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(नन्दीसूत्र के प्रादि मंगल के रूप में दी गई पट्टावली), गणाचार्य परम्परा (प्रार्य सुहस्ती-परम्परा की कल्पसूत्रीया स्थविरावली) के उपर्युक्त ४१४ वर्ष की अवधि में हुए प्राचार्यों और उनके समय में घटित उल्लेखनीय घटनाओं, राजवंशों एवं विदेशी आक्रमणों प्रादि का संक्षेप में सारभूत परिचय दिया गया है ।
यह प्रकरण भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकरण में जैन काल गणना की एक जटिल गुत्थी को सुलझाने का प्रयत्न किया गया है, जो विगत एक सहस्र वर्षों से विचारकों के लिये एक जटिल समस्या बनी हुई थी।
तित्थोगालिय पइण्णा जैसे प्रामाणिक एवं प्राचीन ग्रन्थ में जैन परम्परा की कालगणना का स्पष्ट तथा निर्विवाद उल्लेख होने के उपरान्त भी ईसा की १०वीं शताब्दी के पश्चात के दिगम्बर एवं श्वेताम्बर-दोनों ही परम्परानों के कतिपय ग्रन्थों में श्रुतकेवली भद्रबाहु के स्वर्गस्थ होने के ४५ वर्ष (तिलोयपण्णत्ती हरिवंशपुराण, धवला आदि की दृष्टि से ५३ वर्ष) पश्चात् नन्द साम्राज्य का अन्त कर मगध साम्राज्य के राजसिंहासन पर आसीन होने वाले मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त को श्रुतकेवली भद्रबाह का समकालीन बताया गया है। श्वेताम्बर परम्परा के कुछ एक ग्रन्थों में जहाँ चन्द्रगुप्त को भद्रबाहु का श्रद्धालु धावक बताया गया है वहाँ दिगम्बर परम्परा के हरिषेणकृत कथाकोश, रत्ननन्दीकृत भद्रबाहुचरित्र प्रभृति कथासाहित्य के ग्रन्थों में चन्द्रगुप्त द्वारा श्रुतकेवली भद्रबाहु के पास निर्ग्रन्थ श्रमण दीक्षा ग्रहण किये जाने तक का उल्लेख किया गया है। दिगम्बर परम्परा में यह सर्वसम्मत मान्यता प्रचलित रही है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु वीर निर्वाण सं० १६२ में स्वर्गस्थ हुए । दिगम्बर परम्परा के सर्व ग्रन्थों में भी इसी प्रकार का उल्लेख विद्यमान है। श्वेताम्बर परम्परा के एतद्विषयक सभी ग्रन्थों में भी स्पष्ट उल्लेख है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु वीर नि० सं० १७० में स्वर्गवासी हुए।
दूसरी ओर यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि चाणक्य की सहायता से चन्द्रगुप्त मौर्य ने वीर निर्वाण सं० २१५ में नन्द साम्राज्य का अन्त कर मगध साम्राज्य के रायसिंहासन पर प्रारूढ़ हो मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। पर श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के उपरिवरिणत उल्लेखों के अनुसार यदि मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त को श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाह का श्रावक अथवा श्रमणशिष्य माने तो इस दशा में या तो श्रुतकेवली भद्रबाहु के स्वर्गारोहण काल को वीर निर्वाण सं० २१५ के १०-२० वर्ष पश्चात् लाना पड़ेगा या फिर नन्द साम्राज्य के अंत एवं मौर्य साम्राज्य के जन्म काल को वीर नि० सं० १६२ अथवा १७० से न्यून से न्यूनतम १५-१६ वर्ष पीछे की ओर ले जाना पड़ेगा। जैन साहित्य में दोनों प्रकार के उदाहरण उपलब्ध हैं। दिगम्बर परम्परा के कवि ' प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ३५१ २.दिगम्बर परम्परा के कवि रयधू ने श्रुतकेवली भद्रबाह के स्वर्गगमन काल को वीर नि० सं० ३३० के आसपास ला रखा है।
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