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पूज्यपाद देवनन्दी ने तत्त्वार्थ सूत्र की अपनी सर्वार्थ-सिद्धिवृत्ति में दशवैकालिक प्रादि अंगबाह्य प्रागमों को प्रारातीय आचार्यों की रचना बताते हुए लिखा है :
_ "पारातीयैः पुनराचार्य: कालदोषात्संक्षिप्तायुर्मतिबलशिष्यानुग्रहाथ दशवैकालिकाद्युपनिबद्धम् । तत्प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिति क्षीरार्णवजलं घटगृहीतमिव ।
पूज्यपाद देवनन्दी के इस उल्लेख से सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि उनके समय तक दिगम्बर परम्परा में भी दशवकालिक एकादशांगी के समान परम प्रामाणिक माना जाता था।"
दिगम्बर आचार्य अकलंक देव ने भी तत्त्वार्थ वात्तिक में अंग बाह्य आगमों को पारातीय प्राचार्यों द्वारा रचित बताते हुए लिखा है :
"पारातीयाचार्य-कृतांगार्थ-प्रत्यासन्नरूपमङ्गबाह्यम् ।।१३।।
यद्गणधर-शिष्य-प्रशिष्यरारातीयरधिगतश्रुतार्थतत्त्वः कालदोषादल्पमेधायुर्बलानां प्राणिनामनुग्रहार्थमुपनिबद्धं संक्षिप्तांगार्थवचनविन्यासं तदंगबाह्यम् ।
दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थ मूलाचार में सूत्र की परिभाषा करते हुए बताया गया है कि गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतिकेवली और सम्पूर्ण १० पूर्वो के धारण करने वाले प्राचार्यों द्वारा ग्रथित आगम को ही श्रुत के नाम से अभिहित किया जा सकता है । यथा :
सुत्तं गणहरकथिदं, तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च । । सुदकेवलिणाकथिदं, अभिण्णदसपुवकथिदं च ॥४॥
श्वेताम्बर परम्परा के टीका, चूणि भाष्य प्रादि मान्य ग्रन्थों में अंग प्रविष्ट (द्वादशांगी) को गणधरों द्वारा ग्रथित एवं अंगबाह्य आगमों को विशुद्ध प्रागम बुद्धि संयुक्त (चतुर्दशपूर्वधर एवं अभिन्न दशपूर्वधर) प्राचार्यों द्वारा द्वादशांगी के आधार पर रचित माना गया है। . सर्वार्थ सिटि, १, २०, पृ० १२४ • तत्वार्थ बार्तिक, १. २०, पृ० ७८ ३ मूलाचार ३.८० • जे परहंतेहि भगवंतेहिं प्रईयाणागयवट्टमाण - दव्ववेत्तकालमावजयावरियतवंसीहिं प्रत्या परूविया ते गणहरेहिं परमबुद्धिसन्निवायगुणसंपरणेहि सयं चेव तित्थगरसगासाम्रो उवलभिऊणं सम्व-सतारणं हितट्ठयाय सुतत्तेण उवरिणबढा तं अंगपविठ्ठ, मायाराइ दुवालसविहं । [प्रावश्यक चूणि, भाग १, पृ०८] जं पुण अण्णेहिं विसुद्धागमबुद्धिजुत्तेहिं थेरेहि प्रप्पाउयाणं मरणुयाणं प्रप्पबुद्धिसत्तीणं च दुग्गाहकति गाऊण तं चेव पायाराइ सुयणाणं परंपरागतं अत्थतो गंथतो य प्रति बहुति काऊण अणुकम्पाणिमित्तं दसवेतालियमादि परूवियं तं प्रणेगभेदं अगपविट्ठ।
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