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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
लेखक डॉ० शोभाकान्त मिश्र
बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी
पटना-३
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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
लेखक डॉ० शोभाकान्त मिश्र
तटीग्रंथ 14 .4
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लेबनीमा
बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी
पटना-३
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सर्वाधिकार बिहार हिंदी पंथ अकादमी द्वारा सुरक्षित विश्वविद्यालय-स्तरीय ग्रंथ-निर्माण योजना के अंतर्गत भारत सरकार (शिक्षा एवं समाज-कल्याण मंत्रालय ) के शत-प्रतिशत अनुदान से बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी द्वारा प्रकाशित
प्रकाशन सं० २७
प्रथम संस्करण, फरवरी, ७२
बिहार हिन्दी ग्रंथ अकीदमाए पटक संशोधित मूल्य रू.-358300
प्रकाशक: बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी, पटना-३
मुद्रक : हिन्दुस्तानी प्रेस, पटना-४
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प्रस्तावना
शिक्षा-संबंधी राष्ट्रीय नीति-संकल्प के अनुपालन के रूप में विश्वविद्यालयों में उच्चतम स्तरों तक भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा के लिए पाठ्यसामग्री सुलभ करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने इन भाषाओं में विभिन्न विषयों के मानक ग्रंथों के निर्माण, अनुवाद और प्रकाशन की योजना परिचालित की है। इस योजना के अंतर्गत अंग्रेजी और अन्य भाषाओं के प्रामाणिक ग्रंथों का अनुवाद किया जा रहा है तथा मौलिक ग्रंथ भी लिखाए जा रहे हैं। यह कार्य भारत-सरकार विभिन्न राज्य सरकारों के माध्यम से तथा अंशतः केंद्रीय अभिकरण द्वारा करा रही है। हिंदी-भाषी राज्यों में इस योजना के परिचालन के लिए भारत सरकार के शत-प्रतिशत अनुदान से राज्य सरकार द्वारा स्वायत्तशासी निकायों की स्थापना हुई है। बिहार में इस योजना का कार्यान्वयन बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी के तत्वावधान में हो रहा है।
योजना के अंतर्गत प्रकाश्य ग्रंथों में भारत सरकार द्वारा स्वीकृत मानक पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग किया जाता है, ताकि भारत को सभी : शैक्षणिक संस्थाओं में समान पारिभाषिक शब्दावली के आधार पर शिक्षा का आयोजन किया जा सके। ।
. प्रस्तुत ग्रंथ 'अलंकार-धारणा : विकास और विश्लेषण' डॉ० शोभाकांत मिश्र को मौलिक कृति है, जो भारत-सरकार के शिक्षा एवं समाज कल्याण मंत्रालय के शत-प्रतिशत अनुदान से बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी द्वारा प्रकाशित की जो रही है। स्नातकोत्तर स्तर के विद्याथियों, शोष-छात्रों तथा प्राध्यापकों के लिए यह ग्रंथ उपयोगी सिद्ध होगा। __आशा है, अकादमी द्वारा मानक ग्रंथों के प्रकाशन-संबंधी इस प्रयास का सभी क्षेत्रों में स्वागत किया जायगा।
अम्भिीगा घरी
पटना
अध्यक्ष बिहार हिंदी अंथ अकादमी
दिनांक २०-४-७२
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प्रकाशकोय वक्तव्य
प्रस्तुत ग्रंथ 'अलंकार-धारणा : विकास और विश्लेषण डॉ० शोभाकान्त मिश्र, प्राध्यापक, पटना कॉलेज की मौलिक कति है। डॉ. मिश्र एक अनुभवी लेखक तथा विद्वान हैं। आशा है, यह ग्रंथ छात्रों के लिए उपयोगी होगा। ___ इस ग्रंथ का मुद्रण-कार्य हिन्दुस्तानी प्रेस, भिखनापहाड़ी, पटना-४ ने किया है । आवरण-शिल्पी पटना स्कूल
ऑफ आर्ट्स के प्रोफेसर श्री श्याम शर्मा हैं और प्रफसंशोधन का कार्य श्री लालबहादुर प्रसाद ने किया है। ये सभी हमारे धन्यवाद के पात्र हैं।
प्रसाद
पटना दिनांक ६-५-१९७२
निदेशक बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी
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• समर्पण
पूज्य पिताजी
तथा
स्नेहमयी माँ
को
सादर, सभक्ति
- शोभाकान्त मिश्र
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भूमिका
काव्य-सौन्दर्य की अभिवृद्धि करने वाले अलङ्कार का अध्ययन-विश्लेषण भारतीय काव्यशास्त्रीय चिन्तन का प्रधान अङ्ग रहा है । अलङ्कार प्रस्थान में तो काव्यालङ्कार को काव्य-तत्त्वों में मूर्धन्य माना ही गया, अलङ्कारेतर प्रस्थानों में भी उसका महत्त्व किसी न किसी रूप में स्वीकृत हुआ है । रीतिप्रस्थान के प्रबल प्रतिष्ठाता वामन ने औपम्यमूलक अलङ्कारों के स्वरूप का विवेचन किया । ध्वनिवादी आचार्य आनन्दवर्धन ने अपृथग्यत्ननिर्वर्त्य अलङ्कारों को ध्वनि - काव्य में उपादेय माना । वक्रोक्तिवादी कुन्तक ने न केवल कुछ अलङ्कारों के स्वरूप का निरूपण किया वरन् अलङ्कार और अलङ्कार्य के भेदाभेद के प्रश्न का सूक्ष्म विवेचन कर उसका युक्तिसङ्गत समाधान निकाला । रस- सिद्धान्त के प्रवर्तक भरत से लेकर विश्वनाथ आदि रसवादी आचार्यों की रचनाओं में अलङ्कारों का स्वरूप - विश्लेषण होता रहा है । ध्वनिsवंस - प्रस्थान के प्रतिष्ठाता महिम भट्ट ने भी काव्य-वस्तु में उत्कर्ष या अपकर्ष की प्रतिष्ठा के लिए अलङ्कार की उपादेयता स्वीकार की । अलङ्कारवादी जयदेव आदि ने तो अलङ्कार के अभाव में काव्यत्व की कल्पना को ही शीतल अनल की कल्पना की तरह असङ्गत मान लिया ।
विभिन्न काव्य-तत्त्वों
भारतीय साहित्यशास्त्र में जितना ऊहापोह अलङ्कार के सम्बन्ध में हुआ है, उतना किसी दूसरे काव्य-तत्त्व के सम्बन्ध में नहीं । का विवेचन - विश्लेषण करने वाले आचार्यों ने भी अपने ग्रन्थ के एक-दो प्रकरणों में काव्यालङ्कार के स्वरूप का निरूपण किया है, अनेक आचार्यों ने केवल अलङ्कार पर स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना की है ।
अलङ्कार के इस महत्त्व का रहस्य यह है कि वे उक्ति के प्रभाव की वृद्धि में सहायक होते हैं। मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह अपनी उक्ति को अधिकाधिक प्रभावोत्पादक बनाकर प्रस्तुत करना चाहता है। इस उद्देश्य से काव्य-भाषा में ही नहीं, लोक भाषा में भी अनेक अलङ्कारों का
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[ ख ] प्रयोग किया जाता है। उन समग्र अलङ्कारों के साङ्गोपाङ्ग निरूपण की उपादेयता असन्दिग्ध है। प्रस्तुत ग्रन्थ में अलङ्कार-तत्त्व के सर्वाङ्गीण विवेचन का प्रयास किया गया है। __ प्रथम अध्याय में अलङ्कार के सामान्य स्वरूप का निर्धारण कर काव्य में उसके स्थान के सम्बन्ध में विभिन्न मतों की परीक्षा की गयी है। एक सम्प्रदाय के आचार्यों ने अलङ्कार को काव्य का अन्तरङ्ग धर्म माना तो दूसरे सम्प्रदाय के आचार्यों ने बहिरङ्ग धर्म ! कुछ आचार्यों ने अलङ्कार को काव्य-सौन्दर्य से अभिन्न माना तो दूसरे आचार्यों ने उसे काव्य-सौन्दर्य की वृद्धि में यदा-कदा सहायता करने वाला अनित्य तत्त्व मान लिया । अलङ्कार • को अलङ कृत भाषा में लौकिक हार आदि आभूषण के समान कहने से भी
कुछ भ्रान्त धारणा उत्पन्न हो गयी। कुछ लोगों ने यह समझ लिया कि जैसे 'हार आदि आभूषण कभी गले में डाल लिये जाते हैं और स्वेच्छा से गले से निकाल दिये जाते हैं उसी तरह उक्ति से अलङ्कार को जोड़ा या हटाया जा सकता है। किन्तु तथ्य यह है कि उक्ति अपने आप में पूर्ण, अखण्ड अभिव्यञ्जना होती है। यदि उक्ति अलङ कृत है तो अलङ्कार उसका अन्तरङ्ग घटक होगा, जिसे निकाल देने पर उस उक्ति का अस्तित्व ही मिट जायगा। इसी प्रकार किसी उक्ति में नये अलङ्कार को जोड़ देने से भी उस उक्ति का अपना अस्तित्व मिट जायगा और जो उक्ति-रूप बनेगा वह पहली उक्ति के रूप से सर्वथा भिन्न होगा। इस तथ्य को दृष्टि में रख कर हमने इस अध्याय में "काव्य में अलङ्कार के स्थान के सम्बन्ध में विभिन्न मान्यताओं की परीक्षा कर स्वस्थ निर्णय पर पहुँचने का प्रयास किया है। इसी प्रसङ्ग में अलङ्कार और अलङ्कार्य के भेदाभेद के प्रश्न पर भी विचार किया गया है । प्रश्न यह है कि यदि अलङ्कार अलङ कृत करने वाले धर्म हैं तो वे अलङ कृत "किसे करते हैं ? दूसरे शब्दों में, उनसे अलङ कृत होने वाला अलङ्कार्य क्या
है ? अलङ्कार और अलङ्कार्य का पारसरिक सम्बन्ध कैसा होता है ? "भारतीय साहित्यशास्त्र में इन प्रश्नों का बड़ा ही सूक्ष्म, यौक्तिक समाधान प्रस्तुत किया गया है। तत्त्वतः उक्ति अखण्ड होती है। उसमें अलङ्कारअलङ्कार्य का तात्त्विक भेद नहीं। पर वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए उस अखण्ड की खण्ड-कल्पना की जाती है-अलङ्कार और अलङ्कार्य के बीच कल्पित भेद किया जाता है। अलङ्कार और अलङ्कार्य के भेदाभेद के प्रश्न पर विचार करने के क्रम में हमने भारतीय मनीषियों के चिन्तन के
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[ ग ] साथ क्रोचे आदि पाश्चात्य विचारकों की मान्यता का भी मूल्याङ्कन किया है। इस प्रकार अलङ्कार का स्वरूप, अलङ्कार और अलङ्कार्य का भेदाभेद तथा अन्य काव्य-तत्त्वों से अलङ्कार का सापेक्ष महत्त्व प्रथम अध्याय का विवेच्य है।
द्वितीय अध्याय में अलङ्कार-धारणा के विकास का अध्ययन किया गया है। काव्यशास्त्र की प्रथम उपलब्ध रचना 'नाट्यशास्त्र' में केवल चार अलङ्कारों का स्वरूप-विवेचन हुआ है। पीछे चलकर अलङ्कारों की संख्या में वृद्धि होती गयी। संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र में ही लगभग दो सौ अलङ्कारों के नाम-रूप कल्पित हुए हैं। हिन्दी-रीति-साहित्य में भी लगभग बीस नूतन अभिधान वाले अलङ्कारों की कल्पना की गयी है । बीच-बीच में अलङ्कारों की संख्या को परिमित करने का भी प्रयास होता रहा है। इस प्रकार लगभग सवा सौ अलङ्कार आज स्वीकृत हैं। अलङ्कार-धारणा के विकास को समझने के लिए, चार मूल अलङ्कारों से इतने अलङ्कारों के विकास के कारणों की परीक्षा आवश्यक है। अनेक आधुनिक विद्वानों ने यह मानकर सन्तोष कर लिया है कि भरत के समय अलङ्कार-धारणा अविकसित थी; पीछे चलकर उसमें क्रमिक विकास होता गया। इसके विपरीत अभिनव गुप्त के गुरु भट्ट तौत ने समग्र अलङ्कार-.. प्रपञ्च को बीज रूप में आचार्य भरत की अलङ्कार एवं लक्षण की धारणा में अन्तनिहित मान कर कहा था कि विभिन्न लक्षणों के योग से अलङ्कारों में वैचित्र्य आता है। अभिनव गुप्त ने इस मत का समर्थन किया और सभी सादृश्यमूलक अलङ्कारों को उपमा अलङ्कार का प्रपञ्च कहा।
हमने अलङ्कारों के स्रोत पर विचार करते हुए भट्ट तौत तथा अभिनव गुप्त के कथन के औचित्य की परीक्षा की है। इस अध्ययन के क्रम में कई नये तथ्य सामने आये है । काव्य-लक्षणों ने अपना अस्तित्व विसर्जित कर अनेक अलङ्कारों को जन्म दिया है । लक्षण तथा अलङ्कार के योग से कुछ अलङ्कारों के स्वरूप बने हैं, एक लक्षण का अन्य लक्षण के साथ योग होने से भी कुछ नवीन अलङ्कार आविर्भूत हुए हैं। कुछ लक्षणों के नाम-रूप ही किञ्चित् परिवर्तन के साथ अलङ्कार के रूप में स्वीकृत हो गये हैं। इसके अतिरिक्त गुण आदि की धारणा ने भी नये अलङ्कारों की स्वरूप-कल्पना में योग दिया है। स्मृति, भ्रान्ति, सन्देह, वितर्क आदि की धारणा दर्शन की ज्ञान-मीमांसा के क्षेत्र से आयी और उसे काव्यालङ्कार के रूप में स्वीकार कर लिया गया। दर्शन में विवेचित प्रमाणों को भी प्रमाणालङ्कार के रूप में स्वीकृति मिली। इस प्रकार विभिन्न स्रोतों से काव्यालङ्कार-धारणा का संवर्धन होता रहा है । समय-समय पर
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[ घ ] अनेक आचार्यों ने काव्योक्ति के सुन्दर प्रकार को दृष्टि में रखकर नये अलङ्कारों के स्वरूप की उद्भावना भी की है। अतः, अलङ्कार की संख्या वृद्धि के सम्बन्ध में भट्टतौत तथा अभिनव गुप्त की मान्यता किञ्चित् परिष्कार के साथ ही स्वीकार की जा सकती है। भरत के काल में अलङ्कारों की संख्या-परिमिति को देखकर अलङ्कार-धारणा को अविकसित मान बैठना भी आलोचक के दृष्टिसङ्कोच का ही परिचायक होगा। उनकी लक्षण-धारणा के सन्दर्भ में उनकी अलङ्कार-मीमांसा का औचित्य समझा जा सकता है।
तृतीय अध्याय में हिन्दी-रीति-साहित्य में नवोद्भावित अलङ्कारों के स्रोत पर विचार किया गया है। इसमें रीति-आचार्यों की अलङ्कार-विषयक उद्भावना के सम्बन्ध में प्रचलित कई भ्रान्तियों का निराकरण कर निर्धान्त तथ्य की स्थापना का प्रयास किया गया है।
चतुर्थ अध्याय में सभी स्वीकार्य अलङ्कारों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है। संस्कृत तथा हिन्दी के अनेक आचार्यों ने अलङ्कारों के आश्रय के आधार पर शब्दगत, अर्थगत तथा उभयगत अलङ्कार-वर्गों में उनका विभाजन किया था। अर्थालङ्कारों का मूल-तत्त्वों के आधार पर भी वर्ग-विभाजन करने का प्रयास हुआ था; किन्तु उनके वर्गीकरण की सीमा यह थी कि उन्होंने अपने-अपने अलङ्कारों का ही वर्गीकरण किया था। यह अस्वाभाविक नहीं था। उन-उन आचार्यों के द्वारा स्वीकृत तथा वर्गीकृत अलङ्कारों के अतिरिक्त "भी कई अलङ्कार स्वीकार्य हैं। अतः, सभी स्वीकार्य अलङ्कारों के वर्गीकरण के लिए व्यापक आधार की आवश्यकता जान पड़ी। वर्गीकरण के जो युक्तिसङ्गत आधार विभिन्न आचार्यों ने प्रस्तुत किये थे, उन्हें समन्वित रूप में स्वीकार कर हमने अलङ्कारों को वर्गीकृत किया है, साथ ही उन वर्गों में नहीं आ पाने वाले अलङ्कारों के लिए नवीन वर्गों की भी कल्पना की है। हमारी मान्यता है कि अलङ्कार विशेष को वर्ग-विशेष में रखने का दुराग्रह स्वस्थ समीक्षा की दृष्टि नहीं। एक ही अलङ्कार विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न वर्गों में
आ सकता है। हमने स्वीकृत वर्गों के अतिरिक्त एक 'प्रकीर्ण' वर्ग माना है, 'जिसके उपवर्गों में कई दृष्टियों से अलग-अलग प्रकृति वाले अलङ्कारों को रखा है।
पञ्चम अध्याय में एक-एक अलङ्कार के स्वरूप-विकास का अध्ययन किया गया है। एक ही अलङ्कार के स्वरूप के सम्बन्ध में अनेक आचार्यों ने अनेक प्रकार की धारणाएँ प्रकट की हैं। हमने प्रत्येक अलङ्कार के सम्बन्ध में संस्कृत
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[ . ] तथा हिन्दी के सभी वरेण्य आचार्यों की मान्यता का समीक्षात्मक अध्ययन किया है।
षष्ठ अध्याय में मिलते-जुलते स्वरूप वाले अलङ्कारों के पारस्परिक भेद का शास्त्रीय विवेचन किया गया है। जब थोड़े-थोड़े भेद के आधार पर नवीन-नवीन अलङ्कारों के स्वरूप की कल्पना की प्रवृत्ति बढ़ी, तब उनके स्वरूप को ठीक-ठीक समझने के लिए, उनके पारस्परिक भेद का विवेचन भी आवश्यक हो गया। आचार्यों ने प्रत्येक अलङ्कार के व्यावर्तक धर्म का निर्देश किसी-न-किसी रूप में किया है। उस सङ्कत-सूत्र का सहारा लेकर हमने अलङ्कारों के पारस्परिक भेद का विवेचन किया है।
सप्तम अध्याय में भाषा की दृष्टि से अलङ्कार के स्वरूप और कार्य पर विचार किया गया है। आचार्यों ने काव्य के शब्द और अर्थ की प्रभाव-वृद्धि की दृष्टि से ही अलङ्कारों का स्वरूप-निरूपण किया है; पर लोक-व्यवहार की भाषा में भी अलङ्कारों का कम महत्त्व नहीं। कहीं-कहीं आलङ्कारिक प्रयोग अर्थबोध के अनिवार्य साधक बन जाते हैं । अतः, भाषाशास्त्रीय दृष्टि से अलङ्कार पर स्वतन्त्र अध्याय में विचार करने की आवश्यकता जान पड़ी।
अन्तिम अध्याय में मनोभाव के साथ अलङ्कार के सम्बन्ध का विवेचन किया गया है। प्रहर्षण, विषादन-जैसे कुछ अलङ्कार मनोभाव से प्रत्यक्षतः सम्बद्ध हैं; पर अधिकांश अलङ्कार शब्दार्थ से सम्बद्ध रहकर उनके माध्यम से परम्परया मनोभाव को प्रभावित करते हैं। प्रत्येक उक्ति-भङ्गी मन पर'परम्परया ही सही-अलग-अलग रूप में प्रभाव डालती है। इस दृष्टि से हमने मनोभाव के सन्दर्भ में अलङ्कार के स्वरूप और कार्य पर विचार किया है ।
उपसंहार में सम्पूर्ण ग्रन्थ के विवेचन का सार प्रस्तुत किया गया है।
जिन विद्वानों की कृतियों से मुझे सहायता मिली है, उनका अभार मानता हूँ। पूज्य गुरु आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा के स्नेहसिक्त प्रोत्साहन तथा सत्परामर्शी से मैं सदा उपकृत होता रहा हूँ। पूज्य गुरु डॉ० शीतांशुशेखर बागची ने मुझे अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये हैं। विद्वद्वर डॉ० विद्यानिवास मिश्र से मुझे समय-समय पर बहुमूल्य सुझाव मिलते रहे हैं। इन गुरुजनों के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ। भाषाशास्त्र के मर्मज्ञ डॉ० अनन्त चौधरी तथा काव्यशास्त्र के सुधी समीक्षक डॉ. काशीनाथ मिश्र की प्रेरणा मेरे लिए अविस्मरणीय है। ग्रन्थ की रचना में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रेरणा देने वाले अपने परिवार
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[ च ]
के सदस्यों, सम्बन्धियों तथा मित्रों के प्रति कृतज्ञतता-ज्ञापन की औपचारिकता नहीं कर मौन भाव से ही उनका उपकार स्वीकार करता हूँ ।
बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के विद्वान अधिकारियों ने वर्तनी के सम्बन्ध में लेखक का आग्रह मान कर विचार की उदारता दिखायी है । लेखक उनके प्रति आभारी है । वर्तनी के सम्बन्ध में प्रस्तुत पुस्तक के लेखक का ध्यान सुविधा की अपेक्षा शुद्धि पर अधिक रहा है । ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए हिन्दी ग्रन्थ अकादमी का आभारी हूँ ।
हिन्दी विभाग
पटना विश्वविद्यालय
पटना । १९७२ ई०
- शोभाकान्त मिश्र
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विषय-सूची
प्रथम अध्याय अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान
१-२७ अलङ्कार का स्वरूप १, काव्य में अलङ्कार का स्थान ७, अलङ्कार
और अलङ्कार्य १६ द्वितीय अध्याय अलङ्कार-धारणा का विकास
२८-३०३ भरत से भामह तक २८-५८; दण्डी ५८-६३; उद्भट ६४.११८%, वामन ११८-१३२, रुद्रट १३३-१७०; कुन्तक १७१-१८०; भोज १८०-२०२; अग्निपुराणकार २०२-५; मम्मट २०५-१४; रुय्यक २१५-२४; हेमचन्द्र २२४-२६; वाग्भट २२९-३४; शोभाकर २३४-५१, जयदेव २५१-७२; अलङ्कारोदाहरणकार २७२-३; विश्वनाथ २७३-७; विद्यानाथ २७७-८०, वाग्भट (द्वितीय) २८०-१; भावदेव सूरि २८१; केशव मिश्र २८१-३; अप्पय्य दीक्षित २८३-६०; जगन्नाथ २६१-३; विश्वेश्वर २६३-४; अच्युतराय २६४-६ ।
निष्कर्ष २९५-३०३ तृतीय अध्याय हिन्दी-रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएं और उनका स्रोत
३०४-५७ सामान्य परिचय ३०४-५; केशव दास ३०५-१३; जसवन्त सिंह ३१३-२१; मतिराम ३२१-२४; भूषण ३२४-२७; देव ३२७-३२; दूलह ३३२-३३; भिखारीदास ३३४-३८ ।
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[
ख
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हिन्दी के अन्य आलङ्कारिक
३३८-३५७ कुलपति मिश्र, पदुमन दास, श्रीधर ३४०; सूरति मिश्र, रघुनाथ, रसरूप ३४१; बैरीसाल, जगतसिंह ३४३; गोप, कुमारमणि शास्त्री ३४५; याकूब खाँ, 'रसिक सुमति, सोमनाथ ३४६; गोविन्द, रूपसाहि, रतन कवि ३४७; ऋषिनाथ, जनराज, रामसिंह, सेवादास ३४८; गोकुल, चन्दन, रसिक गोविन्द, उमेद राय ३४६; ब्रह्मदत्त, पद्माकर ३५०; राय शिवप्रसाद, प्रताप साहि, कृष्ण भट्ट ३५१; बलवान सिंह ३५१; ईश्वर कवि, रणधीर सिंह, गिरधरदास ३५२; प्रताप साहि, अमीर दास, निहाल, दामोदर, ग्वाल, कवि दास ३५३ ।
निष्कर्ष ३५४-५७ चतुर्थ अध्याय अलङ्कारों का वर्गीकरण
३५८-९४ वर्गीकरण के आधार ३५८; मिश्रालङ्कार ३६३; शब्दालङ्कार ३६५; अर्थालङ्कार ३६६; रुद्रटकृत वर्गीकरण ३६८; रुय्यककृत वर्गीकरण ३७१; विद्यानाथकृत वर्गीकरण ३७७; हिन्दी-रीतिआचार्यों का वर्गीकरण ३८१-६०; केशवकृत वर्गीकरण ३८१; भिखारीदासकृत वर्गीकरण ३८२।
निष्कर्ष ३९०-९४ पञ्चम अध्याय अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
३९५-६५८ यमक ३६८; अनुप्रास ४०४; चित्र ४१०; प्रहेलिका ४१४; वक्रोक्ति ४१६; श्लेष ४१७; पुनरुक्तवदाभास ४२२;
विरोधाभास ४२३ । अर्थालङ्कार
४२६-६५८ उपमा ४२६; रूपक ४३७; दीपक ४४५; अनन्वय ४५१; उपमेयोपमा ४५४; उत्प्रेक्षा ४५६; अपह्न ति ४६५; परिणाम ४६९; व्यतिरेक
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[ग ]
४७३; दृष्टान्त ४७८; निदर्शना ४८१ ; प्रतिवस्तूपमा ४८५; तुल्ययोगिता ४८६; समासोक्ति ४९० ; अप्रस्तुतप्रशंसा ४६४; सहोक्ति ४ε७; अर्थान्तरन्यास ५००; आक्षेप ५०५; स्मरण ५०६ ; भ्रान्तिमान् -५१३; सन्देह ५१५; उल्लेख ५१८; अतिशयोक्ति ५२०; प्रतीप ५२५; विनोक्ति ५२८; अन्योक्ति ५३०; साम्य ५३२; प्रत्यनीक ५३३; स्वभावोक्ति ५३५; समुच्चय ५४१; यथासंख्य ५४३; पर्याय ५४७; कारणमाला ५४८; एकावली ५५०; सार ५५२; अन्योन्य ५५४; परिवृत्ति ५५६; परिसंख्या ५६० ; मालादीपक ५६२; हेतु, सूक्ष्म और लेश ५६५; परिकर ५६६; परिकराङ कुर ५७२; उत्तर ५७३; अनुमान ५७५; मीलित ५७७; सामान्य ५७६; तद्गुण और अतद्गुण ५८१; अनुगुण ५८३; पूर्वरूप ५८४; उन्मीलित तथा विशेषक ५८५; पिहित ५८६; विशेष ५८८ पूर्व, विभावना ५६०; विशेषोक्ति, अधिक - तथा अल्प ५६५; विषम तथा सम ६००; विरोध ६०३; असङ्गति -६०५; व्याघात ६०७; विचित्र ६१० ; अत्युक्ति ६११; व्याजोक्ति -६१२; व्याजस्तुति तथा व्याजनिन्दा ६१३; गूढोक्ति, विवृतोक्ति तथा युक्ति ६१६; पर्यायोक्त ६१८; प्रस्तुताङ कुंर ६२० ; ललित ६२१; रसवत् ६२२; प्रेय ६२५; ऊर्जस्वी ६२६; समाहित ६२७; भाविक ६२८; उदात्त तथा अवसर ६३३; काव्यलिङ्ग ६३५; प्रमाणालङ्कार ६३७; विकस्वर ६३९; अर्थापत्ति ६४० ; विकल्प ६४१; असम्भव ६४२; सम्भावना, मिथ्याध्यवसिति ६४३; समाधि ६४४; प्रौढोक्ति ६४५; प्रहर्षण ६४६; विषादन ६४७; उल्लास ६४७; अवज्ञा ६४८; अनुज्ञा, तिरस्कार ६४६; मुद्रा, रत्नावली ६५०; लोकोक्ति ६५१; छेकोक्ति, निरुक्ति ६५२; प्रतिषेध ६५३; विधि, असम ६५४; संसृष्टि और सङ्कर ६५५; अन्य अलङ्कार ६५८ ।
षष्ठ अध्याय
अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
६५९
उपमा-रूपक ६६०; उपमा - उत्प्रेक्षा ६६४; उपमा - अनन्वय ६६६; उपमा-उपमेयोपमा ६६९; उपमा - प्रतिवस्तूपमा ६७० ; उपमाव्यतिरेक ६७२; उपमा-प्रतीप ६७३; उपमा-परिणाम ६७४; ६७५; उपमा-समुच्चय ६७६;
उपमा-उभयन्यास, उपमा-साम्य
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[
घ
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रूपक-साम्य, रूपक-समुच्चय, रूपक-अतिशयोक्ति ६७७; रूपकपरिणाम ६७८; रूपक-अपह्नति ६८०; रूपक-भ्रान्तिमान् ६८१; रूपक-अभेद, रूपक-उल्लेख ६८२; रूपक-उत्प्रेक्षा ६८३; दीपकप्रतिवस्तूपमा ६८४; दीपक-उपमा; उत्प्रेक्षा-अपह्न ति ६८६; उत्प्रेक्षा-अतिशयोक्ति, उत्प्रेक्षा-भ्रान्तिमान् ६८७; उत्प्रेक्षा-वक्रोक्ति ६८८; उत्प्रेक्षा-सन्देह ६८९; समासोक्ति-अप्रस्तुतप्रशंसा ६६०; समासोक्ति-प्रस्तुताङ कुर, समासोक्ति-परिणाम ६९१; समासोक्तिप्रतिवस्तूपमा ६६२; समासोक्ति-आक्षेप, समासोक्ति-भाव ६६३; समासोक्ति-पर्यायोक्ति, समासोक्ति-सहोक्ति, समासोक्ति-श्लेष ६६४; दृष्टान्त-प्रतिवस्तूपमा ६९६; दृष्टान्त-अर्थान्तरन्यास ६९६; दुष्टान्त-निदर्शना ७००; अर्थान्तरन्यास-अप्रस्तुतप्रशंसा ७०२; अर्थान्तरन्यास-काव्यलिङ्ग ७०३; विभावना-विशेषोक्ति ७०६; अप्रस्तुतप्रशंसा-अपह्नति, अप्रस्तुतप्रशंसा-पर्यायोक्ति ७०६; अप्रस्तुतप्रशंसा-अतिशयोक्ति ७०७; अन्योक्ति-भाव, अन्योक्ति-पर्याय ७०८; पर्याय-भाव, पर्याय-सूक्ष्म, परिकर-परिकराङ कुर ७०६; मीलितसामान्य ७१०; मीलित-व्याजोक्ति, मोलित-अपह्न ति, मीलितउन्मीलित ७११; मीलित-तद्गुण ७१२; सामान्य-तद्गुण, सामान्यभ्रान्तिमान् ७१३; सामान्य-रूपक, सामान्य-अतिशयोक्ति ७१४; तद्गुण-भ्रान्तिमान्, विषम-असङ्गति ७१५; विषम-विरोध, विरोधअसङ्गति ७१६; विरोध-विरोधाभास, विषम-विषादन ७१७; कारणमाला-सार, कारणमाला-मालादीपक, कारणमाला-एकावली, एकावली-मालादीपक ७१८; हेतु-काव्यलिङ्ग ७१६; सन्देहभ्रान्तिमान्, सन्देह-वितर्क ७२०; अनन्वय-असम , श्लेष-वक्रोक्ति ७२१; स्मरण-भ्रान्तिमान्, तुल्ययोगिता-दीपक ७२२; तुल्ययोगिता-सहोक्ति ७२३; सहोक्ति-समुच्चय ७२४; पिहित-मीलित ७२५; पिहित-तद्गुण, पिहित-सूक्ष्म ७२५; शब्दश्लेष-अर्थश्लेष ७२६; संसृष्टि-सङ्कर, आक्षेप-अपह्न ति, समासोक्ति-रूपक ७२७; निदर्शना-गम्या-उपमा, श्लेष-अप्रस्तुतप्रशंसा ७२८; अतिशयोक्तिउल्लेख, अतिशयोक्ति-भ्रान्तिमान्, ७२६; अतिशयोक्ति-सन्देह, अतिशयोक्ति-असङ्गति, प्रतिवस्तूपमा-निदर्शना ७३०; प्रतिवस्तूपमाअर्थान्तरन्यास, दृष्टान्त-उपमा, दृष्टान्त-दीपक ७३१; विभावना
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विरोधाभास ७३२; अर्थान्तरन्यास-अनुमान, अर्थान्तरन्यास-विकस्वर, व्याजस्तुति-अप्रस्तुतप्रशंसा ७३३; काव्यलिङ्ग-अनुमान, काव्यलिङ्गपरिकर ७३४; उदात्त-अत्युक्ति ७३५; समुच्चय-समाधि ७३६; समुच्चय-काव्यलिङ्ग, समुच्चय-दीपक, समुच्चय-पर्याय ७३७; पर्यायविशेष, पर्याय-परिवृत्ति,व्याजोक्ति-अपह्न ति ७३८; उत्तर-काव्यलिङ्ग, उत्तर-अनुमान ७४०; उत्तर-परिसंख्या, सूक्ष्म-अनुमान ७४१; समाधि-प्रहर्षण, सम-समुच्चय, भ्रान्तिमान्-मीलित ७४२; अतद्गुण-विशेषोक्ति, यमक-अनुप्रास ७४३; यमक-पुनरुक्तवदाभास अर्थान्तरन्यास-उदाहरण ७४५; रूपक-निदर्शना ७४६; रूपक-सन्देह, भ्रान्तिमान्-उल्लेख, ७४७; उत्प्रेक्षा-सम्भावना दीपक-मालादीपक, व्यतिरेक-प्रतीप ७४८; व्यतिरेक-असम, अप्रस्तुतप्रशंसा-प्रस्तुताङ कुर ७४६; रूपक-विरोधाभास ७५०; विचित्र-विषम, विशेष-प्रहर्षण ७५१; विशेष-विषम, विशेष-अतिशयोक्ति, विशेष-रूपक, विशेषस्मरण ७५२; सार-वर्धमानक, सार-पर्याय ७५३; विकल्प-समुच्चय, ललित-निदर्शना ७५४; ललित-अप्रस्तुतप्रशंसा, ललित-समासोक्ति, ललित-अतिशयोक्ति ७५५; प्रत्यनीक-हेतूत्प्रेक्षा, अवज्ञा-अतद्गुण, अवज्ञा-विशेषोक्ति, ७५६; उल्लास-तद्गुण, लेश-व्याजस्तुति ७५७; दीपक-सहोक्ति, निदर्शना-अतिशयोक्ति ७५८; प्रतिवस्तूपमातुल्ययोगिता ७५६; उपमा-दीपक, उपमा-तुल्ययोगिता, अप्रस्तुतप्रशंसा दृष्टान्त, विरोधाभास-विशेषोक्ति ७६०; अपह्न ति-सामान्य, भाविक-भ्रान्तिमान् ७६१; भाविक-अतिशयोक्ति, भाविक उत्प्रेक्षा, भाविक-काव्यलिङ्ग ७६२; भाविक-रसवत्, भाविक-स्वभावोक्ति ७६३; भाविक-उदात्त, स्वभावोक्ति-रसवत्, स्वभावोक्ति-उदात्त, सम-विषम ७६४; अप्रस्तुतप्रशंसा-प्रतिवस्तूपमा, निश्चय-सन्देह
७६५; निश्चय-भ्रान्तिमान्, निश्चय-अपह्नति ७६६ । सप्तम अध्याय अलङ्कार और भाषा
७६७-७८६ अष्टम अध्याय अलङ्कार और मनोभाव
७८७-८०३ उपसंहार
८०५-८१५
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[ च ] परिशिष्ट १
पारिभाषिक शब्दावली ( हिन्दी-अंगरेजी) ८१७-१६ परिशिष्ट २
पारिभाषिक शब्दावली : व्याख्या ८२०-२४ परिशिष्ट ३
८२५-२६ अलङ्कार-दोष
८२७-३२ ग्रन्थ-सूची
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प्रथम अध्याय
अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान
वाणी के अलङ्कार मानव की सहज प्रवृत्ति और रुचि से आविर्भूत हैं। लोक-जीवन में अनेक प्रकार के अलङ्करणों से, साज-सज्जा से दूसरों की धारणा को प्रभावित करने की प्रवृत्ति जन-सामान्य में पायी जाती है। काव्य-जगत में भी काव्य की उक्तियों को अधिकाधिक चमत्कारपूर्ण, प्रभावोत्पादक बनाने के लिए उन्हें अलङ कृत किया जाता है। काव्य की उक्तियाँ लोक-व्यवहार की उक्तियों से तो भिन्न होंगी ही। काव्योक्तियों में लोकोत्तर चमत्कार अपेक्षित रहता है। लोकातिगामी चमत्कार की सृष्टि में ही कवि-प्रतिभा की सार्थकता है। लोक-व्यवहार में प्रयुक्त अनलङ कृत शब्द और अर्थ अलङ कृत होकर अर्थात् चमत्कारपूर्ण भङ्गी-विशेष से कथित होने पर काव्य पदवी-प्राप्त कर लेते हैं।' कवि-प्रतिभा से समुद्भूत उक्तियों के अलोकसिद्ध सौन्दर्य को कुछ आचार्यों ने व्यापक अर्थ में अलङ्कार कहा है। उनके अनुसार अलङ्कार सौन्दर्य का पर्याय है।
ध्यातव्य है कि अलङ्कार शब्द का प्रयोग दो अर्थों में हुआ है। दोनों ही अर्थ अलङ्कार शब्द की अलग-अलग व्युत्पत्तियों से उपलब्ध हैं। भाव व्युत्पत्ति से अलङ्कार शब्द का अर्थ (अलङ कृति अर्थात् अलम् ++क्तिन् = अलङ कृति तथा अलम् + +घञ = अलङ्कार) भूषण या शोभा का भाव है। इस अर्थ में अलङ्कार सौन्दर्य से अभिन्न है । इसी अर्थ में वामन ने अलङ्कार को सौन्दर्य का पर्याय कहकर अलङ्कारयुक्त काव्य को ग्राह्य तथा अलङ्कारहीन या असुन्दर १. यानेव शब्दान्वयमालपामो यानेव चार्थान्वयमुल्लिखामः । तैरेव विन्यासविशेषभव्यैः संमोहयन्ते कवयो जगन्ति ॥
-नीलकण्ठ-दीक्षित, शिवलीलार्णव, १, १३ २. सौन्दर्यमलङ्कारः । -वामन, काव्यालंकारसूत्रवृत्ति, १, १, २ ३. अलङ कृतिरलंकारः । वही, वृत्ति पृ० ५
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२] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण काव्य को अग्राह्य कहा था।' इस अर्थ में कवि की समग्र उक्तियों का सौन्दर्य अलङ्कार है। काव्य के वे सभी तत्त्व जो काव्य में शोभा का आधान करते हैं, अलङ्कार के व्यापक अर्थ में उसके अङ्ग हैं। गुण एवं अलङ्कार के सद्भाव से तथा दोष के अभाव से काव्य में सौन्दर्य आता है। अतः अपने विशिष्ट अर्थ में शब्दार्थ के अलङ्कार, गुण आदि उस काव्य-सौन्दर्य के पर्यायभूत अलङ्कार के साधक मात्र हैं।
अलङ्कार शब्द का दूसरा विशिष्ट अर्थ, जिस अर्थ में शब्द और अर्थ के अनुप्रास, उपमा आदि अलङ्कार कहलाते हैं, उस शब्द की करण व्युत्पत्ति से उपलब्ध है । करण व्युत्पत्ति से अलङ्कार शब्द का अर्थ होता है, वह तत्त्व जो काव्य को अलङ कृत अर्थात् सुन्दर बनाने का साधन हो- (अलङ क्रियतेऽनेन इति अलङ्कारः)। आज अलङ्कार शब्द का यही अर्थ अधिक प्रचलित है । करण व्युपत्ति से काव्य-सौन्दर्य के साधन का अर्थ स्पष्ट हो जाने पर भी काव्य में अलङ्कार के कार्य तथा स्थान के सम्बन्ध में आचार्यों में मतभेद बना रहा। इसका प्रधान कारण काव्य के सम्बन्ध में उनकी मूल दृष्टि का अन्तर था।
एक शंका, जिसका समाधान ढूढ़ना आवश्यक है, यह है कि यदि अलङ्कार शब्द का अर्थ करण व्युत्पत्ति से काव्य-सौन्दर्य का साधक मान लिया जाय तो गुण आदि काव्य के अन्य शोभाधायक तत्त्वों से कव्यालङ्कार का भेद किस आधार पर किया जायगा ? गुण, अलङ्कार आदि सभी काव्य-तत्त्वों को काव्यसौन्दर्य का साधन मानकर सब को एक कोटि में रख देना तो शास्त्रीय विश्लेषण की पद्धति से पलायन ही माना जायगा। भावक के लिए काव्यार्थ के भावन में काव्याङ्गों के अलग-अलग सौन्दर्य का महत्त्व नहीं। भावन तो सौन्दर्य की समग्रता का ही होता है; पर शास्त्रीय विश्लेषण के लिए काव्य के तत्तत् अङ्गों के कार्य की मीमांसा आवश्यक है। गुण, अलङ्कार आदि के भेदअभेद के प्रश्न पर भारतीय साहित्यशास्त्र में जो ऊहापोह हुए हैं उनका समीक्षात्मक अध्ययन हमने अपने ग्रन्थ 'काव्य गुणों का शास्त्रीय विवेचन के एक स्वतंत्र अध्याय में किया है। कुछ आचार्यों ने गुण एवं अलङ्कार को काव्य-सौन्दर्य का समान भाव से साधक मानकर दोनों के विषय-विभाग को
१. काव्यं ग्राह्यमलंकारात् । -वामन, काव्या० सू० वृ० १, १,१ २. करणव्युत्पत्या पुनरलङ्कारशब्दोऽयमुपमादिषु वर्तते ।।
-वही, वृत्ति पृ०५
३. द्रष्टव्य-प्रस्तुत प्रबन्ध के लेखक का ग्रन्थ 'काव्य गुणों का शास्त्रीय
विवेचन' अध्याय २
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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान [३ अवैज्ञानिक मान लिया था।' दूसरी ओर कुछ आचार्यों ने गुण और अलङ्कार का भेद स्पष्ट करने के लिए गुण को काव्य-सौन्दर्य का हेतु माना तो अलङ्कार को काव्य-सौन्दर्य की वृद्धि करनेवाला धर्म ।२ इस मत के अनुसार अलङ्कार काव्य के शोभाधायक गुण नहीं, काव्य की स्वाभाविक शोभा की बृद्धि करनेवाले धर्म हैं। इस प्रकार इस मत के अनुसार अलङ्कार शब्द का —करण व्युत्पत्ति से-अर्थ होगा काव्य का वह तत्त्व जिससे काव्य अलङ कृत हो अर्थात् जिससे काव्य के सौन्दर्य की अभिवृद्धि हो।'
प्रस्तुत सन्दर्भ में काव्य के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोण रखनेवाले आचार्यों के द्वारा काव्यालङ्कार के स्वरूप के विषय में व्यक्त मान्यता का परीक्षण वाञ्छनीय है। भामह तथा उद्भट ने काव्य-शोभा के साधक धर्म को अलङ्कार मानकर गुण, रस आदि को भी अलङ्कार की सीमा में समेट लिया है । आचार्य दण्डी ने भी काव्य के शोभाकर धर्म को अलङ्कार कहा है। इस प्रकार उनके मत से भी गुण आदि काव्य-तत्त्व काव्य में सौन्दर्य का आधान करने के कारण अलङ्कार हैं। इन आचार्यों की अलङ्कार-परिभाषा इतनी सामान्य थी कि उससे गुण आदि से अलङ्कार का विशिष्ट स्वरूप स्पष्ट नहीं हो पाता था। इसलिए वामन को यह स्पष्ट करना पड़ा कि काव्य-शोभा में वृद्धि करनेवाले धर्म अलङ्कार कहे जाते हैं । इस कथन में भी काव्य में अलङ्कार के कार्य पर ही प्रकाश डाला गया है।
दूसरे वर्ग के आलङ्कारिकों ने कथन के चारुतापूर्ण प्रकार-विशेष को अलङ्कार का लक्षण माना है। वक्रोक्तिजीवितकार कुन्तक ने वक्रोक्ति कोकहने के वैदग्ध्यपूर्ण ढंग को-काव्य का अर्थात् शब्द और अर्थ का अलङ्कार कहा है। उनके पूर्ववर्ती भामह ने भी वक्रोक्ति या अतिशयोक्ति को अलङ्कार का प्राणभूत तत्त्व माना था। रुय्यक अभिधान अर्थात् कथन के प्रकार-विशेष को अलङ्कार का स्वरूप मानते हैं। उनके अनुसार कवि-प्रतिभा से समुद्भूत १. ओजः प्रभृतीनामनुप्रासोपमादीनां चोभयेषामपि समवायवृत्त्या स्थिति
रिति गड्डरिकाप्रवाहेणवेषां भेद: ।-उद्भट की यह मान्यता मम्मट ने
उद्धृत की है। द्रष्टव्य, काव्यप्र.० ८, पृ० १६१ ।। २. काव्यशोभायाः कर्तारो धर्मा गुणाः । तदतिशयहेतवस्त्वलङ्काराः ।
-वामन काव्यालङ्कार सूत्र वृत्ति ३, १, १ तथा ३, १, २ ३. उभावेतावलङ्कायौं तयोः पुनरलङ कृतिः । वक्रोक्तिरेख बैदग्ध्यभङ्गीभणितिरुच्यते ॥
-----कुन्तक, वक्रोक्तिजी०, १, १०
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४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
कथन का प्रकार - विशेष ही अलङ्कार है । ' आनन्दवर्द्धन ने यह माना है कि वाग्विकल्प अर्थात् कथन के अनूठे ढंग अनन्त हैं और उनके प्रकार ही अलङ्कार कहलाते हैं । अभिनवगुप्त तथा पण्डितराज जगन्नाथ आदि ने भी कथन के निराले ढंग के प्रकार- विशेष को अलङ्कार माना है । इन आचार्यों की अलङ्कारधारणा का सार यह है कि कथन का चमत्कारपूर्ण ढंग - उक्ति की विच्छित्ति - ही अलङ्कार है । कथन की सुन्दर भङ्गियाँ असंख्य हैं, अतः अलङ्कारों की संख्या निश्चित नहीं की जा सकती ।
आचार्य मम्मट ने काव्यालङ्कार के स्वरूप तथा काव्य में उसके स्थान का निरूपण करते हुए कहा है कि 'काव्य के वे धर्भ जो काव्य के शरीरभूत शब्द एवं अर्थ को अलङ्कृत कर उसके माध्यम से काव्यात्मभूत रस का भी यदि काव्य में रस रहे तो — कदाचित् उपकार करते हों, अलङ्कार कहलाते हैं । वे अनुप्रास, उपमा आदि ( शब्दालङ्कार एवं अर्थालङ्कार) मनुष्य के हार आदि आभूषण की तरह काव्य के आभूषण होते हैं । '3 स्पष्ट है कि मम्मट ने अलङ्कार को काव्य के शरीरभूत शब्द और अर्थ का ही भूषण माना था, जो प्रकारान्तर से ही रस का यदा-कदा उपकार करता है । कहीं-कहीं तो अलङ्कार काव्य की आत्मा रस का न उपकार करते हैं न अपकार; पर कहीं-कहीं वे रस का अपकार भी कर देते हैं । शृङ्गार आदि कोमल रस के प्रसङ्ग में कठोर वर्णों का अनुप्रास रस का उपकार करने के बजाय उसका अपकार ही करेगा । विश्वनाथ ने मम्मट के मत का अनुसरण करते हुए अलङ्कार को काव्य काशब्द और अर्थ का - अस्थिर शोभातिशायी धर्म कहा है । वामन की तरह मम्मट आदि ने भी अलङ्कार को काव्य का शोभाधायक धर्म नहीं मानकर उसके सौन्दर्य की वृद्धि का ही साधन माना है ।
आचार्य मम्मट ने आलङ्कारिक भाषा में अलङ्कार का स्वरूप-निरूपण किया था । उन्होंने काव्य में अलङ्कार के कार्य एवं स्थान के स्पष्ट निर्धारण के लिए
१. अभिधाप्रकारविशेषा एवालङ्काराः । — रुय्यक, अलं० सर्वस्वपृ० ८ २. अनन्ता हि वाग्विकल्पास्तत्प्रकारा एव चालङ्काराः । आनन्दवर्द्धनध्वन्या० ३, ३७ की वृत्ति पृ० ५११ ३. उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचित् । हारादिवदलंकारास्तेऽनुप्रासोपमादयः ॥ ४. शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्म्माः शोभातिशायिनः । रसादीनुपकुर्वन्तोऽलंकारास्तेऽङ्गदादिवत् 11
-मम्मट, काव्य प्र० ८,६७
- विश्वनाथ, साहित्य द० १०, १
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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान
[५
जो लौकिक उपमान दिया था, उसके साथ काव्यालङ्कार की पूर्ण सङ्गति बैठाने के प्रयास में कुछ लोग मम्मट की अलङ्कार-धारणा को ही अस्पष्ट कर बैठते हैं। काव्यालङ्कार के हार आदि आभूषण के समान होने का क्या तात्पर्य है ? इसका स्पष्टीकरण आवश्यक है। क्या हार का मनुष्य-शरीर के साथ जैसा अनित्य सम्बन्ध होता है, वैसा ही अनित्य सम्बन्ध काव्य के अलङ्कार का शब्द और अर्थ के साथ मम्मट मानते थे ? गले से हार उतारकर जितनी सरलता से लोग अलग रख देते हैं; क्या उतनी ही सरलता से काव्य की उक्ति से अलङ्कार को हटाकर दूर किया जा सकता है ? मम्मट-जैसे समर्थ समीक्षक के कथन की इतनी भोंड़ी व्याख्या की जाय तो मम्मट के प्रति अन्याय भी होगा और व्याख्याता की बौद्धिक दरिद्रता का परिचायक भी। अलङ्कार को हार आदि के समान कहने में मम्मट का तात्पर्य केवल इतना होगा कि जिस प्रकार हार आदि आभूषण प्रथमतः मनुष्य के शरीर को ही आभूषित करते हैं, फिर शरीर के माध्यम से कभी-कभी उसकी आत्मा का भी उपकार कर देते हैं-उसी प्रकार काव्य के अलङ्कार भी प्रथमतः काव्य के शब्दार्थ को ही भूषित करते हैं और उसके माध्यम से काव्य की आत्मा रस का भी यदा-कदा उपकार कर देते हैं । हार आदि लौकिक आभूषण से काव्य के अलङ्कार का इसी दृष्टि से सादृश्य है। ध्यातव्य है कि सादृश्य के लिए दो वस्तुओं में कुछ सामान्य तथा कुछ विशिष्ट की अपेक्षा होती है। दोनों में सर्वात्मना साम्य आवश्यक नहीं। __ अलङ्कार वाच्य का उपस्कार करते हैं । शब्दालङ्कार काव्य के शब्द का तथा अर्थालङ्कार काव्य के वाच्यार्थ का उपस्कार करते हैं। कथन की भङ्गी के चमत्कार या विच्छित्ति को काव्य का अलङ्कार मानने का यही तात्पर्य है। औपम्यगर्भ अलङ्कार में प्रस्तुत अर्थ के लिए जो अप्रस्तुत की योजना की जाती है उसमें कवि का एक उद्देश्य प्रस्तुत वस्तु के रूप, गुण, क्रिया का उत्कर्षसाधन भी होता है। प्रस्तुत के रूप, गुण आदि के उत्कर्ष के लिए कवि ऐसे अप्रस्तुत सामने ला देता है, जिसके उत्कृष्ट रूप, गुण आदि से पाठक परिचित रहता है। उस परिचित अप्रस्तुत की योजना से पाठक के हृदय में अप्रस्तुत का प्रभाव जगकर प्रस्तुत के प्रभाव को भी बढ़ा देता है। काव्यार्थ-भावन की १. यत्र किञ्चित् सामान्य कश्चिच्च विशेषः स विषयः सदृशतायाः।
-रुय्यक, अलङ्कार सर्वस्व, पृ० २४
तथायत्र किञ्चित् सामान्यं कश्चिच्च विशेषः तत्रोपमानोपमेये भवतः ।
-पतञ्जलि, महाभाष्य, २, १, ३, पृ० ३६४
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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
प्रक्रिया में अप्रस्तुत से प्रस्तुत के उत्कर्ष-साधन के स्वरूप पर हम एक उदाहरण लेकर विचार करें। काली आँखों की सुन्दरता से प्रभावित होकर जब कवि उन्हें नीलकमल के समान कहता है या उनपर नीलकमल का अभेदारोपण करता है तब भावक के हृदय में आँखों के बिम्ब के साथ नीलकमल का भी बिम्ब उद्भूत होता है। नीलकमल का वह बिम्ब, जिसके सौन्दर्य के प्रभावातिशय से भावक का हृदय परिचित रहता है, सादृश्य के कारण आँखों के सौन्दर्य के प्रभाव को भी उतना ही उत्कृष्ट बना देता है। इस प्रकार अप्रस्तुत के रूप, गुण, क्रिया आदि क्रमशः प्रस्तुत के रूप, गुण, क्रिया आदि का उत्कर्ष करते हैं। प्रस्तुत व्यापार-समष्टि के लिए भी कवि जहाँ अप्रस्तुत व्यापारसमष्टि की योजना करता है, वहाँ अप्रस्तुत योजना की सार्थकता प्रस्तुत व्यापारसमष्टि की प्रभाव-वृद्धि में ही होती है । जो अप्रस्तुत प्रस्तुत का उत्कर्ष करने में समर्थ न हों उनकी योजना व्यर्थ तो होती ही है, काव्य का भार बनकर काव्य के सहज सौन्दर्य को भी नष्ट कर देती है। अप्रस्तुत को प्रस्तुत का उत्कर्षसाधक मानने के कारण ही आचार्यों ने एकमत से अप्रस्तुत में प्रस्तुत की अपेक्षा अधिक गुण का सद्भाव स्वीकार किया है। अप्रस्तुत की योजना में कवि का अभिप्राय यही रहता है कि पाठक अप्रस्तुत के गुणाधिक्य से परिचित रहते हैं। अतः, वे अप्रस्तुत पाठक के हृदय में प्रस्तुत के रूप, गुण आदि का भी उत्कृष्ट प्रभाव जगाने में समर्थ होंगे। इसीलिए लोक-परिचित अप्रस्तुत की योजना ही वाञ्छनीय मानी गई है। प्रस्तुत के लिए कल्पित अप्रस्तुत के साथ प्रस्तुत का रूप, गुण, क्रिया आदि का भी साम्य हो सकता है और केवल प्रभाव का साम्य भी। प्रभाव-साम्य से अप्रस्तुत का प्रभाव प्रस्तुत के प्रभाव की वृद्धि करता है।
प्रस्तुत के रूप, गुण, क्रिया आदि के उत्कर्ष-साधन या प्रभाववृद्धि के साथ अलङ्कार काव्य के भाव या रस का प्रभाव बढ़ाने में भी सहायक होते हैं । रससम्प्रदाय के आचार्यों ने तो रस-भाव आदि का उपकार करने में ही अलङ्कारयोजना की सार्थकता मानी है।' यह ठीक है कि सभी अलङ्कार नियत रूप से सदा रस, भाव आदि का उपकार नहीं करते ; वे कहीं तटस्थ रह जाते हैं तो १. रसभावादितात्पर्यमाश्रित्य विनिवेशनम् ।
अलङ कृतीनां सर्वासामलङ्कारत्वसाधनम् ॥-तथा ध्वन्यात्मभूते शृङ्गारे समीक्ष्य विनिवेशितः। रूपकादिरलङ्कारवर्ग एति यथार्थताम् ॥
-आनन्दवर्द्धन, ध्वन्यालोक, २८ तथा ४०
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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान
[७
कहीं रस, भाव आदि के बाधक भी बन जाते हैं, पर काव्य में रस, भाव आदि के उपकारक अलङ्कार ही ग्राह्य हैं, वे ही सच्चे अर्थ में काव्य के अलङ्कार हैं। निष्कर्ष यह कि अलङ्कार शब्द, अर्थ के ही आभूषण हैं । वे प्रत्यक्षतः काव्य के वाच्यार्थ का उपस्कार करते हैं। अलङ्कार की उपादेयता इस बात में है कि उससे वर्ण्य वस्तु के रूप, गुण आदि का उत्कर्ष होता है तथा रस, भाव आदि के सहज सौन्दर्य की वृद्धि होती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने काव्य में अलङ्कार के इन्हीं कार्यों को दृष्टि में रखकर कहा है-"भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक होनेवाली युक्ति अलङ्कार है।" रसवादी शुक्लजी की अलङ्कार-विषयक यह मान्यता मम्मट आदि रसवादी आचार्यों की मान्यता से अभिन्न है । काव्य में अलङ्कार का स्थान
काव्य में अलङ्कार के स्थान तथा अन्य काव्य-तत्त्वों के साथ उसके सापेक्ष महत्त्व के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के मत प्रकट किये गये हैं। काव्य के स्वरूप के सम्बन्ध में दृष्टिभेद के कारण अलङ्कार के विषय में यह मतभेद स्वाभाविक था। काव्य के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न मत स्थापित करनेवाले छह प्रस्थान भारतीय काव्यशास्त्र में प्रसिद्ध हैं। वे हैं-अलङ्कार-प्रस्थान, रीति-प्रस्थान (रोति को गुणात्मा स्वीकार करने के कारण, गुण को ही रीति का विधायक मानने के कारण इसे गुण-प्रस्थान भी कहा जा सकता है। ) वक्रोक्ति-प्रस्थान, रस-प्रस्थान, ध्वनि-प्रस्थान और औचित्य-प्रस्थान। ध्वनि-प्रस्थान के आचार्यों ने वस्तु ध्वनि तथा अलङ्कार ध्वनि की अपेक्षा रस ध्वनि को विशेष महत्त्व दिया है । अतः ध्वनि-प्रस्थान और रस-प्रस्थान के काव्य-चिन्तन में विशेष मौलिक भेद नहीं है । अस्तु ! प्रसङ्गानुरोध से उक्त प्रस्थानों के आचार्यों की काव्य-दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में काव्य में अलङ्कार के स्थान तथा सापेक्ष महत्त्व के सम्बन्ध में उनकी मान्यता का हम परीक्षण करेंगे।
भामह और उद्भट ने काव्य के शब्दार्थ को अलङ्कार्य मानकर उनमें सौन्दर्य का आधान करनेवाले सभी तत्त्वों को अलङ्कार कहा है।' इस प्रकार यह तो स्पष्ट है कि भामह, उद्भट आदि अलङ्कार को काव्य-सौन्दर्य के लिए काव्य का अनिवार्य धर्म मानते थे; पर विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त उपमा आदि का १. इह हि तावद् भामहोद्भटप्रभृतयश्चिरन्तनालङ्कारकाराः प्रतीयमानमर्थ वाच्योपस्कारितयालङ्कारपक्षनिक्षिप्तं मन्यन्ते ।
-रुय्यक, अलं० सर्वस्व पृ० ४
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८] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण माधुर्य आदि गुणों के साथ सापेक्ष महत्त्व उससे स्पष्ट नहीं हो पाता। भामह ने काव्य के अलङ्कार को नारी के आभूषण की तरह मानकर कहा था कि जैसे रमणी का सुन्दर मुख भी भूषण के अभाव में सुशोभित नहीं होता, उसी प्रकार अलङ्कारहीन काव्य सुशोभित नहीं होता।' इस कथन की परीक्षा से जो तथ्य प्राप्त होता है वह यह है कि भामह नारी के मुख को सुशोभित करने के लिए आभूषण को जिस प्रकार अनिवार्य मानते थे, उसी प्रकार काव्य को सुशोभित करने के लिए काव्यालङ्कार को आवश्यक मानते थे। भामह के उक्त कथन का यह अंश विशेष रूप से ध्यातव्य है कि 'वनिता का सुन्दर मुख भी अलङ्कार के अभाव में सुशोभित नहीं होता।' स्पष्ट है कि भामह भूषण के अभाव में भी रमणी के मुख में कान्ति की स्थिति तो मानेंगे ही-भले ही वह मुख उन्हें बहुत मनोज्ञ न लगे। नारी के आभूषण उसके सौन्दर्य की सृष्टि नहीं करते, स्वाभाविक सौन्दर्य की वृद्धि ही कर सकते हैं। यदि काव्य के अलङ्कार को नारी के आभूषण की तरह माना जाय, तो उसे काव्य-सौन्दर्य की वृद्धि में सहायक-मात्र मानना होगा। तब यह तो रुचिभेद पर निर्भर करेगा कि आभूषणहीन नारी के कान्त मुख की तरह अलङ्कारहीन; किन्तु कान्त काव्य (शब्दार्थ) किसी को मनोज्ञ लगता है या अमनोज्ञ । भामह को कान्त मुख भी अनलङ कृत होने पर मनोरम नहीं लगेगा; पर कालिदास-जैसे रसज्ञ सहज सुन्दर रूप के लिए किसी विशेष आभूषण की आवश्यकता नहीं मानेंगे। उनके अनुसार तो कोई भी वस्तु–चाहे वह स्वयं सुन्दर हो या असुन्दर-सुन्दर रूप का आभूषण बन जाती है। भामह ने भी स्वीकार किया है कि आश्रय के सौन्दर्य से असुन्दर वस्तु भी सुन्दर बन जाती है । सुन्दर आँखों में काला अञ्जन भी सुन्दर लगने लगता है । ध्यातव्य है कि अलङ्कारवादी आश्रय में सौन्दर्य अलङ्कार के सद्भाव से ही सम्भव मानेंगे । अनलङ कृत वार्ता में सौन्दर्य वे नहीं मानते। भामह ने वक्रोक्ति या अतिशयोक्ति को अलङ्कार का प्राणभूत तत्त्व मानकर उसके लिए विशेष आग्रह दिखाया है। १. न कान्तमपि निभूषं विभाति वनितामुखम् ।
-भामह, काव्यालं० १,१३ २. किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् ।
-कालिदास, अभिज्ञानशाकुन्तलम् ३. किञ्चिदाश्रयसौन्दर्याद्धत्ते शोभामसाध्वपि । कान्ताविलोचनन्यस्तं मलीमसमिवाञ्जनम् ।।
___-भामह, काव्यालं० १,५५
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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान [६ उक्ति का वैचित्र्य, उक्तिभङ्गी का लोकोत्तर चमत्कार ही अलङ्कार है। इस व्यापक स्वरूप में ही अलङ्कार भामह के 'काव्यालङ्कार' में काव्यसौन्दर्य का आवश्यक तत्त्व माना गया है । वक्रोक्ति से अनुप्राणित होने के कारण अलङ्कार काव्यार्थ को भास्वर बनाते हैं। अनलङ कृत या प्रकृत उक्ति वार्ता-मात्र होती है, काव्य नहीं।' अलङ्कार को काव्य-सौन्दर्य का आवश्यक उपादान मानने के कारण भामह अलङ्कार-सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने गये हैं। रुय्यक के शब्दों में वे अलङ्कारतन्त्र-प्रजापति हैं ।
आचार्य दण्डी ने अलङ्कार के व्यापक अर्थ में उसे काव्य-सौन्दर्य का हेतु कहा है।२ स्पष्टतः दण्डी के उस अलङ्कार में काव्य में शोभा का आधान करनेवाले गुण आदि धर्म भी सन्निहित हैं। दण्डी ने विशिष्ट अर्थ में उपमा आदि अलङ्कार को श्लेष, प्रसाद आदि दश गुणों से पृथक् कर जहाँ दोनों का सापेक्ष महत्त्व निर्धारित करना चाहा है वहाँ अलङ्कार की अपेक्षा गुण पर ही उनका विशेष आग्रह जान पड़ता है। समाधि गुण को 'काव्यसर्वस्व' कहकर दण्डी ने काव्य में गुण का अपेक्षाकृत विशेष महत्त्व स्वीकार किया है। उन्होंने यह भी कहा कि यद्यपि शब्द और अर्थ के सभी अलङ्कार काव्य में रस का परिपोष करते हैं, फिर भी यह कार्य विशेष रूप से अग्राम्यता (ग्राम्यत्व दोषरहित माधुर्य आदि) ही करती है। इस कथन से स्पष्ट है कि काव्य में रस के उत्कर्ष में दण्डी अलङ्कार की अपेक्षा अग्राम्यता तथा गुण आदि को ही अधिक आवश्यक मानते थे। ध्यातव्य है कि दण्डी के इस कथन में रस का अर्थ सामान्य रूप से काव्य का सौन्दर्य ही है। रस शब्द अपने आस्वाद-रूप पारिभाषिक अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। रस ध्वनि आदि को दण्डी ने भामह आदि की तरह अलङ्कार में ही अन्तभुक्त माना है। इसीलिए उन्होंने रसवत् अलङ्कार को रसपेशल कहकर उसी प्रसङ्ग में भट्टलोल्लट के मतानुसार रस के स्वरूप का निरूपण किया है। निष्कर्ष रूप में दण्डी की मान्यता का सार यह है कि व्यापक अर्थ में काव्य-सौन्दर्य के हेतुभूत सभी धर्म (गुण, अलङ्कार आदि) अलङ्कार हैं। गुण आदि के साथ सापेक्ष रूप में अलङ्कार (शब्दालङ्कार एवं १. गतोऽस्तमर्को भातीन्दुर्यान्ति वासाय पक्षिणः ।
इत्येवमादि किं काव्यं वार्तामेनां प्रचक्षते ॥-वही, २, ८७ २. काव्यशोभाकरान् धर्मानलङ्कारान् प्रचक्षते ।-दंडी, काव्याद०, २, १ ३. तदेतत्काव्यसर्वस्वं समाधिर्नाम यो गुणः । -वही, १, १०० ४. कामं सर्वोऽप्यलङ्कारो रसमर्थे निषिञ्चति ।
तथाप्यग्राम्यतैवैनं भारं वहति भूयसा ।।-वही, १, ६२
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१०] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण . अर्थालङ्कार) के महत्त्व पर विचार करने से अलङ्कार भी काव्य-सौन्दर्य का उत्कर्ष करते हैं; पर अग्राम्यत्व माधुर्य, समाधि आदि का इस कार्य में अधिक योग रहता है। दण्डी अलङ्कार को काव्य का आभ्यन्तर धर्म ही स्वीकार करते हैं; पर गुण आदि की तुलना में उसका कम मूल्य मानते हैं ।
वामन ने अलङ्कार को काव्य-सौन्दर्य का पर्याय मानकर काव्य को अलङ्कार के सद्भाव से ही ग्राह्य कहा था।' सौन्दर्यहीन काव्य अग्राह्य है, इस मान्यता में किसे आपत्ति होगी? यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि वामन ने जिस अलङ्कार के सद्भाव में काव्य को ग्राह्य और अभाव में काव्य को अग्राह्य माना था, उसका अर्थ उपमा आदि विशिष्ट अलङ्कारों तक ही सीमित नहीं था। वह अलङ्कार शब्द सामान्य रूप से काव्य-सौन्दर्य के व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ था। वामन रीति को काव्य की आत्मा मानते थे। अतः, यह स्वाभाविक था कि वे रीति के विधायक गुण को काव्य में विशेष महत्त्व देते । यही कारण है कि उन्होंने काव्य-सौन्दर्य का हेतु गुण को ही माना है। 3 अलङ्कार काव्यसौन्दर्य की वृद्धि करते हैं। स्पष्ट है कि गुण के अभाव में अलङ्कार से काव्यत्व नहीं आ सकता। अलङ्कार सौन्दर्य की सृष्टि नहीं कर सकते। अलङ्कार के अभाव में भी गुण से काव्य में सौन्दर्य की सृष्टि हो सकती है और काव्य ग्राह्य हो सकता है। यह बात दूसरी है कि अलङ्कार के रहने से गुण द्वारा उद्भूत काव्य-सौन्दर्य जितना उत्कृष्ट होगा उतना उसके अभाव में नहीं। अतः वामन की दृष्टि में उपमा आदि अलङ्कार का काव्य में इतना ही महत्त्व है कि वे काव्य की स्वाभाविक शोभा की अभिवृद्धि कर काव्य को अधिकाधिक चारुता प्रदान करते हैं। गुण की तुलना में अलङ्कार का महत्त्व गौण है; क्योंकि गुण काव्य-सौन्दर्य के लिए, काव्य को ग्राह्य बनाने के लिए और अन्ततः काव्य की आत्मा रीति के स्वरूप-विधान के लिए अनिवार्य हैं; पर अलङ्कार काव्य-सौन्दर्य के लिए अनिवार्य नहीं, काव्य-सौन्दर्य की वृद्धि के लिए अपेक्षित होते हैं । भामह तथा दण्डी की तरह वामन ने भी रस, ध्वनि आदि को अलङ्कार में अन्तर्भूत माना है। काव्य में अलङ्कार के सापेक्ष महत्त्व की दृष्टि से वामन और दण्डी का मत प्रायः मिलता-जुलता है। १. काव्यं ग्राह्यमलङ्कारात् । तथा—सौन्दर्यमलङ्कारः ।
-वामन, काव्यालं० सू० वृ० १, १, १ तथा १, १, २ २. रीतिरात्मा काव्यस्य । —वही, १, २, ६ ३. काव्यशोभायाः कर्तारो धर्मा गुणाः । -वही, ३, १, १ ४. तदतिशयहेतवस्त्वलङ्काराः । -वही, ३, १, २
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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान
[ ११:
आचार्य उद्भट अलङ्कार को गुण के समान ही महत्त्व देने के पक्षपाती हैं उनकी मान्यता है कि गुण और अलङ्कार दोनों ही काव्य से समवाय-वृत्ति से सम्बद्ध रहते हैं । अतः, गुण को समवाय- वृत्ति से सम्बद्ध काव्य का अन्तरङ्ग और अलङ्कार को संयोग-वृत्ति से सम्बद्ध काव्य का बहिरङ्ग धर्म मानना तर्कहीन गतानुगतिकता है । ' ध्यातव्य है कि भामह के समय ही काव्यालङ्कार को काव्य का बाह्य तथा आभ्यन्तर धर्म माननेवाले दो मत प्रचलित थे, जिनका निर्देश भामह के काव्यालङ्कार में किया गया है । २ अलङ्कारवादी भामह अलङ्कार को काव्य का अन्तरङ्ग धर्म मानते थे, तो रीति-वादी वामन ने गुण को शोभाकारक कहकर अन्तरङ्ग और अलङ्कार को, शोभातिशयकारी कहकर बाह्य धर्म मान लिया था । उद्भट का मत है कि अलङ्कार भी काव्यसौन्दर्य के हेतु हैं । अतः वे काव्य के अन्तरङ्ग धर्म ही हैं । गुण और अलङ्कार का उनके अनुसार भेद केवल इतना है कि गुण संघटनाश्रित हैं अर्थात् उनका आश्रय रीति है जब कि अलङ्कार शब्दार्थ पर आश्रित रहते हैं । 3 निष्कर्षतः उद्भट के अनुसार अलङ्कार काव्य के शब्द तथा अर्थ को सौन्दर्य प्रदान करनेवाले नित्य और अन्तरङ्ग धर्म हैं । अलङ्कार के अभाव में शब्द तथा अर्थ में सौन्दर्य नहीं आता ।
जयदेव ने काव्य-लक्षण में अलङ्कार की अनिवार्य सत्ता मानी है । उन्होंने तो यहाँ तक कहा है कि अलङ्कारहीन शब्दार्थ को काव्य मानना उष्णतारहित अग्नि की कल्पना करने के समान है । ५ उष्णता में ही अग्नि का अग्नित्व है, उसी प्रकार अलङ्कृत होने में ही काव्य का काव्यत्व है । अलङ्कार काव्य का नित्य धर्म है । हिन्दी के अनेक रीति-आचार्यों ने जयदेव के स्वर में
१. द्रष्टव्य : - प्रस्तुत प्रबन्ध का प्रस्तुत अध्याय, पृ० ३ पाद टि० सं० १ २. रूपकादिमलङ्कारं बाह्यमाचक्षते परे ।
सुपां तिङां च व्युत्पत्तिं वाचां वाञ्छन्त्यलङ, कृतिम् ।
- भामह, काव्याल०, १,१४ ३. उद्भटादिभिस्तु गुणालङ्काराणां प्रायश: साम्यमेव सूचितम् । विषय-मात्र ेण भेदप्रतिपादनात् । संघटनाधर्मत्वेन शब्दार्थधर्मत्वेन चेष्टेः । - रूय्यक, अलं० सर्वस्व पृ० ७ -
४. निर्दोषा लक्षणवती सरीतिगुणभूषिता । सालङ्काररसानेकवृत्तिर्वाक्किाव्यनामभाक् ।।
— जयदेव, चन्द्रालोक, १,७ -
५. अङ्गीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलङ कृती । असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलंकृती | वही, १,८
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१२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अपना स्वर मिलाया है । ' निष्कर्ष यह कि अलङ्कार सम्प्रदाय के आचार्य वाच्य के उपस्कार के लिए अलङ्कार को आवश्यक मानते हैं। ध्वनि, रस आदि को भी वाच्योपस्कारक मानकर उन्होंने अलङ्कार में अन्तभूत मान लिया है। ___ वक्रोक्ति-सम्प्रदाय के प्रतिष्ठाता आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्यसर्वस्व स्वीकार किया है। यह वक्रोक्ति या उक्ति की लोकोत्तर चमत्कारपूर्ण भङ्गी शब्दार्थ का उपस्कार करती है। अतः वक्रोक्ति अलङ्कार है ।२ वक्रोक्ति से तात्पर्य वक्रोक्ति नामक अलङ्कार-विशेष का नहीं है। उक्ति-वैचित्र्य या भङ्गी-भणिति को कुन्तक ने वक्रोक्ति कहा है। भामह ने भी वक्रोक्ति को अलङ्कार का प्राण कहा था। उसी सिद्धान्त-सूत्र को लेकर कुन्तक ने वक्रोक्ति-सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा की। अस्तु, कुन्तक के अनुसार वक्रोक्ति अलङ्कार है और वह काव्य का प्राण है। अलङ्कार या वक्रोक्ति के कारण ही शब्दार्थ काव्य कहलाते हैं।
काव्यालोचन में औचित्य-सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य क्षेमेन्द्र माने जाते हैं। औचित्य पर-काव्य में विभिन्न तत्त्वों के उचित विनिवेश पर-आरम्भ से ही विचार हो रहा था; पर क्षेमेन्द्र ने औचित्य को काव्य का प्राण कहकर समीक्षाशास्त्र में एक नवीन प्रस्थान स्थापित करने का प्रयास किया। औचित्य का अर्थ है उचित का भाव । जिस वस्तु के जो अनुरूप हो उसके साथ उसकी संघटना उचित मानी जाती है। अतः, काव्य में औचित्य का अर्थ है काव्याङ्गों की अनुरूप घटना का होना । स्पष्ट है कि औचित्य काव्य का कोई स्वतन्त्र तत्त्व न होकर सभी काव्य-तत्त्वों का प्राण है। इस सिद्धान्त के अनुसार काव्य के अलङ्कार अपने-आप में काव्य-सौन्दर्य के हेतु नहीं। उचित विन्यास होने पर ही अलङ्कार सच्चे अर्थ में अलङ्कार होते हैं और काव्य की श्रीवृद्धि करते हैं। अनुचित
१. केशव अनलङ कृत काव्य को अलङ्कारहीन रमणी की तरह असुन्दर ___ मानते हैं।
-कविप्रिया, पृ० ४७ २. उभावतावलङ्कायौं तयोः पुनरलङ कृतिः । वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभङ्गीभणितिरुच्यते ।
-कुन्तक, वक्रोक्तिजी० १,१० ३. सषा सर्वव वक्रोक्तिरनयाऽर्थो विभाव्यते । यत्नोऽस्यां कविना कार्यः
कोऽलङ्कारोऽनया विना ।—भामह, काव्याल०, २, ८५ ४. उचितं प्राहुराचार्याः सदृश किल यस्य यत् ।
-क्षेमेन्द्र, औचित्य वि० च०, ७ ५. अलङ्कारास्त्वलङ्कारा गुणा एव गुणाः सदा ।
उचितस्थानविन्यासादलङ कृतिरलङ कृतिः । क्षेमेन्द्र,औचित्य वि० च०६, तथा-औचित्येनविनारुचि प्रतनुते नालङ कृति!गुणाः।-वही, पृ०१८६
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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान
[ १३
विन्यास से अलङ्कार काव्य- शोभा के बाधक ही बन जाते हैं । संन्यासी आभूषण पहन ले तो उससे उसकी कान्ति नहीं बढ़ ेगी । अनौचित्य के कारण वे आभूषण संन्यासी को हास्य का आलम्बन ही बना देंगे। लोक-जीवन में भी जैसे आभूषण अपने उचित स्थान में रहकर ही शोभावृद्धि करते हैं उसी तरह काव्य के अलङ्कार भी उचित स्थान में ही शोभाकारी होते हैं । कटि की मेखला गले में डाल ली जय और हार कमर में पहन लिया जाय, तो सौन्दर्य बढ़ने के बजाय बिगड़ ही जायगा । क्षेमेन्द्र ने हार, मेखला आदि के साथ काव्यालङ्कार की उपमा देकर उसे काव्य का बहिरङ्ग धर्म ही माना है; पर उचित स्थान में अलङ्कार की योजना को काव्य-सौन्दर्य में सहायक मानकर उसकी उपादेयता स्वीकार की है । वस्तुतः अलङ्कार ही क्या, सभी काव्य-तत्त्वों की उचित योजना होनी ही चाहिए । औचित्य के अभाव में सभी काव्याङ्ग असुन्दर और अग्राह्य हो जाते हैं । यह स्पष्ट है कि क्षेमेन्द्र में न तो अलङ्कार को सभी काव्य-तत्त्वों में प्रधान मानकर उसे काव्य-सौन्दर्य का आवश्यक हेतु मानने का आग्रह है, न उसे बहिरङ्ग मानकर उसकी अवमानना का ही आग्रह है । औचित्यपूर्ण अलङ्कारयोजना काव्य को सुन्दर बनाती है । अतः वह ग्राह्य है ।
ध्वनि - सम्प्रदाय में काव्य में अलङ्कार के स्थान - निरूपण का महत्त्वपूर्ण आयास हुआ है । ध्वनि-सम्प्रदाय के आचार्यों की दृष्टि अपेक्षाकृत अधिक उदार, पूर्वाग्रहमुक्त तथा वैज्ञानिक रही है । उन्होंने अलङ्कार आदि सम्प्रदाय के आचार्यों की तरह काव्य के किसी एक तत्त्व के प्रति अनावश्यक मोह से सभी तत्त्वों को उसी में अन्तर्भुक्त मान लेने का अशास्त्रीय आग्रह नहीं दिखाया है । उन्होंने ध्वनि को काव्य की आत्मा मानने पर भी गुण, रीति, अलङ्कार आदि काव्य-तत्त्वों का तटस्थ भाव से काव्य में स्थान निरूपित किया है । आनन्दवर्द्धन के पूर्व अलङ्कार को बाह्य तथा अन्तरङ्ग काव्य-धर्म माननेवाले दो मत प्रचलित थे । आनन्दवर्द्धन ने उन मतों में समन्वय स्थापित करते हुए रसोत्कर्ष में उपादेयता की दृष्टि से अलङ्कार का मूल्याङ्कन किया है । अलङ्कार के सम्बन्ध में उनकी सामान्य धारणा है कि रस को प्रकाशित करनेवाले वाच्य-विशेष ( चमत्कारपूर्ण कथन) ही रूपक आदि अलङ्कार हैं । २ स्पष्टतः
१. कण्ठे मेखलया नितम्बफलके तारेण हारेण वा
पाणौ नूपुरबन्धनेन चरणे केयूरपाशेन वा ॥
शौर्येण प्रणते रिपौ करुणया नायान्ति के हास्यताम् । - वही, पृ० १८६, २. तत् (रस) प्रकाशिनो वाच्यविशेषा एव रूपकादयोऽलङ्काराः । — आनन्दवर्धन, ध्वन्यालोक, २ पृ० १३२
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:१४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण आनन्दवर्धन के अनुसार अलङ्कार की सार्थकता रस के प्रकाशन में ही है । रस की व्यञ्जना वाच्यार्थ से ही होती है । अलङ्कार वाच्य अर्थ तथा वाचक शब्द का उपस्कार कर रस की व्यञ्जना में सहायक होते हैं। रस-सिद्ध कवि के भावोद्वेलित हृदय का उद्गार जब अनायास काव्यात्मक रूप में अभिव्यक्त होने लगता है, तो कितने ही अलङ्कार सहज भाव से उसमें समाविष्ट हो जाते हैं। कवि को अलङ्कार-योजना के लिए आयास नहीं करना पड़ता । अलङ्कार तो जैसे परस्पर होड़ लगाकर उस अभिव्यक्ति में स्थान पाने के लिए आ जुटते हैं।' भावाभिव्यक्ति के क्रम में सहज भाव से समाविष्ट अलङ्कार भाव-व्यञ्जना को सबल बनाते हैं। अतः ऐसे अलङ्कार को बाह्य धर्म मानना उचित नहीं। रस-व्यञ्जना के साथ सहज भाव से आनेवाले अलङ्कार को आनन्दवर्द्धन ने 'अपृथग्यत्ननिर्वर्त्य' अलङ्कार कहा है। ऐसे अलङ्कार ही "ध्वनि-काव्य में ग्राह्य होते हैं। जिस कवि के हृदय में गहन भावानुभूति नहीं होती, वह केवल उक्तिभङ्गी से पाठक को चमत्कृत करने के लिए सायास अलङ्कारों की योजना करता है । उसे अलङ्कार-योजना के लिए भाव-व्यञ्जना से अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है। इसलिए ऐसे अलङ्कार 'पृथग्यत्ननिर्वयं' माने गये हैं। ऐसी सायास अलङ्कार-योजना आनन्दवर्धन के अनुसार अग्राह्य है। ___आनन्दवद्धन की मान्यता है कि अलङ्कार वाच्योपस्कारक होने के कारण काव्य के शरीर हैं (शरीरभूत शब्दार्थ से अविभाज्य रूप में सम्बद्ध हैं); पर कभी वे शरीरी भी बन सकते हैं। अलङ्कार वाच्य हों तो शरीर किन्तु व्यङ ग्य होने पर ध्वनि का अङ्ग होते हुए भी शरीरी का पद प्राप्त कर लेते हैं। 3 अभिनवगुप्त ने इस कथन का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए कहा है कि अलङ्कार कभी-कभी रमणी के कुङ कुम-लेप की तरह शरीर का सुश्लिष्ट आभूषण बन जाते हैं । पर, उन्हें शरीर कहना भी कठिन है, उनके आत्मा बनने का तो १. ..."अलङ्कारान्तराणि हि निरुप्यमाणदुर्घटनान्यपि रससमाहितचेतसः
प्रतिभानवतः कवेरहम्पूर्विकया परापतन्ति ।—वही, २, पृ० १३१ । २. रसाक्षिप्ततया यस्य बन्धश्शक्यक्रियो भवेत् । ____ अपृथग्यत्ननिर्वर्त्यः सोऽलङ्कारो ध्वनौ मतः ।।-आनन्दवर्धन, ध्वन्या०
कारिका सं० ३६, पृ० १२६ ३. शरीरीकरणं येषां वाच्यत्वेन व्यवस्थितम् । तेऽलङ्काराः परां छायां यान्ति ध्वन्यङ्गतां गताः।-वही, कारिका सं०
५१ पृ० २१४ ।
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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान
[ १५
प्रश्न ही नहीं उठता । हाँ, व्यङग्य होने पर अलङ्कार वाच्य अलङ्कार की अपेक्षा अधिक सौन्दर्यशाली बन जाते हैं । उनका वाच्य अलङ्कार की अपेक्षा विशेष महत्त्व वैसा ही है जैसा महत्त्व खेल में राजा बननेवाला बच्चा दूसरों की तुलना में थोड़ी देर के लिए प्राप्त कर लेता है । १ निष्कर्षतः आनन्दवर्द्धन ने अपृथग्यत्ननिर्वर्त्य अलङ्कार को भावाभिव्यक्ति का सहजात धर्म होने के कारण काव्य का अन्तरङ्ग धर्म स्वीकार किया है ।
आचार्य मम्मट ने अपने काव्य - लक्षण में शब्दार्थ का निर्दोष तथा गुणयुक्त होना तो आवश्यक माना; पर अलङ्कार की काव्य में अनिवार्य स्थिति नहीं मानकर यह कहा कि कहीं-कहीं अनलङ कृत शब्दार्थ भी काव्य होते हैं । इस कथन से इतना तो स्पष्ट है कि वे कांव्य में अलङ्कार को अपेक्षित मानते थे; पर उसे काव्य-सौन्दर्यका नित्य और अनिवार्य धर्म नहीं मानते थे । उनका आग्रह रस पर था, जिसकी नित्य स्थिति उन्होंने काव्य में गुण की अनिवार्यता पर बल देकर स्वीकार की । रस-धर्म गुण अपने धर्मी रस से पृथक् तो रह ही नहीं सकता । अतः, काव्य में रस अपने धर्म गुण के साथ अनिवार्यतः रहते हैं । रस के अपकर्षकारी दोष का अभाव तथा उसके उपकारी अलङ्कार का सद्भाव मम्मट को काव्य में इष्ट है; पर उनकी स्पष्ट मान्यता है कि अलङ्कार के अभाव में भी भाव -सौन्दर्य से शब्दार्थ काव्य बन सकते हैं । ध्यातव्य है कि मम्मट ने अपने लक्षण में सुन्दर काव्य को लक्षित किया है, इसीलिए उन्होंने शब्दार्थ का दोषहीन होना आवश्यक माना है । कुछ दोष के रहने पर भी तो शब्दार्थ काव्य माने ही जाते हैं, भले ही उन्हें सुन्दर काव्य न माना जाय । अतः मम्मट के मत का निष्कर्ष यह होगा कि अलङ्कार रहित होने पर भी गुण ( उसके धर्मी रस भी) के सद्भाव तथा दोष के अभाव से शब्दार्थ सुन्दर काव्य बन सकते हैं । अलङ्कार भी यदि रस के सहायक बनकर आवें तो काव्य का सौन्दर्य और उत्कृष्ट हो जाता है ।
१. एतदुक्त भवति — सुकविः विदग्धपुरन्ध्रीवत् भूषणं यद्यपि श्लिष्टं
योजयति, तथापि शरीरतापत्तिरेवास्य कष्टसंपाद्या, कुङ कुमपीतिकाया इव । आत्मतायास्तु का सम्भावना । एवंभूता चेयं व्यङ्गयता, यदप्रधानभूतापि वाच्यमात्रालङ्कारेभ्यः उत्कर्षमलंकाराणां वितरति । बालक्रीडायामपि राजत्वमिवेत्यमुमर्थं मनसि कृत्वाह-त ेति ।— अभिनवकृत लोचन, पृ० ११७-१८
२. तददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलङ, कृती पुनः क्वापि ।
— मम्मट, काव्य प्र० १, कारिका १, पृ० ४ ।
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१६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अलङ्कार के सम्बन्ध में मम्मट की दृष्टि को और स्पष्ट रूप से समझने के लिए उनके अलङ्कार-लक्षण पर विचार कर लेना अपेक्षित है। उन्होंने काव्यपुरुष के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की कल्पना कर उसमें अलङ्कार का स्थान निर्धारित करने का प्रयास किया है। शब्द और अर्थ काव्य-पुरुष के शरीर हैं । रस उसकी आत्मा है और माधुर्य आदि रस के धर्म-काव्य गुण-मानव के शौर्य आदि गुण की तरह उसके गुण हैं । अलङ्कार काव्य-पुरुष के शरीर कोशब्द और अर्थ को-विभूषित करते हैं; अतः वे मानव-शरीर के हार आदि आभूषण की तरह उसके अलङ्कार हैं। लोक-जीवन में जैसे हार आदि आभूषण धारण करने वाले का शरीर अलङ कृत होकर लोक-धारणा को प्रभावित करता है और इस प्रकार अलङ कृत व्यक्ति की आत्मा का उपकार होता है, उसी प्रकार काव्य के अलङ्कार से काव्य का शब्दार्थ-रूप शरीर अलङ कृत' होकर उसकी आत्मा रस को उपकृत करता है।'
मम्मट ने काव्यालङ्कार के लिए हार आदि लौकिक आभूषणों को उपमान बनाया था। उनके पूर्व भी मानव-शरीर के बाह्य अलङ्कार के साथ काव्य के अलङ्कार की उपमा दी गई थी। लौकिक आभूषण के साथ तुलना करते हुए विश्वनाथ ने अलङ्कार को काव्य का बहिरङ्ग और अनित्य धर्म कहा है। भोज ने बाह्य, आभ्यन्तर और बाह्याभ्यन्तर; इन तीन वर्गों में अलङ्कार का विभाजन किया था। इस विभाजन की परीक्षा के क्रम में हम देख चुके हैं कि यह विभाजन वैज्ञानिक नहीं है ।
काव्य के अलङ्कार को काव्य-शरीर के साथ संयोग-वृत्ति से सम्बद्ध बाह्य धर्म मानने वाले मत के औचित्य की परीक्षा के लिए हम काव्य की सृजनप्रक्रिया पर विचार करें। काव्य कवि की अनुभूति की व्यञ्जना है। अनुभूति को व्यक्त करने के क्रम में कवि अपनी उक्ति को अलङ कृत बनाकर प्रस्तुत कर सकता है। अतः अलङ्कार काव्य के सहजात ही होते हैं । लौकिक आभूषण मानव शरीर के साथ उत्पन्न नहीं होते; पर काव्य का शब्दार्थ-शरीर सृजनप्रक्रिया में अलङ कृत होकर ही अवतरित होता है। उक्ति का चमत्कार १. उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचित् । हारादिवदलङ्कारास्तेऽनुप्रासोपमादयः ।
-मम्मट, काव्य प्रकाश, ८, ६७, पृ० १८६ २. शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माः शोभातिशायिनः । । रसादीनुपकुर्वन्तोऽलङ्कारास्तेऽङ्गदादिवत् ॥
-विश्वनाथ, साहित्य द० १०, १,पृ० ५५७
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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान . [ १७ अलङ्कार है और काव्य की उक्तियां-यदि वे अलङ कृत या चमत्कारपूर्ण हों तो -अपने अलङ्कार या विशेष विच्छित्ति के साथ ही व्यक्त होती हैं । अतः हार आदि लौकिक आभूषण से काव्यालङ्कार की उपमा सटीक नहीं बैठती। इस उपमा का तात्पर्य इतना ही समझा जाना चाहिए कि अलङ्कार शरीर के साथ ही प्रत्यक्षतः सम्बद्ध रहते हैं, आत्मा का उपकार वे शरीर के माध्यम से ही कर सकते हैं। जो अलङ्कार भावाभिव्यञ्जना के उत्कर्ष में सहायक हों और भावाभिव्यक्ति के क्रम में सहज भाव से आ जाते हों-ऐसे अपृथग्यत्ननिर्वर्त्य अलङ्कार को बहिरङ्ग नहीं माना जाना चाहिए। अलङ्कार को काव्य का अनित्य धर्म केवल इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि अलङ्कार के अभाव में भी सुन्दर काव्य की सत्ता रहती है। काव्य में अलङ्कार की सार्वत्रिक स्थिति अनिवार्य नहीं। दूसरे, कहीं-कहीं अलङ्कार काव्य की आत्मा रस के अनुपकारी भी हो जाते हैं। ऐसे अलङ्कार-अलङ्कार नहीं, शोभावर्धक धर्म नहीं। केवल भाव-समृद्धि से, रसपेशलता से अकृत्रिम तथा अलङ्काररहित उक्ति भी सुन्दर काव्य मानी जाती है, पर रस का उपकार करनेवाले अलङ्कार का महत्त्व अनुपेक्षणीय है। रस के उपकार में ही अलङ्कार की सार्थकता है । रस-ध्वनिवादी आचार्यो की इस मान्यता को ध्वनि-विरोधी ( रसानुमितिवादी) महिम भट्ट ने भी स्वीकार किया है।'
अलङ्कार के सम्बन्ध में दो प्रश्न बहुधा उठाये जाते रहे हैं-(१) अलङ्कार यदि अलङ कृत करने-शोभा का आधान या स्वाभाविक शोभा की वृद्धि करने के साधन हैं, जैसा कि करण-व्युत्पत्ति से अलङ्कार शब्द का अर्थ माना गया है, तो वे काव्य में अलङ कृत किसे करते हैं ? दूसरे शब्दों में काव्यालङ्कार का अलङ्कार्य किसे माना जाय ? (२) अलङ्कार और अलङ्कार्य क्या एक दूसरे से सर्वथा स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं ? ___भामह, उद्भट आदि आचार्यों ने शब्द और अर्थ को अलङ्कार्य माना है। भामह ने शब्द और अर्थ को काव्य कहकर उन्हें ही अलङ्कार्य स्वीकार किया है। उद्भट ने अलङ्कार को 'वाचाम् अलङ्कार' कह कर वाक् अर्थात् शब्द तथा अर्थ को अलङ्कार्य स्वीकार किया है। रीतिवादी वामन ने व्यापक अर्थ में तो अलङ्कार को सौन्दर्य का पर्याय कहा है; पर विशिष्ट अर्थ में उपमा आदि के १. विनोत्कर्षापकर्षाभ्यां स्वदन्तेऽर्था न जातुचित् । तदर्थमेव कवयोऽलंकारान्पर्युपासते ॥
-महिमभट्ट, व्यक्तिविवेक, २, १४
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१८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण लिए अलङ्कार शब्द का प्रयोग माना है। काव्य-सौन्दर्य के सामान्य अर्थ में अलङ्कार ही काव्य है; क्योंकि सौन्दर्य से पृथक् काव्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इस तरह वह काव्य-सौन्दर्य अलङ्कार भी है और अलङ्कार्य भी। काव्य के सभी सौन्दर्याधायक तत्त्व इस अर्थ में अलङ्कार हैं; पर विशिष्ट अर्थ में वामन ने अलङ्कार को काव्य की स्वाभाविक शोभा की वृद्धि का हेतु कहा है। उनके अनुसार रीति या विशेष प्रकार की पद-संघटना काव्य-सर्वस्व है।' वही अलङ्कार्य है। उसके सौन्दर्य के हेतु गुण होते हैं। रीति में गुण से उद्भूत सौन्दर्य की अलङ्कार से वृद्धि होती है। रीति या पद-संघटना तत्त्वतः शब्दार्थ से भिन्न नहीं। अतः रीतिवादी आचार्यों के अनुसार भी शब्दार्थ ही अलङ्कार्य सिद्ध होते हैं। वक्रोक्तिवादी कुन्तक ने अलङ्कार और अलङ्कार्य के प्रश्न पर बहुत गहन विचार किया है। उनके अनुसार वक्रोक्ति या चमत्कारपूर्ण कथनशैली अलङ्कार है और शब्दार्थ अलङ्कार्य ।२ इसीलिए वे स्वाभाविक उक्ति को अलङ्कार्य मानकर स्वभावोक्ति की अलङ्कारता का खण्डन करते हैं। __रसवादी समीक्षा के जनक भरत ने अलङ्कार के अलङ्कार्य का स्पष्टतः उल्लेख नहीं किया था, फिर भी अभिनवगुप्त ने अलङ्कार का काव्य में स्थान निरूपित करते हुए यह मन्तव्य प्रकट किया है कि भरत काव्य के लक्षण को शरीर-स्थानीय मानते थे । अतः उनके लक्षण को ही उनके मतानुसार अलङ्कार्य मानना चाहिए। हमने यह देखा है कि भरत के अनेक लक्षण पीछे चलकर अलङ्कार के रूप में स्वीकार कर लिये गए हैं । लक्षण शब्दार्थ के शोभाधायक धर्म थे। लक्षणों से समुद्भूत शब्दार्थ-सौन्दर्य की अभिवृद्धि में अलङ्कार की सार्थकता मानी गयी थी। अतः तात्त्विक रूप में लक्षण या लक्षणयुक्त शब्दार्थ को ही भरत अलङ्कार्य मानते होंगे।
काव्यशास्त्र में रस और ध्वनि-प्रस्थान की स्थापना हो जाने पर अलङ्कार और अलङ्कार्य के सम्बन्ध में मौलिक दृष्टि-भेद आया। रस या ध्वनि को
१. रीतिरात्मा काव्यस्य । -वामन, काव्यालं० सू० वृ० १, २, ६ २. उभावतावलंकायौं तयोः पुनरलंकृतिः ।
वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभङ्गीभणितिरुच्यते ॥–कुन्तक, वक्रोक्ति जी०१,१० ३. द्रष्टव्य वही, १, कारिका १०-१५, पृ० ५१-५६ ४. काव्ये तावल्लक्षणं शरीरं, तस्योपमादयस्त्रयोऽर्थभागे, यथा हि
पृथग्भूतेन हारेण रमणी विभूष्यते तथोपमानेन शशिना तत्सादृश्येन वा कविबुद्धिचञ्चलतया परिवर्त्तमानत्वात् पृथक्सिद्धेनैव प्रकृतवर्णनीयवनितावदनादि सुन्दरीक्रियत इति तदेवालङ्कारः।।
-ना० शा०, अभिनव कृत अभिनव भारती टीका, पृ० ३२१
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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान
[ १६
काव्य की आत्मा के रूप में स्वीकृति मिलने के कारण शरीरभूत शब्दार्थ का महत्त्व गौण पड़ गया। वाचक शब्द और वाच्य अर्थ का काव्य में उसी अंश तक महत्त्व माना जाने लगा, जिस अंश में वे व्यङ ग्यार्थ या ध्वनि में सहायक होते हैं। पीछे अभिधा-मात्र को एक शब्द-शक्ति मानकर वाच्यार्थ के महत्त्व की स्थापना का प्रयास भी काव्यशास्त्रीय चिन्तन को विशेष प्रभावित नहीं कर पाया। अस्तु ; रस-ध्वनि-सम्प्रदाय में काव्य के आत्मभूत रस या ध्वनि को ही अलङ्कार्य माना गया। प्रमुखतः अलङ्कार का सम्बन्ध शब्द और अर्थ से ही रहता है; पर शब्दार्थ-मात्र के उपस्कार में अलङ्कार की सार्थकता नहीं। शब्दार्थ का उपस्कार कर उनके माध्यम से काव्य के अङ्गी रस या ध्वनि के उपकार में ही उसकी सार्थकता है। यदि अङ्गी न हो तो अलङ्कार से अङ्ग का भी उपस्कार नहीं हो सकता। मृत व्यक्ति के निष्प्राण शव को कितने भी मूल्यवान रत्नाभरण से लाद दिया जाय, उसमें सुन्दरता नहीं आ सकती। रस-ध्वनिवादी आचार्यों की दृष्टि में भावहीन काव्य अलङ्कार के चमत्कार से युक्त होने पर भी निष्प्राण होता है, निस्तेज होता है । अतः, उनकी दृष्टि में अलङ्कार्य तत्त्वतः रस या ध्वनि ही है। इस प्रकार काव्य के शरीरभूत शब्द और अर्थ को, शरीर के सहजात कान्ति आदि धर्म के समान काव्य के शब्दार्थगत लक्षण को तथा रस या ध्वनि को अलङ्कार्य और अनुप्रास, उपमा आदि को अलङ्कार माननेवाले तीन मत सामने आते हैं । लक्षण को अलङ्कार्य माननेवाले उसके आश्रयभूत शब्दार्थ को भी अलङ्कार्य स्वीकार करेंगे ही। अतः, काव्यशरीर और काव्य की आत्मा को अलङ्काये माननेवाले दो मत ही मुख्य हैं, जो समीक्षकों की काव्य-विषयक बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग दो दृष्टियों के अलग-अलग परिणाम हैं। अलङ्कार और अलङ्कार्य ___ अब हम अलङ्कार और अलङ्कार्य के भेद-अभेद के प्रश्न पर विचार करें। काव्य कवि की अनुभूति की व्यञ्जना है। कवि अपनी अनुभूति को अनेक प्रकार से प्रभावोत्पादक बनाकर व्यक्त करना चाहता है। काव्य के अलङ्कार उसकी इसी इच्छा के फल होते हैं। कवि की वाणी जब अलङ कृत होकर कवि की अनुभूति की व्यञ्जना करने लगती है, तब वाणी के अलङ्कार
१. विवक्षा तत्परत्वेन...]-आनन्दवर्धन, ध्वन्या० २, कारिका सं० ४१ २. तथा हि अचेतनं शवशरीरं कुण्डलाद्य पेतमपि न भाति, अलंकार्यस्याभावात् ।
-अभिनवगुप्त, ध्वन्या० लोचन, पृ० ७५
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२० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उस पूर्ण व्यञ्जना के अविशिष्ट साधन बनकर ही आते हैं। किसी कवि की अनुभूति की अभिव्यञ्जना जिस रूप में हुई है—यदि वह अलङ कृत है, तो जिस अलङ्कार के साथ हुई है-उससे भिन्न रूप में ठीक वैसी ही व्यञ्जना सम्भव नहीं है। एक प्रकार की उक्ति का अर्थ दूसरे प्रकार की उक्ति के अर्थ से अभिन्न हो ही नहीं सकता। ऐसी स्थिति में कवि की अलङ कृत उक्ति का अर्थ अलङ्कार और अलङ्कार्य को अलग-अलग कर व्यक्त किया ही नहीं जा सकता । अलङ्कार यदि कथन की चमत्कारपूर्ण भङ्गी का प्रकारविशेष है तो कवि की उक्ति से उस विशेष भङ्गिमा को निकालकर उसकी व्यञ्जना को अक्षुण्ण नहीं रखा जा सकता। अलङ्कार को निकालकर—उक्ति की चमत्कारपूर्ण भङ्गी को अलग कर-जो सीधा कथन बच रहेगा उसे कवि की अनुभूति की अभिव्यञ्जना नहीं कहा जा सकेगा । अतः वह अवशिष्ट अलङ्कारहीन उक्ति काव्य नहीं होगीअलङ्कार्य नहीं होगी। (जहाँ कवि की अनुभूति अनलङ कृत रूप में ही व्यक्त हुई हो वहाँ की बात और है । वहाँ वही पूर्ण व्यञ्जना है, वही काव्य है ।) एक अलङ कृत काव्योक्ति का उदाहरण लेकर हम इस तथ्य को सष्ट करेंगे । सूर ने विरहिणी गोपियों की पीड़ा की कल्पना करते हुए माना है कि काली रात उन्हें नागिन के दंश की तरह पीड़ा देती है और जब उस रात्रि के अन्धकार को दूर करती हुई चाँदनी फैल जाती है तब तो उनकी वियोग-व्यथा और तीव्र हो उठती है, जैसे नागिन डॅसकर उलट गई हो
पिया बिन नागिन काली रात।
कबहुँक जामिनि होत जुन्हया, डसि उलटो ह जात ॥' नागिन जब डंसकर उलट जाती है तो वह दंश में और भी अधिक विष भर देती है। काली नागिन उलटती है तो उसके नीचे का उजला भाग ऊपर आ जाता है। रात्रि के अन्धकार के बाद चाँदनी के छा जाने में नागिन का यह रूप साम्य भी है।
सूर के उक्त पद में यदि अलङ्कार और अलङ्कार्य को अलग-अलग कर देखें, तो यह मानेंगे कि इसमें मुख्य कथ्य या अलङ्कार्य है-'वियोगिनी गोपियों के लिए रात्रि का अन्धकार तो दुःखद है ही, चाँदनी छाने से उनका दुःख और भी बढ़ जाता है । सष्ट है कि यह कथन कवि की उक्त दो पंक्तियों में व्यजित अर्थ से सर्वथा भिन्न है। उन पंक्तियों में अलङ्कार और अलङ्कार्य के अलग-अलग अस्तित्व की कल्पना न कर उसे कवि की अनुभूति की एक पूर्ण अभिव्यञ्जना
१. सूरसागर
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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान
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मानना ही समीचीन है, जिस पूर्णता में अलङ्कार अविशिष्ट अङ्ग है । इसलिए कोचे की यह मान्यता उचित ही है कि काव्य एक सम्पूर्ण अभिव्यञ्जना है और अलङ्कार उस अभिव्यक्ति का सम्पूर्ण से अविभाज्य साधन है ।
भारतीय अलङ्कार-शास्त्र के आचार्यों ने अलङ्कार और अलङ्कार्य के इस अविच्छेद्य सम्बन्ध को बहुत पहले ही समझा था । अनेक आचार्यों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में अलङ्कार और अलङ्कार्य के अभेद का निरूपण भी किया है । विच्छित्ति, अभिधान के प्रकारविशेष, उक्तिभङ्गी आदि को अलङ्कार का लक्षण मानने में अलङ्कार्य ( शब्द, अर्थ, रस या ध्वनि) से उसके अविभाज्य सम्बन्ध की धारणा निहित थी । भारतीय चिन्ता-धारा अनेकता में एकता, भेद में अभेद का सूत्र ढूँढ़ती रही है । दार्शनिकों ने सम्पूर्ण विश्व को विभु की विभूतियों की अभिव्यक्ति माना है । इस जगत्-रूपी काव्य को अभिव्यक्त करने के कारण वह ब्रह्म कवि है । २ शैव मतावलम्बियों का शिव इस वैचित्र्यपूर्ण जगत् का निर्माण करता है, अतः वह श्रेष्ठ कलाकार है । उसकी कला में उसकी विभूति का ही उन्मेष होता है । 3 इस प्रकार इस विश्व की विविधता में भी तात्त्विक एकरूपता अन्तर्निहित है । काव्य कवि की आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति होता है । कवि की अखण्ड अनुभूति ही काव्य में नाना रूपों में अभिव्यक्त होती है । अतः काव्य के विविध अङ्गों में एक अन्विति का, तात्त्विक अभेद का होना स्वाभाविक है ।
भारत के साहित्यशास्त्रीय चिन्तन पर अद्वैतवादी वेदान्त दर्शन का तथा शैवमत का पुष्कल प्रभाव पड़ा है । अद्वैतवादियों ने जीव, जगत और ब्रह्म की, सृष्टि और स्रष्टा की, जगत्-काव्य और उसके कवि की तात्त्विक अभिन्नता स्वीकार कर भी उनके बीच व्यावहारिक भेद की कल्पना को तर्कसङ्गत माना है । काव्यशास्त्र के विचारकों ने भी काव्य को कवि की अनुभूति की अखण्ड व्यञ्जना मानकर सभी काव्य-तत्त्वों की तात्त्विक अभिन्नता स्वीकार की है; पर विश्लेषण के लिए उनकी व्यावहारिक भिन्नता की कल्पना भी समीचीन मानी है । शब्द को ब्रह्म मानकर उसके विवर्त अर्थ को तो उससे अभिन्न माना ही गया है, रस या काव्यानन्द की अनुभूति के समय काव्य के सभी अङ्गों की
१. कोचे, एस्थेटिक्स, ६, पृ०६६
२. कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः, ईशावास्योपनिषद्,
३. निरुपादानसम्भारमभित्तावेव तन्वते ।
.
