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पादोपगमन संथारा कर सिद्ध हो गये। उनके सात गण आर्य सुधर्मा के गण में विलीन हो गये।
इन्द्रभूति गौतम भी वीर निर्वाण के १२ वर्ष पश्चात् आर्य सुधर्मा को अपना गरण सौंपकर सिद्ध हुए। इस प्रकार भगवान् के दश गणधरों की शिष्य परम्परा और उनकी ८ वाचनाएं उनके (गणधरों के) निर्वाण के साथ ही समाप्त हो गई और परिणामत: केवल सुधर्मा स्वामी की शिष्य-परम्परा और द्वादशांगी की वाचना अवशिष्ट रह गई।
दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में द्वादशांगी की रचना के सम्बन्ध में २ प्रकार की मान्यताएँ उपलब्ध होती हैं । धवलाकार से लगभग ढाई सौ - तीन सौ वर्ष पूर्व हुए प्राचार्य पूज्यपाद देवनन्दी, (विक्रम की छठी शताब्दी) ने तत्त्वार्थ सूत्र पर लिखी गई अपनी 'सर्वार्थसिद्धि' नामक वृत्ति में सभी गणधरों द्वारा द्वादशांगी की रचना की जाने का स्पष्ट उल्लेख करते हुए लिखा है - _ "सर्वज्ञ परमर्षि तीर्थंकर ने अपने परम अचिन्त्य केवलज्ञान की विभूति की विशिष्टता द्वारा प्रर्थरूप से प्रागमों का उपदेश दिया। उन तीर्थंकर के, अतिशय बुद्धि की ऋदि से सम्पन्न श्रुतकेवली गणधरों द्वारा भगवान के उस उपदेश के प्राधार पर जो ग्रन्थों की रचना की गई, उसे अंगपूर्व लक्षण अर्थात् द्वादशांगी कहते हैं।"
इसी प्रकार धवलाकर के पूर्ववर्ती प्राचार्य प्रकलंक देव (वि० ८ वीं शती) ने तत्वार्थ सूत्र की राजवार्तिक टीका' में तथा विक्रम की ६ वीं शती के प्राचार्य विद्यानन्द ने 'तत्वार्थ श्लोक वार्तिक' नामक अपने ग्रन्थ में इसी मान्यता को अभिव्यक्त किया है। (क) परिरिगया गणहरा जीवन्ते णायए एव जगाउ ॥६५८।। [प्रावश्यक नियुक्ति] (स) ..... यश्च याच कालं करोति, स स सुधर्मस्वामिने गणं ददाति.......
[पाव. नि०, गा० ६५८ की मलयवृत्ति] (क) इमे अग्यतारा समणा निग्गंथा विहरंति एए ण सम्मे मजसुहम्मस्स भणगारस्स
'भावधिज्जा, प्रवसेसा गणहरा निरवच्चा निधना। [कल्प स्थविरावली] (ब) मधुनकादशांग्यस्ति, सुधर्मस्वामिभाषिता ॥१४॥
[प्रभावकचरित्र, ८ वृदयादिचरित्र, पृ. ५७] तत्र सर्वशेन परमपिणा परमाचिस्यकेवलज्ञान विभूतिविशेषेण अर्थतः, पागम, उद्दिष्टः । .........."तस्य साक्षात् शिष्यः मुख्यतिशयनियुक्त : गणपरैः श्रुतकेबलिभिरनुस्मृतमन्य रचनम्-अंगपूर्वलक्षणम् ।
[सर्वार्थसिदि, १२.] अंगप्रविष्टमाचारादि द्वादशभेदं बुरापतिशदि-युक्तगणषरानुस्मृत ग्रन्थ रचनम् ॥१२॥ भगवदर्हत्सर्वज्ञहिमवनिगंतवाग्गंगाध्यविमलसलिलप्रक्षालितान्तःकरणः बुद्धपतिशयद्धियुक्तर्ग
पररनुस्मृतप्रन्यरचनम्-प्राचारादि द्वादविधमंगप्रविष्टमित्युच्यते । तद्यथा- प्राचारः, सूत्रकृतम् स्थानम्, समवायः, व्याख्याप्राप्ति.."।।
[तत्वार्थवार्तिक, १९२० - १२, पृ० ७२] ... ................"अहंभाषितार्थ गणधरदेवैः प्रथितम्-इति वचनात् ।
[तस्वार्थ श्लोकवात्तिक, पृ. ६]
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