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- इस ग्रन्थ को सर्वांगपूर्ण एवं प्रामाणिक बनाने में हमने सम्पूर्ण प्रागमसाहित्य, पुराणादि प्रागमेतर जैन वाङ्मय, श्रुषि, स्मृति, पुराण, कोश, व्याकरण. पिटकादि बौद्ध साहित्य, प्राचीन-अर्वाचीन प्राचार्यों तथा प्राच्य-पाश्चात्य विद्वानों की सामाजिक धार्मिक एवं ऐतिहासिक कृतियों की सहायता ली है। उन सभी . ग्रन्थों एवं ग्रन्थकारों का यहां नाम निर्देश किया जाना संभव नहीं अत: केवल संदर्भ ग्रन्थों की सूची उनके लेखकों के नाम के साथ परिशिष्ट में दी जा रही है । हम उन सभी ग्रन्थकारों के प्रति प्रान्तरिक अाभार प्रकट करते हैं। संघभेद विषयक विभिन्न विचार
- भगवान महावीर के धर्मसंघ में विचार भेद, मान्यताभेद अथवा मंघभेद की उत्पति के सम्बन्ध में कतिपय विचारकों एवं इतिहासविदों द्वारा समय-समय पर अनेक प्रकार के विचार प्रकट किये जाते रहे हैं, जिनमें से अधिकांश को, एतद्विपयक सभी नथ्यों पर गहन विचार-विमर्श के पश्चात् मात्र अटकलबाजी की सजा दी जा सकती है । कतिपय विद्वानों ने अपना यह अभिमत प्रकट किया है कि भगवान महाबोर के निर्धारण के तत्काल पश्चात् ही उनके धर्म संघ में विघटन प्रारम्भ हो गया था। अपने इस कथन की पुष्टि में वे वौद्ध-परम्परा के ग्रन्थ मज्झिम निकाय के निम्नलिखित उद्धरण को प्रस्तुत करते हैं : - "एकं समयं भगवा सक्केसु विहरति सामगामे । तेन खो पन ममयेन निम्गन्थो नात पुत्तो पावायं अधुना कालकतो होति । तस्य कालकिरियाय भिन्ननिग्गंधद्वेधिक जाता, भंडन जाता, कलह जाता, विवादापन्ना अण्णमयां मुखसत्तीहिं वितुदता विहरंति ।"- (मझिम निहाय, भाग २, पृ. १४३ )
उक्त ग्रन्थ का उपरिलिखित उल्लेख कई कारणों से विवादास्पद ही नहीं अविश्वसनीय भी है। प्रथम कारण तो यह है कि उक्त ग्रन्थ भगवान् महावीर और बुद्ध के निर्वाण से शताब्दियों पश्चात् की रचना है। दूसरा कारण यह है कि केवल अन्य साहित्य ही नहीं बौद्ध परम्परा के धर्म ग्रन्थों में भी उपर्युक्त उल्लेख के विपरीत इस प्रकार के प्रमाण उपलब्ध होते हैं, जिनसे पहपष्टतः सिद्ध होता है कि बुद्ध का महावीर के निर्वागा से लगभग २२ वर्ष पूर्व ही परिनिर्वाण हो चुका था।' ऐसी स्थिति में मज्झिमनिकाय का उपरोक्त उल्लेख स्वतः ही निराधार एवं तथ्यविहीन सिद्ध हो जाता है । श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-दोनों ही परम्पराओं के सभी ग्रन्थों में प्रार्य सुधर्मा से अन्तिम केवली जम्बू तक एक ही प्रकार की सर्वसम्मत पट्ट परम्परा का उल्लेख विद्यमान है। केवल इतना ही अन्तर है कि दिगम्बर परम्परा में इन्द्रभूति गौतम को भगवान् का प्रथम पट्टधर माना गया है ' विशेष विवरण के लिये देखिये - (क) जैन धर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग. पृ. ५४८-५५३ (ग्य) वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना (ग) भांगम और त्रिपिटक - एक अनुशीलन
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