन पन्यों के तीर्थोच्छित्तिकाल को छोड़कर शेष सम्पूर्ण समय में इस भरतखण्ड के धरातल और गगनमण्डल में तीर्थंकरों की ३५ अतिशय युक्त दिव्य वागी गंजती ' (क) सव्व जग-जीव रक्खरण- दयट्ठयाए भगवया पावयग सुकहियं ।
[प्रश्नव्याकरण-सूत्र, द्वितीय भाग, प्रथम संवर द्वार] (ख) सद्धर्म-तीर्थ कुर्वन्तीति तीर्थंकरा........... कृतिनोऽपि तीर्थकरनामोदयात् भव्य
सत्त्वानुकम्पापरतया च सद्धर्म-तीर्थप्रदेशनशीला .........
[विशे. भा., स्वोपज्ञ टीका, (भा. सं. वि. अहमदाबाद) गा. १०४४, पृ० १६६]. २ दशवकालिक सू., प्र. ६, गा. ११ 3 दशवकालिक सू., अ. १, गा. १
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