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Home मुनि के हितार्थ श्राचार्य शय्यंभव द्वारा द्वादशांगी में से दशवैकालिक सूत्र के निर्यूह किये जाने का स्पष्ट उल्लेख दशवेकालिक नियुक्ति की निम्नलिखित गाथा में किया गया है :
मरणगं पडुच्च सज्जंभवेरण, निज्जूहिया दसज्भयरणा ! वेयालियाइ ठविया, तम्हा दसकालियं गाम ।। '
इस प्रकार श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराम्रों के प्राचीन एवं प्रामाणिक माने जाने वाले ग्रन्थों के उपर्युद्धत उल्लेखों से यह सिद्ध होता है कि गणधरों ने प्रभु महावीर के उपदेश के आधार पर केवल द्वादशांगी की ही प्रतिरचना की । द्वादशांगी वस्तुतः गणधरों की कोई स्वतन्त्र रचना नहीं है । अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त चारित्र के धनी तीर्थंकर प्रभु महावीर ने जो निखिलार्थ प्रतिपादी अथाह ज्ञान का उपदेश दिया उस ही को कतिपय अंशों में हृदयंगम कर गरणधरों ने उसे द्वादशांगी का रूप दिया; श्रतः उनकी इस ग्रथन क्रिया के लिये रचना की अपेक्षा प्रतिरचना शब्द का प्रयोग विशेष उपयुक्त जंचता है । वस्तुत: द्वादशांगी में समस्त ज्ञेय को समाविष्ट कर दिया गया था । उसमें प्रतिपादित ज्ञान के प्रतिरिक्त कोई विशिष्ट ज्ञातव्य प्रवशिष्ट ही नहीं रह गया था, जिसके लिये द्वादशांगी के अतिरिक्त और किसी आगम की प्रतिरचना की गणधरों को आवश्यकता रहती ।
"जस्स जत्तियाई सीसाई तस्स तत्तियाई पइण्णगसहस्साई " - नन्दीसूत्र के इस उल्लेखानुसार भगवान् महावीर के साक्षात् शिष्यों (गरणधरों के अतिरिक्त ) तथा प्रत्येक बुद्धों, शय्यंभव और भद्रबाहु जैसे चतुर्दश- पूर्वघर तथा श्यामार्य जैसे दशपूर्वधर एवं श्रुतार्थतत्त्वपारगामी देवद्धि जैसे प्राचार्यों द्वारा द्वादशांगी के प्रथाह ज्ञान में से साधकों के लिये परमोपयोगी ज्ञान को चुन-चुन कर पृथक्-पृथक् प्रकीरों के रूप में संकलित आगम ही अंगबाह्य आगम हैं । यदि संक्षेप में यह कहा जाय तो उपयुक्त होगा कि अंगवाह्य ग्रागम द्वादशांगी रूपी प्रगाध श्रमृतसागर में से भर कर पृथकतः रखे हुए ग्रमृतघट तुल्य हैं ।
इन सब तथ्यों के पर्यालोचन के पश्चात् सुनिश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि प्रभु की प्रथम देशना के पश्चात् उसी दिन गणधरों ने द्वादशांगी की रचना की । तदनन्तर तीर्थंकर के समस्त प्रतिशयों से युक्त भगवान् महावीर ने ३० वर्ष तक विचरण करते हुए अपनी देशनात्रों में समसामायिक, भूत प्रथवा भावी घटनाओं, चरित्रों, दृष्टान्तों आदि प्रसंगोपात्त विविध विषयों का जो दिग्दर्शन कराया उनके आधार पर स्थविरों ने श्रागमों की रचना की। जैसा कि 'उत्तराध्ययन' शब्द की व्युत्पत्ति से स्पष्टतः प्रकट होता है कि यह सूत्र प्रभु महावीर द्वारा दिये गये उत्तरकालवर्ती उपदेशों के आधार पर प्रथित अध्ययनों का संकलन है | समवायांग और कल्पसूत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान् महावीर " दशवंकालिक नियुक्ति, गा. १५ ( वही )
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