जगच्चित्र ं नमस्तस्मै कलाश्लाघाय शूलिने ॥ - नारायण भट्ट, स्तवचिन्तामणि, काव्यप्रकाश में उद्धृत, पृ० ५४
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२२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
1
समन्वित अखण्ड अनुभूति ही स्वीकार की गई है । उस अनुभूति में विभाव आदि की विशिष्ट अनुभूति का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रह जाता । वाच्य अर्थ तथा उसके उपस्कारक अलङ्कार आदि भी उस काव्यानन्द की समग्र अनुभूति में मिलकर उसके अविभाज्य अङ्ग बन जाते हैं । उस अखण्ड काव्यानन्द की अनुभूति - दशा तक पहुँचने में वाच्यार्थ, अलङ्कार आदि के बोध का क्रम यदि हो भी तो वह इतना अलक्ष्य होता है कि भावक उसे परख नहीं पाता । कमल की सैकड़ों पँखुड़ियों को ऊपर-नीचे रखकर एक बार उनमें सूई चुभो देने पर वह सूई सभी पंखुड़ियों में छेद तो एक क्रम से ही करती है; पर उस क्रम को कौन परिलक्षित कर पाता है ? यही स्थिति वाच्य अर्थ, अलङ्कार आदि के बोध से लेकर काव्य की अखण्ड आनन्दात्मक अनुभूति की दशा तक पहुँचने की है । इस मान्यता में भेद में अभेद की धारणा निहित है । काव्य के अङ्ग भावक के हृदय में अलग-अलग अनुभूति को जगाने, उसे तीव्र करने आदि का कार्य करते हैं; पर काव्यानन्द की अनुभूति - दशा में वे सब मिलकर एकाकार हो जाते हैं । उस दशा में एक अखण्ड अनुभूति ही बच रहती है, जो स्वतः प्रकाश्य और आनन्दात्मक होती है । उस अनुभूति में काव्याङ्गों की स्थिति अनेक वस्तुओं के मिश्रण से निर्मित पेय में तत्तद् वस्तुओं की-सी हो जाती है । पेय के सभी तत्त्व अपने-अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को मिटाकर अविभाज्य रूप में पेय का स्वाद उत्पन्न करने में सहायक होते हैं । काव्य के अङ्ग भी अपनेअपने स्वतन्त्र अस्तित्व का विलयन कर एक अखण्ड काव्यानुभूति में अविभाज्य अङ्ग बन कर सहायक होते हैं । काव्य की इस अखण्ड आनन्दात्मक अनुभूति को दृष्टि में रखकर ही आनन्दवर्द्धन ने कहा था कि अपृथग्यत्ननिर्वर्त्य अलङ्कार रसानुभूति में अन्तरङ्ग अङ्ग बनकर ही सहायक होते हैं । भामह, दण्डी, वामन आदि आचार्यों ने भी उपमा आदि विशेष अलङ्कारों का गुण आदि से भेद-निरूपण कर पुनः सभी काव्य-तत्त्वों को सामान्य रूप से काव्य का अलङ्कार या सौन्दर्य कहकर सब की तात्त्विक अभिन्नता स्वीकार कर ली है । इस मान्यता में कोई स्वतः - विरोध नहीं । काव्य-सौन्दर्य या काव्यानुभूति की अखण्डता की दृष्टि से सभी काव्य-तत्त्व अभिन्न हैं; पर काव्याङ्गों के अलग-अलग विवेचन में सबके स्वतन्त्र अस्तित्व तथा उनके सापेक्ष महत्त्व की कल्पना भी अनुपादेय नहीं । तर्कशास्त्र का यह मान्य सिद्धान्त है कि
१
१.
" तस्मान्न तेषां बहिरङ्गत्वं रसाभिव्यक्तौ ।
— आनन्दवर्द्धन, ध्वन्या० २ पृ० १३२
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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान
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तात्त्विक अभेद में भी विवेचन-विश्लेषण के लिए भेद की कल्पना करनी ही पड़ती है। अखण्ड को खण्डों में कल्पित किये बिना-भले ही वह खण्डकल्पना अतात्त्विक हो—विषय का निरूपण सम्भव नहीं । काव्यानन्द या काव्य के सौन्दर्य-बोध को अखण्ड आनन्दात्मक अनुभूति माननेवाले मम्मट, विश्वनाथ आदि ने जो अलङ्कार को हार आदि की तरह काव्य का बहिरङ्ग धर्म कहा था, उसका भी आशय केवल इतना ही होगा कि एक तो अलङ्कार मुख्य रूप से शब्द और वाच्य अर्थ से सम्बद्ध रहकर परम्परया काव्यानन्द में उपकारक होते हैं, दूसरे उनके अभाव में भी काव्यानन्द की अनुभूति सम्भव होती है। शब्द, वाच्यार्थ आदि की समन्वित अनुभूति को एक अखण्ड काव्यानुभूति तो मम्मट, विश्वनाथ आदि भी मानते ही हैं, जिसमें काव्याङ्गों की अलग-अलग अनुभूति की चेतना मिट जाती है। उस काव्यानुभूति में एक ही काव्य-सौन्दर्य की अखण्ड आनन्दात्मक चेतना का अस्तित्व रह जाता है, अङ्ग-सौन्दर्य की खण्डचेतना उसमें मिलकर एकाकार हो जाती है। इस प्रकार अलङ्कार्य रस तथा अलङ्कार का पृथक्-पृथक् अस्तित्व अतात्त्विक है। अलङ्कार शब्द या वाच्यार्थ से मिलकर रसानुभूति में सहायक बन जाते हैं। यह साहाय्य बाह्य नहीं आभ्यन्तर ही होता है। अलङ्कार का सौन्दर्य भी उस अखण्ड काव्यानन्द की अनुभूति में—पूर्ण काव्य-सौन्दर्य में-घुल-मिल जाता है। ___ कुन्तक ने अलङ्कार और अलङ्कार्य के भेदाभेद के प्रश्न पर बहुत ही तर्कपूर्ण और प्रामाणिक विचार प्रस्तुत किया है। उन्होंने वक्रोक्ति को, जो उनके अनुसार काव्य-सर्वस्व है, अलङ्कार्य नहीं मानकर अलङ्कार माना है। उनके अनुसार अलङ्कार्य शब्द और अर्थ है।' प्रकृत या अनलङ कृत शब्दार्थ का प्रयोग लोकव्यवहार में होता है । अतः ऐसे शब्दार्थ को वार्ता कहते हैं। स्वभावोक्ति को अलङ्कार न मानकर अलङ्कार्य मानने में कुन्तक का यही आशय है कि स्वभावोक्ति अर्थात् प्रकृत शब्दार्थ अलङ कृत होने पर ही काव्य की कोटि में आते हैं। वे वक्रोक्ति से अलङ कृत होते हैं, अतः अलङ्कार्य हैं। वक्रोक्ति, प्रकृत शब्दार्थ को अलङ कृत करती है, अतः वह अलङ्कार है । विशेष चमत्कार से-वक्रोक्ति से—युक्त या अलङ कृत शब्दार्थ को काव्य मानने पर अलङ्कार और अलङ्कार्य का भेद काव्य में नहीं रह जाता। अलङ्कार-व्यतिरिक्त प्रकृत शब्दार्थ तो काव्य हो ही नहीं सकता। अतः कुन्तक ने स्पष्ट शब्दों में यह कहा है कि वस्तुतः सालङ्कार उक्ति ही काव्य है। उसमें अलङ्कार और अलङ्कार्य की परस्पर स्वतन्त्र सत्ता नहीं,
१. द्रष्टव्य, प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रस्तुत अध्याय, पृ० १८ पाद टि० सं० २
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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
फिर भी काव्य की व्युत्पत्ति के लिए — उसके स्वरूप के विश्लेषण के लिए— अलङ्कार और अलङ्कार्य को अलग-अलग कल्पित कर उनका विवेचन किया जाता है । अलङ्कार - अलङ्कार्य की तात्त्विक अभिन्नता मान लेने पर भी काव्य की व्युत्पत्ति के लिए दोनों की पार्थक्य - कल्पना की आवश्यकता बताने के लिए कुन्तक ने एक दृष्टान्त दिया है कि वैयाकरण वाक्य में पद, वर्ण आदि की अलग-अलग सत्ता नहीं मानते, फिर भी व्याकरण-ग्रन्थों में पद के अन्तर्गत प्रकृति - प्रत्यय का तथा वाक्य के अन्तर्गत पदों का पृथक-पृथक विवेचन किया जाता है । अतः, निष्कर्ष रूप में कुन्तक की स्थापना यह है कि अलङ्कार सहित सम्पूर्ण काही काव्यत्व है । अलङ्कृत वाक्य ही काव्य होता है, न कि काव्य में अलङ्कार का योग रहता है । स्पष्ट है कि क्रोचे ने अभिव्यञ्जनावाद में जो यह सिद्धान्त स्थापित किया है कि कला सहजानुभूति है और सहजानुभूति से अभिन्न होने के कारण अभिव्यञ्जना अखण्ड है, जिसका अलङ्कार, रीति आदि में विभाजन सम्भव नहीं, उस सिद्धान्त की स्थापना कुन्तक के द्वारा भारतीय अलङ्कार शास्त्र में बहुत पहले हो चुकी थी । कुन्तक ने भी काव्य को कवि की अनुभूति की सम्पूर्ण, निरवयव व्यञ्जना माना है । कुन्तक इस विचार को और आगे तक ले गये थे, जहाँ तक क्रोचे नहीं पहुँच पाये । क्रोचे का कथन है कि अलङ्कार - सिद्धान्त या रीति-सिद्धान्त अभिव्यञ्जना के अनेक वर्गों में अवैध विभाजन का परिणाम है । वस्तुतः अभिव्यञ्जना अखण्ड है । उसके अलग-अलग अङ्गों की कल्पना नहीं की जा सकती । क्रोचे का यह मत काव्य के भावक मात्र को दृष्टि में रखकर विचार करने से अवश्य ही निर्भ्रान्त है । सहृदय को काव्य का भावन उसकी पूर्णता में ही होता है । रसवादी आचार्यों ने काव्यानन्द की अनुभूति को वेद्यान्तर के स्पर्श से शून्य, अखण्ड, स्वप्रकाश्य और ब्रह्मानन्द
१. अलंकृतिरलं कार्यमपोद्धृत्य विवेच्यते । तदुपायतया तत्त्वं सालंकारस्य काव्यता ॥
— कुन्तक, वक्रोक्ति जी० १, ६ २. ... तस्मादेवंविधो विवेकः काव्यव्युत्पत्युपायतां प्रतिपद्यते । दृश्यते च समुदायान्तःपातिनामसत्यभूतानामपि व्युत्पत्ति-निमित्तमयोद्धृत्य विवेचनम् । यथा पदान्तर्भू तयोः प्रकृतिप्रत्ययोः वाक्यान्तभूतानां पदानाञ्चेति । वही, वृत्ति पृ० १६ वर्ण, पद, वाक्य आदि की अभिन्नता के लिए द्रष्टव्यपदे न वर्णा विद्यन्ते वर्णेष्ववयवा न च । वाक्यात्पदानामत्यन्तं प्रविवेको न कश्चन ॥
— वैयाकरणभूषणसार, कारिका सं० ६८
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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान
[ २५ · की तरह अनिर्वचनीय तक कहा है । ' कुन्तक ने भी काव्य को निरवयव या सम्पूर्ण अभिव्यक्ति माना है । काव्य-समीक्षक की दृष्टि से क्रोचे का मत अशक्त है । क्रोचे कलानिरूपिणी समीक्षा में रस, अलङ्कार आदि अङ्गों का विवेचन अनुपादेय मानते हैं। उनके अनुसार अङ्गों का विश्लेषण वैज्ञानिक समीक्षा में तो सहायक है, पर कला निरूपिणी समीक्षा में उसका कोई मूल्य नहीं । क्रोचे के इस सिद्धान्त का खण्डन करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है कि 'इस सम्बन्ध में मेरा वक्तव्य यह है कि वैज्ञानिक या विचारात्मक समीक्षा ही कलानिरूपिणी समीक्षा है । उसी का नाम समीक्षा है' । वस्तुतः तर्क या शास्त्र से `भिन्न समीक्षा सम्भव ही नहीं है । शास्त्र, या तर्क का काव्यार्थ - भावन में कोई उपयोग नहीं, पर समीक्षा में वे उपयोगी ही नहीं, अनिवार्य हैं । समीक्षा पूर्णता में नहीं होती, पूर्ण की खण्ड-कल्पना कर लेने पर ही होती है । पूर्ण या अखण्ड अनिर्वचनीय होता है | अतः समीक्षक के लिए काव्य की सम्पूर्ण अभिव्यञ्जना को भी खण्डों में कल्पित कर लेना आवश्यक हो जाता है । शुक्ल जी के द्वारा की गई कोचे की समीक्षा विचारणीय है ।
शुक्ल जी ने क्रोचे की इस मान्यता से, कि काव्य का अर्थ एक और अखण्ड होता है, उसमें अलङ्कार और अलङ्कार्य आदि अङ्गों का विभाजन नहीं हो सकता, असहमति प्रकट करते हुए कहा कि अलङ्कार और अलङ्कार्य का भेद मिट नहीं सकता । उनकी मान्यता है कि व्यञ्जना की तरह अलङ्कार में भी एक प्रस्तुत अर्थ रहता है और दूसरा अप्रस्तुत । इस प्रस्तुत अर्थ को सामने रखे बिना कवि की उक्ति की समीचीनता की परीक्षा नहीं की जा सकती और न उसकी रमणीयता के स्थल ही सूचित किये जा सकते हैं । शुक्ल जी की यह मान्यता अंशतः ही प्रामाणिक मानी जा सकती है । औपम्यगर्भ अलङ्कार में एक अर्थ प्रस्तुत और दूसरा अप्रस्तुत रहता है । शुक्ल जी इस दृष्टि से दोनों का अनिवार्य भेद मानेंगे कि प्रस्तुत अर्थ के उपस्कार की दृष्टि से ही अन्य अप्रस्तुत अर्थ की योजना का औचित्य माना जाता है । अभिव्यञ्जनावादी
१. सत्त्वोद्र कादखण्ड स्वप्रकाशानन्द - चिन्मयः । वेद्यान्तरस्पर्शशून्यो ब्रह्मास्वादसहोदरः ।। लोकोत्तरचमत्कारप्राणः कैश्चित् प्रमातृभिः । स्वाकारवदभिन्नत्वेनायमास्वाद्यते रसः ॥
- विश्वनाथ, साहित्य द० ३, २
२. रामचन्द्र शुक्ल, चिन्तामणि, भाग २ पृ० १६१ ३. वही
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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
क्रोचे आदि ऐसे स्थल में भी प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत के मेल से व्यजित एक अखण्ड सुन्दर अर्थ को समग्रता में ही काव्य मानेंगे। कवि की उस व्यञ्जना से अप्रस्तुत और प्रस्तुत को खण्डशः कर देने पर कवि की अभिव्यञ्जना का यथार्थ स्वरूप ही मिट जायगा-खण्ड में विभक्त होकर कोई उक्ति काव्य नहीं बच रहेगी। शुक्ल जी ने अलङ्कार के सम्बन्ध में उक्त स्थापना के समय अतिशय-गर्भ, शृङ्खला-गर्भ आदि अलङ्कारों को दृष्टि में नहीं रखा है, जिनमें प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत; दो अर्थ नहीं रहते, प्रस्तुत अर्थ का ही विशेष भङ्गी से कथन होता है। 'बिनु पग चलइ, सुनइ बिनु काना' इस विभावना में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत के भेद का आग्रह अनुचित होगा। ऐसी उक्तियों में अलङ्कार के सौन्दर्य के साथ प्रतिपाद्य अर्थ काव्य बनता है। भेद करना ही चाहें तो कह लें कि प्रतिपादन की चमत्कारपूर्ण भङ्गी से प्रतिपाद्य अर्थ सुन्दर रूप में व्यक्त हुआ है । ऐसी स्थिति में प्रतिपादन की विशेष भङ्गी अर्थात् अलङ्कार को प्रतिपाद्य अर्थ अर्थात् अलङ्कार्य से पृथक् कर काव्यत्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती । यहाँ कुन्तक के 'तत्त्वं सालङ्कारस्य काव्यता' के सिद्धान्त तथा क्रोचे के अखण्ड अभिव्यञ्जना के सिद्धान्त के औचित्य में सन्देह नहीं किया जा सकता। जहाँ प्रस्तुत और अप्रस्तुत अर्थ रहते भी हैं वहाँ भी दोनों की समन्वित योजना से व्यक्त एक सुन्दर अर्थ का ही—अप्रस्तुत से उपस्कृत प्रस्तुत के अखण्ड सौन्दर्य का ही-भावन होता है। मुख को कमल के समान कहने पर कमल का सौन्दर्य-बोध हृदय में उत्पन्न होकर मुख के सौंन्दर्य-बोध को उपस्कृत अवश्य करता है, पर वह अपने अस्तित्व का भी विलयन मुख के सौन्दर्य-बोध में ही कर देता है । अगर प्रिया के मुख की कान्ति की अनुभूति के समय कमल की कमनीयता की पृथक् अनुभूति होती रहे तो मुख के सौन्दर्य की अनुभूति बाधित ही हो जायगी। एक समय दो अनुभूतियाँ हृदय में कैसे रहेंगी? अतः सत्य यही है कि अलङ्कार प्रतिपाद्य से घुल-मिलकर एक अखण्ड काव्यबोध में सहायक होते हैं । काव्यानुभूति में वे बहिरङ्ग साहाय्य देने वाले धर्म नहीं होते ; फिर भी काव्यार्थ के विवेचन-विश्लेषण में, काव्य-समीक्षा में काव्याङ्गों का अलग-अलग विवेचन किया जाता है। कुन्तक की यही मान्यता थी, जिसका पोषण शुक्ल जी के कथन से भी होता है। समीक्षक काव्यार्थ का भावन कर ही विरत नहीं हो जाता। भावन तो समीक्षा का प्रथम चरण-मात्र है। समीक्षक भावित अर्थ का विश्लेषण करता है। इसी क्रम में वह विभिन्न काव्याङ्गों का सापेक्ष मूल्य भी निर्धारित करता है । तभी वह सम्पूर्ण काव्य काः
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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान
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मूल्याङ्कन कर पाता है । क्रोचे के सिद्धान्त में काव्य-समीक्षा की इस पद्धति के लिए स्थान नहीं । सम्भव है कि काव्य को सहजानुभूति या अखण्ड अभिव्यञ्जना मान लेने पर क्रोचे को उस अखण्ड की खण्ड- कल्पना असम्भव जान पड़ी हो; पर भारतीय विचारकों के लिए यह कठिन समस्या नहीं थी । यहाँ तो केवल की तात्त्विक सत्ता तथा सम्पूर्ण विश्व को उसका विवर्त — उस एक की अविभाज्य अभिव्यक्ति मानकर भी उनमें व्यावहारिक भेद-निरूपण सम्भव माना गया है । दार्शनिकों की इस प्रशस्त विचार-सरणि पर चलकर साहित्यशास्त्र के आचार्यों ने भी अखण्ड काव्यानुभूति के सहायक अङ्गों की खण्डशः कल्पना को व्यावहारिक दृष्टि से उपादेय माना है । इसीमें अभिव्यञ्जनावाद के प्रतिष्ठाता क्रोचे आदि से कुन्तक आदि भारतीय आचार्यों का श्रेय है ।
निष्कर्ष यह कि काव्य की अनुभूति तत्त्वतः समग्र और अवयव - रहित ही होती है । सभी काव्य-तत्त्व एक अखण्ड काव्य-सौन्दर्य के अन्तरङ्ग सहायक होते हैं । अलङ्कार भी काव्य-सौन्दर्य का अन्तरङ्ग सहायक ही है । वह काव्यानन्द की अनुभूति में बाहर से सहायक नहीं होता । काव्य की समीक्षा के लिए जब वाक्यपदन्याय से उस पूर्ण काव्य-सौन्दर्य के अलग-अलग अङ्गों का विश्लेषण कर अलङ्कार का अन्य अङ्गों से सापेक्ष मूल्याङ्कन होता है, तब रस, गुण आदि की तुलना में अलङ्कार को गौण महत्त्व दिया जाता है । कारण ये हैं
(क) अलङ्कार के अभाव में भी रस, भाव आदि की समृद्धि से सरल उक्ति काव्य हो जाती है ।
(ख) रस, भाव आदि न रहें तो केवल अलङ्कार से उक्ति में काव्यत्व नहीं आता ।
(ग) अलङ्कार काव्य का अङ्गी नहीं बन सकता, अङ्ग ही होता है; क्योंकि उक्ति को अलङ कृत-मात्र करना कवि का मुख्य उद्देश्य नहीं होता । वह किसी विशेष उद्देश्य से ही अलङ्कार की योजना करता है ।
(घ) कहीं-कहीं अलङ्कार का भार भाव - सौन्दर्य का बाधक भी बन सकता है ।
काव्य-समीक्षा की सुविधा के लिए अङ्गों का विभाजन करने पर काव्य के शब्द तथा वाच्य-अर्थं मुख्य रूप से तथा रस, भाव आदि परम्परया अलङ्कार्य माने जाते हैं और उन्हें अलङ्कृत करने वाले अनुप्रास, उपमा आदि अलङ्कार । भावोत्कर्ष में सहायक अलङ्कार का काव्य में अनुपेक्षणीय महत्त्व है ।
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द्वितीय अध्याय
अलङ्कार-धारणा का विकास
भारत में काव्यशास्त्रीय चिन्तन-परम्परा का मूलभूत ग्रन्थ आचार्य भरत का 'नाट्यशास्त्र' है। यद्यपि भरत का मुख्य उद्देश्य दृश्य-काव्य के उपादानों का साङ्गोपाङ्ग निरूपण करना था, तथापि उनके व्यापक विवेचन में काव्य-शास्त्र के प्रमुख विवेच्य तत्त्वों का भी समावेश हो गया था। ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं था। दृश्य-काव्य का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। वाचिक अभिनय में श्रव्य- काव्य के सभी अवयव समाविष्ट हो जाते हैं। यही कारण है कि 'नाट्य शास्त्र' के प्रतिपाद्य मुण, दोष, रस, अलङ्कार आदि काव्यशास्त्र के भी प्रतिपाद्य विषय बन गये । नाट्यशास्त्र से पृथक् काव्यशास्त्रीय विवेचना का स्वरूप भामह के 'काव्यालङ्कार' से स्पष्ट हो जाता है, जिसमें नाटक के अङ्गों को छोड़, काव्य के अङ्गों का सुव्यवस्थित विवेचन किया गया है । इस रचना में काव्य के अलङ्कार की विवेचना का प्रमुख स्थान है । यहाँ आकर अलङ्कार की संख्या में भी बहुत वृद्धि हो गई। भरत के चार अलङ्कारों के स्थान पर भामह के 'काव्यालङ्कार' में परिभाषित एवं सूचित अलङ्कारों की संख्या उनचालीस हो गई। धीरे-धीरे यह संख्या बढ़ती गई और अप्पयदीक्षित के 'कुवलयानन्द' में शताधिक हो गई। हिन्दी-साहित्य के रीतिकालीन आचार्यों ने बहुलांशतः 'कुवलयानन्द' की पद्धति का अनुसरण किया और अलङ्कारों के कुछ नवीन भेदोपभेदों की भी उद्भावना की। प्रस्तुत अध्याय में हम अलङ्कारों की स्फीति के हेतु एवं औचित्य पर विचार करेंगे।
भरत ने उपमा, रूपक, दीपक और यमक; इन चार अलङ्कारों का उल्लेख किया है और उन्हें काव्य के अलङ्कार कहा है।' उपमा की परिभाषा में भी १. उपमा दीपकं चैव रूपकं यमकं तथा । काव्यस्यते ह्यलङ्काराश्चत्वारः परिकीर्तिताः ॥
-भरत, ना० शा० १६, ४०,
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अलङ्कार-धारणा का विकास
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इस बात का प्रमाण मिलता है कि भरत उसे केवल नाट्य के क्षेत्र में सीमित अलङ्कार नहीं मानते थे, वरन् उसे सामान्य रूप से काव्य-मात्र का (श्रव्य तथा दृश्य दोनों काव्य-भेदों का ) अलङ्कार मानते थे। उनके अनुसार काव्यात्मक उक्ति में जहाँ सादृश्य के आधार पर एक वस्तु की उपमा दूसरी वस्तु से दी जाती है वहाँ उपमा नामक अलङ्कार होता है ।' सामान्य रूप से अलङ्कार को काव्यालङ्कार कहने पर भी आचार्य भरत ने यमक के दश भेदों को नाटकाश्रित अलङ्कार कहा है। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने काव्य-बन्ध तथा नाट्यबन्ध में स्फुट भेद नहीं किया है। यह सम्भावना भी की गई है कि भरत ने सर्वत्र काव्य शब्द का प्रयोग दृश्य-काव्य के ही सीमित अर्थ में किया है। प्रस्तुत सन्दर्भ में यह विचारणीय है कि भरत ने किन लक्ष्य-ग्रन्थों को दृष्टि में रखकर अलङ्कारों के लक्षण का निरूपण किया होगा। क्या उनकी अलङ्कार-परिभाषाएं उनसे पूर्ववर्ती कवियों की सभी उक्ति-भङ्गियों को अपने में समाहित करने में सक्षम हैं ? यदि यह मान लिया जाय कि उनके अलङ्कार-लक्षण के लक्ष्य केवल नाट्य-ग्रन्थ थे तब तो लक्ष्य के अभाव में उन लक्षणों की व्याप्ति के परीक्षण का कोई साधन नहीं होने के कारण उन्हें असंदिग्ध रूप से प्रामाणिक मान लेना होगा, किन्तु यह मान लेने का कोई सबल आधार नहीं है कि भरत ने केवल नाटकोक्तियों के ही अलङ्कारों का लक्षण-निरूपण किया है, काव्योक्तियों के अलङ्कारों का नहीं। यदि काव्य-भणिति की समग्रता की दृष्टि से भरत के अलङ्कार-लक्षण के औचित्य की परीक्षा की जाय तो प्रश्न यह उठता है कि क्या भरत के पूर्व भारतीय साहित्य में उक्त चार ही अलङ्कारों का प्रयोग हुआ है ? वैदिक संहिताओं, 'महाभारत' तथा आदि कवि की 'रामायण' में काव्यात्मक उक्तियों का इतना विशाल वैभव है, उनकी भणिति के इतने प्रकार हैं कि उन्हें अपनी सीमा में समाविष्ट कर लेने के लिए चार ही अलङ्कार पर्याप्त नहीं माने जा सकते । यह मान लेने पर भी कि भरत ने केवल रूपक में प्रयुक्त होने वाले अलङ्कारों का ही स्वरूप-निर्धारण किया है, उन अलङ्कारों की शक्ति के सामने प्रश्न-चिह्न लगा ही रह जाता है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, भरत-पूर्व नाटककारों की कृतियाँ उपलब्ध नहीं; १. यत्किञ्चित्काव्यबन्धेषु सादृश्येनोपमीयते । उपमा नाम सा ज्ञेया गुणाकृतिसमाश्रया ॥
-भरत, ना० शा० १६, ४१ २. एतद्दशविधं ज्ञेयं यमकं नाटकाश्रयम् ।-वही, १६, ६२.
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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
किन्तु उस प्रौढ़ नाट्य-शास्त्र तथा उसमें पूर्ववर्ती अनेक नाट्याचार्यो के नामोल्लेख से यह अनुमान किया जा सकता है कि भरत के काल तक संस्कृत नाटक-साहित्य का भाण्डार समृद्ध हो चुका था, जो दुर्भाग्य से लुप्त हो गया है । भास के अनेक नाटकों का शताब्दियों तक अप्राप्य रहना भी इस बात का एक प्रमाण है कि प्राचीन भारतीय साहित्य के बहुत से बहुमूल्य ग्रन्थ किसी कारण से विनष्ट हो गये हैं। विदेशियों का आक्रमण और भारतीय सांस्कृतिक-गरिमा के उन्मूलन का उनका प्रयास इस अपूरणीय क्षति का एक मुख्य कारण माना जा सकता है। अस्तु, इस विषयान्तरानुसन्धान का उद्देश्य इस अनुमान की पुष्टि करना है कि 'नाट्यशास्त्र' के निर्माण के समय भरत के सामने विशाल रूपक-साहित्य रहा होगा। यह अनुमान भी किया जा सकता है कि सम्प्रति अनुपलभ्य उन अज्ञात कलाकारों की कला-कृतियों की मुख्य प्रवृत्तियाँ रिक्थ के रूप में भास, कालिदास, भवभूति आदि परवर्ती नाटककारों को प्राप्त हुई होंगी। अतः इन उपलब्ध रचनाओं की प्रवृत्तियों के आधार पर पूर्ववर्ती लुप्त रचनाओं की प्रवृत्तियों का अनुमान किया जा सकता है। कालिदास और भवभूति के नाटकों में इतनी काव्यात्मकता है तथा उक्तियों में स्वाभाविक रूप से आये हुए अलङ्कारों की इतनी प्रचुरता है कि उन्हें चार अलङ्कारों में परिभाषित कर लेना सम्भव नहीं। काव्य अपने समग्र सौन्दर्य-संभार में नाटकों में वर्तमान है। कहीं-कहीं तो मुक्तक-काव्य के भी सुन्दर उदाहरण नाटकों के बीच मिल जाते हैं।' 'उत्तर “रामचरित' का वह स्थल, जिसमें राम की विरह-दशा का वर्णन हुआ है, नाटक के सन्दर्भ से विच्छिन्न हो जाने पर भी विरह के सुन्दर काव्य के रूप में अपना सौन्दर्य सुरक्षित रखेगा। अतः रामस्वामी शास्त्री शिरोमणि की यह युक्ति कि 'भरत ने रसप्रधान नाटक आदि अभिनेय काव्यों के अलङ्करण के लिए इन चार अलङ्कारों का उल्लेख किया है, श्रव्य काव्यों के लिए नहीं, २ भरत के अलङ्कारों की पर्याप्ति सिद्ध करने के लिए अलम् नहीं है। उनकी मान्यता है १. द्रष्टव्य-कालिदास, अभि० शाकु०-रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्य
शब्दान्....' तथा—यात्येकतोऽस्तशिखरं पतिरौषधीनाम् आदि) २. इमे च रसप्रधानस्य नाटकादेरभिनेयकाव्यस्यालङ्करणाय भरतेन निर्दिष्टाः । एतेन च न श्रव्यकाव्येष्वप्येतेषामेव चतुर्णामलङ्कारभावो भरताभिसंहित इति परिसंख्यातु पार्यते ।-के० एस० रामस्वामी शास्त्री, उद्भट काव्यालं० सार सं० की भूमिका, पृ० १७-१८ .(ओरियण्टल इन्स्टीच्यूट बरोदा १६३१)
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अलङ्कार-धारणा का विकास
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कि ये चार अलङ्कार रसाविरोधी हैं, अतएव दृश्य-काव्य के सन्दर्भ में भरत द्वारा उल्लिखित हैं।'
भरत की अलङ्कार-धारणा की यथेष्टता तथा औचित्य की परीक्षा के लिए उनकी लक्षण-धारणा का अध्ययन अपेक्षित है । 'नाटय-शास्त्र' में अलङ्कारों के संख्या-संकोच का दायित्व लक्षण-धारणा के विस्तार पर है । भरतोत्तर काल में लक्षण-धारणा का शनैः-शनैः लोप हो गया। कुछ लक्षण मूल अलङ्कारों से मिलकर नवीन अलङ्कारों के आविर्भाव के हेतु बने । कुछ लक्षणों के पारस्परिक मिश्रण से भी नवीन अलङ्कार आविर्भूत हुए। अभिनवगुप्त ने अपने गुरु भट्टतौत के मत का उल्लेख करते हुए कहा है कि वे भरत के परिमित अलङ्कारों में उनके लक्षण के योग से तथा कुछ लक्षणों के परस्पर मिल जाने से अलङ्कारप्रपञ्च की सृष्टि मानते थे। कुछ नवीन अलङ्कारों की उत्पत्ति के दृष्टान्त भी दिये गये हैं। उदाहरणार्थ-उपमा अलङ्कार के साथ गुणानुवाद नामक लक्षण के मिश्रण से प्रशंसोपमा अलङ्कार की उत्पत्ति हुई, उसी के साथ ( उपमा के साथ ) अतिशय-संज्ञक लक्षण के योग से अतिशयोक्ति अलङ्कार का आविर्भाव हुआ; मनोरथ लक्षण तथा उपमा के मिलन से अप्रस्तुतप्रशंसा का जन्म हुआ, मिथ्याध्यवसाय लक्षण और उपमा ने मिलकर अपह्नति को उत्पन्न किया तथा सिद्धि लक्षण एवं उपमा के संयोग से तुल्ययोगिता आविर्भूत हुई । लक्षणों के अन्योन्य योग से अलङ्कार की उत्पत्ति का उदाहरण आक्षेप अलङ्कार है, जिसका उत्पादन प्रतिषेध तथा मनोरथ लक्षणों के योग से हुआ है। उन्होंने निष्कर्ष-रूप में यह माना है कि सभी अलङ्कार उपमा के ही प्रपञ्च हैं। यह निष्कर्ष निर्धान्त नहीं है । ऐसे अनेक अलङ्कार हैं, जिनका मूल उपमा में हूँढ़ना सम्भव नहीं। उदाहरणतः-स्वभावोक्ति, भाविक, उदात्त, प्रेय, यथासंख्य आदि अलङ्कारों को उपमा-मूलक मानने का कोई आधार नहीं । हाँ, यह ठीक
१. 'अत एव रसाविरोधिनां कतिपयानामेवालङ्काराणां भरतशास्त्र
निर्देशः ।'—वही पृ० १८ । २. 'उपाध्यायमतं तु-लक्षणबलादलङ्काराणां वैचित्र्यमागच्छति तथा हि गुणानुवादनाम्ना लक्षणेन योगात् प्रशंसोपमा, अतिशयनाम्नातिशयोक्तिः; मनोरथाख्येनाप्रस्तुतप्रशंसा, मिथ्याध्यवसायेनापह नुतिः सिद्धया तुल्ययोगितेति, ‘एवमन्यदुत्प्रेक्ष्यम् । लक्षणानां च परस्परवैचित्र्यादप्यनन्तो विचित्रभावः, यथा प्रतिषेधमनोरथयोः संमेलनादाक्षेप इति । उपमा-प्रपञ्चश्च सर्वोऽलंकार इति विद्वद्भिः प्रतिपन्नमेव ।
-अभिनव-ना-शा० अ० भा० पृ० ३२१
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३२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
है कि अधिकांश अलङ्कार उपमा से उत्पन्न हैं । केवल सादृश्य- मूलक अलङ्कारों के सम्बन्ध में यह बात कुछ हद तक ठीक हो सकती है । अतः उक्त मान्यता कुछ परिष्कार के साथ ही स्वीकार की जा सकती है । भरत के चार अलङ्कारों तथा उनके छत्तीस लक्षणों को कितने अलङ्कारों के सृजन का श्रेय प्राप्त है, इसका अध्ययन अलङ्कार-धारणा के विकास क्रम को समझने के लिए न केवल वाञ्छनीय है, अपितु आवश्यक भी है।
भरत के अलङ्कारों की संख्या - परिमिति में ही कई अलङ्कारों के विकास की सम्भावना बीज-रूप में निहित थी । उदाहरण के लिए-कल्पितोपमा में, जहाँ उपमान असिद्ध या कल्पित रहते हैं, उत्प्र ेक्षा के आविर्भाव की सम्भावना निहित थी । यमक के दश भेदों में अनुप्रास के विकास के लिए भी अवकाश था । अतः अलङ्कार की संख्या - विस्तृति को दृष्टि में रखते हुए, अलङ्कार-धारणा में भरत के महत्त्व का अध्ययन तीन दृष्टियों से अपेक्षित होगा - ( १ ) किन नवीन अलङ्कारों की उत्पत्ति की सम्भावना भरत के मूल चार अलङ्कारों में निहित थी, (२) उनके अलङ्कारों में लक्षण के योग से किन-किन अलङ्कारों का जन्म हुआ तथा (३) लक्षणों ने पारस्परिक योग से किन-किन अलङ्कारों का सृजन किया । इस अध्ययन से अलङ्कार-धारणा में परवर्ती आचार्यों के मौलिक योगदान का भी निर्धारण सम्भव होगा ।
भरत के चार अलङ्कारों में से उपमा, रूपक और दीपक; इन तीन का सम्बन्ध अर्थ से है तथा यमक का शब्द से । यद्यपि भरत ने अलङ्कारों का शब्दगत एवं अर्थगत भेद करने का प्रयास नहीं किया है तथापि यमक की परिभाषा से उसका शब्दगत होना स्पष्ट है । यमक को शब्दों का अभ्यास या आवृत्ति कहा गया है।' इसी आधार पर अभिनवगुप्त ने यह माना है कि भरत ने यमक को शब्दालङ्कार तथा उपमा आदि को अर्थालङ्कार स्वीकार किया था । २ शब्दावृत्ति के स्वरूप भेद के आधार पर यमक के निम्नलिखित दश प्रकार माने गये हैं- ( १ ) पादान्त - यमक, (२) काञ्ची - यमक,. (३) समुद्ग - यमक, (४) विक्रान्त-यमक, (५) चक्रबाल - यमक, (६) सन्दष्ट - यमक, (७) पादादि-यम्रक, (5) आम्रेडित-यमक, ( 8 ) चतुर्व्यवसित - यमक तथा
१. शब्दाभ्यासस्तु (शब्दाभ्यासं तु) यमकं । - भरत, ना०शा० १६, ५६. २. चिरन्तनैर्हि भरतमुनिप्रभृतिभिर्यमकोपमे शब्दर्थालङ्कारत्वेनेष्टे ।
- अभिनव, लोचन पृ० ५.
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ३३ (१०) माला-यमक । काव्यशास्त्रीय चिन्तन के विकास-काल में अनुप्रास, यमक, श्लेष (शब्द-श्लेष), वक्रोक्ति एवं चित्र (शब्द-चित्र) अलङ्कारों का उल्लेख शब्दालङ्कार के प्रसङ्ग में हुआ है । भामह ने अनुप्रास (दो भेद) एवं यमक शब्दालङ्कार स्वीकार किये हैं। दण्डी ने केवल यमक को स्वीकृति दी है। अनुप्रास का विवेचन उन्होंने शब्दमाधुर्य गुण के अङ्ग के रूप में किया है। उद्भट ने प्राचीनों के द्वारा स्वीकृत यमक अलङ्कार को अस्वीकार कर दिया तथा अनुप्रास के तीन भेदों की कल्पना की। इसके अतिरिक्त उन्होंने लाटानुप्रास के पाँच रूप भी स्वीकार किये हैं। वामन ने यमक और अनुप्रास का लक्षण-निरूपण किया है। रुद्रट के 'काव्यालङ्कार' में शब्दालङ्कारों का विस्तृत विवेचन है। उन्होंने वक्रोक्ति, अनुप्रास, यमक, श्लेष और चित्र के अनेक भेदोपभेदों का वर्णन किया है। राजानक रुय्यक ने अनुप्रास, यमक एवं चित्र शब्दालङ्कारों को परिभाषित किया है। मम्मट, विश्वनाथ, विद्यानाथ, हेमचन्द्र आदि आचार्यों ने भी शब्दालङ्कार के इन स्वरूपों का यत्किञ्चित् भेद से उल्लेख किया है। रीतिकालीन आचार्यों ने भी इन अलङ्कारों को स्वीकार किया है। मतिराम के 'रसराज' में शब्दालङ्कारों का विवेचन नहीं है, किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वे शब्दालङ्कार को हेय या उपेक्षणीय मानते थे। उनके काव्य में अनुप्रास, यमक आदि अलङ्कारों की छटा दर्शनीय है। आचार्य देव ने अनुप्रास, यमक और चित्रालङ्कारों का उल्लेख किया है। भिखारीदास ने 'काव्य-निर्णय' में अनुप्रास, यमक तथा वक्रोक्ति अलङ्कारों के स्वरूप की मीमांसा कर चित्र-काव्य के अनेक भेदों का; बन्धों के विविध रूपों का वर्णन किया है।
काव्य-शास्त्र में वर्णित उक्त सभी शब्दालङ्कारों का सम्बन्ध वर्गों के ग्रथन की विलक्षणता एवं उनकी आवृत्ति की विभिन्न प्रक्रियाओं से है। यमक और अनुप्रास में कोई तात्त्विक भेद नहीं। यमक में सम्पूर्ण पद की या वर्ण-समूह की उसी रूप में अर्थभेद से आवृत्ति होती है, किन्तु अनुप्रास में कुछ वर्षों की आवृत्ति होती है। भरत ने पदावृत्ति-रूप यमक तथा वर्णावृत्ति-रूप अनुप्रास का पृथक्-पृथक् उल्लेख नहीं कर एक ही साथ शब्दाभ्यास का उल्लेख किया है और उसे वमक की संज्ञा दी है। स्पष्ट है कि परवर्ती आचार्यों की अनुप्रास-धारणा का मूल भरत की यमक-धारणा में ही निहित था। चित्रालङ्कार-गत तत्तद्बन्धों की कल्पना वर्णगुम्फ तथा वर्णावृत्ति की भिन्न-भिन्न प्रक्रियाओं के आधार पर की गयी है। आचार्य देव ने स्पष्टतः अनुप्रास और
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३४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण यमक को सभी चित्रालङ्कारों का मूल कहा है।' इस विवेचन के निष्कर्ष-रूप में यह कहा जा सकता है कि भरत की यमक-धारणा के आधार पर ही परवर्ती आचार्यों ने अनुप्रास तथा चित्र-बन्धों के विस्तृत प्रपञ्च की कल्पना की है। श्लेष और वक्रोक्ति शब्दालङ्कारों की उद्भावना का श्रेय अवश्य ही परवर्ती आचार्यों को है। शब्द-श्लेष की उद्भावना का श्रेय उद्भट को मिलना चाहिए। यद्यपि उनके पूर्ववर्ती भामह तथा दण्डी ने भी श्लेष का उल्लेख किया था, किन्तु वे श्लेष-धारणा को स्पष्ट नहीं कर पाये थे । सर्वप्रथम उद्भट ने श्लेष-अलङ्कार की धारणा परिष्कृत रूप में प्रस्तुत की, तथा श्लेष को शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार वर्गों में स्फुट-रूप से विभाजित किया । रुद्रट ने प्रथम बार वक्रोक्ति शब्दालङ्कार की कल्पना की और उसके श्लेष-वक्रोक्ति तथा काकु-वक्रोक्ति ; ये दो मुख्य रूप स्वीकार किये। श्लेष-वक्रोक्ति का मूलाधार श्लेष शब्दालङ्कार है तथा काकु-वक्रोक्ति का काकु अर्थात् कण्ठ-ध्वनि-भेद ।
भरत के बाद भामह की रचना 'काव्यालङ्कार' में अर्थालङ्कार की संख्या दशगुनी से भी अधिक हो गयी। 'काव्यालङ्कार' में उल्लिखित अर्थालङ्कार हैं-रूपक (दो प्रकार), दीपक, उपमा, प्रतिवस्तूपमा (उपमा-भेद) आक्षेप (दो प्रकार), अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, विभावना, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, यथासंख्य, उत्प्रेक्षा, स्वभावोक्ति, प्रेय, रसवत्, ऊर्जस्वी, पर्यायोक्त, समाहित, उदात्त (दो प्रकार), श्लिष्ट, अपह्न ति, विशेषोक्ति, विरोध, तुल्ययोगिता, अप्रस्तुत-प्रशंसा, व्याजस्तुति, निदर्शना, उपमा-रूपक, उपमेयोपमा, सहोक्ति, परिवृत्ति, ससंदेह, अनन्वय, उत्प्रेक्षावयव, संसृष्टि, भाविक तथा कुछ लोगों के अनुसार आशीः । ऊर्जस्वी, प्रेय तथा समाहित का केवल नाम्ना उल्लेख हुआ है। उनके लक्षण नहीं दिये गये हैं। उनके दिये हुए उदाहरण के आधार पर उनके स्वरूप का निर्धारण किया जा सकता है। श्लिष्ट अलङ्कार के तीन भेद स्वीकार किये गये हैं; किन्तु परिभाषा परिष्कृत नहीं है। इन अलङ्कारों को स्वीकार करते हुए भामह ने हेतु, सूक्ष्म तथा लेश के अलङ्कारत्व का खण्डन किया है। इनमें वक्रोक्ति नहीं रहती, जो अलङ्कार का मूलाधार है। १. अनुप्रास अरु यमक ये, चित्र काव्य के मूल । इनहीं के अनुसार सों, सकल चित्र अनुकूल ॥
-देव, शब्द-रसायन, अष्टम प्रकाश, पृ० १३८ २. सैषा सर्वव वक्रोक्तिरनयार्थो विभाव्यते। यत्नोऽस्यां कविना कार्यः कोऽलङ्कारोऽनया विना ॥
-भामह, काव्यालं० २,८५
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ३५ इनकी अलङ्कारता के खण्डन के इस प्रयास से यह अनुमान किया जा सकता है कि भामह के पूर्व कुछ आचार्य उन्हें अलङ्कार के रूप में स्वीकार कर चुके थे । भामह ने अपने पूर्ववर्ती आचार्य के मन्तव्य का कहीं-कहीं निर्देश किया है । आशीः को कुछ लोगों ने अलङ्कार माना है । इससे यह स्पष्ट है कि भरत और भामह के बीच कई आलङ्कारिक अलङ्कार पर विचार कर चुके थे, जिनकी कृतियाँ अब उपलब्ध नहीं । 'काव्यालङ्कार' में अलङ्कार-धारणा के विकास की कई कोटियों का सङ्क ेत मिलता है । भामह ने काव्यालङ्कारों का उल्लेख चार वर्गों में किया है । प्रथम वर्ग में अनुप्रास, यमक, रूपक, दीपक तथा उपमा अलङ्कारों की गणना हुई है । इनमें से प्रथम दो शब्दालङ्कार हैं और शेष तीन अर्थालङ्कार । इनमें भरत के मूल चार अलङ्कार परिगणित हैं । एक अनुप्रास नवीन है, जिसे यमक का ही रूपान्तर माना जा सकता है। द्वितीय वर्ग में छह अलङ्कार उल्लिखित हैं- आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, विभावना, समासोक्ति तथा अतिशयोक्ति । 3 यथासंख्य और उत्प्र ेक्षा अलङ्कारों की गणना एक साथ की गई है । वर्गानुक्रम में इनका स्थान तृतीय है । चतुर्थ वर्ग में स्वभावोक्ति तथा आशीः को छोड़ शेष चौबीस अलङ्कारों का उल्लेख है । स्वभावोक्ति एवं आशी: अलग-अलग उल्लिखित हैं और इनके सम्बन्ध में यह कहा गया है कि ये कुछ लोगों के मतानुसार अलङ्कार हैं ।" स्पष्ट है कि सभी आलङ्कारिक इनका अलङ्कारत्व स्वीकार नहीं करते थे । भामह ने इनकी अलङ्कारता का खण्डन नहीं किया है, किन्तु उनके विवेचन में इनकी अलङ्कारता के सम्बन्ध में मतवैभिन्न्य की सम्भावना निहित थी । पीछे चलकर कुन्तक ने स्वभावोक्ति के अलङ्कारत्व का खण्डन कर उसका अलङ्कार्यत्व सिद्ध करने का प्रयास किया है तथा आशीः का अलङ्कारत्व अस्वीकार कर दिया है । मम्मट आदि आचार्यों ने भी आशीः को अलङ्कार के रूप में स्वीकृति नहीं दी है ।
यह मानने का कोई आधार नहीं है कि 'काव्यालङ्कार' में चार वर्गों में परिगणित अलङ्कार भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय की मान्यता के अनुरूप हैं । प्रथम वर्ग
१. आशीरपि च केषाञ्चिदलङ्कारतया मता । - भामह, काव्यालं० ३,५५ २. अनुप्रासः सयमको रूपकं दीपकोपमे ।
इति वाचामलङ्काराः पञ्चैवाऽन्यैरुदाहृताः ॥ - वही २, ४ ३. आक्षेपोऽर्थान्तरन्यासो व्यतिरेको विभावना |
समासातिशयोक्ती च षडलङ कृतयोऽपराः ॥ - वही २, ६६ ४. यथासंख्यमथोत्प्र ेक्षामलङ्कारद्वयं विदुः । - वही २, ५. वही, २, ६३ तथा ३, ५५ ।
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२] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण के सभी अलङ्कारों को स्वीकार कर लेने के उपरान्त ही आचार्यों ने द्वितीय वर्ग के नवीन अलङ्कारों की कल्पना की होगी। तृतीय वर्ग के अलङ्कारों की कल्पना में प्रथम दो वर्गों के अलङ्कारों की स्वीकृति का सङ्कत है तथा चतुर्थं वर्ग के अलङ्कारों की उद्भावना करनेवाले आचार्यों के द्वारा पूर्ववर्ती अलङ्कारों को स्वीकार किया जाना स्पष्ट है। उदाहरणार्थ-उपमा, रूपक, दीपक आदि अलङ्कारों की सत्ता सभी आचार्यों ने स्वीकार की है; किन्तु प्रथम वर्ग में उनका उल्लेख हो जाने के कारण अगले किसी भी वर्ग में उनका उल्लेख नहीं हुआ है। प्रथम वर्ग को स्वीकार कर लेने के कारण ही उसमें उल्लिखित अलङ्कारों का पुनरुल्लेख उत्तरवर्ती आचार्यों ने आवश्यक नहीं माना। हेतु, सूक्ष्म, लेश आदि अलङ्कारों का खण्डन भी इस बात का प्रमाण है कि पूर्व-प्रतिपादित अलङ्कारों में से जिन्हें स्वीकार नहीं करना था उनका आचार्यों ने खण्डन किया। जिनका खण्डन नहीं किया गया वे स्वीकृत मान लिये गये । अलङ्कारों के उक्त वर्ग भरत से लेकर भामह के काल तक के दीर्घ अन्तराल में होनेवाले अलङ्कार-धारणा के विकास-क्रम के सूचक माने जा सकते हैं। भामह के प्रत्येक अर्थालङ्कार के मूल का अन्वेषण प्रस्तुत प्रसङ्ग में वाञ्छनीय है। __ प्रथम वर्ग के तीन अर्थालङ्कार-उपमा, रूपक तथा दीपक भरत के 'नाट्यशास्त्र' में विवेचित मूल अलङ्कार हैं । उपमा का स्वरूप भरत की उपमा के स्वरूप से अभिन्न है।' भरत की उपमा के निन्दोपमा, प्रशंसोपमा आदि भेदों का भी भामह ने उल्लेख किया है। भामह की प्रतिवस्तुपमा-धारणा, की भी सम्भावना भरत की उपमा-धारणा में निहित थी। इसीलिए उन्होंने प्रतिवस्तूपमा को उपमा का ही एक भेद माना है। भामह ने उपमा के 'यथा' 'इव' तथा 'वत्' ( क्रिया-साम्यवाचक ) आदि वाचक शब्दों का भी उल्लेख किया है। 'यथा' तथा 'इव' के अभाव में समासाभिहित उपमा होती है।' समास होने पर वाचक शब्दों का लोप हो जाता है। ऐसे स्थल में होने वाली उपमा समासाभिहित कही गई है। इस प्रकार भामह ने प्रकारान्तर से उपमा के पूर्णा तथा लुप्ता भेदों का उल्लेख किया है। उपमा का मालोपमा भेद भी निर्दिष्ट है; किन्तु भेदोपभेद को अनावश्यक विस्तार मानकर भामह ने उस
१. तुलनीय--भरत ना० शा० १६, ४१ तथा भामह, काव्यालं० २, ३० २. ... निन्दाप्रशंसाचि ख्यासाभेदादत्राभिधीयते ।
–भामह, काव्यालं० २, ३७ ३. विना यथेवशब्दाभ्यां समासाभिहिता परा। वही २, ३२
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[ ३७
निष्कर्षतः भामह की उपमा धारणा भरत
अलङ्कार-धारणा का विकास
सन्दर्भ को समाप्त कर दिया है । " की उपमा धारणा से मिलती-जुलती ही है ।
रूपक
'काव्यालङ्कार' की रूपक - धारणा 'नाट्यशास्त्र' की रूपक धारणा से अभिन्न है । भरत की तरह भामह भी गुण-सादृश्य के आधार पर उपमेय पर उपमान के आरोप में रूपक अलङ्कार मानते हैं । भरत ने रूपक के दो भेद स्वीकार किये हैं- (१) तुल्यावयवलक्षण रूपक तथा (२) किञ्चित्सादृश्यसम्पन्न रूपक । भामह ने इन्हें क्रमशः समस्तवस्तुविषय रूपक तथा एकदेशविवर्त्तिरूपक कहा है ।
दीपक
भामह के दीपक अलङ्कार का स्वरूप भरत के दीपक के ही समान है । अवस्था-भेद से इसके आदि, मध्य तथा अन्त; ये तीन भेद भामह ने स्वीकार किये हैं । 3 अर्थ के दीपन या प्रकाशन करने के कारण यह अलङ्कार दीपक संज्ञा से अभिहित किया जाता है । यह इसकी अन्वर्था संज्ञा है ।
आक्षेप
भामह का आक्षेप अलङ्कार भरत के प्रतिषेध तथा मनोरथ लक्षणों के योग से आविभूत है । भरत के अनुसार विपरीत कार्य में किसी के प्रवृत्त होने पर कार्य-विज्ञ के द्वारा उसका निवारण प्रतिषेध लक्षण है । जहाँ अन्य वस्तु का वर्णन करते हुए कवि श्लिष्ट रूप में अपने हृदय के भाव को प्रकट करता है वहाँ भरत मनोरथ लक्षण मानते हैं । " आक्षेप अलङ्कार में, भामह
१. मालोपमादिः सर्वोऽपि न ज्यायान् विस्तरो मुधा ॥ भामह २, ३८ २. तुलनीय - भरत, ना० शा० १६, ५६-५७ तथा भामह, काव्यालं० २, २१-२२
३. तुलनीय — भरत, ना० शा० १६, ५३ तथा भामह, काव्यालं ०
२, २५-२६
४. “ कार्येषु विपरीतेषु यदि किञ्चित्प्रवर्तते ।
निवार्यते च कार्यज्ञः प्रतिषेधः प्रकीर्तितः ॥ भरत, ना०, शा० १६,२३
५. हृदयस्थस्य भावस्य सुश्लिष्टार्थप्रदर्शनम् ।
अन्यापदेशकथनैर्मनोरथ इति स्मृतः ॥ वही, १६, २०
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३८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
के अनुसार कवि अपने अभीष्ट कथन का निषेध-सा करता है। कवि जब अभिप्रेत कथन का आपाततः निषेध-सा करता हुआ प्रस्तुत करता है तो कथन की उस भङ्गी में वैशिष्ट्य आ जाता है ।' यही आक्षेप अलङ्कार कहा जाता है। इस अलङ्कार में इष्ट अर्थ के कथन की धारणा मनोरथ लक्षण से तथा निषेध की धारणा प्रतिषेध लक्षण से ली गई है। इस प्रकार उक्त दो लक्षणों से तत्त्व ग्रहण कर आक्षेप अलङ्कार की रूप-रचना हुई है।
अर्थान्तरन्यास - भामह के अर्थान्तरन्यास अलङ्कार का मूल भी भरत के लक्षणों में ही है। शोभा तथा उदाहरण लक्षणों के मिश्रण से प्रस्तुत अलङ्कार का आविर्भाव हुआ है । अर्थान्तरन्यास में कथित अर्थ के समर्थन के लिए, उसके अनुगत अन्य अर्थ का उपन्यास होता है। २ शोभा लक्षण में सिद्ध अर्थ के द्वारा असिद्ध अर्थ की सिद्धि होती है। एक अर्थ से दूसरे अर्थ का साधन इसमें भी होता है, शर्त केवल यह है कि सिद्ध के द्वारा असिद्ध का ही साधन शोभा लक्षण कहा जाता है। अर्थान्तरन्यास में सिद्ध-असिद्ध का कोई नियम नहीं। उदाहरण लक्षण की दूसरी परिभाषा में यह कहा गया है कि जहाँ समान अर्थ से युक्त वाक्य के प्रदर्शन के द्वारा प्रस्तुत अर्थ का साधन होता है वहाँ उदाहरण लक्षण माना जाता है। स्पष्ट है कि शोभा तथा उदाहरण का स्वरूप भामह के अर्थान्तरन्यास से मिलता-जुलता है। भरत के इन लक्षणों के आधार पर ही परवर्ती आचार्य ने अर्थान्तरन्यास अलङ्कार के स्वरूप की कल्पना की होगी। १. प्रतिषेध इवेष्टस्य यो विशेषाभिधित्सया । आक्षेप इति तं सन्तः शंसन्ति द्विविधं यथा ।
-भामह, काव्यल०, २,६८ २. उपन्यसनमन्यस्य यदर्थस्योदितादृते ।
ज्ञेयः सोऽर्थान्तरन्यासः पूर्वार्थानुगतो यथा । वही, २, ७१ ३. सिद्ध रथैः समं कृत्वा ह्यसिद्धोऽर्थः प्रसाध्यते ।
-भरत, ना० शा० १६, ७ ४. यत्र तुल्यार्थयुक्तेन वाक्येनाभिप्रदर्शनात् । साध्यन्ते निपुणरास्तदुदाहरणं स्मृतम् ॥
-ना० शा० अ० भा० पृ० ३०४
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ३६
व्यतिरेक . भामह के अनुसार व्यतिरेक अलङ्कार में उपमेय का वैशिष्ट्य-प्रतिपादन होता है ।' प्रस्तुत अलङ्कार-धारणा का उद्गम-स्रोत भरत के उपमा अलङ्कार के साथ अतिशय तथा निर्भासन (निर्भासन का पाठान्तर माला) लक्षणों की धारणा को माना जा सकता है। अतिशय में उक्त अर्थ से वैशिष्ट्य का बोध होता है । २ अभिनवगुप्त ने निर्भासन लक्षण के पाठान्तर का निर्देश करते हुए कहा है कि उसमें अभीप्सित अर्थ की प्रसिद्धि के लिए अनेक प्रयोजन का वर्णन होता है। 3 व्यतिरेक अलङ्कार में अभीष्ट अर्थ अर्थात् उपमेय की प्रसिद्धि काम्य होती है तथा इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए उपमेय का 'विशेषनिदर्शन' होता है। स्पष्ट है कि भामह को 'विशेष-निदर्शन' की धारणा अतिशय लक्षण से तथा उपमेय ( के आधिक्य ) की धारणा भरत की 'ईप्सितार्थप्रसिद्ध्यर्थ' धारणा से प्राप्त हुई और उन दोनों के योग से व्यतिरेक नामक नवीन अलङ्कार का सृजन हुआ। विभावना
विभावना भरत के उत्तरवर्ती आचार्य की नवीन उद्भावना है। भामह के विभावना-लक्षण के अनुसार जहाँ क्रिया का निषेध होने पर भी उसके फल का वर्णन होता है वहाँ विभावना अलङ्कार माना जाता है। शास्त्रीय दृष्टि से क्रिया और फल में कारण-कार्य सम्बन्ध है। क्रिया के अभाव में उसके फल की सम्भावना नहीं हो सकती, किन्तु काव्य-जगत का सत्य इससे भिन्न है। वहाँ क्रिया का प्रतिषेध कर उसके फल के वर्णन में विशेष चमत्कार १. उपमानवतोऽर्थस्य यद्विशेषनिदर्शनम् । व्यतिरेकं तमिच्छन्ति विशेषापादनाद्यथा ॥
-भामह, काव्यालं० २, ७५ . २. उत्तमार्थाद्विशिष्टो यः स चाप्यतिशयः स्मृतः ॥
-भरत, ना० शा० १६, १३ ३. ईप्सितार्थप्रसिद्ध्यर्थं कीर्त्यन्ते यत्र सूरिभिः । प्रयोजनान्यनेकानि सा मालेत्यभिसंज्ञिता ।।
-ना० शा० अ० भा० पृ० ३१३ ४. क्रियायाः प्रतिषेधे या तत्फलस्य विभावना । . ज्ञया विभावनवासौ समाधौ सुलभे सति ॥
—भामह, काव्यालं० २, ७७
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४० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
आ जाता है । अतः इस प्रकार की भङ्गी - भणिति आलङ्कारिक मानी जाती है । भरत ने न तो अपने किसी अलङ्कार - लक्षण में इस प्रकार की उक्ति भङ्गी का सङ्क ेत किया है और न किसी लक्षण की परिभाषा में ही । यह नहीं कहा जा सकता कि भरत के पूर्व ऐसी उक्तियों का प्रयोग ही नहीं हुआ था । ऋग्वेदसंहिता के पुरुष आदि सूक्तों में विभावना अलङ्कार का प्रयोग हुआ है । उदाहरणार्थ—
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥
यह, पुरुष सूक्त का मन्त्र 'अकारण से कार्य के जन्म' रूप विभावना का एक उदाहरण है ।
समासोक्ति
समासोक्ति अलङ्कार की कल्पना लक्षण के आधार पर ही की गई है । भामह के अनुसार समासोक्ति में एक कल्पित अर्थ से उसके समान विशेषण वाले अन्य अर्थ की व्यञ्जना होती है । कथित तथा अकथित अर्थों में विशेषण - साम्य के कारण ऐसा होता है ।' कार्य-लक्षण के एक पाठ में, अभिनवगुप्त के अनुसार, अर्थान्तर के कथन से अन्य अर्थ की प्रतीति पर बल दिया गया है । इसे अर्थापत्ति-संज्ञा से अभिहित किया गया है । २ समासोक्ति अलङ्कार तथा इस लक्षण के स्वरूप में विशेष अन्तर नहीं । अतः यह अनुमान किया जा सकता है कि उपमा अलङ्कार तथा इस लक्षण के आधार पर ही समासोक्ति अलङ्कार की कल्पना की गई होगी ।
अतिशयोक्ति
अभिनवगुप्त ने 'अभिनव भारती' में अपने आचार्य के मत की ओर निर्देश करते हुए यह कहा है कि भरत के अलङ्कार में अतिशय - नामक
१. यत्रोक्ते गम्यतेऽन्योर्थस्तत्समानविशेषणः ।
सा समासोक्तिरुद्दिष्टा संक्षिप्तार्थतया यथा ॥ - भामह, काव्यालं ० २, ७६ २. अन्ये त्वधीयते — अर्थान्तरस्य कथने यत्रान्योऽर्थः प्रतीयते । वाक्यमाधुर्यसम्पन्ना सार्थापत्तिरिति स्मृता ॥ ना० शा० अ० भा०
पृ० ३१६
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[४१ लक्षण के योग से अतिशयोक्ति नामक नवीन अलङ्कार की सृष्टि हुई है।' 'भामह ने अतिशयोक्ति में लोक का अतिक्रमण करनेवाले कथन पर बल दिया है। भरत ने भी अतिशय में इससे मिलती-जुलती धारणा व्यक्त की थी।२ अतिशय में उक्त अर्थ से विशेष के बोध पर बल दिया गया था। स्पष्ट है कि भरत की अतिशय-लक्षण-धारणा तथा उनकी रूपक-अलङ्कारधारणा को मिलाकर अतिशयोक्ति अलङ्कार की सर्जना हुई ।
यथासंख्य
यथासंख्य अलङ्कार में कथन की जिस विशेष भङ्गी पर बल दिया गया है उसे भरत ने अपने 'नाट्यशास्त्र' में कहीं परिभाषित नहीं किया है। इस अलङ्कार में पहले जिस क्रम में अर्थों का उपस्थापन होता है, उसी क्रम में उनका अनुकथन होता है।३ वर्णित अर्थों का यथाक्रम अनुनिर्देश वस्तुतः उक्ति की सुन्दर भङ्गी है, जो भरत के द्वारा अनिर्दिष्ट रह "गई थी। अतः यथासंख्य अलङ्कार की उद्भावना का श्रेय भामह को प्राप्त है। उत्प्रेक्षा
भामह के अनुसार जहाँ सादृश्य अविवक्षित हो, पर उपमा का थोड़ा पुट हो, वर्ण्य में वस्तुतः न रहनेवाले गुण या क्रिया का योग बताया जाय
और जिसमें अतिशय का योग हो उसे उत्प्रेक्षा-अलङ्कार कहते हैं। भरत ने उत्प्रेक्षा अलङ्कार का उल्लेख नहीं किया है, किन्तु वे उस उक्तिभङ्गी से अनभिज्ञ नहीं थे, जिसमें परवर्ती आचार्यों ने उत्प्रेक्षा अलङ्कार स्वीकार किया है। भरत की व्यापक उपमा-धारणा से पृथक् उत्प्रेक्षा अलङ्कार की कल्पना आवश्यक नहीं थी। उनकी उपमा के कल्पिता भेद में ही परवर्ती ‘आचार्यों की उत्प्रेक्षा अन्तभुक्त थी। उत्प्रेक्षा में उपमान कल्पित होता है। भरत ने यही धारणा कल्पितोपमा के सम्बन्ध में व्यक्त की है। अतः उत्प्रेक्षा १. लक्षणबलादलङ्काराणां वैचित्र्यमागच्छति तथा हि-..."अतिशयना
म्नातिशयोक्ति ।-ना० शा० अ० भा०; पृ० ३२१ २. तुलनीय-भामह, काव्यालं० २, ८१ तथा भरत, ना० शा० १६, १३ ३. भूयसामुपदिष्टानामर्थानामसधर्मणाम् । क्रमशो योऽनुनिर्देशो यथासंख्यं तदुच्यते ॥
-भामह, काव्यालं० २,८९ ४. भामह, काव्यालङ्कार, २, ६१
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४२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
के आविर्भाव का श्रेय कल्पितोपमा की कल्पना करने वाले भरत को ही मिलना चाहिए ।
स्वभावोक्ति
भामह ने स्वभावोक्ति का उल्लेख करते हुए कहा है कि कुछ लोग: इसे अलङ्कार मानते हैं । उन्होंने स्वयं इसके अलङ्कारत्व का न खण्डन किया है न मण्डन । वक्रोक्तिवादी होने के कारण उन्होंने काव्य में स्वभावोक्ति अलङ्कारः को विशेष महत्त्व नहीं दिया है । स्वभावोक्ति की परिभाषा में उन्होंने कहा है कि इसमें किसी अर्थ का अवस्थानुरूप वर्णन होता है । ' वस्तुस्वभाव के यथारूप वर्णन के कारण ही इसे स्वभावोक्ति कहा जाता है । स्वभावोक्ति का अलङ्कार के रूप में निर्देश सर्वप्रथम भामह की पुस्तक में ही हुआ है। भरत ने इस स्वभावोक्ति अलङ्कार से मिलती-जुलती धारणा अर्थव्यक्ति गुण की परिभाषा में व्यक्त की है। उन्होंने उक्त गुण में लोक- प्रसिद्ध अर्थ के स्फुट वर्णन पर बल दिया है । २ सम्भव है कि भरत की इस गुण-धारणा ने ही पीछे चलकर स्वभावोक्ति अलङ्कार की धारणा को जन्म दिया हो ।
प्रेय
काव्यालङ्कार में प्रय अलङ्कार की परिभाषा नहीं दी गई है । भामह के द्वारा दिये गए प्रय के उदाहरण के अधार पर उनकी एतद्विषयक मान्यता का निर्धारण किया जा सकता है । इसके उदाहरण में कृष्ण के प्र विदुर का कथन वर्णित है । अपने घर आये हुए कृष्ण से विदुर ने कहा कि हे. गोविन्द ! आज आपके आने से मुझे जैसा आनन्द हुआ है ऐसा आनन्द फिर कभी आप के आने से ही हो सकेगा । 3 स्पष्ट है कि किसी के प्रति प्रिय कथन
१. स्वभावोक्तिरलङ्कार इति केचित् प्रचक्षते । अर्थस्य तदवस्थत्वं स्वभावोऽभिहितो यथा ॥
- भामह, काव्यालं० २, ६३
२. सुप्रसिद्धाभिधाना तु लोककर्मव्यवस्थिता । या क्रिया क्रियते काव्ये सार्थव्यक्तिः प्रकीर्त्यते ॥
- भरत, ना० शा ०, १६, १०८
३.
