________________
ने सोलह प्रहर की अपनी अन्तिम देशना में पुण्य फल के ५५, पाप फल विपाक' के ५५ एवं अप्रष्ट व्याकरण (उत्तराध्ययन) के ३६ अध्ययन कहे और ३७ वें अध्ययन का उपदेश देते देते वे शैलेशी दशा में पहुँच निर्वाण को प्राप्त हो गये ।
इस प्रकार श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के उपरिचित उल्लेखों के पर्यालोचन से यही निष्कर्ष निकलता है कि द्वादशांगी की रचना किसी एक गणधर ने नहीं अपितु सभी गणधरों ने की और निर्वाणानन्तर पश्चाद्वर्ती काल में समय समय पर आवश्यकतानुसार चतुर्दश पूर्वधर तथा कम से कम दशपूर्वधर आचार्यों ने अंगबाह्य आगमों की दृष्टिवाद के पूर्वांग में से संकलना की।
प्राचार्य वीरसेन ने गौतम द्वारा द्वादशांगी के साथ ही अंगवर्ण्य १४ प्रागमों की रचना का जो उल्लेख धवला में किया है, उस पर एक प्रश्न उपस्थित होता है। वह यह है कि दिगम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थकारों एवं स्वयं धवलाकार के उल्लेखानुसार वीर नि० सं०६८३ के पश्चात् सम्पूर्ण द्वादशांगी में से किसी एक अंग तक का ज्ञाता मुनि भी यहां विद्यमान नहीं रहा। ऋमिक ह्रास होते होते वीर निर्वाण संवत् ६८३ में अवशिष्ट अंतिम अंग प्राचारांग का भी आर्यधरा से लोप हो गया । तब प्रश्न उठता है कि अंगवयं पागमों का क्या हुआ? वे कुछ अवशिष्ट रहे, अथवा द्वादशांगी के साथ हो सबके सब विलुप्त हो गये ? न तो धवलाकार ने इस विषय में कोई उल्लेख किया है और न किसी अन्य ग्रन्थकार ने ही। इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर शोधप्रिय विद्वान् अवश्य प्रकाश डालेंगे ऐसी प्राशा है।
२. श्रुतकेवलिकाल-पृष्ठ २६१ से ३८० तक कुल ८६ पृष्ठों के इस प्रकरण मैं श्रुतकेवलिकाल के चतुर्दशपूर्वधर ५ प्राचार्यों के जीवन परिचय के साथ श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में उन प्राचार्यों की समान संख्या किंतु नामभेद, उनके समय में घटित विशिष्ट ऐतिहासिक महत्व की घटनाओं, दशवकालिकसूत्र की रचना, प्रथम आगम वाचना, छेदसूत्रों की रचना, भद्रबाहु के इतिवृत्त को लेकर दोनों परम्परामों में व्याप्त कतिपय भ्रान्त धारणामों, भिन्न समय में हुए प्राचार्य भद्रबाहु और मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त को समकालीन ठहराने तथा उनके समय में दिगम्बर श्वेताम्बर-भेद के तथाकथित बीजारोपण की केवल काल्पनिक (एवं नितान्त निर्मल) मान्यता के जन्म तथा क्रमिक विकास, उपलब्ध नियुक्तियों को श्रुतकेवली भद्रबाह की रचना मानने विषयक भ्रान्ति, प्रोसवाल वंश की उत्पत्ति, गोदास गण तथा सर्वप्रथम गोदासगरण और उसकी शाखाओं के प्रादुर्भाव आदि महत्व के अनेक विषयों पर अनुसन्धानात्मक विवेचन प्रस्तुत कर यथाशक्य पूरा प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है ।
___ यह प्रकरण वस्तुतः अनेक दृष्टियों से बड़ा ही महत्वपूर्ण है । श्वेताम्बर और दिगम्बर - दोनों ही परम्परागों के परवर्ती ग्रन्थकारों द्वारा वीर निर्वाण
ये दोनों विपाकमूत्र से भिन्न हैं, वर्तमान में उपलब्ध नहीं होते । २ देखिये जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग १, पृ० ४७०
( ८६ )
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org