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सं० १२४ से १३६ के बीच का और उस समय में हुए नैमित्तिक भद्रबाहु से सम्बन्धित बताया गया है।
अवन्ती में भावी द्वादशवर्षीय दुष्काल की नैमित्तिक भद्रबाह द्वारा पूर्व सूचना पर संघ तथा भद्रबाह में दक्षिणगमन का जो विवरण प्राचार्य देव सेन ने प्राचीन गाथा के उल्लेख के साथ भाव संग्रह में किया है, उसकी पुष्टि, श्रमण वेल्गोल पार्श्वनाथ वसति के शक सं० ५२२ (वि० सं० ६५७) के शिला लेख से होती है।'
अब तो गहन शोध के पश्चात् दिगम्बर परम्परा के अन्य अनेक विद्वान् भी स्पष्ट रूप से कहने लगे हैं कि दक्षिण में प्रथम भद्रबाह नहीं अपितु द्वितीय भद्रबाहु गये थे। डॉ० गुलाबचन्द्र चौधरी एम० ए०, पी-एच० डी, प्राचार्य, पुस्तकालयाध्यक्ष एवं प्राध्यापक नवनालन्दा महाविहार (नालन्दा) ने लिखा है :
__ "हम श्रवण वेल्गोल के एक लेख (प्र. भा. नं. १) से जानते हैं कि दक्षिण भारत में सर्वप्रथम भद्रबाह द्वितीय पाये थे और वहां जैन धर्म की प्रतिष्ठा इनसे ही हुई थी, पर कदम्बवंशी नरेशों के एक लेख (६८) से मालूम होता है कि ईसा की ४-५ वीं शताब्दी में जैन संघ के वहां विशाल दो संप्रदाय - श्वेतपट महाश्रमण संघ और निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ - का अस्तित्व था। इसी तरह इस वंश के कई लेखों में जैनों के यापनीय और कुर्चक नाम संघों का उल्लेख मिलता है, जो कि एक प्रकार से उक्त दोनों से भिन्न थे।
दक्षिण भारत में निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय एवं यापनीय तथा कर्चक संप्रदायों की स्थापना किसने की, यह बात स्पष्ट रूप से हमें लेखों से विदित नहीं होती, पर यह कहने में शायद आपत्ति नहीं होगी कि निग्रंन्ध सम्प्रदाय वहां भद्रबाह (द्वितीय) द्वारा स्थापित हुआ।"
उपरिलिखित प्राचीन गाथा, शिला लेख एवं शोधकर्ताओं द्वारा समर्थित प्राचार्य देवसेन के विवरण के विपरीत प्राचार्य हरिषेण (वीर नि० सं० १४५६) ने अपने 'कथाकोश' में वीर नि० सं०६०६ के आसपास हुए निमितज्ञ भद्रबाहु के इस पाख्यान को वीर नि० सं० १६२ में स्वर्गस्थ हुए श्रुत केवली भद्रबाहु के साथ जोड़कर निम्नलिखित नवीन बातें और बढ़ा दी हैं। ....... महावीर सवितरि परिनिते..... गौत्तम... 'लौहार्य जम्बुविष्णुदेवापराजित गोवन-भद्रबाहु-विशाख-प्रोष्ठिल-कृतिकाय-जयनाम-सिद्धार्थ-वृतिषण-बुद्धिवादि गुरु परम्परीण बक्र (क) माम्यागतमहापुरुष-संतति समवद्योति तान्वय भद्रबाहुस्वामिना उज्जयन्यामष्टांगमहानिमित्ततत्त्वज्ञेन काल्पशिना निमित्तेन द्वादशसंवत्सरकालवैषम्यमुपामभ्य कथिते सर्वसंघ उत्तरापपाक्षिणापथं प्रस्थितः ।
[न शिलालेख संग्रह भा० १, शिलालेख सं० १] . [जैन शिलालेख संग्रह, भा. ३ (माणिकचन्द्र दिग. जैन ग्रंथ माला समिति), प्रस्तावना,
पृ. २३]
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