प्रयो गृहागतं कृष्णमवादीद्विदुरो यथा । अद्यया मम गोविन्द जाता त्वयि गृहागते । कालेनैषा भवेत् प्रीतिस्तवैवागमनात् पुनः ॥
— भामह, काव्यालं० ३, ५.
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ४३ में प्रेय अलङ्कार स्वीकार किया गया है। अभिनवगुप्त ने भरत के प्रोत्साहन लक्षण की व्याख्या के क्रम में यह निर्देश किया है कि इसका पाठान्तर प्रियवचन संज्ञा से उपलब्ध है। प्रियवचन का जो लक्षण 'अभिनव-भारती' में उद्धृत है उससे प्रेय अलङ्कार तथा प्रियवचन लक्षण का स्वरूप अभिन्न सिद्ध होता है। पूज्य व्यक्तियों की पूजा के लिए हर्ष प्रकाशनार्थ जहाँ प्रसन्न चित्त से वचन प्रयुक्त होते हैं, वहाँ प्रियोक्ति नामक लक्षण माना गया है। इससे स्पष्ट है कि प्रेय अलङ्कार की धारणा प्रियोक्ति लक्षण-धारणा से भिन्न नहीं है।
रसवत
__रसवत् अलङ्कार की कल्पना सर्वप्रथम भामह ने की है। इसका आधार भरत की रस-धारणा है। भरत रसवादी आचार्य थे। उन्होंने नाट्य-प्रयोग में रस को प्रधान माना है। रस के अभाव में नाट्य का कोई भी प्रयोग व्यर्थं है ।२ अतः वाचिक अभिनय के अङ्ग गुण, अलङ्कार आदि भरत की दृष्टि में रस के सहायक मात्र हैं। दूसरी ओर भामह अलङ्कारवादी थे। इसीलिए उन्होंने रस को भी अलङ्कार की सीमा में ही समाहित कर लिया, रस को अलङ्कार का एक अङ्ग-मात्र बना दिया।
ऊर्जस्वी
भामह ने इस अलङ्कार का लक्षण नहीं देकर केवल उदाहरण दिया है।' ओजस्वी उक्ति में यह अलङ्कार माना गया है। उक्तिगत इस ऊर्जस्विता का सम्बन्ध हृदय के उत्साह आदि दीप्त भावों से माना जा सकता है । भरत ने भावगत ओजस्विता का वर्णन रस-सन्दर्भ में स्थायी भावों के विवेचन-क्रमः में किया है। भरत की भाव-विषयक इस मान्यता से प्रस्तुत अलङ्कार अनुप्राणित है।
१. यत्प्रसन्नेन मनसा पूज्यान् पूजयितु वचः । . हर्षप्रकाशनार्थं तु सा प्रियोक्तिरुदाहृता ॥
* ना० शा० अ० भा० पृ० ३०३ २. नहि रसादृते कश्चिदर्थः प्रवर्तते ।
-भरत, ना० शा० ६, पृ० २७२ ३. द्रष्टव्य-भामह, काव्यालं० ३, ७
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४४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण पर्यायोक्त
जहाँ कवि अपना विवक्षित अर्थ भङ ग्यन्तर से (घुमा-फिराकर दूसरे प्रकार से) प्रस्तुत करता है, वहाँ भामह के अनुसार पर्यायोक्त अलङ्कार होता है। दूसरे शब्दों में, जहाँ काव्य का साक्षात् कथन न होकर अन्य प्रकार से उसका अभिधान होता है वहाँ पर्यायोक्त अलङ्कार माना जाता है। यह भामह का नवीन अलङ्कार है। अन्य प्रकार से कथन पर भरत ने गुणानुवाद लक्षण में विचार किया था। गुणानुवाद के एक पाठ में गौणी वृत्ति की चर्चा की गई है । २ सम्भव है, भामह को पर्यायोक्त के स्वरूप की कल्पना की प्रेरणा उससे मिली हो। समाहित
भामह ने समाहित अलङ्कार का लक्षण नहीं दिया है। उसके उदाहरण के आधार पर भामह की तद्विषयक धारणा यह जान पड़ती है कि जहाँ किसी कार्य का आरम्भ करने पर उसकी सिद्धि के लिए अनायास कुछ साधन प्राप्त हो जायँ वहाँ समाहित-नामक अलङ्कार होता है। उदाहरण में परशुराम को प्रसन्न करने के लिए जाती हुई क्षत्राणियों के सामने नारद का दिखाई पड़ जाना,३ उस कार्य की सिद्धि में सहायक के अनायास मिल जाने का द्योतक है । समाहित का स्वरूप भामह की स्वतन्त्र उद्भावना है ।
उदात्त
उदात्त अलङ्कार के उदाहरण से यह स्पष्ट है कि भामह इसमें व्यक्ति का आशयोत्कर्ष-वर्णन अपेक्षित मानते हैं । इस अलङ्कार के सम्बन्ध में अन्य मत का निर्देश करते हुए भामह ने जो उदाहरण दिया है उसमें विभूति का उत्कर्ष वर्णित है। इस प्रकार भामह के मतानुसार व्यक्तित्व की उच्चाशयता तथा ऐश्वर्य के वर्णन में उदात्त अलङ्कार होता है। भरत के उदार-गुण-लक्षण के प्राप्त पाठान्तर में उदात्त शब्द का उल्लेख है। उदात्त को भरत ने उदार का पर्याय
१. पर्यायोक्तं यदन्येन प्रकारेणाभिधीयते ।—भामह, काव्यालं० ३, ८ २. गुणानुवादः स ज्ञेयो यत्राभेदोपचारतः । गौणी वृत्तिमुपाश्रित्य वस्तुनो रूपमुच्यते ॥
-भरत, ना० शा० पृ० ३०५, पादटिप्पणी ३. द्रष्टव्य-भामह, काव्यालं० ३, १० ४. द्रष्टव्य-भामह, काव्यालं० ३, ११-१३
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ४५.
माना है। उदार गुण के कई तत्त्वों में से एक तत्त्व 'दिव्य-भाव-परीत' है, जिसकी व्याख्या करते हुए अभिनवगुप्त ने 'मानुषोचित व्यापार का भी दिव्यतया वर्णन' उदार का अङ्ग बताया है । यह धारणा आशयोत्कर्ष-वर्णन की धारणा से मिलती-जुलती है । इसके अतिरिक्त गुण-कीर्तन लक्षण तथा अतिशय लक्षण ( पाठान्तर ) में आशयोत्कर्ष-वर्णन पर बल दिया गया है। गुणकीर्तन लक्षण में दोष को छिपाकर केवल गुणों का वर्णन वाञ्छनीय माना गया है। अतिशय लक्षण के एक पाठ में यह कहा गया है कि इसमें जन-सामान्य में सम्भव बहुत-से गुणों का वर्णन कर विशेष का कथन होता है।' स्पष्टतः इन दोनों लक्षणों में व्यक्तित्व के उदात्त गुणों का वर्णन अपेक्षित माना गया है। भामह ने उदात्त अलङ्कार के सम्बन्ध में यही धारणा व्यक्त की है। भामह के अनुसार कुछ लोग वैभव के उत्कर्ष-वर्णन में भी उदात्त अलङ्कार स्वीकार करते हैं। हेमचन्द्र ने अपने काव्यानुशासन में भरत की उदात्तगुण-विषयक मान्यता उद्धृत करते हुए लिखा है कि भनेक सूक्ष्म विशेषणों से युक्त कथन में भरत उदार गुण मानते हैं । सम्भव है कि हेमचन्द्र ने 'नाट्य-शास्त्र' के एक पाठ में प्राप्त उस उदात्तगुण-लक्षण को इस रूप में प्रस्तुत किया हो, जिसमें यह कहा गया है कि जहाँ अनेक अर्थवाले विशेषणों से युक्त, सौष्ठव-पूर्ण तथा विचित्र अर्थमय कथन हो वहाँ उदात्त गुण होता है । 3 'नाट्यशास्त्र' में प्रत्येक गुण-लक्षण के एकाधिक पाठ उपलब्ध होने से इस सम्भावना का भी परिहार नहीं किया जा सकता कि हेमचन्द्र के सामने उदात्त-गुण की परिभाषा का कोई सम्पत्ति अनुपलब्ध पाठान्तर रहा हो, जिसमें उक्त धारणा व्यक्त की गई हो। अस्तु, हेमचन्द्र के कथन को प्रामाणिक मान लेने पर भूत्युत्कर्ष-वर्णनगत उदात्त तथा आशयोत्कर्ष-वर्णनमत उदात्त; इन दोनों अलङ्कार-भेदों का मूल भरत के उदात्त-गुण-लक्षण में माना जा सकता है ।'
१. "कीर्त्यमानैगुणर्यत्र विविधार्थसमुद्भवैः । दोषा न परिकथ्यन्ते तज्ज्ञ यं गुणकीर्तनम् ॥"
-भरत, ना० शा० १६, ६ २. बहून् गुणान् कीर्तयित्वा सामान्यजनसंभवान् । विशेषः कीर्त्यते यत्र ज्ञेयः सोऽतिशयो बुधैः ।।
-ना० शा० अ० पृ० ३०६. ३. बहुभिः सूक्ष्मैश्च विशेषः समेत्रमुदारमिति भरतः ।
—हेम० काव्यानु० पृ० २३८
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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
इस प्रकार आशयोत्कर्ष-वर्णन की कल्पना उक्त दो लक्षणों एवं उदात्त गुण की धारणा के आधार पर तथा भत्युत्कर्ष-वर्णन की कल्पना उदात्त गुण-धारणा के आधार पर मानी जा सकती है।
उदात्त का सम्बन्ध वर्णन की भङ्गी से न होकर स्वयं वर्ण्य से है। भामह ने जिस वक्रोक्ति को अलङ्कार का प्राण माना है उसका आशय या समृद्धि के वर्णन में सार्वत्रिक सद्भाव भी आवश्यक नहीं है। ऐसी स्थिति में उदात्त का अलङ्कारत्व विवाद-मुक्त नहीं माना जा सकता। वक्रोक्तिवादी कुन्तक ने उदात्त के, आशयोत्कर्ष-वर्णन एवं भूत्युत्कर्ष-वर्णन; दोनों भेदों को अलङ्कार्य स्वीकार कर उसके अलङ्कारत्व का खण्डन किया है।' सम्भव है कि भामह ने भी इसे अलङ्कार के रूप में विशेष महत्त्व नहीं देने के कारण ही इसका लक्षण नहीं दिया हो और केवल उदाहरण का उल्लेख कर ही छुटकारा पा लिया हो। श्लिष्ट
भामह का श्लिष्ट अलङ्कार भरत के रूपक अलङ्कार से मिलता-जुलता है। उन्होंने गुण, क्रिया एवं संज्ञा से उपमान के साथ उपमेय के अभेद-साधन में 'श्लिष्ट अलङ्कार माना है। इस अंश में श्लिष्ट रूपक से अभिन्न है। भामह ने स्वयं इन दोनों का अंशतः अभेद स्वीकार करते हुए रूपक से श्लिष्ट का पार्थक्य-प्रतिपादन करने के लिए इसमें उपमान तथा उपमेय का युगपत् प्रतिपादन आवश्यक माना है ।२ रूपक में भी उपमान के साथ उपमेय का अभेदसाधन होता है; किन्तु उसमें उपमान तथा उपमेय का पृथक्-पृथक् उल्लेख होता है। भरत ने अपने अक्षरसंहति लक्षण में श्लिष्ट एवं संक्षिप्त वर्णों का प्रयोग काम्य माना है। उन्होंने श्लेष नामक गुण का भी उल्लेख किया है, जिसमें अभीष्ट अर्थ से परस्पर सम्बद्ध पदों की श्लिष्टता रहा करती है । भरत की श्लिष्टता-सम्बन्धी धारणा भामह की श्लिष्ट-धारणा से भिन्न है। उन्होंने श्लिष्टता में पदों का सुग्रथित विन्यास वाञ्छनीय माना है। भामह श्लिष्ट में प्रस्तुत एवं अप्रस्तुत का युगपत् उल्लेख अपेक्षित मानते हैं । यह भामह की स्वतन्त्र कल्पना है।
१. 'एवमुदात्तस्योभयप्रकारस्याप्यलङ्कार्यतैव युक्तिमती, ___ न पुनरलङ्करणत्वम् ।'–कुन्तक, वक्रोक्तिजी०, पृ०३७८ २. लक्षणं रूपकेऽपीदं लक्ष्यते काममत्र तु। इष्टः प्रयोगो युगपदुपमानोपमेययो: ॥
-भामह, काव्यालं० ३, १५
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ४७
अपह नुति
अपह नुति अलङ्कार में उपमेय का अपह्नव तथा उपमान का अभिधान होता है। इस अलङ्कार के मूल में उपमा है। प्रस्तुत का निषेध तथा अप्रस्तुत का कथन होने से इसे 'किञ्चिदन्तर्गतोपमा' कहा गया है। अभिनवगुप्त ने निर्देश किया है कि भरत की उपमा के साथ उनके मिथ्याध्यवसाय-नामक लक्षण के योग से अपह नुति अलङ्कार का स्वरूप निष्पन्न हुआ है।' मिथ्याध्यवसाय लक्षण के एक पाठ में यह कहा गया है कि इसमें अर्थ का अन्यथात्व-प्रतिपादन होता है ।२ किसी वस्तु के स्वरूप का निषेध कर उसका अन्यथा-भाव प्रतिपादित करना मिथ्याध्यवसाय है । यह अन्यथाभाव सादृश्य के कारण होता है। अपह नुति अलङ्कार में वर्ण्य वस्तु के स्वरूप का अपह्नव तथा अवर्ण्य ( उपमान ) के रूप में उसका ( अन्यथात्व ) प्रतिपादन होता है । स्पष्ट है कि उपमा तथा मिथ्याध्यवसाय के योग से अपह नुति का रूप-निर्माण हुआ है। विशेषोक्ति
भामह के अनुसार जहाँ किसी वस्तु के एक गुण की हानि होने पर विशेषता के अभिधान के लिए गुणान्तर का सद्भाव दिखाया जाता हो वहाँ 'विशेषोक्ति अलङ्कार होता है। प्रस्तुत अलङ्कार का स्वरूप भामह की स्वतन्त्र उद्भावना है। विरोध
प्रस्तुत अलङ्कार में वर्णन के वैशिष्ट्य के लिए गुण या क्रिया के विरोधी अन्य क्रिया का कथन होता है । ४ यह विरोध स्थिति के अनुरोध से उपपन्न १. 'उपाध्यायमतं तु-लक्षणबलादलङ्काराणां वैचित्र्यमागच्छति तथा हि-..."मिथ्याध्यवसायेनापह नुति.......।'
-अभिनव, ना० शा० अ० भा० पृ० ३२१ २. विचारस्यान्यथाभावस्तथा दृष्टापदृष्टयोः । सन्देहात् कल्प्यते यत्र सविक्षेपो विपर्ययः ।
ना० शा० अ० भा० पृ० ३०० ३. एकदेशस्यविगमे या गुणान्तरसंस्थितिः ।
विशेषप्रथनायासौ विशेषोक्तिर्मता यथा ।—भामह, काव्यालं०,३,२३ - "४. गुणस्य वा क्रियाया वा विरुद्धान्यक्रियाभिधा।
या विशेषाभिधानाय विरोधं तं विदुबु धाः ॥-वही, ३, २५
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४८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
होकर उक्ति में चमत्कार लाता है। चन्द्रमा की शीतल किरणों का तापदायक होना विशेष स्थिति में असिद्ध नहीं है। अतः विरोध अलङ्कार में विरुद्ध क्रिया का कथन आपाततः ही विरोधी लगता है। परिस्थिति के अनुरोध से विरोध का शमन हो जाने से विरोध तात्त्विक नहीं रह जाता। भरत ने प्राप्त दोषों के शमन में उपपत्ति लक्षण स्वीकार किया है। विरोधालङ्कार में भी विरुद्धक्रिया-कथन से प्राप्त विरुद्धत्व दोष का शमन हो जाने पर ही भावक के चित्त में चमत्कार की सृष्टि होती है। स्पष्ट है कि भरत की उक्त लक्षण-धारणा का तत्त्व लेकर ही भामह ने प्रस्तुत अलङ्कार का सृजन किया है।
तुल्ययोगिता
प्रस्तुत अलङ्कार में भामह के अनुसार न्यून वस्तु की विशिष्ट वस्तु के साथ गुण की समता की विवक्षा से दोनों में समान कार्यकारित्व वर्णित होता है। उदाहरण में किसी राजा का शेषनाग तथा हिमालय के साथ गुण-साम्य-प्रतिपादन के लिए तीनों को महान, गुरू तथा स्थिर कहा गया है। तीनों में मर्यादा-बद्ध पृथ्वी के धारण की तुल्य क्रिया का उल्लेख हुआ है।३ अभिनवगुप्र के मतानुसार अलङ्कार के साथ सिद्धि लक्षण का योग होने से तुल्ययोगिता अलङ्कार की सृष्टि हुई है। इस लक्षण में बहुतसी प्रसिद्ध वस्तुओं के बीच अप्रसिद्ध वस्तुओं को, अर्थात् बहुत से उपमानों के बीच वर्ण्य वस्तुओं को रखकर उनमें साधारणता की सिद्धि होती है। तुल्योगिता अलङ्कार में भी न्यून का अर्थात् उपमेय का तुल्यक्रिया-कथन से विशिष्ट वस्तु के साथ गुण का साम्य प्रतिपादित होता है। अतः तुल्ययोगिता अलङ्कार तथा सिद्धि लक्षण में कोई तात्त्विक भेद नहीं। तुल्यकार्यक्रियायोग का तत्त्व दीपक अलङ्कार से लिया गया है। उपमेय तथा
१. प्राप्तानां यत्र दोषाणां क्रियते शमनं पुनः । सा ज्ञेया ह्य पपत्तिस्तु लक्षणं नाटकाश्रयम् ।।
–भरत, ना० शा०, १६, ३५ २. न्यूनस्यापि विशिष्टेन गुणसाम्यविवक्षया। ___तुल्यकार्यक्रियायोगादित्युक्ता तुल्ययोगिता ।।-भामह,काव्यालं०३,२७ ३. द्रष्टव्य-वही, ३, २८ ४. लक्षणयोगादलंकाराणां वैशिष्ट्यमागच्छति तथा हि-..."सिद्धया
___ तुल्ययोगितेति। अभिनव, ना० शा० अ० भा० पृ० ३२१
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ४६
उपमान का सादृश्य इस अलङ्कार का मूल है। भामह की तुल्ययोगिता में भरत के गुणानुवाद लक्षण तथा प्रशंसोपमा का भी तत्त्व मिला है। गुणानुवाद में परिमित की उत्कृष्ट के साथ उपमा होती है।' 'प्रशंसोपमा में भी उपमान प्रशस्त होता है, उपमेय हीन । भामह ने तुल्ययोगिता का उद्देश्य न्यून का विशिष्ट के साथ साधारण्य-साधन स्वीकार किया है। भामह इस अलङ्कार के स्वरूप-निर्धारण में सिद्धि तथा गुणानुवाद लक्षण के साथ-साथ दीपक तथा प्रशंसोपमा के स्वरूप से भी प्रभावित जान पड़ते हैं।
अप्रस्तुतप्रशंसा
जहाँ वर्ण्य वस्तु को छोड़ केवल अप्रस्तुत का वर्णन होता है वहाँ अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार माना गया है। अप्रस्तुत के वर्णन से ही सादृश्य के कारण प्रस्तुत की प्रतीति हो जाती है। इस अलङ्कार को लक्ष्य कर अभिनव ने कहा है कि भरत के अलङ्कार के साथ मनोरथ लक्षण के योग से इसकी उत्पत्ति हुई है। मनोरथ लक्षण में भरत के अनुसार, कवि अन्य वस्तु के वर्णन के द्वारा अपना हृदयस्थ भाव सुश्लिष्ट रूप में प्रस्तुत कर देता है।४ इस प्रकार दोनों की प्रकृति अभिन्न है। भरत के प्रोत्साहन लक्षण की परिभाषा में भी अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार के तत्त्व प्राप्त होते हैं। उसमें भी उपमान का आश्रय लेकर वस्तु-वर्णन होता है । अभिनव ने प्रोत्साहन लक्षण के उदाहरण की व्याख्या के क्रम में कहा है कि 'अप्रस्तुतप्रशंसा में प्रोत्साहन से ही वैचित्र्य का आधान होता है।' ५ अतः यह मानना युक्तिसङ्गत होगा कि अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार के स्वरूप-संघटन में मनोरथ एवं प्रोत्साहन लक्षणों का योग है।
१. गुणानुवादो हीनानामुत्तमरुपमाकृतः ।-भरत, ना० शा० १६, १३ २. अधिकारादपेतस्य वस्तुनोऽन्यस्य या स्तुतिः । ___अप्रस्तुतप्रशंसेति सा चैवं कथ्यते यथा ॥–भामह, काव्यालं ३, २६ ३. ...."मनोरथाख्येनाप्रस्तुतप्रशंसा। अभिनव ना० शा० अ० भा० पृ० ३२१ ४. हृदयस्थस्य भावस्य सुश्लिष्टार्थप्रदर्शनम् । ___ अन्यापदेशकथनैर्मनोरथ इति स्मृतः ।।-भरत, ना० शा०, १६, २० ५. 'अप्रस्तुतप्रशंसाप्यत्र तद्वैचित्र्यं प्रोत्साहनत्वलक्षणकृतमेव,"।
-अभिनव, ना० शा० अ० भा० पृ० ३०३
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५० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
व्याजस्तुति
व्याजस्तुति में भामह के अनुसार निन्दामुखेन स्तुति की जाती है। आपाततः की जानेवाली निन्दा से परिणामतः प्रशंसा की व्यञ्जना इसमें होती है। इस अलङ्कार की परिभाषा में भामह ने कहा है कि जहां कवि किसी अप्रस्तुत के गुणाधिक्य का वर्णन कर उसके साथ प्रस्तुत की समता दिखाने के क्रम में आपाततः उस प्रस्तुत की निन्दा करता है, वहाँ व्याजस्तुति अलङ्कार होता है ।' निन्दा के व्याज से स्तुति होने के कारण प्रस्तुत अलङ्कार की संज्ञा अन्वर्था है। 'नाट्यशास्त्र' के कपट लक्षण के प्राप्त दूसरे पाठ में दोषकीर्तन के व्याज से गुण के प्रकटीकरण को गर्हण लक्षण कहा गया है। यह धारणा व्याजस्तुति की धारणा से बहुत मिलती-जुलती है। प्रिय लक्षण में आरम्भ में क्रोध-जनन तथा परिणाम में हर्ष-वर्धन पर बल दिया गया है । इस लक्षण का प्रभाव उक्त अलङ्कार के प्रभाव से अभिन्न है। आपाततः की जानेवाली निन्दा आरम्भ में क्रोध-जनन का हेतु होती है; परिणाम में स्तुति की व्यञ्जना होने से हर्ष का संवर्धन होता है। इस प्रकार कपट तथा प्रिय लक्षणों की धारणा के आधार पर व्याजस्तुति अलङ्कार के स्वरूप का निर्माण किया गया है। निदर्शना
भामह की मान्यता है कि जहाँ यथा, इव, वत आदि उपमावाचक शब्दों के अभाव में भी क्रिया के द्वारा ही उस विशिष्ट अर्थ का बोध हो जाता है, वहाँ निदर्शना अलङ्कार होता है।४ सादृश्य इस अलङ्कार का मूल है। इसमें १. दूराधिकगुणस्तोत्रव्यपदेशेन तुल्यताम् । किञ्चिद्विधित्सोर्या निन्दा व्याजस्तुतिरसौ यथा ।
-भामह, काव्यालं० ३, ३१ २. यत्र संकीर्तयन्दोषं गुणमर्थन योजयेत् । गुणातिपाताद्दोष वा गर्हणं नाम तद्भवेत् ॥–भरत, ना० शा०
अ० भा० पृ० ३१५ ३. आदौ यत्क्रोधजननमन्ते हर्षप्रवर्धनम् ।
तत्प्रियं वचनं ज्ञेयमाशीर्वादसमन्वितम् ॥-भरत, ना० शा० १६, २६ ४. क्रियय व विशिष्टस्य तदर्थस्योपदर्शनात् । ज्ञेया निदर्शना नाम यथेववतिभिविना ॥
-भामह, काव्यालं०, ३, ३३
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[५१ सादृश्य व्यङ य होता है, वाच्य नहीं। इस अलङ्कार का नाम भरत के दृष्टान्त लक्षण में प्रयुक्त निदर्शन शब्द के आधार पर कल्पित है। इस अलङ्कार की स्वरूप-कल्पना में उदाहरण लक्षण से भी तत्त्व लिया गया है, जिसमें समान अर्थ वाले वाक्य से अभीष्ट अर्थ की सिद्धि करायी जाती है । दृष्टान्त तथा उदाहरण लक्षणों के साथ किञ्चित्-सदृशी उपमा के योग से निदर्शना का स्वरूप-विन्यास हुआ है।'
उपमारूपक
भामह ने उपमारूपक नामक एक स्वतन्त्र अलङ्कार की कल्पना की है। यह अलङ्कार नवीन नहीं है। इसके अभिधान से ही स्पष्ट है कि इसमें उपमा तथा रूपक ; इन दो प्राचीन अलङ्कारों का सम्मिश्रण है। इस प्रकार दो या दो से अधिक अलङ्कारों को मिलाकर नवीन अलङ्कार की कल्पना करने से अलङ्कारों के असंख्य भेद हो जायेंगे। इसके लक्षण में इसका स्वरूप रूपक तथा उपमा से अभिन्न बताया गया है । रूपक में भामह के अनुसार गुण की समता के आधार पर उपमान के साथ उपमेय का तत्त्व-साधन होता है। उपमारूपक में भी उन्होंने यही बात कही है। इसमें उपमान के साथ उपमेय का तद्भाव-साधन कहा गया है। तत्त्व-साधन तथा तद्भाव-साधन में कोई भेद नहीं है। दोनों का अभिप्राय उपमेय पर उपमान के आरोप से है। अतः उपमा तथा रूपक से स्वतन्त्र उपमा-रूपक की सत्ता स्वीकार करने का कोई सबल कारण नहीं जान पड़ता। उपमेयोपमा ___ जहाँ क्रम से किसी वस्तु को उपमान तथा उपमेय बनाया जाता है, वहाँ उपमेयोपमा अलङ्कार होता है। एक वाक्य का उपमान दूसरे वाक्य में उपमेय तथा उस वाक्य का उपमेय दूसरे में उपमान बना दिया जाता है। क्रम से उपमेय के उपमान तथा उपमान के उपमेय बनने से इसे उपमेयोपमा कहा जाता है। इसे पृथक् अलङ्कार न मान कर उपमा का भेद मानना ही अधिक युक्तिसङ्गत होता। भरत ने उपमा के इस भेद का उल्लेख नहीं किया है ; किन्तु उनके 'नाट्यशास्त्र' के अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है १. तुलनीय, भरत नाट्शास्त्र १६, २५; १६, ९ (अनुबन्ध); १६, ५१
तथा भामह, काव्यालङ्कार, ३, ३३
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५२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
कि वे उपमा के असंख्य भेदोपभेदों से परिचित थे । उन्होंने सम्भवतः ग्रन्थविस्तार के भय से ही उन भेदोपभेदों का विस्तृत विवेचन नहीं किया है । उन्होंने स्वयं काव्य में तथा लोक में प्रयुक्त होने वाले उपमा के बहुल भेदों का निर्देश करते हुए यह स्वीकार किया है कि उनके 'नाट्यशास्त्र' में संक्षेप में ही उपमा के अङ्गों का वर्णन किया गया है । इसके अन्य भेद भी लोक व्यवहार तथा काव्य की उक्तियों में पाये जा सकते हैं । १ भरत के इस कथन में उपमेयोपमा की कल्पना की सम्भावना भी पायी जा सकती है । उपमा में उपमेय तथा उपमान की कल्पना तो है ही। उन्हीं दोनों के पारस्परिक स्थानपरिवर्तन के आधार पर उपमेयोपमा की कल्पना कर ली गई है ।
सहोक्ति
एक ही समय दो वस्तुओं से सम्बद्ध क्रिया का एक ही पद से कथन होने में सहोक्ति अलङ्कार माना गया है ।" यह भामह का स्वतन्त्र अलङ्कार है । इसकी कल्पना की प्र ेरणा भरत के दीपक अलङ्कार से मिली होगी। दीपक में अनेक पदों या वाक्यों में कहे गये साकांक्ष अर्थों का एक ही वाक्य से गुण, क्रिया, जाति आदि का दीपन होता है, अर्थात् सभी पदों या वाक्यों का एक ही गुण, क्रिया आदि से सम्बन्ध दिखाया जाता है । इस प्रकार एक साथ कई अर्थों के सम्बद्ध-वर्णन की धारणा का सूत्रपात भरत के दीपक अलङ्कार की परिभाषा में ही हुआ था, जिसका किञ्चित् परिवर्तित स्वरूप भामह के सहोक्ति अलङ्कार में उपलब्ध है ।
परिवृत्ति
परिवृत्ति अलङ्कार में हीन वस्तु देकर उत्तम वस्तु का ग्रहण वर्णित होता है तथा अप्रस्तुत वाक्य के न्यास से इसमें अर्थान्तरन्यास का भी योग रहता है । अर्थान्तरन्यास अलङ्कार की धारणा के उद्भव और विकास पर विचार
१. उपमाया बुधैरेते ज्ञेया भेदा: समासतः । ये शेषा लक्षण नक्तास्ते ग्राह्या लोककाव्यतः ॥
- भरत, ना० शा०, १६, ५३
२. तुल्यकाले क्रिये यत्र वस्तुद्वयसमाश्रये । पदेनैकेन कथ्येते सहोक्तिः सा मता यथा ।।
— भामह, काव्यालं०, ३, ३६ वस्तुनः ।
यथा ॥ - वही, ३, ४१
३. विशिष्टस्य यदादानमन्यापोहेन अर्थान्तरन्यासवती परिवृत्तिरसौ
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ५३
किया जा चुका है। अतः प्रस्तुत प्रसङ्ग में उसका चर्वितचर्वण अनावश्यक होगा। परिवृत्ति-परिभाषा के पूर्वाद्ध में निर्दिष्ट तत्त्वों पर ही विचार अपेक्षित है। हीन वस्तु देकर उत्तम वस्तु लेने की भामह की कल्पना मौलिक है। भरत ने हीन वस्तु की उत्तम वस्तु के साथ उपमा की कल्पना गुणानुवाद लक्षण तथा प्रशंसोपमा अलङ्कार में अवश्य की थी, किन्तु इनके आदान-प्रदान की कल्पना उन्होंने नहीं की थी। सम्भव है कि न्यून तथा महत् के उपमेयोपमान-भाव के आधार पर उनके दानादान-भाव की कल्पना परिवृत्ति अलङ्कार की संज्ञा से कर ली गयी हो।
सन्देह
जहाँ उपमेय का उपमान के साथ अभेद तथा भेद प्रतिपादन निश्चयात्मक रूप से नहीं किया जाकर संशयात्मक रूप से भेदाभेद का कथन हो, उस ससन्देह कथन में भामह सन्देह अलङ्कार मानते हैं।' प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत के बीच भेदाभेद-निर्णय में यह अनिश्चय की दशा दोनों के अतिशय साम्य के कारण होती है। भरत ने संशय लक्षण की परिभाषा में कहा है कि जहाँ विचार के अनेक विकल्पों के होने पर तत्त्व-निर्णय किये बिना अनिश्चयात्मक स्थिति में ही वाक्य को समाप्त कर दिया जाता हो, वहाँ संशय नामक लक्षण माना जाता है। भरत के इस लक्षण के साथ उपमा अलङ्कार के तत्त्व को मिला कर सन्देह अलङ्कार की सृष्टि हुई है। उपमेय तथा उपमान में साम्य के कारण उनके भेदाभेद के सन्देह में, उपमेय तथा उपमान का सादृश्य उपमा अलङ्कार से तथा विचार का अनेकत्व संशय लक्षण से गृहीत है ।
अनन्वय
जहाँ किसी वस्तु का उसी के साथ उपमानोपमेयत्व हो वहाँ अनन्वय अलङ्कार माना गया है। इसमें वर्ण्य के समान दूसरा नहीं है, यह बताने के लिए उसी १. उपमानेन तत्त्वं च भेदं च वदतः पुनः।।
ससन्देहं वचः स्तुत्यै ससन्देहं विदुर्यथा ।।-वही, ३, ४३ २. अपरिज्ञाततत्त्वार्थं यत्र वाक्यं समाप्यते । सोऽनेकत्वाद्विचाराणां संशयः परिकीत्तितः ॥
-भरत, ना० शा०, १६, २७ ३. यत्र तेनैव तस्य स्यादुपमानोपमेयता।
असादृश्यविवक्षातस्तमित्याहुरनन्वयम् ॥–भामह, काव्यालं०, ३,४५
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५४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
का उपमेयत्व तथा उपमानत्व दोनों कहा जाता है । इसमें उपमेय स्वयं अपना उपमान बन जाता है, उपमेय से भिन्न उपमान की कल्पना नहीं की जाती । यह अलङ्कार उपमा से तत्त्वतः भिन्न नहीं है । दोनों में भेद केवल इतना है कि उपमा में उपमेय का उससे पृथक् सत्ता रखने वाले उपमान के साथ साधर्म्य - प्रतिपादन होता है तथा अनन्वय में उपमेय का उसी के साथ साधर्म्य वर्णित होता है । तात्विक भेद नहीं होने के कारण ही सम्भवतः भरत ने उपमा से अलग अनन्वय का उल्लेख नहीं किया है । 'नाट्यशास्त्र' में वर्णित उपमा के सदृशी भेद से अनन्वय का स्वरूप अभिन्न है । अभिनव ने सदृशी उपमा का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है कि इसमें उपमेय को ही उसका उपमान कल्पित किया जाता है । '
उत्प्रेक्षावयव
श्लेष, रूपक तथा उत्प्रेक्षा अलङ्कारों के योग से भामह ने इस नवीन अलङ्कार की कल्पना कर ली है। उनके अनुसार उत्प्रेक्षावयव अलङ्कार में श्लिष्ट अर्थ का योग, कुछ उत्प्र ेक्षा का मिश्रण तथा रूपक अर्थ का समन्वय रहता है । एकत्र एकाधिक अलङ्कारों का सद्भाव सम्भव है । वे या तो परस्पर अङ्गाङ्गि-भाव से रह सकते हैं या एक दूसरे से निरपेक्ष रूप से रह सकते हैं । अतः अनेक अलङ्कारों को मिला कर एक नवीन अलङ्कार की कल्पना युक्तिसङ्गत नहीं । इसीलिए परवर्ती आचार्यों ने इस अलङ्कार की सत्ता स्वीकार नहीं की है । यदि एकाधिक अलङ्कार के सद्भाव में किसी नवीन अलङ्कार की कल्पना आवश्यक होती तो नानालङ्कार की संसृष्टि की कल्पना ही व्यर्थ हो जाती । भामह ने भी अनेक अलङ्कारों की संसृष्टि स्वीकार की है । अतः उत्प्रेक्षावयव की कल्पना अनावश्यक है ।
संसृष्टि
सुन्दर रत्नों से रचित माला की तरह अनेक अलङ्कारों के संग्रथन से निर्मित संसृष्टि को भामह ने उत्तम अलङ्कार कहा है । यह स्वतन्त्र अलङ्कार
१. यत्रोपमेयस्य एवोपमानता सेयं सदृशी ।
- नाट्यशास्त्र अभिनव भारती पृ० ३२४ ॥
२. श्लिष्टस्यार्थेन संयुक्तः किञ्चिदुत्प्रेक्षयान्वितः । रूपकार्थेन च पुनरुत्प्र ेक्षावयवो यथा ॥ - वही ३, ४७ ३. वरा विभूषा संसृष्टिर्बह्वलङ्कारयोगतः ।
रचिता रत्नमालेव सा चैवमुदिता यथा ॥ - वही, ३, ४६
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[५५ नहीं है, विभिन्न अलङ्कारों के योग से उत्पन्न छटा का द्योतक है। भरत ने भूषण लक्षण में अनेक अलङ्कारों तथा अनेक गुणों के एकत्र निवेश की कल्पना की है। उसी धारणा से संसृष्टि अलङ्कार की कल्पना उत्प्रेरित जान पड़ती है। भाविक
भामह ने भाविक को प्रबन्धगत गुण कहा है; किन्तु अलङ्कारों में भाविक की गणना किये जाने से यह स्पष्ट है कि उन्होंने गुण शब्द का प्रयोग अलङ्कार के पर्याय के रूप में किया है। यह अलङ्कार वाक्यगत नहीं, प्रबन्धगत है । जिस प्रबन्ध में अतीत या भावी अर्थ का इस प्रकार वर्णन होता है कि वे प्रत्यक्ष-से हो उठते हैं, उसमें भाविक अलङ्कार माना गया है।' अर्थ-वर्णन की स्फुटता इसमें अपेक्षित है। भाविक को अलङ्कार मानना निर्धान्त नहीं है। अर्थ-वर्णन में कवि का यह कौशल कि वह भूत या भावी अर्थ को पाठक की कल्पना-दृष्टि के सामने प्रत्यक्ष कर दे, कविकर्म की सफलता के लिए आवश्यक शत है। भामह ने भाविक में विचित्र, उदात्त तथा अद्भुत अर्थों का स्पष्ट शब्दों में वर्णन वाञ्छनीय माना है। भरत ने उदारता गुण में अद्भुत, विचित्र तथा अनेक भाव संयुक्त अर्थ के वर्णन पर बल दिया है तथा अर्थव्यक्ति में स्पष्ट शब्दों में अर्थ का स्फुट वर्णन वाञ्छनीय माना है। इन्हीं गुणों की धारणा के साथ अप्रत्यक्ष अर्थ-वर्णन की धारणा को मिला कर भामह ने भाविक अलङ्कार की कल्पना कर ली है। इसके अलङ्कारत्व के सम्बन्ध में परवर्ती आचार्यों में मतैक्य नहीं है।
प्राशी
आशीः की ओर निर्देश करते हुए भामह ने कहा है कि कुछ लोग इसे भी अलङ्कार मानते हैं। १. अलङ्कारैगुणश्चैव बहुभिर्यदलङ कृतम् ।
भूषणैरिव विन्यस्तैस्तद्भूषणमिति स्मृतम् ॥-भरत, ना० शा०, १६,५ २. भाविकत्वमिति प्राहुः प्रबन्धविषयं गुणम् । __ प्रत्यक्षा इव दृश्यन्ते यत्रार्था भूतभाविनः ।
–भामह, काव्यालं० ३, ५३ ३. आशीरपि च केषाञ्चिदलङ्कारतया मता।
-वही, , ३, ५५ .
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५६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
भामह की अलङ्कार-धारणा के इस विवेचन तथा भरत की अलङ्कार, लक्षण तथा गुण विषयक मान्यता के सन्दर्भ में उसके अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भरत के बाद भामह में जिन पैंतीस नवीन अलङ्कारों की गणना हुई है, उनमें से अधिकांश की उत्पत्ति भरत के मूल अलङ्कारों, लक्षणों तथा गुणों से हुई है। कुछ अलङ्कार भरत के किसी विशेष अलङ्कार के भेद-मात्र हैं। उनके दो अलङ्कारों को मिला कर भी भामह ने नवीन अलङ्कार की कल्पना कर ली है। कुछ अलङ्कार उनके विशेष लक्षणों से अभिन्न हैं तथा कुछ अलङ्कारों की उत्पत्ति एकाधिक लक्षणों के मिश्रण से हुई है । भरत के कुछ अलङ्कार तथा लक्षण के परस्पर योग से भी भामह के नवीन अलङ्कारों का आविर्भाव हुआ है। नाट्यशास्त्र के कुछ गुणों का भी नवीन अलङ्कारों की सृष्टि में योगदान है। कहीं एकाधिक गुणों के परस्पर मेल से तथा कहीं गुण का लक्षण के साथ योग से नवीन अलङ्कारों का निर्माण हुआ है। इसके अतिरिक्त भामह के कुछ अलङ्कार भरत के रस, भाव आदि से सम्बद्ध हैं। कुछ अलङ्कार अवश्य मौलिक हैं, जिनके स्वरूप की कल्पना भरत ने अलङ्कार, लक्षण तथा गुण के सन्दर्भ में नहीं की थी।
इस प्रकार उद्भव की दृष्टि से भामह के अलङ्कारों का निम्नलिखित दश वर्गों में विभाजन किया जा सकता है:
१. मूल अलङ्कार के रूपान्तरः-भामह के अनुप्रास, अनन्वय, उपमेयोपमा तथा उत्प्रक्षा भरत के मूल अलङ्कारों के आधार पर ही कल्पित हैं। अनुप्रास भरत के यमक का भेद-मात्र है । उत्प्रेक्षा कल्पितोपमा के आधार पर कल्पित है तथा अनन्वय एवं उपमेयोपमा उपमा के ही रूप-भेद हैं ।
२. एकाधिक अलङ्कारों के योग से उत्पन्न:-इस वर्ग में भामह के दो अलङ्कार आते हैं-उपमारूपक तथा उत्प्रेक्षावयव । उपमारूपक अलङ्कार में उपमा तथा रूपक अलङ्कारों का समन्वित रूप है। उत्प्रेक्षावयव में उत्प्रक्षा, रूपक तथा श्लिष्ट अलङ्कारों का समवाय है। इनमें से रूपक-धारणा भरत की है, उत्प्रेक्षा उन्हीं की कल्पितोपमा के आधार पर कल्पित है तथा श्लिष्ट भामह की अंशतः मौलिक धारणा है ।
३. भरत के लक्षण से समुद्भूतः-भामह के प्रेय तथा विरोध अलङ्कारों का मूल क्रमशः प्रोत्साहन लक्षण के पाठभेद प्रियोक्ति तथा उपपत्ति लक्षणों में है।
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ५७ ४. लक्षणों के पारस्परिक योग से निष्पन्नः-आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, समाहित तथा व्याजस्तुति अलङ्कारों की रूप-रचना में एकाधिक लक्षणों का योग है। उदाहरणार्थ-प्रतिषेध तथा मनोरथ लक्षणों के योग से आक्षेप, शोभा एवं उदाहरण के मिलन से अर्थान्तरन्यास, अतिशय और निर्भासन के पाठ-भेद माला लक्षणों के मेल से व्यतिरेक तथा कपट के पाठभेद गर्हण एवं प्रिय के संयोग से व्याजस्तुति अलङ्कार आविर्भूत हुए हैं।
५. अलङ्कार तथा लक्षण के संयोग से उत्पन्नः-समासोक्ति, अतिशयोक्ति, अपह्न ति, तुल्ययोगिता, अप्रस्तुतप्रशंसा, निदर्शना तथा सन्देह अलङ्कारों की उत्पत्ति विभिन्न लक्षणों एवं मूल अलङ्कारों के संयोग से हुई है। समासोक्ति में उपमा तथा कार्य के पाठभेद अर्थापत्ति लक्षण के तत्त्वों का सम्मिश्रण है। अतिशयोक्ति के स्वरूप की कल्पना में रूपक तथा अतिशय से तत्त्व ग्रहण किया गया है। अपह्न ति की सृष्टि उपमा तथा मिथ्याध्यवसाय के योग से हुई है। तुल्ययोगिता का मूल उपमा अलङ्कार तथा सिद्धि एवं गुणानुवाद लक्षणों में है। अप्रस्तुतप्रशंसा के स्वरूप-विन्यास में उपमा के साथ मनोरथ एवं प्रोत्साहन लक्षणों ने योगदान दिया है। निदर्शना की कल्पना में दृष्टान्त तथा उदाहरण लक्षणों के साथ उपमा अलङ्कार के तत्त्वों का योग है तथा सन्देह अलङ्कार के उद्गम का स्रोत उपमा अलङ्कार तथा संशय लक्षण हैं।
६. गुण-धारणा से अनुप्राणितः-भामह को स्वभावोक्ति अलङ्कार की कल्पना की प्रेरणा भरत के अर्थव्यक्ति गुण से मिली होगी।
७. एकाधिक गुणों के योग से उद्भूत :-भाविक अलङ्कार की रूप-रचना में भामह भरत की उदारता तथा अर्थव्यक्ति गुण-धारणा से प्रभावित जान पड़ते हैं, यद्यपि इसमें परोक्षार्थ वर्णन की कल्पना उनकी मौलिक उद्भावना है।
८. लक्षण एवं गुण के समन्वय से सम्पन्नः-उदात्त अलङ्कार में भामह ने भरत के उदार या उदात्त गुण, गुणकीर्तन तथा अतिशय लक्षण के प्रमुख विधायक तत्त्वों का समन्वय कर दिया है ।
९. रस तथा भाव को धारणा से निःसृतः-रसवत् तथा ऊर्जस्वी अलङ्कारों का सम्बन्ध नाट्याचार्य भरत की रस तथा भाव-सम्बन्धी धारणा से है। रसवत् रस से तथा ऊर्जस्वी दीप्त भाव से सम्बद्ध है।
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५८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
१०. मौलिक अलङ्कार : - भामह के मौलिक अलङ्कारों के दो वर्ग माने जा सकते हैं— (क) पूर्ण मौलिक तथा (ख) अंशतः मौलिक । विभावना, विशेषोक्ति एवं यथासंख्य अलङ्कार पूर्णतः मौलिक हैं । श्लिष्ट आंशिक रूप से रूपक-धारण। से प्रभावित है तथा अंशतः मौलिंक । सहोक्ति पर दीपक का किञ्चित् प्रभाव है, साथ ही कुछ मौलिकता भी है । परिवृत्ति में गुणानुवाद, लक्षण तथा प्रशंसोपमा से कुछ साम्य होने पर भी आंशिक मौलिकता है । भाविक अलङ्कार भी अंशतः मौलिक है । पर्यायोक्त तथा समाहित भी भामह की मौलिक उद्भावना है ।
भामह ने हेतु, सूक्ष्म तथा लेश के अलङ्कारत्व का खण्डन किया है, चूँकि उनमें वक्रोक्ति का सद्भाव नहीं। इससे सिद्ध है कि भामह के पूर्व कुछ आचार्यों ने उक्त अलङ्कारों की सत्ता स्वीकार की थी, अन्यथा भामह अप्राप्त के निषेध में व्यर्थ श्रम नहीं करते ।
उदात्त, प्र ेय, ऊर्जस्वी आदि अलङ्कारों के लक्षण नहीं दिये गये हैं । यह अनुमान किया जा सकता है कि परिभाषित अलङ्कारों की अपेक्षा उक्त अलङ्कारों को भामह ने गौण महत्त्व दिया है ।
O
आचार्य दण्डी
भामह के बाद दण्डी के 'काव्यादर्श' में काव्यालङ्कारों का विशद विवेचन प्राप्त होता है । भामह के उनचालीस अलङ्कारों के स्थान पर दण्डी ने छत्तीस अलङ्कार स्वीकार किये है; किन्तु विशेष अलङ्कारों के भेदोपभेदों की कल्पना में दण्डी काव्यशास्त्र के सभी आचार्यों से आगे हैं । 'काव्यादर्श' में अलङ्कारों की संख्या - परिमिति का कारण कदाचित् उनके अङ्गों, उपाङ्गों की अपरिमिति ही है । उन्होंने भामह के कुछ अलङ्कारों की स्वतन्त्र सत्ता अमान्य बतायी और उन्हें अन्य अलङ्कारों के अङ्ग के रूप में स्वीकार कर लिया । उदाहरणार्थ:- भामह ने प्रतिवस्तूपमा, अनन्वय, उपमेयोपमा, ससन्देह, उपमारूपक तथा उत्प्रेक्षावयव को स्वतन्त्र अलङ्कार की पदवी प्रदान की थी; किन्तु दण्डी ने उन्हें उपमा, रूपक तथा उत्प्र ेक्षा के अङ्ग के रूप में स्वीकार किया । प्रतिवस्तूपमा उपमा का एक भेद माना गया । अनन्वय असाधारणोपमा की संज्ञा देकर उपमा-भेद स्वीकार किया गया । उपमेयोपमा
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ५६. अन्योन्योपमा के नाम से अभिहित हुआ और उपमा का एक प्रकार स्वीकृत हुआ। ससन्देह का अभिधान संशयोपमा किया गया तथा उपमा के ही भेदों में उसे समाविष्ट कर लिया गया। उपमारूपक रूपक अलङ्कार में अन्तभूत होकर उसका एक प्रकार बन गया तथा उत्प्रेक्षावयव अपनी स्वतन्त्र सत्ता खोकर उत्प्रेक्षा का भेद-मात्र मान लिया गया।' ___ दण्डी ने हेतु, सूक्ष्म तथा लेश अलङ्कारों का भी अस्तित्व स्वीकार किया है। भामह ने इनके अलङ्कारत्व का खण्डन किया था। आशीः को भी दण्डी ने अलङ्कार के रूप से मान्यता दी है। भामह ने इसके अलङ्कारत्व के सम्बन्ध में कुछ लोगों के मत का निर्देशमात्र किया था। भामह के अनुप्रास एवं यमक शब्दालङ्कारों में से केवल यमक का ही विवेचन 'काव्यादर्श' के अलङ्कार-प्रसङ्ग में हुआ है। अनुप्रास का विवेचन दण्डी ने माधुर्यगुण के स्वरूप-निरूपण के सन्दर्भ में किया है। इससे स्पष्ट है कि दण्डी ने अपने पूर्ववर्ती आचार्य भामह की विचार-सरणि का अन्धानुसरण नहीं किया है। उनमें चिन्तन की मौलिकता है। उनके अधिकांश अलङ्कारों का स्वरूप भामह के अलङ्कारों से अभिन्न होने पर भी, उनके भेदोपभेद की उद्भावना स्वतन्त्र रूप से की गयी है। कुछ अलङ्कारों का स्वरूप भी सर्वथा नवीन है। उन नवीन अलङ्कारों में से कुछ का मूल भरत की लक्षण-धारणा तथा गुण-धारणा में ढूढ़ा जा सकता है। भरत तथा भामह की काव्य-तत्त्व-विवेचना के प्रकाश में दण्डी की अलङ्कार-विषयक मान्यता का परीक्षण वाञ्छनीय है।
यमक
'काव्यादर्श' में यमक का सामान्य लक्षण 'काव्यालङ्कार' के यमक-लक्षण से किञ्चित् भिन्न है । दण्डी की यमक-धारणा भरत की धारणा के समान है । भामह ने श्र तिसम भिन्नार्थक शब्दों की आवृत्ति को यमक माना था।२ दण्डी ने भरत
१. अनन्वयससन्देहावुपमास्वेव दर्शितौ ।
उपमारूपकञ्चापि रूपकेष्वेव दर्शितम् ।। उत्प्रक्षाभेद एवासावुत्प्रक्षावयवोऽपि च । -दण्डी, काव्यादर्श २, ३५८-५९ और द्रष्टव्य, प्रतिवस्तूपमा
का लक्षण २, ४६ २. तुल्यश्र तीनां भिन्नानामभिधेयः परस्परम् ।
वर्णानां यः पुनर्वादो यमकं तन्निगद्यते ।।-भामह, काव्यालं० २, १७.
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६० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण की तरह वर्णावृत्ति तथा पदावृत्ति, दोनों को यमक माना है।' दण्डी भामह से इस अंश में प्रभावित हैं कि वे प्रहेलिका को यमक का ही भेद मानते हैं। भामह ने रामशर्मा का मत उद्धृत करते हुए कहा है कि गम्भीर धात्वर्थ वाले यमक को ही प्रहेलिका कहा गया है ।२ दण्डी ने इस मान्यता को स्वीकार कर पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा निर्दिष्ट प्रहेलिका के सोलह भेदों का लक्षणनिरूपण किया है। चौदह प्रकार की दुष्टप्रहेलिकाओं का भी सङ्केत 'काव्यादर्श' में प्राप्य है। गोमूत्रिका, अर्धभ्रम तथा सर्वतोभद्र जैसे—विभिन्न प्रकार के चित्रों में निबद्ध होने वाले काव्य (चित्र-काव्य) को दण्डी ने यमक अलङ्कार के ही व्यापक परिवेश में समाविष्ट माना है। स्पष्ट है कि नाना प्रकार के बन्धों में काव्य के निबन्धन की कल्पना का आरम्भ वर्गों के विभिन्न प्रकार के मोड़ के आधार पर ही हुआ था। पीछे चल कर चित्रों में वर्णविन्यास का अध्ययन शब्दालङ्कार से स्वतन्त्र विषय बन गया। नवीन-नवीन बन्धों की उद्धावना होने लगी और संस्कृत आचार्यों से लेकर हिन्दी के रीतिकालीन आचार्यों तक बन्धों की संख्या एक सौ अस्सी तक पहुंच गई। शब्द-चित्र के साथ अर्थ-चित्र की भी सत्ता स्वीकृत हुई। भामह ने यमक में केवल शब्दावृत्ति को ही वाञ्छनीय नहीं माना था, उसमें अर्थ की भिन्नता पर भी बल दिया था। यही अर्थ-चित्र की कल्पना का आधार बना। विभिन्न बन्धों में चित्र-काव्य की कल्पना का सूत्रपात सर्वप्रथम उक्त बन्धों की कल्पना करने वाले दण्डी ने ही किया, यद्यपि आदि आचार्य भरत की यमक-धारणा में ही उसका बीज निहित था। परवर्ती आचार्यों ने बन्ध-बद्ध काव्य को शब्दालङ्कार से पृथक् सिद्ध करने का प्रयास किया है। रीतिकालीन आचार्य मुरारिदान ने 'जसवन्त भूषण' में यह विचार व्यक्त किया है कि "प्राचीन कमलाकार, धनुषाकार इत्यादि रूप से काव्य लिखे जावें, उनको चित्र-काव्य कह कर शब्दालङ्कार के प्रभेद मानते हैं, सो भूल है; क्योंकि शब्द में रह कर काव्य को शोभा करे वह शब्दालङ्कार है । सो उक्त काव्यों की लेख क्रिया काव्य को कुछ भी शोभा नहीं करती। यह तो अष्टावधानादि साधनवत् कवि की क्रिया-चातुरी मात्र है। ऐसे ही एकाक्षर काव्य को जानना चाहिए।"3
१. तुलनीय-भरत ना० शा० १६,५६ तथा दण्डी, काव्याद०, ३, १ २. नानाधात्वर्थगम्भीरा यमकव्यपदेशिनी। प्रहेलिका साह्य दिता रामशर्माच्युतोत्तरे ।।
-भामह, काव्यालं० २, १६ ३. द्रष्टव्य-मुरारिदान, जसवन्त-भूषण, प्रस्तावना, पृ० ७६
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ६१ मुरारिदान ने शब्द के अलङ्कार तथा चित्र-काव्य में जो भेदक तत्त्व स्वीकार किया है. वह सर्वमान्य नहीं हो सकता । उनकी मान्यता है कि शब्दालङ्कार शब्द में रह कर काव्य में सौन्दर्य का आधान करता है। वे सम्भवतः चित्रालङ्कार में शब्दनिष्ठ काव्य शोभाकर धर्म नहीं मानते । किन्तु विचार करने से यह सिद्ध है कि चित्रबन्धों में भी शब्द-प्रयोग का चमत्कार ही प्रधान है। विशेष बन्ध में वर्णों की विशेष प्रकार से आवृत्ति अपेक्षित होती है। अतः, मेरी मान्यता है कि चित्रबन्ध शब्दगत यमक अलङ्कार से तत्त्वतः भिन्न नहीं है। यह बात अवश्य है कि किसी चित्र-बन्ध में वर्गों का विन्यास करने में कवि को अधिक बौद्धिक व्यायाम करना पड़ता है, जिसके फलस्वरूप उसमें वह सौन्दर्य नहीं रह जाता, जो यमक या अनुप्रास के सरल भेदों के शब्द-प्रयोग में रहता है। यमक के ये सरल रूप, भावानुरूप वर्ण-रचना के होने पर, रस के भी सहायक सिद्ध होते हैं; किन्तु चित्रों के नियमों से आबद्ध वर्गों के सायास विचित्र गुम्फन से रस-बोध बाधित हो जाता है, उस कौशल से बुद्धि भले चमत्कृत हो जाय । इसीलिए रस-ध्वनि के काव्य की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित हो जाने पर चित्र को अधम-काव्य माना गया; किन्तु शब्दावृत्ति-रूप यमक एवं वर्णावृत्तिरूप अनुप्रास को काव्य-शोभा के अतिशय कारक के रूप में सम्मान मिलता रहा। प्रहेलिका के सम्बन्ध में यह कथन कि 'प्रहेलिका रस-विरोधी होने के कारण अलङ्कार नहीं है ' प्रसिद्ध ही है-'रसस्य परिपन्थित्वात् नालङ्कारः प्रहेलिका'। निष्कर्ष यह है कि चित्रबन्ध मूलतः यमक के ही भेद हैं; किन्तु उससे अधिक दुरूह एवं नीरस बन गये हैं। ___आचार्य दण्डी ने यमक के असंख्य भेद स्वीकार किये हैं और यह कहा है कि विस्तार के भय से उनमें से कुछ दुष्कर यमक-प्रकार का ही विवेचन किया जाता है। किन्तु, उन प्रमुख भेदों का वर्णन ही इतना विस्तृत है कि उसकी साङ्गोपाङ्ग मीमांसा प्रस्तुत प्रबन्ध का लेखक अनावश्यक मानता है। इन सभी भेदों में स्वर-व्यञ्जन-संघात की आवृत्ति की विभिन्न प्रक्रिया का अध्ययन किया गया है। यहाँ उन भेदों का संक्षिप्त परिचय ही पर्याप्त होगा। वर्णसंहति के अभ्यास का व्यवहित, अव्यवहित तथा व्यवहिताव्यवहित होने की दृष्टि से यमक के मुख्य तीन भेद माने गये हैं। पुनः स्थान की दृष्टि से पाद के आदिगत, मध्यमत तथा अन्तगत—ये तीन भेद किये गये हैं। इन तीन भेदों के एक पादगत, द्विपादगत, त्रिपादगत तथा चतुष्पादगत भेद से निम्नलिखित बारह प्रकार हो जाते हैं :-(१) एकपाद के आदिगत,
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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण (२) एक पाद के मध्यगत, (३) एकाद के अन्तगत, (४) दो पादों के आदिगत, (५) दो पदों के मध्यगत, (६) दोनादों के अन्तंगत, (७) तीन पादों के आदिगत, (८) तीनपादों के मध्यगत, (६) तीन पादों के अन्तगत, (१०) चार पदों के आदिगत, (११) चार पदों के मध्यगत तथा (१२) चार पादों के अन्तगत । ये बारह प्रकार अमिश्र यमक के हैं। मिश्र यमक के ग्यारह प्रकार माने जा सकते हैं। वर्णसमुदाय के अभ्यास में स्थानों के मिश्रण की दृष्टि से मुख्य पाँच भेद माने गये हैं :-(क) आदि मध्यान्त, (ख) मध्यान्त, (ग) मध्यादि, (घ) आद्यन्त तथा (ङ) सब । इनमें से आदिमध्यान्त का प्रथम तथा द्वितीय पाद में, प्रथम तथा तृतीय में एवं प्रथम तथा चतुर्थ में मिश्र आवृत्ति की दृष्टि से तीन भेद; मध्यान्त के-द्वितीय-तृतीय, द्वितीय-चतुर्थ तथा तृतीय-चतुर्थ पादगत भेद से तीन प्रकार; मध्यादि का-प्रथम-द्वितीय-तृतीययह एक प्रकार; आद्यन्त का-प्रथम-द्वितीय-चतुर्थ, प्रथम-तृतीय-चतुर्थं तथा द्वितीय-तृतीय चतुर्थ, ये तीन प्रकार तथा सब का-प्रथम-द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ, यह एक ही भेद है। इस प्रकार सब मिल कर मिश्र यमक के उक्त ग्यारह प्रकार हो जाते हैं। यह यमक के कुछ प्रमुख भेदों का दिग्दर्शन-मात्र है। दण्डी ने यह स्वीकार किया है कि पादादि, पादमध्य तथा पादान्त यमक के व्यपेत, अव्यपेत तथा व्यपेताव्यपेत प्रकार की दृष्टि से तथा उनके ‘मिश्र एवं अमिश्र रूपों की दृष्टि से यमक के बहुल भेदों की कल्पना की जा सकती है।
. इस विवेचन के उपरान्त 'काव्यादर्श' में सन्दष्ट एवं समुद्ग यमकों के लक्षण'उदाहरण दिये गये है। इनके लक्षण 'नाट्यशास्त्र' में भी दिये गये हैं। भामह
ने भी यमक के इन भेदों का उल्लेख किया है । दण्डी की एतद्विषयक धारणा "पूर्वाचार्यों की धारणा के समान ही है। ___दण्डी ने यमक के एक श्लोकाभ्यास-भेद की कल्पना की है। इसमें सम्पूर्ण पद की अर्थभेद से आवृत्ति हो जाती है। दोनों श्लोकों में स्वर-
व्यञ्जन सङ्कात का क्रम समान ही रहता है। अन्वय के लिए पदों का विच्छेद अलगअलग ढङ्ग से कर लिया जाता है ।
१. द्रष्टव्य–दण्डी, काव्याद० ३, १-३८ १. अत्यन्तबहवस्तेषां भेदाः सम्भेदयोनयः ।-दण्डी, काव्यद०, ३, ३
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अलङ्कार-धारणा का विकास
दण्डी का महायमक भरत के चतुर्व्यवसित यमक से अभिन्न है, जिसमें चारों पादों का स्वरूप समान रहता है ; अर्थात् एक ही पाद की चार बार आवृत्ति से एक द्विपंक्तिबद्ध छन्द बन जाता है।
___ 'काव्यादर्श' का प्रतिलोम यमक दण्डी की मौलिक उद्भावना है। इसमें एक पाद में विन्यस्त वर्णों को ठीक उलटे क्रम से दूसरे पाद में सजाया जाता है।
स्पष्ट है कि दण्डी की यमक-सम्बन्धी धारणा भरत तथा भामह की तद्विषयक धारणा से मूलतः अभिन्न है ; फिर भी उसके नवीन भेदोपभेदों की उद्भावना की दृष्टि से दण्डी का महत्त्व असन्दिग्ध है । स्वभावोक्ति
दण्डी के स्वभावोक्ति अलङ्कार का स्वरूप भामह के काव्यालङ्कार में 'निरूपित स्वभावोक्ति के स्वरूप से अभिन्न है। भामह की तरह दण्डी भी किसी वस्तु की विभिन्न अवस्याओं-अवयव संस्थान, आकृति आदि-के स्फुट वर्णन में स्वभावोक्ति अलङ्कार मानते हैं । इसका दूसरा व्यपदेश जाति भी है। प्रस्तुत अलङ्कार के स्वरूप-निर्धारण में भामह से सहमत होने पर भी दण्डी ने काव्य. में इसके स्थान-निर्धारण में सर्वया मौलिक विचार व्यक्त किये हैं। उन्होंने इसे 'आद्या अलङ कृति' अर्थात् मुख्य अलङ्कार कहा है।' वस्तुतः काव्य में वस्तुस्वभाव-वर्णन की स्फुटता का बहुत अधिक महत्त्व है। भामह ने सम्भवतः वक्रोक्ति के अभाव के कारण ही इसका अवमूल्यन करते हुए यह कह दिया था कि कुछ लोग स्वभावोक्ति को भी अलङ्कार मानते हैं। वक्रोक्तिवादी कुन्तक ने स्वभावोक्ति के अलङ्कारत्व का खण्डन कर उसका अलङ्कार्यत्व ही स्वीकार किया है। उसके अलङ्कारत्व या अलङ्कार्यत्व के सम्बन्ध में हम उपयुक्त प्रसङ्ग में विस्तार से विचार करेंगे। हमारी मान्यता है कि अलङ्कार या अलङ्कार्य किसी भी रूप में स्वभावोक्ति के महत्त्व की उपेक्षा काव्य में नहीं की जा सकती।
१. नानावस्थं पदार्थानां रूपं साक्षाद् विवृण्वती। स्वभावोक्तिश्च जातिश्चेत्याद्या साल कृतिर्यथा ॥
-वही, २, ८, तुलनीय-भामह, काव्यालं० २, ६३ २. अलङ्कारकृतां येषां स्वभावोक्तिरलङ कृतिः। अलङ्कार्यतया तेषां किमन्यदवतिष्ठते ॥
-कुन्तक, वक्रोक्तिजी० १, ११
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६४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उपमा __'काव्यादर्श' में उपमा का जो सामान्य लक्षण दिया गया है, वह भरत और भामह के उपमा-लक्षण से मिलता-जुलता है। दण्डी के अनुसार काव्य में जहाँ उपमान और उपमेय में गुण, क्रिया आदि धर्म के द्वारा स्फुट साधर्म्य का बोध होता है वहाँ उपमा अलङ्कार होता है । ' दोनों में साम्य की प्रतीति ही उपमा है। इस प्रकार पूर्वाचार्यों की तरह दण्डो भी काव्यगत चमत्कारपूर्ण सादृश्य में उपमा अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार करते हैं। उन्होंने उपमा के निम्नलिखित भेदों का सोदाहरण उल्लेख किया है :धर्मोपमा, वस्तूपमा, विपर्यासोपमा, अन्योन्योपमा, नियमोपमा, अनियमोपमा,, समुच्चयोपमा, अतिशयोपमा, उत्प्रेक्षितोपमा, अद्भुतोपमा, मोहोपमा, संशयोपमा, निर्णयोपमा, श्लेषोपमा, समानोपमा, निन्दोपमा, प्रशंसोपमा, आचिख्यासोपमा, विरोधोपमा, प्रतिषेधोपमा, चटूपमा, तत्त्वाख्यानोपमा, असाधारणोपमा, अभूतोपमा, असम्भावितोपमा, बहूपमा, विक्रियोपमा, मालोपमा, वाक्यार्थोपमा ( एकेव शब्द-निबन्धना तथा अनेकेव शब्द-निबन्धना; दो प्रकार ), प्रतिवस्तूपमा, तुल्ययोगोपमा तथा हेतूपमा । ___ इनमें से निन्दोपमा तथा प्रशंसोपमा भरत के एतत्संज्ञक उपमा-भेदों से अभिन्न हैं। अद्भुतोपमा, अभूतोपमा, असम्भावितोपमा तथा विक्रियोपमा की कल्पना का आधार भरत की उपमा का कल्पिता भेद है, जिसमें उपमान कल्पित या असिद्ध होता है। दण्डी के उक्त चार उपमा-प्रकारों में उपमान कल्पित ही हुआ करते हैं। उदाहरणार्थ-दण्डी के अनुसार इस कथन में"ऐ सुन्दरी ! यदि कमल आपूर्णित नेत्र से युक्त हो जाय तो वह तुम्हारी मुख-छवि की समता कर सकता है"-अद्भुतोपमा अलङ्कार होगा। यह कथन- "तुम्हारा मुख संसार के सभी कमलों के एकत्रीभूत प्रभा-सार के समान सुशोभित है"-उनके अनुसार अभूतोपमा का उदाहरण है । निम्नलिखित उक्ति में—''इस मुख से कठोर वाणी, विधुमण्डल से विष तथा चन्दन से आग निकलने के समान है"-दण्डी असम्भव कथन के कारण असम्भावितोपमा मानते हैं । “ऐ तन्वङ्गी ! तुम्हारा मुख चन्द्रमण्डल से उत्कीर्ण तथा कमल-मध्य
१. यथाकथञ्चित् सादृश्यं यत्रोद्भूतं प्रतीयते ।
उपमा नाम सा ... ... ..." -दण्डी, काव्याद० २,१४ २. द्रष्टव्य-वही, २, १५-५०
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ६५
से उद्धृत के समान है", इस कथन को दण्डी विक्रियोपमा का उदाहरण मानते हैं । उक्त उदाहरणों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि उनमें उपमान असिद्ध या एकान्त - कल्पित हैं । उपमानभूत कमल में आघूर्णित नयन की कल्पना, कमल की प्रभा के सार - समुच्चय से मुख का निर्मित होना, विधुमण्डल से विष तथा चन्दन से अग्नि का निःसृत होना, मुख का चन्द्रमण्डल से उत्कीर्ण तथा पद्मगर्भ से उद्धृत होना; ये सब असिद्ध कथन हैं । इस प्रकार उपरि-विवेचित चार अलङ्कार भरत की कल्पितोपमा-धारणा के आधार पर कल्पित हैं । अद्भुतोपमा से मिलती-जुलती धारणा भामह ने अतिशयोक्ति के एक उदाहरण में व्यक्त की है । १
भामह के 'कव्यालङ्कार' में निर्दिष्ट आचिख्यासोपमा तथा मालोपमा नामक उपमा-भेदों का भी उल्लेख दण्डी के उपमा - प्रकारों में है । उनके स्वरूप के सम्बन्ध में दण्डी की धारणा भामह की धारणा से अभिन्न है ।
यह कहा जा चुका है कि दण्डी ने भामह के प्रतिवस्तूपमा अलङ्कार का भी उल्लेख उपमा-भेद के रूप में किया है । उनके स्वतन्त्र अलङ्कार अनन्वय तथा ससन्देह को दण्डी ने उपमा के ही भेदों में अन्तर्भुक्त मान लिया है | उक्त उपमाभेदों के अतिरिक्त जो नवीन भेद 'काव्यादर्श' में परिगणित हैं, उनके उद्भव का परीक्षण प्रसङ्गानुकूल यहाँ अपेक्षित है ।
धर्मोपमा तथा वस्तूपमाः– उपमा के चार अङ्ग हैं—उपमेय, उपमान, साधारण धर्मं तथा वाचक शब्द । साधारण धर्म कहीं उक्त हो सकता है कहीं अनुक्त । अनुक्त होने पर धर्म प्रतीयमान होता है । इसमें धर्मी वाच्य होता है, धर्म प्रतीयमान । इस प्रकार धर्म के वाच्य होने पर धर्मोपमा तथा उसके अनुपात्त या प्रतीयमान होने पर वस्तूपमा, ये दो उपमा-भेद हो जाते हैं । 3 भरत के किञ्चित् सदृशी उपमा-भेद में वस्तूपमा धारणा का बीज निहित था । किञ्चित् सदृशी उपमा के उदाहरण के व्याख्यान के क्रम में अभिनव गुप्त ने यह मान्यता व्यक्त की है कि इसमें सादृश्य का बोधक पद स्फुटतया उक्त नहीं होता, १. अपां यदि त्वक् शिथिला च्युता स्यात् फणिनामिव । तदा शुक्लांशुकानि स्युरङ्ग ेष्वम्भसि
योषिताम् ॥
— भामह, काव्यालं० २, ८३ २. अनन्वय - ससन्देहावुपमा स्वेव दर्शितो । —दण्डी, काव्याद० २, ३५८ ३. ...इति धर्मोपमा साक्षात् तुल्यधर्मप्रदर्शनात् । तथा
..... इयं प्रतीयमानैकधर्मा वस्तूपमैव सा ।।१ही २, १५-१६
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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
समस्त पद से ही सादृश्य की प्रतीति हो जाती है। इस प्रकार वाचकलुप्ता, धर्मलुप्ता आदि उपमा का समावेश भरत के उक्त उपमा-भेद में ही था, जिसके आधार पर नाम-भेद से दण्डी ने वस्तूपमा की कल्पना कर ली। धर्मोपमा की धारणा तो भरत तथा भामह के सामान्य उपमा-लक्षण में ही व्यक्त थी।
विपर्यासोपमाः–'काव्यादर्श' में उल्लिखित विपर्यासोपमा उपमा का एक नवीन भेद है। इसमें प्रसिद्ध उपमान तथा उपमेय में विपर्यय की कल्पना कर ली जाती है । मुख, नेत्र आदि प्रसिद्ध उपमेय उपमान के रूप में कल्पित हो जाते हैं तथा उनके प्रसिद्ध उपमान चन्द्रमा, नीलकमल आदि उपमेय मान लिये जाते हैं । इस प्रसिद्धि के विपर्यय का आधार कवि-कल्पना है। वामन ने इसे ही कल्पितोपमा कहा है । अतः यह माना जा सकता है कि भरत की कल्पितोपमा में ही इस उपमा-भेद की कल्पना की सम्भावना निहित थी। ____ अन्योन्योपमाः-दण्डी की अन्योन्योपमा भामह की उपमेयोपमा से अभिन्न है। भामह ने उपमेयोपमा को स्वतन्त्र अलङ्कार माना था; किन्तु दण्डी ने उसे नाम-भेद से उपमा अलङ्कार का ही भेद स्वीकार किया है। वस्तुतः इसे पृथक् अलङ्कार मानने की आवश्यकता नहीं थी। यह उपमा से तत्त्वतः अभिन्न है।
नियमोपमाः-एक उपमेय के अनेक उपमानों की सत्ता होने पर कुछ के उपमानत्व का निषेध कर किसी विशेष वस्तु के उपमानत्व का नियमन ही नियमोपमा है। बहुत उपमानों के सद्भाव से उपमेय का उत्कर्ष कम हो जाता है। जिसके समान बहुत हों उसका क्या वैशिष्ट्य ? अतः उनमें से कुछ के उपमानत्व का निषेध करने से उपमेय का उत्कर्ष-साधन होता है । यह दण्डी की मौलिक कल्पना है।
अनियमोपमा:-यह नियमोपमा का विपरीत-धर्मा है। इसमें उपमेय के लिए विशेष उपमान के नियम का अभाव स्वीकार किया गया है। इसकी कल्पना नियमोपमा की अभावात्मक सत्ता के साथ भरत के 'एकस्यानेकेन' उपमा-भेद के योग के आधार पर हुई है। ‘एकस्यानेकेन' उपमा में भरत ने एक उपमेय का अनेक उपमानों के साथ साधर्म्य-निरूपण वाञ्छनीय माना है।
१. यत्र सादृश्यगमकं स्फुटं पदं नास्ति न च सर्वात्मना रूपक इव वस्तु. द्वयमीलनं तेन समासव्यङ ग्या किञ्चित्सदृशीत्युक्ता।
-अभिनव, ना० शा० अ० भा० पृ० ३२४ २. द्रष्टव्य-कामन, काव्यालं० सू० पृ० १८८ .
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[६७ दण्डी के प्रस्तुत उपमाभेद में भी उपमान का अनियम होने से एक उपमेय के अनेक उपमान हुआ करते हैं।
समुच्चयोपमा:-यह दण्डी के द्वारा कल्पित उपमा का नवीन भेद है । इसमें उपमेय की उपमान के साथ अनेक धर्मों से समता दिखायी जाती है।' इसके तीन भेद हो सकते हैं—क्रिया-समुच्चय से प्रतिपादित साम्य के आधार पर क्रियागत समुच्चयोपमा, गुण-समुच्चय के आधार पर गुण-समुच्चयोपमा तथा गुण-क्रिया-समुच्चय से साम्य-प्रतिपादन में गुण-क्रिया-समुच्चयोपमा । भरत ने प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत की संख्या के आधार पर उपमा के चार भेद स्वीकार किये थे; किन्तु उन्होंने एक प्रस्तुत के एक ही अप्रस्तुत के साथ अनेक धर्मों के द्वारा सम्बन्ध-निरूपण पर पृथक् विचार नहीं किया था । सम्भव है कि दण्डी ने प्रस्तुत-अप्रस्तुत की संख्या के आधार पर निरूपित भरत के उपमा-भेदों से ही प्रेरणा पाकर उपमेय तथा उपमान के बीच अनेक गुणों, अनेक क्रियाओं एवं अनेक गुणक्रियाओं का साम्य प्रतिपादित करनेवाले समुच्चयोपमा नामक उपमा-भेद की कल्पना कर ली हो। __ अतिशयोपमाः-अतिशय चमत्कारी उपमा की कल्पना को अतिशयोपमा कहा गया है। मुख और चन्द्रमा में केवल आश्रय का भेद है; गुण, क्रिया आदि का कोई भेद नहीं। इस विवक्षा में यह कथन "तुम्हारा मुख तुम में ही दिखाई पड़ता है, चन्द्रमा आकाश में दीखता है, यही दोनों का भेद है, अन्य नहीं,"२ अतिशयोपमा का उदाहरण माना गया है। उपमा अलङ्कार के साथ भरत के अतिशय लक्षण के योग से प्रस्तुत उपमा-भेद की उत्पत्ति हुई है।
उत्प्रेक्षितोपमा:-उत्प्रेक्षा तथा उपमा के तत्त्वों को मिलाकर इस नवीन उपमा-भेद की कल्पना की गई है। उपमान में वस्तुतः नहीं रहनेवाले धर्म की सम्भावना कर अर्थात् उस धर्म का अतात्त्विक रूप से आरोप कर जहाँ उपमा दी जाती है वहाँ दण्डी उत्प्रेक्षितोपमा नामक उपमा-भेद मानते हैं। भामह ने इस उपमा-भेद की पृथक् काना नहीं की थी। उनकी उत्प्रेक्षा-धारणा तथा उपमा-धारणा में ही इस उपमा-भेद का बीज निहित था। दण्डी के परवर्ती आचार्यों ने इसे सम्बन्धातिशयोक्ति नामक अतिशयोक्ति-भेद माना है।
१. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्याद० २, २१ .. २. त्वय्येव त्वन्मुखं दृष्टं दृश्यते दिवि चन्द्रमा ।
___इयत्येव भिदा नान्येत्यसावतिशयोपमा ।—वही, २, २२ ३. तुलनीय-दण्डी, काव्याद० २, २३ तथा अप्पय दी०, कुवलया० ३९
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६८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण : मोहोपमाः-भ्रमात्मक ज्ञान पर अवलम्बित उपमा को मोहोपमा कहा गया है। किसी वस्तु में उससे भिन्न वस्तु का ज्ञान मोह कहा जाता है। अतः मोह भ्रान्त ज्ञान है । अत्यन्त सादृश्य के कारण उपमेय में उससे भिन्न उपमान का भ्रम इसके उदाहरण में दिखाया गया है। भ्रमात्मक ज्ञान की धारणा नवीन नहीं है । उपनिषदों एवं दर्शन-ग्रन्थों में ज्ञान-मीमांसा के क्रम में मनीषियों ने तत्त्व-ज्ञान के साथ संशयात्मक एवं भ्रमात्मक ज्ञान पर भी विचार किया है। काव्यात्मक सौन्दर्य की सृष्टि करने वाले संशय को दण्डी के पूर्व भामह ने ही स्वतन्त्र काव्यालङ्कार होने का गौरव प्रदान कर दिया था; किन्तु भ्रम को वह गौरव दण्डी के 'काव्यादर्श' तक भी प्राप्त नहीं हो सका। उन्होंने प्रस्तुत उपमा-भेद में काव्यालङ्कार में भ्रमात्मक ज्ञान की सत्ता अवश्य स्वीकार की है। भरत के मिथ्याध्यवसाय लक्षण के प्राप्त एक पाठ में सन्देह से विचार के अन्यथाभाव-कल्पन पर बल दिया गया है।' अभिनव ने उसकी टीका में सन्देह से भ्रम का अभिप्राय स्वीकार किया है ।२ स्पष्ट है कि भ्रम-मूलक ज्ञान पर अवलम्बित अलङ्कार-धारणा का मूल 'नाट्यशास्त्र' की उक्त लक्षणधारणा में ही था। उससे उपमा-धारणा को मिला कर उपमा-भेद मोहोपमा की कल्पना कर ली गई। परवर्ती आचार्यों ने इसे भ्रान्तिमान व्यपदेश से पृथक अलङ्कार स्वीकार किया है।
निर्णयोपमाः-इस उपमा-भेद में सादृश्य के कारण प्रस्तुत वस्तु में अप्रस्तुत वस्तु के द्वै कोटिक संशयात्मक ज्ञान के होने पर निष्कर्ष-रूप में सत्य का निर्णयात्मक आख्यान होता है। इसका मूल संशयात्मक ज्ञान है जिसमें अन्ततः तथ्य का निश्चय हो जाता है। परवर्ती आचार्यों ने इसे सन्देह का ही निश्चयान्त भेद मान लिया है। इसकी स्वरूप-संघटना भामह की ससन्देह अलङ्कार-धारणा तथा भरत की आख्यान-लक्षण-धारणा के मिश्रण से हुई है।निर्णय का तत्त्व आख्यान-लक्षण से तथा सन्देह का तत्त्व ससन्देह से गृहीत है।
१. द्रष्टव्य-भरत, ना० शा० १६, १६ २. 'सन्देहोऽत्र भ्रमः, अथवा अन्यथाभावो विपर्ययः ।'
-अभिनव, ना० शा० अ० भा० पृ० ३०० ३. आख्यान लक्षण में तत्व-निर्णय पर बल दिया गया है,
- द्रष्टव्य-भरत, ना० शा० १६, २१
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[६९
श्लेषोपमाः–भामह के श्लिष्ट अलङ्कार के आधार पर प्रस्तुत उपमा-भेद की कल्पना की गई है। इसमें उपमेय तथा उपमान का युगपत् अभिधान होता है। भामह ने भी श्लिष्ट में ठीक ऐसी ही धारणा व्यक्त की है।
समानोपमाः—प्रस्तुत उपमा-भेद का आधार शब्दगत समता है। समान शब्द से अभिहित होने मात्र से प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत में सादृश्य मान लिया गया है। इसके स्वरूप-निर्धारण में विषय एवं विषयी के बीच धर्म-साम्य पर किञ्चित् मात्र भी ध्यान नहीं रखा गया है। दण्डी के द्वारा प्रदत्त उदाहरण द्रष्टव्य है-"यह साल-वृक्ष के वन से सुशोभित उद्यानमाला केशों से युक्त मुख वाली सुन्दर युवती के समान सुशोभित है।''२ अर्थ पर ध्यान देने से यह उपमा हास्यास्पद जान पड़ती है। कहाँ विशाल साल वृक्षों से युक्त सघन उद्यान और कहाँ एक सुन्दरी बाला ! दोनों में कुछ भी धर्म-साम्य नहीं। दोनों में उपमानोपमेय भाव की कल्पना का एकमात्र आधार है दोनों के लिए समान विशेषण का प्रयोग । उद्यानमाला ‘सालकाननशोभिनी' (साल के कानन से सुशोभित) है तथा बाला भी 'सालकाननशोभिनी' (स+अलक+आनन+शोभिनी अर्थात् अलक युक्त आनन से सुशोभित) है। दण्डी के पूर्ववर्ती आचार्यों ने इस प्रकार की उपमा की कल्पना नहीं की थी। वस्तुतः इसे उपमा का भेद मानना युक्तिसङ्गत भी नहीं है । उपमा में दो वस्तुओं में धर्म का साम्य अवश्य होना चाहिए । अन्यथा उपमा से प्रस्तुत की प्रभाव-वृद्धि नहीं हो सकती और इस प्रकार उस अलङ्कार का उद्देश्य ही विफल हो जाता है। दण्डी ने ऐसे धर्म-निरपेक्ष केवल शब्दगत सारूप्य में भी उपमा की सत्ता मानने के कारण ही उपमा के सामान्य लक्षण में 'यथाकथञ्चित् सादृश्य-प्रतीति' में उपमा का सद्भाव स्वीकार किया है। काव्य में केवल शब्द-चमत्कार को श्रेयस्कर नहीं मानकर उसमें भाव की प्रधानता स्वीकार करने वाला आलोचक समानोपमा को अर्थालङ्कार नहीं मानेगा। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की यह उचित मान्यता है कि "यह दूसरे प्रकार की (आलङ्कारिक) रूप-योजना या व्यापार-योजना किसी और (प्रस्तुत) रूप के प्रभाव को बढ़ाने के लिए ही होती है; अतः इसमें लाये हुए रूप या व्यापार ऐसे ही होने चाहिएँ जो प्रभाव में उन प्रस्तुत रूपों या व्यापार के
१. तुलनीय-भामह, काव्यालं० ३, १४ तथा दण्डी, काव्याद० २, २८ २. 'बालेवोद्यानमालेयं सालकाननशोभिनी।'-दण्डी, काव्याद०, २, २६
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७० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
समान हो।"' इस दृष्टि से विचार करने पर समानोपमा में प्रस्तुत के प्रभाव की अभिवृद्धि की क्षमता नहीं होने के कारण उसका उपमा-प्रकार में परिगणन स्वीकार्य नहीं। इसीलिए परवर्ती आचार्यों ने इसकी सत्ता अस्वीकार कर दी है। उक्त उदाहरण में श्लेष अलङ्कार मानना ही उचित जान पड़ता है।
विरोधोपमाः- विरोधोपमा में विरोध का पर्यवसान सादृश्य में हो जाता है। दण्डी ने विरोध नामक पृथक अलङ्कार भी स्वीकार किया है, जिसमें आपाततः वणित विरोध अविरोध में पर्यवसित हो जाता है। विरोधोपमा में विरोध अलङ्कार का भी तत्त्व है और उपमा का भी। विरोध का उल्लेख भामह ने भी किया है। स्पष्ट है कि पूर्ववर्ती आचार्य भामह की विरोधालङ्कारधारणा से उपमा-धारणा को मिला कर दण्डी ने उपमा के इस नवीन भेद का सृजन कर लिया।
प्रतिषेधोपमाः-वैशिष्ट्य-प्रतिपादन के लिए उपमेय से उपमान के सादृश्य का निषेध प्रतिषेधोपमा में वाञ्छनीय माना गया है। इसकी कल्पना भामह के व्यतिरेक के आधार पर की गयी है। उपमान के सादृश्य-प्रतिषेध का उद्देश्य उससे उपमेय का उत्कर्ष-प्रतिपादन है। भामह ने उपमान से उपमेय के प्रकर्षसाधन में व्यतिरेक अलङ्कार स्वीकार किया था। दण्डी की प्रतिषेधोपमाधारणा उससे मिलती-जुलती है। इसलिए परवर्ती आचार्यों ने इसे उपमा-भेद नहीं मान कर व्यतिरेक में ही समाविष्ट कर लिया।
चटपमाः–उपमेय के लिए प्रिय वचन के प्रयोग के कारण इसे चटूपमा कहा गया है। इसके मूल में विशेषोक्ति अलङ्कार रहता है। उपमेय से उपमान में उत्कर्ष-हेतु के होने पर भी उत्कर्ष का प्रतिपादन इसमें नहीं होता। इससे स्पष्ट है कि भामह के प्रय तथा विशेषोक्ति अलङ्कारों से तत्त्व-ग्रहण कर प्रस्तुत उपमा-भेद का स्वरूप-विन्यास हुआ है।
तत्त्वाख्यानोपमा.-तत्त्वाख्यानोपमा का स्वभाव निर्णयोपमा के समान है। अन्तर इतना है कि निर्णयोपमा में संशयात्मक ज्ञान की स्थिति में तत्त्व
१. रा० च० शुक्ल, त्रिवेणी, पृ० ६३ २. उपमानवतोऽर्थस्य यद्विशेषनिदर्शनम् । व्यतिरेकं तमिच्छन्ति विशेषापादनाद्यथा ॥
-भामह, काव्यालं० २, ७५ ३. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्याद० २, ३५, भामह, काव्यालं० ३ ५ तथा . ३, २३ से तुलना करें।
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अलङ्कार-धारणा का विकास
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का आख्यान होता है; पर तत्त्वाख्यानोपमा में भ्रमात्मक ज्ञान की स्थिति में भ्रम-निवारणार्थ तथ्य का आख्यान होता है। प्रस्तुत उपमा-प्रकार के स्वरूपनिर्धारण के लिए भरत के मिथ्याध्यवसाय लक्षण से भ्रम का तत्त्व तथा आख्यान लक्षण से तथ्य-कथन का तत्त्व लिया गया है।
बहुपमाः-इसमें एक उपमेय के लिए बहुत-से उपमानों का कथन होने के कारण इसे बहूपमा कहा गया है। भरत के उपमान-संख्या पर आधृत उपमाभेद 'एकस्यानेकेन' से यह अभिन्न है। मालोपमा में भी एक प्रस्तुत के अनेक अप्रस्तुत वर्णित होते हैं; किन्तु दण्डी ने इन दोनों में किञ्चित् भेद माना है। माला में गुम्फित पुष्प, जैसे एक-दूसरे से सम्बद्ध रहते हैं, उसी प्रकार मालोपमा में एक उपमान अपर उपमान से सम्बद्ध रह कर चमत्कार उत्पन्न करता है। बहूपमा में एक उपमेय के अनेक उपमान परस्पर निरपेक्ष भाव से रहते हैं। इन दोनों का भेदक तत्त्व धीरे-धीरे लुप्त हो गया और परवर्ती आचार्यों ने उक्त दोनों स्थितियों में मालोपमा ही स्वीकार कर ली। बहूपमा अपनी पृथक् सत्ता खोकर मालोपमा में ही विलीन हो गयी।
वाक्यार्थोपमाः-इसमें सम्पूर्ण वाक्य के अर्थ का अन्य वाक्य के अर्थ के साथ सादृश्य दिखाया जाता है। इसकी कल्पना भरत के उदाहरण लक्षण तथा उपमा अलङ्कार के प्रमुख तत्त्वों के योग पर अवलम्बित है । उदाहरण लक्षण के प्राप्त पाठान्तर में तुल्य अर्थ वाले वाक्य के प्रदर्शन से उद्देश्य की सिद्धि पर बल दिया गया है। तुल्यार्थ-युक्त वाक्य की कल्पना वाक्यार्थोपमा में भी है। उदाहरण लक्षण में उपमानोपमेय की धारणा के मिश्रण से प्रस्तुत उपमा-भेद का आविर्भाव हुआ है।
तुल्ययोगोपमाः-समान जातीय क्रिया से प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत का साम्य-वर्णन तुल्ययोगोपमा है । दण्डी के अनुसार इसमें न्यून गुण वाली वस्तु को अधिक गुण वाली वस्तु के सदृश बना कर एक-जातीय क्रिया से इसका वर्णन किया जाता है ।२ यह धारणा भामह की तुल्ययोगिता-धारणा से अभिन्न है। १. यत्र तुल्यार्थयुक्त न वाक्येनाभिप्रदर्शनात् । साध्यन्ते निपुणैरस्तिदुदाहरणं स्मृतम् ।।
-अभिनव, ना० शा० अ० भा०, पृ० ३०४ २. अधिकेन समीकृत्य हीनमेकक्रियाविधौ । यत् ब्रवन्ति स्मृता सेयं तुल्ययोगोपमा यथा ॥
-दण्डी, काव्याद० २,४८
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७२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
भामह की तुल्ययोगिता को उक्त संज्ञा से उपमा-भेद मान कर दण्डी ने तुल्ययोगिता का स्वरूप किञ्चित् भिन्न रूप से निर्धारित किया है।
हेतूपमाः-इसमें एक उपमेय के अनेक उपमान उल्लिखित होते हैं और उनके साथ उपमेय के सादृश्य का हेतु वणित होता है। भरत ने हेतु नामक लक्षण का उल्लेख किया है। उसके साथ एक उपमेय के लिए अनेक उपमान वाली उनकी धारणा को मिला कर हेतूपमा की कल्पना कर ली गयी है।
निष्कर्ष यह है कि दण्डी ने उपमा के जितने भेदोपभेद स्वीकार किये हैं वे सभी परम्परा से विच्छिन्न, नितान्त मौलिक सृष्टि नहीं हैं। पूर्ववर्ती आचार्यों के तत्तदलङ्कारों की धारणा तथा भरत की कुछ लक्षण-धारणा के आधार पर उनमें से अधिकांश के स्वरूप की रचना की गयी है। उद्गम-स्रोत की दृष्टि से दण्डी के उपमा-प्रकारों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है :
(क) नाट्यशास्त्र से गृहीत उपमा-भेद:-प्रशंसोपमा तथा निन्दोपमा नामक उपमा-भेद इस वर्ग में आते हैं, जो इन्हीं नामों से स्वीकृत हैं । भरत की सदृशी उपमा नाम-भेद से गृहीत है। दण्डी ने उसे असाधारणोपमा कहा है।
(ख) भरत के उपमा-भेद के आधार पर किञ्चित् भेद के साथ कल्पित उपमा-भेद:-इस वर्ग के अद्भुतोपमा, अभूतोपमा, असम्भावितोपमा, विक्रियोपमा, उत्प्रेक्षितोपमा आदि उपमा-भेद भरत की कल्पितोपमा के आधार पर तथा मालोपमा, बहूपमा आदि उपमान-संख्या की दृष्टि से किये गये 'एकस्यानेकेन' भेद के आधार पर कल्पित हैं ।
(ग) भामह के स्वतन्त्र अलङ्कार उपमा-भेद में अन्तभुक्तः–भामह के ससन्देह, उपमेयोपमा, श्लेष, तुल्ययोगिता आदि स्वतन्त्र अलङ्कारों को क्रमशः संशयोपमा, अन्योन्योपमा, श्लेषोपमा, तुल्ययोगोपमा आदि संज्ञा से उपमा-भेद में ही परिगणित कर लिया गया है।
(घ) भामह के काव्यालङ्कार में निर्दिष्ट उपमा-भेद स्वीकृतः–मालोपमा, आचिख्यासोपमा आदि उपमा-भेदों का नामोल्लेख भामह ने भी किया था । वे उपमा-भेद 'काव्यादर्श' में सोदाहरण प्रतिपादित हैं।
१. द्रष्टव्य-भरत, ना० शा० १६, १४ का पाठान्तर,
अभिनवभारती, पृ० ३०७
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[७३ (ङ) भरत की लक्षण-धारणा तथा अलङ्कार-धारणा के योग से निर्मित:-मोहोपमा, हेतूपमा, चटूपमा आदि में विभिन्न लक्षणों का तत्त्व मिश्रित है।
(च) नियमोपमा दण्डी की मौलिक कल्पना है। रूपक
दण्डी के रूपक का सामान्य स्वरूप भामह के रूपक के स्वरूप के समान है; किन्तु भरत एवं भामह के दो रूपक-प्रकारों के स्थान पर दण्डी ने बहुल भेदों की कल्पना कर ली है। उन भेदों के स्रोत का अन्वेषण वाञ्छनीय है।
'काव्यादर्श' में रूपक के निम्नलिखित भेद उल्लिखित हैं:-समस्तरूपक, असमस्तरूपक, समस्तव्यरतरूपक, सकलरूपक, अवयवरूपक, अवयविरूपक, ( एकाङ्गरूपक, द्वयङ्ग, व्यङ्ग आदि तथा युक्त, अयुक्त अवयवरूपक के उपभेद), विषमरूपक, सविशेषणरूपक, विरुद्धरूपक, हेतुरूपक, श्लिष्टरूपक, उपमारूपक, व्यतिरेकरूपक, आक्षेपरूपक, समाधानरूपक, रूपकरूपक तथा तत्त्वापह्नवरूपक । रूपक के इन भेदोपभेदों का निरूपण कर दण्डी ने यह मान्यता व्यक्त की है कि ये कुछ मुख्य भेद वर्णित हैं, रूपक के और भी अनेक भेद हो सकते हैं।'
समस्त, व्यस्त तथा समस्तव्यस्तरूपकः-दण्डी के द्वारा कल्पित रूपक के ये नवीन भेद हैं । जहाँ रूपक में आरोप के विषय एवं विषयी के वाचक पदों का समास हो जाने पर विभक्ति का लोप हो जाता है वहाँ समस्त रूपक होता है। पृथक्-पृथक् विभक्ति का सद्भाव रहने पर व्यस्तरूपक माना जाता है। इन दोनों के मेल से तीसरा भेद समस्तव्यस्तरूपक बनता है। इसमें समस्त पद भी रहते हैं; और पृथक् विभक्तियुक्त व्यस्त पद भी। रूपक के उक्त भेदों की कल्पना व्याकरण के नियमानुसार होने वाले पदों के समास के आधार पर की गयी है।
सकलरूपक तथा अवयवरूपकः-दण्डी के ये रूपक-भेद भामह के क्रमशः समस्तवस्तुविषय तथा एकदेशवित्तिरूपक से अभिन्न हैं। एक-अङ्ग, द्वयङ्ग, त्र्यङ्ग आदि अवयवरूपक के ही उपभेद हैं, जिनकी उत्पत्ति का बीज भामह के एकदेशवित्तिरूपक की सामान्य धारणा में ही निहित था। युक्त तथा अयुक्त भेद का आधार वस्तुओं के सम्बन्ध की योग्यता तथा अयोग्यता है।
१. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्याद० २, ६६-६६ २. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्याद० २, ६६-६८ .
