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में श्रार्यं रेवती नक्षत्र से लेकर आर्य देवद्धिगरणी क्षमाश्रमण तक १० वाचनाचार्यो, आर्य रक्षित से प्रार्य सत्यमित्र तक १० युगप्रधानाचार्यों, प्रार्य रथ, चन्द्र, सामंतभद्र वृद्धदेव, प्रद्योतन, मानदेव आदि गणाचार्यों का परिचय दिया गया है। इस प्रकररण में प्रयोगों के पृथक्करण, शालिवाहन शाक-संवत्सर, जैन-शासन में सम्प्रदायभेद, दिगम्बर परम्परा में संघभेद, यापनीय संघ, गच्छों की उत्पत्ति, चैत्यवास, स्कन्दिलीया एवं नागार्जुनीया- इन दोनों भागमवाचनाओं, वीर नि० सं० १८० में वल्लभी नगर में हुई अन्तिम आगमवाचना के समय श्रागम-लेखन, प्रार्य देवद्ध की गुरु-परम्परा, सामान्य पूर्वधर काल सम्बन्धी दिगम्बर परम्परा की मान्यता, प्रज्ञापना सूत्र और षट्खण्डागम का तुलनात्मक परिचय, नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली को लेकर दिगम्बर परम्परा में व्याप्त कालनिर्णय विषयक भ्रान्ति श्रादि कतिपय महत्वपूर्ण तथ्यों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है ।
वीर नि० सं० ६०५ तदनुसार ई० सन् ७८ से प्रारम्भ हुए शालिवाहन शाकसंवत्सर के सम्बन्ध में यद्यपि इस प्रकरण में पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका है तथापि इस सम्बन्ध में एक स्पष्टीकरण परमावश्यक है । कतिपय विद्वानों का अभिमत है कि भारत में कुषारण राज्य की नींव डालने वाले कुषासा राजा कनिष्क ने ई० सन् ७८ में सिंहासनारूढ़ होते ही अपने नाम से जिस कनिष्क संवत् का प्रचलन किया, वही शक संवत्सर के नाम से प्रसिद्ध हुआ । संयोग की बात है कि भारत भूमि से शक सत्ता का अन्त कर जिस वर्ष सातवाहनवंशीय गौतमीपुत्र सातकरण ने शकारि विक्रमादित्य की उपाधि धारणकर शालीवाहन शाक-संवत्सर की स्थापना की उसी वर्ष में भारत के पश्चिमोत्तर भाग पर अधिकार कर कनिष्क ने भी अपने राज्यारोहरण की स्मृति में कनिष्क संवत् का प्रचलन किया। इस प्रकरण में यह स्पष्टतः उल्लेख कर दिया गया है कि कुषारणवंशी कनिष्क पार्थियन था । उसने शकों को उत्तरी भारत में परास्त कर भारत के दक्षिण-पश्चिमी प्रदेश कच्छ एवं सौराष्ट्र की ओर खदेड़ दिया । ऐसी स्थिति में शकों के शत्रु एक कुषारगवंशी ( पार्थियन) राजा द्वारा शकों के नाम पर किसी संवत्सर के प्रवर्तन की कल्पना तक नहीं की जा सकती। उस समय की ऐतिहासिक घटनाओं के पर्यवेक्षरण से यही सिद्ध होता है कि वर्तमान में प्रचलित शक संवत्सर शकों द्वारा स्थापित नहीं श्रपितु शकारि विक्रमादित्य के विरुद से विभूषित गौतमीपुत्र सातकरिण द्वारा, अवन्ती, सौराष्ट्र एवं पश्चिमी भारत से शकों की विदेशी सत्ता को समाप्त किये जाने के उपलक्ष में स्थापित शक्ति का प्रतीक शाक संवत्सर है । उसी वर्ष कुषाणवंशी राजा कनिष्क ने भी कनिष्क संवत् चलाया ; अतः इन दोनों संवत्सरों की पृथकतः पहिचान के लिए सातकरिण द्वारा स्थापित शाक संवत्सर के साथ शालिवाहन अथवा सातवाहन ( सातकरिंग का वंश) विशेषरण जोड़ा गया ।
जिस प्रकार श्रुतकेवली भद्रबाहु के प्रकरण में दिगम्बर परम्परा के हरिषेण, रत्ननन्दी, देवसेन आदि प्राचार्यों तथा कवि रयधू द्वारा श्वेताम्बर
प्रस्तुत ग्रन्थ, पृष्ठ ६२६
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