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रयधू ने श्रुतकेवली भद्रबाहु को अशोक के पौत्र-णयलु (कुरणाल) के पुत्र चन्द्रगुप्ति (सम्प्रति) का समकालीन बता कर श्रुतकेवली भद्रबाहु का प्राचार्यकाल वीर नि० सं० ३३० के आसपास ला रखा है। दूसरा उदाहरण है श्वेताम्बर परंपरा के आचार्य हेमचन्द्रसूरि और दिगम्बर आचार्य हरिषेण तथा रत्ननन्दी का, जिन्होंने श्रुतकेवली भद्रबाहु और मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त को समकालीन बताकर प्राचार्य भद्रबाहु का स्वर्गगमन काल क्रमशः वीर नि० सं० १७० तथा १६२
और चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण का समय वीर नि० सं० १६२ के पूर्व और हिमवन्त स्थविरावलीकार ने तो शब्दों में वीर नि० सं० १५४ में ला रखा है।
काल गणना में इस प्रकार का ६० वर्ष का अन्तर कब और किस कारण माया इस पर निष्पक्ष दृष्टि से चिन्तन किया जाय तो एक कारण प्रतीत होता है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि ईसा की ११ वीं शताब्दी के दिगम्बर आचार्य हरिषेण ने संभवतः दिगम्बर परम्परा को अति प्राचीन और श्वेताम्बर परम्परा को उससे अर्वाचीन सिद्ध करने के अभिप्राय से वीर नि० सं० ६०६ में उत्पन्न हुए सम्प्रदाय भेद की घटना को श्रुतकेवली भद्रबाहु से सम्बद्ध किया हो। इसके साथ ही साथ यह भी संभव है कि दिगम्बर परम्परा को लोक में प्रभावना हो इस दृष्टि से भद्रबाहु के पास मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के दीक्षित होने तथा दीक्षित चन्द्रगुप्त का ही नाम विशाखाचार्य रखे जाने का उल्लेख किया हो । चन्द्रगुप्त मौर्य जैसा बड़ा सम्राट भी जैन धर्मावलम्बी और श्रुतकेवली भद्रबाह का अनन्य श्रद्धालु श्रावक था- यह जान कर लोगों में जैन-धर्म की प्रभावना होगी इस उद्देश्य से दिगम्बर परम्परा के प्राचार्य हरिषेण का अनुसरण करते हुए श्वेताम्बर परम्परा के प्राचार्यों ने भी मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त को श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु का समकालीन एवं परमभक्त श्रावक बताया हो।
दोनों परम्पराओं के एतद्विषयक सभी उल्लेखों का समीचीनतया पर्यालोचन करने पर एक आश्चर्यजनक तथ्य प्रकाश में आता है कि दिगम्बर परम्परा के हरिषेण रत्ननन्दी प्रादि प्राचार्यों ने भद्रबाहु चन्द्रगुप्त विषयक कथानकों में इन दोनों के संवत् काल आदि का कहीं उल्लेख तक नहीं किया है। इस दृष्टि से भी इतिहास के क्षेत्र में इन कथानकों का एक किंवदन्ती से अधिक महत्व नहीं रह जाता।
आचार्य हेमचन्द्र ने भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त को समकालीन बताकर स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है कि प्राचार्य भद्रबाहु वीर नि. सं. १७० में स्वर्गस्थ हुए। प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा किये गये इस उल्लेख से यह स्पष्टरूपेण प्रकट होता है कि इन दोनों को समकालीन बताते समय उन्होंने प्राचार्य परम्परा की काल गणना का तो पूरा ध्यान रखा है पर राज्य काल गणना में पालक के राज्यकाल के ६० वर्षों की गणना करना वे एकदम भूल गये' और इस प्रकार वीर नि० ' एवं च श्री महावीर, मुक्तेर्वर्षशतेगते । पंचपंचाशदधिके, चन्द्र गुप्तोऽभवन्नपः ।।३३६।। [परिशिष्ट पर्व]
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