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७४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अवयविरूपकः—यह दण्डी का नवीन रूपक-प्रकार है। इसमें केवल अवयवी पर आरोप होता है, अवयव पर नहीं। अतः परवर्ती आचार्यों ने इसे निरङ्गरूपक कहा है।
विषमरूपकः–जहाँ अङ्गी पर आरोप हो तथा कुछ अङ्गों पर आरोप का सद्भाव एवं अन्य अङ्गों पर उसका अभाव हो वहाँ 'विषम' नामक रूपक-भेद माना गया है। यह रूपक-भेद दण्डी की नवीन कल्पना है।
सविशेषणरूपक:-यह दण्डी की स्वतन्त्र उद्भावना है। विशेषण-युक्त अप्रस्तुत का प्रस्तुत पर अभेदारोप सविशेषणरूपक माना गया है। हेमचन्द्र के अनुसार भरत ने उदारता-गुण की परिभाषा में अनेकार्थ विशेषण वाले पदों के प्रयोग पर बल दिया है। सम्भवतः दण्डी ने विशेषण-प्रयोग की धारणा उक्त गुण-लक्षण से ली और रूपक-अलङ्कार की अभेदारोप-धारणा के साथ उसे मिला कर रूपक के उक्त भेद की कल्पना कर ली।
विरुद्धरूपक:-भामह की विरोधालङ्कार-धारणा से रूपक-धारणा को मिला कर प्रस्तुत रूपक-प्रकार की कल्पना कर ली गयी है।
हेतुरूपक:-दण्डो की हेतूपमा के स्रोत का अन्वेषण करते हुए हम हेतु लक्षण से हेतु-धारणा का आविर्भाव सिद्ध कर चुके हैं। उसी हेतु से रूपकधारणा का संयोग कर दण्डी ने 'हेतुरूपक' नामक रूपक-भेद की सृष्टि की है।
श्लिष्टरूपक:-इसमें भामह के श्लिष्ट अलङ्कार तथा रूपक के तत्त्वों का मिश्रण है।
उपमारूपक:-भामह के उपमारूपक अलङ्कार से प्रस्तुत उपमाभेद अभिन्न है। भामह ने उपमारूपक को स्वतन्त्र अलङ्कार माना था, किन्तु दण्डी ने उसे रूपक का ही एक प्रकार स्वीकार किया है। यह रूपक उपमा से अनुप्राणित होता है। इसे स्वतन्त्र अलङ्कार मानने की अपेक्षा रूपक का अङ्ग मानना ही अधिक युक्ति-सङ्गत जान पड़ता है।
व्यतिरेकरूपक:-यह व्यतिरेकमूलक रूपक है। इसके स्वरूप का निर्माण व्यतिरेक तथा रूपक के तत्त्वों के योग से हुआ है।
आक्षेपरूपक:-रूपक के प्रस्तुत भेद के सृजन में भामह के आक्षेप तथा रूपक अलङ्कारों के विधायक तत्त्वों ने योग दिया है । यह आक्षेपपूर्वक रूपक है। १. रूपणादङ्गिनोङ्गानां रूपणारूपणाश्रयात् ।
रूपकं विषमं नाम ललितं जायते यथा ॥-दण्डी, काव्याद० २, ७६.
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[७५.
समाधानरूपक:-दण्डी का यह नवीन रूपक-भेद है। इसके स्वरूप- - सङ्घटन में भरत के उपपत्ति लक्षण से तत्त्व ग्रहण किया गया है। इसमें किसी आरोप्यमान के विरुद्ध कार्य का वर्णन करते हुए उसके हेतु का उल्लेख कर सम्भावित शङ्का का वक्ता स्वयं समाधान कर देता है।' उपपत्ति लक्षण की परिभाषा में भरत ने कहा है कि इसमें प्राप्त दोष का पुनः शमन किया जाता है ।२ इस लक्षण-धारणा से रूपक-धारणा को मिला कर उक्त रूपक-भेद की कल्पना की गयी है।
रूपकरूपक:-एक रूपक के आधार पर पुनः रूपक की कल्पना रूपकरूपक है। इसमें प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का आरोप कर एक रूपक सम्पन्न होता है। पुनः उस सम्पूर्ण पदार्थ पर अन्य वस्तु का आरोप होता है। यह रूपकमूलक रूपक है।
तत्त्वापह्नवरूपक:-तत्त्वापह्नव रूपक की कल्पना का आधार अपह्न ति अलङ्कार एवं रूपक की समन्वित धारणा है। परवर्ती आचार्यों ने इसे अपह्न ति में ही अन्तभूत मान लिया है।
स्पष्ट है कि दण्डी की रूपक-धारणा पूर्ववर्ती आचार्यों की तद्विषयक धारणा से तत्त्वतः अभिन्न है। उपमा, रूपक, व्यतिरेक, अपह्न ति आदि अलङ्कारों से अनुप्राणित रूपक को उपमारूपक, रूपकरूपक, व्यतिरेकरूपक, तत्त्वापह्नवरूपक आदि व्यपदेश से रूपक के विभिन्न भेद मान लिया गया है। इन भेदों की पृथक् कल्पना आवश्यक नहीं जान पड़ती। एक अलङ्कार से अनुप्राणित दूसरे अलङ्कार एकत्र रह सकते हैं। सकलरूपक एवं अवयवरूपक पूर्ववर्ती आचार्य भामह के क्रमशः समस्तवस्तुविषय एवं एकदेशविवर्ति रूपकभेदों से अभिन्न हैं। अवयवीरूपक, विषमरूपक आदि की कल्पना में कुछ . मौलिकता अवश्य है। समाधानरूपक का स्वरूप उपपत्ति लक्षण के आधार पर कल्पित है। दण्डी ने रूपक के और भी भेदोपभेदों की सम्भावना स्वीकार की है।
१. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्याद०, २, ६२ २. प्राप्तानां यत्र दोषाणां क्रियते शमनं पुनः । सा ज्ञेया ह युपपत्तिस्तु लक्षणं नाटकाश्रयम् ।।
-भरत, ना० शा० १६, ३५..
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७६ ]
दीपक
Court की सामान्य दीपक धारणा भरत की तद्विषयक धारणा के ही समान है। जाति, गुण, क्रिया या द्रव्य का वाचक शब्द एकत्र रह कर अनेक वाक्यों में अन्वित हो, अर्थ का दीपन करता है । अतः दीपक अन्वर्थ अभिधान है । आदि, मध्य तथा अन्त के दीपन के आधार पर भामह ने इसके तीन भेद स्वीकार किये थे । दण्डी के द्वारा भामह के उक्त तीन दीपक-भेद स्वीकृत हैं । इन भेदों के अतिरिक्त दीपक के निम्नाङ्कित अपर भेद भी 'काव्यादर्श' में विवेचित हैं — माला दीपक, विरुद्धार्थदीपक, एकार्थदीपक तथा श्लिष्टार्थदीपक ।
मालादीपक में दीपकों की माला की कल्पना है । उपमा तथा रूपक के माला-भेद की चर्चा हो चुकी है । उसी माला-धारणा को दीपक धारणा से मिला कर मालादीपक की कल्पना कर ली गयी है ।
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
विरुद्धार्थदीपक में विरुद्धार्थक क्रिया आदि का उल्लेख होता है । स्पष्टतः इस दीपक भेद की कल्पना में दीपक के साथ भामह के विरोध अलङ्कार के · स्वरूप को ध्यान में रखा गया है ।
एकार्थदीपक में अनेक शब्दों का उपादान होने पर भी वे सब एक ही क्रिया का दीपन करते हैं, अर्थात् कर्तृपद के साथ अनेक शब्द अर्थतः अभिन्न क्रियापद का अन्वय कराते हैं । समान अर्थ के लिए अनेक शब्दों के प्रयोग की धारणा भरत के पदोच्चय लक्षण से ली गयी है, जिसमें धर्म का अभिधान एकतात्पर्यनिष्ठ बहुत-से शब्दों के द्वारा होता है । २ उक्त लक्षण के तत्त्व का दीपक से संयोग होने से एकार्थदीपक नामक दीपक भेद का आविर्भाव हुआ है ।
श्लिष्टार्थदीपक श्लेषमूलक दीपक है । इसकी संज्ञा से ही स्पष्ट है कि दीपक के इस प्रकार की कल्पना में भामह के श्लेष अलङ्कार से तत्त्व ग्रहण किया गया है ।
निष्कर्षतः, दण्डी दीपक अलङ्कार के स्वरूप एवं प्रकार -निर्धारण में अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की अलङ्कार, लक्षण आदि धारणा से प्रभूत मात्रा में प्रभावित हैं । विभिन्न अलङ्कारों तथा लक्षणों के योग से दीपक के और भी नवीन भेदोपभेदों की कल्पना की जा सकती है । दीपक चक्र के विवेचन के उपरान्त दण्डी ने इस सम्भावना का निर्देश किया है ।
१. तुलनीय - भरत, ना० शा० १६, ५३ तथा दण्डी, काव्याद० २, ६७ २. द्रष्टव्य – भरत ना० शा० १६, १८
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ७७.
आवृत्ति
.. आचार्य दण्डी ने आवृत्ति को स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में मान्यता दी है। यह उनकी नवीन उद्भावना है। भरत तथा भामह ने आवृत्ति अलङ्कार का उल्लेख नहीं किया है। दण्डी की आवृत्ति-परिभाषा पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि वह स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं है, दीपक का ही एक भेद है। इसमें दीपक की ही आवृत्ति पर विचार किया गया है। दोनों में थोड़ा-सा भेद यह है कि दीपक में वाक्यान्तर में पद का उपादान नहीं होने पर भी दूसरे वाक्य में प्रयुक्त पद का उसके साथ अन्वय हो जाता है, पर आवृत्ति में एक वाक्य में प्रयुक्त पद का या उसके समानार्थक पद का दूसरे वावय में पुनः उपादान होता है। अतः, इसे आवृत्ति दीपक नामक दीपक-भेद मानना ही उचित होता। दीपक का सद्भाव रहने पर अर्थ, पद तथा उभय ( अर्थ और पद) की आवृत्ति के आधार पर आवृत्ति के तीन प्रकार माने गये हैं। भामह ने शब्दालङ्कार यमक में अर्थभेद से समान शब्द की आवृत्ति पर बल दिया था। दण्डी के प्रस्तुत अर्थालङ्कार में शब्द-भेद से अथवा समान शब्द से अर्थ की आवृत्ति वाञ्छनीय मानी गयी है। सम्भव है कि उक्त शब्दालङ्कार की शब्दावृत्ति-धारणा के आधार पर प्रस्तुत अर्थालङ्कार में अर्थावृत्ति की धारणा व्यक्त की गयी हो। आक्षेप
दण्डी की सामान्य आक्षेप-धारणा भामह की धारणा से अभिन्न है; किन्तु 'काव्यादर्श' में उसके अनेक भेदों की कल्पना कर ली गयी है। उनके उद्गम-स्रोत का अन्वेषण अपेक्षित है। दण्डी की मान्यता है कि आक्षेप्य या प्रतिषेध्य वस्तु की अनन्तता के कारण आक्षेप के असंख्य भेद हो सकते हैं। उन्होंने कुछ प्रमुख भेदों का सोदाहरण विवेचन किया है। वे भेद हैं-- अतीताक्षेप या वृत्ताक्षेप, वर्तमानाक्षेप, भविष्यदाक्षेप ( ये तीन प्रकार कालविभाग के अनुसार ); धर्माक्षेप, धाक्षेप, कारणाक्षेप, कार्याक्षेप, अनुज्ञाक्षेप, प्रभुत्वाक्षेप, अनादराक्षेप, आशीर्वचनाक्षेप, परुषाक्षेप, साचिव्याक्षेप, यत्नाक्षेप,
१. अर्थावृत्तिः पदावृत्तिरुभयावृत्तिरेव च ।
दीपकस्थान एवेष्टमलङ्कारत्रयं यथा ॥ दण्डी, काव्याद० २, ११६ २. तुलनीय-भामह, काव्यालं० २, ६८ तथा दण्डी, काव्याद० २, १२०..
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७८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण परवशाक्षेप, उपायाक्षेप, रोषाक्षेप, मूछ क्षेप, अनुक्रोशाक्षेप, श्लिष्टाक्षेप, अनुशयाक्षेप, संशयाक्षेप, अर्थान्तराक्षेप तथा हेत्वाक्षेप ।' भामह ने विषय के वक्ष्यमाण तथा उक्त होने के आधार पर आक्षेप के दो भेदों का ही उल्लेख किया है। दण्डी की सूक्ष्म-भेदोपभेदकारिणी रुचि ने आक्षेप के उक्त भेद कर दिये। वस्तुतः उक्त सभी प्रकारों तथा अन्य सम्भावित प्रकारों की कल्पना के लिए पर्याप्त अवकाश भामह के व्यापक आक्षेप-लक्षण में ही था । दण्डी के श्लिष्ट, संशय तथा अर्थान्तर आक्षेप-भेद क्रमशः भामह के श्लिष्ट, ससन्देह तथा अर्थान्तरन्यास अलङ्कारों से अनुप्राणित हैं। कालकृत विभाजन का आधार भामह का वक्ष्यमाण विषय तथा उक्त विषय आक्षेप-भेद है। दण्डी के अन्य आक्षेप-भेद प्रतिषेध-कर्ता की विभिन्न दशाओं पर आधृत हैं। रोष, परुष, अनुक्रोश आदि का मानसिक दशा से तथा यत्न, मूर्छा, उपाय आदि का शारीरिक एवं मानसिक दोनों दशाओं से सम्बन्ध है। धर्म, धर्मी, कार्य, कारण आदि आक्षेप-भेदों का आधार उन-उन पदार्थों का प्रतिषेध है। स्पष्ट है कि आक्षेप्य विषय की विविधता, वक्ता की मनोदशा, काल-विभाग तथा उक्ति में अन्य अलङ्कार-तत्त्वों के योग के आधार पर दण्डी ने भामह की मूल आक्षेप-धारणा के उक्त भेदों की कल्पना कर ली है। अर्थान्तरन्यास
भामह की ही तरह दण्डी भी प्रस्तुत वाक्यार्थ का अप्रस्तुत वाक्यार्थ से समर्थन अर्थान्तरन्यास का लक्षण मानते हैं। भामह ने प्रस्तुत अलङ्कार की केवल सामान्य परिभाषा दी है; किन्तु दण्डी ने उसके आठ विशेष भेदों का भी सोदाहरण उल्लेख किया है। वे भेद निम्नलिखित हैं-(१) विश्वव्यापी,(२) विशेषस्थ, (३) श्लेषाविद्ध, (४) विरोधवान्, (५) अयुक्तकारी, (६) युक्तात्मा, (७) युक्तायुक्त तथा (८) विपर्यय ।३ इनके उदाहरणों में विशेष कथन का सामान्य से समर्थन दिखाया गया है। सामान्य का विशेष से भी समर्थन अर्थान्तरन्यास में हो सकता है और उसके भी अनेक भेद हो सकते हैं। दण्डी ने इस सम्भावना
१. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्याद० २, १२०-६८ . २. तुलनीय-भामह, काव्यालं० २, ७१ तथा दण्डी, काव्याद० २,१६६ ३. विश्वव्यापी विशेषस्थः श्लेषाबिद्धः विरोधवान् । अयुक्तकारी युक्तात्मा युक्तायुक्तो विपर्ययः ॥
-दण्डी, काव्याद० २, १७०
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ७६
का निषेध नहीं किया है। उन्होंने यह मान्यता प्रकट की है कि इसी प्रकार अर्थान्तरन्यास के अन्य भेदों की कल्पना की जा सकती है। विशेष का समर्थन करने वाले सामान्य कथन के विश्वजनीन या विशेषगत होने के आधार पर अर्थान्तरन्यास के विश्वव्यापी तथा विशेषस्थ दो भेद माने गये हैं। श्लेष तथा विरोधमूलक अर्थान्तर के न्यास के सद्भाव में श्लेषाविद्ध तथा विरोधवान् अर्थान्तरन्यास-प्रकार स्वीकृत हैं। वणित अर्थ की अयुक्तकारिता, युक्तता, तथा युक्तायुक्तता के आधार पर क्रमशः अयुक्तकारी, युक्तात्मा तथा युक्तायुक्त;—ये तीन अर्थान्तरन्यासभेद कल्पित हैं। विपर्यय-भेद की कल्पना का आधार विपरीत अर्थ का वर्णन है। इस प्रकार दण्डी के इस भेदीकरण में श्लिष्ट तथा विरोध अलङ्कारों के तत्त्वों ने योग दिया है। अर्थ-वर्णन की सर्व-सम्मत विभिन्न प्रक्रियाओं का अवलम्ब लेकर भी अर्थान्तरन्यास के अनेक भेद किये गये हैं। पदार्थ के मुख्य दो विभाग स्वीकृत हैं—विश्वव्यापी तथा विशेष-निष्ठ। इन दो प्रकार के पदार्थों की योजना में अर्थान्तरन्यास के विश्वव्यापी एवं विशेषस्थ भेद माने गये हैं। अयुक्तकारी, युक्तात्मा, युक्तायुक्त तथा विपर्यय भेद उक्ति की विशेष भङ्गी से सम्बद्ध हैं। वस्तु-स्वभाव के विरुद्ध कार्य का वर्णन अयुक्तकारी अर्थान्तरन्यास में होता है, और उसका समर्थन तद्धर्मा अन्य उक्ति से होता है। दूसरे शब्दों में, किसी वस्तु के अयुक्त कार्य को भी विशेष स्थिति में उपपन्न सिद्ध किया जाता है। युक्तात्मा अयुक्तकारी का विपरीत-धर्मा है। उसके स्वरूप की कल्पना अयुक्तकारी के स्वभाव के विपर्यय के आधार पर की गयी है । उक्तायुक्त में उक्त दोनों भेदों की प्रकृति का समवाय है। विपर्ययभेद अयुक्तकारी से मिलता-जुलता है। अन्तर केवल इतना है कि इसमें वस्तुस्वभाव का वैपरीत्य वर्णित होता है; किन्तु अयुक्तकारी में वस्तु के कार्य में उसके स्वभाव से अनुकूलता का अभाव-मात्र रहता है। इस प्रकार धर्म के वैपरीत्य के आधार पर उक्त भेद की कल्पना की गयी है। निष्कर्ष यह कि दण्डी अर्थान्तरन्यास के सामान्य स्वरूप के सम्बन्ध में भामह से सहमत हैं; पर उसके अनेक भेदों की कल्पना का श्रेय दण्डी को है। व्यतिरेक
दण्डी की व्यतिरेक-परिभाषा भामह की परिभाषा से किञ्चित् भिन्न होने पर भी तत्त्वतः उससे मिलती-जुलती ही है। भामह ने इसमें उपमान से उपमेय का
१. इत्येवमादयो भेदाः प्रयोगेष्वस्य लक्षिताः ।-दण्डी, काव्याद० २, १७१
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८० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
आधिक्य-वर्णन स्पष्टतः स्वीकार किया था,' दण्डी ने वह तत्त्व प्रकारान्तर से प्रतिपादित किया है। उनका कहना है कि जहाँ प्रस्तुत एवं अप्रस्तुत में वाचक शब्द के द्वारा सादृश्य का अभिधान होता हो अथवा वाचक शब्द के अभाव में सादृश्य की प्रतीति होती हो वहाँ वैशिष्ट्य-प्रतिपादनार्थ दोनों में भेद-कथन अर्थात् वैधर्म्य का प्रतिपादन किया जाना व्यतिरेक अलङ्कार है ।२ दण्डी के व्यतिरेक-उदाहरण के परीक्षण से यह स्पष्ट हो जाता है कि उपमान तथा उपमेय में कहीं वैधर्म्य-मात्र का कथन होता है तथा कहीं भेद-कथन से उपमेय का उपमान से आधिक्य सिद्ध होता है। 'काव्यादर्श' के टीकाकार पण्डित नृसिंहदेव शास्त्री ने दण्डी के व्यतिरेक-लक्षण का सारांश उपमान से उपमेय का आधिक्य-वर्णन माना है। अप्रस्तुत से प्रस्तुत के आधिक्य-वर्णन की धारणा भामह की धारणा से अभिन्न है । - भामह ने व्यतिरेक के भेदोपभेद नहीं किये हैं। दण्डी ने उसके अनेक भेदों का विवेचन किया है। उनकी सामान्य व्यतिरेक-परिभाषा में ही उसके दो भेदों का निर्देश है-एक में वाचक शब्द के उक्त होने से सादृश्य वाच्य होता है, दूसरे में सादृश्य प्रतीयमान होता है। इस प्रकार शब्दोपात्त तथा प्रतीयमानसादृश्य; ये व्यतिरेक के दो मुख्य भेद स्वीकार किये गये हैं। 'काव्यादर्श' में निम्नलिखित नौ व्यतिरेक-भेदों का उल्लेख हुआ हैएकव्यतिरेक, उभयव्यतिरेक, सश्लेषव्यतिरेक, साक्षेपव्यतिरेक, सहेतुकव्यतिरेक, प्रतीयमानसादृश्यव्यतिरेक, शाब्दसादृश्यसदृशव्यतिरेक, प्रतीयमानसादृश्यसदृशव्यतिरेक तथा सजातिव्यतिरेक ।४ श्लेषव्यतिरेक तथा आक्षेपव्यतिरेक क्रमशः श्लेष अलङ्कार से अनुप्राणित हैं। सहेतुकव्यतिरेक में हेतु का कथन होता है। हेतूपमा के स्रोत की परीक्षा के क्रम में हेतु तत्त्व की कल्पना के आधार पर विचार किया जा चुका है। शब्दोपात्त धर्म की संख्या की दृष्टि से एकव्यतिरेक तथा उभयव्यतिरेक भेद किये गये हैं। प्रतीयमानसादृश्यव्यतिरेक, शाब्दसादृश्यसदृशव्यतिरेक तथा प्रतीयमान
१. द्रष्टव्य-भामह, काव्यालं० २, ७५ २. शब्दोपात्त प्रतीते वा सादृश्ये वस्तुनो'योः ।
तत्र यद्भदकथनं व्यतिरेकः स कथ्यते ।।-दण्डी, काव्याद० २,१८० ३. 'उपमानादुपमेयस्याधिक्यवर्णनं व्यतिरेक' इति व्यतिरेकस्वरूपसारः ।
-काव्याद० कुसुम प्र० टीका, पृ० १५८ ४. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्याद० २,१८१-६८
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[८१ सादृश्यसदृशव्यतिरेक भेदों का मूल अर्थ का वाच्य तथा प्रतीयमान वर्गों में विभाजन है। प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत के धर्मों की सजातीयता के आधार पर सजातिव्यतिरेक भेद की कल्पना की गई है। स्पष्ट है कि 'काव्यादर्श' के व्यतिरेक-भेदों के नवीन होने पर भी भेदीकरण के आधार सर्वथा नवीन नहीं हैं। विभावना
दण्डी ने 'काव्यादर्श' में विभावना अलङ्कार के सम्बन्ध में प्रकारान्तर से भामह से मिलती-जुलती धारणा ही व्यक्त की है। दण्डी के अनुसार किसी कार्य के लोक-प्रसिद्ध कारण को छोड़ अन्य कारण का उल्लेख किया जाना अथवा उसका किसी कारण के बिना स्वाभाविक रूप में होने का वर्णन किया जाना विभावना है।' यह धारणा भामह की क्रिया के प्रतिषेध में भी फल के सद्भावविषयक धारणा से किञ्चिन्मात्र ही भिन्न है। समासोक्ति
दण्डी ने समासोक्ति-लक्षण में शब्द-भेद से भामह की अप्रस्तुत-प्रशंसासम्बन्धी मान्यता को ही प्रस्तुत किया है। दण्डी के अनुसार इसमें अप्रस्तुत के कथन से प्रस्तुत अर्थ की व्यञ्जना होती है।२ टीकाकार नृसिंहदेव के अनुसार जहाँ प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत में से अप्रस्तुत के वर्णन से प्रस्तुत का व्यञ्जना से बोध हो जाता है वहाँ दण्डो के मतानुसार समासोक्ति अलङ्कार होता है।३ परवर्ती आचार्य मम्मट आदि ने अप्रस्तुत वर्णन से प्रस्तुतार्थ की व्यञ्जना में अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार माना है। भामह ने भी अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार की परिभाषा में ऐसी ही धारणा व्यक्त की है। इस प्रकार भामह के अप्रस्तुत-प्रशंसा अलङ्कार का स्वरूप लेकर दण्डी ने उसे समासोक्ति नाम से अभिहित किया और अप्रस्तुतप्रशंसा के स्वतन्त्र लक्षण की १. प्रसिद्धहेतुव्यावृत्या यत् किञ्चित् कारणान्तरम् । यत्र स्वाभाविकत्वं वा विभाव्यं सा विभावना ॥
-दण्डी, काव्यादर्श २,१६६ २. वस्तु किञ्चिदभिप्रेत्य तत्तुल्यस्यान्यवस्तुनः ।। ___उक्तिः संक्षेपरूपत्वात् सा समासोक्तिरिष्यते ॥-वही० २,२०५ ३. यत्र प्रस्तुताप्रस्तुतयोयोर्मध्ये एकस्य अप्रस्तुतस्य प्रयोगेण अपरस्य प्रस्तुतस्य व्यञ्जनया बोधः तत् समासोक्तिरिति दण्डिलक्षणसरलसारः ।
--काव्याद०, कुसुम प्र० टीका, पृ० १६९
६
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८२] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण कल्पना कर ली। अप्रस्तुत अर्थ के वर्णन से प्रस्तुत अर्थ की व्यञ्जना का आधार उक्त तथा अनुक्त अर्थों के लिए समान विशेषण का प्रयोग है । विशेषणप्रयोग के वैचित्र्य की दृष्टि से दण्डी ने समासोक्ति के चार भेद स्वीकार किये हैं—( क ) कार्यलिङ्गविशेषण-घटिता समासोक्ति, ( ख ) श्लिष्ट विशेषणासमासोक्ति, (ग) श्लिष्टाश्लिष्टविशेषणा-समासोक्ति तथा (घ) अपूर्वसमासोक्ति ।' प्रथम में समान कार्य-वर्णन से प्रस्तुतार्थ की व्यञ्जना होती है। भामह की सामान्य अप्रस्तुत-प्रशंसा-परिभाषा में भी इस भेद की कल्पना के लिए अवकाश था। द्वितीय तथा तृतीय भेदों की कल्पना में भामह की श्लिष्ट-धारणा का अवलम्ब लिया गया है। अन्तिम में पूर्वधर्म का उपादान न कर विपरीत-धर्म का वर्णन किया जाता है। वैपरीत्य-धारणा के आधार पर इस भेद की कल्पना की गयी है। अतिशयोक्ति
दण्डी की सामान्य अतिशयोक्ति-धारणा भामह की तद्विषयक धारणा से अभिन्न है । २ 'काव्यादर्श' में उसके निम्नलिखित भेद सोदाहरण विवेचित हैंसंशयातिशयोक्ति, निर्णयातिशयोक्ति तथा आश्रयाधिक्यातिशयोक्ति । प्रथम दो भेदों में संशय एवं निर्णय मूलाधार हैं। संशयोपमा तथा निर्णयोपमा के स्रोत के विवेचन-क्रम में हम संशय एवं निर्णय की धारणा के उद्भव पर विचार कर चुके हैं। आश्रयाधिक्य-वर्णन दण्डी की अपनी कल्पना है। वस्तुतः इस भेद की पृथक् कल्पना आवश्यक नहीं। आश्रय की विशालता के वर्णन से आश्रित के आधिक्य की व्यञ्जना इसमें होती है। अतिशयोक्ति के सामान्य लक्षण में ही वस्तु के लोकसीमातिवर्ती आधिक्य-वर्णन पर बल दिया गया है। अतः इस नवीन भेद की कल्पना का आधार भेदीकरण का आग्रह-मात्र है । उत्प्रेक्षा
भामह की उत्प्रेक्षा-धारणा को ही दण्डी ने अधिक स्पष्ट शब्दों में प्रस्तुत किया है। उपमा और उत्प्रेक्षा के भेद-निरूपण तथा उत्प्रेक्षा-व्यञ्जक शब्दों के परिगणन के लिए दण्डी श्रेय के भागी हैं।
१. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्याद० २,२०८-१३ २. तुलनीय–दण्डी, काव्याद० २,२१४ तथा भामह, काव्यालं० २,८१ ३. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्याद०, २,२१७-१६ ४. तुलनीय-दण्डी, काव्याद० २,२२१ तथा भामह, काव्यालं० २,६१
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[८३
हेतु, सूक्ष्म और लेश
हम देख चुके हैं कि भामह ने हेतु, सूक्ष्म और लेश के अलङ्कारत्व का खण्डन किया है ।' किन्तु; दण्डी ने उन्हें न केवल अलङ्कार के रूप में स्वीकृति दी वरन् वाणी के उत्तम भूषण के रूप में गौरव प्रदान किया ।२ इन अलङ्कारों के स्वरूप की परीक्षा से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इन्हें उत्तम अलङ्कार कहने में दण्डी का उद्देश्य इनके विषय में अपने पूर्ववर्ती आचार्य भामह के उपेक्षात्मक विचार का सबल विरोध-मात्र करना था। इन अलङ्कारों की उत्तमता का कारण निर्दिष्ट नहीं। अस्तु, प्रस्तुत प्रसङ्ग में उनके उद्गमस्रोत का अन्वेषण वाञ्छनीय है। भामह ने हेतु, सूक्ष्म और लेश का नाम्नव उल्लेख किया है। दण्डी ने उनके स्वरूप का सोदाहरण विवेचन किया है। किसी कार्य के साथ उसके हेतु का कथन हेतु अलङ्कार है। हेतु दो प्रकार के होते हैं—कारक तथा ज्ञापक। वे कारक एवं ज्ञापक हेतु अनेक प्रकार के होते हैं। हेतु की विविधता के अनुरूप हेतु अलङ्कार के भी विविध भेद माने गये हैं। भरत ने 'नाट्यशास्त्र' में हेतु लक्षण का उल्लेख किया है, जिसमें वक्ता किसी वस्तु के सम्बन्ध में अनेक कथन का निरादर कर उस विषय में अपनी मान्यता प्रकट करता है और अपनी मान्यता की स्थापना के लिए हेतु का निर्देश करता है । 3 सकारण कथन होने के कारण इसे सहेतु कहा गया है। हेतु अलङ्कार में हेतुमान के साथ हेतु के उल्लेख की धारणा का प्रादुर्भाव उक्त लक्षण के स्वरूप के आधार पर ही हुआ है । दर्शन-शास्त्र की विभिन्न शाखाओं में कार्य तथा कारण के स्वरूप का सूक्ष्म विवेचन हुआ है। कारण के विविध प्रकार के आधार पर दण्डी ने हेतु अलङ्कार के तत्तद्भेदों की कल्पना कर ली है।
हृद्गतभाव. के बोधक इङ्गितों से तथा विशेष प्रकार की मुखाकृति से अर्थ का लक्षित होना सूक्ष्म अलङ्कार माना गया है। इस अलङ्कार का १. हेतुश्च सूक्ष्मो लेशोऽथ नालङ्कारतया मतः ।
–भामह, काव्यालं० २,८६ तुलनीय२. हेतुश्च सूक्ष्मलेशौ च वाचामुत्तमभूषणम् ।—दण्डी, काव्याद० २,२३५ ३. बहूनां भाषमाणानां त्वेकस्यार्थविनिर्णयम् । सिद्धोपमानवचनं हेतुरित्यभिसङ ज्ञितः ॥ .
-भरत, ना० शा० १६, १४ ४. इङ्गिताकारलक्ष्योऽर्थः सौक्ष्म्यात् सूक्ष्म इति स्मृतः ।।
-दण्डी, काव्या०, २, २६०
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८४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
स्वरूप भरत के प्राप्ति तथा परिदेवन के पाठ भेद सिद्धि लक्षणों के स्वरूप के आधार पर कल्पित है । भरत के अनुसार जहाँ अवयव को देख कर भाव का अनुमान हो जाय, वहाँ प्राप्ति लक्षण होता है ।' अभिनव गुप्त ने भरत की प्राप्ति- परिभाषा में प्रयुक्त भाव का अर्थ सद्भाव या सत्ता मान कर उसके उदाहरण में अभिज्ञान शाकुन्तलम् का वह प्रसिद्ध श्लोक उद्धृत किया है जिसमें दुष्यन्त शकुन्तला के पद चिह्न को देख कर उसके सद्भाव का अनुमान करता है । किन्तु, भरत के उक्त लक्षण की परिभाषा का व्याख्यान इस प्रकार भी किया जा सकता है कि वे प्राप्ति में अवयव को देख हृद्गत भाव का अनुमान कर लिया जाना अपेक्षित मानते थे । सम्भव है कि दण्डी ने प्राप्तिलक्षण की परिभाषा का यही अर्थ समझा हो और उसे सूक्ष्म व्यपदेश से अलङ्कारों के मध्य परिगणित कर लिया हो । परिदेवन लक्षण के प्राप्त पाठान्तर में वचन के अभाव में प्रस्ताव से ही समग्र अर्थ का बोध वाञ्छनीय माना गया है । 3 इङ्गित से भावबोध की सूक्ष्म धारणा इससे मिलती-जुलती है । किसी गोप्य विषय के किसी कारणवश कुछ प्रकट हो जाने पर किसी व्याज से उसका गोपन लेश अलङ्कार माना गया है । ४ स्पष्टतः इसमें दो तत्त्व हैं - किञ्चित् प्रकट वस्तु रूप का निगूहन तथा उस निगूहन के लिए बहाना बनाना । वस्तु स्वरूप के छिपाने का तत्त्व मिथ्याध्यवसाय लक्षण से तथा बहाना बनाने का तत्त्व कपट लक्षण से गृहीत है । मिथ्याध्यवसाय में विचार के अन्यथात्व - साधन पर बल दिया गया है तथा कपट में छलयुक्ति पर । दण्डी के अनुसार लेश अलङ्कार में प्रकट वस्तुरूप की अन्यथात्व-सिद्धि
१. दृष्ट्वैवावयवं किञ्चिद्भावो यत्रानुमीयते । प्राप्ति तामभिजानीयाल्लक्षणं नाटकाश्रयम् ।।
— भरत, ना० शा०, १६, ३२ २. यथा— अभ्युन्नता पुरस्तादवगाढा जघनगौरवात् इत्यादि - शाकु० ३, ५ । अत्र पदपंक्तिलक्षणमंशं दृष्ट्वानयात्र भवितव्यमिति शकुन्तलायाः सद्भावोऽनुमीयत इति । - अभिनव ना० शा० अ० भा०
पृ० ३१६
३. प्रस्तावेनैव शेषोऽर्थः कृत्स्नो यत्र प्रतीयते ।
वचनेन विना जातु सिद्धिः सा परिकीर्तिता ॥ - वही, पृ० ३२१ ४. लेशो लेशेन निभिन्नवस्तुरूपनिगूहनम् । दण्डी, काव्याद० २, २६५ ५. द्रष्टव्य — अभिनव, ना० शा० अ० भा०
पृ० ३०८ तथा
भरत, ना० शा ० १६, ३०
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[८५ का प्रयास होता है और उसके लिए छल-युक्ति का सहारा लिया जाता है। स्पष्ट है कि उक्त दोनों लक्षणों के प्रमुख तत्त्वों से लेश अलङ्कार का रूपविधान हुआ है।
दण्डी ने लेश अलङ्कार के सम्बन्ध में अन्य लोगों की धारणा का निर्देश करते हुए कहा है कि कुछ लोग व्याज से की जाने वाली निन्दा अथवा स्तुति में लेश अलङ्कार मानते हैं।' स्तुति के व्याज से निन्दा तथा निन्दा के व्याज से स्तुति को लेश का लक्षण मानने वाले आचार्यों ने इसे व्याजस्तुति से अभिन्न मान लिया है। दण्डी इस मत से सहमत नहीं। वे निन्दामुखेन की जाने वाली स्तुति को व्याजस्तुति नामक पृथक् अलङ्कार मानते हैं। नृसिंहदेव के अनुसार निन्दापर्यवसायिनी स्तुति में भी व्याजस्तुति मानने का अवकाश दण्डी के उक्त लक्षण में ही है।३ व्याज से की जाने वाली निन्दा तथा स्तुति की धारणा भामह की व्याजस्तुति अलङ्कार-धारणा से गृहीत है । यथासंख्य ___ दण्डी का यथासंख्य अलङ्कार भामह के एतत्संज्ञक अलङ्कार से अभिन्न है ।
प्रेय, रसवत् तथा ऊर्जस्वी
भामह ने प्रेय, रसवत् तथा ऊर्जस्वी के लक्षण नहीं दिये हैं। दण्डी ने इन्हें लक्षण-बद्ध किया है।४ इन अलङ्कारों के सम्बन्ध में दण्डी की धारणा भामह की धारणा से अभिन्न है। दण्डी ने प्रेय का उदाहरण भी भामह के 'काव्यालङ्कार' से ही लिया है।५।
१. लेशमेके विदुनिन्दां स्तुतिं वा लेशतः कृताम् ।
-दण्डी, काव्याद०, २, २६८ २. यदि निन्दन्निव स्तौति व्याजस्तुतिरसौ स्मृता। वही, २, ३४३ ३. अत्र (लक्षणवाक्ये) 'निन्दन्निव स्तौतीति कथनात् प्रत्ययादिव्यत्ययेन
स्तुवन्निन्दतीति इत्यप्यों बोध्यः' तेन स्तुतिच्छलेन निन्दोक्तिरपि
व्याजस्तुतिः । -काव्याद०, कुसुम प्र० टीका, पृ० २५६ .. ४. प्रेयः प्रियतराख्यानं रसवद्रसपेशलम् । ऊर्जस्वि रूढाहङ्कारं युक्तोत्कर्षञ्च तत्त्रयम् ॥
—दण्डी, काव्याद०, २, २७५ ५. तुलनीय-दण्डी, काव्याद०, २, २७६ तथा भामह, काव्यालं०, ३, ५
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८६ ] .
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
पर्यायोक्त
दण्डी की पर्यायोक्त-धारणा भामह की तद्विषयक धारणा से अभिन्न है। समाहित
भामह ने समाहित की परिभाषा नहीं दी है। उन्होंने उसका उदाहरण देकर उसके सम्बन्ध में जैसी मान्यता व्यक्त की थी, दण्डी ने वैसी ही मान्यता समाहित की परिभाषा में व्यक्त की है। अतः समाहित के सम्बन्ध में दोनों की धारणा अभिन्न है।
उदात्त __ भामह के द्वारा अंशतः अपरिभाषित उदात्त को दण्डी ने परिभाषित किया है। उनकी उदात्त-धारणा भामह की धारणा से भिन्न नहीं है। भामह ने उदात्त के एक उदाहरण में राम की उच्चाशयता का दिग्दर्शन कराया है। इसे दण्डी ने आशय-महत्त्व-वर्णन-परक उदात्त कहा है। भामह ने नानारत्नादियुक्त वर्णन को उदात्त का अपर रूप माना था, जिसे दण्डी ने विभूतिमहत्त्व-वर्णनमूलक उदात्त कहा है। इस प्रकार प्रस्तुत अलङ्कार के सम्बन्ध में दण्डी की धारणा पूर्ववर्ती आचार्य भामह की धारणा से मूलतः अभिन्न है । अपह्न ति
दण्डी के अपह्न ति अलङ्कार का सामान्य स्वरूप भामह की अपह्न ति के स्वरूप के समान है। दण्डी ने भामह की तरह ही यह माना है कि वर्णनीय वस्तु के धर्म का गोपन कर अप्रस्तुत के धर्म का प्रदर्शन अपह्न ति है। विषय तथा स्वरूप ( स्वतः सिद्ध धर्म ) के अपह्नव के आधार पर 'काव्यादर्श' में अपह्नति के विषयापह्न ति तथा स्वरूपापह्न ति—ये दो और भेद माने गये हैं। इन भेदों की कल्पना के लिए भामह के अपह्न ति-लक्षण में ही पर्याप्त अवकाश था। श्लिष्ट
दण्डी के श्लिष्ट अलङ्कार का सामान्य लक्षण भामह के श्लिष्ट-लक्षण से मिलता-जुलता है। दण्डी ने उसके मुख्य दो भेद स्वीकार किये हैं-अभिन्नपदश्लेष अर्थात् अभङ्गश्लेष तथा भिन्नपद अर्थात् सभङ्गश्लेष । श्लेष के अन्य
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[८७ भी अनेक भेद किये गये हैं। उपमा, रूपक, आक्षेप, व्यतिरेक आदि अलङ्कारों के अङ्ग के रूप में तत्तदलङ्कारों के स्वरूप-विवेचन-क्रम में श्लेष के स्वरूप पर विचार किया जा चुका है। श्लेष के अन्य भेद निम्नलिखित हैं
अभिन्न-त्रिय श्लेष, अविरुद्धक्रिय श्लेष, विरुद्धक्रिय श्लेष, नियामक श्लेष, नियमाक्षेपरूपोक्तिश्लेष, अविरोधिश्लेष तथा विरोधिश्लेष ।' इन भेदों के लक्षण न देकर उदाहरणों से ही इनके स्वरूप के विषय में दण्डी ने अपना अभिमत प्रकट किया है।
___ अभिन्नक्रिय श्लेष के उदाहरण में एक क्रिया से दो वाक्यों का दीपन दिखाया गया है। यह धारणा भामह की दीपक अलङ्कार-धारणा पर आधृत है। टीकाकार नृसिंहदेव ने उक्त उदाहरण के आधार पर अभिन्नक्रिय श्लेष को दण्डी की तुल्ययोगिता का अङ्गभूत श्लेष माना है। उन्होंने इसे अन्य लोगों के मतानुसार दीपक का अङ्गभूत भी कहा है ।२ अविरुद्धक्रिय तथा विरुद्धक्रिय श्लेष-भेदों को भी नसिंह देव ने तुल्ययोगिता का ही अङ्ग माना है। नियामकश्लेष में जो नियम का तत्त्व है, वह दण्डी की मौलिक कल्पना है। नियमाक्षेपरूपोक्तिश्लेष की कल्पना में आक्षेप तथा दीपक अलङ्कारों के तत्त्वों का सहारा लिया गया है तथा नियम का तत्त्व भी मिला दिया गया है। अविरोधी तथा विरोधी श्लेष-प्रकारों की कल्पना विरोध की अभावात्मक एवं भावात्मक सत्ता के आधार पर की गई है। नृसिंह देव की यह उचित मान्यता है कि विरोधी श्लेष विरोध अलङ्कार का अङ्गभूत है।४ विशेषोक्ति
दण्डी की सामान्य विशेषोक्ति-धारणा भामह की धारणा से अभिन्न है। दण्डी ने उसके अनेक भेदों की कल्पना की है। वे भेद निम्नलिखित हैंगुणविशेषोक्ति, जातिविशेषोक्ति, क्रियाविशेषोक्ति, द्रव्यविशेषोक्ति तथा हेतु
१. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्याद० २, ३१४-१५ २. 'किञ्चात्र वक्ष्यमाणलक्षणस्तुल्ययोगितालङ्कारोऽपीति तनिर्वाहकत्वात्त
स्याङ्गभूतोऽयं श्लेषः । परे तु—एकयैव कर्षणक्रियया वाक्यद्वयदीपनाद् दीपकस्यायमङ्गभूत इत्याहुः ।'
-काव्याद०, कुसुम प्र० टीका पृ० २४३ ३. द्रष्टव्य-वही, पृ० २४३-४४ ४. ..."विरोधसार्थोऽयं श्लेषो विरोधाभासस्याङ्गम् ।—वही, पृ० २४६
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55]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
विशेषोक्ति ।' भामह के विशेषोक्ति-लक्षण में ही गुण, जाति, क्रिया तथा द्रव्यमूलक विशेषोक्ति-भेदों की सम्भावना निहित थी । भामह की 'गुणान्तरसंस्थिति' में गुण से जाति, क्रिया आदि भी उपलक्षित थी । अतः दण्डी के विशेषोक्ति अलङ्कार के प्रथम चार भेदों का मूल भामह की विशेषोक्ति परिभाषा में ही माना जा सकता है। हेतुविशेषोक्ति में हेतुगर्भ विशेषण का प्रयोग होता है । इसमें विशेषोक्ति के साथ हेतु के तत्त्वों का मिश्रण है । हेतुधारणा के स्रोत पर विचार किया जा चुका है ।
तुल्ययोगिता
भामह की तुल्ययोगिता से दण्डी की तुल्ययोगिता तत्त्वतः भिन्न नहीं है । दोनों ने प्रस्तुत अलङ्कार में उपमान तथा उपमेय में तुल्यकार्यक्रिया के प्रयोग पर बल दिया है । भामह ने न्यून की विशिष्ट के साथ गुण-साम्य-विवक्षा में ही तुल्ययोगिता अलङ्कार माना था । दण्डी ने इस धारणा को स्वीकार कर उसमें अपनी ओर से भी कुछ जोड़ा है । निन्दा में तुल्ययोगिता की धारणा नवीन है । इसमें निन्दा का तत्त्व भरत की उपमा के निन्दा भेद से गृहीत है । भरत के दीपक अलङ्कार में सिद्धि लक्षण तथा निन्दोपमा के तत्त्वों के योग से तुल्ययोगिता के निन्दा - भेद की सृष्टि हुई है । इस प्रकार दण्डी की तुल्ययोगिता के दो भेदों में से स्तुति में तुल्ययोगिता भेद भामह की धारणा से अभिन्न है तथा निन्दा में तुल्ययोगिता भेद भरत की अलङ्कार एवं लक्षण-धारणा के आधार पर कल्पित है ।
विरोध
aust की सामान्य विरोधालङ्कार-धारणा भामह की विरोध-धारणा के समान है । दण्डी ने उसके निम्नलिखित भेदों का सोदाहरण उल्लेख किया हैक्रियाविरोध, गुणविरोध ( वस्तुगत गुण- विरोध तथा अवयवगत गुणविरोध ), विषमविरोध ( गुण तथा क्रिया का विरोध ), असङ्गतिविरोध अथवा अभावात्मक क्रियाविरोध तथा श्लेषमूल - विरोध । २ ये भेद भामह की विरोध-धारणा के आधार पर ही कल्पित हैं । भामह ने गुण या क्रिया का विरुद्ध क्रिया से अभियान विरोध का लक्षण माना है । दण्डी के गुण-विरोध
१. द्रष्टव्य —— दण्डी, काव्याद०, २, ३२३-२६
२. द्रष्टव्य — दण्डी, काव्याद०, २, ३३३-३६
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[८६ तथा क्रिया-विरोध भामह के उक्त विरोध-लक्षण में ही अन्तर्भूत हैं। विषमविरोध में गुण एवं क्रिया का विरोध प्रदर्शित होता है। यह धारणा भी भामह के गुण-विरोध एवं क्रिया-विरोध के मिश्रित स्वरूप पर अवलम्बित है। क्रिया आदि की अभावात्मक सत्ता के आधार पर असङ्गति-विरोध की कल्पना की गयी है। 'काव्यादर्श' में असङ्गति-विरोध का जो उदाहरण दिया गया है उसमें क्रिया के अभाव से असङ्गति दिखायी गयी है। विरोध के साथ श्लेष अलङ्कार की धारणा को मिला कर श्लेष-विरोध के स्वरूप का निर्माण किया गया है। अप्रस्तुतप्रशंसा
भामह की अप्रस्तुतप्रशंसा-धारणा से दण्डी की अप्रस्तुतप्रशंसा-धारणा अभिन्न है। व्याजस्तुति
__ भामह की तरह दण्डी भी निन्दा के व्याज से की जाने वाली स्तुति को व्याजस्तुति का लक्षण मानते हैं। इसमें आपाततः किसी की निन्दा की जाती है ; किन्तु वह निन्दा परिणामतः स्तुति में पर्यवसित हो जाती है। शब्दश्लेष मूलक तथा अर्थश्लेषमूलक व्याजस्तुति भेदों के भी उदाहरण दिये गये हैं। स्पष्टतः इन भेदों में श्लेष अलङ्कार के तत्त्व व्याजस्तुति के साथ मिश्रित हैं। अन्य अलङ्कारों के योग से व्याजस्तुति के अनेक अन्य भेद भी हो सकते हैं।' निदर्शन ___ दण्डी की निदर्शन-परिभाषा भामह की परिभाषा से मिलती-जुलती है। सत् एवं असत् अर्थात् उत्कृष्ट एवं अनुत्कृष्ट फल के निदर्शन की दृष्टि से दण्डी ने निदर्शन के सत्फलनिदर्शन तथा असत्फलनिदर्शन-दो भेद स्वीकार किये हैं।२ भामह ने 'काव्यालङ्कार' में निदर्शन का जो उदाहरण दिया है, वह असदर्थनिदर्शन का उदाहरण है। दण्डी ने सत्फल-निदर्शन का भी उदाहरण १. इति श्लेषानुविद्धानामन्येषाञ्चोपलक्ष्यताम् ।
व्याजस्तुतिप्रकाराणामपर्यन्तस्तु विस्तरः ।।-वही, २, ३४७ २. अर्थान्तरप्रवृत्तेन किञ्चित् तत्सदृशं फलम् ।
सदसद्वा निदर्येत यदि तत्स्यान्निदर्शनम् ।।-वही, २, ३४८ .
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६० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
दिया है । स्पष्ट है कि दण्डी की निदर्शन-धारणा तत्त्वतः भामह की तद्विषयक धारणा से अभिन्न है ।
सहोक्ति
दण्डी ने भामह की सहोक्ति-परिभाषा को ही शब्द भेद से स्वीकार किया है । गुण, क्रिया, द्रव्य आदि का सहभाव से कथन होने के कारण, गुणसहोक्ति, क्रिया सहोक्ति, द्रव्यसहोक्ति आदि सहोक्ति अलङ्कार के भेद माने जा सकते हैं ।
परिवृत्ति
इस
भामह के परिवृत्ति-लक्षण से दण्डी का परिवृत्तिलक्षण किञ्चित् भिन्न है । उसका स्वरूप अपेक्षाकृत अधिक व्यापक है । भामह ने न्यून वस्तु के बदले विशिष्ट वस्तु का आदान परिवृत्ति का लक्षण माना था; किन्तु दण्डी ने वस्तु के किसी प्रकार के विनिमय में परिवृत्ति का सद्भाव स्वीकार किया है । " विनिमय के तीन प्रकार सम्भव हैं - ( क ) न्यून से अधिक का विनिमय, (ख): अधिक से न्यून का विनिमय तथा ( ग ) समान का समान से विनिमय । प्रकार दण्डी के मतानुसार परिवृत्ति के उक्त तीन भेद माने जा सकते हैं । इनमें से केवल प्रथम भेद को भामह के मतानुयायी परिवृत्ति मानेंगे । दण्डी ने न्यून से अधिक के विनिमय का ही उदाहरण दिया है । शेष दो भेदों के उदाहरण उन्होंने विस्तार के भय से नहीं दिये है । एक ही भेद का सोदाहरण - विवेचन भामह के प्रभाव की सूचना देता है । अन्य -भेदों में भी विनिमय का भाव भामह से ही लिया गया है ।
आशीः
आशीः दण्डी का नवीन अलङ्कार है । भामह के 'काव्यालङ्कार' में इसका उल्लेख मात्र हुआ है ; उसका लक्षण नहीं दिया गया है । भामह ने स्वयं उसका अलङ्कारत्व स्वीकार नहीं किया है । दण्डी के अनुसार प्रिय की. वस्तु प्राप्ति की इच्छा अथवा प्रिय वस्तु की शुभाशंसा आशीः अलङ्कार है । प्रस्तुत अलङ्कार को कुछ लोगों ने प्र ेय अलङ्कार का ही विशिष्ट रूप माना है ।
१. तुलनीय - दण्डी, काव्याद० २,३५१ तथा भामह, काव्यालं० ३,४१ २. दण्डी, काव्याद० २,३५७
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ER सङ्कीर्ण
भामह की संसृष्टि को दण्डी ने सङ्कीर्ण संज्ञा से अभिहित किया है। इसका सामान्य स्वरूप भामह के संसृष्टि अलङ्कार के स्वरूप से अभिन्न है। नाना अलङ्कारों के योग के स्वरूप को दण्डी ने अधिक स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया है। वे अलङ्कार या तो परस्पर अङ्गाङ्गिभाव से रह सकते हैं या परस्पर निरपेक्ष रूप से। इस प्रकार सङ्कीर्ण के दो भेद माने गये हैं। भामह अनेक अलङ्कारों के एकत्र सद्भाव की इन स्थितियों से अपरिचित नहीं थे। स्पष्ट है कि भामह की संसृष्टि-धारणा को ही दण्डी ने नामभेद से स्वीकार किया है। भाविक
दण्डी ने भामह की तरह भाविक को प्रबन्धगत गुण या प्रबन्धगत अलङ्कार कहा है, किन्तु उसके स्वरूप की कल्पना किञ्चित् भिन्न रूप से की है। इसका सम्बन्ध सम्पूर्ण प्रबन्ध में व्यक्त कवि के भाव से है। प्रबन्ध में आधिकारिक एवं प्रासङ्गिक कथावस्तुओं का परस्पर उपकारकारी होना, व्यर्थ विशेषणों का प्रयोग नहीं किया जाना, प्रकृत रस, भाव आदि के उपयुक्त विशेषणों का प्रयोग किया जाना और पद-विन्यास के सामर्थ्य से गूढ अर्थ का भी स्फुट रूप में वर्णन किया जाना—ये सब मिल कर भाविक अलङ्कार की स्वरूप-सिद्धि करते हैं।' भामह ने भी कथा की स्वभिनीतता तथा शब्द की अनाकुलता को भाविक का हेतु माना है ।२ स्पष्ट है कि प्रबन्ध काव्य की सफलता के लिए अपेक्षित सभी तत्त्वों को भाविक का अङ्ग मान लिया गया है। आधिकारिक एवं अवान्तर कथावस्तुओं में परस्परोपकारित्व के अभाव में प्रबन्ध का प्रभाव विखर जाता है। नाटक के वस्तु-संघटन में भी इस तत्त्व पर विचार किया गया है। व्यर्थ विशेषणों का प्रयोग दोष है। दण्डी ने उसका अभाव भाविक में आवश्यक माना है। भाव के पोषक विशेषणों के प्रयोग की धारणा भरत की उदारता गुण-धारणा से तथा गम्भीर अर्थ के स्फुटतया वर्णन की धारणा उनकी 'विचार-गहन किन्तु स्वभाव स्फुट' श्लेष गुण की धारणा से ली गई है। स्पष्ट है कि पूर्ववर्ती आचार्यों के गुण-लक्षण तथा प्रबन्ध-काव्य-लक्षण से तत्त्व ग्रहण कर दण्डी ने भाविक की रूप-रचना की है।
१. दण्डी, काव्याद०, २,३६४-६६ २. भामह, काव्यालं० ३, ५४
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६२] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
निष्कर्षतः दण्डी के अधिकांश अलङ्कारों का स्वरूप भामह के अलङ्कार के -स्वरूप के समान ही है। उनके भेदोपभेद भी बहुलांशतः भामह की धारणा के अनुरूप हैं। दण्डी ने जिन नवीन अलङ्कारों तथा उनके भेदोपभेदों की उद्भावना की है, उनमें से अधिकांश का मूल भामह की अलङ्कार-धारणा में तथा भरत की लक्षण, गुण, अलङ्कार आदि की धारणा में है। कुछ प्राचीन अलङ्कारों के सामान्य स्वरूप के सम्बन्ध में पूर्ववर्ती आचार्यों की मान्यता को ही दण्डी ने स्वीकार किया है; किन्तु उनके नवीन भेदोपभेदों की कल्पना कर ली है। इस भेद-कल्पना में कहीं-कहीं पूर्ववर्ती आचार्यों के अलङ्कार, लक्षण आदि के तत्त्वों का अवलम्ब लिया गया है। अतः उद्गम-स्रोत की दृष्टि से दण्डी के काव्यालङ्कारों के निम्नलिखित वर्ग माने जा सकते हैं
(क) पूर्वाचार्यों के अलङ्कारों से अभिन्न-इस वर्ग में यथासंख्य, प्रय, रसवत्, ऊर्जस्वी, पर्यायोक्त, निदर्शन, सहोक्ति आदि अलङ्कार आते हैं।
(ख) भामह की अलङ्कार-धारणा के आधार पर कल्पित नवीन अलङ्कारआवृत्ति दण्डी का नवीन अलङ्कार है। यह भामह की दीपक-धारणा के आधार पर कल्पित है।
(ग) भरत के अलङ्कारेतर तत्त्वों के आधार पर कल्पित-हेतु, सूक्ष्म एवं लेश भरत के विभिन्न लक्षणों से जीवन-रस ग्रहण कर उत्पन्न हैं। भाविक के स्वरूप-निर्माण में अनेक गुणों, तथा दोषाभाव आदि की धारणा ने योग दिया है।
(घ) पूर्ववर्ती आचार्य के द्वारा अस्वीकृत, किन्तु दण्डी के द्वारा स्वीकृतहेतु, सूक्ष्म तथा लेश के अलङ्कारत्व का भामह ने खण्डन किया था; किन्तु दण्डी ने उन्हें वाणी के उत्तम अलङ्कार के रूप में स्वीकार किया है। आशी: का अलङ्कारत्व भी भामह को अभिमत नहीं जान पड़ता; पर दण्डी ने उसका अलङ्कारत्व स्वीकार कर आशीष या शुभाशंसा के ही आधार पर उसके स्वरूप की कल्पना की है।
(ङ) अलङ्कार का सामान्य स्वरूप पूर्ववर्ती आचार्यों की धारणा के अनुरूप, किन्तु भेद नवीन-उपमा, रूपक, दीपक, आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, अपह्न ति, श्लिष्ट आदि अलङ्कारों के सामान्य स्वरूप के निर्धारण में दण्डी भामह से सहमत हैं ; किन्तु इन अलङ्कारों के अनेक भेदों की कल्पना उन्होंने कर ली है। उन भेदों के स्रोत के अन्वेषण-क्रम में हम देख चुके हैं कि कुछ अलङ्कारों के भेद अन्य अलङ्कारों के तत्त्वों के योग से निर्मित हैं, कुछ भेदों की
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ६३ कल्पना का आधार भरत की लक्षण-धारणा आदि है। कुछ भेद पूर्ववर्ती आचार्यों के अलङ्कार-भेदों के आधार पर भी कल्पित हैं। उदाहरणार्थसंशयोपमा, श्लेषोपमा, तुल्ययोगोपमा आदि उपमा-भेद; श्लिष्टरूपक, उपमार रूपक, रूपक-रूपक आदि रूपक-भेद तथा श्लिष्टाक्षेप, संशयाक्षेप, अर्थान्तराक्षेप आदि आक्षेप-भेद मूल अलङ्कार में तत्तदलङ्कारों के तत्त्वों के योग से कल्पित हैं। कुछ अलङ्कार-भेदों के स्वरूप की नूतन उद्भावना का श्रेय दण्डी को अवश्य मिलना चाहिए। यमक के श्लोकाभ्यास, उपमा के नियम, रूपक के विषम, श्लेष के नियामक आदि भेद की कल्पना में दण्डी की मौलिकता स्पष्ट है।
(च) भामह के स्वतन्त्र अलङ्कार अन्य अलङ्कार में या उसके भेद में अन्तभुक्त-भामह का अनुप्रास अपनी स्वतन्त्र सत्ता खोकर यमक में ही विलीन हो गया है। ससन्देह उपमा के एक भेद के रूप में तथा उपमा-रूपक रूपक के भेद के रूप में स्वीकार कर लिया गया है।
(छ) पूर्ववर्ती आचार्यों के अलङ्कार-लक्षण किञ्चित् भेद से स्वीकृतभाविक, परिवृत्ति, तुल्ययोगिता आदि अलङ्कार इस वर्ग में रखे जा सकते हैं। हम देख चुके हैं कि परिवृत्ति, तुल्ययोगिता आदि की कल्पना में भामह के मत को अंशतः स्वीकार करने पर भी दण्डी ने उन अलङ्कारों के स्वरूप में अपनी ओर से भी कुछ जोड़ा है। भाविक का स्वरूप भी भामह के भाविक से थोड़ा भिन्न है। इसकी कल्पना में भरत की गुण-धारणा का प्रभाव स्पष्ट है। ___ दण्डी ने स्वयं इस तथ्य को स्वीकार किया है कि अलङ्कार की विविधता की कल्पना का बीज पूर्ववर्ती आचार्यों की कृतियों में ही निहित है।' स्पष्ट है कि भरत के 'नाट्यशास्त्र' में उल्लिखित अलङ्कार, लक्षण आदि का जो स्वरूप भामह के 'काव्यालङ्कार' में विभिन्न अलङ्कार-प्रपञ्च के रूप में विकसित हुआ था, उसी को दण्डी के 'काव्यादर्श' में थोड़ा और विकास प्राप्त हुआ।
१. किन्तु बीजं विकल्पानां पूर्वाचार्यः प्रदर्शितम् । .. तदेव परिसंस्कत्तु मयमस्मत्परिश्रमः ॥-दण्डी, काव्यादर्श, २,२
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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
आचार्य उद्भट
अलङ्कार - शास्त्र के इतिहास में आचार्य उद्भट का महत्त्वपूर्ण स्थान है । उनका 'भामह विवरण' उपलब्ध नहीं, किन्तु अन्य ग्रन्थों में पाये जाने वाले निर्देश के आधार पर यह माना जा सकता है कि वह भामह के अलङ्कारसिद्धान्त का विवरण मात्र नहीं था, उसमें भामह की मान्यताओं का तटस्थविवेचन तथा नवीन सिद्धान्तों का युक्तिपूर्ण स्थापन भी हुआ था। भारतीयअलङ्कार-शास्त्र में उद्भट के मतानुयायियों की सुदीर्घ परम्परा रही है । आनन्दवर्द्धन, मम्मट आदि के ग्रन्थों में उद्भट के समर्थकों के विचारों का 'इत्यौद्भटायनः' आदि वाक्य खण्ड के द्वारा उल्लेख उद्भट की महत्ता का प्रमापक है। उद्भट ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के कुछ अलङ्कारों के स्वरूप को अधिक परिष्कृत रूप में प्रस्तुत किया है । उन्होंने भामह तथा दण्डी के कुछ अलङ्कारों की सत्ता अस्वीकार कर दी कुछ अलङ्कारों के नवीन भेदोपभेदों की कल्पना की तथा कुछ अलङ्कारों को नाम्ना स्वीकार कर उनके नूतन लक्षण की उद्भावना की। इतना ही नहीं, उन्होंने भामह तथा दण्डी के द्वारा अनिर्दिष्टपूर्वं स्वतन्त्र अलङ्कारों का भी उल्लेख किया है । उनके पूर्ववर्ती विचारकों में से भामह के अलङ्कार - सिद्धान्त ने उन्हें सर्वाधिक प्रभावित किया है । उन्होंने भामह की कुछ अलङ्कार - परिभाषाओं को यथारूप स्वीकार कर लिया है । उनके 'काव्यालङ्कारसा रसङग्रह' में विवेचित अलङ्कारों का क्रम भी भामह के 'काव्यालङ्कार' के अलङ्कार-क्रम से बहुलांशतः मिलता-जुलता है । प्रस्तुत सन्दर्भ में उद्भट के द्वारा कल्पित नवीन अलङ्कारों, प्राचीन अलङ्कारों के नवीन भेदोपभेदों तथा प्राचीन अलङ्कारों की नूतन परिभाषाओं के स्रोत - का अन्वेषण अभीष्ट है ।
*४ ]
उद्भट ने अपने 'काव्यालङ्कारसारसङग्रह' में निम्नलिखित इकतालीस अलङ्कारों का सविस्तर विवेचन किया है: - ( १ ) पुनरुक्तवदाभास, (२) छेका- नुप्रास, (३) अनुप्रास, (४) लाटानुप्रास, (५) रूपक, (६) दीपक, (७) उपमा, (5) प्रतिवस्तूपमा, ( 8 ) आक्षेप, (१०) अर्थान्तरन्यास, (११) व्यतिरेक, (१२) विभावना, (१३) समासोक्ति, (१४) अतिशयोक्ति, (१५) यथासंख्य, (१६) उत्प्र ेक्षा, (१७) स्वभावोक्ति, (१८) प्रय, (१६) रसवत्, ( २० ) ऊर्जस्वी,
१. द्रष्टव्य, काव्यालङ्कारसारसंग्रह, के० एस० रामस्वामी कृत प्रस्तावना पृ० २१
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ६५ (२१) पर्यायोक्त, (२२) समाहित, (२३) उदात्त, (२४) श्लिष्ट, (२५) अपह्न ुति, (२६) विशेषोक्ति, (२७) विरोध, ( २८ ) तुल्ययोगिता, (२९) अप्रस्तुतप्रशंसा, (३०) व्याजस्तुति, (३१) निदर्शना, (३२) सङ्कर, (३३) उपमेयोपमा, (३४) सहोक्ति, (३५) परिवृत्ति, (३६) ससन्देह, (३७) अनन्वय, (३८) संसृष्टि (३६) भाविक, (४०) काव्यलिङ्ग तथा ( ४१ ) दृष्टान्त । इनमें से काव्यलिङ्ग, छेकानुप्रास, दृष्टान्त, पुनरुक्तवदाभास तथा सङ्कर ; ये पाँच अलङ्कार नवीन हैं । सेठ कन्हैयालाल पोद्दार की मान्यता है कि उद्भट -ने छह नवीन अलङ्कारों की उद्भावना की है । वे उक्त पाँच अलङ्कारों के साथ 'लाटानुप्रास' को भी उद्भट की नवीन कल्पना मानते हैं । किन्तु उद्भट के पूर्व भामह के 'काव्यालङ्कार' में अनुप्रास - विवेचन-क्रम में इस अलङ्कार का उल्लेख हो चुका था । भामह ने लाटीय अनुप्रास के लक्षण का उल्लेख नहीं करने पर भी उसका उदाहरण देकर उसके स्वरूप के सम्बन्ध में अपनी मान्यता व्यक्त की है । उद्भट ने उसी के सलक्षण पाँच भेदों का स्पष्टरूप में विवेचन किया है । अतः इसे उद्भट की नवीन उद्भावना मानने का पक्ष सबल नहीं। पोद्दार जी ने यह स्वीकार किया है कि 'लाटानुप्रास' और 'छेकानुप्रास' ये दो अनुप्रास के भेद हैं । इस प्रकार उन्होंने इन दो अलङ्कारों की सम्भावना पूर्वाचार्यों की अनुप्रास-धारणा में ही स्वीकार कर ली है । इन दोनों को समान रूप से पूर्ववर्ती आचार्यों के अनुप्रास-लक्षण से समुद्भूत मान लेना भी मुझे उचित नहीं जान पड़ता । दोनों की स्थिति भिन्न है । छेकानुप्रास का उल्लेख सर्वप्रथम उद्भट के काव्यालङ्कार में ही हुआ है, जबकि लाटानुप्रास का उल्लेख उनसे पूर्व भामह कर चुके थे । अतः उक्त दो अलङ्कारों में छेकानुप्रास को ही उद्भट की नूतन सृष्टि मानना युक्तिसङ्गत जान पड़ता है । सङ्कर के स्वरूप का सङ्क ेत दण्डी के सङ्कीर्ण के एक भेद के रूप में मिल जाता है, किन्तु उसका नाम्ना उल्लेख सर्वप्रथम उद्भट ने ही किया है । अतएव उसे उद्भट के नवीन अलङ्कारों के वर्ग में रखा गया है ।
उद्भट ने भामह के उत्प्रेक्षावयव तथा उपमारूपक अलङ्कारों की सत्ता स्वीकार नहीं की है । दण्डी के आवृत्ति, लेश, सूक्ष्म तथा हेतु अलङ्कारों का भी उल्लेख उन्होंने नहीं किया है । यमक, भामह तथा दण्डी— दोनों आचार्यों
१. द्रष्टव्य – कन्हैयालाल पोद्दार, काव्यकल्पद्र ुम, द्वितीय भाग, अलङ्कार मञ्जरी का प्राक्कथन पृ० ङ
२. वही, पृ० ङ
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६६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण के द्वारा काव्यालङ्कार के रूप में स्वीकृत था; किन्तु उद्भट ने उसका नामोल्लेख भी नहीं किया है। भामह के उत्प्रेक्षावयव तथा उपमारूपक अलङ्कारों की पृथक् सत्ता का निषेध दण्डी ने ही कर दिया था। उद्भट दण्डी की इस मान्यता से सहमत जान पड़ते हैं। वस्तुतः उत्प्रेक्षावयव को उत्प्रेक्षा का तथा उपमारूपक को रूपक का भेद मानना ही समीचीन है। आचार्य दण्डी के द्वारा कल्पित आवृत्ति अलङ्कार को भी 'काव्यालङ्कार सार सङ ग्रह' में स्वीकृति नहीं मिली है। दण्डी की आवृत्ति-धारणा के परीक्षण-क्रम में हमने यह सिद्ध किया है कि दीपक अलङ्कार से पृथक् आवृत्ति की सत्ता की मान्यता तर्कपुष्ट नहीं है। हेतु, सूक्ष्म तथा लेश के अलङ्कारत्व का भामह ने खण्डन किया था। दण्डी ने उन्हें न केवल अलङ्कार के रूप में स्वीकृति दी, अपितु उन्हें वाणी के उत्तम आभूषण कहा। उद्भट ने हेतु, सूक्ष्म तथा लेश का विवेचन नहीं किया है। उद्भट के द्वारा यमक अलङ्कार का उल्लेख नहीं किये जाने का कारण अनुप्रास के साथ उसके स्वरूप का अतिशय साम्य ही जान पड़ता है। भामह ने अनुप्रास और यमक दोनों का पृथक्-पृथक् उल्लेख किया था, किन्तु दण्डी ने अलङ्कार के सन्दर्भ में केवल यमक के स्वरूप का विवेचन किया। उद्भट ने अनुप्रास अलङ्कार के स्वरूप का निरूपण किया है। सम्भव है कि अनुप्रास से पृथक् यमक का स्वरूप-विश्लेषण उन्होंने आवश्यक नहीं समझा हो।
'काव्यालङ्कारसारसङ ग्रह' में विवेचित काव्यालङ्कारों के पूर्वाचार्यों के अलङ्कारों से भेदाभेद की दृष्टि से निम्नलिखित वर्ग माने जा सकते है
(क) सर्वथा नवीन अलङ्कार-इस वर्ग में पुनरुक्तवदाभास, काव्यलिङ्ग तथा दृष्टान्त अलङ्कार आते हैं।
(ख) पूर्ववर्ती आलङ्कारिकों के अन्य नामधेय अलङ्कारों के आधार पर कल्पित नवीन अलङ्कार–सङ्कर और छेकानुप्रास इस वर्ग के अलङ्कार हैं। इन दो अलङ्कारों का नामोल्लेख सर्वप्रथम उद्भट की रचना में ही हुआ है ; किन्तु इनका स्वरूप अज्ञात-पूर्व नहीं था। सङ्कर के स्वरूप का सङ्कत दण्डी के सङ्कीर्ण अलङ्कार के अङ्गाङ्गिभाव भेद में स्पष्ट है । उद्भट के छेकानुप्रास-नामक नवीन अलङ्कार की उद्भावना का आधार भी पूर्ववर्ती आचार्यों की अनुप्रासधारणा. ही है।
(ग) उद्भट के द्वारा लक्षित-लक्षण पूर्वाचार्यों के अपरिभाषित अलङ्कारलाटानुप्रास अलङ्कार इस वर्ग में माना जा सकता है। भामह ने लाटीय
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[
का नामोल्लेख कर उसके उदाहरण से उसके स्वरूप के सम्बन्ध में अपनी धारणा व्यक्त की थी । उन्होंने उसका लक्षण नहीं दिया था । दण्डी ने उक्त अलङ्कार का उल्लेख भी नहीं किया । उद्भट ने उसका लक्षण देकर उसके पाँच भेदों का स्पष्ट विवेचन किया है ।
(घ) पूर्ववर्ती अलङ्कारों से नामतः अभिन्न, किन्तु स्वरूपतः भिन्न अलङ्कार — इस वर्ग में प्र ेय, रसवत्, ऊर्जस्वी, समाहित, तुल्ययोगिता, विशेषोक्ति, व्याजस्तुति, निदर्शना, परिवृत्ति तथा स्वभावोक्ति अलङ्कार आते हैं । इन अलङ्कारों का पुनः दो उपवर्गों में विभाजन सम्भव है - ( अ ) समान अभिधान वाले प्राचीन अलङ्कारों से सर्वथा भिन्न स्वरूप वाले अलङ्कार तथा ( आ ) उनसे किञ्चित् भिन्न स्वरूप वाले अलङ्कार । प्रय, ऊर्जस्वी, समाहित तथा तुल्ययोगिता प्रथम उपवर्ग में और शेष द्वितीय उपवर्ग में माने जायँगे ।
(ङ) प्राचीन अलङ्कारों के समान सामान्य स्वरूप के होने पर भी नवीन भेदोपभेदों से युक्त अलङ्कार - अर्थान्तरन्यास, उत्प्र ेक्षा, ससन्देह, अतिशयोक्ति, उपमा तथा व्यतिरेक इस वर्ग में परिगणित किये जा सकते हैं । इन अलङ्कारों के सामान्य लक्षण, भामह तथा दण्डी की धारणा के अनुरूप ही दिये गये हैं; किन्तु उनके कुछ नवीन भेदोपभेदों की कल्पना कर ली गयी है ।
(च) पूर्ववर्ती आचार्यों की अलङ्कार - परिभाषा के आधार पर परिभाषित, किन्तु अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट स्वरूप वाले अलङ्कार – पर्यायोक्त, उदात्त, श्लिष्ट, रूपक तथा दीपक अलङ्कारों को इस वर्ग में मानना उचित होगा । दीपक के तीन भेद भामह की धारणा के अनुरूप ही कल्पित हैं; पर दीपक के सामान्य स्वरूप को अधिक स्पष्ट करने का प्रयास उद्भट ने किया है । बनहट्टी ने उद्भट के रूपक - लक्षण को भामह के रूपक - लक्षण से सर्वथा स्वतन्त्र माना है । मुझे यह मत युक्तिसङ्गत नहीं जान पड़ता । एक वस्तु पर अन्य वस्तु के आरोप का तत्त्व दोनों आचार्यों के रूपक - लक्षण में समान रूप से है । हाँ, रूपक के स्वरूप के स्पष्टीकरण के लिए उद्भट श्रेय के भागी अवश्य हैं ।
१. His ( Udbhata's ) definitions of the alankara and the varieties must have been, however, of his own invention for he is not indebted to Bhamaha in that respect. - काव्यालङ्कारः सार-संग्रह पर बनहट्टी का Notes पृ० २५
७
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९८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
(छ) शब्द - भेद से पूर्ववर्ती आचार्यों की अलङ्कार - परिभाषा के आधार पर परिभाषित अलङ्कार - इस अलङ्कार - वर्ग में समासोक्ति, उपमेयोपमा, संसृष्टि तथा प्रतिवस्तूपमा अलङ्कारों की गणना की जा सकती है ।
(ज) पूर्ववर्ती आचार्यों के अलङ्कारों से अभिन्न अलङ्कार - उद्भट के अनेक अलङ्कार भामह के अलङ्कार से अभिन्न हैं । उन्होंने भामह की कुछ अलङ्कार- परिभाषाओं को ही अपनी पुस्तक में उद्धृत कर दिया है । इस वर्ग में उद्भट के निम्नलिखित अलङ्कार आते हैं- आक्षेप, विभावना, अतिशयोक्ति, यथासंख्य, अपह्न ुति, विरोध, अप्रस्तुतप्रशंसा, सहोक्ति, अनन्वय, तथा भाविक । भाविक अलङ्कार के सम्बन्ध में उद्भट की मान्यता में थोड़ी नवीनता यह है कि जहाँ भामह ने उसे प्रबन्धगत अलङ्कार ( गुण ) माना था वहाँ उद्भट ने उसे वाक्य का अलङ्कार स्वीकार किया । भाविक अलङ्कार का लक्षण भामह लक्षण से अभिन्न है । '
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पुनरुक्तत्रदाभास
प्रस्तुत अलङ्कार में अनेक पद समान अर्थ के बोधक-से जान पड़ते हैं । उनके अर्थ वस्तुतः भिन्न-भिन्न हुआ करते हैं; किन्तु आपाततः वे समानार्थक प्रतीत होते हैं । पदों की समानार्थकता के प्रतिभास के अनन्तर उनकी भिन्नार्थकता के तत्त्व-बोध में उक्ति का चमत्कार निहित रहता है । इस अलङ्कार की कल्पना उद्भट के पूर्व नहीं हुई थी । इसकी उद्भावना का श्रेय उद्भट को है ।
दृष्टान्त
अलङ्कार के क्षेत्र में दृष्टान्त की अवतारणा सर्वप्रथम उद्भट के 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' में ही हुई है; किन्तु इसका अस्तित्व अज्ञात - पूर्व नहीं है । भरत ने दृष्टान्त नामक लक्षण का स्वरूप विवेचन किया है । प्रस्तुत अलङ्कारं का स्वरूप भरत के दृष्टांन्त लक्षण के स्वरूप से मिलता-जुलता है । आचार्य भरत ने उक्त लक्षण में वर्ण्य अर्थ के निदर्शन के रूप में कल्पित अन्य
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१. तुलनीय - उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह, ६, १२ तथा
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भामह, काव्यालङ्कार, ३, ५३-५४
२. पुनरुक्तवदाभासमभिन्नवस्त्विवोद्भासिभिन्नरूपपदम् ।
—उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह, १, ३
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ee अर्थ के साथ उसका ( वर्ण्य का ) साम्य-प्रदर्शन वाञ्छनीय माना है ।" उद्भट के दृष्टान्त अलङ्कार में वर्ण्य अर्थ के प्रतिबिम्ब के रूप में अन्य अर्थ के वर्णन पर बल दिया गया है । २ दोनों आचार्यों की दृष्टान्त- कल्पना का उद्देश्य समान है । प्राकरणिक अर्थ से मिलते-जुलते अन्य अर्थ के वर्णन से उस ( प्राकरणिक ) अर्थ की प्रभाव-वृद्धि दोनों को अभिप्र ेत है । स्पष्ट है कि उद्भट की दृष्टान्त-अलङ्कार-धारणा भरत की दृष्टान्त-लक्षण - धारणा से भूरिशः प्रभावित है |
काव्यलिङ्ग
प्रस्तुत अलङ्कार की परिभाषा में कहा गया है कि जहाँ एक सुना हुआ अर्थ अन्य अर्थ की स्मृति या किसी वस्तु की अनुभूति का हेतु बनता हो वहाँ काव्यलिङ्ग अलङ्कार होता है । 3 इसे काव्यहेतु संज्ञा से भी अभिहित किया गया है । उद्भट के काव्यलिङ्ग का स्वरूप भरत के हेतु लक्षण के स्वरूप से मिलता-जुलता है । दण्डी ने हेतु को अलङ्कार माना था । उद्भट ने हेतु का उल्लेख नहीं कर काव्यलिङ्ग की कल्पना की । मम्मट आदि परवर्ती आचार्यों भी हेतु की जगह काव्यलिङ्ग को ही स्वीकार किया है ।
छेकानुप्रास
उद्भट ने ही सर्वप्रथम छेकानुप्रास अलङ्कार का उल्लेख किया । उन्होंने इसे अनुप्रास अलङ्कार के प्रकार के रूप में परिगणित नहीं कर स्वतन्त्र अलङ्कार स्वीकार किया है । उनके अनुसार एक-से स्वर- व्यञ्जन - समुदाय का एकत्र दो बार उच्चारण छेकानुप्रास है । " भामह ने अनुप्रास अलङ्कार
१. विद्वान् पूर्वोपलब्धौ यत्समत्वमुपपादयेत् । निदर्शनकृतस्तज्ज्ञैः स दृष्टान्त इति स्मृतः ॥
२. इष्टस्यार्थस्य विस्पष्टप्रतिबिम्ब निदर्शनम् । वादिपदैः शून्यं बुधैर्दृष्टान्त उच्यते ॥
- भरत, ना० शा० १६, २५
— उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह, ६, १६
-
३. श्रुतमेकं यदन्यत्र स्मृतेरनुभवस्य वा । तां प्रतिपद्यत काव्यलिङ गं तदुच्यते ।। वही, ६, ७ ४. तुलनीय, भरत, नाट्यशास्त्र, १६, १४ ५. छेकानुप्रासस्तु द्वयोर्द्वयोः सुसदशोक्तिकृतौ ।
- उद्भट, काव्यालं० सार सं० १,
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१०० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण में समान स्वरूप वाले वर्गों का विन्यास वाञ्छनीय माना था।' उद्भट के खेकानुप्रास की सम्भावना भामह की उक्त कल्पना में निहित थी। भरत के यमक के साथ भामह के अनुप्रास के सम्बन्ध का विवेचन किया जा चुका है । २ यह मानना असङ्गत नहीं होगा कि उद्भट से पूर्ववर्ती आचार्य छेकानुप्रास की वर्णयोजना-भङ्गी से सर्वथा अपरिचित नहीं थे। सङ्कर
प्रस्तुत अलङ्कार का नामोल्लेख 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' की रचना के पूर्व नहीं पाया जाता; किन्तु अभिधान नवीन होने पर भी इसका स्वरूप अज्ञातपूर्व नहीं था। उद्भट के पूर्व दण्डी ने अलङ्कारों के सङ्कीर्णत्व की चर्चा करते हुए उसके एक भेद में अनेक अलङ्कारों का अङ्गाङ्गिभाव से सद्भाव स्वीकार किया था। उद्भट का अनुग्राह्यानुग्राहक भाव सङ्कर दण्डी के उक्त संसृष्टिभेद से अभिन्न है। स्पष्ट है कि पूर्वाचार्यों की अलङ्कार-संसृष्टि के आधार पर सङ्कर अलङ्कार की कल्पना हुई है। मेरी मान्यता है कि ससृष्टि तथा सङ्कर को स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं मान कर अनेक अलङ्कारों के एकत्र सन्निवेश की विभिन्न अवस्थाएँ मानना अधिक युक्ति-सङ्गत है। आचार्य भरत ने विभूषण लक्षण में अनेक अलङ्कारों तथा गुणों के सामानाधिकरण्य की कल्पना की है।४ सङ्कर में अनेक अलङ्कार समान अधिकरण में रहते हैं। अतः सङ्कर एवं संसृष्टि की कल्पना का आधार भरत की विभूषण-धारणा को माना जा सकता है।
सङ्कर के अनुग्राह्यानुग्राहक भेद-जो दण्डी के अङ्गाङ्गिभाव सङ्कीर्ण से अभिन्न है—के अतिरिक्त तीन अन्य भेदों की भी कल्पना उद्भट ने की है। वे हैं-सन्देहसङ्कर, शब्दार्थवल्लङ्कार तथा एकशब्दाभिधान सङ्कर।५ सङ्कर के ये सभी भेद एक अधिकरण में अनेक अलङ्कारों के सद्भाव की मान्यता पर आधृत
१. सरूपवर्णविन्यासमनुप्रासं प्रचक्षते ।-भामह, काव्यालं० २, ५ २. द्रष्टव्य-प्रस्तुत ग्रन्थ पृ० ३३ ३. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्याद० २, ३६० ४. अलङ्कारैगुणश्चैव बहुभिर्यदलङ कृतम् । भूषणरिव विन्यस्तैस्तद्भ षणमिति स्मृतम् ।
-भरत, ना० शा० १६,५ ५. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं० ५, ११-१३ ।
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १०१
हैं । सन्देह-सङ्कर वहाँ माना जाता है जहाँ एकाधिक अलङ्कार की एकत्र सत्ता जान पड़ती है; किन्तु एककालावच्छेदेन उनकी एकत्र स्थिति सम्भव नही होती, फिर भी उन प्रतिभासित होने वाले अनेक अलङ्कारों में से किसी एक को स्वीकार करने तथा दूसरे को अस्वीकार करने का कोई सबल आधार नहीं मिल पाता।' शब्दार्थवर्त्यलङ्कार में शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार परस्पर निरपेक्ष होकर एक वाक्य या एक श्लोक में रहा करते हैं। अलङ्कारों के परस्पर अपेक्षा-रहित सद्भाव की कल्पना दण्डी ने संसृष्टि के एक भेद में की थी। उद्भट ने अनेक शब्दालङ्कारों तथा अनेक अर्थालङ्कारों के एक अधिकरण में परस्पर स्वतन्त्र सद्भाव को संसृष्टि माना है;3 किन्तु शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार के एकत्र अन्योन्यनिरपेक्ष सद्भाव में सङ्कर के प्रस्तुत भेद की कल्पना कर ली है। संसृष्टि से पृथक् सङ्कर के इस भेद की कल्पना आवश्यक नहीं थी। परस्पर निरपेक्ष-भाव से एकत्र अनेक शब्दालङ्कार रहें या अनेक अर्थालङ्कार अथवा कुछ शब्दालङ्कार और कुछ अर्थालङ्कार, अलङ्कार के स्वभाव में कोई अन्तर नहीं पड़ता। परवर्ती रुय्यक आदि आलङ्कारिकों की रचना में सङ्कर का उक्त भेद संसृष्टि में ही अन्तर्भुक्त हो गया है। अलङ्कारों की संसृष्टि ( समान अधिकरण में परस्पर-निरपेक्ष सद्भाव ) तीन रूपों में सम्भव है-(क) अनेक शब्दालङ्कारों की संसृष्टि, (ख) अनेक अर्थालङ्कारों की संसृष्टि तथा (ग) शब्दालङ्कार एवं अर्थालङ्कार की संसृष्टि । ___ एकशब्दाभिधान सङ्कर-भेद की कल्पना कर उद्भट ने यह मान्यता व्यक्त की है कि जहाँ एक शब्द या एक वाक्यांश में अनेक अलङ्कारों का सद्भाव हो वहाँ सङ्कर का उक्त भेद माना जाता है।५ वाक्यगत सङ्कर के आधार पर ही इस वाक्यांशगत सङ्कर की कल्पना की गयी है। स्पष्ट है कि भामह तथा
१. अनेकालंक्रियोल्लेखे समं तवृत्यसंभवे । एकस्य च ग्रहे न्यायदोषाभावे च संकरः ॥
-उद्भट, काव्यालङ्कार सार संग्रह, ५, ११ २. शब्दार्थवर्त्यलंकारा वाक्य एकत्र भासिनः । संकरो वा......
-वही, ५, १२ ३. अलङ कृतीनां बहीनां द्वयोर्वापि समाश्रयः ।
एकत्र निरपेक्षाणां मिथः संसृष्टिरुच्यते ॥-बही, ६, ५ ४. तिलतण्डुलन्यायेन मिश्रत्वे संसृष्टिः।---रुय्यक, अलङ्कार सर्वस्व, ८४ ५. एकवाक्यांशप्रघनाद्वाभिधीयते। उद्भट, काव्यालं. सार सं० ५, १२
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१०२] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण दण्डी की अलङ्कार-संसृष्टि-धारणा के आधार पर उद्भट ने चार प्रकार के सङ्कर की कल्पना कर ली है। भामह ने अनेक अलङ्कारों की संसृष्टि का सङ्कत दिया था। दण्डी ने अलङ्कारों के परस्पर सापेक्ष तथा निरपेक्ष-सद्भाव की कल्पना कर सङ्कर तथा संसृष्टि अलङ्कारों के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना का मार्ग प्रशस्त कर दिया था। उद्भट ने सङ्कर के चार भेदों की कल्पना कर ली। उद्भट के उक्त चार सङ्कर-भेदों से लक्षित होने वाले लक्ष्य तक भामह तथा दण्डी के संसृष्टि-लक्षण की व्याप्ति असन्दिग्ध है। दण्डी के सङ्कीर्णलक्षण के आधार पर सङ्कर तथा संसृष्टि अलङ्कारों के पृथक्-पृथक् स्वरूप के विवेचन में उद्भट का श्रेय है। लाटानुप्रास
उद्भट के पूर्ववर्ती आचार्य भामह ने अनुप्रास अलङ्कार का विवेचन करते हुए उसके लाटीय भेद के अस्तित्व का सङ्केत दिया था। उन्होंने उक्त अनुप्रास-भेद का लक्षण नहीं दिया है। एक उदाहरण देकर उसके स्वरूप का परिचय दिया गया है। उदाहरण में 'दृष्टि-दृष्टि' तथा 'चन्द्रश्चन्द्र' का उल्लेख कर स्वर-व्यञ्जन-समुदाय की आवृत्ति में लाटीय अनुप्रास माना गया है। लाट प्रदेश के कवियों का प्रिय होने के कारण ही सम्भवतः इसे लाटीय कहा गया है। उद्भट की लाटानुप्रास-अलङ्कार-धारणा भामह की उक्त धारणा से भिन्न नहीं। उन्होंने ( उद्भट ने ) लाटानुप्रास के लक्षण में कहा है कि जहाँ समान शब्द या पद की आवृत्ति होती हो, उन पदों के स्वरूप एवं अभिधेय अर्थ के अभिन्न होने पर भी उनका तात्पर्यार्थ भिन्न हो, वहाँ लाटानुप्रास अलङ्कार होता है। भामह के लाटीय अनुप्रास के उक्त उदाहरण में यह स्पष्ट है कि दृष्टि और चन्द्र शब्दों की आवृत्ति हुई है । दानों दृष्टि पदों एवं चन्द्रपदों का वाच्य अर्थ अभिन्न, किन्तु तात्पर्यार्थ भिन्न है। निष्कर्षतः लाटीय अनुप्रासविषयक भामह की मान्यता को ही उद्भट ने लक्षण-बद्ध किया है। यह उद्भट की मौलिक उद्भावना नहीं। भामह की धारणा को परिभाषित कर उद्भट
१. लाटीयमप्यनुप्रासमिहेच्छन्त्यपरे यथा। भामह, काव्यालं० २, ८ २. दृष्टि दृष्टिसुखां धेहि चन्द्रश्चन्द्रमुखोदितः । -वही, २, ८ ३. स्वरूपार्थाविशेषेऽपि पुनरुक्तिः फलान्तरात् । शब्दानां वा पदानां वा लाटानुप्रास इष्यते ॥
. :-उद्भट, काव्यालं. सार सं० १.८
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १०३
ने शब्द या पद की आवृत्ति की विभिन्न अवस्थाओं के आधार पर लाटानुप्रास के पाँच भेदों की कल्पना की है।
प्रेय ... प्रेय अलङ्कार का नाम नवीन नहीं है किन्तु 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' में विवेचित उसका स्वरूप नवीन है। उद्भट के पूर्ववर्ती आचार्य प्रिय कथन में प्रेय अलङ्कार मानते थे।' उद्भट ने उसका सम्बन्ध स्थायी भाव, व्यभिचारी भाव, सात्त्विक भाव तथा अनुभाव आदि से जोड़ दिया। इस प्रकार उनके अनुसार जिस काव्य में अनुभावों के माध्यम से रति आदि भावों की सूचना मिलती हो उसमें प्रेय का सद्भाव माना जायगा।२ अनुभाव से रति आदि भावों के सूचन की धारणा नवीन नहीं। आचार्य भरत ने 'नाट्यशास्त्र' में रस-बोध की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए अनुभाव, स्थायीभाव, व्यभिचारीभाव आदि का सविस्तर विवेचन किया है। अनुभाव हृद्गत रति आदि भाव के सूचक स्वीकार किये गये हैं। विभाव, अनुभाव तथा सञ्चारी भाव से पुष्ट होने पर स्थायी भाव रस के रूप में परिणत होते हैं । 3 जहाँ कुछ कारणों से रस में भाव की परिणति सम्भव नहीं होती उसे रसमय काव्य नहीं कह कर भाव-प्रधान काव्य ही कहते हैं। उदाहरणार्थ-श्रेष्ठ व्यक्तियों की रति के वर्णन के समय आश्रय एवं आलम्बन के प्रति भावक के चित्त का पूज्य-भाव उसके रसात्मक परिणाम में बाधक हो जाता है। फलतः पूज्य व्यक्ति के प्रति अन्तर का रति-भाव ( भक्ति-भाव ) रस-दशा तक नहीं पहुँच कर भाव-दशा में ही रह जाता है। उद्भट ने ऐसे भाव-युक्त काव्य को ही प्रेयस्वत् माना है। पुष्ट रति आदि की रस-दशा पर उद्भट ने रसवत् अलङ्कार में विचार किया है। रसवत् से प्रेयस्वत् का भेद स्पष्ट करने के लिए विवृतिकार ने रति शब्द से देवता, गुरु तथा राजा आदि पूज्य व्यक्तियों
- १. द्रष्टव्य-भामह, काव्यालं० ३, ५ तथा दण्डी, काव्याद० २, २७५ । ...... २. रत्यादिकानां भावानामनुभावादिसूचनैः। यत्काव्यं बध्यते सद्भिस्तत्प्रेयस्वदुदाहृतम् ।
-उद्भट, काव्यालं. सार सं० ४, २ ३. विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः । .... .
-भरत, ना० शा०, ६, पृ० २७२
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१०४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण की रति का ही अर्थ ग्रहण किया है।' स्पष्ट है कि उद्भट ने भामह तथा दण्डी से प्रेय का अभिधान लेकर भरत की भाव-धारणा के आधार पर उसके स्वरूप की कल्पना कर ली।
रसवत्
उद्भट की रसवत्-अलङ्कार-धारणा दण्डी की रसवत्-धारणा से अभिन्न है। दण्डी की तरह वे भी रसमय काव्य में रसवत् अलङ्कार मानते हैं।' ऊर्जस्वी
प्रस्तुत अलङ्कार को उद्भट ने रसाभास और भावाभास से सम्बद्ध कर दिया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि रसाभास तथा भावाभास की कल्पना भरत से ही ली गई है। हाँ, उसे अलङ्कार मानना तथा उसके आधार पर पूर्ववर्ती आचार्यों के भिन्न स्वभाव वाले ऊर्जस्वी के स्वरूप की कल्पना कर लेना उद्भट की नवीनता है। उद्भट के ऊर्जस्वी की स्वरूप-कल्पना नवीन तो नहीं ही मानी जा सकती; उसका औचित्य भी असंदिग्ध नहीं। समाहित
समाहित का सम्बन्ध उद्भट ने रस, भाव, रसाभास या भावाभास की शान्ति से माना है। भरत के 'नाट्यशास्त्र' में रस-भाव आदि की शान्ति पर विचार किया गया है; किन्तु अलङ्कार से भिन्न प्रसङ्ग में। उद्भट ने उसे अलङ्कार बना दिया है।
इस प्रकार उद्भट के प्रेय, रसवत्, ऊर्जस्वी तथा समाहित अलङ्कार क्रमशः भाव, रस, रसाभास या भावाभास तथा रस-भाव आदि की शान्ति से सम्बद्ध हैं। उनके अभिधान या स्वरूप नवीन नहीं। भरत रस, भाव उनके आभास तथा उनकी शान्ति आदि से पूर्णतः परिचित थे; किन्तु वे उन्हें अलङ्कार नहीं मानते थे, अलङ्कार से अधिक महत्त्वपूर्ण काव्य का अन्तरङ्ग तत्त्व मानते थे। उद्भट के उक्त चार अलङ्कारों के स्वरूप-विवेचन से स्पष्ट
१. रतिरिह देवगुरुनृपादिविषया गृह्यते । कान्ताविषयायास्तु रतेः सूचने
रसवदलयारो वक्ष्यते।-काव्यालं० सार सं०, विवृति, पृ० ३२ २. द्रष्टव्य-काव्यालं. सार सं०,४, ४-५ तथा
दण्डी, काव्यादर्श २, २७५
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १०५
है कि न केवल 'नाट्यशास्त्र' के लक्षण, गुण तथा अलङ्कार ने उत्तरकाल में अलङ्कार की संख्या-वृद्धि में योग दिया वरन् उसकी रस-भाव आदि की धारणा के आधार पर भी अनेक अलङ्कारों की सृष्टि हुई।
तुल्ययोगिता
उद्भट ने भामह तथा दण्डी के तुल्ययोगिता-लक्षण को अस्वीकार कर उसके नवीन स्वरूप की कल्पना की है। उनके अनुसार दो अप्रस्तुत पदार्थों अथवा दो प्रस्तुत पदार्थों में जहाँ समता का वर्णन होता है वहाँ तुल्ययोगितानामक अलङ्कार होता है। इसमें वर्णित वस्तुओं में परस्पर उपमानोपमेय 'भाव-सम्बन्ध नहीं रहा करता। भरत ने सिद्धि-लक्षण में अनेक प्रसिद्ध वस्तुओं के बीच साधारण्य की सिद्धि के लिए किसी अप्रसिद्ध वस्तु का वर्णन वाञ्छनीय माना है। इस लक्षण में वर्णित वस्तुओं में उपमानोपमेय-भाव नहीं रहता, केवल उनकी समता की सिद्धि होती है। तुल्ययोगिता अलङ्कार की कल्पना का मूल-स्रोत उक्त लक्षण को माना जा सकता है। अभिनवगुप्त ने सिद्धि से ही तुल्ययोगिता का उद्भव स्वीकार किया है ।
विशेषाक्ति ___ फलोत्पत्ति के हेतु के रहने पर भी फल की अनुत्पत्ति के वर्णन से जहाँ उक्ति में वैशिष्टय आता है, ऐसे स्थल में उद्भट ने विशेषोक्ति अलङ्कार का सद्भाव माना है। कारण के उक्त तथा अनुक्त होने के आधार पर उसके दो भेद स्वीकार किये गये हैं। विशेषोक्ति का यह लक्षण भामह तथा दण्डी के लक्षण से भिन्न तथा अधिक परिष्कृत है। भामह ने विशेषोक्ति का जो उदाहरण दिया है उसमें शम्भु के द्वारा कामदेव के शरीर के विनष्ट किये जाने से उसके बलापहरण के अविकल हेतु के होने पर भी बलापहरण-रूप कार्य
१. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, ५, ११ २. बहूनां च प्रधानानां मध्ये यन्नाम कीर्त्यते । एकार्थसाधनकृतं सा सिद्धिरिति कीर्तिता ।।
....-भस्त, ना. शा०, १६, १७ ... ३. द्रष्टव्य-उद्भर, काव्यालं० सार० सं०, ५, ५-६
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१०६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
की अनुत्पत्ति दिखाई गई है ।' भरत ने यद्यपि हेतु के सद्भाव में कार्य के अभाव की उक्ति के चमत्कार पर विचार नहीं किया है, तथापि इसका सङ्कत उनकी क्षमा लक्षण-परिभाषा में उपलभ्य है। क्रोध के हेतु के होने पर भी अक्रोध की दशा में उन्होंने क्षमा नामक लक्षण स्वीकार किया है ।२ भरत के उक्त लक्षण तथा भामह के विशेषोक्ति अलङ्कार के उदाहरण से उद्भट को विशेषोक्ति के उक्त स्वरूप की कल्पना की प्रेरणा मिली होगी।
व्याजस्तुति __जिस उक्ति में आपाततः किसी की निन्दा-सी जान पड़े किन्तु वस्तुतः उसमें उसकी स्तुति निहित हो वहाँ उद्भट ने व्याजस्तुति अलङ्कार माना है । इसमें प्रातिभासिक निन्दा शाब्द तथा वास्तविक स्तुति आर्थ होती है। प्रस्तुत अलङ्कार के सदृश स्वरूप की कल्पना नाट्याचार्य भरत ने कार्य-लक्षण के स्वरूप-विवेचन के क्रम में की थी। उन्होंने कार्य के दो भेदों की कल्पना की। एक में दोष का शब्दतः कथन कर उसमें अर्थतः गुण की योजना की जाती है और दूसरे में इसके विपरीत गुण-कथन में दोष की व्यञ्जना होती है। कार्य के प्रथम भेद से उद्भट की व्याजस्तुति की प्रकृति अभिन्न है।
१. स एकस्त्रीणि जयति जगन्ति कुसुमायुधः । हरतापि तनु यस्य शम्भुना न हृतं बलम् ॥
–भामह, काव्यालं० ३,२४. २. अक्रोधः क्रोधजननक्यिर्यः सा क्षमा भवेत् ।।
-भरत, ना० शा०, १६,३१ ३. शब्दशक्तिस्वभावेन यत्र निन्दैव गम्यते । वस्तुतस्तु स्तुतिश्चेष्टा व्याजस्तुतिरसौ मता ॥
-उद्भट, काव्यलं० सार सं०, ५, १६ ४. यत्र संकीर्तयन् दोषं गुणमर्थेन योजयेत् । (यत्र-संकीर्तयन् दोषं, यत्र संकीयं दोषांस्तु तथा यत्रापसारयन्दोषं
पाठभेद उपलब्ध हैं।) . गुणाभिवादं दोषाद्वा कार्य तल्लक्षणं विदुः ॥ .....
-भरत ना० शा० १६,३७
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[१०७
निदर्शना
जहाँ दो वस्तुओं का पारस्परिक सम्बन्ध उपपन्न नहीं होने पर उनमें उपमानोपमेय भाव की कल्पना से उपपत्ति सिद्ध हो वहां निदर्शना या विदर्शना नामक अलङ्कार उद्भट ने माना है। इसके दो भेद सम्भव हैं—(क) जहाँ वस्तुओं का मुख्य सम्बन्ध असम्भव हो तथा (ख) जहाँ वह सम्बन्ध सम्भव हो।' स्पष्टतः उद्भट ने भामह, आदि पूर्ववर्ती आचार्यों की निदर्शना-धारणा को अस्वीकार कर उसकी नवीन परिभाषा की कल्पना की है। उद्भट की रचना में निदर्शना के स्थान पर कहां-कहीं विदर्शना पाठ भी पाया जाता है । प्रतिहारेन्दुराज ने, 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' के विवरण में विदर्शना पाठ मान कर उसकी अन्वर्था संज्ञा सिद्ध करने के लिए यह मान्यता व्यक्त की है कि चूकि इसमें उपमानोपमेय भाव-रूप विशिष्ट अर्थ के दर्शन होते हैं, इसलिए इसे विदर्शना कहा गया है। २ तिलक की विवृति में निदर्शना पाठ ही स्वीकृत है। मेरी सम्मति में प्रस्तुत अलङ्कार के व्यपदेश को भामह आदि के द्वारा अनिर्दिष्ट तथा उद्भट के द्वारा उद्भावित मानना युक्तिसंगत नहीं। भामह की निदर्शना संज्ञा ही कुछ परिवर्तन से विदर्शना के रूप में भी व्यवहृत हो गयी होगी। अतः प्रस्तुत अलङ्कार का स्वरूप-मात्र नवीन है, अभिधान प्राचीन । निदर्शना की रूपरचना में भरत के युक्ति-लक्षण तथा उपमा अलङ्कार के विधायक तत्त्वों का योगदान है। भरत ने युक्ति लक्षण की परिभाषा में कहा है कि इसमें उत्कृष्ट वस्तु के साथ परस्पर अनुकूलता से उपलक्षित समवाय से अन्य वस्तु का सम्बन्ध सिद्ध किया जाता है।४ निदर्शना अलङ्कार में वस्तुओं का सम्बन्ध उनमें उपमानोपमेय भाव की कल्पना से सिद्ध किया जाता है।
१. अभवन्वस्तुसम्बन्धो भवन्वा यत्र कल्पयेत् । उपमानोपमेयत्वं कथ्यते सा निदर्शना ॥
-उद्भट, काव्यालं० सा० सं० ५, १८: २. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह ।
-५,१८ पर प्रतिहारेन्दु का विवरण ।' ३. द्रष्टव्य-काव्यालं० सार सं०, विवृति, पृ० ४५ । ४. साध्यते योऽर्थसंबन्धो महद्भिः समवायतः । परस्परानुकूल्येन सा युक्तिः परिकीर्तिता ॥
-भरत, ना० शा०, १६, ३६.
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'१०८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
इस प्रकार निदर्शना के स्वरूप-विधान में वस्तुओं के सम्बन्ध-साधन का तत्त्व - युक्ति लक्षण से तथा उपमानोपमेय-भाव का तत्त्व उपमा अलङ्कार से लिया गया है।
'परिवृत्ति
उद्भट के परिवृत्ति अलङ्कार का स्वरूप दण्डी की परिवृत्ति के स्वरूप से मिलता-जुलता ही है। जहाँ समान वस्तुओं का पारस्परिक परिवर्तन वर्णित हो, न्यून वस्तु से अधिक वस्तु का परिवर्तन वणित हो अथवा उत्तम वस्तु से हीन वस्तु के परिवर्तन का उल्लेख हो वहाँ उद्भट के अनुसार परिवृत्ति अलङ्कार होता है।' स्वभावोक्ति
क्रिया-लग्न मृग-शिशु आदि की चेष्टा के वर्णन में उद्भट ने स्वभावोक्ति अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार किया है ।२ स्वभावोक्ति के लिए केवल वस्तुस्वभाव का कथन पर्याप्त नहीं है। उद्भट की स्वभावोक्ति अलङ्कार-धारणा आचार्य भरत की अर्थव्यक्ति-गुण-धारणा से मिलती-जुलती है। भरत ने प्रसिद्ध अर्थ वाली धातु से लोक की स्वाभाविक क्रिया का वर्णन अर्थव्यक्ति में वाञ्छनीय माना है। उत्तर काल में भी स्वभावोक्ति अलङ्कार और अर्थव्यक्ति गुण की
पृथक्-पृथक् सत्ता की कल्पना होती रही है; किन्तु उनका स्वरूप इतना - मिलता-जुलता है कि दोनों के बीच बहुत सूक्ष्म विभाजक रेखा ही खींची जा सकती है। इस विषय पर हमने अपने ग्रन्थ 'काव्य-गुणों का शास्त्रीय विवेचन' में विचार किया है। दोनों के स्वरूप-गत साम्य को दृष्टि में रखते हुए १. समन्यूनविशिष्टस्तु कस्यचित् परिवर्तनम् । अर्थानर्थस्वभावं यत् परिवृत्तिरभाणि सा॥
-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, ५,३१ २. क्रियायां संप्रवृत्तस्य हेवाकानां निबन्धनम् ।
कस्यचिन्मृगडिम्भादेः स्वभावोक्तिरुदाहृता ।। -वही, ३, ८ ३. सुप्रसिद्धाभिधाना तु लोककर्मव्यवस्थिता। या क्रिया क्रियते काव्ये सार्थव्यक्तिः प्रकीर्त्यते ॥
-भरत, ना० शा० १६, १०६ ४. द्रष्टव्य-लेखक की पुस्तक 'काव्य-गुणों का शास्त्रीय विवेचन'
अध्याय २
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अलङ्कार-धारणा का विकास
.
[ १०९:
स्वभावोक्ति अलङ्कार-धारणा का उत्स पूर्वाचार्य की स्वभावोक्ति-धारणा को माना जा सकता है। भरत को अर्थव्यक्ति गुण से पृथक् स्वभावोक्ति अलङ्कारकी कल्पना आवश्यक नहीं जान पड़ी होगी।
निष्कर्षतः पूर्ववर्ती आचार्यों के जिन अलङ्कारों के अभिधान स्वीकार कर उनके नवीन स्वरूप का विधान उद्भट ने किया है उनमें से अधिकांश का उद्गम-स्रोत भरत की लक्षण, गुण एवं अलङ्कार-धारणा में पाया जा सकता है। अर्थान्तरन्यास
उद्भट के अर्थान्तरन्यास का सामान्य स्वरूप भामह तथा दण्डी के अर्थान्तरन्यास से अभिन्न है', किन्तु जहाँ भामह और दण्डी ने उसके एक ही रूप का विवेचन किया था वहाँ उद्भट ने उसके चार भेदों की कल्पना कर ली। ये भेद समर्थ्य एवं समर्थक वाक्य के पौर्वापर्य तथा समर्थक 'हि' शब्द के उक्त तथा अनुक्त होने के आधार पर कल्पित हैं । इस भेद-कल्पना से अर्थान्तर- . न्यास के सम्बन्ध में मूल-धारणा में कोई अन्तर नहीं पड़ता। उत्प्रक्षा
उद्भट का सामान्य उत्प्रेक्षा-लक्षण भामह के लक्षण से अभिन्न है। उद्भट ने भामह के लक्षण-श्लोक को ही अंशतः उद्धृत कर दिया है । २ उन्होंने भाव तथा अभाव की सम्भावना के आधार पर उत्प्रेक्षा के दो भेद माने हैं। ससन्देह ___ ससन्देह अलङ्कार का सामान्य लक्षण उद्भट ने भामह के 'काव्यालङ्कार' से ही लिया है। उन्होंने उसके एक नवीन भेद की कल्पना की है। इस नवीन भेद को कारिका में सन्देह कहा गया है ( ससन्देह नहीं )। विवृतिकार १. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं० २, ६, भामह, काव्यालं० २,.
७१-७३ तथा दण्डी, काव्याद० २, १६६ २. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं० ३, ४-५ तथा भामह,
काव्यालं० २, ६१ ३. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, ६, २ तथा भामह, काव्यालं०
३, ४३.
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११० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
ने ससन्देह और सन्देह में अभेद माना है।' उद्भट के अनुसार जिस रचना में तात्त्विक सन्देह के अभाव-स्थल में भी, अन्य किसी अलङ्कार के सौन्दर्य की “सृष्टि के लिए, प्रत्यक्ष रूप में सन्देह का वर्णन होता है वहाँ ससन्देह का यह भेद माना जाता है।२ इसमें किसी वस्तु के सम्बन्ध में कवि के मन में कोई “सन्देह नहीं रहता। वह किसी वस्तु के सम्बन्ध में अन्य लोगों के सन्देह की सम्भावना कर लिया करता है। ससन्देह के प्रथम भेद में कवि किसी वस्तु से अन्य वस्तु के सादृश्या तिशय के कारण अपने मन में होने वाले सन्देह का वर्णन करता है। वस्तुतः ससन्देह के उक्त दोनों रूपों में वर्णन की भङ्गिमा का ही भेद है। कवि की स्थिति की दृष्टि से विचार करने पर दोनों में कोई तात्त्विक भेद नहीं जान पड़ता। वस्तु-वर्णन के समय वस्तु के सम्बन्ध में कवि के मन की संशयात्मक दशा नहीं रहा करती। दो वस्तुओं के सादृश्याधिक्य की व्यञ्जना के लिए सन्देह की कल्पना कर ली जाती है। स्पष्ट है कि उक्त दोनों ससन्देह-भेदों में सन्देह कवि-कल्पना-प्रसूत ही होता है। अतिशयोक्ति
उद्भट ने भामह की अतिशयोक्ति-परिभाषा को अक्षरशः स्वीकार कर लिया है। उन्होंने उसके चार भेदों का उल्लेख किया है। भामह तथा दण्डी • ने अतिशयोक्ति के एक ही रूप का विवेचन किया था । उद्भट की अतिशयोक्ति के चार प्रकार निम्नलिखित हैं
(क) भेद में अभेदकथन, (ख) अभेद में नानात्व-कल्पना, (ग) सम्भाव्यमानार्थनिबन्धन अर्थात् कल्पित वस्तु का वर्णन तथा (घ) कार्य की शीघ्रता के सूचन के लिए कारण के पूर्व ही कार्य का वर्णन ।४ अतिशयोक्ति का सामान्य
१. अस्य चालङ्कारस्य ससन्देहसन्देहशब्दाभ्यां द्वाभ्यामप्यभिधानमित्यु__ पदेशलक्षणयोर्न विरोधः । -काव्यालं०, सार सं०, विवृति, पृ० ५० २. असन्देहेऽपि सन्देहरूपं सन्देहनाम तत् ।
-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, ६, ५ ३. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, २, २३ तथा भामह,
काव्यालं० २,८१ ४. भेदे नान्यत्वमन्यत्र, नानात्वं यत्र बध्यते ।
तथा सम्भाव्यमानार्थनिबन्धेऽतिशयोक्तिगीः ।। कार्यकारणयोर्यत्र पौर्वापर्यविपर्ययात् । आशुभावं समालम्ब्य बध्यते सोऽपि पूर्ववत् ॥
-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, २, २४-२५
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १११
लक्षण भामह से लेने पर भी उसके उक्त चार भेदों के स्पष्ट विवेचन के लिए उद्भट श्रेय के अधिकारी हैं ।
उपमा
उपमा अलङ्कार के सामान्य स्वरूप की कल्पना में उद्भट पूर्ववर्ती आचार्यों से सहमत हैं।' भामह ने जहाँ उपमान और उपमेय का साम्य उपमा का लक्षण माना था, वहाँ उद्भट ने साधर्म्य शब्द का प्रयोग किया। साधर्म्य का अर्थ साम्य से भिन्न नहीं। भरत ने इसके स्थान पर सादृश्य शब्द का प्रयोग किया था। भामह के उपमा-लक्षण में प्रयुक्त 'देशकालक्रियादिभिविरुद्धन' के आधार पर ही उद्भट ने अपनी उपमा-परिभाषा में “मियोविभिन्नकालादिशब्दयोः' का प्रयोग किया है। उद्भट ने साधर्म्य के साथ 'चेतोहारी' विशेषण का प्रयोग किया है। भामह आदि पूर्ववर्ती आचार्यों ने उक्त विशेषण का प्रयोग नहीं किया था। उसका प्रयोग आवश्यक भी नहीं था। काव्यालङ्कार के मूल में ही चित्ताकर्षक होने की धारणा निहित है। 'जिस सादृश्य में मनोज्ञता नहीं होगी उसे कोई अलङ्कार ही नहीं मानेगा। स्पष्ट है कि उपमा के सामान्य स्वरूप के सम्बन्ध में पूर्ववर्ती आचार्यों की धारणा को ही उद्भट ने शब्द-भेद से उपस्थित किया है।
उपमा अलङ्कार के अनेक भेदों की कल्पना उद्भट ने की है। उपमा के प्रकार-प्रतिपादक कारिका की व्याख्या दो प्रकार से की गई है। इन्दुराज ने उसकी व्याख्या कर उपमा के सत्रह भेद निर्णीत किये; किन्तु विवृतिकार तिलक ने उसी कारिका के आधार पर इक्कीस उपमा-भेद स्वीकार किये हैं। उपमा के अनेक भेदों की कल्पना आरम्भ से ही होती रही है। आदि आचार्य भरत ने उपमान तथा उपमेय के संख्या-भेद के आधार पर उपमा के चार भेदों तथा शरीरगत भेद के आधार पर उसके पाँच मुख्य भेदों का उल्लेख कर लोक और काव्य में प्रयुक्त होने वाले उसके अन्य भेदों की ओर भी इङ्गित किया था। भामह ने उसके तीन प्रमुख भेदों का विवेचन कर उसके अन्य भेदों की भी सम्भावना स्वीकार की। दण्डी ने उसके बहुत-से भेदों का स्वरूप-विवेचन किया। उद्भट ने उसके संत्रह अथवा इक्कीस भेद मान लिये।
१. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार स०, १, ३२, भरत, ना० शा०,
२. द्रष्टव्य – काव्यालं० सार स० की विवृति पृ० १५ तथा विवरण।
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११२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उनके उपमालङ्कार-भेदीकरण का आधार उपमा के चार तत्त्वों का उक्त तथा अनुक्त होना है । जहाँ उपमेय, उपमान, साधर्म्य तथा वाचक शब्द – ये चारों तत्त्व उक्त हों वहाँ पूर्णा और जहाँ उनमें से कोई तत्त्व लुप्त हो वहाँ लुप्त उपमा मानी गयी है । पूर्णा के पाँच तथा लुप्ता के बारह भेद इन्दुराज के अनुसार होते हैं । वे हैं—
(क) पूर्णा उपमा - वाक्यावसेया ( श्रौती तथा आर्थी भेद से दो प्रकार), समासावसेया तथा तद्धितावसेया ( श्रौती एवं आर्थी भेद से दो प्रकार ) । इस प्रकार पूर्णोपमा के मुख्य तीन भेद हैं, जो श्रौती तथा आर्थी उपभेद से पाँच प्रकार के बन जाते हैं ।
(ख) लुप्तोपमा - ( १ ) वाक्यावसेया, (२) समासावसेया ( चार प्रकार ), (३) सुब्धातुप्रत्ययावसेया ( चार प्रकार ), (४) कृदवसेया ( दो प्रकार ) तथा (५) तद्धितावसेया ।
उद्भट ने उपमा के वर्गीकरण का एक नया आधार दिया । उपमा के चार अङ्गों से सभी आचार्य परिचित थे । उनके अभाव -सद्भाव के आधार पर उपमा के उक्त भेदों की कल्पना का श्रेय उद्भट को ही मिलना चाहिए । व्यतिरेक
उद्भट ने भामह की व्यतिरेक-धारणा को मूलतः स्वीकार कर उपमेय के उपमान से आधिक्य - कथन में व्यतिरेक अलङ्कार माना है ।' आधिक्य के हेतु के उक्त तथा अनुक्त होने के आधार पर उद्भट ने व्यतिरेक के दो मुख्य भेद स्वीकार किये हैं । उपमेय के उत्कर्ष - हेतु के तथा उपमान के अपकर्ष - हेतु. के उक्त एवं अनुक्त होने के आधार पर उसके चार भेद हो जाते हैं । उन्होंने वैधर्म्य दृष्टान्त के आधार पर भी एक प्रकार के व्यतिरेक की कल्पना की है । दृष्टान्त की धारणा भरत के लक्षण - विवेचन में भी पायी जाती है । 3 साधर्म्य, वैधर्म्य आदि की धारणा भी नवीन नहीं । दर्शन की प्राचीन चिन्तन-
१. विशेषापादनं यत् स्यादुपमानोपमेययोः । निमित्त दृष्टिदृष्टिभ्यां व्यतिरेको द्विधा तु सः ॥
- उद्भट, काव्यालं० सार सं०, २, १२:
२. यो वैधर्म्येण दृष्टान्तो यथेवादिपदान्वितः ।
व्यतिरेकोऽत्र सोऽपीष्टो विशेषापादनान्वयात् ॥ - वही, २, १५
३. द्रष्टव्य - भरत, ना० शा०, १६, २५
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अलङ्कार-धारणा का विकास .
[ ११.३
प्रणाली में वैधयं की धारणा वर्तमान थी। व्यतिरेक के इस भेद की कल्पना का मूल उक्त दृष्टान्त तथा वैधर्म्य की धारणा में पाया जा सकता है। उद्भट का एक अन्य व्यतिरेक-भेद श्लिष्टोक्तियोग्यशब्दयुक्त व्यतिरेक संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है।' श्लिष्टोक्ति की धारणा भामह आदि प्राचीन आचार्यो की श्लिष्ट-अलङ्कार-धारणा से ली गयी है। इस प्रकार श्लिष्ट कथन की धारणा के साथ व्यतिरेक की धारणा को मिला कर इन नवीन व्यतिरेकप्रकार की कल्पना कर ली गयी है। ___ इस विवेचन से स्पष्ट है कि कुछ अलङ्कारों के सामान्य स्वरूप के सम्बन्ध में पूर्ववर्ती आचार्यों के सिद्धान्त से सहमत होने पर भी उद्भट ने उनके कुछ नवीन भेदों की कल्पना कर ली है। फिर भी यह मान लेने का सबल आधार है कि पूर्ववर्ती आचार्य उद्भट के द्वारा उद्भावित उन अलङ्कारभेदों की सम्भावना से सर्वथा अपरिचित नहीं थे। पूर्वाचार्यों के अलङ्कारविशेष के सामान्य लक्षण में निहित प्रकार-कल्पना के बीज का ही पल्लवन उद्भट की रचना में हुआ है। पर्यायोक्त
पर्यायोक्त अलङ्कार के स्वरूप की कल्पना में उद्भट भामह से सहमत हैं; किन्तु उन्होंने भामह-प्रदत्त पर्यायोक्त-परिभाषा को और अधिक स्पष्ट करने का प्रयास किया है । 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' के पर्यायोक्त-लक्षण-श्लोक की प्रथम पंक्ति भामह के 'काव्यालङ्कार' से ही ली गयी है। उसी अर्थ के स्पष्टीकरण के लिए उद्भट ने श्लोक की द्वितीय पंक्ति की रचना की है। प्राचीन अलङ्कार-लक्षण को स्पष्ट रूप में उपस्थित करने-मात्र का श्रेय उद्भट को है। उदात्त
।.. . .
.
. भामह ने उदात्त के जिन दो रूपों का निर्देश किया था उन्हें दण्डी ने आने 'काव्यादर्श' में परिभाषित किया। दोनों आचार्यों की मान्यता थी कि १. श्लिष्टोक्तियोग्यशब्दस्य पृथक् पृथगुदाहृतौ। विशेषापादनं यत् स्यात् व्यतिरेकः स च स्मृतः ॥
-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, २, १७ २. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, ४, ११ तथा भामह
काव्यालं०, ३, ८।
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११४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण व्यक्ति की उच्चाशयता तथा समृद्धि के वर्णन में उदात्त अलङ्कार होता है। उद्भट ने उदात्त-विषयक उक्त मत को स्वीकार किया है। उन्होंने रसवदलङ्कार से उदात्त के भेद-निरूपण के लिए उदात्त की परिभाषा में अपनी ओर से यह जोड़ा है कि वस्तु वैभव या चारित्रिक औदात्य का चित्रण उदात्त में गौण रूप में होना चाहिए। उदात्त-चेता व्यक्ति के चरित्र का अङ्कन जहाँ कवि का मुख्य उद्देश्य होगा वहाँ उदात्त अलङ्कार नहीं होकर रसवदलङ्कार ही माना जायगा । अतः समृद्धि-वर्णन तथा महात्मचरित-चित्रण के साथ 'उपलक्षणतांयाति' जोड़ कर उद्भट ने पूर्ववर्ती आचार्यों की उदात्त-धारणा को ही अधिक स्पष्ट किया है। श्लिष्ट
उद्भट ने पूर्ववर्ती आचार्यों की श्लिष्ट अलङ्कार-विषयक मान्यता को परिष्कृत कर उपस्थित किया है। दण्डी ने अभिन्नपद तथा भिन्नपद ; ये दो भेद श्लेष के माने थे। उद्भट ने शब्दश्लिष्ट तथा अर्थश्लिष्ट भेद से उसके दो प्रकार-स्वीकार किये। अन्य अलङ्कारों के साथ रहने पर श्लेष के सार्वत्रिक प्राधान्य का निर्णय भी सर्वप्रथम उद्भट ने ही किया ।२ श्लेष-लक्षण के परिष्कार के लिए उद्भट श्रेय के भागी हैं।
रूपक
. यद्यपि उद्भट ने भरत, भामह, दण्डी आदि आचार्यों की रूपक-परिभाषा में प्रयुक्त शब्दावली का प्रयोग अपनी रूपक-परिभाषा में नहीं किया है, तथापि उनकी रूपक-धारणा को प्राचीन आचार्यों की तद्विषयक धारणा से सर्वथा स्वतन्त्र नहीं माना जा सकता। उन्होंने रूपक के लक्षण में कहा है कि इसमें एक पद से पदान्तर. का सम्बन्ध होता है; किन्तु अभिधा से इस सम्बन्ध के अनुपपन्न होने के कारण लक्षणा वृत्ति से दोनों का सम्बन्ध सिद्ध किया जाता है।3 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' में जो उदाहरण दिये गये हैं उन्हें पूर्ववर्ती आचार्यों १. उदात्तमृद्धिमद्वस्तु चरितं च महात्मनाम् । उपलक्षणतां प्राप्त नेतिवृत्तत्वमागतम् ॥
-उद्भट, काव्यालं. सार सं० ४, १७ २. द्रष्टव्य-वही, ४, २३-२४ । ३. त्या संबन्धबिरहाद्यपदेन पदान्तरम् ।
गुणवृत्ति प्रधानेन युज्यते रूपकं तु तत् ॥-वही, १,२१
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ११५ के रूपक-लक्षण के भी लक्ष्य माना जा सकता है। एक वस्तु पर अन्य का आरोप रूपक की मूल धारणा है। उद्भट भी पदों के योग को लक्षणा वृत्ति से सिद्ध करने के क्रम में आरोप का तत्त्व स्वीकार करते हैं। अतः बनहट्टी की यह उक्ति युक्ति सङ्गत नहीं जान पड़ती कि उनका (उद्भट का) रूपक अलङ्कारलक्षण तथा रूपक-भेद स्वतन्त्र उद्भावना है और उन पर भामह का कोई प्रभाव नहीं।' उद्भट ने भामह के समस्तवस्तुविषय तथा एकदेशविवर्ति रूपक भेदों को भी स्वीकार किया है। समस्तवस्तुविषय के साथ दण्डी की मालारूपकधारणा को मिला कर समस्तवस्तुविषय मालारूपक नामक एक रूपक-भेद की कल्पना उद्भट ने कर ली है। उन्होंने एकदेशवृत्ति नामक नवीन रूपक-प्रकार की कल्पना की है।३ दण्डी ने रूपक के अनेक भेदों का सोदाहरण विवेचन कर उसके असंख्य भेदों की सम्भावना की ओर इङ्गित किया था।४ स्पष्ट है कि उद्भट के द्वारा कल्पित रूपक-भेद की सम्भावना से वे अनभिज्ञ नहीं थे। रूपक अत्यन्त प्राचीन अलङ्कार है । भरत से लेकर नवीन आलङ्कारिकों तक की रचना में रूपक को अलङ्कार के रूप में निर्विवाद रूप से स्वीकृति मिलती रही है। उसका स्वरूप भी आदिकाल से ही, प्रायः अपरिवर्तित ही रहा है। रूपक-परिभाषा में स्पष्टता-मात्र का श्र य उद्भट को दिया जा सकता है। दीपक
रूपक की तरह दीपक भी प्राचीन अलङ्कार है। इसका स्वरूप 'नाट्यशास्त्र' में भी विवेचित है। भामह ने दीपक के तीन भेदों का उल्लेख किया था। उद्भट ने भी उसके तीन भेद स्वीकार किये हैं। उद्भट ने दीपक के सामान्य स्वरूप के सम्बन्ध में पूर्ववर्ती आचार्यों की मान्यता को ही स्वीकार किया है। उनके अनुसार जहाँ प्रस्तुत और अप्रस्तुत के धर्म का-जिसमें दोनों के बीच साम्प का भाव अन्तर्हित रहता है-आदि, मध्य या अन्त में कथन होता है, वहाँ दीपक अलङ्कार होता है ।५ 'अन्तर्गतोपमाधर्मा' का उल्लेख कर उद्भट
१. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं०१, २३-२४ । २. द्रष्टव्य-काव्यालंकारसारसंग्रह पर बनहट्टी की टिप्पणी, पृ० २५ ३. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं० १, २५ । ४. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्यादर्श, २, ६६ ५. आदिमध्यान्तविषयाः प्राधान्येतरयोगिनः । अन्तर्गतोपमा धर्मा यत्र तद्दीपकं विदुः ॥-उद्भट, काव्यालं. सार सं०
१, २८, तुलनीय भामह, काव्यालं०, २, २५
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११६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
ने दीपक की परिभाषा को अधिक स्पष्ट कर दिया है। दीपक में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत का साधर्म्य व्यङग्य होता है। ___ पर्यायोक्त, उदात्त, श्लिष्ट, रूपक तथा दीपक अलङ्कारों के इस विवेचन से स्पष्ट है कि उद्भट ने पूर्ववर्ती आचार्यों के मतानुसार ही उनके स्वरूप का विवेचन किया है; किन्तु उनके स्वरूप को अधिक स्पष्ट करने का श्रेय उन्हें (उद्भट को) प्राप्त है। समासोक्ति ___ उद्भट की समासोक्ति-विषयक मान्यता भामह की तद्विषयक धारणा से अभिन्न है।' उनकी रचना में भामह की समासोक्ति-परिभाषा का ही शब्दभेद से उपस्थापन हुआ है। उपमेयोपमा
उद्भट ने शब्दान्तर से भामह के उपमेयोपमा-लक्षण को ही उपस्थित किया है। संसृष्टि
दण्डी के सङ्कीर्ण के दो भेदों में से 'सर्वेषां समकक्षता' की धारणा को लेकर उद्भट ने संसृष्टि अलङ्कार की परिभाषा की कल्पना की है। प्रतिवस्तूपमा
प्रकारान्तर से भामह की प्रतिवस्तूपमा-धारणा को ही उद्भट ने प्रस्तुत किया है और उपमा से पृथक् अलङ्कार के रूप में उसका उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि समासोक्ति, उपमेयोपमा, संसृष्टि तथा प्रतिवस्तूपमा के १. द्रष्ट व्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, २, २१ तथा भामह,
काव्यालं० २, ७६ २. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, ५, २७ तथा भामह,
. काव्यालं०, ३, ३७ ३. द्रष्टव्य–दण्डी, काव्याद०, २, ३६० तथा उद्भट, काव्यालं०
__ सार सं० ६, ६ ४. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं० १, ५१ तथा भामह,
काव्यालं० २, ३४
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ११७ स्वरूप में कोई नवीनता उद्भट ने नहीं लायी । उन्होंने उक्त अलङ्कारों के सम्बन्ध में प्राचीन आचार्यों की मान्यता को ही स्वीकार किया है ।
उपरि विवेचित अलङ्कारों को छोड़ उद्भट के शेष अलङ्कारों के लक्षण भामह के 'काव्यालङ्कार' से अक्षरशः उद्धृत हैं ।
पूर्ववर्ती आचार्यों की अलङ्कार-धारणा के साथ उद्भट की अलङ्कारविषयक मान्यता के इस तुलनात्मक अध्ययन से हम निम्नलिखित निष्कर्ष पर पहुँचते हैं
(क) उद्भट के 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' में जितने अलङ्कारों के स्वरूप का विवेचन हुआ उनमें से अधिकांश का मूलाधार भरत, भामह तथा दण्डी की धारणा में ही है । भरत काव्य-लक्षण की स्वरूप-मीमांसा के क्रम में उद्भट के अनेक अलङ्कारों के स्वरूप से मिलते-जुलते स्वरूप वाली उक्तियों पर पहले ही विचार कर चुके थे । उद्भट के दृष्टान्त अलङ्कार का प्राक्-रूप भरत का दृष्टान्त लक्षण इस कथन का प्रमाण हैं । भामह के अधिकांश अलङ्कारों के स्वरूप को तो उद्भट ने यथावत् स्वीकार कर लिया है ।
(ख) भरत ने रस, भाव आदि के विवेचन-क्रम में काव्य के जिन तत्त्वों का निरूपण किया था, उनके आधार पर भी उद्भट ने कुछ अलङ्कारों के स्वरूप की कल्पना की है । इस प्रकार रस, भाव आदि के आधार रसवत्, प्रय आदि अलङ्कारों की कल्पना उन्होंने कर ली ।
(ग) उद्भट ने प्राचीन आचार्यों के अलङ्कारों के नवीन भेदोपभेदों का विवरण दिया है, जिनकी सम्भावना प्रायः प्राचीनों के तत्तदलङ्कार के सामान्य लक्षणों में ही निहित थी ।
(घ) पूर्ववर्ती आचार्यों के कुछ अलङ्कारों के स्वरूप को उद्भट ने अधिक स्पष्ट रूप में 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' में प्रस्तुत किया है । अतः, कुछ अलङ्कारों की परिभाषा के परिष्कार का श्रेय उद्भट को अवश्य मिलना चाहिए ।
(ङ) उद्भट के अलङ्कार - विवेचन की तुलना में भरत की परिमित अलङ्कार-संख्या पर दृष्टिपात करने से आपाततः भरत का अलङ्कार - विवेचन अपरिपक्व जान पड़ेगा; किन्तु तथ्य यह है कि उन्होंने अनेक उक्ति-भङ्गियों को -काव्य - लक्षणों के क्षेत्र में परिभाषित किया था, जिनपर पीछे चलकर अलङ्कार के सन्दर्भ में विचार होने लगा । भरत के लक्षण, गुण, अलङ्कार, रस, भाव आदि के सिद्धान्तों का सहारा लेकर उद्भट ने अनेक अलङ्कारों के स्वरूप की कल्पना की है ।
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११८ ]
अलङ्कार- धारणा : विकास और विश्लेषण
(च) पूर्ववर्ती आचार्यों की अलङ्कार-धारणा से उद्भट की धारणा का श्रंय सिद्ध करने के लिए विवृतिकार राजानक तिलक ने जो यह मान्यता प्रकट की है कि विभिन्न वर्गों में अलङ्कारों को उपस्थित कर उद्भट ने पूर्ववर्ती आलङ्कारिकों की संकुचित दृष्टि प्रमाणित की है, वह पक्षपातशून्य नहीं है । भामह और उद्भट के अलङ्कार - वर्गों के तुलनात्मक अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वर्गों में अलङ्कारों के उपस्थापन में उद्भट ने भामह की पद्धति का ही अनुगमन किया है ।
(छ) पुनरुक्तवदाभास - जैसे नवीन अलङ्कार की उद्भावना का श्रेय उद्भट को है ।
O
आचार्य वामन
उद्भट के समसामयिक आचार्य वामन ने 'काव्यालङ्कारसूत्र' में इकत्तीस काव्यालङ्कारों के स्वरूप का विवेचन किया है । अलङ्कार के सम्बन्ध में उनकी मान्यता भामह, दण्डी, उद्भट आदि आचार्यों से कुछ भिन्न है । इसका कारण यह है कि रीति-सम्प्रदाय के प्रतिनिधि आचार्य होने के कारण अलङ्कार के प्रति उनका थोड़ा उपेक्षा भाव स्वाभाविक था । वे काव्य में रीति के विधायक गुण की तुलना में अलङ्कार को हेय मानते थे । उन्होंने अर्थालङ्कारों में केवल उन्हीं अलङ्कारों की सत्ता स्वीकार की है, जिनके मूल में सादृश्य हो । वे सभी अलङ्कारों को उपमा-प्रपञ्च सिद्ध करना चाहते हैं । " अत:, उन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों के उन अलङ्कारों का सद्भाव स्वीकार नहीं किया, जिनका आधार सादृश्य नहीं था । फलतः भामह, दण्डी तथा उद्भट: के पर्यायोक्त, प्रय, रसवत, ऊर्जस्वी, उदात्त, भाविक तथा सूक्ष्म आदि की गणना वामन के काव्यालङ्कार की पंक्ति में नहीं हो पायी । समग्र अलङ्कार - चक्र को उपमा-प्रपञ्च मानने के आग्रह का दूसरा परिणाम यह हुआ कि
१. वर्गीर्वगैरलङ्कारोपादानं चिरन्तनालङ्कारकृतामल्पदर्शितां प्रकटयितुम् । - काव्यालं ० सार सं०, विवृति, पृ० १ २. प्रतिवस्तुप्रभृतिरुपमा प्रपञ्चः । वामन, काव्यालं ० सू० ४, ३, १ तथा..... ...शब्दवैचित्र्यगर्भेयमुपमैव प्रपञ्चिता ।
वही, वृत्ति पृ० २८०, हिन्दी काव्यालं० सू०
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ११६ पूर्वाचार्यों के भिन्न स्वरूप वाले कुछ अलङ्कारों में उपमानोपमेय भाव की कल्पना कर उनके किञ्चित् नवीन स्वरूप की कल्पना कर ली गयी। प्रस्तुत सन्दर्भ में वामन के नवीन अलङ्कार-लक्षण के स्रोत का अन्वेषण अभिप्रेत है। वामन के इकत्तीस अलङ्कार निम्नलिखित हैं:
(१) यमक, (२) अनुप्रास, (३) उपमा, (४) प्रतिवस्तूपमा, (५) समासोक्ति, (६) अप्रस्तुतप्रशंसा, (७) अपह्नति, (८) रूपक, (६) श्लेष, (१०) वक्रोक्ति, (११) उत्प्रेक्षा, (१२) अतिशयोक्ति, (१३) सन्देह, (१४) विरोध, (१५) विभावना, (१६) अनन्वय, (१७) उपमेयोपमा, (१८) परिवृत्ति, (१६) क्रम, (२०) दीपक, (२१) निदर्शन, (२२) अर्थान्तरन्यास, (२३) व्यतिरेक, (२४) विशेषोक्ति, (२५) व्याजस्तुति, (२६) व्याजोक्ति, (२७) तुल्ययोगिता, (२८) आक्षेप, (२६) सहोक्ति, (३०) समाहित और (३१) संसृष्टि । इनमें से आरम्भिक दो ( यमक तथा अनुप्रास ) शब्दालङ्कार हैं तथा शेष अर्थालङ्कार । वामन के अलङ्कारों की नामावली में वक्रोक्ति, व्याजोक्ति तथा 'क्रम' नाम नवीन हैं। क्रम प्राचीन आलङ्कारिकों के यथासंख्य अलङ्कार का ही नवीन अभिधान है। शेष दो अलङ्कार ( वक्रोक्ति और व्याजोक्ति ) तथा उनके व्यपदेश नवीन हैं। आदि आचार्य भरत से लेकर वामन के समकालीन उद्भट तक की रचनाओं में जिन अलङ्कारों का उल्लेख हो चुका था उनमें से कई अलङ्कारों का नामोल्लेख वामन के काव्यालङ्कार में नहीं हुआ है। वे हैं-आशीः, आवृत्ति, प्रेय, पर्यायोक्त, रसवत्, ऊर्जस्वी, उदात्त, भाविक, हेतु, सूक्ष्म, लेश, सङ्कर, स्वभावोक्ति, लाटानुप्रास, पुनरुक्तवदाभास, दृष्टान्त, छेकानुप्रास, काव्यलिङ्ग, उपमारूपक तथा उत्प्रेक्षावयव । वामन ने उपमारूपक तथा उत्प्रेक्षावयव को स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में स्वीकृति नहीं दी; किन्तु उन्हें संसृष्टि के दो भेदों के रूप में स्वीकार कर लिया । हम इस तथ्य पर विचार कर चुके हैं कि उपमा तथा रूपक से पृथक् उपमारूपक की और उपमा तथा उत्प्रेक्षा से अलग उत्प्रेक्षावयव की सत्ता स्वीकार करने में कोई युक्ति नहीं है। छेकानुप्रास तथा लाटानुप्रास अलङ्कारों की अनुप्रास से स्वतन्त्र सत्ता की कल्पना वामन को उचित नहीं जान पड़ी होगी। दृष्टान्त का सर्वप्रथम उल्लेख उद्भट ने किया है। वामन के समय तक उसे बहुत लोकप्रियता नहीं मिल पायी हो, यह सम्भव है । स्वभावोक्ति का अलङ्कारत्व वक्रोक्तिवादी आचार्य स्वीकार नहीं करते थे। हेतु, सूक्ष्म तथा लेश के अलङ्कारत्व का भामह ने खण्डन किया था। दण्डी ने उन्हें वाणी का
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१२० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उत्तम अलङ्करण कहा था । उद्भट ने उन्हें अलङ्कार स्वीकार नहीं किया । उन विवादग्रस्त अलङ्कारों का उल्लेख वामन ने भी नहीं किया है । अन्य अलङ्कारों की अस्वीकृति का कारण उनमें उपमामूलकता का अभाव जान पड़ता है।
सेठ कन्हैया लाल पोहार की यह मान्यता उचित नहीं है कि वामन ने 'काव्यालङ्कार सूत्र' में केवल तैंतीस अलङ्कार निरूपण किये हैं । १ पोद्दारजी ने सम्भवतः उत्प्रेक्षावयव और उपमारूपक को वामन के स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में परिगणित कर लिया है, जो वस्तुतः संसृष्टि के भेद - मात्र हैं । काव्यालङ्कार-सूत्र के व्याख्याता आचार्य विश्वेश्वर की यह मान्यता भी निर्भ्रान्त नहीं कि 'वामन ने तीस अर्थालङ्कार और दो शब्दालङ्कार मिलाकर कुल बत्तीस अलङ्कारों का निरूपण किया है । २ विश्वेश्वर ने वामन के समाहित की गणना नहीं की और संसृष्टि के दो भेदों को स्वतन्त्र अलङ्कार मान लिया । वामन ने इकत्तीस अलङ्कारों का निरूपण किया है । नीचे हम वामन के अलङ्कारों के स्वरूप का पूर्ववर्ती आचार्यों के अलङ्कारों से सम्बन्ध की दृष्टि से विवेचन करेंगे तथा उनके नवीन अलङ्कारों के उद्गम स्रोत का अन्वेषण करेंगे ।
वक्रोक्ति
वामन ने सर्वप्रथम वक्रोक्ति नामक अलङ्कार का उल्लेख किया है । यों, वक्रोक्ति शब्द नवीन नहीं है । भामह ने वक्रोक्ति को अलङ्कारों का प्राण कहा था । उनकी वक्रोक्ति का अर्थ अतिशयोक्ति से मिलता-जुलता था । वामन ने वक्रोक्ति को अलङ्कार - विशेष के रूप में स्वीकार किया और उसके सम्बन्ध में विलक्षण धारणा प्रकट की । उन्होंने सादृश्यमूला लक्षणा को वक्रोक्ति अलङ्कार कहा है । लक्षणा के पाँच भेदों ( अभिधेय सम्बन्धमूला, सादृश्यमूला, समवाय, वैपरीत्य तथा क्रियायोगा लक्षणा ) में, 'सादृश्य लक्षणा' एक भेद
१. द्र० कन्हैयालाल पोद्दार, काव्यकल्पद्र ुम, भाग २, प्राक्कथन, पृ० १८ । २. द्र० - हिन्दी काव्यालं० सू० पृ० २३१ ।
३. सैषा सर्वैव वक्रोक्तिरनयार्थी विभाव्यते ।
नोऽस्यां कविना कार्यः कोऽलङ्कारोऽनया विना ॥
.
— भामह, काव्यालं० २, ८५ ४. सादृश्याल्लक्षणा वक्रोक्तिः । वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, ८
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १२१ है। इस शब्द-शक्ति-भेद को एक अलङ्कार मान लेना युक्तिसङ्गत नहीं जान पड़ता। शब्द-शक्तियों पर अलङ्कार की सत्ता निर्भर अवश्य रहती है; किन्तु दोनों को अभिन्न नहीं माना जा सकता। अतः, वामन की वक्रोक्ति का अलङ्कारत्व परवर्ती काल में स्वीकृत नहीं हुआ। व्याजोक्ति
व्याजोक्ति भी वामन का नवीन अलङ्कार है। इसे मायोक्ति भी कहा गया है। इसमें बहाने से कही हुई बात को सत्य के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। सत्य को छिपाने के लिए कोई झूठा बहाना बना देने में ही प्रस्तुत अलङ्कार की सार्थकता है। अलङ्कार के क्षेत्र में ऐसी उक्ति-भङ्गी की कल्पना नवीन है।
यमक
यमक अलङ्कार के स्वरूप के सम्बन्ध में वामन ने पूर्ववर्ती भामह आदि आचार्यों से मिलती-जुलती धारणा ही व्यक्त की है। उन्होंने यमक के स्थान-नियम पर विशेष बल दिया है और उसके आधार पर उक्त अलङ्कार के अनेक भेदों का विवेचन किया है। भामह भी स्थान-भेद के आधार पर यमक के अनेक भेदों की सम्भावना से अपरिचित नहीं थे; किन्तु उन्होंने सब भेदों का सोदाहरण विवेचन आवश्यक नहीं समझा। इस सम्बन्ध में काव्यालङ्कार सूत्र के भाष्यकार आचार्य विश्वेश्वर का यह कथन उचित ही जान पड़ता है कि “अन्य भामह आदि आचार्यों ने इस स्थान-नियम को स्वयं समझ लेने योग्य मान कर न उसका उल्लेख अपने लक्षण में ही किया है और न उसका अधिक विस्तार ही किया है।"
अनुप्रास
वामन के अनुप्रास का स्वरूप भी सर्वथा नवीन नहीं है। पूर्ववर्ती भामह आदि के अनुप्रास की प्रकृति से वामन के अनुप्रास की प्रकृति मिलती-जुलती ही है। वामन ने यमक का स्वरूप-विवेचन करने के उपरान्त कहा है कि यमक में कथित पद या वर्ण की आवृत्ति के प्रकार को छोड़ शेष आवृत्ति-रूपों में
१. व्याजस्य सत्यसारूप्यं व्याजोक्तिः।-वामन,काव्यालं० सू० ४, ३, २५ २. द्रष्टव्य-हिन्दी काव्यालंकार सूत्र, व्याख्या, पृ० १६२ ।
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१२२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अनुप्रास अलङ्कार होता है।' इसका अर्थ यह हुआ कि अनियत स्थान तथा एकार्थ अथवा अनेकार्थ पदों की आवृत्ति में वामन अनुप्रास अलङ्कार मानेंगे, क्योंकि यमक में वे स्थान का नियत होना तथा आवृत्त पदों का भिन्नार्थक होना आवश्यक मानते हैं।
उपमा
उपमा के सामान्य स्वरूप की कल्पना में वामन पूर्ववर्ती आचार्यों से सहमत हैं। वे अन्य आचार्यों की तरह उपमान के साथ उपमेय के गुण का साम्य-प्रतिपादन उपमा का सामान्य लक्षण मानते हैं । २ वामन ने उपमा के भेदों का निरूपण तीन दृष्टियों से किया है। आचार्य भरत के उपमा-प्रकारप्रतिपादन की पद्धति पर उन्होंने उसके लौकिकी तथा कल्पिता; ये दो रूप स्वीकार किये हैं।3 लोक प्रसिद्ध उपमेय-उपमान की योजना में लौकिकी उपमा तथा कविकल्पित उपमेयोपमा के वर्णन में कल्पिता उपमा मानी गयी है। कल्पिता में गुणबाहुल्य की कल्पना भी उन्होंने कर ली है। उपमा के पदगत तथा वाक्यगत होने की दृष्टि से उसके पुनः दो भेद किये गये हैं—(क) पदार्थवृत्ति उपमा तथा (ख) वाक्यार्थवृत्ति उपमा। यह विभाजन नवीन है, पर इसकी सम्भावना उपमा के सामान्य लक्षण में ही निहित थी। पदार्थ-वृत्ति तथा वाक्यार्थवृत्ति की दृष्टि से यदि विभाजन किया जाय तो अनेक अलङ्कारों के उक्त दो रूप सम्भव होंगे। उपमान, उपमेय, वाचक शब्द तथा साधारण धर्म में से एक या अनेक के वाक्य में अभाव-सद्भाव की दृष्टि से उपमा के लुप्ता तथा पूर्णा ये दो भेद भी वामन के द्वारा स्वीकृत हैं। उद्भट के उपमाविवेचन की परीक्षा के क्रम में यह देखा जा चुका है कि उन्होंने पूर्णा तथा लुप्ता की दृष्टि से उपमा के अनेक भेदोपभेद किये हैं। वामन के 'काव्यालङ्कार
१. शेषः सरूपोऽनुप्रासः । -वामन, काव्यालं० सू० ४,१,८ २. उपमानोपमेयस्य गुणलेशतः साम्यमुपमा। वही, ४,२,१
तुलनीय-भामह, काव्यालं० २,३० तथा दण्डी, काव्याद० २,१४ ३. .. कविभिः कल्पितत्त्वात् कल्पिता । पूर्वा तु लौकिकी।
-वामन, काव्यालं० सू० ४,२,२ की वृति ४. तद्वविध्यं पदवाक्यार्थवृत्तिभेदात् । —वही, ४, २, ३ ५. सा पूर्णा लुप्ता च । गुणद्योतकोपमानोपमेयशब्दानां सामग्र ये पूर्णा । लोपे लुप्ता।
यही ४,२,४-६
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १२३
सूत्र' में पूर्ववर्ती आचार्यों की प्रशंसोपमा, निन्दोपमा तथा तत्त्वाख्यानोपमा भी उल्लिखित हैं ।' वामन ने प्रशंसा, निन्दा तथा तत्त्वाख्यान को उपमा का भेद नहीं मान कर उसका प्रयोजन माना है । स्पष्ट है कि पूर्ववर्ती आचार्यों की उपमा-धारणा से वामन की धारणा मूलतः अभिन्न है ।
प्रतिवस्तूपमा
वामन के प्रतिवस्तूपमा अलङ्कार का स्वरूप भामह के एतत्संज्ञक अलङ्कार के स्वरूप से अभिन्न है ।
समासोक्ति तथा प्रस्तुतप्रशंसा
दण्डी की समासोक्ति-धारणा को स्वीकार कर वामन ने अप्रस्तुत - वर्णन से प्रस्तुत के बोध होने में समासोक्ति अलङ्कार माना है । यह धारणा भामह की समासोक्ति-धारणा के विपरीत है । भामह प्रस्तुत के कथन में अप्रस्तुत की व्यञ्जना होने पर समासोक्ति अलङ्कार मानेंगे । अप्रस्तुत की उक्ति से प्रस्तुत के बोध में अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार का सद्भाव भामह का अभिमत होगा । ५ वामन ने अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार के स्वरूप निरूपण में भामह के मत को स्वीकार कर लिया । फल यह हुआ कि उनके समासोक्ति तथा अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कारों में भेद नहीं रह गया। दोनों के बीच कुछ भेद की कल्पना के लिए वामन ने यह मान लिया कि समासोक्ति में प्रस्तुत सर्वथा अनुक्त रहता है तथा अप्रस्तुतप्रशंसा में किञ्चित् उक्त । इस प्रकार उनके मतानुसार जहाँ उपमेय के कथन का एकान्त अभाव होने पर भी समान वस्तु के न्यास से उसका बोध होगा वहाँ समासोक्ति तथा जहाँ उपमेय के किचित् उक्त होने पर समान वस्तु के न्यास से उसका बोध होगा वहाँ अप्रस्तुतप्रशंसा
१. स्तुतिनिन्दा तत्त्वाख्यानेषु । – वामन, काव्यालं० सू० ४,२,७ तुलनीय - भामह, काव्यल० २,३७ तथा दण्डी, काव्याद०, २,३६ २. द्रष्टव्य - वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, २ तथा
भामह, काव्यालं० २, ३४
३. द्रष्टव्य - दण्डी, काव्याद० २, २०५ तथा
४. द्रष्टव्य — भामह, काव्यालं० २, ७६ ५. वही, ३, २ε
वामन, काव्यालं० सू० ४, ३,
६. द्रष्टव्य - वामन, काव्यालं० सू० ४, ३,
४
३:
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१२४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण की सत्ता मानी जायगी। उक्त दो अलङ्कारों में भेद सिद्ध करने का यह प्रयास उलझन से बचने के लिए किया गया-सा जान पड़ता है। एक अलङ्कार के स्वरूप-निरूपण में भामह के तथा दूसरे अलङ्कार के लक्षण-निर्धारण में दण्डी के मत को स्वीकार करने के कारण वामन इस उलझन में पड़ गये । प्रतिवस्तूपमा अलङ्कार से समासोक्ति तथा अप्रस्तुतप्रशंसा के साम्य-वैषम्यनिरूपण के आग्रह के कारण भी वामन इस कठिनाई में पड़े होंगे। वे प्रतिवस्तूपमा, समासोक्ति और अप्रस्तुतप्रशंसा में केवल इतना भेद मानते हैं कि प्रतिवस्तूपमा में उपमेय उक्त, समासोक्ति में अनुक्त तथा अप्रस्तुतप्रशंसा में किञ्चित् उक्त होता है। समान वस्तु का ( उपमान का ) न्यास तीनों में समान रूप से होता है। अपह्न ति
वामन की अपह्न ति भामह आदि पूर्ववर्ती आचार्यों की अपह्न ति से : अभिन्न है।
रूपक
रूपक के स्वरूप के सम्बन्ध में वामन ने भामह आदि आचार्यों की मान्यता को ही स्वीकार किया है। भामह की तरह वे भी प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत में गुण के साम्य के कारण प्रस्तुत में अप्रस्तुत के अभेद का आरोप रूपक अलङ्कार का लक्षण मानते हैं । २
श्लेष
श्लेष की परिभाषा में वामन ने पूर्ववर्ती आचार्यों के श्लेष एवं रूपक के तत्त्वों को मिला दिया है। वामन के पूर्व श्लेष में अनेकार्थ के वाचक एक-रूप शब्द का प्रयोग-मात्र अपेक्षित माना गया था। पूर्ववर्ती आचार्यों ने न तो उसमें उपमानोपमेय-भाव की कल्पना की थी, और न उपमेय पर उपमान के तत्त्वारोप की ही। वामन सभी अलङ्कारों को उपमा-प्रपञ्च सिद्ध करना चाहते हैं । अतः उनके लिए श्लेष में भी उपमानोपमेय के सद्भाव की कल्पना
१. द्रष्टव्य-वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, ५ तथा
. भामह, काव्यालं० ३, २१ २. द्रष्टव्य-काव्यालं० सू० ४, ३, ६ तथा भामह, काव्यालं० २, २१
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अलङ्कार-धारणा का विकास [ १२५. आवश्यक थी। रूपक के सन्दर्भ में श्लेष का विवेचन करते हुए उन्होंने इसमें भी प्रस्तुत-अप्रस्तुत के अभेदारोप का तत्त्व मिला दिया। ' उद्भट ने यह सङ्कत किया था कि श्लिष्ट अलङ्कार में उपमा आदि किसी अन्य अलङ्कार की छाया देखी जा सकती है ।२ वस्तुतः श्लेष से अनुप्राणित अन्य अलङ्कारों के भूरिशः उदाहरण काव्य में प्राप्त होते हैं। किन्तु, वामन के श्लेष का स्वरूप भामह आदि पूर्ववर्ती तथा उद्भट-जैसे समसामयिक आचार्यों के श्लेष से भिन्न है। उसमें श्लेष के साथ रूपक का तत्त्व मिश्रित है।
उत्प्रेक्षा __ वामन की उत्प्रेक्षा-धारणा पूर्ववर्ती आचार्यों की धारणा से अभिन्न है । अतिशयोक्ति
अतिशयोक्ति अलङ्कार-विषयक वामन की मान्यता भी भामह आदि आचार्यों की तद्विषयक-धारणा से भिन्न नहीं।
सन्देह
'काव्यालङ्कार-सूत्र' में सन्देह अलङ्कार की धारणा प्राचीन आचार्यों की ससन्देह-धारणा के समान ही है। भामह और उद्भट ने जहाँ इस अलङ्कार को ससन्देह कहा था वहाँ वामन ने उसे सन्देह संज्ञा से अभिहित किया। ससन्देह और सन्देह के अर्थ में तत्त्व-गत कोई भिन्नता नहीं और न भामह आदि के ससन्देह तथा वामन के सन्देह अलङ्कार में कोई स्वरूपगत भेद है।५
१. स धर्मेषु तन्त्रप्रयोगे श्लेषः । -वामन, काव्यालं० सू० ४,३, ७ तथा उपमानोपमेयस्य धर्मेषु गुणक्रिया शब्दरूपेषु स तत्त्वारोपः।
-वही, वृत्ति, पृ० २३२, हिन्दी, काव्यालं० सू० २. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं० ४, २३-२४ ३. द्रष्टव्य-वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, ६ तथा
भामह, काव्याल० २, ६१ ४. द्रष्टव्य-काव्यालं० सू० ४, ३, १० तथा भामह, काव्यालं० २,८१ ५. द्रष्टव्य-काव्यालं० सू० ४, ३, ११ तथा भामह, काव्यालं० ३, ४३
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"१२६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण "विरोध
वामन ने पूर्ववर्ती आचार्यों के विरोध अलङ्कार के लक्षण को अस्वीकार कर उसके नवीन स्वरूप की कल्पना की है। उनके मतानुसार जहाँ तात्त्विक विरोध के न होने पर भी आपाततः विरोध प्रतीत होता है, वहाँ विरोध का आभास-मात्र होने से विरोधाभास अलङ्कार माना जाता है। प्रातिभासिक विरोध के परिहार से उत्पन्न चमत्कार में अलङ्कारत्व स्पष्ट है। नाट्याचार्य भरत ने प्राप्त दोष के शमन से उत्पन्न चमत्कार में उपपत्ति नामक लक्षण स्वीकार किया था। उसी के आधार पर प्रातिभासिक विरोध दोष की प्राप्ति तथा परिणामतः उक्त दोष के शमन से संजात चमत्कार में वामन ने "विरोधाभास अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार किया है। विभावना
विभावना अलङ्कार के सम्बन्ध में वामन ने भामह से मिलती-जुलती धारणा ही व्यक्त की है।
अनन्वय
वामन तथा भामह के अनन्वय अलङ्कार की प्रकृप्ति अभिन्न है।४ उपमेयोपमा
उपमेयोपमा के स्वरूप-निर्धारण में भी वामन भामह से सहमत हैं। परिवृत्ति
वामन ने भामह के परिवृत्ति-लक्षण को अंशतः ही स्वीकार किया है। भामह की परिवृत्ति-परिभाषा से 'अर्थान्तरन्यासक्ती', इस अंश को हटा कर
१. विरुद्धाभासत्वं विरोधः । -वामन; काव्यालं० सू०, ४, ३, १२ २. प्राप्तानां यत्र दोषाणां क्रियते शमनं पुनः । सा ज्ञेया ह युपपत्तिस्तु लक्षणं नाटकाश्रयम् ।।
-भरत, ना० शा०, १६, ३५ ३. द्रष्टव्य–वामन, काव्यालं० सू०, ४, ३, १३ तथा भामह, काव्यालं.
२,७७ ४. द्रष्टव्य-काव्यालं० सू०, ४, ३, १४ तथा काव्यालं०, ३, ४५ ५. द्रष्टव्य-वही, ४, ३, १५
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १२७
वामन ने उसमें अर्थान्तरन्यास अलङ्कार के तत्त्व को अस्वीकार कर दिया है । वे परिवृत्ति में सदृश या असदृश वस्तुओं का परिवर्तन वाञ्छनीय मानते हैं ।
क्रम या यथासंख्य
क्रम अलङ्कार के सम्बन्ध में वामन की धारणा पूर्ववर्ती आचार्यों की धारणा से किञ्चित् भिन्न है । इस भेद का कारण उसमें उपमा के तत्त्व का समावेश है । क्रम को भी उपमा-प्रपञ्च के भीतर सिद्ध करने के लिए वामन ने प्रस्तुत एवं अप्रस्तुत वस्तुओं का क्रम से सम्बन्ध- प्रदर्शित करने में ही क्रम अलङ्कार स्वीकार किया है । पूर्ववर्ती आचार्यों ने क्रम या यथासंख्य अलङ्कार की परिभाषा में उपमान, उपमेय का उल्लेख नहीं किया था । उनके मतानुसार पूर्वकथित अर्थ का पश्चात् कथित पदार्थ से क्रमिक अन्वय-मात्र यथासंख्य या क्रम अलङ्कार के विधान के लिए पर्याप्त है । भामह तथा उनके मतानुयायी उद्भट ने तो यथासंख्य- परिभाषा में 'असधर्मणाम्' विशेषण का प्रयोग कर यह स्पष्ट कर दिया था कि यथासंख्य में उपमान- उपमेय का क्रम होना अपेक्षित नहीं है । 3 स्पष्ट है कि वामन ने वस्तुवर्णन के क्रम की धारणा पूर्ववर्ती आचार्यों से लेकर उसमें उपमान- उपमेय की धारणा को मिला कर क्रम के इस नवीन स्वरूप की कल्पना कर ली है ।
दीपक
भामह के मतानुसार ही वामन ने आदिदीपक, मध्यदीपक तथा अन्तदीपक; इन तीन दीपक-भेदों का वर्णन किया है । वामन के दीपक अलङ्कार का सामान्य लक्षण उद्भट के दीपक-लक्षण से अभिन्न है । *
१. द्रष्टव्य — काव्यालं० सू० ४, ३, १६ तथा उद्भट, काव्यालं ० सार. सं०, ५, ३१
२. उपमेयोपमानानां क्रमसम्बन्धः क्रमः ।
— वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, १७ ३. द्रष्टव्य - भामह, काव्यालं०, २, ८९ तथा उद्भट, काव्यालं ० सार सं० ३, २,
४. द्रष्टव्य – वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, १८-१९ तथा उद्भट, काव्यालं० सार सं० १, २८
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१२८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण निदर्शना
वामन की निदर्शना-अलङ्कार-धारणा भामह की धारणा से अभिन्न है ।'
अर्थान्तरन्यास
वामन के अर्थान्तरन्यास अलङ्कार का स्वरूप भी भामह के अर्थान्तरन्यास से मिलता-जुलता ही है।
व्यतिरेक
भामह के व्यतिरेक सम्बन्धी मत का अनुसरण करते हुए वामन ने भी उपमान से उपमेय के आधिक्य-वर्णन में व्यतिरेक-अलङ्कार माना है। 3
विशेषोक्ति
वामन की विशेषोक्ति-धारणा प्राचीन आचार्यों की धारणा से किञ्चित् भिन्न है। यह भेद उसमें उपमा के स्वरूप के मिश्रण के कारण आया है। भामह तथा वामन की विशेषोक्ति-परिभाषा में इस अंश में साम्य है कि दोनों ने इसमें एक गुण की हानि की कल्पना की है, किन्तु दोनों की मान्यता में वैषम्य यह है कि जहाँ भामह एक गुण की हानि के स्थल में इसमें अन्य गुण के सद्भाव की कल्पना पर बल देते हैं, वहाँ वामन इसे उपमा-प्रपञ्च सिद्ध करने के लिए उस स्थल में साम्य की पुष्टि वाञ्छनीय मानते हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भामह की विशेषोक्ति-धारणा में ही सादृश्य की कल्पना को मिला कर वामन ने विशेषोक्ति के इस नवीन रूप का सृजन किया है।
१. द्रष्टव्य-वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, २० तथा भामह, काव्यालं.
२. द्रष्टव्य-वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, २१ तथा भामह, काव्यालं०
२,७१-७३ ३. द्रष्टव्य-वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, २२ तथा भामह, काव्यालं०
४. द्रष्टव्य-भामह, काव्यालं० ३, २३ तथा वामन, काव्यालं० सू०,
४, ३, २३
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १२६
व्याजस्तुति
भामह की तरह वामन भी निन्दा के व्याज से की जाने वाली स्तुति अर्थात् स्तुतिपर्यवसायिनी निन्दा की उक्ति में व्याजस्तुति अलङ्कार मानते हैं।' तुल्ययोगिता
तुल्ययोगिता अलङ्कार के स्वरूप के विषय में भी वामन भामह की मान्यता से सहमत हैं। आक्षेप
वामन ने आक्षेप अलङ्कार के किञ्चित् नवीन स्वरूप की कल्पना की है। भामह की तरह वे भी प्रतिषेध की उक्ति को आक्षेप का विधायक तत्त्व अवश्य मानते हैं ; किन्तु अलङ्कारों में सर्वत्र उपमानोपमेय के सद्भाव का आग्रह रखने के कारण वे केवल उपमान के आक्षेप में उक्त अलङ्कार की सत्ता स्वीकार करते हैं। आक्षेप शब्द के दूसरे अर्थ के आधार पर आक्षेप अलङ्कार का दूसरा लक्षण यह माना गया है कि उपमेय-मात्र के कथन से उपमान की आक्षेप से प्रतिपत्ति होने में भी आक्षेप अलङ्कार होता है। आक्षेप का यह स्वरूप भामह आदि के समासोक्ति अलङ्कार के स्वरूप से मिलता-जुलता है, जिसमें उपमेय उक्त होता है और उपमान गम्य ।।
सहोक्ति
वामन का सहोक्ति अलङ्कार भामह आदि आचार्यों के तत्संज्ञक अलङ्कार से अभिन्न स्वभाव का है।
१. द्रष्टव्य-भामह, काव्यालं० ३, ३१ तथा वामन, काव्यालं० सू०,
४, ३, २४ २. द्रष्टव्य-वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, २६ तथा भामह, काव्यालं०
३, २७ ३. उपमानाक्षेपश्चाक्षेपः।-वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, २७ ४. द्रष्टव्य-काव्यालं० सू० ४, ३, २७ की वृत्ति तथा भामह, काव्यालं.
२,७९ ५. द्रष्टव्य-वामन, काव्यालं. सू० ४,३,२८ तथा भामह, काव्यालं.
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१३० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
समाहित ___ वामन ने समाहित अलङ्कार के सम्बन्ध में सर्वथा नवीन मान्यता प्रकट की है। भामह और दण्डी ने आरब्ध कार्य में अनायास साधक की प्राप्ति में समाधि अलङ्कार माना था ।' उद्भट ने उसका सम्बन्ध रस, भाव आदि की शान्ति से जोड़ दिया ।२ उक्त मतों में औपम्य के तत्त्व का अभाव था। अतः वामन ने किसी मत को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने यह मन्तव्य व्यक्त किया है कि जहाँ किसी वस्तु का सादृश्य उपमेय से दिखाना अभिप्रेत हो वहाँ यदि उपमेय की तद्रूपता प्राप्ति (उपमेय का उपमान के रूप को प्राप्त कर लेना) का वर्णन किया जाय तो समाहित अलङ्कार माना जाता है। इस अलङ्कार के स्वरूप-निर्धारण में वामन ने मनोवैज्ञानिक तथ्य का प्रतिपादन किया है। मन में जिस वस्तु का ध्यान हो उसके समान वस्तु को देख कर ध्यात वस्तु का अनुभव तीव्र हो जाता है और कभी-कभी ऐसा प्रतीत होने लगता है कि मनोगत वस्तु ही प्रत्यक्ष हो गयी हो। वामन ने उक्त अलङ्कार का जो उदाहरण दिया है उसमें उर्वशी के ध्यान में डूबे हुए पुरूरवा के लिए लता ही उर्वशी बन जाती है। यह भ्रमात्मक ज्ञान से भिन्न है; क्योंकि पुरूरवा को लता के पल्लव आदि का ज्ञान है। लता का मेघ की जलधारा से धौत पल्लव उसके सामने उर्वशी के अश्र -प्रक्षालित अधर के रूप में प्रकट हो रहा है। स्मृति की तीव्र दशा में पूर्वानुभूत पदार्थ अपने सदृश अन्य अधिकरण में मूर्त हो गया है। इसमें प्रस्तुत पर अप्रस्तुत के आरोप (अर्थात् रूपक) का तत्त्व भी अवश्य है; किन्तु इस भेद के साथ कि रूपक में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत के भेद से वक्ता परिचित रहता है और दोनों में सादृश्यातिशय-निरूपण के लिए प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का आरोप करता है। समाहित में प्रस्तुत ही अप्रस्तुत के रूप में बदल जाता है। वक्ता को दोनों में अभेद की प्रतीति होने लगती है। भरत ने सारूप्य नामक लक्षण के इससे मिलते-जुलते स्वरूप की कल्पना की थी। सारूप्य में यह कहा गया है कि समान रूप वाली वस्तु को देख कर उसी के सदृश अन्य वस्तु का ज्ञान हो
१. द्रष्टव्य-प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ४४, पाद टिप्पणी सं० ३ २. द्रष्ट व्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, ४, १४ ३. यत्सादृश्यं तत्सम्पत्तिः समाहितम् । -वामन, काव्यालं० सू० ४,३,२९ ४. तन्वी मेघजलापल्लवतया'द्रष्टव्य, वही, ४, ३ पृ० २७५
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १३१ जाने में सारूप्य लक्षण माना जाता है।' अभिनव ने इसकी व्याख्या करते हुए राम की यज्ञशाला में हेममयी सीता-प्रतिमा को देख अपनी माँ समझ कर लव का उसे प्रणाम करने का वर्णन उदाहृत किया है ।२ वामन के समाहित अलङ्कार का भरत के सारूप्य लक्षण से केवल इतना भेद माना जा सकता है कि भरत ने सारूप्य के रूप-विधान के लिए केवल दो वस्तुओं में रूपगत साम्य ही अपेक्षित माना है; किन्तु वामन उन वस्तुओं में उपमानोपमेय भाव की कल्पना भी आवश्यक मानेंगे। अतः, यह माना जा सकता है कि भरत के सारूप्य लक्षण में उपमा के तत्त्व उपमानोपमेय भाव सम्बन्ध को मिला कर वामन के समाहित अलङ्कार का स्वरूप निर्मित हुआ है ।
संसृष्टि ____ उक्त शब्दार्थालङ्कारों के स्वरूप-विवेचन के उपरान्त वामन ने समान अधिकरण में एकाधिक अलङ्कार के सद्भाव की दृष्टि से अलङ्कारों की संसृष्टि का वर्णन किया है। अलङ्कारों का मिश्रण संसृष्टि कहा जाता है। वामन की मान्यता है कि अलङ्कार का अलङ्कारयोनित्व अर्थात् एक अलङ्कार से अलङ्कारान्तर का कार्यकारण भाव सम्बन्ध होना संसृष्टि है। वामन ने संसृष्टि के दो भेद स्वीकार किये हैं—(क) उपमारूपक तथा (ख) उत्प्रेक्षा वयव । उपमारूपक में उपमा अलङ्कार रूपक का हेतु होता है; किन्तु उत्प्रेक्षावयव की स्थिति कुछ भिन्न है। उसमें रूपक आदि कई अलङ्कार उत्प्रेक्षा के हेत हो सकते हैं। भामह की अलङ्कार-धारणा के विवेचन-क्रम में उपमारूपक तथा उत्प्रेक्षावयव के स्रोत पर विचार किया जा चुका है। भामह ने उन दोनों अलङ्कारों को संसृष्टि से स्वतन्त्र सत्ता मानी थी, वामन ने उन्हें संसृष्टि के प्रकार मान लिया। अलंकारों के इस अङ्गाङ्गिभावावस्थान को भामह, दण्डी आदि ने भी संसृष्टि ही कहा था। उद्भट ने इस रूप को सङ्कर तथा
१. दृष्टश्र तानुभूतार्थकथनादि समुद्भवम् । ___ सादृश्यं क्षोभजननं सारुप्यमिति संज्ञितम् ।।-भरत, ना० शा०, १६
___ अनुबन्ध, श्लोक सं० ३५ पृ० ३६१ २. द्रष्टव्य—वही, अभिनव भारती, पृ० ३६१ ३. अलङ्कारस्य अलङ्कारयोनित्वं संसृष्टिः ।
-वामन, काव्यालं० सू०४, ३, ३०
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१३२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अलङ्कारों के परस्पर-निरपेक्ष सद्भाव के स्थल में संसृष्टि अलङ्कार माना था । वामन ने भामह के मत को ही स्वीकार किया है।
वामन की अलङ्कार-धारणा के इस परीक्षण से स्पष्ट है कि उन पर भामह की अलङ्कार-विषयक मान्यता का भूरिशः प्रभाव पड़ा है। उनके अधिकांश अलङ्कारों का स्वरूप भामह के अलङ्कारों के स्वरूप से अभिन्न है । तुल्ययोगिता, व्याजस्तुति, व्यतिरेक, निदर्शना, अनन्वय, विभावना आदि अलङ्कार इस निष्कर्ष के प्रमाण हैं।
वामन के जिन अलङ्कारों की प्रकृति प्राचीन आचार्यों के अलङ्कारों से कुछ. भिन्न है उनमें से अधिकांश का भेदक तत्त्व औपम्य है। प्रत्येक अलङ्कार को उपमा-प्रपञ्च सिद्ध करने के लिए भामह ने उसमें उपमानोपमेय भाव का समावेश करना चाहा है। अतः भामह आदि आचार्यों के अनेक अलङ्कारलक्षण को उन्होंने कुछ संशोधन के साथ स्वीकार किया है। भामह ने जिन अलङ्कारों की रूप-रचना में सादृश्य के तत्त्व पर विचार नहीं किया था, उनके स्वरूप-विधान में वामन ने साम्य की कल्पना जोड़ दी है। फलतः उनके अलङ्कारों का स्वभाव प्राचीनों के अलङ्कार से किञ्चित् भिन्न हो गया है। क्रम या यथासंख्य, श्लेष, विशेषोक्ति, परिवृत्ति, आक्षेप आदि अलङ्कारों का स्वरूप इसका निदर्शन है।
कुछ अलङ्कारों के स्वरूप-विन्यास में वामन पर भ रत की लक्षण-धारणा का भी प्रभाव पड़ा है। विरोधाभास, समाहित आदि के स्वरूप की परीक्षा के क्रम में उन पर भरत के तत्तल्लक्षणों की प्रकृति का प्रभाव देखा जा चुका है।
वामन ने वक्रोक्ति तथा व्याजोक्ति-इन दो नवीन अलङ्कारों की उद्भावना की है; किन्तु वक्रोक्ति का अलङ्कारत्व असन्दिग्ध नहीं। वह लक्षणा नामक शब्दशक्ति का एक भेद है। वामन की व्याजोक्ति-धारणा मौलिक है ।
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[१३३
आचार्य रुद्रट आचार्य रुद्रट भारतीय काव्यशास्त्र के अलङ्कार-सम्प्रदाय के प्रतिष्ठाताओं की प्रथम पंक्ति में परिगणित हैं। काव्य में शब्दगत एवं अर्थगत अलङ्कारों को सर्वाधिक महत्त्व देने के कारण ही उन्होंने अपनी रचना का अभिधान 'काव्यालङ्कार' किया है। ग्रन्थ के नामकरण के सम्बन्ध में टीकाकार नमिसाधु का यह मन्तव्य उचित ही है कि काव्य के अलङ्कार ही प्रस्तुत ग्रन्थ के मुख्य प्रतिपाद्य हैं।' 'काव्यालङ्कार' के दश अध्यायों में काव्य के शब्दार्थालङ्कार की सविस्तर मीमांसा की गयी है। कालक्रम की दृष्टि से रुद्रट अलङ्कारवादी आचार्यों में उद्भट के ठीक बाद आते हैं। उन दोनों के बीच काल का अन्तराल अनुमानतः पाँच दशाब्द से अधिक का नहीं होगा, किन्तु इतनी अल्प अवधि में ही अलङ्कारों की संख्या में प्रचुर वृद्धि हो गयी है। उद्भट के इकतालीस अलङ्कारों से बढ़ कर रुद्रट के 'काव्यालङ्कार' में तिरसठ अलङ्कार हो गये । काव्यालङ्कार में पाँच शब्दालङ्कार तथा अंठावन अर्थालङ्कारों की विवेचना की गयी है। यद्यपि रुद्रट ने अर्थालङ्कार के केवल इकावन व्यपदेश का उल्लेख किया है, तथापि स्वरूपतया वे अंठावन प्रकार के हैं। कारण यह है कि रुद्रट ने एक ही नाम के कुछ अलङ्कारों को दो वर्गों में रखा है। इस प्रकार समान संज्ञा होने पर भी वर्ग-भेद से उनके स्वरूप पृथक् पृथक् हो जाते हैं । अतः स्वरूपदृष्ट्या अर्थालङ्कारों की संख्या वस्तुतः अठावन ही मानी जानी चाहिए। पाँच शब्दालङ्कारों के योग से काव्यालङ्कार में अलङ्कारों की संख्या तिरसठ हो जाती है। रुद्रट ने अर्थालङ्कार के चार वर्ग माने हैं(क) वास्तव, (ख) औरम्य, (ग) अतिशय तथा (घ) श्लेष । ये चार शुद्ध अर्थालङ्कारों के वर्ग हैं। एक सङ्कीर्ण अलङ्कार माना गया है, जिसे सङ्कर नाम से अभिहित किया गया है। उक्त अलङ्कारों में से अनेक के भेदोपभेदों का बड़ा व्यापक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। प्रस्तुत सन्दर्भ में रुद्रट के नवीन अलङ्कारों तथा प्राचीन अलङ्कारों के नवीन भेदों के उद्गम-स्रोत का अन्वेषण ही अभिप्रेत है। 'काव्यालङ्कार' में उल्लिखित शब्दालङ्कार तथा वर्गानुक्रम से निर्दिष्ट अर्थालङ्कार निम्नलिखित हैंशब्दालङ्कार--१. वक्रोक्ति, २. अनुप्रास, ३. यमक, ४. श्लेष तथा ५. चित्र ।
१. तत्र काव्यालङ्कारा वक्रोक्तिवास्तवादयोऽस्य ग्रन्थस्य प्राधान्य
तोऽभिधेयाः।-काव्यालं० १,२ पर नमिसाधु की टीका, पृ० २
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१३४ अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अर्थालङ्कार निम्नाङ्कित चार वर्गों में प्रस्तुत किये गये हैं
(क) वास्तव वर्ग-(१) सहोक्ति, (२) समुच्चय, (३) जाति या स्वभावोक्ति, (४) यथासंख्य, (५) भाव, (६) पर्याय, (७) विषम, (८) अनुमान, (६) दीपक, (१०) परिकर, (११) परिवृत्ति, (१२) परिसंख्या, (१३) हेतु, (१४) कारणमाला, (१५) व्यतिरेक, (१६) अन्योन्य, (१७) उत्तर, (१८) सार, (१९) सूक्ष्म, (२०) लेश, (२१) अवसर, (२२) मीलित और (२३) एकावली।
(ख) औपम्य वर्ग-(१) उपमा, (२) उत्प्रेक्षा, (३) रूपक, (४) अपह नुति, (४) संशय या सन्देह, (६) समासोक्ति, (७) मत, (८) उत्तर, (९) अन्योक्ति या अप्रस्तुतप्रशंसा, (१०) प्रतीप, (११) अर्थान्तरन्यास, (१२) उभयन्यास, (१३) भ्रान्तिमान्, (१४) आक्षेप, (१५) प्रत्यनीक, (१६) दृष्टान्त, (१७) पूर्व, (१८) सहोक्ति, (१६) समुच्चय, (२०) साम्य तथा (२१) स्मरण ।
(ग) अतिशय वर्ग-(१) पूर्व, (२) विशेष, (३) उत्प्रेक्षा, (४) विभावना, (५) तद्गुण, (६) अधिक, (७) विरोध, (८) विषम, (६) असङ्गति, (१०) पिहित, (११) व्याघात और (१२) अहेतु ।
(घ) (अर्थ) श्लेष वर्ग-(१) श्लेष । श्लेष-विवेचन के अनन्तर सङ्कर का उल्लेख हुआ है।
सहोक्ति, समुच्चय तथा उत्तर अलङ्कार वास्तव एवं औपम्य-दोनों वर्गों में पठित हैं । विषम तथा हेतु अलङ्कारों का उल्लेख वास्तव एवं अतिशय; इन दो वर्गों में हुआ है। उत्प्रेक्षा और पूर्व अलङ्कार औपम्य तथा अतिशय वर्गों में परिगणित हैं।
पूर्ववर्ती आचार्यों के अलङ्कार-विमर्श में कुछ नये अलङ्कारों को जोड़ देने में ही रुद्रट की काव्यालङ्कार-मीमांसा का वैशिष्टय नहीं है। रुद्रट ने जहाँ एक ओर अनेक नवीन अलङ्कारों की उद्भावना की वहाँ दूसरी ओर पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा विवेचित विंशत्यधिक अलङ्कारों का नाम्ना भी उल्लेख नहीं किया। रुद्रट के द्वारा कल्पित नवीन अर्थालङ्कारों के नाम वर्गकम से निम्नलिखित हैं :
(क) वास्तव वर्ग-समुच्चय, भाव, पर्याय, विषम, अनुमान, परिकर, परिसंख्या, कारणमाला, अन्योन्य, उत्तर, सार, अवसर, मीलित तथा एकावली।
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अलङ्कार-धारणा का विकास [ १३५ (ख) औपम्य वर्ग-मत, उत्तर, प्रतीप, उभयन्यास, भ्रान्तिमान्, प्रत्यनीक, पूर्व, समुच्चय, साम्य तथा स्मरण ।
(ग) अतिशय वर्ग-पूर्व, विशेष, तद्गुण, अधिक, विषम, असङ्गति, पिहित, व्याघात और अहेतु ।
__ तीनों वर्गों के उक्त तैंतीस अलङ्कारों के व्यपदेश सर्वथा नवीन हैं । रुद्रट ने शब्दालङ्कारों में वक्रोक्ति तथा चित्र—इन दो नवीन अलङ्कारों का उल्लेख किया है। वक्रोक्ति नामक अलङ्कार वामन के 'काव्यालङ्कार सूत्र' में भी उल्लिखित है; किन्तु वहाँ वक्रोक्ति की कल्पना अर्थालङ्कार के रूप में की गयी है। शब्दालङ्कार के रूप में वक्रोक्ति की कल्पना सर्वप्रथम रुद्रट ने ही की। श्लेष को शब्दालङ्कार एवं अर्थालङ्कार दोनों मान कर एक ही नाम के दो अलङ्कारों की कल्पना की गयी है। ____ आचार्य भरत से लेकर रुद्रट के पूर्ववर्ती उद्भट तथा वामन तक की रचनाओं में किञ्चित् मतभिन्न्य के साथ जिन एकावन शब्दार्थगत अलङ्कारों के स्वरूप का विवेचन हो चुका था उनमें से निम्नलिखित अलङ्कारों का उल्लेख रुद्रट के काव्यालङ्कार में नहीं हुआ है :
शब्दालङ्कार :-छेकानुप्रास तथा लाटानुप्रास ।
अर्थालङ्कार :-अनन्वय, अतिशयोक्ति, आवृत्ति, आशीः, उत्प्रेक्षावयव, उदात्त, उपमारूपक, उपमेयोपमा, ऊर्जस्वी, काव्यलिङ्ग, तुल्ययोगिता, निदर्शना, पर्यायोक्त, पुनरुक्तवदाभास, प्रतिवस्तूपमा, प्रय, भाविक, रसवत्, विशेषोक्ति, व्याजस्तुति, संसृष्टि, समाहित, व्याजोक्ति तथा अर्थगत वक्रोक्ति ।
छेकानुप्रास तथा लाटानुप्रास की अनुप्रास से पृथक् सत्ता अनावश्यक समझ कर रुद्रट ने उनकी गणना नहीं की होगी। 'काव्यालङ्कार' में अतिशय मूलक अलङ्कारों के एक वर्ग की ही कल्पना कर ली गयी है; पर अतिशयोक्ति का विशेष अलङ्कार के रूप में पृथक् निर्देश नहीं किया गया है। उत्प्रेक्षावयव तथा उपमारूपक की पृथक् सत्ता स्वीकार करने का सबल आधार नहीं था। अतः उन्हें अस्वीकार कर दिया गया है। रुद्रट को रसवत् अलङ्कार की कल्पना कर उसमें रस जैसे काव्य के महत्त्वपूर्ण तत्त्व को सीमित कर देना युक्तिसङ्गत नहीं जान पड़ा होगा। भामह, दण्डी, उद्भट आदि काव्य में रस का उचित मूल्याङ्कन नहीं कर पाये थे। इसीलिए उन्होंने रसमय वाणी को रसवदलङ्कार युक्त माना था। रुद्रट की स्थिति उनसे भिन्न है। अलङ्कार सम्प्रदाय के उन्नायक होने पर भी रुद्रट ने रस को उपेक्षणीय नहीं माना
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१३६ ]
अलङ्कार-धारणा: विकास और विश्लेषण
था । 'काव्यालङ्कार' के दो अध्यायों में रस का विस्तृत विवेचन इसका प्रमाण है । फलतः रुद्रट ने रसवदादि अलङ्कार की सत्ता अस्वीकार कर दी । उपमेयोपमा, अनन्वय, प्रतिवस्तूपमा आदि को उन्होंने उपमा में ही अन्तर्भुक्त मान लिया होगा । उन्होंने सङ्कीर्ण अलङ्कारों का विवेचन सङ्कर नाम से किया है और उससे स्वतन्त्र संसृष्टि की सत्ता नहीं मानी है । वस्तुतः सङ्कर और संसृष्टि अलङ्कार के स्वतन्त्र भेद नहीं हैं । वे विभिन्न अलङ्कारों के एकत्र निवेश की दो अलग-अलग प्रक्रियाओं के बोधक - मात्र हैं । इसीलिए उद्भट के पूर्ववर्ती भामह तथा दण्डी ने संसृष्टि से पृथक् सङ्कर की कल्पना नहीं की थी। दण्डी की संसृष्टि के दो भेदों के आधार पर उद्भट ने संसृष्टि तथा सङ्कर; इन दो अलङ्कारों की स्वतन्त्र सत्ता की कल्पना कर ली । उनके परवर्ती आचार्य रुद्रट ने सर की सत्ता स्वीकार कर संसृष्टि का सद्भाव अस्वीकार कर दिया । अस्तु, हमारा प्रकृत विषय रुद्रट के नवीन अलङ्कारों, प्राचीन अलङ्कारों के नवीन रूपों तथा उनके नवीन भेदों के मूल का अनुसन्धान है ।
वक्रोक्ति
शब्दालङ्कार के क्षेत्र में वक्रोक्ति की अवतारणा सर्वप्रथम रुद्रट के 'काव्यालङ्कार' में हुई है । वक्रोक्ति शब्द साहित्य - शास्त्र में चिर-परिचित था । भामह ने उसका उल्लेख अतिशय पूर्ण कथन के लिए किया था । वामन ने उसे लाक्षणिक प्रयोग के प्रकार - विशेष का पर्याय बना कर अर्थालङ्कार के बीच परिगणित किया था । रुद्रट ने उसके भिन्न स्वरूप की कल्पना कर उसे शब्दगत अलङ्कार माना है । उन्होंने वक्रोक्ति के सम्बन्ध में यह धारणा प्रकट की है कि वक्ता जिस अभिप्राय से कुछ कहता हो उसकी बात का उससे भिन्न तात्पर्य निकाल कर जहाँ उत्तर देने वाला कुछ वक्रता के साथ उत्तर देता है वहाँ, वक्रोक्ति नामक अलङ्कार होता है । किसी के कथन का उसके अभीष्ट अर्थ से भिन्न अर्थ दो प्रकार से निकाला जा सकता है— (क) श्लेष के सहारे किसी पद के दो अर्थ निकाल कर तथा (ख) काकु अर्थात् कण्ठध्वनि के भेद से । इस प्रकार वक्रोक्ति दो भेद हो जाते हैं । वक्रोक्ति का स्वरूप रुद्रट की नवीन उद्भावना है ।
१. वक्त्रा तदन्यथोक्त व्याचष्टे चान्यथा तदुत्तरदः ।
वचनं यत्पदभङ्ग ज्ञया सा श्लेषवक्रोक्तिः ॥ - रुद्रट, काव्यालं ०, २, १४,
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १३७
चित्र
रुद्रट ने चित्र-नामक स्वतन्त्र शब्दालङ्कार की कल्पना की है। इसमें चक्र, मुरज आदि चित्रों में वर्गों का विन्यास होता है। इस अलङ्कार का अभिधान-मात्र नवीन है । दण्डी ने यमक के विवेचन-क्रम में मुरज-बन्ध आदि के रूप में शब्दयोजना की प्रक्रिया पर भी विचार किया था। रुद्रट ने चित्र को स्वतन्त्र अलङ्कार मान कर उसके चक्र, खङ्ग, मुसल, वाण आदि बन्ध-भेदों की भी कल्पमा कर ली है। चित्र अलङ्कार-विषयक मूल धारणा दण्डी से ही ली गयी है।'
समुच्चय
वास्तव अलङ्कार-वर्ग के समुच्चय के लक्षण में रुद्रट ने यह मान्यता प्रकट की है कि जहाँ एक आधार में अनेक वस्तुओं का सद्भाव वर्णित हो वहाँ ‘समुच्चय अलङ्कार होता है। एक अधिकरण में दो सुन्दर. दो असुन्दर तथा एक सुन्दर और एक बसुन्दर वस्तु के सद्भाव के आधार पर उसके तीन भेद स्वीकार किये गये हैं ।२ रुद्रट के पूर्ववर्ती किसी आचार्य ने एक आधार में अनेक आधेय की युगपत् स्थिति के वर्णन में अलङ्कारत्व की कल्पना नहीं की थी। यह रुद्रट की मौलिक उद्भावना है।
भाव
रुद्रट के भाव अवतार का सम्बन्ध हृद्गत भाव की व्यञ्जना से है। हृदय के भाव को प्रतिक्रिया चेहरे पर भी स्पष्ट हो जाया करती है। विभिन्न भावों के बाह्य विकार स्पष्ट ही दिखाई पड़ जाते हैं। वे विकार भाव के कार्य होते हैं। उस कार्य को देख कर कारण का अनुमान भावक को हो जाता है। चेष्टा से भाव के अभिव्यञ्जन का यही रहस्य है। रुद्रट की मान्यता है कि जहाँ किसी अधिकरण में अनैकान्तिक हेतु से उत्पन्न होने वाला विकार भावक को अपने आधारभूत पात्र के हृद्गत भाव का बोध करा देता है तथा वही विकार अपने तथा अपने हेतु के बीच कार्यकारण-भाव की भी व्यञ्जना
१. द्रष्टव्य, रुद्रट, काव्यालं०५, १-४ तथा दण्डी काव्यद० ३, ७८-८२ २. यत्र कत्राने वस्तु परं स्यात्सुखावहाद्य । ज्ञेयः समुच्चयोऽसौ त्रेधान्यः सदसतो-गः । रुद्रट, काव्यालं. ७, १६
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१३८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
करता है, वहाँ भाव नामक अलङ्कार होता है।' अनेक कारणों से एक-से विकार का होना सम्भव है; किन्तु भाव में विकार के यथार्थ कारण का बोध भी प्रमाता को हो जाता है। विकार को देख कर भाव के अवगम की धारणा नवीन नहीं है। भरत ने प्राप्ति नाट्यलक्षण में इससे मिलती-जुलती धारणा ही व्यक्त की है। उन्होंने किसी अवयव को देखते ही भाव का अनुमान-गम्य हो जाने में प्राप्ति लक्षण माना था।२ रुद्रट ने उसी लक्षण के आधार पर भाव अलङ्कार के इस स्वरूप की कल्पना कर ली। रुद्रट ने भाव के दूसरे प्रकार की कल्पना कर यह माना है कि वाच्य की उक्ति से वक्ता के अभिप्रायरूप वाच्य-भिन्न अर्थ के बोध होने में भी भाव अलङ्कार होता है । 3 वाच्यअर्थ से अर्थान्तर के गम्य होने की धारणा से भी भरत आदि प्राचीन आचार्य परिचित थे। शब्द की मुख्य वृत्ति (अभिधा) के अतिरिक्त अन्य शब्दशक्तियों से भी भारतीय मनीषा रुद्रट के बहुत पूर्व से ही परिचित थी। भामह ने शब्द की मुख्य वृत्ति के अतिरिक्त अन्य शक्तियों के सम्बन्ध में बौद्ध आदि के मत का उल्लेख किया है। अतः भाव के इस दूसरे स्वरूप की कल्पना भी सर्वथा नवीन नहीं है। उसे अलङ्कार के रूप में स्वीकार करने-मात्र में रुद्रट के विचार की नवीनता है। भाव के प्रथम रूप के उदाहरण को मम्मट आदि आचार्यों ने गुणीभूत व्यङ्ग य तथा द्वितीय रूप के उदाहरण को ध्वनि का उदाहरण माना है। ध्वनि तथा गुणीभूत व्यङ्गय में अन्तर्भूत होने के कारण उसका अलङ्कारत्व स्वीकृत नहीं हुआ। पर्याय
प्राचीन आचार्यों के पर्यायोक्त को ही रुद्रट ने पर्याय संज्ञा से अभिहित किया है । वे भामह आदि की तरह भङ्ग यन्तर से अभिधान में पर्याय अलङ्कार, १. यस्य विकारः प्रभवन्नप्रतिबद्धन हेतुना येन । गमयति तदभिप्रायं तत्प्रतिबन्धं च भावोऽसौ ॥
–रुद्रट, काव्यालं० ७, ३८ २. दृष्ट्वैवावयवं किञ्चिद्भावो यत्रानुमीयते।। प्राप्तिं तामभिजानीयाल्लक्षणं नाटकाश्रयम् ।।
-भरत, ना० शा०, १६, ३२ ३. अभिधेयमभिदधानं तदेव तदसदृशसकलगुणदोषम् । अर्थान्तरमवगमयति यद्वाक्यं सोऽपरो भावः ।।
-रुद्रट, काव्यालं०, ७, ४०
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १३९ मानते हैं। पर्याय के दूसरे प्रकार का स्वरूप सर्वथा नवीन है। पर्याय शब्द का परिपाटी अर्थ मान कर उसके इस रूप की कल्पना की गयी है। इसमें क्रम से एक वस्तु का अनेक अधिकरणों में अथवा अनेक वस्तुओं का एक अधिकरण में सद्भाव वर्णित होता है ।।
विषम
जहाँ दो वस्तुओं में वस्तुतः सम्बन्ध का अभाव रहने पर भी, उनमें अन्य व्यक्तियों के द्वारा सम्बन्ध-कल्पना की सम्भावना कर वक्ता उस सम्बन्ध को" विघटित करता है, वहाँ रुद्रट के मतानुसार विषम अलङ्कार होता है। सम्बन्ध के अप्राप्त रहने पर उसका विघटन युक्तिसङ्गत नहीं। निषेध प्राप्त का ही होता है। इसलिए तात्त्विक असम्बन्ध में अन्य लोगों के द्वारा सम्बन्ध समझ लिये जाने की आशङ्का कर उस सम्बन्ध का खण्डन किया जाता है। विषम का दूसरा रूप वहाँ देखा जाता है जहाँ दो वस्तुओं के बीच सम्बन्ध रहने पर उसका (सम्बन्ध का) अनौचित्य दिखाया जाता है। तीसरे प्रकार का विषम वहाँ होता है जहाँ असम्भाव्य वस्तु की सत्ता वणित होती है। इनके अतिरिक्त कर्ता और कार्य के सम्बन्ध की दृष्टि से निम्नलिखित चार प्रकार के विषम की कल्पना की गई है
(क) जहाँ कर्ता स्वल कार्य भी नहीं कर सके, (ख ) जहाँ वह गुरु-कार्य भी कर ले, (ग) अशक्त कर्ता भी जहाँ कार्य कर ले. और (घ) सशक्त भी जहाँ किसी कार्य को नहीं कर सके । विषम के उक्त सात रूपों के अतिरिक्त एक रूप वह है, जिसमें कर्ता को आरब्ध कार्य से केवल अभीष्ट फल की अनुपलब्धि ही नहीं होती वरन् और भी अनर्थ की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार विषम शब्द के विभिन्न अर्थों के आधार पर उसके उक्त" आठ प्रकार की कल्पना की गयी है। विषम के दूसरे तथा तीसरे स्वरूप का निर्धारण विषम शब्द का अनुचित अर्थ मान कर किया गया है। उसके अनौचित्य तथा अशक्यकर्तृत्त्व अर्थ के आधार पर चौथे, पांचवें, छठे तथा
१. द्रष्टव्य-रूद्रट, काव्यालङ्कार, ७,४२ तथा भामह, काव्यालङ्कार ३,८२. यत्र कमनेकस्मिन्ननेकमेकत्र वा क्रमेण स्यात् । वस्तु सुखादिप्रकृति क्रियते वान्यः स पर्यायः ।।
-रुद्रट, काव्यालङ्कार ७,४४० ३. द्रष्टव्य-वही, ७,४७-५१ ।
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१४० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
सातवें विषम-प्रकारों की कल्पना की गयी है । अन्तिम प्रकार-निरूपण में विषम शब्द का अर्थ दारुण माना गया है। विषम अलङ्कार रुद्रट की मौलिक -उद्भावना है।
अनुमान
अनुमान के साध्य तथा साधक या हेतु, इन दो तत्त्वों में से साध्य का "उपन्यास कर पुनः उसके साधक हेतु का उपन्यसन अथवा पहले हेतु का उपन्यास कर साध्य का उपन्यसन; ये अनुमान के दो रूप हैं। जहाँ बलवान कारण को देख वस्तुतः अनुत्पन्न कार्य को भी उत्पन्न अथवा भावी कहा जाय वहाँ भी अनुमान अलङ्कार होता है। ' काव्य में प्रयुक्त होने वाले मनोरम अनुमान को काव्यालङ्कार के रूप में सर्वप्रथम रुद्रट ने ही स्वीकार किया है। हेतु से साध्य-साधन रूप अनुमान की धारणा दर्शन के क्षेत्र में प्राचीन काल से 'प्रचलित थी। न्याय-दर्शन में अनुमान की प्रक्रिया का प्रौढ़ विवेचन सर्वविदित है। आचार्य भरत ने भी प्राप्रि-लक्षण में भाव के अनुमान का उल्लेख किया है ।२ विचार-लक्षण की परिभाषा के प्राप्त पाठ में भरत ने परोक्ष अर्थ के साधक वाक्य के प्रयोग पर बल देकर काव्य में अनुमान की प्रक्रिया को ही स्वीकृति दी थी।3 स्पष्ट है कि रुद्रट के अनुमान अलङ्कार के स्वरूप से प्राचीन आचार्य अपरिचित नहीं थे। काव्यालङ्कार के क्षेत्र में उसकी अवतारणा-मात्र में रुद्रट की मौलिकता है।
परिकर
साभिप्राय विशेषण से द्रव्य, गुण, क्रिया तथा जाति-रूप वस्तु को विशिष्ट करने में परिकर अलङ्कार माना गया है।४ महाकवियों की रचना में प्रयुक्त विशेषण बहुधा साभिप्राय ही हुआ करते हैं। भरत ने उदार-गुण के लक्षण के
१. रुद्रट, काव्यालं० ७,५६-५६ ।। २. द्रष्टव्य-भरत ना० शा० १६, ३२ । ३. पूर्वाशयसमानार्थैरप्रत्यक्षार्थसाधनैः। अनेकोपाधिसंयुक्तो विचारः परिकीर्तितः ॥
-वही, १६ अनुबन्ध श्लोक सं० २५ पृ० ३५७ ४. साभिप्रायः सम्यग्विशेषणैर्वस्तु यद्वि शिष्येत । द्रव्यादिभेदभिन्नं चतुर्विधः परिकर: स इति ।
-रुद्रट, काव्यालङ्कार, ७,७२
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १४१
एक पाठ में अनेक सूक्ष्म विशेषणों के प्रयोग के स्थल में उदात्त गुण की सत्ता मानी है | हेमचन्द्र ने भरत की उदात्त विषयक मान्यता की व्याख्या करते हुए लिखा है कि जहाँ अनेक सूक्ष्म विशेषणों से युक्त वाक्य प्रयुक्त हों वहाँ भरत उदात्त गुण मानते थे । इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि रुद्रट के परिकर अलङ्कार के साभिप्राय विशेषण युक्त वाक्य की प्रकृति भरत के अनेक - सूक्ष्म विशेषण सहित उदात्त गुण युक्त वाक्य की प्रकृति से बहुत मिलती-जुलती है । भरत ने अक्षरसंघात लक्षण में भी साभिप्राय शब्द प्रयोग पर बल दिया है । भरत के 'नाट्यशास्त्र' में उदात्त गुण तथा अक्षरसङ्घात लक्षण के स्वरूप का निरूपण हो जाने पर परिकर अलङ्कार के स्वतन्त्र स्वरूप की कल्पना भरत के लिए आवश्यक नहीं थी ।
परिसंख्या
जहाँ गुण, क्रिया, जाति रूप वस्तुओं के अनेक आधार में रहने पर भी किसी एक नियत आधार में ही उनका सद्भाव कहा जाय, जिससे अन्यत्र उनका अभाव प्रतीत हो, वहाँ रुद्रट के अनुसार परिसंख्या अलङ्कार होता है । अनेक अधिकरणगत वस्तुओं के एक नियत अधिकरण में निवास का निर्णय वक्ता कहीं अन्य व्यक्तियों के द्वारा पूछे जाने पर करता है, कहीं वह अपृष्टपूर्व ही ऐसा करता है । इन दो स्थितियों के आधार पर परिसंख्या के दो रूप स्वीकृत हैं । 3 परिसंख्या के स्वरूप पर दर्शन - शास्त्र में सूक्ष्म विचार मिलता है । काव्यालङ्कार के क्षेत्र में परिसंख्या की अवतारणा दर्शन
हुई है।
कारणमाला
कारणमाला अन्वर्था संज्ञा है । इसमें प्रत्येक पूर्वस्थित पदार्थ अपने उत्तर--- वर्ती पदार्थ का कारण बनता जाता है । इस प्रकार उत्तरवर्ती कार्य के प्रति
१. बहुभिः सूक्ष्मैश्च विशेषः समेतमुदारमिति भरतः ।
- हेम०, काव्यानु०, व्याख्या, पृष्ठ २३८ २. द्रष्टव्य — भरत, ना० शा ० १६, ६ तथा उस पर अभिनवगुप्त की टीका, पृ० ३००
३. पृष्टमपृष्टं वा सद्गुणादि यत्कथ्यते क्वचित्तव्यम् ।
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अन्यत्र तु तदभावः प्रतीयते सेति परिसंख्या ॥ - रुद्रट, काव्यालं० ७,७ε
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१४२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण पूर्ववर्ती कारणों की शृङ्खला-सी बन जाती है ।' दो पदार्थों के बीच कार्य-कारण"भाव की धारणा भरत ने हेतु लक्षण में व्यक्त की है।२ कारण-कार्य-भाव की धारणा अत्यन्त प्राचीन है। दर्शन में कार्य-कारण-सम्बन्ध विचार का प्रधान विषय रहा है। भरत आदि आचार्य माला की धारणा से भी परिचित थे। नाट्यशास्त्र के प्राप्त एक पाठ में माला नामक लक्षण पर विचार किया गया है, जिसमें अभीष्ट अर्थ की सिद्धि के लिए अनेक प्रयोजन कथित होते हैं । 3 अनेक कारणों के एकत्र सन्निवेश की धारणा के प्राचीन होने पर भी रुद्रट के कारणमाला अलङ्कारकी रूपगत नवीनता यह है कि इसमें प्रत्येक पूर्ववर्ती पदार्थ अपने उत्तरवर्ती का कारण बन जाता है। अतः एक ही वाक्य में जो अपने पूर्ववर्ती का कार्य होता है, वह अपने उत्तरवर्ती का कारण बन जाता है। इस प्रकार कारण-कार्य की शृङ्खला बन जाती है। शृङ्खला-रूप में कार्य-कारण-भाव की उद्भावना का श्रेय रुद्रट को है। अन्योन्य
जहाँ दो अभिधेय पदार्थों में हेतुभूत क्रिया से परस्पर विशिष्ट धर्म को परिपुष्ट करने वाला एक कारक-भाव (कर्ता आदि कारकत्व) निष्पन्न होता है वहाँ अन्योन्य अलङ्कार होता है ।४ हेतुभूत समान-क्रिया से समान कारकत्व की धारणा दीपक-धारणा से ली गयी है । यह रुद्रट की नवीन उद्भावना है। उत्तर
उत्तर सुन कर जहाँ पूर्ववचन का निश्चय किया जाय अथवा जहाँ प्रश्न से ही उसका उत्तर प्रतीत हो वहाँ उत्तर नामक अलङ्कार माना गया है।५ उत्तर से प्रश्न तथा प्रश्न से उत्तर की प्रतीति के आधार पर प्रस्तुत . १. कारणमाला सेयं यत्र ययापूर्वमेति कारणताम् ।
अर्थानां पूर्वार्थाद्भवतीदं सर्वमेवेति ॥-रुद्रट, कात्यालं०. ७.८४ २. द्रष्टव्य-भरत ना० शा० १६, अनुबन्ध, १० ३. अभिप्रेतार्थसिद्ध्यर्थ कीर्त्यन्ते यत्र सूरिभिः । प्रयोजनान्यनेकानि सा मालेत्यभिसंज्ञिता॥
-वही, १६ अनुबन्ध, श्लोक सं० २६ ४. यत्र परस्परमेकः कारकभावोऽभिधेययोः क्रियया। ___ संजायेत स्फारिततत्त्व विशेषस्तदन्योन्यम् ।।-रूद्रट, काव्यालं०, ७,६१ ५. उत्तरवचनश्रवणादुन्नयनं यत्र पूर्ववचनानाम् ।
क्रियते तदुत्तरं स्यात्प्रश्नादप्युत्तरं यत्र ।। वही, ७, ६३
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १४३ अलङ्कार के दो भेद स्वीकृत हैं। प्रथम भेद का स्वरूप अनुमान से कुछ मिलताजुलता है। अनुमान की तरह इसमें भी उत्तर-वाक्य से प्रश्न-वाक्य अनुमित हो जाता है। दोनों में भेद केवल इतना है कि जहाँ अनुमान में हेतुहेतुमद्भाव की सिद्धि अपेक्षित होती है वहाँ उत्तर में केवल प्रश्न का अनुमान होता है। इसमें कार्यकारण भाव की सिद्धि नहीं होती। उत्तर के दूसरे प्रकार में प्रश्न में ही उत्तर की प्रतीति वाञ्छनीय मानी गयी है । उत्तर के इस भेद का स्वरूप भरत के पृच्छा संज्ञक लक्षण के स्वरूप से मिलता-जुलता है। पृच्छा में प्रश्न ही उत्तर का ज्ञापक होता है । ' अभिनव गुप्त ने पृच्छा लक्षण की परिभाषा की व्याख्या करते हुए लिखा है कि इसमें प्रश्न के उत्तर की अपेक्षा नहीं होती, चूंकि प्रश्न ही उत्तर की प्रतीति करा देते हैं ।२ स्पष्ट है कि पृच्छा लक्षण के तत्त्वों से ही रुद्रट के उत्तर के उक्त स्वरूप का निर्माण हुआ है। सार
सार अलङ्कार में एक समुदाय की वस्तुओं में एक अङ्ग से दूसरे अङ्ग का क्रमशः गुणोत्कर्ष वर्णित होता है। इसमें प्रत्येक पूर्ववर्ती पदार्थ से उत्तरवर्ती पदार्थ उत्कृष्ट माना जाता है। इस प्रकार किसी वस्तु के उत्तरोत्तर उत्कर्षशाली अङ्गों का क्रमबद्ध उपस्थापन सार में अपेक्षित माना गया है। प्रत्येक पूर्ववर्ती से अधिकाधिक गुणवान् वस्तुओं की शृङ्खला इसमें रहा करती है। वस्तुविनिवेश की शृङ्खला कारणमाला की तरह इसमें भी रहती है; किन्तु इसका कारणमाला से यह भेद है कि इसमें पूर्ववर्ती पदार्थ का परवर्ती पदार्थ से हेतुहेतुमद्भाव-सम्बन्ध नहीं रहता; इसमें पूर्ववर्ती तथा परवर्ती पदार्थों में गुणों के न्यूनाधिक्य-मात्र का विचार अपेक्षित माना गया है। प्रस्तुत अलङ्कार के स्वरूप की उद्भावना का श्रेय भी रुद्रट को ही है। अवसर
न्यून वस्तु के उत्कर्ष-साधन के लिए जहाँ उदात्त या सरस वस्तु को उस न्यून वस्तु के उपलक्षण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, वहाँ अवसर
१. यत्राकारोद्भवैर्वाक्यरात्मानमथवा परम् । __ पृच्छन्निवाभिधत्त ऽर्थं सा पृच्छेत्यभिसंज्ञिता ॥-वही, १६,३४ २. पृच्छा.. पृच्छन्निवाभिधानम् । तन्नोत्तरमपेक्षते तस्यैव प्रत्यायकत्वात् ।
-अभिनव, ना० शा० अ० भा० पृ० ३६१ ३. यत्र यथासमुदायाद्यथैकदेशं क्रमेण गुणवदिति । निर्धार्यते यथावधि निरतिशयं तद्भवेत्सारम् ।।-रुद्रट, काव्यालं०७,९६
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१४४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अलङ्कार होता है । ' भरत ने हीन वस्तु में उदात्तता के आधान को ओज गुण कहा था । २ ओज गुण-लक्षण के दो पाठ उपलब्ध हैं । जिस लक्षणश्लोक में हीन वस्तु में उदात्तता के आधान को ओज कहा गया है, उसे लक्ष्य कर हेमचन्द्र ने कहा है कि जहाँ कवि अवगीत. या हीन वस्तु में भी शब्दार्थ की सम्पदा से उदात्तत्व की प्रतिष्ठा करते हैं वहाँ भरत के अनुसार ओज गुण होता है । अवसर अलङ्कार के प्रथम भेद का स्वरूप भरत के ओज के उक्त स्वरूप से मिलता-जुलता है । अवसर के दूसरे भेद में सरस वाक्य के उपलक्षण बनाये जाने पर बल दिया गया है । भरत ने सरस तथा दिव्य भाव युक्त वाक्य के प्रयोग पर उदारत्व गुण में विचार किया था । ४ युक्ति लक्षण में उत्कृष्ट वस्तु के साथ अर्थ के सम्बन्ध-साधन पर बल दिया गया है । इससे स्पष्ट है कि भरत के ओज एवं उदारत्व गुणों तथा युक्ति लक्षण के तत्त्वों के योग से रुद्रट के अवसर अलङ्कार की स्वरूप सृष्टि हुई है ।
मीलित
जहाँ हर्ष, क्रोध, भय आदि का अपने समान चिह्न वाले नित्य या आगमापायी पदार्थों से तिरस्कृत होना वर्णित हो वहाँ मीलित अलङ्कार होता है । ६ प्रस्तुत अलङ्कार का स्वरूप सर्वथा नवीन है ।
एकावली
एकावली का स्वरूप भी नवीन है । कारणमाला तथा सार की तरह इसमें भी पदार्थों की शृङ्खला की कल्पना की गयी है । इसमें प्रत्येक परवर्ती पदार्थ अपने पूर्ववर्ती पदार्थ के प्रति विशेषण बन जाता है ।"
१. अर्थान्तरमुत्कृष्टं सरसं यदिवोपलक्षणं क्रियते ।
अर्थस्य तदभिधानप्रसङ्गतो यत्र सोऽवसरः ॥ - रुद्रट, काव्यालं० ७,१०३ २. द्रष्टव्य - भरत, ना० शा०, १६, १०६ ।
३. अवगीतस्य हीनस्य वा वस्तुनः शब्दार्थसम्पदा यदुदात्तत्वं निषिञ्चन्ति कवयस्तदोज:' इति भरतः । - हेम०, काव्यानु० व्याख्या, पृ० २३३
४. द्रष्टव्य — भरत, ना० शा० १६,११० ।
५. द्रष्टव्य - वही, १६,३६ ।
६. तन्मीलितमिति यस्मिन्समानचिह्न ेन हर्ष कोपादि ।
अपरेण तिरस्क्रियते नित्येनागन्तुकेनापि ॥ - रुद्रट, काव्यालं० ७,१०६ ७. द्रष्टव्यव -वही, ७, १०६ ।
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[१४५
औपम्य वर्ग के अलङ्कार मत
जहां वक्ता लोकमत से सिद्ध उपमेय का कथन कर स्वमत से उस उपमेय के समान धर्म वाले उपमान का उल्लेख करता हो, वहां मत नामक अलङ्कार माना गया है।' लोकमत से भिन्न वक्ता के निज-मत का प्रकाशन होने से मत की अन्वर्था संज्ञा है। स्पष्ट है कि इसमें वक्ता किसी वस्तु के सम्बन्ध में अन्य व्यक्तियों की मान्यता का निषेध करता है; किन्तु अपह नुति की तरह इसमें प्रस्तुत का शब्दतः निषेध नहीं किया जाता। इसमें वर्ण्य विषय के सम्बन्ध में अन्य लोगों के मत को अस्वीकार कर वक्ता अपने मत का उल्लेखमात्र करता है। आचार्य भरत ने हेतु लक्षण में किसी वस्तु के सम्बन्ध में कही जाने वाली बातों को अनादृत कर वक्ता के द्वारा किसी असाधारण अर्थ का सप्रमाण निर्णय किया जाना वाञ्छनीय माना है। इस लक्षण में उपमानोपमेय भाव की धारणा को मिला कर लोगों की उपमेयोक्ति का अनादर कर स्वमत से उपमानोक्ति की धारणा मत अलङ्कार के लक्षण में व्यक्त की गयी है। स्पष्ट है कि हेतु लक्षण तथा उपमा अलङ्कार के तत्त्वों के योग से मत अलङ्कार के स्वरूप की रचना हुई है।
उत्तर
उत्तर अलङ्कार के लक्षण में रुद्रट ने यह मान्यता व्यक्त की है कि जहाँ उपमेयभूत वस्तु के सम्बन्ध में कुछ पूछे जाने पर वक्ता उपमान के विख्यात तथा तन्मात्रनिष्ठ कार्य से उसे उपमान के तुल्य कहे, वहाँ उत्तर नामक अलङ्कार होता है।3 उपमान के कार्य से उपमेय को उसके समान कहे जाने के कारण यह उत्तर उपमामूलक अलङ्कार है। एक अर्थ से तत्त ल्य अन्य अर्थ के निर्णय पर आचार्य भरत ने मिथ्याध्यवसाय लक्षण में बल दिया था। उत्तर में भी उपमान के कार्य से तत्त ल्य उपमेय का निर्णय होता १. तन्मतमिति यत्रोक्त्वा वक्तान्यमतेन सिद्धमुपमेयम् ।
ब्र यादथोपमान तथा विशिष्टं स्वमत सिद्धम् ।।-रुद्रट, काव्यालं०८,६९ २. द्रष्टव्य-भरत, ना० शा० १६,१४ ३. यत्र ज्ञातादन्यत्पृष्टस्तत्त्वेन वक्ति तत्तु ल्यम् ।
कार्येणानन्यसमाख्यातेन तदुत्तरं ज्ञेयम् ॥ रुद्रट, काव्यालं. ८,७२ ४. द्रष्टव्य-भरत, ना० शा०, १६,१६
१०
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१४६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
है । किसी के द्वारा पूछे जाने पर निर्णय किये जाने में आचार्य भरत ने आख्यान' नामक लक्षण का सद्भाव स्वीकार किया है । ' रुद्रट के उपमामूलक उत्तर अलङ्कार की परिभाषा में एक अर्थ से तत्तल्य अर्थ के निर्णय का तत्त्व मिथ्याध्यवसाय लक्षण से, किसी द्वारा पूछे जाने पर वक्ता के द्वारा निर्णय किये जाने का तत्त्व आख्यान लक्षण से और उपमानोपमेय का तत्त्व उपमा अलङ्कार से गृहीत है ।
प्रतीप
उपमेय की अतिशयता के द्योतन के लिए जहाँ उपमान के साथ उसकी समता के लिए उसकी निन्दा की जाती हो या उस पर अनुकम्पा प्रकट की जाती हो वहाँ रुद्रट के अनुसार प्रतीप अलङ्कार होता है । २ प्रतीप के इस स्वरूप की कल्पना आचार्य दण्डी के उपमा अलङ्कार के एक भेद उत्प्रेक्षितोपमा के स्वरूप के आधार पर की गयी है । दण्डी के द्वारा प्रदत्त उत्प्र ेक्षितोपमा के उदाहरण की व्याख्या करते हुए 'काव्यादर्श' की 'कुसुमप्रतिमा' टीका के लेखक नृसिंहदेव शास्त्री ने रुद्रट के प्रतीप अलङ्कार के उदाहरण से उसका स्वरूप-साम्य प्रतिपादित किया है । 3 स्पष्ट है कि दण्डी की उपमा धारणा के आधार पर ही रुद्रट ने प्रतीप नामक नवीन अलङ्कार की उद्भावना कर ली । रुद्रट के परवर्ती आचार्यों ने प्रतीप व्यपदेश को तो स्वीकार किया है; किन्तु उसके रुद्रट - कल्पित लक्षण को अस्वीकार कर नवीन लक्षण की सृष्टि की है ।
उभयन्यास
रुद्रट के उभयन्यास अलङ्कार की प्रकृति भामह आदि आचार्यों के
१. द्रष्टव्य- भरत, ना० शा०, १६,२१ ।
२. यत्रानुकम्प्यते सममुपमाने निन्द्यते वापि । उपमेयमतिस्तोतुं दुरवस्थमिति प्रतीपं स्यात् ॥
— रुद्रट, काव्यालं० ८, ७६ ३. वयन्तु — 'गर्वमसंवाह्यमिमम्' ' इत्यादिस्थलवत्' 'अन्योपमेयलाभेन वर्ण्यस्यानादरश्च तत्' इत्युक्तेः प्रतीप - विशेषच्छायामपि ब्र ूमः । — काव्याद० कुसुमप्रतिमा, पृ० ८२ । ध्यातव्य है कि 'गर्वमसं वाह्यमिमम् रुद्रट के प्रतीप अलङ्कार का उदाहरण है ।
....
द्रष्टव्य — रुद्रट, काव्यालं ०८,७८
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १४७
प्रतिवस्तूपमा अलङ्कार से अभिन्न है । r रुद्रट ने अपने 'काव्यालङ्कार' में प्रतिवस्तूपमा का उल्लेख नहीं कर इस नवीन अलङ्कार-संज्ञा का उल्लेख किया है । स्पष्टतः उभयन्यास नाम्ना नवीन तथा स्वरूपतया प्राचीन अलङ्कार है । भ्रान्तिमान
रुद्रट ने सर्वप्रथम भ्रान्तिमान नामक स्वतन्त्र अलङ्कार का उल्लेख किया है; किन्तु भ्रमात्मक प्रतीति की धारणा अज्ञातपूर्व नहीं है । तत्त्वज्ञान के साथ द्वं कोटिक संशयात्मक तथा एककोटिक भ्रमात्मक प्रतिभास पर प्राचीन काल से ही दर्शन के क्षेत्र में विचार हो रहा था । भरत ने विपर्यय लक्षण में सन्देह शब्द का प्रयोग किया है, जिसकी व्याख्या में अभिनवगुप्त ने कहा है कि यहाँ सन्देह से भरत का अभिप्राय भ्रम का है । २ आचार्य दण्डी ने उपमा- चक्र के विवेचन-क्रम में उपमान से उपमेय के सादृश्यातिशयं के कारण उपमेय में उपमान की भ्रान्ति के तत्त्व पर मोहोपमा तथा तत्त्वाख्यानोपमा में विचार किया है । 3 मोहोपमा का मोह ( अन्य वस्तु में अन्यबुद्धि ) भ्रम हो है। तत्त्वाख्यानोपमा में भ्रम का निवारण किया जाता है । यह भ्रमपूर्विका ही होती है । उपमा के साथ भरत के उक्त लक्षण के भ्रमात्मक ज्ञान के तत्त्व के मिश्रण से भ्रान्तिमान अलङ्कार का स्वरूप निर्मित है ।
प्रत्यनीक
प्रत्यनीक में उपमेय को उत्तम बताने के लिए उस उपमेय की विजय की इच्छा से उसके विरोधी उपमान की कल्पना की जाती है । ४ उपमेय उपमान का यह विरोध वचन - मात्र का होता है, तात्त्विक नहीं; क्योंकि तत्त्वतः, विरोध होने पर दोनों में औपम्य ही सम्भव नहीं होगा । प्रत्यनीक रुद्रट की मौलिक उद्भावना है ।
१. द्रष्टव्य – रुद्रट, काव्यालं ०८, ८५ ।
- तुलनीय - भामह, काव्यालं० २,३४ २. विचारस्यान्ययाभावस्तथा दृष्टापदृष्टयोः । सन्देहात्कल्प्यते यत्र सविशेपो विपर्ययः ॥
- भरत ना० शा ० १६ अनुबन्ध, श्लोक सं० २६ तथा'सन्देहोऽत्रभ्रमः’··· ना० शा० अ० भा० पृ० ३०८
३. द्रष्टव्य - दण्डी, काव्याद० २,२५ तथा ३६
४. वक्तमुपमेयमुत्तमुपमानं तज्जिगीषया यत्र ।
तस्य विरोधीत्युक्त्या कल्प्येत प्रत्यनीकं तत् ॥ - रुद्रट, काव्यालं० ८,६२
-
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१४८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
पूर्व
जहाँ उपमेय और उपमान; ये दोनों तुल्य कर्म वाले हों वहाँ यदि पश्चाद्भावी उपमेय का प्राग्भाव वर्णित हो तो उसमें पूर्व नामक अलङ्कार का सद्भाव माना जाता है। पश्चाद्भावी अर्थ के पूर्व-भाव-वर्णन में अतिशयोक्ति का तत्त्व स्पष्ट है। उद्भट के अतिशयोक्ति-विवेचन के क्रम में हम यह देख चुके हैं कि उन्होंने कार्य-कारण के पौर्वापर्य में अतिशयोक्ति की सत्ता मानी थी।२ रद्रट ने औपम्यमूलक पूर्व अलङ्कार में पौर्वापर्य की धारणा वहीं से ली है । कार्य-कारण के स्थान पर उपमानोपमेय की धारणा को पौर्वापर्य से मिला कर पूर्व अलङ्कार के प्रस्तुत स्वरूप की कल्पना की गयी है।
समुच्चय
समुच्चय में अनेक उपमान तथा उपमेय द्रव्य, गुण, क्रिया तथा जाति-रूप एक साधारण धर्म से युक्त होते हैं। इसमें सादृश्य के वाचक 'इव' आदि शब्दों का प्रयोग नहीं होता। भरत ने दीपक अलङ्कार में अनेक साकांक्ष पदों की आकांक्षा का पूरक एक क्रिया, जाति, गुण या द्रव्य को माना था। उनके पदोच्चय लक्षण में व्यक्त पदों के उच्चय की धारणा रुद्रट की उपमानोपमेय-समुच्चय की कल्पना का आधार बनी होगी। इस प्रकार पदोच्चय लक्षण से समुच्चय, उपमा से उपमानोपमेय भाव और दीपक से अनेक का गुण, जाति, त्रिया तथा द्रव्य रूप एक अर्थ से सम्बन्ध की धारणा लेकर औपम्य गर्भ समुच्चय अलङ्कार की रूप-रचना की गयी है।
साम्य
उपमान तथा उपमेय में साधारण रूप से स्थित गुण आदि की कार्यभूत अर्थ-क्रिया से उपमेय का उपमान से साम्य-प्रतिपादन में रुद्रट के अनुसार साम्य अलङ्कार होता है। साम्य के एक और प्रकार की कल्पना की १. यत्र कविधावाँ जायेते यौ तयोरपूर्वस्य।
अभिधानं प्राग्भवतः सतोऽभिधीयेत तत्पूर्वम् ।।-रुद्रट, काव्यालं० ८,६७ २. द्रष्टव्य-प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ११० ३. सोऽयं समुच्चयः स्याद्यत्रानेकोऽर्थ एकसामान्यः।
अनिवादिव्यादिः सत्युपमानापमेयत्वे ॥-रुद्रट, काव्यालं० ८,१०३ ४. अर्थक्रियया यस्मिन्नुपमानस्यति साम्यमुपमेयम् ।
तत्सामान्यगुणादिककारणया तद्भवेत् साम्यम् ॥-वही, ८,१०५
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १४६ गयी है। इसके लक्षण में रुद्रट ने कहा है कि जहाँ उपमान और उपमेय में सर्वात्मना साम्य का अभिधान हो; किन्तु उपमेय का उत्कर्ष सिद्ध करने वाले कुछ वैशिष्ट्य का कवि उल्लेख करता हो, वहाँ साम्य का सद्भाव माना जाता है।' उपमेय के उत्कर्षकारक विशेष के प्रतिपादन में व्यतिरेक की धारणा स्पष्ट है। इसमें उत्कर्ष-प्रतिपादक विशेष को छोड़ अन्य सभी दृष्टियों से प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत के बीच साम्य-निरूपण होने के कारण ही इसे साम्य कहा गया है। स्पष्ट है कि साम्य के प्रथम प्रकार के साथ व्यतिरेक अलङ्कार के तत्त्व के मिश्रण से उसके प्रस्तुत स्वरूप का निर्माण हुआ है। उपमा से साम्य का स्वभाव इतना मिलता-जुलता है कि इसके पृथक् अस्तित्व की कल्पना ही अनावश्यक जान पड़ती है। उपमा की तरह इसमें भी उपमेय तथा उपमान के बीच साधारण गुण, क्रिया आदि की कल्पना की गयी है। उपमा से इसके व्यावर्तन के लिए यह कल्पना कर ली गयी है कि उपमान और उपमेय का अर्थक्रिया से साम्य-प्रतिपादन साम्य है। उनके बीच सामान्य रूप से रहने वाले गुण आदि उस अर्थक्रिया के कारण होते हैं। मेरी सम्मति में उपमेय और उपमान के बीच साम्य-प्रतिपादन में चाहे वह उभय-साधारण गुण आदि से हो या उनके कार्यभूत अर्थक्रिया से-उपमा की ही सत्ता मानी जानी चाहिए। प्राचीन आचार्यों ने उपमा के जिस व्यापक स्वरूप की कल्पना की थी, उससे स्वतन्त्र साम्य अलङ्कार की कल्पना उनके लिए आवश्यक नहीं थी।
स्मरण
स्मरण को सर्वप्रथम रुद्रट ने ही अलङ्कार के रूप में परिगणित किया है; किन्तु स्मृति या स्मरण की धारणा का उद्भावक उन्हें नहीं माना जा सकता। भारतीय दर्शन में प्राचीन काल से ही स्मृति के स्वरूप का विवेचन हो रहा था। स्मरण के सम्बन्ध में दार्शनिकों की मूल-धारणा को रुद्रट ने यथावत् स्वीकार किया है। उन्होंने यह माना है कि जहाँ भावक किसी वस्तु को देख कर अतीत में अनुभूत उसके सदृश किसी अन्य अर्थ को स्मरण करता है, वहाँ स्मरण अलङ्कार होता है ।२ दार्शनिकों ने भी सादृश्य को स्मरण का
१. सर्वाकारं यस्मिन्नुभयोरभिधातुमन्यथा साम्यम् । ___ उपमेयोत्कर्षकरं कुर्वीत विशेषमन्यत्तत् ॥ रुद्रट, काव्यालं०, ८,१०७ २. वस्तुविशेषं दृष्ट्वा प्रतिपत्ता स्मरति यत्र तत्सदृशम् ।
कालान्तरानुभूतं वस्त्वन्तरमित्यदः स्मरणम् ।।-वही, ८, १०६
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१५० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
हेतु माना है। नाट्याचार्य भरत के 'नाट्यशास्त्र' में अनेकत्र स्मृति शब्द का उल्लेख हुआ है; किन्तु अलङ्कार के रूप में नहीं। स्मृति को सञ्चारी भाव के रूप में स्वीकार किया गया है ।२ रूद्रट ने केवल सादृश्य पर आधृत स्मृति को ही अलङ्कार कहा है। स्पष्ट है कि प्राचीनों की स्मृति-विषयक मान्यता को काव्यालङ्कार के क्षेत्र में अवतरित-मात्र करने का श्रेय रुद्रट को दिया जा सकता है, स्मरण के स्वरूप की उद्भावना का नहीं ।
अतिशय वर्ग के अलङ्कार पूर्व ____ अतिशयमूलक पूर्व अलङ्कार के लक्षण में यह मान्यता प्रकट की गयी है कि जहाँ कारण के पूर्व कार्य का प्रादुर्भाव विवक्षित हो वहाँ पूर्व अलङ्कार होता है। कार्य-कारण के सामान्य पौर्वापर्य का व्यतिक्रम होने से इसे अतिशय गर्भ अलङ्कार माना गया है। इसे अतिशयोक्ति अलङ्कार का ही एक रूप माना जाना चाहिए । भामह, दण्डी, उद्भट आदि की अतिशयोक्तिपरिभाषा में प्रस्तुत अलङ्कार के लक्षण का अन्तर्भाव सहज है । लोक सीमा का उल्लङ्घन होने से यह अतिशयोक्ति ही है। उद्भट ने कार्य-कारण के पौर्वापर्यविपर्यय को अतिशयोक्ति का एक भेद माना था । उद्भट के उक्त अतिशयोक्तिभेद से रुद्रट का पूर्व अभिन्न है। अपने पूर्ववर्ती आलङ्कारिकों के अतिशयोक्तिअलङ्कार-लक्षण के तत्तदङ्गों से अतिशय मूलक स्वतन्त्र संज्ञा वाले विभिन्न अलङ्कारों की कल्पना कर लेने के कारण ही रुद्रट ने अतिशयोक्ति नामक प्रसिद्ध अलङ्कार का पृथक् लक्षण-निरूपण नहीं किया है। पूर्ववर्ती भामह आदि आचार्यों की अतिशयोक्ति की तरह रुद्रट के पूर्व का मूल भी भरत के अतिशय लक्षण में देखा जा सकता है।
१. द्रष्टव्य-भरत, ना० शा०, १६, १२४-१२५ २. द्रष्टव्य-वही. ७.५४ ३. यत्रातिप्रबलतया विवक्ष्यते पूर्वमेव जन्यस्य ।
प्रादुर्भावः पश्चाज्जनकस्य तु तद्भवेत्पूर्वम् ।।-रुद्रट, काव्यालं०, ६,३ ४. कार्यकारणयोत्र पौर्वापर विपर्य यात्।...
-उद्भट, काव्यालं० सार सं० २, २५ ५. द्रष्टव्य-भरत ना० शा० १६, १३
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १५१
विशेष ___रूद्रट के 'काव्यालङ्कार' में विशेष अलङ्कार के तीन प्रकार उल्लिखित हैं। उसके एक भेद में किसी आधेयभूत वस्तु के आधार के वस्तुतः रहने पर भी उसका ( आधेय का ) निराधार की तरह कथन होता है ।' विशेष का दूसरा भेद वहाँ पाया जाता है, जहाँ अनेक आधार में एक वस्तु का एककालावच्छेदेन सद्भाव प्रतिपादित होता है। उसका तीसरा प्रकार वह है, जिसमें कर्ता कोई अन्य कार्य करता हुआ उसी कार्य-काल में कोई अन्य अशक्य कार्य कर देता है।3 रुद्रट के विशेष अलङ्कार का स्वरूप सर्वथा नवीन है।
तद्गुण ___जहां समान गुण वाले ऐसे पदार्थों के, जिनके योग होने पर पृथक्-पृथक् रूप लक्ष्य हो सके, परस्पर सम्बन्ध होने पर उनमें भेद के लक्षित नहीं होने का वर्णन होता है, वहाँ रुद्रट के अनुसार तद्गुण नामक अलङ्कार होता है।४ इसके एक और भेद की कल्पना की गयी है, जिसके स्वरूप के सम्बन्ध में यह मान्यता व्यक्त की गयी है कि इसमें अन्य वस्तु के संसर्ग में आने पर किसी वस्तु का उसी के गुण को ग्रहण कर लेना वर्णित होता है।५ तद्गुण के प्रथम भेद का स्वरूप, जिसमें किसी वस्तु के रूप के लक्ष्य होने पर भी अन्य वस्तु के संसर्ग के कारण अलक्ष्य के रूप में वर्णन होता है, उद्भट की अतिशयोक्ति के 'भेदे नान्यत्व' ( भेद में अभेद ) भेद से मिलता-जुलता है।६ संसर्ग होने पर एक वस्तु के द्वारा अन्य वस्तु के गुण-ग्रहण की धारणा नवीन है। १. किञ्चिदवश्याधेयं यस्मिन्नभिधीयते निराधारम् ।
तादृगुपलभ्यमानं विज्ञेयोऽसौ विशेष इति-रुद्रट, काव्यालं०, ६,५ २. यत्र कमनेकस्मिन्नाधारे वस्तु विद्यमानतया।
युगपदभिधीयतेऽसावत्रान्यः स्याद्विशेष इति ॥ वही, ६, ७ ३. यत्रान्यत्कुर्वाणो युगपत्कार्यान्तरं च कुर्वीत ।
कर्तुमशक्यं कर्ता विज्ञेयोऽसौ विशेषोऽन्यः ।।-वही, ६, ६ ४. यस्मिन्नेकगुणानामर्थानां योगलक्ष्यरूपाणाम् ।
संसग नानात्वं न लक्ष्यते तद्गुणः स इति ।-वही, ६,२२ ५. असमानगुणं यस्मिन्नतिबहलगुणेन वस्तुना वस्तु । ____ संसृष्टं तद्गुणतां धत्त'ऽन्यस्तद्गुणः स इति ॥ वही, ६,२४ ६. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सारसं०, २,२४
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१५२ ]
अधिक
अधिक अलङ्कार के दो प्रकार की कल्पना रुद्रट ने की है । जहाँ एक कारण से परस्पर विरुद्ध स्वभाव वाले अथवा विरुद्ध क्रिया वाले दो पदार्थों का प्रादुर्भाव वर्णित हो, वहाँ अधिक नामक अलङ्कार का सद्भाव माना गया है । ' प्रस्तुत अलङ्कार के प्रकारान्तर की कल्पना करते हुए रुद्रट ने कहा है कि जहाँ महान आधार में भी स्वल्प आधेय का नहीं समा पाना वर्णित हो, वहाँ भी अधिक अलङ्कार होता है । प्रस्तुत अलङ्कार के स्वरूप की उद्भावना का श्र ेय रुद्रट को है ।
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
विषम
विषम अलङ्कार के स्वरूप की कल्पना भी नवीन है । इसके लक्षण में यह कहा गया है कि जहाँ कार्य और कारण के गुणों में अथवा क्रियाओं में परस्पर विरोध हो, वहाँ विषम अलङ्कार होता है ।
असङ्गति
असङ्गति की धारणा भी रुद्रट की मौलिक उद्भावना है । विषम से असङ्गति का भेद केवल यह है कि विषम में कार्य और कारण के गुण एवं क्रिया का विरोध - प्रतिपादन होता है; पर असङ्गति में एक ही समय कार्य और कारण के भिन्नाधिकरणत्व का वर्णन होता है । ४ नियमतः जहाँ कारण हो, वहीं उसका कार्य भी होना चाहिए । असङ्गति में एक काल में ही कारण के एकत्र तथा कार्य के अपरत्र सद्भाव के वर्णन से जो चमत्कार उत्पन्न होता है, उसी में अलङ्कारत्व माना गया है ।
१. यत्रान्योन्यविरुद्ध विरुद्वबलवत्क्रयाप्रसिद्ध वा । वस्तु
कस्माज्जायत इति तद्भवेदधिकम् ॥ - रुद्रट, काव्यालं०, ६, २६ २. यत्राधारे सुमहत्याधेयमवस्थितं तनीयोऽपि । अतिरिच्येत कथञ्चित्तदधिकमपरं परिज्ञेयम्
- वही, ६, २८
३. कार्यस्य कारणस्य च यत्र विरोधः परस्परं गुणयोः । तद्वत्क्रिययोरथवा संजायेतेति तद्विषमम् ॥ - वही, ६, ४५ ४. विस्पष्टे समकालं कारणमन्यत्र कार्यमन्यत्र ।
यस्यामुपलभ्येते विज्ञेयासंगतिः सेयम् ॥ - वही, ६, ४८
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १५३ पिहित
वास्तव वर्ग के मीलित अलङ्कार की तरह अतिशय-गर्भ पिहित अलङ्कार में भी एक गुण अपने आश्रय में रहने वाले अन्य अर्थ को आच्छादित कर लेता है। किन्तु, दोनों में स्वभावगत भेद यह है कि जहाँ मीलित में समान चिह्न वाले अर्थान्तर से हर्ष, कोप आदि तिरस्कृत होता है, वहाँ पिहित में किसी वस्तु का तिरस्कार या पिधान असमान गुण वाले पदार्थान्तर से होता है। स्पष्ट है कि मीलित की तरह प्रस्तुत अलङ्कार की उद्भावना का श्रेय भी रुद्रट को ही है।
व्याघात
जहाँ कार्योत्पादन के अवरोधक किसी तत्त्व के नहीं रहने पर भी कारण कार्य को उत्पन्न नहीं करता हुआ चित्रित हो, वहाँ व्याघात अलङ्कार माना गया है ।' उद्भट के विशेषोक्ति अलङ्कार के स्वरूप से प्रस्तुत अलङ्कार का स्वरूप अभिन्न है। उन्होंने कारण की समग्र उपस्थिति में कार्य की अनुत्पत्ति को विशेषोक्ति कहा है। कहीं कार्यानुसत्ति का हेतु कथित तया कहीं अकथित हो सकता है ।२ रुद्रट का व्याघात उद्भर की विशेषोक्ति के अकथितनिमित्ता भेद से अभिन्न है।
अहेतु
___ जहाँ विकार के बलवान हेतु के रहने पर भी किसी वस्तु में स्थैर्य के कारण विकार का उत्पन्न नहीं होना वर्णित हो, वहाँ अहेतु नामक अलङ्कार माना गया है। उद्भट के विशेषोक्ति-लक्षग के व्यापक परिवेश में रुद्रट
१. अन्यैरप्रतिहतमपि कारणमुत्सादनं न कार्यस्य यस्मिन्नभिधीयेत व्याघातः स इति विज्ञेयः ।।-वही, ६,५२ यत्सामग्र येऽपि शक्तीनां फलानुत्पत्तिबन्धनम् । विशेषस्याभिधित्सातस्तद्विशेषोक्तिरिष्यते ॥ दशितेन निमित्त न निमात्तादर्शनेन च । तस्या बन्धो द्विधा लक्ष्ये दृश्यते ललितात्मकः।
-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, ५,५ ३. बलवति विकारहेतौ सत्यपि नैवोपगच्छति विकारम् । यस्मिन्नर्थः स्थैर्यान्मन्तन्योऽसावहेतुरिति ।-रुद्रट, काव्यालं०, ६,५४
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१५४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
के प्रस्तुत अलङ्कार का भी समावेश सम्भव है । अहेतु में भी व्याघात की ही तरह मूलतः हेतु के सद्भाव में कार्य का अभाव वाञ्छनीय माना गया है । रुद्रट ने प्राचीन आचार्यों के विशेषोक्ति अलङ्कार को नाम्ना स्वीकार नहीं किया है; किन्तु वे उस प्रसिद्ध अलङ्कार के स्वरूप की उपेक्षा नहीं कर सके । उसी अलङ्कार के स्वरूप के आधार पर रुद्रट ने व्याघात तथा अहेतु अलङ्कारों की कल्पना कर ली है ।
अतिशय वर्ग के अलङ्कारों के स्वरूप की समीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि रुद्रट ने इस वर्ग के अनेक अलङ्कारों के स्वरूप की कल्पना स्वतन्त्र रूप से की है । विशेष, अधिक, विषम, असङ्गति, पिहित आदि अलङ्कारों की उद्भावना इसका प्रमाण है ।
आचार्य रुद्रट के 'काव्यालङ्कार' में विवेचित नवीन अभिधान वाले उक्त अलङ्कारों के स्रोत -सन्धान के उपरान्त हम उनके उन अलङ्कारों के उद्गम पर विचार करेंगे, जिनके नाम तो प्राचीन आचार्यों से गृहीत हैं; किन्तु उनके सामान्य स्वरूप की अथवा विशेष भेद की कल्पना स्वतन्त्र रूप से की गयी है । रुद्रट ने प्राचीन आचार्यों के जिन अलङ्कारों के नाम स्वीकार किये हैं, उनमें से अधिकांश के स्वरूप भी पूर्वाचार्य-सम्मत ही हैं । उदाहरणार्थ – वास्तव वर्ग जाति या स्वभावोक्ति, यथासंख्य, दीपक, लेश और हेतु; औपम्य वर्ग के उपमा रूपक, अपहनुति, समासोक्ति, अन्योक्ति या अप्रस्तुतप्रशंसा तथा दृष्टान्त; अतिशय वर्ग के उत्प्र ेक्षा और विरोध, एवं श्लेष वर्ग के श्लेष अलङ्कारों के स्वरूप की धारणा पूर्ववर्ती आचार्यों की तत्तदलङ्कार-धारणा से अभिन्न है । अनुप्रास एवं यमक अलङ्कारों के सम्बन्ध में भी कोई नवीन मान्यता नहीं प्रकट की गयी है । रुद्रट की जाति का स्वरूप भामह आदि आचार्यों की स्वभावोक्ति के स्वरूप से अभिन्न है । यथासंख्य और दीपक अलङ्कारों के लक्षण-निरूपण में भी रुद्रट भामह आदि आचार्यों की तद्विषयक धारणा से प्रभावित हैं । उन्होंने लेश के सम्बन्ध में दण्डी की धारणा को स्वीकार नहीं किया है । दण्डी ने उस अलङ्कार के सम्बन्ध में अन्य आचार्यों की जिस मान्यता की ओर सङ्क ेत किया था उसके अनुसार लेश की सत्ता व्याजस्तुति से पृथक् नहीं रह जाती । रुद्रट ने उसी मत के अनुसार दोष के गुणीभाव तथा गुण के दोषीभाव को लेश कहा है । यही कारण है कि रुद्रट को व्याजस्तुति की पृथक् सत्ता की कल्पना आवश्यक नहीं जान पड़ी होगी । उनके हेतु अलङ्कार का स्वरूप दण्डी के हेतु से मिलता-जुलता ही है । दोनों में
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १५५. थोड़ा भेद यह है कि जहाँ दण्डी कार्य-कारण के एक साथ वर्णन को हेतु में अपेक्षित मानते थे, वहाँ रुद्रट ने इसमें कार्य-कारण का ऐक्य अपेक्षित माना है। भामह ने हेतु के अलङ्कारत्व का खण्डन किया था। दण्डी ने उसे वाणी के उत्तम आभूषणों में एक माना। उनके उत्तरवर्ती आचार्य उद्भट ने उसका नामोल्लेख नहीं किया है। वे सम्भवतः उसे काव्यलिङ्ग या काव्यहेतु से अभिन्न मानते थे। वामन के काव्यालङ्कार में भी वह स्थान नहीं पा सका। रुद्रट ने आचार्य दण्डी के हेतु का विवेचन तो किया है; किन्तु उसे वाणी का उत्तम अलङ्कार नहीं कहा है। हाँ, उन्होंने इसे अन्य अलङ्कारों से विलक्षण अवश्य कहा है।' हेतु की अन्य अलङ्कारों से विलक्षणता से रुद्रट का क्या अभिप्राय था, यह विचारणीय है। रूद्रट के पूर्व हेतु, सूक्ष्म और लेश के अलङ्कारत्व के सम्बन्ध में दो मत थे। कुछ आचार्य या तो उनमें सौन्दर्य का अभाव मान कर उनका अलङ्कारत्व अस्वीकार करते थे या उनका अन्य अलङ्कार में अन्तर्भाव मान कर उनके स्वतन्त्र अस्तित्व का निषेध करते थे। रुद्रट ने उन मतों के खण्डन के लिए हेतु को अलङ्कार कहा और अन्य अलङ्कारों में उसके अन्तर्भाव की सम्भावना के खण्डन के लिए उसे अन्य अलङ्कारों से स्वतन्त्र कहा । नमिसाधु की यही मान्यता है ।२ __औपम्य-वर्ग के उपमा, रूपक, अपह नुति, समासोक्ति, अन्योक्ति या अप्रस्तुतप्रशंसा तथा दृष्टान्त अलङ्कारों के सम्बन्ध में रुद्रट की धारणा पूर्ववर्ती आचार्यों की धारणा से अभिन्न है। अतिशय-वर्ग की उत्प्रेक्षा का स्वरूप भी प्राचीन आचार्यों की उत्प्रेक्षा से मिलता-जुलता ही है। श्लेषवर्ग के श्लेष अर्थालङ्कार की स्वरूप-कल्पना में रुद्रट पर भामह आदि आचार्यों की श्लेष-धारणा का प्रभाव स्पष्ट है। प्राचीन व्यपदेश वाले कुछ अलङ्कारों के विषय में रुद्रट की मान्यता कुछ मौलिक है। उनमें से कुछ अलङ्कारों की प्रकृति किञ्चित् नवीन है; कुछ का सामान्य स्वरूप तो प्राचीन आचार्यों के मतानुसार कल्पित है; किन्तु उनके नवीन भेदों की कल्पना की गयी है। कुछ
१. हेतुमता सह हेतोरभिधानमभेदकृद्भवेद्यत्र।
सोऽलङ्कारो हेतुः स्यादन्येभ्यः पृथग्भूतः ।।-रुद्रट. काव्यालं० ७,८२ २. अन्येभ्यो अलङ्कारेभ्यः पृथग्भूतो विलक्षणः । अत्र वालङ्कारग्रहणमन्येभ्यः
पृथग्भूत इति च परमतनिरासार्थम् । तथा हि नाम हेतुसूक्ष्मलेशानामलङ्कारत्वं नेष्टम् । एषां चालङ्कारत्वं विद्यते। वाक्यार्थालङ्करणान्न चान्यत्रान्तर्भावः शक्यते कर्तु मिति-वही, टीका पृ० २३१
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१५६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अलङ्कारों के एकाधिक स्वरूप कल्पित हैं, जिनमें से कोई रूप प्राचीन अलङ्कारों के मेल में है और कोई स्वतन्त्र । इन दृष्टियों से रुद्रट के प्राचीन नाम, पर नवीन रूप वाले अलङ्कारों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है(क) नाम प्राचीन; किन्तु स्वभाव किञ्चित् नवीन–वास्तव-वर्ग के
परिवृत्ति एवं सूक्ष्म; औपम्य-वर्ग के सहोक्ति और आक्षेप । (ख) सामान्य स्वरूप प्राचीन; किन्तु भेद नवीन-शब्दगत श्लेष, औपम्य
मूलक संशय एवं अर्थान्तरन्यास । (ग) एकाधिक स्वरूप वाले अलङ्कार, जिनमें कुछ स्वरूप प्राचीन और
कुछ नवीन-अतिशय-वर्ग की विभावना, वास्तव-वर्ग के सहोक्ति
और व्यतिरेक तथा औपम्य-वर्ग की उत्प्रेक्षा। उपरिलिखित अलङ्कारों के नवीन स्वरूपों अथवा नवीन भेदों की कल्पना के मूल का अनुसन्धान वाञ्छनीय है। परिवृत्ति ___रुद्रट ने परिवृत्ति-विषयक मूल धारणा को प्राचीन आचार्यों से लेकर
भी कुछ नवीन रूप प्रदान किया है। उन्होंने उद्भट की तरह वस्तुओं के • पारस्परिक आदान-प्रदान में प्रवृत्ति अलङ्कार का सद्भाव माना है । वस्तुओं के तात्त्विक दान-ग्रहण के अभाव में भी प्रसिद्धि के कारण उसके उपचार में परिवृत्ति की सत्ता स्वीकार करने में रुद्रट के विचार की नवीनता है।' वस्तु की वास्तविक स्थिति के नहीं होने पर भी उसका उपचार से प्रयोग हुआ करता है। हृदय की कली का विकसित होना आदि प्रयोग उपचार से ही हुआ करता है। उपचार पर शब्दशक्ति के सन्दर्भ में विचार होता है। उपचार की कल्पना नवीन नहीं। रुद्रट ने तात्त्विक आदान-प्रदान के साथ ही उसके औपचारिक प्रयोग में भी परिवृत्ति का सद्भाव स्वीकार कर लिया।
सूक्ष्म ___ रुद्रट के पूर्व केवल दण्डी ने सूक्ष्म अलङ्कार का लक्षण-निरूपण किया था। भामह उसके अलङ्कारत्व का निषेध कर चुके थे। उद्भट ने सम्भवतः १. युगपद्दानादाने अन्योन्यं वस्तुनोः क्रियेते यत् । क्वचिदुपचर्येते वा प्रसिद्धितः सेति परिवृत्तिः ।।-रुद्रट, काव्यालं० ७,७७
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १५७
उस विवाद में पड़ना उचित नहीं समझा। अतः, उन्होंने सूक्ष्म का उल्लेख काव्यालङ्कार से नहीं किया। रुद्रट ने दण्डी की सूक्ष्म-परिभाषा को अस्वीकार कर कुछ स्वतन्त्र रूप से उसे परिभाषित किया है। दण्डी ने जहाँ सूक्ष्म में आकृति या सङ्कत से अर्थ का लक्षित होना वाञ्छनीय माना था, वहाँ रुद्रट ने शब्द से उसके अपने अर्थ से सम्बद्ध अन्य अर्थ का—युक्तियुक्त अर्थ का-लक्षित होना अपेक्षित माना है।' रुद्रट का सूक्ष्म लक्षण आपाततः दण्डी के लक्षण से भिन्न है; किन्तु दोनों की सूक्ष्म अलङ्कार-धारणा में यह समानता है कि इसमें अभिप्रेत अर्थ का लक्षित होना दोनों को इष्ट है। दण्डी अभीष्ट अर्थ का द्योतक इङ्गित या आकृति को मानते हैं, रुद्रट शब्द को। सहोक्ति
औपम्य-वर्ग की सहोक्ति के दो स्वरूपों का विवेचन रुद्रट के 'काव्यालङ्कार' में हुआ है। उसके एक लक्षण में यह मान्यता व्यक्त की गयी है कि जहाँ अतिशय अधिक क्रिया वाले अप्रस्तुत के साथ प्रस्तुत को समान क्रिया वाला कहा जाता हो वहाँ सहोक्ति अलङ्कार होता है। उसके दूसरे प्रकार का प्रतिपादन करते हुए रुद्रट ने कहा है कि जहाँ एक कर्ता वाली क्रिया अनेक कर्मों में आश्रित हो और वहाँ उपमेयभूत कर्म अपर कर्म अर्थात् उपमान के साथ कथित हो, वहाँ भी सहोक्ति अलङ्कार का सद्भाव माना जाता है। सहोक्ति में उपमानोपमेय भाव की कल्पना में रुद्रट की नवीनता है। भामह तथा उद्भट ने दो वस्तुओं में आश्रित दो क्रियाओं का एक पद से कथन होने में सहोक्ति की सत्ता मानी थी।४ दण्डी ने उसके लिए गुण और कर्म का सहभाव से कथन वाञ्छनीय माना।" वामन ने समकाल दो वस्तुओं की दो क्रियाओं का एक पद से कथन होने में ही सहोक्ति स्वीकार की। इस प्रकार उनकी सहोक्ति-धारणा भामह तथा उद्भट से बहुत भिन्न नहीं १. यत्रायुक्तिमदर्थो गमयति शब्दो निजार्थसम्बद्धम् ।
अर्थान्तरमुपपत्तिमदिति तत्सञ्जायते सूक्ष्मम् ।।-रुद्रट, काव्यालं०७,६८ २. सा हि सहोक्तिर्यस्यां प्रसिद्धदूराधिकक्रियो योऽर्थः । ___ तस्य समानक्रिय इति कथ्येतान्यः समं तेन ।।-वही, ८,६६ ३. यत्र ककर्तृका स्यादनेककर्माश्रिता क्रिया तत्र ।
कथ्येतापरसहितं कर्मक सेयमन्या स्यात् ।। वही, ८,१०१ ४. द्रष्टव्य-भामह, काव्यालं० ३,३६ तथा उद्भट काव्यालं० ५,२६ ५. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्याद० २,३५१ ६. द्रष्टव्य-वामन, काव्यालं० ४,३,२८
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१५८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण थी। वामन में सभी अलङ्कारों को उपमा-प्रपञ्च सिद्ध करने का आग्रह था; अतः वामन के समय ही सहोक्ति में उपमा-धारणा मिल गयी। रुद्रट ने दो पदार्थों के एक साथ कथन की सहोक्ति की मूल धारणा में उपमानोपमेय-भाव की धारणा को मिला कर सहोक्ति के उक्त दो, रूपों की कल्पना कर ली है। आक्षेप ___ रुद्रट के अनुसार औपम्यमूलक आक्षेप अलङ्कार में वक्ता किसी वस्तु के लोक-प्रसिद्ध होने अथवा लोक-विरुद्ध होने के कारण वचन का आक्षेप कर उसके स्वरूप की सिद्धि के लिए अन्य वस्तु अर्थात् उपमानभूत वस्तु का कथन करता है।' भामह, दण्डी तथा उद्भट ने आक्षेप में प्रतिषेधोक्ति मात्र को पर्याप्त माना था। वामन ने उसमें उपमानोपमेय भाव को मिला कर उपमान के आक्षेप अर्थात् प्रतिषेध में आक्षेप का सद्भाव माना था। उनके सूत्र का यह अर्थ भी सम्भव है कि जहाँ उपमान का आक्षेप से ज्ञान हो, वहाँ आक्षेप अलङ्कार होता है। इस प्रकार उपमेय से उपमान के गम्य होने में भी वे आक्षेप मानते थे।२ रुद्रट के आक्षेप अलङ्कार में आक्षेप का तत्त्व भामह आदि के आक्षेप-लक्षण के आधार पर ही कल्पित है। वामन की धारणा के अनुसार उन्होंने उपमानोपमेय के तत्त्व को भी आक्षेप में मिलाया। उनकी आक्षेप-परिभाषा में किञ्चित् नवीनता लोक-प्रसिद्धि अथवा लोकविरोध को वचन के आक्षेप और अन्य वस्तु के कथन के हेतु के रूप में कल्पित करने में ही है। शब्दश्लेष ___ रुद्रट ने सर्वप्रथम शब्दगत एवं अर्थगत श्लेष का पृथक्-पृथक् विवेचन किया है। दण्डी के श्लेष-लक्षण में उसके शाब्द एवं आर्थ भेदों की सम्भावना -स्पष्ट थी; किन्तु उन्होंने दोनों का अलग-अलग विवेचन नहीं किया था। 3 १. वस्तु प्रसिद्धमिति यद्विरुद्धमिति वास्य वचनमाक्षिप्य।
अन्यत्तथात्वसिद्ध य यत्र ब्र यात्स आक्षेपः ॥-रुद्रट, काव्यालं० ८,८९ २. उपमानाक्षेपश्चाक्षेपः । उपमानस्याक्षेपः प्रतिषेधः उपमानाक्षेपः ।...... उपमानस्याक्षेपतः प्रतिपत्तिरित्यपि सूत्रार्थः । -वामन, काव्यालं.
४,३,२७ तथा उसकी वृत्ति । ३. दण्डी ने अभिन्नपद तथा भिन्नपद श्लेष-भेदों का निरूपण किया है। कुछ
आचार्य इसी आधार पर शब्दगत श्लेष तथा अर्थगत श्लेष का विभाजन करते हैं।
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १५६
रुद्रट ने शब्दगतश्लेष का उल्लेख शब्दालङ्कारों की श्रेणी में किया तथा अर्थगत श्लेष की गणना श्लेष-वर्ग के अलङ्कारों में की। रुद्रट की शब्द-श्लेषधारणा दण्डी आदि की श्लेष-धारणा से मूलतः अभिन्न है; किन्तु उन्होंने उसके कुछ नवीन भेदों की कल्पना कर ली है। उनके अनुसार शब्द-श्लेष के आठ भेद हैं-वर्ण-श्लेष, पद-श्लेष, लिङ्ग-श्लेष, भाषा-श्लेष, प्रकृति-श्लेष, प्रत्यय-श्लेष, विभक्ति-श्लेष तथा वचन-श्लेष। कहने की आवश्यकता नहीं कि शब्द के तत्तद्भेदों के आधार पर श्लेष के उक्त भेदों की कल्पना की गयी है। पूर्ववर्ती आचार्यों के सामान्य श्लेष-लक्षण में भी उक्त भेदों की सम्भावना थी ही । उक्त भेदों की कल्पना रुद्रट को विचारगत नवीनता के श्रेय का अधिकारी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है।
संशय
पूर्ववर्ती आचार्यों की तरह रुद्रट ने भी किसी वस्तु में द्रष्टा के द्वकोटिक संशयात्मक ज्ञान को प्रस्तुत अलङ्कार का आधार स्वीकार किया है। यह संशय वस्तुओं के सदृश्यातिशय के कारण हुआ करता है। रुद्रट ने संशय अलङ्कार के तीन भेदों का विवेचन किया है। संशय के सामान्य लक्षण में कहा गया है कि जहाँ प्रतिपत्ता को एक उपमेय में सादृश्य के कारण अनेक विषय का सन्देह हो उस अनिश्चयान्त ज्ञान में संशय नामक अलङ्कार होता है।' संशय के अनिश्चयान्त रूप के अतिरिक्त निश्चयगर्भ एवं निश्चयान्त भेद भी होते हैं। जहां उपमेय या उपमान में वस्तुतः नहीं रहने वाली वस्तु का सद्भाव कहा जाय अथवा इसके विपरीत वहाँ रहने वाली वस्तु की सम्भावना का निषेध किया जाय, वहाँ निश्चयगर्भ और जहाँ अन्ततः निश्चय का कथन हो वहाँ निश्चयान्त संशय होता है ।२ संशय का एक प्रकार वह माना गया है, जिसमें उपमेय-उपमान रूप अनेक विषयों में कर्ता आदि कारकत्व का सन्देह होता है। उपमेय और उपमान के बीच अतिशय सादृश्य के कारण इसमें यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि विशेष क्रिया का कारक उपमेय है या उपमान । यह भी हो सकता है कि क्रिया के एक कारक के ज्ञान के लिए प्रस्तुत और अप्रस्तुत में से एक के तात्त्विक तथा दूसरे के अतात्त्विक होने का
१. वस्तुनि यत्र कस्मिन्ननेकविषयस्तु भवति संदेहः। __ प्रतिपत्त : सादृश्यादनिश्चयः संशयः स इति ।।-रुद्रट, काव्यालं० ८,५९ २. वही, ८, ६१
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१६० ]
अलङ्कार - धारणा : विकास और विश्लेषण
सन्देह हो । ' उपमान और उपमेय के बीच संशय की धारणा भामह आदि पूर्ववर्ती आचार्यों की ससन्देह धारणा से अभिन्न है । सन्देह की मूल धारणा में कोटिक अनिश्चयात्मक ज्ञान की धारणा अन्तर्निहित थी । अतः, रुद्रट के अनिश्चयान्त संशय के सामान्य लक्षण को भामह आदि के ससन्देह लक्षण पर ही आधृत माना जाना चाहिए । दण्डी ने इसे ही संशयोपमा कहा था । रुद्रट के निश्चयान्त संशय की स्वरूप - कल्पना का आधार आचार्य दण्डी के निर्णयोपमा अलङ्कार का लक्षण है, जिसमें वस्तुओं के बीच सन्देह के उपरान्त तत्त्व-निर्णय हो जाता है । २, 'अग्निपुराण' में निर्णयोपमा को निश्चयोपमा कहा गया है । पुराणकार के अनुसार इसमें (उपमेय में ) संशय के बाद निश्चय का प्रतिपादन होता है । 3 स्पष्ट है कि निर्णयोपमा और निश्चयोपमा तत्त्वतः: अभिन्न हैं। उसके स्वरूप से रुद्रट के निश्चयान्त संशय का स्वरूप भिन्न नहीं । पूर्वाचार्यों के सन्देह की इस सामान्य धारणा के आधार पर रुद्रट ने निश्चयगर्भ तथा क्रिया के कारकविषयत्व संशय; इन नवीन भेदों की कल्पना कर ली है । निश्चयगर्भ अनिश्चयान्त तथा निश्चयान्त के मध्य की स्थिति है । स्पष्ट है कि दण्डी के संशयोपमा एवं निर्णयोपमा के स्वभाव को दृष्टि में रख कर रुद्रट ने इस मध्यवर्तिनी प्रकृति की कल्पना कर ली होगी । क्रिया के कारकत्व के संशय की कल्पना की सम्भावना भी भामह आदि के ससन्देह की सामान्य परिभाषा में ही निहित थी ।
अर्थान्तरन्यास
भामह, दण्डी आदि आचार्यों की अर्थान्तरन्यास - विषयक मान्यता से रुद्रट की तद्विषयक मान्यता मिलती-जुलती ही है । रुद्रट भी उक्त आचार्यों की तरह इसमें उपमेयभूत किसी वस्तु का अभिधान कर उसके धर्म के दृढ़ीकरण के लिए. उसके समर्थक किसी उपमानभूत अर्थान्तर का न्यास अपेक्षित मानते हैं । उनके मतानुसार अर्थान्तरन्यास के चार भेद हैं— (क) जहाँ विशेष उपमेय का
१. रुद्रट, काव्यालं० ८, ६५
२. द्रष्टव्य - दण्डी, काव्यादर्श २, २७
३. द्रष्टव्य - अग्निपुराण, अध्याय ३४४
४. धर्मिणमर्थ विशेषं सामान्यं वाभिधाय तत्सिद्ध्यं ।
यत्र सधर्मिकमितरं न्यस्येत्सोऽर्थान्तरन्यासः ॥
- रुद्रट, काव्यालं ० ८,७६
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[१६१ अभिधान तथा उसका सामान्य उपमान से साधर्म्य के द्वारा समर्थन हो, (ख) जहाँ सामान्य उपमेय का अभिवान कर विशेष उपमान से साधर्म्य के द्वारा उसका दृढीकरण होता हो, (ग) जहाँ विशेष उपमेय का अभिधान एवं सामान्य उपमान से वैधर्म्य के द्वारा उसका समर्थन किया जाय और (घ) जहाँ सामान्य उपमेय का विशेष उपमान से वैधर्म्य के द्वारा दृढीकरण हो। सामान्य एवं विशेष प्रस्तुत के क्रमशः विशेष एवं सामान्य अप्रस्तुत से समर्थन की धारणा दण्डी से ली गयी है। उक्त दो भेदों के साधर्म्य तथा वैधर्म्य के आधार पर चार भेद कर लिये गये हैं। रुद्रट के पूर्ववर्ती दण्डी आदि आचार्यों के सामान्य अर्थान्तरन्यास-लक्षण में इन भेदों की कल्पना का बीज निहित था। विभावना
रुद्रट के अतिशय-वर्ग-गत विभावना अलङ्कार की सामान्य प्रकृति पूर्ववर्ती आचार्यों की विभावना से अभिन्न है। हेतु के अभाव में कार्य के आविर्भाव को मूलतः विभावना का विधायक स्वीकार किया गया है। अभाव शब्द में ना के विभिन्न अर्थों के आधार पर विभावना के अनेक भेदों की कल्पना सम्भव है। ना से अभाव के साथ अल्पभाव आदि अर्थ का भी बोध होता है। अतः कारण की अल्पता आदि से भी पूर्ण फल की उत्पत्ति में विभावना की कल्पना की जा सकती है। रुद्रट ने प्रस्तुत अलङ्कार के तीन रूपों की कल्पना की है(क) जिस कारण से किसी वस्तु की उत्पत्ति होती है उस कारण के
अभाव में भी कारणान्तर से उसका सद्भाव वणित होना। (ख) किसी वस्तु के विकार के हेतु के अभाव में भी उसमें विकार का
वर्णन किया जाना। (ग) किसी वस्तु के लोक-प्रसिद्ध धर्म का उससे भिन्न वस्तु में भी सद्भाव
दिखाया जाना। विभावना के प्रथम दो स्वरूपों में तात्त्विक भेद नहीं है। प्रथम भेद की तरह द्वितीय में भी (विकार के) कारण के अभाव में (विकार रूप) कार्य की उत्पत्ति दिखायी जाती है। विभावना के उक्त दो रूपों की कल्पना रुद्रट ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के विभावना-लक्षण के आधार पर की है। भामह
१. द्रष्टव्य-वही ६,१६-२०
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१६२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
ने क्रिया के प्रतिषेध में भी फलोत्पत्ति को विभावना का लक्षण माना था। दण्डी ने प्रसिद्ध हेतु की व्यावृत्ति में फलोत्पत्ति को विभावना कहा। उनकी धारणा भामह से तत्त्वतः अभिन्न थी; किन्तु उन्होंने भामह के कारण-प्रतिषेध के स्थान पर कारण की व्यावृत्ति ( स्वाभाविक कारण को छोड़ अन्य कारण से कार्योत्पत्ति ) शब्द का प्रयोग किया। रुद्रट ने कारण के अभाव में कारणान्तर से कार्योत्पत्ति को ही विभावना का सामान्य लक्षण स्वीकार किया है। रुद्रट की विभावना का तृतीय स्वरूप किञ्चित् नवीन है। इस विभावना-भेद की कल्पना की सम्भावना भी दण्डी की बिभावना-परिभाषा में ही निहित थी। रुद्रट ने उक्त विभावना-प्रकार के उदाहरण में लक्ष्मी में आसव का धर्म दिखाते हुए कहा है कि "लक्ष्मी आसव नहीं है, फिर भी वह लोगों को आँखें बन्द कराये बिना अन्धा बना देती है।"१ इसमें भी तत्त्वतः अन्धत्व के प्रसिद्ध हेतु के स्थान पर हेत्वन्तर की कल्पना की गयी है। स्पष्ट है कि किसी कार्य के प्रसिद्ध कारण के अभाव में उसके अन्य कारण की कल्पना को जो दण्डी ने विभावना में वाञ्छनीय बताया था, उसीका अवलम्ब लेकर रुद्रट ने अन्य वस्तु-धर्म के अन्यत्र सद्भाव-वर्णन में विभावना के एक प्रकार की कल्पना कर ली। दण्डी ने समाधि गुण में अन्य वस्तु-धर्म का अन्यत्र आधान वाञ्छनीय माना है। विभावना के तृतीय भेद की कल्पना में उक्त समाधि-धारणा का भी योग जान पड़ता है। सहोक्ति
वास्तव-वर्गगत सहोक्ति अलङ्कार के तीन स्वरूपों का विवेचन रुद्रट ने किया है। भामह, दण्डी आदि पूर्ववर्ती आचार्यों की सहोक्ति-विषयक मान्यता से रुद्रट की तद्विषयक मान्यता इस दृष्टि से अभिन्न मानी जा सकती है कि वे भी भामह दण्डी आदि की तरह दो वस्तुओं के धर्म का सह-कथन सहोक्ति में आवश्यक मानते हैं। उभयनिष्ठ धर्मों की एक साथ उक्ति के कारण इस अलङ्कार की संज्ञा अन्वर्था है। भामह ने केवल क्रिया सहोक्ति का उल्लेख किया था; किन्तु दण्डी ने गुण, क्रिया, द्रव्य आदि की सह-उक्ति की कल्पना कर उसके अनेक भेद स्वीकार किये। रुद्रट की सहोक्ति-धारणा पर उक्त आचार्यों की मान्यता का प्रभूत प्रभाव पड़ा है। रुद्रट के 'काव्यालङ्कार' में विवेचित सहोक्ति के तीन लक्षण निम्नलिखित हैं :
(१) कोई कतृ भूत या प्रधान अर्थ जिस गुण से युक्त हो, उसी गुण से १. रुद्रट-काव्यालङ्कार, ६,२१
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १६३. जहाँ वह दूसरे अर्थ को भी युक्त करता हुआ वर्णित हो, वहाँ उस प्रधान अर्थ -के दूसरे अर्थ के समान - कथन में सहोक्ति होती है ।
(२) किसी अप्रधानं अर्थ का प्रधान अर्थ के साथ उसी गुण अथवा धर्म से युक्त कर सह उक्ति होने में भी उक्त अलङ्कार होता है ।
(३) परस्पर निरपेक्ष दो अर्थों को तुल्यकाल समान धर्म-युक्त कर कहने में भी दोनों के सह कथन के कारण सहोक्ति का सद्भाव माना जाता है । '
सहोक्ति के प्रथम एवं द्वितीय प्रकार का स्वरूप एक-सा ही है । उनमें सहार्थ हेतुहेतुमद्भाव का है । दोनों में थोड़ा-सा अन्तर यह है कि प्रथम भेद में कर्त्ता की प्रधानता और क्रियमाण अर्थ की अप्रधानता मानी गयी है, जबकि द्वितीय में क्रियमाण ही प्रधान और कर्त्ता गौण माना गया है । इन दोनों सहोक्ति - रूपों की प्रकृति दण्डी की सहोक्ति से मिलती-जुलती है, जिसमें गुण, क्रिया आदि के सह कथन पर बल दिया गया है । निरपेक्ष पदार्थों की सहउक्ति की धारणा कुछ स्वतन्त्र है; किन्तु इस भेद की कल्पना का बीज भी - दण्डी आदि की दो पदार्थों की सहोक्ति की सामान्य धारणा में ही निहित था ।
व्यतिरेक
वास्तव : व्यतिरेक अलङ्कार के प्रमुख दो स्वरूपों की स्थापना रुद्रट के 'काव्यालङ्कार' में हुई है । उपमेय के गुण के विपरीत उपमान में दोष के कथन में व्यतिरेक का एक प्रकार माना गया है । 2 उसके दूसरे प्रकार में उपमान के गुण के विरोधी दोष का उपमेय में सद्भाव वर्णन वाञ्छनीय माना गया है । 3 व्यतिरेक के प्रथम प्रकार के तीन भेद स्वीकार किये गये हैं
(क) उपमेय में गुण तथा उपमान में दोष-कथन,
(ख) उपमेय में गुण की उक्ति; किन्तु उपमान के दोष की अनुक्ति और (ग) उपमेय में गुण का अकथन; किन्तु उपमान में दोष का कथन ।
दूसरे प्रकार में उपमान के गुण एवं उपमेय के दोष के समस्त कथन पर
१. द्रष्टव्य - रुद्रट, काव्यालं०, ७,१३,१७
२. यो गुण उपमेये स्यात् तत्प्रतिपन्थी च दोष उपमाने ।
व्यस्तसमस्तन्यस्तौ तौ व्यतिरेकं त्रिधा कुरुतः ॥ - वही, ७, ८६
३. यो गुण उपमाने वा तत्प्रतिपन्थी च दोष उपमेये ।
भवतो यत्र समस्तौ स व्यतिरेकोऽयमन्यस्तु ॥ - वही, ७, ८६
-:
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१६४ ]
अनङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
बल देकर रुद्रट ने उसका एक ही भेद स्वीकार किया है। 'काव्यालङ्कार" के टीकाकार नमिसाधु ने इसके भी व्यस्त रूप की सम्भावना का सङ्क ेत दिया है। भामह ने उपमान से उपनेय के आधिक्य वर्णन में व्यतिरेक स्वीकार किया था । उद्भट तथा वामन ने उन्हीं की व्यतिरेक-विषयक मान्यता को स्वीकार किया । दण्डी ने उपमेय तथा उपमान के भेद - कथन में तथा उपमान से उपमेय के आधिक्य वर्णन में व्यतिरेक की सत्ता स्वीकार की रुद्रट के व्यतिरेक का प्रथम प्रकार पूर्ववर्ती आचार्यों के मतानुसार ही कल्पित है । उसके उक्त तीन भेदों की सम्भावना भी उद्भट के व्यतिरेक लक्षण मेंजिसमें उपमेय की उत्कृष्टता तथा उपमान की निकृष्टता के हेतु के दृष्ट या अदृष्ट होने पर बल दिया गया है—पष्ट थी । रुद्रट ने उपमेय से उपमान के आधिक्य - कथन में जो व्यतिरेक का दूसरा प्रकार माना है, वह उनकी स्वतन्त्र कल्पना है । इस व्यतिरेक प्रकार का औचित्य चिन्त्य है । उपमान से उपमेय के आधिक्य-प्रदर्शन में ही वस्तुतः अलङ्कारत्व माना जाना चाहिए । उपमान में तो उपमेय से आधिक्य की स्वीकृति रहा ही करती है । उपमान की योजना उपमेय की प्रभाव वृद्धि के लिए होती है । अतः, जो पदार्थ प्रभावाधिक्य के लिए ख्यात रहता है, उसे ही किसी पदार्थ के प्रभाव की अभिवृद्धि के लिए उपमान के रूप में लाया जाता है । स्पष्टतः प्रस्तुत विषय के प्रभाव को बढ़ाने के लिए किसी पदार्थ की उपमान के रूप में योजना के मूल में यह मान्यता निहित है कि वह अप्रस्तुत पदार्थ प्रस्तुत की अपेक्षा अधिक प्रभावोत्पादक है | अतः उपमेय से उपमान के गुणाधिक्य प्रतिपादन का आयास स्वतः सिद्ध के साधन के प्रयास के समान है । उसमें अलङ्कारत्व का विधायक चमत्कार मानना समीचीन नहीं ।
उत्प्रेक्षा
औपम्य वर्गगत उत्प्रेक्षा अलङ्कार के तीन रूपों का लक्षण निरूपण रुद्रट ने किया है । उसके एक लक्षण में कहा गया है कि जहाँ उपमान और उपमेय में अतिशय सादृश्य के कारण उनमें अभेद का प्रतिपादन किये जाने पर सिद्ध उपमान का सद्भाव उपपन्न हो और उस उपमान में जिस गुण-क्रिया का वस्तुतः सद्भाव नहीं हो उसका उसमें आरोप किया जाय, वहाँ उत्प्रेक्ष
१. व्यस्तयोरपि केचिदिच्छन्ति । - वही, नमिसाधुकृत टीका, पृ० २३४
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १६५
अलङ्कार होता है। उसका दूसरा प्रकार वह है, जिसमें उपमेय से सम्बद्ध अन्य उपमेय में उपमान से सम्बद्ध अन्य उपमान की तद्र पता की सम्भावना की जाती है । उसके तीसरे प्रकार के सम्बन्ध में यह मन्तव्य प्रकट किया गया है कि उसमें शोभन या अशोभन विशेषण से युक्त उपमेय में वस्तुतः अविद्यमान उपमान की युक्ति से सम्भावना कर उससे समता का आरोप किया जाता है। रुद्रट की उत्प्रेक्षा के प्रथम प्रकार की प्रकृति भामह की उत्प्रेक्षा से मिलती-जुलती है, जिसमें उपमान में वस्तुतः असत् गुण या क्रिया का उससे कल्पित योग अपेक्षित माना गया है। तृतीय प्रकार में उपमेय में उपमान का सम्भावना की धारणा भी पूर्ववर्ती आचार्यों से ही ली गयी है। उत्प्रक्षा में उपमेय के असिद्ध उपमान की सम्भावना भामह, दण्डी आदि को भी अभीष्ट थी। दण्डी ने उपमा से उत्प्रेक्षा का भेद प्रतिपादन करते हुए यह मान्यता व्यक्त की है कि उपमा में उपमान सिद्ध और उत्प्रेक्षा में असिद्ध या सम्भावना के रूप में रहता है। रुद्रट के तृतीय उत्प्रेक्षा प्रकार का स्वरूप इसी मान्यता के आधार पर कल्पित है। उत्प्रेक्षा का द्वितीय प्रकार किञ्चित् नवीन है । इसके स्वरूप की कल्पना का अवकाश भी 'भामह, दण्डी आदि के सामान्य उत्प्रेक्षा-लक्षण में ही था। इसमें उपमेयान्तर्गत उपमेय में उपमानान्तर्गत उपमान के अभेद की सम्भावना की कल्पना कर रुद्रट ने कुछ नवीनता लाने का प्रयास किया है। इसमें उपमेय के एक देश पर उपमान के एक देश के अभेदारोप की सम्भावना भी मानी जा सकती है। सम्भव है कि रुद्रट ने पूर्ववर्ती आचार्यों के रूपक के एकदेश विवर्ति-भेद के स्वरूप में उपमेय के एक देश पर उपमान के एक देश के आरोप की धारणा से प्रेरणा लेकर वैसे आरोप की सम्भावना में उत्प्रेक्षा के उक्त प्रकार की कल्पना कर ली हो। इसमें कुछ नवीनता यह भी लायी गयी है कि उपमेयगत अन्य उपमेय को उपमेय का अङ्ग नहीं कहकर स्वतन्त्र उपमेय ही कहा गया है । यही बात उपमानान्तर्गत उपमान के सम्बन्ध में भी है। स्पष्टतः रुद्रट १. अतिसारूप्यादैक्यं विधाय सिद्धोपमानसद्भावम् । आरोप्यते च तस्मिन्नतद्गुणादीति सोत्प्रेक्षा ॥
-रुद्रट, काव्यालं. ८,३२ २. सान्येत्युपमेयगतं यस्या संभाव्यतेऽन्यदुपमेयम् ।
उपमानप्रतिबद्धापरोपमानस्य तत्त्वेन ।। वही, ८,३४ ३. यत्र विशिष्टे वस्तुनि सत्यसदारोप्यते समं तस्य।
वस्त्वन्तरमुपपत्त्या संभाव्यं सापरोत्प्रेक्षा ॥-वही, ८,३६
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१६६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण की उत्प्रेक्षा-धारणा पर पूर्ववर्ती आचार्यों की तद्विषयक धारणा का पुष्कल प्रभाव है।
काव्यालङ्कार धारणा के विकास की दृष्टि से रुद्रट के अलङ्कार सिद्धान्त के इस समीक्षात्मक अध्ययन का निष्कर्ष निम्नलिखित है___रुद्रट ने ही सर्वप्रथम काव्य के अलङ्कारों को उनके मूल तत्त्वों के आधार पर वास्तव, औपम्य, अतिशय एवं श्लेष वर्गों में विभाजित किया । भामह और उद्भट ने भी अलङ्कारों का वर्गशः उपस्थापन किया था। उद्भट के 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' में अध्यायों को अलङ्कार के वर्ग के आधार पर वर्ग ही कहा गया है; किन्तु वहाँ वर्गीकरण का आधार अलङ्कार का तत्त्व नहीं था। विद्वानों का अनुमान है कि भामह और उद्भट के वे वर्ग अलङ्कारों के ऐतिहासिक विकास के सूचक हैं। रुद्रट के अलङ्कार-वर्ग उनके चिन्तन की मौलिकता के परिचायक हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि रुद्रट का वर्गीकरण सर्वथा पूर्ण एवं निर्दोष है। उनके कुछ अलङ्कारों में एकाधिक वर्गों के स्वभाव का मिश्रण है। अतः, उन्हें किसी विशेष वर्ग में माने जाने का औचित्य असन्दिग्ध नहीं। उदाहरणार्थ-वास्तव-वर्ग के व्यतिरेक अलङ्कार के स्वरूप का निर्धारण उपमान और उपमेय के उत्कर्षापकर्ष के आधार पर किया गया है। अतः, इसे औपम्य-वर्ग के अलङ्कारों से पृथक् वास्तव-वर्ग में रखना सर्वथा युक्तिसङ्गत नहीं। वास्तव-वर्ग के अलङ्कारों में वस्तुस्वरूप का वर्णन-मात्र अपेक्षित माना गया है। सादृश्य के आधार पर दो पदार्थों की तुलना औपम्य-व के अलङ्कार का लक्षण है। स्पष्ट है कि उक्त व्यतिरेक को औपम्यवर्ग में ही रखना समीचीन होता। इन त्रुटियों के होने पर भी मूलतत्त्वों के आधार पर अलङ्कार-वर्गीकरण के प्रथम प्रयास के लिए रुद्रट श्रेय के अधिकारी हैं। समान संज्ञा वाले कुछ अलङ्कार दो वर्गों में भी परिगणित हैं; किन्तु अलङ्कार-वर्ग के स्वभाव के अनुसार एक वर्ग के अलङ्कार उन्हीं अभिधान वाले दूसरे वर्ग के अलङ्कार से भिन्न-स्वभाव वाले हैं । उदाहरण के लिए वास्तव-वर्ग के सहोक्ति, समुच्चय और उत्तर अलङ्कारों का स्वरूप औपम्य-वर्ग के उन्हीं नाम वाले अलङ्कारों के स्वरूप से भिन्न है । वास्तव-वर्ग के विषम और हेतु, अतिशय वर्ग के विषम और हेतु से भिन्नस्वभाव वाले हैं। इसी प्रकार औपम्य-वर्ग के उत्प्रेक्षा एवं पूर्व अलङ्कारों की प्रकृति अतिशय वर्गगत उत्प्रेक्षा और पूर्व से स्वतन्त्र है। अतः एक ही नाम के दो वर्ग-गत अलङ्कार की पृथक्-पृथक् सत्ता स्वीकार की जानी चाहिए।
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १६७ *
रुद्रट ने अर्थालङ्कार के क्षेत्र में तैंतीस तथा शब्दालङ्कार के क्ष ेत्र में दो नवीन अलङ्कारों की गणना की है । वर्ग के अनुसार वास्तव - वर्ग में चौदह, औपम्य वर्ग में दश तथा अतिशय वर्ग में नौ नवीन अलङ्कार परिगणित हैं । वक्रोक्ति और चित्र; ये दो शब्दालङ्कार भी नवीन हैं । स्पष्ट है कि वास्तव वर्ग में सर्वाधिक नवीन अलङ्कारों की कल्पना की गयी है । संख्या की दृष्टि से तो वास्तव-वर्ग में सबसे अधिक अलङ्कार हैं ही, स्वरूपगत नवीनता की दृष्टि से भी इसी वर्ग के अलङ्कारों का आधिक्य है । कारण यह हो सकता है कि रुद्रट के पूर्ववर्ती आचार्य वस्तुस्वरूप कथन में बहुत चमत्कार नहीं मानते होंगे और इसीलिए वस्तु - वर्णनपरक अधिक अलङ्कार - प्रकार की कल्पना उन्होंने नहीं की होगी ।
इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि रुद्रट से पूर्व आचार्य भरत से लेकर वामन तक की रचनाओं में जितने अलङ्कारों का विवेचन हुआ था, उनमें से कई अलङ्कार वस्तुस्वरूपकथन - मात्र से सम्बद्ध थे । भामह की स्वभावोक्ति वास्तव अलङ्कार ही है । यथासंख्य, प्ररिवृत्ति, हेतु, सूक्ष्म और लेश का सम्बन्ध भी वस्तु वर्णन से ही है । यहाँ तक कि दीपक - जैसा मूल अलङ्कार भी वास्तव -कोटि में ही परिगणित हुआ है। इतना होने पर भी उक्त अलङ्कारों में एक सूक्ष्म भेद यह है कि कुछ अलङ्कारों में वर्ण्य-वस्तु के स्वरूप मात्र पर विचार किया गया है तथा कुछ में वस्तु वर्णन की विशिष्ट: प्रक्रिया पर । यथासंख्य, दीपक आदि में वस्तु-वर्णन की विशिष्ट प्रक्रिया अपेक्षित मानी गयी है; किन्तु स्वभावोक्ति, परिवृत्ति आदि में केवल वर्ण्य के स्वरूप पर विचार किया गया है । वस्तु वर्णन की चमत्कारपूर्ण पद्धति में अलङ्कारत्व असन्दिग्ध है; किन्तु वर्ण्य-वस्तु को अलङ्कार मानने में दो मत रहे हैं । एक मत यह है कि अलङ्कार वर्ण्य से अभिन्न नहीं । वे वर्ण्य की श्रीवृद्धि करने वाले उसके सहायक तत्त्व हैं, जिनकी वर्ण्य से पृथक् सत्ता मानी ही जानी चाहिए । आचार्य पण्डित रामचन्द्र शुक्ल ने स्वभावोक्ति को अलङ्कार की सीमा में घसीट लाने को अयौक्तिक कहा है । पण्डित लक्ष्मीनारायण सुधांशु ने भी वस्तु मात्र से सम्बद्ध अनेक अलङ्कारों का अलङ्कारत्व अस्वीकार्य सिद्ध किया है । २ संस्कृत के आचार्यों में भी वस्तुस्वरूपकथन - मात्र से सम्बद्ध अलङ्कारों की स्वीकृति के सम्बन्ध में ऐकमत्य नहीं । भामह ने स्वभावोक्ति
१. द्रष्टव्य - त्रिवेणी ( सूरदास ) पृ० १०२
२. द्रष्टव्य — काव्यमें अभिव्यञ्जनावाद पृ० ८६
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१६८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
के स्वरूप का विवेचन अवश्य किया; किन्तु अतिशयोक्ति की स्वरूप-मीमांसा के क्रम में वक्रोक्ति को काव्य का प्रमुख तत्त्व स्वीकार कर उसे ही अलङ्कारों का भी प्राण माना । हेतु, सूक्ष्म और लेश के अलङ्कारत्व का खण्डन भी उन्होंने उनमें वक्रोक्ति के अभाव के कारण ही किया। इस प्रकार आगे चल कर वक्रोक्तिवादी कुन्तक ने जो स्वभावोक्ति के अलङ्कारत्व का निषेध किया, उस मान्यता का बीज भामह के 'काव्यालङ्कार' में ही पाया जा सकता है। स्पष्ट है कि वर्ण्य-वस्तु के रूप-वर्णन में अलङ्कारत्व का सद्भाव मानने के विषय में दो मत होने के कारण ही रुद्रट के पूर्व वास्तवमूलक अलङ्कारों की विविधता सामने नहीं आ सकी थी। रुद्रट के समसामयिक आचार्य वामन ने तो केवल उन्हीं अलङ्कारों को स्वीकार किया है, जिनका मूल सादृश्य है। रुद्रट की अलङ्कार-विषयक स्थापना के उपरान्त भी वास्तव-वर्ग के अलङ्कार सर्वसम्मत नहीं हो सके । अभिनवगुप्त-जैसे सशक्त समीक्षक ने औपम्यमूलक अलङ्कार को ही स्वीकार किया है, वास्तव आदि को नहीं । वक्रोक्तिवादी आचार्यों ने भी वास्तव-वर्ग के अलङ्कारों को स्वीकार नहीं किया है। यही कारण है कि रुद्रट के वास्तव अलङ्कारों में अधिकांश का स्वरूप सर्वथा नवीन है । उनका मूल पूर्ववर्ती आचार्यों की अलङ्कार-धारणा में अथवा अपने अस्तित्व का विसर्जन कर परवर्ती अलङ्कार-प्रपञ्च को जन्म देने वाले लक्षण के स्वरूप में नहीं ढूढ़ा जा सकता। रुद्रट के वास्तव-वर्ग के निम्नलिखित अलङ्कार सर्वथा नवीन हैं—समुच्चय, विषम, कारणमाला अन्योन्य, सार, मीलित तथा एकावली। उनके पर्याय अलङ्कार का एक प्रकार भी नवीन है । रुद्रट का पर्याय अंशतः भामह आदि के पर्यायोक्त से अभिन्न है। उसके दो रूपों की कल्पना कर रुद्रट ने एक स्वरूप तो भामह के पर्यायोक्त से अभिन्न मान लिया ; किन्तु दूसरे रूप की कल्पना सर्वथा स्वतन्त्र रूप से की। शेष, वास्तव अलङ्कारों की रूप-रचना के लिए रुद्रट ने पूर्ववर्ती आचार्यों के लक्षण, गुण, अलङ्कार आदि से सम्बद्ध विचार से तत्त्व ग्रहण किया है। कुछ दार्शनिक मान्यताओं की अवतारणा भी उनके द्वारा अलङ्कार के क्षेत्र में हुई। उदाहरणार्थभाव अलङ्कार के एक प्रकार की रूप-रचना भरत के प्राप्ति-लक्षण के आधार पर तथा दूसरे प्रकार की रचना शब्दशक्ति की प्राचीन मान्यता के आधार पर हुई है। अनुमान की स्वरूप-सृष्टि में प्राप्ति एवं विचार-लक्षणों से तत्त्व लिये गये हैं। परिकर की कल्पना का मूल भरत के अक्षरसंघात लक्षण तथा उदार गुण में पाया जा सकता है। परिसंख्य का स्वरूप-विन्यास आख्यान
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १६६ और हेतु लक्षणों के तत्त्वों से किया गया है। उत्तर का एक रूप विचार "लक्षण के आधार पर तथा दूसरा पृच्छा के आधार पर कल्पित है। अवसर के एक भेद का स्वभाव ओज गुण से मिलता-जुलता है तो उसके दूसरे भेद का स्वरूप उदारत्व गुण एवं युक्ति-लक्षण के तत्त्वों से निर्मित है।
रुद्रट की शब्दगत वक्रोक्ति की प्रकृति नवीन है। चित्र अलङ्कार के विविध रूपों की कल्पना का मूल दण्डी के यमक अलङ्कार के स्वरूप-विवेचन में पाया जा सकता है।
उनके औपम्य-वर्गगत नवीन व्यपदेश वाले अलङ्कारों में केवल प्रत्यनीक का स्वरूप सर्वथा स्वतन्त्र जान पड़ता है। शेष अलङ्कारों के स्वरूप की कल्पना प्राचीन मनीषियों के विचारों के आधार पर की गयी है। मत, उत्तर, 'भ्रान्तिमान, पूर्व, समुच्चय, स्मरण, प्रतीप, उभयन्यास तथा साम्य इसके निदर्शन हैं। हेतु. लक्षण तथा उपमा अलङ्कार के तत्त्वों से मत का; 'मिथ्याध्यवसाय लक्षण, आख्यान लक्षण तथा उपमा के तत्त्वों के मिश्रण से उत्तर का; भ्रमात्मक प्रतीति की दार्शनिक मान्यता पर आधृत भरत के विपर्यय लक्षण के तत्त्व के साथ उपमानोपमेय भाव के योग से भ्रान्तिमान् का; अतिशयोक्ति एवं उपमा अलङ्कारों के तत्त्वों से पूर्व का और पदोच्चय लक्षण, दीपक तथा उपमा अलङ्कारों के तत्त्वों के मेल से समुच्चय का स्वरूप निर्मित है। स्मरण अलङ्कार की रूप-रचना का आधार स्मृतिविषयक दार्शनिक सिद्धान्त है। प्रतीप की कल्पना दण्डी की उत्पक्षितोपमा के आधार पर, उभयन्यास की रचना भामह की प्रतिवस्तूपमा के आधार पर तथा साम्य की सर्जना उपमा तथा व्यतिरेक के आधार पर की गयी है। ___ अतिशयमूलक अलङ्कारों के एक वर्ग की कल्पना कर लेने पर रुद्रट ने अतिशयोक्ति के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना आवश्यक नहीं समझी। इस वर्ग के विशेष, अधिक, विषम, असङ्गति तथा पिहित अलङ्कारों के नाम-रूप सर्वथा नवीन हैं। तद्गुण का एक प्रकार-जिसमें संसर्ग होने पर एक वस्तु दूसरी वस्तु का गुण ग्रहण कर लेती है-नवीन है । इस वर्ग के नवीन अभिधान वाले अन्य अलङ्कार पूर्ववर्ती आचार्यों की मान्यता के आधार पर कल्पित हैं। दृष्टान्त रूप में पूर्व, व्याघात, अहेतु आदि देखे जा सकते हैं। पूर्व का स्वरूप उद्भट के अतिशयोक्ति-भेद 'कार्यकारण-पौर्वापर्य' से मिलता-जुलता है। तद्गुण का एक प्रकार उद्भट की अतिशयोक्ति के 'भेदेनान्यत्व' भेद के आधार
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१७० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण पर कल्पित है। व्याघात और अहेतु अलङ्कारों की स्वरूप-सृष्टि उद्भट की विशेषोक्ति के स्वभाव के अनुरूप की गयी है। वास्तव-वर्ग का पर्याय तथा अतिशय वर्ग का तद्गुण अंशतः नवीन है।
प्राचीन व्यपदेश वाले कुछ अलङ्कारों के स्वरूप में भी किञ्चित् रूपगत नवीनता का आधान हुआ है। उदाहरणार्थ-वास्तव-वर्ग के परिवृत्ति एवं सूक्ष्म तथा औपम्य-वर्ग के सहोक्ति और आक्षेप अलङ्कारों का स्वरूप किञ्चित् नवीन है। शब्दगत श्लेष, औपम्यमूलक संशय एवं अर्थान्तरन्यास का सामान्य स्वरूप तो प्राचीन है; किन्तु उनके कुछ नवीन भेदों की कल्पना की गयी है। वास्तव-वर्गगत सहोक्ति तथा व्यतिरेक ; औपम्य-वर्गगत उत्प्रेक्षा तथा अतिशय वर्गगत विभावना-इन अलङ्कारों के एकाधिक रूपों का विवेचन किया गया है, जिनमें से कुछ रूप प्राचीन आचार्यों के मतानुसार विवेचित हैं, कुछ रूप किञ्चित् नवीन । प्राचीन आचार्यों की स्वभावोक्ति के लिए जाति तथा अप्रस्तुतप्रशंसा के लिए अन्योक्ति संज्ञा का प्रयोग किया गया है। उनकी प्रकृति नवीन नहीं, नाममात्र नवीन है। उक्त अलङ्कारों में यत्किञ्चित् नवीनता लाने का प्रयास रुद्रट ने किया है। नवीन भेदों या नवीन अलङ्कार-प्रकारों के स्वरूप की कल्पना की सम्भावना प्राचीन आचार्यों के तत्तदलङ्कारों के सामान्य लक्षण में ही निहित थी। ___ वास्तव-वर्ग के यथासंध्य, दीपक, लेश और हेतु; औपम्य-वर्ग के उपमा, रूपक, अपह्न ति, समासोक्ति तथा दृष्टान्त; अतिशय-वर्ग के उत्प्रेक्षा एवं विरोध तथा श्लेष-वर्ग के श्लेष; इन अलङ्कारों के नामरूप रुद्रट के पूर्ववर्ती आचार्यों के अलङ्कारों से अभिन्न हैं।
निष्कर्षतः रुद्रट के वर्गानुक्रम से निम्नलिखित अलङ्कार ही संज्ञा एवं स्वरूप की दृष्टि से उनकी सर्वथा मौलिक उद्भावना है :(क) वास्तव-वर्ग-समुच्चय, विषम, कारणमाला, सार, अन्योन्य, मीलित
तथा एकावली। (ख) औपम्य-वर्ग-प्रत्यनीक । (ग) अतिशय-वर्ग-विशेष, अधिक, विषम, असङ्गति और पिहित ।
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १७१
आचार्य कुन्तक भारतीय काव्यशास्त्र में वक्रोक्ति-प्रस्थान के प्रवर्तक आचार्य कुन्तक ने 'वक्रोक्तिजीवित' में काव्य के अलङ्कारों का विवेचन कुछ स्वतन्त्र रीति से किया है। उनका मुख्य प्रतिपाद्य उक्ति-की वक्रता है, जिसे वे काव्य की आत्मा मानते थे। उक्तिगत वक्रता या चमत्कार को काव्य-सर्वस्व मानने के कारण अलङ्कार के सम्बन्ध में अलङ्कार-सम्प्रदाय के आचार्यों से उनका दृष्टि-भेद होना स्वाभाविक था। अलङ्कारवादी नहीं होने पर भी कुन्तक ने अलङ्कार-विवेचन में जो महनीय योगदान दिया है, वह साहित्य-समीक्षा के पाठकों के लिए आनन्दमय विस्मय का विषय है । इस क्षेत्र में उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि अलङ्कार और अलङ्कार्य का भेदाभेद-निरूपण है । इस विषय में उनकी मान्यता सर्वथा मौलिक और तर्कपुष्ट है। हमने कुन्तक के अलङ्कार्यालङ्कार-विवेक पर प्रथम अध्याय में विचार किया है। प्रस्तुत सन्दर्भ में हमारा उद्देश्य 'वक्रोक्तिजीवित' में विवेचित अलङ्कारों का स्रोत-सन्धान है। ___कुन्तक ने अलङ्कारों की संख्या तथा उनके भेदोपभेदों के अनावश्यक प्रसार को अग्राह्य माना है। उनकी प्रवत्ति तत्त्व-निरूपण की गहराई में उतरने की थी, पूर्व निरूपित तथ्य के भदीकरण की नहीं। फलतः उन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा स्वीकृत अलङ्कारों की संख्या में पर्याप्त काट-छाँट कर दी है। 'वक्रोक्तिजीवित' में प्राचीन आचार्यों के कुछ अलङ्कारों के अलङ्कारत्व का खण्डन किया गया है, कुछ अलङ्कारों का नाम्ना उल्लेख भी नहीं किया गया है, कुछ अलङ्कारों के प्रधान स्वरूप तो स्वीकृत हैं; किन्तु उनके भेदोपभेदों को अस्वीकार कर दिया गया है तथा कुछ प्राचीन अलङ्कारों के नवीन स्वरूप की उद्भावना की गयी है । कुन्तक ने काव्यालङ्कार के किसी नवीन व्यपदेश की उद्भावना नहीं की है। उन्होंने कुछ प्राचीन नामधेय अलङ्कारों के नवीन स्वरूप की कल्पना अवश्य की है। उदाहरणार्थ; रसवत्, दीपक आदि अलङ्कारों के स्वरूप के सम्बन्ध में प्राचीन आचार्यों की मान्यता का खण्डन कर कुन्तक ने उनकी नवीन परिभाषाए दी हैं। कुछ अलङ्कारों के सामान्य स्वरूप का विवेचन प्राचीन आचार्यों के मतानुरूप करने पर भी कुन्तक ने उनके कुछ नवीन भेदों की कल्पना कर ली है। व्यतिरेक आदि के भेद इस दृष्टि से द्रष्टव्य हैं। प्रस्तुत सन्दर्भ में प्राचीन अभिधान वाले अलङ्कारों के कुन्तकप्रदत्त नवीन लक्षणों तथा उनके द्वारा कल्पित प्राचीन अलङ्कारों के नवीन
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१७२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण भेदों का स्रोत-सन्धान अभीष्ट है। 'वक्रोक्तिजीवित' में विवेचित अलङ्कारों को उनके नाम-रूप का प्राचीन अलङ्कारों से साम्य-वैषम्य की दृष्टि से निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है(क) पूर्ववर्ती आचार्यों के लक्षण का. खण्डन कर कुन्तक के द्वारा
उद्भावित नवीन स्वरूप वाले अलङ्कारः-इस वर्ग में रसवत्, दीपक, सहोक्ति आदि अलङ्कार आते हैं। इनके नाम प्राचीन हैं,
किन्तु स्वरूप नवीन । . (ख) उपमा में अन्तभुक्त अलङ्कारः–प्रतिवस्तूपमा, उपमेयोपमा, तुल्य
योगिता, अनन्वय, परिवृत्ति, तथा निदर्शना का उपमा से पृथक् अस्तित्व नहीं मान कर कुन्तक ने उसीमें उनका अन्तर्भाव स्वीकार
किया है। (ग) श्लेष में अन्तर्भूत अलङ्कारः–कुन्तक ने समासोक्ति अलङ्कार का
अन्तर्भाव श्लेष में मान लिया है। (घ) शब्द-भेद से प्रस्तुत प्राचीन लक्षण वाले अलङ्कारः-पर्यायोक्त,
उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, उपमा, श्लेष, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, आक्षेप, विभावना, सन्देह, अपह्नति, संसृष्टि, रूपक तथा अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कारों के स्वरूप के सम्बन्ध में कुन्तक प्राचीन आचार्यों से सहमत हैं। उन्होंने शब्द-भेद से उक्त अलङ्कारों के प्राचीन लक्षणों की ही अवतारणा की है। व्यतिरेक अलङ्कार के सामान्य स्वरूप के सम्बन्ध में कुन्तक प्राचीन आचार्यों से सहमत हैं; किन्तु
उन्होंने उसके कुछ नवीन भेदों की उद्भावना कर ली है। (ङ) अलङ्कार्य के रूप में स्वीकृत प्राचीन अलङ्कार:—कुन्तक ने
स्वभावोक्ति, प्रेय, ऊर्जस्वी उदात्त तथा समाहित के अलङ्कारत्व का खण्डन कर उन्हें अलङ्कार्य के रूप में स्वीकार किया है । आशीः भी
उनके अनुसार अलङ्कार्य ही है। (च) चमत्काराभाव के कारण अस्वीकृत अलङ्कार:-यथासंख्य आदि
अनेक अलङ्कारों का अस्तित्व कुन्तक ने अस्वीकार कर दिया। उनकी मान्यता है कि जिन अट्ठाईस अलङ्कारों का विवेचन 'वक्रोक्ति
१. कुन्तक, वक्रोक्तिजीवित पृ० ४३६-४४६ २. वही, पृ० ४४६-४५३.
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जीवित' में किया गया है, उनके अतिरिक्त जिन अलङ्कारों की गणना प्राचीन अलङ्कार-ग्रन्थों में की गयी है, उनमें से कुछ तो इन्हीं अट्ठाईस में अन्तर्भुक्त हैं तथा कुछ शोभाहीन होने के कारण अलङ्कार नहीं हैं । विवेचित अट्ठाईस में से भी कुछ का ही अलङ्कारत्व कुन्तक को मान्य है । विशेषोक्ति कहीं अन्य अलङ्कार में अन्तर्भूत हो जाती है, कहीं वह अलङ्कार्य ही बन जाती है । हेतु, सूक्ष्म और लेश उक्तिगत वत्रता के अभाव में अलङ्कार नहीं माने जा सकते । इन तीनों के सम्बन्ध में भामह ने भी यही मन्तव्य प्रकट किया था । कुन्तक ने उनके स्वभाव - मात्र की रमणीयता की दृष्टि से उन्हें अलङ्कार्य ही स्वीकार किया है । उपमा-रूपक अलङ्कार की स्वतन्त्र सत्ता अपन्न नहीं । निष्कर्षतः, कुन्तक के मतानुसार निम्नलिखितः अलङ्कारों का अस्तित्व ही स्वीकार्य है—
(१) उपमा (२) रूपक, ( ३ ) श्लेष, (४) व्यतिरेक, (५) अप्रस्तुतप्रशंसा, (६) पर्यायोक्ति, (७) उत्प्र ेक्षा, (८) अतिशयोक्ति, (६) दृष्टान्त, (१०) अर्थान्तरन्यास, (११) आक्षेप, (१२) विभावना, (१३) सन्देह, (१४) अपह्न ुति (१५) रसवत्, (१६) दीपक, (१७) सहोक्ति ।
कुन्तक ने अट्ठाईस अलङ्कारों का उल्लेख कर उनके अलङ्कारत्व का परीक्षण किया है । उनमें से कुछ के अलङ्कारत्व का खण्डन कर स्वमतानुसार स्वीकार्य अलङ्कारों का स्वरूप विवेचन किया है। उनकी मान्यता है कि पूर्ववर्ती आलङ्कारिकों ने इन अट्ठाईस अलङ्कारों के अतिरिक्त जिन अलङ्कारों का उल्लेख किया है, उनमें से कुछ तो इन्हीं अलङ्कारों में अन्तर्भुक्त हो जाते
और शेष शोभाहीन होने के कारण अलङ्कार के रूप में स्वीकार नहीं किये जा सकते । पूर्ववर्ती आचार्यों के कुछ अलङ्कारों को अलङ्कार नहीं मान कर अलङ्कार्य की कोटि में रखने के कारण भी वक्रोक्तिजीवितकार ने अलङ्कार के सन्दर्भ में उन्हें अविवेच्य और अनुल्लेख्य माना है । उदाहरणार्थयथासंख्य शोभाहीन होने के कारण अलङ्कार नहीं । आशीः आशंसनीय अर्थ की प्रमुखता के कारण अलङ्कार्य है । विशेषोक्ति कहीं अलङ्कार्य बन जाती है तथा कहीं अन्य अलङ्कार में अन्तर्भूत हो जाती है । हेतु, सूक्ष्म और लेश में अलङ्कारत्व-विधायक उक्ति-गत वत्रता का अभाव रहता है । अतः, उन्हें अलङ्कार नहीं माना जा सकता । स्वभावमात्र रमणीय होने के कारण उन्हें
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१७४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अलङ्कार्य मानना ही समीचीन है। उपमारूपक का अलङ्कारत्व उपपन्न नहीं।' इसलिए कुन्तक ने उक्त अट्ठाईस अलङ्कारों को ही परीक्षणीय समझा। ऊर्जस्वी ___दण्डी, भामह, उद्भट आदि पूर्ववर्ती आचार्यों के ऊर्जस्वी-लक्षण को कुन्तक ने अमान्य बताया है। उनकी मान्यता है कि काम-क्रोध आदि मनोविकार के कारण रस-परिपाक के बाधित होने के स्थल में ऊर्जस्वी नामक अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार करना समीचीन नहीं। ये मनोविकार रसभङ्ग के ही हेतु होते हैं। उनसे अलङ्कारत्व की सृष्टि नहीं होती। रसबोध में चित्त-वैशद्य की स्थिति सभी रसवादी आचार्यों ने स्वीकार की है। इस दशा में सत्त्व का उद्रेक रजस् एवं तमस् को पराभूत कर देता है। जब तक राजस एवं तामसभाव सत्त्व से सर्वथा अभिभूत नहीं हो जाते तब तक रस की चर्वणा सम्भव नहीं होती। काम, क्रोध आदि तामस भाव रसास्वाद में विघ्न उपस्थित करते हैं। रस-परिपाक की इस बाधित अवस्था में ही प्राचीनों ने ऊर्जस्वी अलङ्कार की सत्ता स्वीकार की थी।
रसवत्
दण्डी, भामह, उद्भट आदि की रसवत्-परिभाषाएं कुन्तक को मान्य नहीं। उन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों की रसवत्-विषयक मान्यता का खण्डन कर स्वतन्त्र रूप से उसके लक्षण की कल्पना की है। दण्डी आदि आचार्यों ने रसमय काव्य में रसवत् अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार किया था। उन्होंने रस को अलङ्कार के एक भेद में समाविष्ट कर दिया था। कुन्तक अलङ्कार से रस का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार करते थे। उनकी मान्यता थी कि रस को अलङ्कार नहीं मान कर अलङ्कार्य माना जाना चाहिए। रसमय वाक्य कोअलङ्कार्य को–अलङ कृत करने में ही अलङ्कार की सार्थकता है । अतः, रसवद् वाक्य को अलङ्कार मानना युक्तिसङ्गत नहीं। भामह तथा उद्भट की रसवदलङ्कार-धारणा का खण्डन करते हुए कुन्तक ने यह युक्ति दी है कि अलङ्कार और अलङ्कार्य की पृथक्-पृथक् सत्ता तो मानी ही जानी चाहिए। यदि काव्य में शृङ्गार आदि रस ही प्रधानतः वर्ण्यमान माना जाय तो वह अलङ्कार्य होगा
१. कुन्तक, वक्रोक्ति जीवित, ३,४४ तथा उसकी बृत्ति पृ०४७८-८१
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १७५ और उसे अलंकृत करने वाले किसी अन्य अलङ्कार की कल्पना करनी होगी । या यदि सहृदयों के आह्लाद का कारण होने से रस को ही अलङ्कार कहा जाय तो भी उस रसरूप अलङ्कार से अलङ्कृत होने वाले किसी स्वतन्त्र सत्तावान् अलङ्कार्य का अस्तित्व दिखाया जाना चाहिए । किन्तु, भामह तथा उद्भट के रसवत्-लक्षण में अलङ्कार्य और अलङ्कार के विवेक का अभाव है । उन्होंने रसवत् के जिस स्वरूप की कल्पना की है, वह अलङ्कार्य ही माना जा सकता है, अलङ्कार नही । दण्डी के लक्षण में भी रसवत् का अलङ्कारत्व सिद्ध नहीं होता । उनके ‘काव्यादर्श' में रसवत् - परिभाषा के दो पाठ प्राप्त होते हैं । एक में उसे ( रसवत् अलङ्कार को) 'रस-पेशल' कहा गया है और दूसरे में 'रस-संश्रय' । दोनों का अर्थ मूलतः अभिन्न है । वक्रोक्तिजीवितकार की मान्यता है कि ‘रसपेशल' या 'रस-संश्रय' काव्य ही होता है, जो अलङ्कार्य है, अलङ्कार नहीं । अतः भामह और उद्भट के रसवत्-लक्षण की तरह दण्डी का लक्षण भी अमान्य है । कुछ आचार्यों ने उपमा आदि अलङ्कारों से रसवत् के पृथक्करण के एक नवीन आधार की कल्पना की थी । वे मानते थे कि जहाँ चेतन पदार्थ का वर्णन होता है वहाँ रस का सद्भाव होने के कारण रसवत् अलङ्कार होता है और जहाँ अचेतन पदार्थ का वर्णन होता है, वहाँ उपमा, रूपक आदि की सत्ता मानी जाती है | आनन्दवर्द्धन ने 'ध्वन्यालोक' में इस मत का खण्डन किया है । कुन्तक ने उक्त मत के खण्डन में आनन्दवर्द्धन की युक्ति को ही स्वीकार किया है । इस अंश में आनन्दवर्द्धन से सहमत होने पर भी कुन्तक ने उनकी रसवत्धारणा को स्वीकार नहीं किया । उन्होंने आनन्दवर्द्धन के रसवत्-लक्षण का भी खण्डन किया है | उनका कथन है कि जहाँ अन्य वाक्यार्थ की प्रधानता या अलङ्कार्यता हो तथा रस आदि अङ्ग रूप में प्रयुक्त होते हों वहाँ आनन्दवर्द्धन ने रसादि अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार किया है । यह समीचीन नहीं । आनन्दवर्द्धन के रसवत् अलङ्कार के उदाहरण में उन्होंने लक्षण का व्यभिचार दिखाया है । उनकी तर्क-पद्धति का उल्लेख यहाँ अप्रासङ्गिक होगा ।
पूर्ववर्ती आचार्यों के रसवत् लक्षण का खण्डन कर वक्रोक्तिजीवितकार ने प्रस्तुत अलङ्कार के स्वरूप के सम्बन्ध में अपनी धारणा व्यक्त की है । उनकी मान्यता है कि जो अलङ्कार रस तत्त्व के विधान से रसज्ञ पाठकों का
१. कुन्तक, वक्रोक्तिजीवित, पृ० ३३८- ६६
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१७६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण आह्लादजनक होकर रस के समान हो जाता है उसे रसवत् अलङ्कार कहते हैं । रस के समान आह्लादकारी होने के कारण यह अलङ्कारों में मूर्धन्य स्थान का अधिकारी है।' कुन्तक ने उक्त अलङ्कार के सर्वथा नवीन स्वरूप की उद्भावना का दावा किया है। किन्तु, उनके रसवत्-लक्षण के परीक्षण से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनकी मान्यता पर पूर्वाचार्यों के विचारों का प्रचुर प्रभाव पड़ा है। कुन्तक की रसवत्-परिभाषा में इस तथ्य की स्पष्ट स्वीकृति है कि काव्य में सरसता का आधान करने वाला रस के समान आह्लादकारी कोई भी अलङ्कार रसवत् कहा जा सकता है। उन्होंने स्वयं रसवत् के उदाहरण में एकत्र रूपक को तथा अपरत्र उत्प्रेक्षा को रसवत् कहा है। रूपक और उत्प्रेक्षा आदि सामान्य अलङ्कार भी होते हैं और रसवत् भी। प्रस्तुत अर्थ से अप्रस्तुत की सरस व्यञ्जना के स्थल में कुन्तक रूपक आदि रसवत् अलङ्कार का सद्भाव मानेंगे। इस अंश में उनकी रसवत्-धारणा प्राचीन आचार्यों की समासोक्ति-धारणा के समकक्ष मानी जा सकती है। यह रसवत् तत्त्वतः एक स्वतन्त्र अलङ्कार न होकर अलङ्कारों का एक विशेष वर्ग सिद्ध होता है। इस वर्ग में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि सभी सुन्दर अलङ्कार रखे जा सकते हैं। सामान्य उपमा, रूपक आदि से इस वर्ग के उपमा, रूपक आदि का व्यावर्तक इस वर्ग के अलङ्कारों की रसमयता है। विचारणीय यह है कि उपमा, रूपक आदि रसवदलङ्कारों को रसवत्व का विधायक और आह्लादजनक कहना कहाँ तक उचित है। कुन्तक ने अलङ्कार को शब्द और अर्थ का धर्म स्वीकार किया है । वे अलङ्कार्य-भूत रस के उपकारक-मात्र हो सकते हैं; रसाधायक नहीं। काव्य-सौन्दर्य की व्यञ्जना में काव्याङ्गों के समन्वित योग के सिद्धान्त को मानने पर भी कुन्तक ने अलङ्कार्य-अलङ्कार आदि का व्यावहारिक भेद स्वीकार किया ही है। अतः अलङ्कार को अलङ्कार्य का आधायक कहना उनके मतानुसार भी उपपन्न नहीं होगा। उनकी मान्यता यह जान पड़ती है कि जो अलङ्कार शब्दार्थ में इतना उत्कर्ष ला दे कि वह रसमय काव्य-सा आह्लादकारी हो जाय वह (रस के सदृश आनन्ददायक होने के कारण) रसवत् अलङ्कार है। कुन्तक न तो रसवत् अलङ्कार को रस का हेतु मानते थे न उससे अभिन्न । वे उसे रस के समान महत्त्व देना चाहते थे। अलङ्कार सौन्दर्य-बोध में उत्कर्ष लाते हैं। वे शब्द और अर्थ को अलङ कृत कर काव्य के आत्मतत्त्व का भी उपकार
१. कुन्तक, वक्रोक्तिजीवित, ३,१४-१५
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अलङ्कार-धारणा का विकास
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करते हैं । अतः उन्हें काव्य का केवल बाह्य तत्त्व कह कर उपेक्षित नहीं किया जा सकता । अलङ्कार काव्य के बाह्य और अन्तरङ्ग दोनों ही धर्म माने जान सकते हैं । आनन्दवर्द्धन ने अपृथग्यत्ननिर्वर्त्य अलङ्कार को अन्तरङ्ग एवं पृथग्यत्ननिर्वर्त्य अलङ्कार को बहिरङ्ग स्वीकार किया है । एक ही नाम के अलङ्कार अन्तरङ्ग भी हो सकते हैं और बहिरङ्ग भी । कुन्तक की रसवद-लङ्कार-धारणा के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे भी अलङ्कार के. रसवत् एवं सामान्य, दो वर्ग मानते थे । रसवत् वर्ग के अलङ्कारों को आनन्द- . वर्द्धन के अपृथग्यत्ननिर्वर्त्य ध्वन्यलङ्कार या अन्तरङ्ग अलङ्कारों के समकक्ष माना जा सकता है । कुन्तक की रसवत्-धारणा के विवेचन से निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं
(क) कुन्तक रसवत् नामक अलङ्कार की गणना करने पर भी उसे स्वतन्त्र
अस्तित्व नहीं दिला पाये । उनके लक्षण के अनुसार रसवत् स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं होकर अलङ्कारों का एक वर्ग मात्र बन जाता है, जिसमें उपमा आदि सभी अलङ्कार आ सकते हैं । कुन्तक ने काव्य : में इसका मूर्धन्य स्थान माना है ।
(ख) रसवत् अलङ्कार-वर्ग की कल्पना का मूल आनन्दवर्द्धन की अपृथग्-यत्ननिर्वत्य अलङ्कार वर्ग की कल्पना में पाया जा सकता है ।
(ग) रसवत् के स्वरूप की कल्पना में पूर्ववर्ती आचार्यो की समासोक्ति-धारणा का भी प्रभाव स्पष्ट है ।
(घ) यह कुन्तक की स्वतन्त्र उद्भावना नहीं ।
दीपक
भामह आदि आचार्यों की मान्यता थी कि जहाँ वाक्य के आरम्भ, मध्य या अन्त में स्थित एक क्रिया-पद अनेक पदों को दीपित करता हो, वहाँ दीपक नामक अलङ्कार होता है । उनके मतानुसार दीप्यमान पदों की अपेक्षा स्थित क्रियापद ही दीपक नामक अलङ्कार होंगे । कुन्तक को यह मत मान्य नहीं । उनकी मान्यता है कि क्रिया-पद प्रकाशक या दीपक अवश्य होते हैं किन्तु दीपकता केवल उन्हीं में नहीं रहती । उनसे भिन्न पद भी दीपक हो सकते हैं । कर्त्ता, कर्म, करण आदि सभी पद पारस्परिक सम्बन्ध का द्योत करते ही हैं । अतः, दीपकत्व के आधार पर यदि क्रियापदों को दीपक कहा
१. भामह - काव्यालं० २, २५-२६
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१७८ ] अलङ्कार-धारणाः विकास और विश्लेषण जाय तो अन्य पदों को भी दीपक कहना होगा। ऐसे ही कुछ अन्य तर्कों से उन्होंने भामह आदि आचार्यों की दीपक-धारणा का खण्डन करना चाहा है। इस प्रसङ्ग में उनकी अष्टपक्षी युक्ति द्रष्टव्य है ।' कुन्तक ने दीपक अलङ्कार के निम्नलिखित लक्षण की कल्पना की है
"औचित्य के अनुरूप सुन्दर तथा सहृदयों के लिए आह्लादकारक वाच्यभिन्न अर्थात् प्रतीयमान अर्थ-धर्म को प्रकाशित करने वाली वस्तु दीपक अलङ्कार है।"२ स्पष्ट है कि कुन्तक की दीपक-धारणा का पूर्ववर्ती आचार्यों की तद्विषयक धारणा से कोई तत्त्वगत विरोध नहीं। भामह एवं वामन से कुन्तक का मतभेद केवल इतना है कि जहाँ भामह आदि केवल क्रिया को दीपक मानते थे वहाँ कुन्तक ने क्रिया के साथ अन्य कारक आदि पदों को दीपक का प्रयोजक स्वीकार किया है। यह कुन्तक की स्वतन्त्र कल्पना नहीं। भरत के दीपक-लक्षण में ही इसकी सम्भावना निहित थी। उद्भट ने भी दीपक की परिभाषा में 'धर्माः' शब्द का प्रयोग कर क्रिया के अतिरिक्त कारक-पदों को भी दीपक का प्रयोजक स्वीकार किया था। वृत्ति में 'धर्माः क्रियादिरूपाः' यह व्याख्यान इस कथन का प्रमाण है। कुन्तक के दीपक भेद-केवल एवं पंक्तिसंस्थ-अन्य आचार्यों के क्रमशः केवल एवं माला दीपक-भेदों से अभिन्न हैं। सहोक्ति
कुन्तक ने भामह आदि पूर्ववर्ती आचार्यों की सहोक्ति-परिभाषा को अस्वीकार्य बता कर स्वमत से उसके नवीन लक्षण की स्थापना का प्रयास किया है। उन्होंने समासोक्ति अलङ्कार की पृथक् सत्ता की स्वीकृति का भी 'विरोध किया है। वे उसे श्लेषानुप्राणित होने के कारण श्लेष में ही अन्तभुक्त मानते थे। कुन्तक ने भामह आदि आचार्यों की सहोक्ति-परिभाषा के खण्डन में यह युक्ति दी है कि उनकी परिभाषा के अनुसार सहोक्ति उपमा से स्वतन्त्र
अस्तित्व नहीं रखती। भामह के उक्त अलङ्कार के उदाहरण को लक्ष्य कर . उन्होंने कहा है कि उसमें पारस्परिक साम्य का सम्बन्ध ही मनोहारित्व का . १. कुन्तक–वक्रोक्तिजीवित, पृ० ३६३-६६ .. २. औचित्यावहमम्लानं तद्विदाह्लादकारणम् । अशक्त धर्ममर्थानां दीपयवस्तु दीपकम् ॥
-कुन्तक, वक्रोक्तिजीवित ३, १७
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हेतु है, अतः वहाँ उपमा का ही सद्भाव माना जायगा।' इस प्रकार भामह आदि की सहोक्ति को उपमान्तर्गत मान कर कुन्तक ने उसका लक्षण इस प्रकार दिया है :-"जहां वर्णनीय अर्थ की सिद्धि के लिए एक वाक्य से अनेक अर्थों का एक साथ कथन होता हो, वहाँ सहृदयों के मतानुसार सहोक्ति नामक अलङ्कार होता है।"२ उन्होंने यह स्वीकार किया है कि इसे ही कुछ लोग समासोक्ति भी कहते है । भामह के सहोक्ति एवं समासोक्ति अलङ्कारों का खण्डन कर कुन्तक ने दोनों के स्थान पर इस एक ही अलङ्कार की सत्ता स्वीकार की है। इस अलङ्कार के स्वरूप को कुन्तक की सर्वथा नवीन परिकल्पना मानते हुए वक्रोक्तिजीवित के व्याख्याता विश्वेश्वर ने कहा है कि "कुन्तक ने भामह के सहोक्ति-लक्षण का खण्डन करके जो अपना लक्षण प्रस्तुत किया है वह एकदम नया दृष्टिकोण है।"४ यह मत समीचीन ही जान पड़ता है। कुन्तक का यह सहोक्ति-लक्षण परवर्ती आचार्यों ने स्वीकार नहीं किया। श्लेष से सहोक्ति का भेद स्पष्ट करने के लिए कुन्तक ने यह कल्पना कर ली है कि सहोक्ति में कथित दोनों अर्थ गौण होते हैं, उनका उद्देश्य वर्णनीय अर्थ की सिद्धि होता है। श्लेष में दोनों अर्थ मुख्य हो सकते हैं, या एक अर्थ मुख्य और दूसरा गौण । व्यतिरेक
व्यतिरेक अलङ्कार के सामान्य स्वरूप के सम्बन्ध में कुन्तक की धारणा भामह आदि आचार्यों की धारणा से अभिन्न है; किन्तु कुन्तक ने उसके भेदों की कल्पना कुछ स्वतन्त्र रूप से की है। उन भेदों का स्रोत-सन्धान वाञ्छनीय है । कुन्तक के अनुसार व्यतिरेक के मुख्य दो भेद हैं-शाब्द तथा प्रतीयमान । उसका तीसरा भेद वहाँ माना गया है, जहाँ वस्तु के लोक में पाये जाने वाले स्वाभाविक स्वरूप को छोड़ कर उससे विलक्षण रूप से उसका वर्णन किया जाता है। प्रथम दो भेदों की कल्पना दण्डी की धारणा के आधार पर की गयी है। तीसरे प्रकार के व्यतिरेक की कल्पना किञ्चित् नवीन है। दो १. .. अत्र परस्परसाम्यसमन्वयो मनोहारित्व निबन्धममित्युपमैव।
-कुन्तक, वक्रोक्तिजीवित, पृ० ४६१ २. यत्र केनैव वाक्येन वर्णनीयार्थसिद्धये । ___ अर्थानां युगपदुक्तिः सा सहोक्तिः सतां मता ॥ वही, ३,३७
३. कैश्चिदेषा समासोक्तिः......। वही, पृ० ४६६ .. ४. हिन्दी वक्रोक्तिजीवित, पृ० ४६३ .
. ......
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१८० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
वस्तुओं में-उपमेय और उपमान में विशेष-प्रदर्शन की धारणा प्राचीन ही थी। एक ही वस्तु में प्रस्तुत के अपने ही यथार्थ एवं वर्ण्यमान रूपों मेंविशेष-निर्धारण की कल्पना कुन्तक ने व्यतिरेक के इस भेद में कर ली। कुन्तक वस्तु के स्वाभाविक रूप के वर्णन में स्वभावोक्ति में-अलङ्कारत्व नहीं मानते। इसलिए उन्होंने वस्तु के सहज रूप के स्थान पर उसके कल्पित स्वरूप के वर्णन में यह अलङ्कार-प्रकार स्वीकार किया है ।
आचार्य कुन्तक की अलङ्कार-धारणा के विवेचन से हमें निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं___ अलङ्कार-मीमांसा के क्षेत्र में आचार्य कुन्तक का महत्त्व पूर्व-प्रचलित अलङ्कारों की संख्या में काट-छाँट की दृष्टि से ही है, नवीन अलङ्कारों की उद्भावना की दृष्टि से नहीं । ___ कुन्तक ने किसी नवीन नाम वाले अलङ्कार की कल्पना नहीं की। प्राचीन अभिधान वाले कुछ अलङ्कारों के सम्बन्ध में पूर्ववर्ती आचार्यों की मान्यताओं का खण्डन कर उनके नवीन स्वरूप की कल्पना उन्होंने अवश्य की। कहींकहीं तो उनका खण्डन दुराग्रहपूर्ण हो गया है। उन स्थलों में तत्त्व-चिन्तन की अपेक्षा बौद्धिक चमत्कार-प्रदर्शन की प्रवृत्ति प्रधान हो गयी है।
कुन्तक के प्राचीन-नामधेय; किन्तु नवीन स्वरूप वाले अलङ्कारों के विधायक तत्त्व पूर्ववर्ती आचार्यों की लक्षण, अलङ्कार आदि की धारणा में पाये जा सकते हैं। ____ सहोक्ति आदि में उनका दृष्टिकोण नवीन है; पर वह किसी परवर्ती आचार्य को प्रभावित नहीं कर सका है ।
भोजराज
भोज ने 'सरस्वती-कण्ठाभरण' एवं 'शृङ्गार-प्रकाश' दोनों रचनाओं में काव्य के अलङ्कारों की विवेचना. की है। परम्परा से 'शृङ्गार-प्रकाश' 'सरस्वती-कण्ठाभरण' की अपेक्षा अधिक प्रौढ रचना स्वीकृत है, फिर भी अद्यावधि उसका अप्रकाशित रहना न केवल आश्चर्य की बात है, काव्यशास्त्र के पाठकों के लिए दुःख की भी बात है। भोज की अलङ्कार-धारणा के विवेचन में प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक को 'शृङ्गार-प्रकाश' के इतस्ततः प्रकाशित
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अलङ्कार-धारणा का विकास - [१८१ अंशों को ही प्रमाण मान कर संतोष करना पड़ेगा। प्रस्तुत विवेचन का प्रधान प्रमापक सरस्वती-कण्ठाभरण' को ही माना जा सकता है। __ भोज ने काव्य के अलङ्कारों के शब्दगत, अर्थगत एवं शब्दार्थ-उभयगत; ये तीन वर्ग स्वीकार किये हैं। उन्होंने शब्दालङ्कार के चौबीस प्रकारों का स्वरूप-निरूपण किया है। भारतीय काव्यशास्त्र में शब्दगत अलङ्कारों की इतनी संख्या कभी स्वीकृत नहीं हुई थी। हम देख चुके हैं कि भोज के पूर्व अनुप्रास, यमक, श्लेष आदि कुछ प्रसिद्ध शब्दालङ्कारों का स्वरूप ही विवेचनयोग्य माना गया था। उन्हीं के अनेक भेदोपभेदों का निरूपण हुआ था। भोज की कृतियों में शब्दालङ्कारों की यह संख्यास्फीति संख्या-विशेष के प्रति उनके विलक्षण मोह का परिणाम है। काव्य-गुणों के स्वरूप-निरूपण के क्रम में हमने चौबीस-संख्या के प्रति भोज की आसक्ति की ओर निर्देश किया है । किसी काव्य-तत्त्व की संख्या के सम्बन्ध में शास्त्रकार का पूर्वाग्रह तत्त्व-निरूपण में बाधक सिद्ध होता है। भोजराज तत्तत् काव्याङ्गों में संख्यागत एकरूपता की स्थापना के आग्रह के कारण शास्त्रकार की अपेक्षित तटस्थता का निर्वाह नहीं कर सके। उनके संख्या-विषयक पूर्वाग्रह का परिणाम शब्दालङ्कार-विवेचन में भी स्पष्ट है। शब्दगत अलङ्कारों की संख्या को चौबीस तक खींच कर ले जाने के लिए उन्होंने कुछ अलङ्कारेतर धर्मों की भी गणना अलङ्कार में कर ली है। उदाहरणार्थ, शब्दालङ्कार के रूप में परिगणित रीति, वृत्ति आदि का भारतीय काव्यशास्त्र में अलङ्कार से स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया गया है। भोज ने रीति का अर्थ मार्ग ही स्वीकार किया है और उसके भेदों का देशगत आधार पर पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा किया गया वैदर्भी, पाञ्चाली,
गौडीया आदि नामकरण भी उन्हें मान्य है। हम अपरत्र इस तथ्य पर विचार कर चुके हैं कि यद्यपि आरम्भ में देशगत आधार पर काव्य की रीतियों या मार्गों का नामकरण हुआ था; किन्तु पीछे चल कर तत्तद्देशगत रीतियों के गुणों के प्राधान्य के आधार पर विशेष गुणों को ही विशेष रीतियों का विधायक स्वीकार किया गया ।' भोज ने इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की। उन्होंने रीति को गुणात्मक स्वीकार किया है। इसी प्रकार वृत्ति भी 'नाटयशास्त्र' से ही अलङ्कार से पृथक् अपनी सत्ता बनाये आ रही थी। रीति, वृत्ति आदि को शब्दालङ्कार के क्षेत्र में घसीट कर ले जाने में चिन्तन के नवीन क्षितिज के
१. द्रष्टव्य, लेखक का 'काव्य-गुणों का शास्त्रीय विवेचन',
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१८२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण उद्घाटन का मौलिक प्रयास नहीं है; गुण, अलङ्कार आदि में संख्या. की एकरूपता के स्थापन का लोभ-मात्र है।
भोज ने अर्थालङ्कारों एवं उभयालङ्कारों के भी चौबीस-चौबीस प्रकारों की कल्पना की है। उनके अर्थालङ्कार हैं :-जाति या स्वभावोक्ति, विभावना, हेतु, अहेतु, सूक्ष्म, उत्तर, विरोध, सम्भव, अन्योन्य, परिवृत्ति, निदर्शन, भेद, समाहित, भ्रान्ति, वितर्क, मीलित, स्मृति, भाव, प्रत्यक्ष, अनुमान, आप्रवचन या आगम, उपमान, अर्थापत्ति तथा अभाव । उन्होंने उभयालङ्कार के रूप में जिन काव्यालङ्कारों का निरूपण किया है, वे हैं :-उपमा, रूपक, साम्य, संशयोक्ति, अपह नुति, समाध्युक्ति, समासोक्ति, उत्प्रेक्षा, अप्रस्तुतस्तुति, तुल्ययोगिता, उल्लेख, सहोक्ति समुच्चय, आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, विशेष, परिष्कृति या परिकर, दीपक, क्रम, पर्याय, अतिशय, श्लेष, भाविक एवं संसृष्टि । उक्त अलङ्कारों में से अधिकांश के छह-छह भेदों का विवेचन कर भी भोज ने संख्या की एकरूपता के प्रति अपने मोह का परिचय दिया है। प्रस्तुत सन्दर्भ में भोज के नवीन अलङ्कारों का स्रोत-सन्धान अभिनत है। सुविधा के लिए हम उनके शब्दगत, अर्थगत एव उभयगत अलङ्कारों का क्रमशः परीक्षण करेंगे।
शब्दालङ्कार
जाति
___शब्दगत जाति अलङ्कार का स्वरूप अर्थगत जाति या स्वभावोक्ति से सांथा भिन्न है। यह जाति भाषा-प्रयोग का औचित्य है। संकृत, प्राकृत आदि भाषाओं का पात्र आदि के अनुरूप शुद्ध या मित्र प्रयोग भोज के अनुसार जाति नामक शब्दालङ्कार है । यह ध्यातव्य है कि भाषा आदि के उचित प्रयोग की धारणा पूर्ववर्ती आचार्यों से ही ली गयी है, केवल अलङ्कर की कोटि में उसकी गणना भोज की नवीन कल्पना है । आनन्दवद्धन आदि आचार्य औचित्य की सविस्तर मीमांसा कर चुके थे; किन्तु किसी भी आचार्य ने उसे अलङ्कार नहीं माना था। हमने अपरत्र औचित्य को गुण मानने वाले सिद्धान्त का खण्डन किया है। औचित्य को गुण या अलङ्कार का एक भेद मान लेन
१. भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, २, ६-१७ २. द्रष्टव्य, लेखक का 'काव्य-गुणों का शास्त्रीय विवेचन'
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अलङ्कार-धारणा का विकास [१८३ काव्य में उसके यथार्थ महत्त्व का अवमूल्यन है। औचित्य वस्तुतः गुण, अलङ्कार आदि का प्रकार नहीं है, वह उन सबका विधायक है ।
गति
भोज ने विषय के अनुरूप गद्य-पद्य के माध्यम के प्रयोग को गति नामक अलङ्कार माना है। वर्ण्य विषय के अनुरूप द्र त, विलम्बित, मध्य आदि गति का प्रयोग इसमें वाञ्छनीय माना गया है।' स्पष्ट है कि उन्होंने छन्द-शास्त्र की गति-विषयक धारणा को एक अलङ्कार के रूप में परिगणित कर लिया है। भोज की गति-धारणा न तो नवीन है और न अलङ्कार के रूप में उसकी गणना उचित ही। रीति, वृत्ति ___ हम इस तथ्य पर विचार कर चुके हैं कि भोजराज ने रीति तथा वृत्ति नामक स्वतन्त्र काव्याङ्गों को अलङ्कार के रूप में परिगणित कर लिया है। रीति की धारणा दण्डी से तथा वृत्ति की धारणा भरत आदि आचार्यों से गृहीत है। इन्हें शब्दगत अलङ्कार मानना कथमपि समीचीन नहीं। छाया
दूसरों की उक्ति की अनुकृति को भोज ने छाया अलङ्कार कहा है। उक्ति के अनुकरण में शब्दगत अलङ्कारत्व की स्वीकृति युक्ति-सङ्गत नहीं। कुछ आचार्यों ने लोकोक्ति आदि को अलङ्कार माना है, जिसके औचित्य पर हमने अन्यत्र विचार किया है। 'सरस्वती-कण्ठाभरण' के टीकाकार रत्नेश्वर ने यह मन्तव्य व्यक्त किया है कि अन्यच्छायायोनिज काव्य में भी कुछ लोग छाया अलङ्कार का सद्भाव मानते हैं। राजशेखर ने समग्र काव्यकृतियों को दो वर्गों में विभाजित किया है। वे हैं-अयोनि काव्य-वर्ग तथा अन्यच्छायायोनि काव्य-वर्ग । अन्य काव्य की छाया पर निर्मित कवि-कर्ममात्र को शब्दालङ्कार का एक भेद मान लेने में क्या युक्ति होगी?
१. भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, २, ३०-३८ २. अन्योक्तीनामनुकृतिश्छाया सापीह षड्विधा।
-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, २,७५ ३. अत्र केचिदन्यच्छायायोनिजमपि काव्यं छायालङ्कारव्यवहारभूमिमाहः ।
-वही, रत्नेश्वरकृत टीका, पृ० १६३-६४
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२८४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
मुद्रा
प्रस्तुत शब्दालङ्कार में भोज ने वाक्य में साभिप्राय पद-सन्निवेश पर बल दिया है । ' मुद्रा के लक्षण-श्लोक पर टिप्पणी लिखते हुए रत्नेश्वर ने यह मान्यता व्यक्त की है कि इस मुद्रा को ही अन्य आचार्यों ने पदादिप्रकाश्य 'ध्वनि कहा है ।२ स्पष्टतः रत्नेश्वर का सङ्कत आनन्दवर्द्धन के ध्वन्यालोक तथा उनके अनुयायियों की रचनाओं की ओर है । आनन्दवद्धन ने पदप्रकाश्य, वाक्यप्रकाश्य, विभक्तिप्रकाश्य आदि ध्वनि-भेदों का विवेचन किया है। भोज ने भी पदमुद्रा, वाक्यमुद्रा, विभक्तिमुद्रा आदि मुद्रा-भेदों का स्वरूपनिरूपण किया है। रत्नेश्वर की उक्त व्याख्या से भोज की मान्यता की निस्सारता ही प्रमाणित होती है। 'ध्वन्यालोक' में ध्वनि की महत्ता की स्थापना हो जाने के बाद ध्वनि के अवयव-विशेष को शब्दालङ्कार के विशेषभेद के रूप में मान लेने की भ्रान्ति का कोई कारण नहीं दीख पड़ता। मुद्रा का एक भेद सम्वृत्ति-मुद्रा, जिसमें वक्ता कथन के मध्य में किसी विशेष अभिप्राय से थोड़ा विराम लेता है, भरत के अनुक्तसिद्धि लक्षण के समान है, जिसमें अनुक्त बात भी श्रोता समझ लेता है । स्पष्ट है कि ध्वनि, लक्षण आदि के पूर्व-प्रतिपादित स्वरूप को मिला कर भोज ने उसे मुद्रा व्यपदेश से मुद्रित कर दिया और उसे शब्दगत अलङ्कार की सीमा में समाविष्ट कर दिया। उक्ति
विधिमुख से या निषेधमुख से सुन्दर कथन या उक्ति को शब्दालङ्कार उक्ति कहा गया है। इसके विधि, नियम तथा परिसंख्या भेदों का स्वरूप मीमांसा-दर्शन के विधि, नियम एवं परिसंख्या-विषयक सिद्धान्त पर आधृत है। उक्ति के उक्त तीन भेदों की विशद मीमांसा मीमांसा-दर्शन में की गयी
१. साभिप्रायस्य वाक्ये यद्वचसो विनिवेशनम् । मुद्रां तां मुत्प्रदायित्वात् काव्यमुद्राविदो विदुः॥ ।
___-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, २, ८२ २. मुद्रव पदादिप्रकाश्यध्वनिव्यवहारभूमिरन्येषाम् ।
-वही, रत्नेश्वर की टीका, पृ० १६७ ३. विधिद्वारेण वा यत्र निषेधेनाथवा पुनः।
प्रतीयते विशिष्टोऽर्थः सोक्तिरत्राभिधीयते ॥-वही, २,६०
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १८५ है । भोज की उक्ति के निषेध या प्रतिषेध-भेद का स्वरूप भरत के प्रतिषेध लक्षण के समान है, जिसमें विज्ञ व्यक्तियों के द्वारा अनुचित कार्य से कर्त्ता का निवारण वाञ्छनीय माना जाता है । ' उक्ति को अलङ्कार न मान कर अलङ्कार्य ही माना जाना चाहिए । यदि विधि-निषेध-परक सभी सुन्दर उक्तियों को अलङ्कारों के बीच परिगणित कर लिया जाय तो अलङ्कार्य क्या बच जायगा ? भोज इस तथ्य से परिचित थे । इसलिए उन्होंने इस अलङ्कार को सामान्य काव्योक्ति से थोड़ा अलग करने का प्रयास किया है । उनके अनुसार विधि आदि उक्तियों से विशिष्ट अर्थ की प्रतीति में ही अलङ्कारत्व होगा । किन्तु, यह अर्थ करने पर भी उक्ति को शुद्ध शब्दालङ्कार तो नहीं ही माना जा सकता । विशिष्ट अर्थ ही उसका नियामक होगा । उक्तिविषयक मीमांसा - शास्त्र की मान्यता तथा भरत के प्रतिषेध-लक्षण को मिला कर भोज ने उक्ति का रूप निर्माण किया है । उक्ति उनकी स्वतन्त्र उद्भावना नहीं है और न उस उक्ति का अलङ्कारत्व ही असन्दिग्ध है ।
युक्ति
जहाँ शब्द या अर्थ में आपाततः अन्वय का अभाव जान पड़ता हो; किन्तु उसमें अनुपपत्ति का परिहार कर अन्वय की योजना कर दी जाय, वहाँ भोज के अनुसार युक्ति नामक शब्दालङ्कार होता है । २ पद की युक्ति के साथ ही भोज ने पदार्थगत युक्ति को भी शब्दालङ्कार में परिगणित कर लिया है । उनके अनुसार पद, पदार्थ, वाक्य, वाक्यार्थ, प्रकरण तथा सम्पूर्ण प्रबन्ध ही युक्ति का विषय हो सकता है । 3 प्रकरण तथा सम्पूर्ण प्रबन्ध की अन्वययोजना को शब्दालङ्कार का एक भेद कैसे माना जा सकता है ? यह स्पष्ट है कि भोज ने प्रकरण एवं प्रबन्ध में प्रातिभासिक अनन्विति में तात्त्विक अन्वय-योजना के जो उदाहरण 'सरस्वतीकण्ठाभरण' में दिये हैं, उनसे युक्ति
१. कार्येषु विपरीतेषु यदि कश्चित् प्रवर्त्तते ।
निवार्यते च कार्यज्ञः प्रतिषेधः प्रकीर्तितः ॥ - भरत, ना० शा ० १६, २३ २. अयुज्यमानस्य मिथः शब्दस्यार्थस्य वा पुनः । योजना क्रियते यासौ युक्तिरित्युच्यते बुधैः ॥
- भोज, सरस्वती कण्ठाभरण, २,६८
३. पदञ्चैव पदार्थश्च वाक्यं वाक्यार्थ एव च । विषयोऽस्याः प्रकरणं प्रबन्धश्चाभिधीयते ॥ - वही, २, ६
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१८६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण के इन दो भेदों का स्वरूप हेतूत्प्रेक्षा के समान सिद्ध होता है। पदार्थ-युक्ति में भी आपाततः पदार्थों में विरोध; किन्तु परिणामतः अविरोध दीख पड़ता है। अतः उसका स्वरूप भी प्राचीन आचार्यों के अर्थगत विरोध या विरोधाभास अलङ्कार से मिलता-जुलता है। इस अलङ्कार के स्वरूप को दृष्टि में रखते हुए डॉ० राघवन ने कहा है कि इसे स्वीकार करने पर 'सम्पूर्ण काव्य ही युक्ति अलङ्कार हो जायगा।'' यह मान्यता उचित ही जान पड़ती है। युक्ति को शब्दगत अलङ्कार के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। भणिति
कवि की सुन्दर उक्ति-भङ्गी को भणिति शब्दालङ्कार का लक्षण माना गया है। यहाँ भी भोज ने व्यापक काव्याङ्ग को शब्दालङ्कार की सीमा में घसीट लिया है। टीकाकार रत्नेश्वर के अनुसार यह ध्वनि का एक रूप है। प्रकाशवर्ष ने इसे वक्रता से अभिन्न माना है। उक्तिगत वक्रता को भारतीय साहित्य-शास्त्र के वक्रोक्तिप्रस्थान में जो महत्त्व दिया गया है उसे दृष्टि में रखते हुए वक्रतापरनामा भणिति को शब्दालङ्कार मानना समीचीन नहीं जान पड़ता। भणिति के छह भेदों में सम्भव भेद का स्वरूप उत्प्रेक्षा के समान तथा विशेष भेद का दण्डी के समाधि गुण के समान है। संवृत्ति तथा कल्पना-भेद का स्वभाव अतिशयोक्ति से मिलता-जुलता है। असम्भव और आश्चर्य भणिति भी अतिशयमूला ही है । स्पष्ट है कि भणिति में शब्दालङ्कारत्व नहीं है।
गुम्फना
शब्द और अर्थ की वाक्य में सम्यक् रचना को गुम्फना कहा गया है। अर्थ की रचना को तो शब्दालङ्कार नहीं ही माना जा सकता। शब्द-रचना का अलङ्क रत्व ही यहाँ परीक्षणीय है। पर्याय-कृता गुम्फना भी शुद्ध शब्दालङ्कार नहीं। इसमें समान अर्थ के वाचक शब्दों की गुम्फना होती है । उन शब्दों की अर्थगत एकता ही इस अलङ्कार-प्रकार का विधान करती है। क्रमकृता गुम्फना के उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह क्रम-हीन दोष का
१. डॉ० राघवन, Bhoja's Sr. Prakash, पृ० ३६१ ।। २. उक्तिप्रकारो भणिति ... ... ... ।-भोज, सरस्वती कण्ठाभरण, २,१११ ३. वाक्ये शब्दार्थयोः सम्यग्रचना गुम्फना स्मृता। वही, २, ११८
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १८७ अभाव-मात्र है, अलङ्कार नहीं। भोज ने इसमें प्रसिद्धि-क्रम से रचना पर बल दिया है। प्रसिद्ध क्रम का निर्वाह न हो तो क्रमहीन दोष होगा, क्रमगुम्फना में उस दोष का अभाव-मात्र रहता है । पद-गुम्फना को रत्नेश्वर ने पल्लव से अभिन्न माना है।' भोज ने इसके उदाहरण को स्पष्ट करते हुए कहा है कि इसमें अर्थ की पुष्टि में सहायता नहीं करने वाले पदों की भी छन्द की पूर्ति के लिए तथा अनुप्रास-विधान के लिए अर्थानुगुण रचना की गयी है; अतः यहाँ पद-गुम्फना है ।२ स्पष्ट है कि यह अपने आप में अलङ्कार नहीं है । यह अनुप्रास आदि अन्य अलङ्कार की योजना में केवल सहायक हो सकता है। छन्दपूत्ति के लिए अपुष्टार्थ-पदों का प्रयोग कवि की अशक्ति का ही परिचायक होता है। समर्थ कवि पादपूर्त्यर्थ भी किसी अपुष्टार्थ पद का प्रयोग नहीं करता । भोज को वाक्यगत गुम्फना की कल्पना की प्रेरणा वामन के ओज गुण के 'वाक्यार्थे पदाभिधा' से मिली होगी। गुम्फना में शब्दार्थ की सम्यक् रचना की जो धारणा व्यक्त की गयी है, उसे दृष्टि में रखते हुए इसे शब्दालङ्कार का एक भेद नहीं माना जा सकता। यदि शब्द और अर्थ का सुष्ठ विन्यास अलङ्कार है, तो उससे पृथक् अलङ्कार्य क्या बच रहेगा ?
शय्या
पदार्थ अर्थात् प्रस्तुताप्रस्तुत वस्तु की पारस्परिक घटना को शय्या कहा गया है। इसके इस स्वरूप की कल्पना कर शब्दालङ्कार की सीमा में इसे क्यों ढकेल दिया गया यह कहना कठिन है। इसकी गणना शब्दालङ्कार में नहीं करने से चौबीस की संख्या पूरी नहीं होती। सम्भव है, इसीलिए इसे शब्दालङ्कार कह दिया गया हो। पदार्थ की घटना को सामान्य रूप से भी अलङ्कार नहीं माना जा सकता, शब्दालङ्कार मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । पदार्थ-योजना का शब्द से क्या सम्बन्ध ? यदि यह कहा जाय कि शब्द के बिना अर्थ की घटना सम्भव नहीं, शब्द और अर्थ में अविभाज्य सम्बन्ध है, तब तो अलङ्कारों के शब्दगत, अर्थगत आदि वर्गों की मूल मान्यता ही व्यर्थ हो जायगी। इस आत्मघाती युक्ति से पदार्थ-घटना-रूप शय्या का
१. सरस्वतीकण्ठाभरण, रत्नेश्वर की टीका पृ० १८४ २. भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण २, १२३ की वृत्ति ३. शय्येत्याहुः पदार्थानां घटनायां परस्परम् । -वही, २, १२५
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१८८]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण .
शब्दालङ्कारत्व सिद्ध नहीं किया जा सकता । शय्या के प्रकीर्ण-घटना-भेद में भोजराज ने मुख्या, गौणी लक्षणा-जैसी शब्दशक्ति को समेट लिया है। अतः शय्या का स्वरूप अलङ्कार से कुछ अधिक व्यापक हो गया है । पठिति
पठिति शब्दालङ्कार के स्वरूप की कल्पना प्राचीन आचार्यों की वक्रोक्ति के आधार पर की गयी है। काकु और श्लेष से वक्ता के कथन का उसके अभिप्रेत अर्थ से भिन्न अर्थ निकालने की धारणा भोज की पठिति और प्राचीन आचार्यों की वक्रोक्ति में समान है। भोज ने वक्ता के अभीष्ट अर्थ से भिन्न अर्थबोध कराने के अभिनय एवं कान्ति, दो अन्य साधनों की भी कल्पना की है।' यमक, श्लेष, अनुप्रास, चित्र
यमक, श्लेष, अनुप्रास एवं चित्र अलङ्कार प्राचीन हैं। भोज ने इन अलङ्कारों के सम्बन्ध में प्राचीन आलङ्कारिकों की सामान्य धारणा को ही स्वीकार किया है । भेदोपभेदों की कल्पना में उन्होंने कुछ नवीनता लाने का प्रयास किया है। यमक, अनुप्रास एवं चित्र अलङ्कारों की धारणा के विकास का मूल भरत के यमक में ही है । हम यह देख चुके हैं कि यमक से अनुप्रास ने धीरे-धीरे अलग अस्तित्व ग्रहण किया। फिर भी, दोनों में इतनी समता रही कि कुछ आचार्यों ने दोनों के स्थान पर केवल यमक की सत्ता स्वीकार की तो कुछ ने केवल अनुप्रास की। इसी धारणा से चित्र के अनेक रूपों का विकास हुआ। रुद्रट चित्र का अनुप्रास आदि से स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार कर चुके थे । भोज ने भी तीनों का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया है। इनके सामान्य स्वरूप तथा अधिकांश भेदों के स्वरूप के सम्बन्ध में भोज की धारणा रुद्रट की धारणा से मिलती-जुलती है। रुद्रट ने यमक के अनेक भेदों की कल्पना की थी। उनसे पूर्व दण्डी भी यमक-प्रपञ्च की सविस्तर विवेचना कर चुके थे। भोज ने अपने पूर्ववर्ती सभी आचार्यों के यमक-भेद विवेचन के आधार पर उसके उनसठ भेदों का विवरण दिया है तथा उसके अनन्त भेदों की सम्भावना स्वीकार की है ।२ अनुप्रास की धारणा भी दण्डी, १. काकुस्वरपदच्छेदभेदाभिनयकान्तिभिः ।
पाठो योऽर्थविशेषाय पठितिः सेह षड्विधा । वही, २, १३३ २. अत्यन्तं बहवस्तेषां भेदाः सम्भेदयोनयः ।
-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, २,१५०
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १८९ रुद्रट आदि की एतद्विषयक धारणा के समान ही है । दण्डी ने श्रत्यनुप्रास को माधुर्य गुण का एक प्रधान भेद मान कर काव्य में उसे बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान दिया था। भोज ने उसी के आधार पर सामान्य रूप से अनुप्रास अलङ्कार की प्रशंसा बहुत बढ़ा-चढ़ा कर की है । ' भोज की वृत्त्यनुप्रास-धारणा कुछ नवीन है । इसमें समान वर्ग के वर्णों की आवृत्ति होती है । यह वर्णानुप्रास का ही एक विशेष रूप है । भोज ने इसके विभिन्न रूपों को विभिन्न प्रदेशों से सम्बद्ध किया है; किन्तु यह विवेचन प्रमाण- पुष्ट नहीं है । चित्र अलङ्कार के बहुविध भेदों की कल्पना का आधार रुद्रट की चित्र-मीमांसा है । भोज ने श्लेष के छह भेद ही स्वीकार किये हैं । रुद्रट के आठ श्लेष - भेदों में से वर्णगत एवं लिङ्गगत भेदों को भोज ने स्वीकार नहीं किया है । वे वर्णश्लेष का पदश्लेष में तथा लिङ्गश्लेष का प्रकृतिश्लेष में अन्तर्भाव मानते थे ।
वाकोवाक्य
उक्ति-प्रत्युक्ति को भोज ने वाकोवाक्य अलङ्कार माना है । इस प्रकार वार्तालाप ही अलङ्कार मान लिया गया । वार्त्तालाप के प्रकारों के आधार पर इस अलङ्कार के छह भेद कल्पित हुए — ऋजूक्ति, वक्रोक्ति, वैयात्योक्ति, गूढोक्ति, प्रश्नोत्तरोक्ति तथा चित्रोति । कहने की आवश्यकता नहीं कि वक्रोक्ति की धारणा प्राचीन है और उसे भोज के पहले ही अलङ्कार में स्वतन्त्र अस्तित्व मिल चुका था । कुन्तक ने उसे व्यापक अर्थ में अलङ्कार मान कर, काव्य में आत्मा का महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया था । भोज ने उसे शब्दालङ्कार के एक विशेष भेद के रूप में सीमित कर दिया । उन्होंने उसके निर्व्यूढ और अनिव्यूढ; इन दो उपभेदों की कल्पना को है । ऋजूक्ति के ग्राम्या तथा उपनागरिका भेद प्राचीन आचार्यों की वृत्ति धारणा के आधार पर कल्पित हैं । स्पष्ट है कि भोज ने प्राचीन आलङ्कारिकों को काव्य-तत्त्वविषयक धारणा को ही मिला-जुला कर इस नवीन अभिधान वाले अलङ्कार की कल्पना कर ला है । वतुतः उक्ति-प्रत्युक्ति अपने आप में अलङ्कार नहीं, उसमें दूसरे अलङ्कार भले रह सकते हैं । उक्ति-प्रत्युक्ति की विशेष भङ्गिमा
१. यथा ज्योत्स्ना चन्द्रमसं यथा लावण्यमङ्गनाम् ।
अनुप्रासस्तथा का यमलङ्कत्त 'मयं क्षमः ॥ - वही, २,२४६
२. उक्तिप्रत्युक्तिमद्वाक्यं वाकोवाक्यं बिदुर्बुधाः । - वही, २,१४३
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१६० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण में अलङ्कारत्व माना जा सकता है; किन्तु ग्राम्योक्ति आदि स्वतः अलङ्कार कैसे मानी जा सकती है ? प्रहेलिका
प्रहेलिका की धारणा भी प्राचीन है। बौद्धिक चमत्कार दिखाने वाले इस अलङ्कार का उल्लेख भामह ने रामशर्मा नामक आचार्य का साक्ष्य देते हुए यमक-विवेचन के प्रसङ्ग में किया है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में इसे 'यमकव्यपदेशिनी' कहा है।' भोज के पूर्ववर्ती आचार्य दण्डी ने ही क्रीडागोष्ठी के हास्य-विनोद में प्रयुक्त होने वाले इस अलङ्कार के सोलह भेदों का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार कर लिया था। भोज ने भी यमक आदि से पृथक् इसकी गणना की है। गूढ, प्रश्नोत्तर
प्राचीन आचार्यों की प्रहेलिका के स्वरूप के आधार पर ही इन दो स्वतन्त्र अलङ्कारों की कल्पना भोजराज ने की है। विदग्ध-गोष्ठी में अपनी बौद्धिक कला के प्रदर्शन से चमत्कार उत्पन्न करने की जो धारणा प्रहेलिका के सम्बन्ध में व्यक्त की जाती रही है, वह इन दोनों अलङ्कारों के मूल में भी है। गूढ 'उक्ति एवं प्रश्नोत्तर की उक्ति का वाकोवाक्य अलङ्कार के भेद के रूप में भी भोज ने विवेचन किया है। अतः गूढ एवं प्रश्नोत्तर पर पृथक् विचार आवश्यक भी नहीं था। प्रहेलिका के बौद्धिक-चमत्कार के अनेक भेदों की कल्पना की जा सकती है । रुद्रट ने कारकगूढ तथा क्रियागूढ प्रहेलिका-भेदों का उल्लेख किया था। उन्होंने उसके प्रश्नोत्तर भेद की भी कल्पना की थी। भोज के गूढ और प्रश्नोत्तर का स्वरूप रुद्रट के उक्त प्रहेलिका-भेदों के स्वरूप से भिन्न नहीं। इन्हें प्रहेलिकान्तर्गत मानना ही अधिक समीचीन जान पड़ता है। अध्य, श्रव्य, प्रेक्ष्य, अभिनेय
अध्येय, श्रव्य आदि को काव्य का अलङ्कार मानना युक्तिसङ्गत नहीं जान पड़ता। ये सामान्यतः काव्य के गुण हो सकते हैं, अलङ्कार नहीं। गुण भी पारिभाषिक अर्थ में नहीं, साधारण अर्थ में। अभिप्राय यह कि
१. भामह-काव्यालङ्कार, २,१६ २. रुद्रट-का यालङ्कार, ५,२४
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १६१
कविता गद्य-काव्य आदि को पठनीय और श्रव्य होना चाहिए। उसमें ऐसी सरलता और सरसता हो कि वह पढ़ने या सुनने में अरुचिकारक नहीं हो। रूपक में अभिनेयता और दर्शनीयता रहे। भोज ने इन्हें अलङ्कार कैसे मान लिया, इसका उत्तर उनकी काव्य-तत्त्व-समीक्षा की पद्धति पर विचार करने से मिल जाता है। गुण-विवेचन के सन्दर्भ में हमने इस बात की ओर सङ्कत किया है कि सम्पूर्ण प्रबन्धगत-गुण की कल्पना का उनमें आग्रह था।' इसी आग्रह के कारण उन्होंने उक्त प्रबन्ध-गत अलङ्कारों की भी कल्पना कर ली है।
अर्थालङ्कार जाति ___भोज की जाति प्राचीन आचार्यों की स्वभावोक्ति या जाति से अभिन्न है। जाति एवं स्व मावोक्ति एक ही अङ्कार की दो आख्याएं हैं। भोज ने वस्तु-स्वभाव के विविध सम्भावित रूपों के वर्णन के आधार पर प्रस्तुत अलङ्कार के अनेक भेदों की कल्पना कर ली है। हम देख चुके हैं कि वस्तु के नित्य तथा आगमापायी धर्मों के आधार पर स्वभाव-कथन के मुख्य दो भेदों की कल्पना पहले भी की जा चुकी थी। भोज ने भी जाति के सार्वकालिक एवं जायमान भेदों को स्वीकार किया है। मुग्धा बाला, नीच पात्र, पशु-पक्षी तथा बच्चे आदि के सहज रूप का वर्णन सार्वकालिक का तथा वेशभूषा, व्यापार आदि का वर्णन जायमान का उपभेद माना जायगा। कुन्तक के द्वारा जाति या स्वभावोक्ति के अलङ्कारत्व का खण्डन किये जाने पर भी उत्तरवर्ती आचार्यों ने उसकी गणना अलङ्कार के रूप में ही की है। हमने जाति-विषयक इन परिपन्थी मान्यताओं के औचित्य की परीक्षा उचित सन्दर्भ में की है। प्रस्तुत पसङ्ग में यह निर्देश-मात्र अभिप्र त है कि भोज की जाति-धारणा प्राचीन आलङ्कारिकों की तद्विषयक धारणा से भिन्न नहीं। विभावना
विभावना अलङ्कार के लक्षण-निरूपण-क्रम में 'परस्वती कण्ठाभरण' में आचार्य दण्डी के 'काव्यादर्श' से विभावना-लक्षण-श्लोक अविकल रूप में उद्धृत कर दिया गया है ।२ भोज के द्वारा कल्पित उसके शुद्धा, चित्रा एवं
१. द्रष्टव्य-लेखक का 'काव्य-गुणों का शास्त्रीय विवेचन । २. भोज-सरस्वतीकण्ठाभरण, ३, २१ तुलनीय, दण्डी, काव्यादर्श २, १९९
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१९२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
विचित्रा उपभेद के नाम मात्र नवीन हैं। उसके स्वरूप की कल्पना का मूल rust के विविध विभावना - भेदों में ही है ।
हेतु
समान ही है । यह देखा
भोज की हेतु धारणा भी दण्डी की धारणा के जा चुका है कि दण्डी के पूर्ववर्ती भामह के पूर्व भी हेतु अलङ्कार की धारणा किसी-न-किसी रूप में प्रचलित रही होगी । इसीलिए भामह ने उसके अलङ्कारत्व की मान्यता का खण्डन किया था । आचार्य दण्डी ने न केवल उसका अलङ्कार के रूप में अस्तित्व स्वीकार किया, वरन् उसे वाणी के उत्तम अलङ्कारों में स्थान दिया । भोज ने दण्डी के ही हेतु स्वरूप को स्वीकार किया है; किन्तु उसे उत्तम आभूषण मानना उनका अभिमत नहीं जान पड़ता । क्रिया के हेतु एवं कारकादि के भेदों के आधार पर भोज ने इस अलङ्कार के अनेक भेदों को कल्पना कर ली है । '
श्रहेतु
अहेतु अलङ्कार का स्वरूप रुद्रट के अतिशयमूलक अहेतु से मिलता-जुलता है । भोज ने प्रस्तुत अलङ्कार में ही रुद्रट के वास्तव वगंगत कारणमाला अलङ्कार का अन्तर्भाव मान लिया है । इस मान्यता का कोई सबल आधार नहीं जान पड़ता ।
सूक्ष्म
हेतु की तरह सूक्ष्म के भी अलङ्कारत्व की स्वीकृति में भोज पर दण्डी की मान्यता का प्रभाव है । इस अलङ्कार के स्वरूप निर्धारण में भी भोज दण्डी से पूर्णतः प्रभावित हैं । 3
१. भोज —- सरस्वतीकण्ठाभरण, ३, ३० २. यस्तु कारणमालेति हेतुसन्तान उच्यते । पृथक् पृथगसामर्थ्यात् सोऽप्यहेतोर्न भिद्यते ॥
- भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ३, ६३ ३. तुलनीय - भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ३, ६७ तथा दण्डी, काव्यादर्श,
२, २६०
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १६३
उत्तर
भोज के उत्तर अलङ्कार का स्वरूप आचार्य रुद्रट के वास्तव-वर्गगत 'सार' अलङ्कार के स्वरूप से मिलता-जुलता है। पदार्थ के सार-कथन में रुद्रट ने सार नामक वास्तव अलङ्कार का सद्भाव माना था। भोज ने उसे ही सरस्वतीकण्ठाभरण में उत्तर संज्ञा से अभिहित किया है।' यह उत्तर नाम भी रुद्रट के 'काव्यालङ्कार' से ही गृहीत है। रुद्रट ने सार और उत्तर के पृथक्-पृथक् स्वरूपों का विवेचन किया था। भोज ने दोनों के स्थान पर एक ही अलङ्कार की सत्ता स्वीकार की और उसे ही 'सरस्वतीकण्ठा भरण'' में उत्तर तथा 'शृङ्गार-प्रकाश' में सार संज्ञा से अभिहित किया । विरोध
भामह, दण्डी आदि प्राचीन आचार्यों के विरोध, असङ्गति, प्रत्यनीक, अधिक एवं विषम अलङ्कारों के स्थान पर भोज ने इस एक अलङ्कार का ही उल्लेख किया है। अन्य अलङ्कार इसी में अन्तभुक्त मान लिये गये हैं । पदार्थों की पारस्परिक असङ्गति को इसका लक्षण माना गया है। प्राचीनों ने भी. विषम, विरोध, असङ्गति आदि में असङ्गत पदार्थों की घटना पर बल दिया था। भोज ने विरोध के अङ्ग के रूप में असङ्गति, प्रत्यनीक आदि का उल्लेख किया है ।
सम्भव
भोजराज ने सम्भव नामक नवीन अलङ्कार की कल्पना की है। इसके लक्षण में उन्होंने यह मन्तव्य प्रकट किया है कि जहाँ प्रचुर कारण को देख कर 'ऐसा हो सकता है', यह ज्ञान हो, वहाँ सम्भव अलङ्कार होता है।४ डॉ० राघवन ने इसे प्राचीन आचार्यों की उत्प्रेक्षा के समान मान लिया है।५ इसका कारण सम्भवतः ‘सम्भावना' शब्द है। उत्प्रेक्षा में भी एक वस्तु में १. पदार्थानां तु यः सारस्तदुत्तरमिहोच्यते।
-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ३, ७४ २. द्रष्टव्य-डॉ० राघवन, Bhoja's 'Sr. Prakash, पृ० ३८७ ३. विरोधस्तु पदार्थानां परस्परमसङ्गतिः। असंगतिः प्रत्यनीकमधिकं विषमञ्च सः॥
-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ३७६ ४. प्रभूतकारणालोकात् स्यादेवमिति सम्भवः।-वही, ३, ८६ ५. डॉ० राघवन, Bhojas Sr. Prakash, पृ० ३८७
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१९४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण तत्सदृश अन्य वस्तु की अथवा किसी कार्य के कारण में तद्भिन्न कारण की सम्भावना होती है। सम्भव में सम्भावना का तत्त्व है अवश्य, किन्तु उसका स्वरूप उत्प्रेक्षा का विधान करने वाली 'सम्भावना' से किञ्चित् भिन्न है। भोज ने उस उत्प्रेक्षा का स्वतन्त्र ही अस्तित्व माना है। सम्भव में कारण को देख कर वस्तु की विधि-निषेध आदि के रूप में सम्भावना होती है। पीछे चल कर इसे ही सम्भावना संज्ञा से अभिहित किया गया है । अन्योन्य
अन्योन्य अलङ्कार के सामान्य स्वरूप की कल्पना में भोज पर रुद्रट की अन्योन्य-धारणा का प्रभूत प्रभाव है। परिवृत्ति ___भामह. दण्डी आदि प्राचीन आचार्यों की परिवृत्ति-विषयक सामान्य मान्यता को ही भोज ने स्वीकार किया है । निदर्शन
भोज ने पूर्व-प्रचलित दो अलङ्कारों-निदर्शन या निदर्शना तथा दृष्टान्त-के स्थान पर एक ही अलङ्कार की सत्ता स्वीकार की है। वे निदर्शन और दृष्टान्त की पृथक्-पृथक् सत्ता स्वीकार नहीं करते। इस एक का ही एकत्र ( सरस्वतीकण्ठाभरण में ) निदर्शन तथा अपरत्र (शृङ्गार प्रकाश में) दृष्टान्त अभिधान है। इसके स्वरूप की कल्पना में भोज ने भामह, दण्डी आदि प्राचीन आचार्यों की मान्यता का ही अनुगमन किया है।
भेद
प्राचीन आचार्यों के व्यतिरेक अलङ्कार को भोज ने भेद की अतिरिक्त आख्या दी है। उन्होंने स्पष्ट रूप से इसे स्वीकार किया है कि इसे व्यतिरेक भी कहा जाता है।' भोज का भेद-लक्षण दण्डी के व्यतिरेक लक्षण की ही अवतारणा है।
१. भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ३, ११८ २. तुलनीय-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ३, ११८ तथा दण्डी, काव्यादर्श
२, १८०
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अलङ्कार-धारणा का विकास
१६५.
१६५ समाहित
समाहित अलङ्कार की धारणा भामह, दण्डी आदि प्राचीन आचार्यों की धारणा से अभिन्न है।
भ्रान्ति
भोज की भ्रान्ति का स्वरूप रुद्रट की भ्रान्ति से मिलता-जुलता है। भोज ने इस अलङ्कार के चार प्रकारों की कल्पना की है। वे हैं:-भ्रान्तिमाला, 'भ्रान्तिमान, भ्रान्त्यतिशय, भ्रान्त्यनध्यवसाय । भ्रान्ति की माला या परम्परा तथा उसकी अतिशयता के आधार पर भ्रान्तिमाला एवं भ्रान्त्यतिशय भेदों की कल्पना की गयी है। माला एवं अतिशय की धारणा नवीन नहीं है। भ्रान्तिमूलक ज्ञान के अन्य भेदों की कल्पना भी न्याय-शास्त्र आदि में हो चुकी थी। वस्तुतः भ्रान्ति या भ्रान्तिमान की अलङ्कार रूप में काव्यशास्त्र में अवतारणा दर्शन के क्षेत्र से ही हुई है।
वितर्क ___ डॉ० राघवन की मान्यता है कि प्राचीन आचार्यों के सन्देह अलङ्कार को भोजराज ने वितर्क नाम से अभिहित किया है। इसका स्वरूप प्राचीनों के सन्देह के स्वरूप से अभिन्न है ।' भोज ने ऊहा एवं वितर्क को पर्यायवाची स्वीकार किया है। जहाँ किसी वस्तु के वास्तविक स्वरूप के निर्णय में मन में वितर्क उठे वहाँ इस अलङ्कार की सत्ता मानी गयी है। इसका स्वरूप अंशतः सन्देह से अवश्य मिलता है, किन्तु इसे सन्देह से अपृथक् सिद्ध नहीं किया जा सकता । रत्नेश्वर ने वितर्क का सन्देह से यह भेद स्पष्ट किया है कि सन्देह में एक वस्तु में दो या दो से अधिक वस्तुओं का समकालिक ज्ञान रहता है, अर्थात् एक में अनेक वस्तुओं का विकल्प मन में उठता रहता है; किन्तु वितर्क में एक स्.मय एक कोटिक ज्ञान ही रहता है। दूसरे शब्दों में, सन्देह अनेक-कोटिक जिज्ञासा उत्पन्न करता है पर वितर्क एक-कोटिक । प्राचीनों के
१. डॉ० राघवन, Bhoja's Sr. Prakash, पृ० ३८७ २. सन्देहो नानाकोटिकस्तथाभूतामेव जिज्ञासां प्रसूते तर्कस्तु तदनन्तरभावी नियत कोटिकः तथाभूतामिति ।-सरस्वतीकण्ठाभरण, रत्नेश्वर की
टीका, पृ० ३६५
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१६६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
सन्देह को वितर्क कहना भोज को अभीष्ट नहीं था, इसका एक सबल प्रमाण यह है कि 'सरस्वती - कण्ठाभरण' में संशयोक्ति नामक अलङ्कार का वितर्क से स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया गया है । भोज का संशयोक्ति अलङ्कार, जिसे उन्होंने उभयालङ्कार-वर्ग में परिगणित किया है, प्राचीन आचार्यों के सन्देह से अभिन्न है । हम यह देख चुके हैं कि 'सन्देह' के लिए 'ससन्देह', 'संशय', 'ससंशय ' आदि पर्यायों का प्रयोग होता रहा है । भोज ने उसके लिए संशयोक्ति शब्द का प्रयोग किया है । यदि वे वितर्क को सन्देह से अभिन्न मानते तो संशयोक्ति के स्वरूप - निरूपण की आवश्यकता ही नहीं रह जाती । स्पष्ट है कि सन्देह से किञ्चित् साम्य होने पर भी वितर्क का स्वतन्त्र अस्तित्व है । यह प्रमाण का सहकारी है । इससे तत्त्व-ज्ञान में सहायता मिलती है । वितर्क या पर्यालोचन से हम निर्णय पर पहुँचते हैं; किन्तु सन्देह से निर्णय में कोई सहायता नहीं मिलती । इसमें द्विकोटिक ज्ञान में से अयथार्थ ज्ञान के निरस्त हो जाने पर तत्त्व-ज्ञान शेष रह जाता है । वितर्क भी भ्रम, सन्देह आदि की तरह ज्ञान विषयक दार्शनिक चिन्तन का ही अवदान है । ऊहा या वितर्क के स्वरूप पर दर्शन के क्षेत्र में गम्भीर विचार हुआ है । साहित्य में उसकी अभिव्यक्ति को भोज ने अलङ्कार के रूप में स्वीकार किया है ।
मीलित
भोज के मीलित अलङ्कार का सामान्य स्वरूप रुद्रट के मीलित से मिलता-जुलता है । भोज ने मीलित में ही पिहित, अपिहित, तद्गुण तथा अतद्गुण अलङ्कारों का अन्तर्भाव माना है । यह देखा जा चुका है कि रुद्रट ने पिहित एवं तद्गुण अलङ्कारों का वास्तव वर्गगत मीलित से स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया था । वे इन्हें अतिशयमूलक अलङ्कार मानते थे । इन दो अलङ्कारों के अभावात्मक स्वरूप की कल्पना से अपिहित एवं अतद्गुण अलङ्कारों का आविर्भाव हुआ । भोज ने इनका स्वतन्त्र अस्तित्व अस्वीकार कर इन्हें मीलित में ही समाविष्ट कर दिया ।
स्मृति
स्मृति अलङ्कार की स्वरूप - कल्पना में भोज रुद्रट से सहमत हैं ।
१. वस्त्वन्तर तिरस्कारो वस्तुना मीलित स्मृतम् । पिहितापिहिते चैव तद्गुणातद्गुणौ च यत् ।।
- भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ३, १६२
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अलङ्कार-धारणा का विकास ..
[१६७
भाव
भोज के भाव का स्वरूप रुद्रट के वास्तव वर्ग-गत भाव अलङ्कार के समान है। प्रत्यक्ष, अनुमान, प्राप्तवचन या आगम, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव
प्रत्यक्ष आदि छह प्रमाणों की अलङ्कार के रूप में मान्यता भोज की नवीनता है; किन्तु इनके स्वरूप की कल्पना में उनकी कोई मौलिकता नहीं। यह सर्वविदित है कि भारतीय दर्शन की विभिन्न शाखाओं में प्रमाण के तत्तदङ्गों का सूक्ष्म विवेचन हुआ है। प्रमाणों की संख्या के विषय में दार्शनिकों का मतभेद भी विख्यात है । जैमिनीय सूत्र की प्रमाण-मीमांसा का भोज की अलङ्कार-धारणा पर पुष्कल प्रभाव पड़ा है। दर्शन के ये छह प्रमाण भोज के द्वारा काव्यालङ्कार के रूप में स्वीकृत हैं। उन्होंने उपमान के उदाहरणों में मीमांसक, नैयायिक आदि के मतों का स्पष्ट उल्लेख भी किया है।' उपमान में अभिनय, आलेख्य, मुद्रा एवं प्रतिबिम्ब नामक नवीन अलङ्कारों का अन्तर्भावन भोज ने माना है। सम्भव है, भोज के समय इन अलङ्कारों का स्वतन्त्र अस्तित्व कुछ आचार्यों ने स्वीकार किया हो। अभाव अलङ्कार में न्यायशास्त्र में विवेचित अभाव के सभी अङ्गों का उल्लेख किया गया है।
उभयालङ्कार
उभयालङ्कार-वर्ग में भोज ने जिन चौबीस अलङ्कारों का उल्लेख कर उनके स्वरूप का विवेचन किया है, उनमें से दो-तीन को छोड़ शेष सभी अलङ्कारों का स्वरूप प्राचीन है। उपमा, रूपक आदि के सम्बन्ध में पूर्ववर्ती आचार्यों की सामान्य धारणा को स्वीकार कर स्नकी विस्तृत मीमांसा की गयी है। तत्तदालङ्कारिकों की धारणाओं को मिला कर उन अलङ्कारों के अनेक भेदोपभेदों की भी कल्पना कर ली गयी है। भेदीकरण की प्रवृत्ति भोज की अपनी विशेषता थी। अतः उन भेदोपभेदों में कल्पना-विलास ही पाया जा
१. .."तदिदमनुभूत विषयं नाम उपमानं मीमांसका वर्णयन्ति । xxxx त दिदमननुभूतविषयं उपमानं नैयायिका: समुन्नयन्ति।
-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, वृत्ति पृ० ४१४-१५ (क) २. तथाभूतार्थविज्ञानजनकत्वेन हेतुना।
नास्मादभिनयालेस्यमुद्रा बिग्बादयः पृथक् ।।-वही, ३, ६१०
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१६८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण सकता है । अलङ्कार के किसी विलक्षण स्वरूप की उद्भावना उन भेदों के विवेचन-क्रम में नहीं हो पायी है । इन उभयालङ्कारों की संख्या को चौबीस तक ही सीमित रखने के लिए भोजराज ने किसी विशेष अलङ्कार में पूर्वाचार्यों के द्वारा स्वीकृत अन्य कई अलङ्कारों का अन्त भाव मान लिया है। इस प्रकार रुद्रट का मत उत्प्रेक्षा में अन्तभुक्त मान लिया गया। उनके उभयन्यास, प्रत्यतीकन्यास तथा प्रतीकन्यास अर्थान्तरन्यास में समाविष्ट कर दिये गये। परिकर में एकावली का अन्तर्भावन मान लिया गया। संसृष्टि और सङ्कर के स्थान पर केवल संसृष्टि का अस्तित्व स्वीकृत हुआ। उसीमें सङ्कर का अन्तर्भाव माना गया। हम देख चुके हैं कि सङ्कर और संसृष्टि में एकाधिक अलङ्कारों के एक अधिकरण में सन्निवेश की दो प्रक्रियाओं पर विचार किया गया है। वे एक ही अलङ्कार-विधान के दो रूप हैं । अतः, भोज के पूर्व भी कुछ आचार्यों ने केवल संसृष्टि के स्वरूप का विवेचन किया था, कुछ ने केवल सङ्कर के स्वरूप का और कुछ ने दोनों के स्वरूप का। भोज ने संसृष्टि में ही दोनों रूपों पर विचार किया है। भोज ने समाध्युक्ति नामक एक नवीन अलङ्कार का उल्लेख किया है; किन्तु इसका नाम-रूप दण्डी के समाधि गुण से अभिन्न है । दण्डी ने अन्य वस्तु के धर्म का अन्यत्र आरोप होने में समाधि गुण माना था। भोज ने समाधि-उक्ति का यही लक्षण स्वीकार किया है। भोज के मतानुसार मीलित अलङ्कार भी समाध्युक्ति का ही एक भेद है। भोज ने भाविक अलङ्कार के स्वरूप की कल्पना स्वतन्त्र रूप से की है।
भोज के मतानुसार अपने आशय को प्रकट करने, अप्रकृत अर्थ की उत्थापना करने तथा अप्रकृत के अपदेश या छल में भाविक अलङ्कार होता है। इस प्रकार उन्होंने भाविक के उक्त तीन प्रकार स्वीकार किये हैं। उद्भद या प्रकटीकरण को भोज ने भाविक से अभिन्न माना है । अतः उद्भद की तीन प्रक्रियाए–व्यक्त, अव्यक्त तथा व्यक्ताव्यक्त-भी भाविक के तीन भेदों के रूप में स्वीकृत हुई हैं। इसमें सामान्यतः एक कथन से आत्म-भाव की, अप्रकृत अर्थ आदि की प्रतीति करायी जाती है। दूसरे शब्दों में इसमें कथित
१. स्वाभिप्रायस्य कथनं यदि वाप्यन्यभावना ।
अन्यापदेशो वा यस्तु त्रिविधं भाविक बिदुः ॥ मते चास्माकमुद्भदो विद्यते नैव भाविकात् । व्यक्ताव्यक्तोभयाख्याभिस्त्रिविधः सोऽपि कथ्यते ।।
-भोज, सर०कण्ठा० ४,३०८--३०९
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १६६ वाक्य से अकथित अर्थ भी प्रकट हो जाता है । भरत ने मनोरथ लक्षण में किसी दूसरे व्याज से आत्म-भाव के प्रकट करने की धारणा व्यक्त की थी । " भोज के भाविक का स्वरूप भरत के मनोरथ लक्षण से मिलता-जुलता है । भरत के उक्त लक्षण ने ही अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार को भी जन्म दिया है । भोज का यह भाविक प्राचीनों की अप्रस्तुतप्रशंसा के भी समीप पहुँच जाता है | अन्यापदेश आदि भाविक-भेद अन्योक्ति या अप्रस्तुतप्रशंसा से अभिन्न है । भोज ने इससे अप्रस्तुतस्तुति या अप्रस्तुतप्रशंसा का स्वरूप अलग करने के लिए स्तुति के अपात्र की स्तुति को अप्रस्तुतप्रशंसा का लक्षण मान लिया है । भामह के अप्रस्तुतप्रशंसा-लक्षण में 'अधिकार से अपेत वस्तु की स्तुति' का अनधिकारी की स्तुति अर्थ समझ कर अप्रस्तुतप्रशंसा की उक्त परिभाषा कल्पित हुई और भरत के मनोरथ लक्षण आदि से तत्त्व ग्रहण कर प्राचीन आचार्यों की रचनाओं में अलङ्कार के रूप में अवतरित होने वाली अप्रस्तुतप्रशंसा के स्वभाव से मिलतेजुलते स्वभाव की कल्पना भाविक के लक्षण-निरूपण के क्रम में कर ली गयी । स्पष्ट है कि भोज के भाविक का नाम प्राचीन होने पर भी उसका स्वरूप प्राचीन भाविक से भिन्न है । फिर भी, उसकी प्रकृति को भोज की सर्वथा नूतन उद्भावना नहीं माना जा सकता । प्राचीन आचार्यों की लक्षण, अलङ्कार आदि की धारणा के आधार पर ही इस भाविक-लक्षण की कल्पना की गयी है ।
भोज की अलङ्कार-धारणा के इस विवेचन से हम निम्नलिखित निष्कर्ष पर पहुँचते हैं
शब्दालङ्कारों की संख्या चीबीस तक बढ़ा देने के उद्देश्य से भोज ने पूर्वाचार्यों के द्वारा प्रतिपादित अनेक अलङ्कारेतर काव्य-तत्त्वों की भी गणना अलङ्कार के बीच कर ली है । रीति, वृत्ति, गति आदि इसके निदर्शन हैं ।
प्राचीन आचार्यों की ही कुछ मान्यताओं को उन्होंने नवीन अभिधान देकर शब्दगत अलङ्कार के रूप में स्वीकार कर लिया है । इस प्रकार भाषौचित्य की धारणा जाति नाम धारण कर अलङ्कार के क्षेत्र में प्रविष्ट
गयी । ध्वनि के कुछ अङ्ग मुद्रा व्यपदेश से अलङ्कार की सीमा में समाविष्ट हो गये । मीमांसा - दर्शन में प्रतिपादित विधि, नियम, परिसंख्या आदि उक्तिः
१. हृदयस्थस्य भावस्य सुश्लिष्टार्थप्रदर्शनम् ।
अन्यापदेशकथनैर्मनोरथ इति स्मृतः ॥ - भरत, ना०शा०, १६,२०
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२०० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण की संज्ञा पाकर शब्दालङ्कार के रूप में स्वीकृत हुई। अध्येयत्व, श्रव्यत्व, प्रेक्ष्यत्व, आदि काव्य और नाटक के सामान्य गुण भी अध्येय आदि आख्याओं से अलङ्कार की श्रेणी में परिगणित हुए।
भणिति, शय्या, गुम्फना, वाकोवाक्य आदि को शब्दालङ्कार मानना समीचीन नहीं। उनमें लक्षण, ध्वनि, वक्रता आदि काव्य के महत्त्वपूर्ण तत्त्व समाविष्ट हैं।
यमक, अनुप्रास, श्लेष, चित्र, प्रहेलिका आदि की धारणा में कोई नवीनता नहीं। उनके सामान्य स्वरूप की धारणा के सम्बन्ध में भोज अपने पूर्ववर्ती आचार्यों से सहमत हैं।
अनेक शब्दालङ्कारां के छह-छह उपभेद करने में विशेष संख्या के प्रति उनका मोह स्पष्ट है। प्राचीन आचार्यों की मान्यता की अवहेलना कर शब्दगत, अर्थगत एवं उभयगत अलङ्कारों की संख्या के निर्धारण में जो विलक्षणता भोज ने दिखायी है, वह चौबीस संख्या की एकरूपता के प्रति उनके लोभ का ही परिचायक है। यही कारण है कि उनकी अलङ्कार-संख्याविषयक मान्यता परवर्ती आचार्यों को मान्य नहीं हुई।
भारतीय साहित्यशास्त्र में अधिकरण-भेद से अलङ्कार के दो वर्ग स्वीकृत हुए हैं-शब्दालङ्कार वर्ग तथा अर्थालङ्कार वर्ग । भोज ने उसके तीन वर्गों की कल्पना की। शब्द तथा अर्थ के अलङ्कारों के बीच एक शब्दार्थोभयगत अलङ्कारों का वर्ग मान लिया गया। सामान्यतः शब्दालङ्कार की अपेक्षा काव्य में अर्थालङ्कार को अधिक महत्त्व दिया जाता है। भोज ने शब्द तथा अर्थ के अलङ्कारों की अपेक्षा उभयालङ्कारों को अधिक महत्त्व दिया है।' . भोज के द्वारा प्रस्तुत अलङ्कारों का वर्गीकरण वैज्ञानिक नहीं हो सका है। कुछ शब्दालङ्कारों के लक्षण में अर्थ की घटना पर बल देकर भोज ने उन्हें शुद्ध शब्दालङ्कार नहीं रहने दिया है। गुम्फना में शब्द के साथ अर्थ की रचना, शय्या में पदार्थ की घटना पर बल दिया जाना आदि इस कथन के प्रमाण हैं।
शब्दालङ्कारों के कुछ भेदोपभेदों की कल्पना आचार्य भरत के लक्षणविशेष की धारणा के आधार पर की गयी है। उदाहरणार्थ मुद्रा के षष्ठ भेद का स्वरूप भरत के अनुक्तसिद्धि नामक लक्षण के तत्त्व से निर्मित है।
१. भोज-सरस्वतीकण्ठाभरण, ४, १
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २०१
अर्थगत अलङ्कारों के वर्ग में प्रत्यक्ष, अनुमान आदि छह प्रमाणों एवं वितर्क की अवतारणा का नवीन प्रयास भोज ने किया था । ज्ञान के इन साधनों के अलङ्कारत्व की कल्पना ही केवल नवीन है । इनके स्वरूप का विस्तृत विवेचन दर्शन में हो चुका था । अतः, भोज इनके स्वरूप की उद्भावना का श्रय नहीं पा सकते ।
वितर्क को सन्देह से अभिन्न मानने का भ्रम नहीं होना चाहिए । सन्देह एवं वितर्क के स्वरूप अलग-अलग हैं । यदि सन्देह, भ्रम आदि की तरह वितर्क या ऊहा को भी अलङ्कार माना जाय तो उसका सन्देह से स्वतन्त्र ही अस्तित्व स्वीकार करना पड़ेगा ।
भोज ने एक अलङ्कार में उससे मिलते-जुलते स्वभाव वाले कई अलङ्कारों के अन्तर्भावन का भी आयास किया है । अहेतु में रुद्रट की वास्तव वर्गगत कारणमाला का; उत्तर में सार का; विरोध में विषम, असङ्गति, प्रत्यनीक एवं अधिक का; निदर्शन में दृष्टान्त का और मीलित में पिहित, अपिहित, तद्गुण तथा अतद्गुण का समावेश इसका प्रमाण है । इस अन्तर्भावन के मूल में भी 'चौबीस' संख्या के प्रति उनका मोह ही माना जा सकता है । 'सरस्वती - कण्ठाभरण' के उत्तर एवं निदर्शन के स्थान पर शृङ्गारप्रकाश में क्रमशः सार तथा दृष्टान्त नाम पाये जाते हैं ।
सम्भव नामक नवीन अलङ्कार की कल्पना भोज ने की है, जिसे परवर्ती काल में सम्भावना भी कहा गया है ।
अर्थगत अलङ्कारों में अधिकांश के लक्षण प्राचीन आचार्यों की मान्यता के अनुरूप ही दिये गये हैं । जाति या स्वभावोक्ति, विभावना, विरोध, परिवृत्ति, निदर्शन, समाहित आदि के स्वरूप की कल्पना भामह, दण्डी आदि की तत्तदलङ्कारविषयक धारणा के आधार पर की गयी है । उत्तर, अन्योन्य, भ्रान्ति, मोलित, स्मृति, भाव आदि का स्वभाव रुद्रट के मतानुसार कल्पित है ।
प्राचीन आचार्यों के व्यतिरेक के लिए व्यतिरेक के साथ 'भेद' नाम का प्रयोग किया गया है । स्पष्ट है कि भोज ने सम्भव के अतिरिक्त किसी अर्थालङ्कार के स्वरूप की उद्भावना अपनी ओर से नहीं की ।
उभयालङ्कार-वर्ग के अधिकांश अलङ्कारों के नाम-रूप प्राचीन ही हैं । प्राचीन आक्षेप अलङ्कार के लिए प्रतिषेधति नाम का भी उल्लेख हुआ है ।
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२०२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
यह शब्द आक्षेप के लक्षण 'प्रतिषेधोक्तिराक्षेपः' से गृहीत है । परिकर के लिए परिष्कृति व्यपदेश का प्रयोग किया गया है ।
सङ्कर और संसृष्टि के स्थान पर केवल संसृष्टि की सत्ता स्वीकृत है । प्राचीन आचार्यों के सङ्कर का स्वरूप इसीके एक भेद के रूप में विवेचित है ।
साम्य में दृष्टान्तोक्ति, प्रतिवस्तूक्ति तथा प्रपञ्चोक्ति का; उत्प्रेक्षा में मत का; अर्थान्तरन्यास में उभयन्यास, प्रत्यनीकन्यास एवं प्रतीकन्यास का और परिष्कृति या परिकर में एकावली का अन्तर्भाव मान कर प्राचीन आलङ्कारिकों के द्वारा स्वीकृत संख्या को चौबीस में ही सीमित कर दिया गया है ।
star समाधि गुण समाध्युक्ति नाम से अलङ्कार की पंक्ति में परिगणित कर लिया गया है ।
संख्या आदि का पूर्वाग्रह लेकर अलङ्कारों की स्वरूप-मीमांसा करने का फल यह हुआ कि भोज की रचना में स्वस्थ तत्त्व-निरूपण के स्थान पर कल्पना - विलास की प्रधानता हो गयी । प्राचीन आचार्यों के कुछ अलङ्कारों को भोजराज ने यथावत् स्वीकार कर लिया; कुछ के सामान्य स्वरूप की धारणा पूर्ववर्ती आचार्यों से लेकर भी उनके कुछ नवीन भेदोपभेदों की कल्पना कर ली; आचार्य भरत के कुछ लक्षणों के स्वरूप के आधार पर, दण्डी आदि के कुछ गुण के स्वरूप के आधार पर तथा कुछ दार्शनिक तथ्यों के आधार पर कुछ नवीन अलङ्कारों अथवा अलङ्कार-भेदों की विवेचना की; कुछ प्राचीन अलङ्कारों कोही नवीन नाम दे दिये तथा कुछ अलङ्कारों में अन्य का अन्तर्भावन मान कर शब्दगत, अर्थगत एवं उभयगत अलङ्कारों की संख्यागत एकरूपता का एक विलक्षण सिद्धान्त निरूपित किया ।
O
अग्निपुराण
भोजराज और अग्निपुराणकार की अलङ्कार - निरूपण-पद्धति एक-सी है । 'सरस्वतीकण्ठाभरण' तथा 'शृङ्गार - प्रकाश' की तरह 'अग्निपुराण' में भी शब्दगत और अर्थंगत अलङ्कारों के अतिरिक्त उभयालङ्कारों का एक वर्ग कल्पित है, किन्तु अलङ्कार - विचारगत इस समता के होने पर भी अग्निपुराणकार संख्याविषयक पूर्वाग्रह से मुक्त रहे हैं । प्रस्तुत सन्दर्भ में हम 'अग्निपुराण' में प्रतिपादित अलङ्कारों का, प्राचीन आचार्यों के अलङ्कारों से सम्बन्ध की दृष्टि से परीक्षण करेंगे ।
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २०३ अग्निपुराण में विवेचित अलङ्कार वर्गानुक्रम से निम्निलिखित हैं :शब्दगत अलङ्कार
(१) अनुप्रास, (२) यमक, (३) चित्र तथा (४) बन्ध । चित्र के प्रश्न, प्रहेलिका आदि सात भेद स्वीकृत हैं।' बन्धों का उल्लेख चित्र से स्वतन्त्र रूप में किया गया है। प्राचीन आचार्यों ने चित्र के ही सन्दर्भ में विभिन्न बन्धों की कल्पना की थी। अर्थगत अलङ्कार
(१) स्वरूप या स्वभावोक्ति. (२) सादृश्य, (३) उत्प्रेक्षा, (४) अतिशय, (५) विभावना, (६) विरोध, (७) हेतु तथा (८) सम। समानधर्म पर आधृत उपमा, रूपक, सहोक्ति तथा अर्थान्तरन्यास को सादृश्य के भेद के रूप में स्वीकार किया गया है । शब्दार्थगत अलङ्कार
(१) प्रशस्ति, (२) कान्ति. (३) औचित्य, (४) संक्षेप, (५) यावदर्थता तथा (६) अभिव्यक्ति ।
अग्निपुराणकार की शब्दालङ्कार-धारणा प्राचीन आचार्यों की धारणा से अभिन्न है। अनुप्रास तथा यमक के विविध भेदों का विवेचन प्राचीन पद्धति पर ही किया गया है। यमक-भेद चित्रालङ्कार के सन्दर्भ में प्रहेलिका के स्वरूप का विवेचन आचार्य दण्डी के 'काव्यादर्श' में हो चुका था। रुद्रट ने केवल बौद्धिक चमत्कार का प्रदर्शन कराने वाले प्रहेलिका आदि अलङ्कारों को क्रीड़ामात्र में उपयोगी स्वीकार किया। ऐसे अलङ्कारों में उन्होंने प्रहेलिका के अतिरिक्त ( मात्रा या बिन्दु के ) च्युतक ( कारक, क्रिया ) गूढ, प्रश्न, उत्तर आदि का उल्लेख किया था ।४ रुद्रट के गूढ को ही 'अग्निपुराण' में गुप्त कहा गया है। प्रश्न, प्रहेलिका, च्युत आदि की धारणा रुद्रट की धारणा से अभिन्न है । समस्यापूत्ति गोष्ठियों में श्लोकांश के आधार पर विभिन्न कवियों के द्वारा श्लोक-रचना की एक विशेष प्रक्रिया थी। उसे
१. अग्निपुराण, अध्याय ३४३ २. वही, अध्याय ३४४ ३. वही, अध्याय ३४५ ४. रुद्रट, क व्यालङ्कार, ५, २४
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२०४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
भी चित्र अलङ्कार का एक भेद मान लिया गया है। मात्रा आदि के च्युत के आधार पर मात्रादिदत्त की कल्पना की गयी है। वाक्याङ्ग में मात्रा आदि प्रदत्त होने पर भी यदि द्वितीय अर्थ की प्रतीति हो तो दत्त चित्र होता है। ___रुद्रट ने चित्र के ही तत्तद्भेदों के रूप में चक्र, खड्ग, तुरग, गज आदि चित्रों या बन्धों का निरूपण किया था। अग्निपुराणकार ने चित्र के उक्त सात भेदों के विवेचन के उपरान्त तत्तद्बन्धों का उल्लेख किया है।२ अर्धभ्रम, सर्वतोभद्र, चक्र, मुरज, खड्ग, शक्ति, आदि बन्धों की कल्पना रुद्रट से ही ली गयी है । रुद्रट ने कुछ बन्धों का नाम्ना उल्लेख कर यह कहा था कि इसी प्रकार विभिन्न वस्तुओं के प्रकार में श्लोकों का विन्यास किया जा सकता है
और उन-उन वस्तुओं के नाम के आधार पर ही तत्तद्बन्धों का नामकरण किया जाता है। अग्निपुराण में गोमूत्रिका, अम्बुज दण्ड आदि बन्धों की भी कल्पना की गयी है। ___ 'अग्निपुराण' का अर्थालङ्कार-विवेचन बहुत अशक्त और अप्रौढ़ है। किसी नवीन अलङ्कार की उद्भावना तो अग्निपुराणकार ने नहीं ही की, पूर्व प्रचलित अर्थालङ्कारों में से भी अनेक को अकारण ही अस्वीकार कर केवल आठ ( या सादृश्य के चार भेदों को लेकर ग्यारह ) अर्थालङ्कारों की सत्ता स्वीकार की। सादृश्य के भी चार ही भेद स्वीकार करने में कोई युक्ति नहीं। यदि सादृश्य पर आधृत होने के कारण उपमा और रूपक आदि को सादृश्य का भेद माना जाय तो उत्प्रेक्षा का सादृश्य से अलग अस्तित्व मानने का क्या आधार होगा? औपम्यमूलक या सादृश्यमूलक अलङ्कार के विंशत्यधिक प्रकारों का निरूपण वामन तथा कुन्तक की रचनाओं में हो चुका था । वामन ने जितने अलङ्कारों का अस्तित्व स्वीकार किया था उन्हें उपमा-प्रपञ्च मान कर उनकी सादृश्यमूलकता स्वीकार की थी। स्पष्टतः सादृश्य के चार ही भेद की स्वीकृति समीचीन नहीं । 'अग्निपुराण' के अर्थालङ्कारों का स्वरूप पूर्ववर्ती आचार्यों के ही मतानुसार कल्पित है। भरत, भामह, दण्डी आदि आचार्यों की तत्तदलङ्कारधारणा के आधार पर अग्निपुराणकार ने अर्थगत अलङ्कारों का लक्षणनिरूपण किया है। दण्डी की अलङ्कार-धारणा का उन पर सर्वाधिक प्रभाव है।
१. अग्निपुराण, ३४३,२८ २. अग्निपुराण, ३४३, ३५-६५ ३. रुद्रट, काव्यालङ्कार, ५, ३३
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २०५ अग्निपुराणकार की शब्दार्थालङ्कार-धारणा सबसे विलक्षण है। उन्होंने जिन छह शब्दार्थालङ्कारों का विवेचन किया है, उनमें से एक भी भारतीय काव्यशास्त्र में अलङ्कार के रूप में स्वीकृति नहीं पा सका है। फिर भी यह नहीं माना जा सकता कि प्रशस्ति, कान्ति, औचित्य आदि की धारणा ‘अग्निपुराण' की मौलिक उद्भावना है । भोज ने भी उनके स्वरूप पर विचार किया था। उन्होंने कान्ति, औचित्य आदि को काव्यालङ्कार नहीं मान कर काव्य-गुण के रूप में स्वीकार किया था । अग्निपुराणकार ने उन्हें शब्दार्थालङ्कार मान लिया। यावदर्थपदत्व भोज के संमितत्त्व गुण का ही पर्याय है। हमने अपनी पुस्तक 'काव्य-गुणों का शास्त्रीय विवेचन' में औचित्य के गुणत्व का खण्डन किया है। उन्हीं युक्तियों से उसे अलङ्कार मानने वाला मत भी खण्डित हो जाता है। औचित्य गुण, अलङ्कार आदि का प्राण है । उसे गुण या अलङ्कार के एक प्रकार के रूप में सीमित कर देना समीचीन नहीं। अभिव्यक्ति को प्रकटत्व कहकर व्यञ्जना या ध्वनि से अभिन्न माना गया है और उसके भेदों के रूप में व्यञ्जना पर आधृत आक्षेप, समासोक्ति, अपह्नति, पर्यायोक्ति का उल्लेख हुआ है । स्पष्टतः प्राचीनों के इन अलङ्कारों का ही समष्टि नाम अभिव्यक्ति है। निष्कर्ष यह कि शब्दगत, अर्थगत तथा शब्दार्थगत अलङ्कार-वर्गों में किसी भी नवीन अलङ्कार की उद्भावना 'अग्निपुराण' में नहीं हुई। कुछ नवीन नाम अवश्य कल्पित हुए ; किन्तु वे प्राचीन काव्यतत्त्वों के ही नवीन अभिधान-मात्र हैं।
प्राचार्य मम्मट आचार्य मम्मट की गणना भारतीय काव्यशास्त्र के अङ्ग लि-परिगणनीय विचारकों की प्रथम पंक्ति में होती है। मम्मट के पूर्व काव्य-सिद्धान्त के विभिन्न पक्षों का जो विवेचन चल रहा था, उसमें मौलिक उद्भावनाओं की शक्ति अवश्य थी; किन्तु उसकी दो सीमाएँ थीं। पहली, आचार्यों का पूर्वाग्रह, जो स्वस्थ शास्त्रीय चिन्तन में बाधक हुआ। अलङ्कार, रीति, वक्रोक्ति आदि काव्य-तत्त्वों में से किसी एक को ही काव्य-सर्वस्व सिद्ध करने का आग्रह लेकर रीति-ग्रन्थ लिखने वाले आचार्यों में दृष्टि-सङ्कोच का होना स्वाभाविक था। फलतः तत्तत्सम्प्रदायों में काव्य के एक-एक तत्त्व का सूक्ष्म विवेचन तो अवश्य
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२०६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
किया गया पर सभी तत्त्वों के सापेक्ष महत्त्व की स्थापना का प्रयास नहीं हुआ। अलङ्कार-सम्प्रदाय में रीति, वक्रोक्ति, रस आदि को गौण स्थान मिला तो रीति, वक्रोक्ति आदि प्रस्थानों में अलङ्कार केवल काव्य-सौन्दर्य के सहायक का स्थान पा सका। दूसरी सीमा तत्त्व-विवेचन की अपरिपक्वता थी। भरत, भामह, दण्डी, वामन, उद्भट, रुद्रट, कुन्तक आदि की दृष्टि काव्यमीमांसा के क्षेत्र में नवीन-तथ्यों की उद्भावना पर ही प्रधान रूप से थी। अतः, किसी विशेष तत्त्व की विशद विवेचना का अवकाश उन्हें नहीं था। काव्यशास्त्रीय चिन्तन में उनके नव-नव उन्मेष की महत्ता की उपेक्षा नहीं की जा सकती, फिर भी इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उन विचारकों की उक्त सीमाओं का अतिक्रमण कर एक स्वस्थ एवं समन्वित साहित्य-सिद्धान्त की स्थापना की आवश्यकता शेष थी, जो आचार्य मम्मट के 'काव्य प्रकाश' में पूर्ण हुई। मम्मट के पूर्व इतने काव्य-तत्त्वों की उद्भावना हो चुकी थी कि नवीन तत्त्वों की कल्पना की उतनी आवश्यकता नहीं थी, जितनी उन तत्त्वों के स्वरूप को व्यवस्थित कर काव्य-शरीर में उनके स्थान-निर्धारण की थी। आचार्य मम्मट ने यही किया है। उनका महत्त्व नवीन उद्भावना की अपेक्षा पूर्वप्रचलित काव्य-विषयक मान्यताओं में समन्वय की स्थापना कर उनके सापेक्ष महत्त्व-निर्धारण में तथा विभिन्न काव्याङ्गों के स्वरूप के स्पष्टीकरण में ही अधिक है। प्रस्तुत सन्दर्भ में हम अलङ्कार के क्षेत्र में उनकी मान्यता का मूल्याङ्कन तथा उनके द्वारा उद्भावित नवीन अलङ्कारों के स्रोत का अन्वेषण करेंगे।
'काव्य प्रकाश' में निम्नलिखित अलङ्कारों का विवेचन हुआ हैशब्दालङ्कार
(१) वक्रोक्ति, (२) अनुप्रास (छेकानुप्रास, वृत्यनुप्रास तथा लाटानुप्रास के पाँच भेद), (३) यमक, (४) श्लेष, (५) चित्र और (६) पुनरुक्तवदाभास । अर्थालङ्कार
(१) उपमा, (२) अनन्वय, (३) उपमेयोपमा, (४) उत्प्रेक्षा, (५) ससन्देह, (६) रूपक, (७) अपह्न ति, (८) श्लेष, (९) समासोक्ति, (१०) निदर्शना, (११) अप्रस्तुतप्रशंसा, (१२) अतिशयोक्ति, (१३) प्रतिवस्तूपमा, (१४) दृष्टान्त, (१५) दीपक, (१६) मालादीपक, (१७) तुल्य
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २०७ योगिता, (१८) व्यतिरेक, (१६) आक्षेप, (२०) विभावना, (२१) विशेषोक्ति, (२२) यथासंख्य (२३) अर्थान्तरन्यास, (२४) विरोध या विरोधाभास, (२५) स्वभावोक्ति, (२६) व्याजस्तुति, (२७) सहोक्ति, (२८) विनोक्ति, (२६) परिवृत्ति (३०) भाविक (३१) काव्यलिङ्ग (३२) पर्यायोक्त, (३३) उदात, (३४) समुच्चय, (३५) पर्याय, (३६) अनुमान (३७) परिकर, (३८) व्या जोक्ति, (३०) परिसंख्या, (४०) कारणमाला, (४१) अन्योन्य, (४२) उत्तर, (४३) सूक्ष्म, (४४) सार, (४५) असङ्गति, (४६) समाधि, (४७) सम, (४८) विषम, (४६) अधिक, (५०) प्रत्यनीक, (५१) मीलित, (५२) एकावली, (५३) स्मरण, (५४) भ्रान्तिमान, (५५) प्रतीप, (५६) सामान्य, (५७) विशेष, (५८) तद्गुण, (५६) अतद्गुण, (६०) व्याघात, (६१) संसृष्टि और (६२) सङ्कर ।
उक्त अलङ्कारों में से अधिकांश की स्वरूप-मीमांसा मम्मट के पूर्ववर्ती आचार्यों की रचनाओं में हो चुकी थी। भामह, वामन, उद्भट, रुद्रट आदि आचार्यों की तत्तदलङ्कार-धारणा को मम्मट ने स्वीकार कर अपनी कारिकाओं में परिभाषित किया है और उन कारिकाओं की वृत्तियों में अलङ्कारों के स्वरूप का स्पष्टीकरण किया है। शब्दालङ्कारों में श्लेष वक्रोक्ति और चित्र का विवेचन रुद्रट के मतानुसार किया गया है। श्लेष-विवेचन के सन्दर्भ में श्लेष एवं उपमा का साम्य-वैषम्य बताते हुए मम्मट ने रुद्रट का मत उद्धत किया है।' अनुप्रास का स्वरूप-निरूपण भामह, उद्भट, रुद्रट आदि की मान्यता के अनुरूप ही किया गया है। लाटानुप्रास के जिन पाँच भेदों का 'विवेचन उद्भट ने किया था उनका उल्लेख 'काव्यप्रकाश' में भी किया गया है ।२ मम्मट की पुनरुक्तवदाभास-धारणा उद्भट की तद्विषयक धारणा से अभिन्न है। चित्र के विभिन्न रूपों के विवेचन में मम्मट पर रुद्रट की मान्यता का पुष्कल प्रभाव है। आचार्य मम्मट यमक निरूपण में भामह. दण्डी तथा रुद्रट की धारणा से सहमत हैं । स्पष्ट है कि शब्दालङ्कार के क्षेत्र में मम्मट ने किसी नवीन अलङ्कार की उद्भावना नहीं की है।
१. तथाह्य क्त रुद्रटेन-मम्मट, काव्यप्र० ७ पृ० २१३ २. तुलनीय, उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह, १,४ तथा मम्मट काव्यप्रकाश
६,११६ पृ० २०४ ३. उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह १, १ तथा मम्मट, का यपकाश ,
१२२ पृ० २१७
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२०८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण __ अर्थालङ्कारों में उपमा-विषयक प्राचीन धारणा को ही मम्मट ने स्वीकार किया है। उसके भेदोपभेदों का विवेचन उन्होंने उद्भट के मतानुसार किया है। अनन्वय, उपमेयोपमा, उत्प्रेक्षा तथा ससन्देह या संशय का स्वरूपनिरूपण भामह, उद्भट, रुद्रट आदि की धारणा के आधार पर किया गया है। रूपक की सामान्य धारणा उक्त आचार्यों की धारणा से मिलती-जुलती ही है। उसके भेदों का विवेचन उद्भट की पद्धति पर किया गया है। उसका एक परम्परित भेद नवीन है। दण्डी ने रूपक के बीस भेदों का विवेचन कर उसके अनन्त रूपों की सम्भावना स्वीकार की थी। उसी के आधार पर मम्मट की परम्परित रूपक धारणा आधृत है। अपह्नति, श्लेष तथा समासोक्ति की धारणा उक्त आचार्यों से ही ली गयी है। सर्वप्रथम उद्भट ने शब्द और अर्थ के श्लेष का पृथक्-पृथक् विवेचन किया था। रुद्रट ने भी उस शब्दार्थ-श्लेष-विवेक को स्वीकार किया। मम्मट ने भी शब्द और अर्थ के श्लेष का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया है। मम्मट की निदर्शनाधारणा उद्भट की तद्विषयक धारणा के समान है। अप्रस्तुतप्रशंसा का सामान्य स्वरूप भामह, उद्भट, रुद्रट, आदि आचार्यों की मान्यता के अनुसार ही कल्पित है । रुद्रट ने इसे अन्योक्ति संज्ञा से अभिहित किया था। उद्भट के 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' की 'विवृति' में प्रस्तुत अलङ्कार के पाँच भेदों का उल्लेख है:-किसी वस्तु का वर्णन अभीष्ट होने पर उसके समान अन्य की उक्ति, विशेष कथ्य होने पर सामान्य की उक्ति, सामान्य वर्ण्य होने पर विशेष की उक्ति, कार्य की विवक्षा में कारण की उक्ति तथा कारण की विवक्षा में कार्य की उक्ति । मम्मट ने इन पांचो भेदों को स्वीकार किया है। मम्मट की अतिशयोक्ति-विषयक धारणा उद्भट की धारणा से बहुलांशतः प्रभावित है। भेद में अभेद, पौर्वापर्य-व्यतिक्रम आदि अतिशयोक्ति-लक्षण उद्भट से ही गृहीत हैं। उसके एक भेदउपमेय का उपमान के साथ निगरण पूर्वक अध्यवसान-की कल्पना नवीन जान पड़ती है। अतिशय की धारणा से रूपक (अभेदारोप) की धारणा को मिला कर इस अतिशयोक्ति-भेद की कल्पना की गयी है। इसलिए इसे रूपकातिशयोक्ति भी कहा जाता है। मम्मट के प्रतिवस्तूपमा तथा दृष्टान्त अलङ्कारों का स्वरूप उद्भट के तत्तदलङ्कारों के स्वरूप के समान है। दीपक प्राचीनतम अलङ्कारों में एक है। मम्मट ने प्राचीन आचार्यों की दीपकधारणा को ही स्वीकार किया है। तुल्ययोगिता का लक्षण-निरूपण उद्भट
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २०६
'मतानुसार किया गया है । व्यतिरेक की धारणा भामह, उद्भट तथा रुद्रट की धारणा से मिलती-जुलती ही है । उद्भट और रुद्रट ने उपमान से उपमेय के आधिक्य - वर्णन में तथा उपमेय से उपमान के आधिक्य - कथन में व्यतिरेक. अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार किया था । इस प्रकार मम्मट के पूर्व व्यतिरेक के उक्त दो प्रकार प्रचलित थे । मम्मट ने केवल उपमान से उपमेय के अधिक्य - वर्णन में ही व्यतिरेक माना है । उपमान में उपमेय की अपेक्षा आधिक्य तो स्वीकृत ही रहता है; इसीलिए तो उपमेय की प्रभाव वृद्धि के लिए उपमान से उसकी तुलना की जाती है ! सम्भव है कि उपमान का आधिक्य स्वतः सिद्ध होने के कारण मम्मट ने उपमानाधिक्य रूप व्यतिरेक की कल्पना आवश्यक नहीं समझी हो । उन्होंने उपमेय के आधिक्य वर्णन की विभिन्न प्रक्रियाओं के आधार पर व्यतिरेक के चौबीस प्रकारों की कल्पना की है । आक्षेप के स्वरूप की कल्पना भामह और उद्भट के मतानुसार की गयी है । विभावना का प्रतिपादन भामह, उद्भट तथा रुद्रट की पद्धति पर किया गया है । आचार्य मम्मट की विशेषोक्ति उद्भट की विशेषोक्ति से अभिन्न है । यथासंख्य और अर्थान्तरन्यास के स्वरूप का विवेचन करने में मम्मट भामह, उद्भट तथा रुद्रट से सहमत हैं । विरोध की स्वरूप - कल्पना का आधार भामह तथा दण्डी की विरोध-धारणा है । दण्डी के 'काव्यादर्श' की 'कुसुमप्रतिमा' - टीका में विरोध लक्षण की व्याख्या करते हुए टीकाकार: ने कहा है कि इसमें वास्तविक अविरोध के होने पर भी विरोध-सा दिखाया जाता है । अतः, इसे विरोध या विरोधाभास कहा जाता है । मम्मट की धारणा इससे अभिन्न है । मम्मट ने स्वभावोक्ति की प्रकृति का निरूपण भी भामह, उद्भट और रुद्रट की धारणा के अनुरूप ही किया है । रुद्रट ने जा व्यपदेश से जिस अलङ्कार का विवेचन किया है, वह मम्मट की स्वभावोक्ति से नाम्ना ही भिन्न है, प्रकृत्या अभिन्न है । मम्मट की व्याजस्तुति का स्वरूप भामह तथा उद्भट की व्याजस्तुति के स्वरूप से बहुत कुछ मिलता-जुलता है । भामह और उद्भट ने निन्दामुखेन की जाने वाली स्तुति को व्याजस्तुति का लक्षण माना था । मम्मट ने इस लक्षण को तो स्वीकार किया ही, इसके वैपरीत्य के आधार पर आपाततः की जाने वाली स्तुति का तत्त्वतः निन्दा में पर्यवसान होने के स्थल में भी व्याजस्तुति अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार
१. वास्तव विरोधाभावेऽपि विरोधप्रयोजकत्वात् विरोधः [ विरोधाभास ] इति नामालङ्कारः । - काव्यादश, कुसुम प्र०, पृ० २५४
१४
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२१० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
"किया। सहोक्ति भामह, उद्भट एवं रुद्रट आदि के मतानुसार तथा परिवृत्ति "उद्भट और रुद्रट के मतानुसार परिभाषित हैं। उद्भट के द्वारा कल्पित 'परिवृत्ति के तीनों भेद (न्यून से अधिक, अधिक से न्यून तथा सम वस्तु से “सम का विनिमय) मम्मट के द्वारा स्वीकृत हैं। मम्मट के भाविक अलङ्कार का स्वरूप भामह के भाविक प्रबन्ध-गुण तथा उद्भट के भाविक अलङ्कार के स्वरूप से अभिन्न है। हमने इस तथ्य पर विचार किया है कि भाविक को प्रबन्ध का गुण कहने पर भी भामह उसे वस्तुतः काव्य का अलङ्कार ही मानते थे। इसीलिए उन्होंने अलङ्कार के सन्दर्भ में उसका विवेचन किया है। पर्यायोक्त का लक्षण भामह, उद्भट और रुद्रट की मान्यता के अनुसार दिया गया है। रुद्रट ने पर्यायोक्त को पर्याय नाम से अभिहित किया था। मम्मट के 'उदात्त का स्वरूप उद्भट के उदात्त से अभिन्न है। भामह ने भी इस अलङ्कार के विषय में उद्भट के समान ही धारणा व्यक्त की थी। मम्मट का पर्याय अलङ्कार रुद्रट के पर्याय के द्वितीय प्रकार के समान है।' अनुमान, परिकर, 'परिसंख्या, कारणमाला, अन्योन्य तथा उत्तर के स्वरूप-विवेचन में मम्मट ने
आचार्य रुद्रट के मत का अनुगमन किया है। व्याजोक्ति की वामन-प्रदत्त परिभाषा को काव्यप्रकाशकार ने स्वीकार किया है । सूक्ष्म अलङ्कार के स्वरूप
के सम्बन्ध में आचार्य दण्डी की मान्यता को स्वीकार किया गया है । सार और 'असङ्गति का स्वरूप रुद्रट के मतानुसार निरूपित है। दण्डी के समाहित को "मम्मट ने समाधि नाम से स्वीकार किया है। भामह ने भी इसकी धारणा उदाहरण से व्यक्त की थी, पर उसकी परिभाषा नहीं दी थी। सम की कल्पना मम्मट ने रुद्रट के विषम के विपर्यय रूप में की है। मम्मट के विषम और अधिक का स्वरूप रुद्रट से गृहीत है। रुद्रट के अधिक के द्वितीय भेद को मम्मट ने स्वीकार किया है। दण्डी ने उसे आश्रयाधिक्यातिशयोक्ति 'नाम से अतिशयोक्ति का एक भेद माना था। मम्मट का प्रत्यनीक रुद्रट
के औपम्यमूलक प्रत्यनीक के समान है। मीलित, एकावली, स्मरण तथा 'भ्रान्तिमान के सम्बन्ध में मम्मट की मान्यता रुद्रट की मान्यता से अभिन्न है। प्रताप के स्वरूप के विषय में मम्मट ने रुद्रट की मूल धारणा को स्वीकार कर उसमें अपनी ओर से भी कुछ जोड़ा है। रुद्रट की धारणा थी कि उपमेय के वैशिष्ट्य-प्रतिपादन के लिए जहां उपमान के साथ उसकी समता के लिए १. तुलनीय-रुद्रट, काव्यालङ्कार ७,४४ तथा मम्मट, काव्यप्रकाश १०,
१८० पृ० २७३
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २११
उस पर अनुकम्पा की जाय या उसकी निन्दा की जाय वहीं प्रतीप अलङ्कार होता है । ' उपमेय का वैशिष्ट्य ख्यापन इस अलङ्कार में मम्मट को भी अभिमत है । वे इसके लिए उपमेय के सद्भाव में उपमान की व्यर्थता का प्रतिपादन तथा उपमान का तिरस्कार करने के लिए उपमेय के रूप में उसकी कल्पना प्रतीप का लक्षण मानते हैं । मम्मट की यह प्रतीप - धारणा आचार्य दण्डी के विपर्यासोमा के समान है । मम्मट के विशेष और तद्गुण अलङ्कार रुद्रट के एतत्संज्ञक अलङ्कारों से अभिन्न हैं । संसृष्टि और सङ्कर की धारणा प्राचीन है । भामह से लेकर रुद्रट तक एकाधिक अलङ्कारों के एकत्र सन्निवेश की दो प्रक्रियाओं - तिलतण्डुल न्याय से तथा नीरक्षीर न्याय से पर संसृष्टि तथा सङ्कर संज्ञा से सविस्तर विवेचन हो चुका था । मम्मट ने दोनों की पृथक्-पृथक् सत्ता स्वीकार की तथा उनके प्राचीन लक्षण को ही स्वीकार किया ।
स्पष्ट है कि उक्त अलङ्कारों के लक्षण-निरूपण में मम्मट पर भामह, उद्भट तथा रुद्रट की अलङ्कार-धारणा का प्रभूत प्रभाव पड़ा है । भामह और उद्भट की अलङ्कार-धारणा बहुत कुछ समान है । अतः मम्मट की धारणा पर 'पड़ने वाले प्रभाव को दृष्टि से उक्त दो आचार्यों की धारणा को एक सामान्य स्रोत माना जा सकता है । मम्मट को प्रभावित करने वाला दूसरा प्रबल स्रोत रुद्रट का 'काव्यालङ्कार' है ।
कुछ पूर्व प्रचलित अलङ्कारों को नाम्ना स्वीकार कर मम्मट ने कुछ नवीन रूप से उन्हें परिभाषित किया है । वे अलङ्कार हैं— (क) समुच्चय और ( ख ) व्याघात । इनकी स्वरूप कल्पना का स्रोत अन्वेष्टव्य है ।
समुच्चय
समुच्चय की प्रकृति की कल्पना का आधार आचार्य दण्डी की समुच्चयोपमा की धारणा है । मम्मट ने रुद्रट की समुच्चय- परिभाषाओं को दृष्टिगत रखते हुए प्रस्तुत अलङ्कार को कुछ भिन्न रूप से परिभाषित किया है । वे रुद्रट के ‘सद्योग समुच्चय', 'असद्योग समुच्चय' तथा 'सदसद्योग समुच्चय' के पृथक्-पृथक् लक्षण को अस्वीकार कर एक ही व्यापक परिभाषा में उन्हें आबद्ध करना चाहते थे । इसीलिए उन्होंने यह कल्पना की कि जहाँ प्रस्तुत कार्य के एक साधक के रहने पर अन्य साधकों के सद्भाव की भी कल्पना की
१. रुद्रट, काव्यालङ्कार, ८,७६
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२१२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
जाती है वहाँ समुच्चय अलङ्कार होता है।' स्पष्टतः, कार्य के कारणों के समुच्चय के आधार पर इस अलङ्कार के स्वरूप की कल्पना की गयी है। मम्मट ने यह दावा किया है कि पूर्ववर्ती आचार्यों के समुच्चय के सद्योग, असद्योग आदि भेद इसी लक्षण में समाविष्ट हो जाते हैं। उनके पृथक् लक्षण की कल्पना आवश्यक नहीं।२ मम्मट ने गुण-क्रिया के युगपद् सद्भाव में समुच्चय का दूसरा प्रकार माना है। इसकी कल्पना का आधार रुद्रट के समुच्चय का द्वितीय लक्षण है । उसकी ओर निर्देश करते हुए आचार्य मम्मट ने कहा है कि कुछ लोग केवल व्यधिकरण में तथा कुछ केवल सामानाधिकरण्य में क्रियाओं के समुच्चय में प्रस्तुत अलङ्कार का सद्भाव मानते हैं, यह उचित नहीं । सामानाधिकरण्य तथा वैयधिकरण्य, दोनों में क्रियाओं के समुच्चय के उदाहरण पाये जाते हैं। संक्षेपतः, मम्मट ने समुच्चय के द्वितीय लक्षण में गुणों, क्रियाओं तथा गुण-क्रियाओं के एकदेश तथा भिन्न-देश में समुच्चय पर बल दिया है।
व्याघात
रुद्रट के व्याघात का स्वरूप विशेषोक्ति अलङ्कार के स्वरूप से स्वतन्त्र सत्ता नहीं पा सका था। उनके अनुसार अन्य कारण से अप्रतिहत होने पर भी जहां कारण कार्य का उत्पादक नहीं हो सके, वहाँ कार्य का व्याघात होने से व्याघात अलङ्कार माना जाता है।४ अप्रतिहत कारण के होने पर भी कार्य की अनुत्पत्ति को अलङ्कार-शास्त्र में विशेषोक्ति की संज्ञा मिली है। इससे व्याघात के स्वरूप को स्वतन्त्र अस्तित्व देने के लिए आचार्य मम्मट ने यह कल्पना की है कि जहाँ कोई कर्ता जिस उपाय से जिस कार्य को सिद्ध करता है, उसी उपाय से यदि उसको जीतने की इच्छा से कोई दूसरा व्यक्ति कार्य को
१. तत्सिद्धिहेतावेकस्मिन् यत्रान्यत्तत्करं भवेत् ।
समुच्चयोऽसौ.....।-मम्मट, काव्यप्र० १०, १७८ पृ० २७१ २. एष एव समुच्चयः सद्योगेऽसद्योगे च पर्यवस्यतीति न पृथक् लक्ष्यते ।
-वही, वृत्ति पृ० २७२ ३. इत्यादेश्च दर्शनात् व्यधिकरणे इति एकस्मिन् देशे इति च न वाच्यम् ।
-वही, पृ० २७३ ४. अन्यैरप्रतिहतमपि कारणमुत्पादन न कार्यस्थ।
यस्मिन्नभिधीयेत व्याघातः स इति विज्ञेयः ॥-रुद्रट, काव्यालं०, ६, ५२
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २१३
१
अन्यथा सिद्ध कर देता है तो वहाँ व्याघात नामक अलङ्कार होता है । प्रस्तुत व्याघात - परिभाषा मम्मट की स्वतन्त्र उद्भावना है । यह अलङ्कार नाम्ना प्राचीन; किन्तु प्रकृत्या नवीन है ।
मम्मट के 'काव्य-प्रकाश' में जिन चार अलङ्कारों का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकृत हुआ है, वे हैं— मालादीपक, विनोक्ति, सामान्य और अतद्गुण । अन्तिम तीन अलङ्कार नवीन हैं । इन अलङ्कारों की स्वरूप कल्पना के आधार का अनुसन्धान प्रस्तुत सन्दर्भ में किया जायगा ।
मालादीपक
आचार्य मम्मट ने मालादीपक की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की है । इसकी परिभाषा में कहा गया है कि जहाँ पूर्व-पूर्व वस्तु उत्तर-उत्तर वस्तु का उपकार करे, वहाँ मालादीपक अलङ्कार होता है । उत्तर-उत्तर वस्तुओं को दीपित करने वाली पूर्ववर्ती वस्तुओं की इसमें माला रहती है । इसलिए इसे मालादीपक कहा गया है । उत्तर-उत्तर वाक्यों का पूर्व - पूर्व वाक्यों की अपेक्षा रखने की कल्पना दण्डी ने मालादीपक में की थी; पर उन्होंने उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं मान कर उसे दीपक का ही एक भेद माना था । मम्मट ने उसी मान्यता को स्वीकार कर दीपकों की माला की कल्पना प्रस्तुत अलङ्कार में की है । स्पष्ट है कि दण्डी के ही मतानुसार मालादीपक की कल्पना की गयी है । मम्मट ने इसकी गणना दीपक से स्वतन्त्र रूप में की है ।
विनोक्ति
मम्मट के अनुसार जहाँ अन्य वस्तु के विना अन्य वस्तु का ( किसी एक वस्तु के अभाव में दूसरी वस्तु का ) सुन्दर होना या असुन्दर होना वर्णित हो, वहाँ विनोक्ति अलङ्कार होता है । 3 इस अलङ्कार के स्वरूप की कल्पना की प्र ेरणा सहोक्ति के स्वरूप से मिली होगी । सहोक्ति में एक वस्तु के साथ
९. यद्यथा साधितं केनाप्यपरेण तदन्यथा । तथैव यद्विधीयेत स व्याघात इति स्मृतः ॥
- मम्मट, काव्यप्र०, १०, २०६ पृ० २६७ २. मालादीपकमाद्य ं चेद्यथोत्तरगुणावहम् । - वही, १०, १५७ पृ० २५४ ३. विनोक्तिः सा विनाऽन्येन यत्रान्यः सन्न नेतरः ।
- वही, १०, १७१ पृ० २६७
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२१४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण दूसरी वस्तु का वर्णन होता है । इसमें एक के अभाव में दूसरे की स्थिति का वर्णन होता है। सामान्य
विशेष के विपरीत सामान्य नामक नवीन अलङ्कार की कल्पना मम्मट ने की है। इसमें प्रस्तुत के गुण का अप्रस्तुत के साथ साम्य बताने के लिए ऐकात्म्य का निबन्धन किया जाता है अर्थात् दो वस्तुओं की समता के प्रतिपादन के लिए दोनों की एक-सी प्रतीति का वर्णन होता है । ' दो वस्तुओं के वैशिष्ट्य के लुप्त हो जाने के कारण इसे सामान्य कहा जाता है। अतद्गुण __ अतद्गुण का स्वरूप तद्गुण के वैपरीत्य के रूप में कल्पित है। मम्मट ने रुद्रट की तद्गुण-धारणा को स्वीकार कर उसके विपरीत अतद्गुण व्यपदेश से नवीन अलङ्कार की कल्पना कर ली।
उक्त विवेचन से यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि मम्मट ने अधिकतर अलङ्कार-विषयक प्राचीन आचार्यों की मान्यता का ही विवेचन किया है । ____ कुछ अलङ्कारों के नवीन भेदों की भी कल्पना उन्होंने की है; पर उसका आधार प्राचीन आलङ्कारिकों की तत्तदलङ्कार-धारणा ही है।
जिन चार नवीन अलङ्कारों की कल्पना मम्मट ने की है, उनका मूल भी पूर्ववर्ती आचार्यों के विभिन्न अलङ्कारों के स्वभाव में देखा जा सकता है। उदाहरणार्थ-मालादीपक के स्वरूप की कल्पना का आधार दीपक तथा माला-धारणा पर आधृत कारणमाला-जैसे अलङ्कार का स्वरूप है। विनोक्ति की कल्पना का आधार सहोक्ति को, सामान्य की कल्पना का आधार विशेष को तथा अतद्गुण की कल्पना का आधार तद्गुण को माना जा सकता है।
स्पष्टतः, अलङ्कार के क्षेत्र में नूतन उद्भावना की दृष्टि से मम्मट का महत्त्व अधिक नहीं है। विवेचन को प्रौढ़ता एवं प्राञ्जलता की ही दृष्टि से 'काव्यप्रकाश' के अलङ्कार खण्डों का महत्त्व है।
१. प्रस्तुतस्य यदन्येन गुणसाम्यविवक्षया । ऐकात्म्यं बध्यते योगात्तत्सामान्यमिति स्मृतम् ॥
-वही, १०, २०२ पृ० २६३
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[ २१५
अलङ्कार-धारणा का विकास
राजानक रुय्यक
भामह, उद्भट और रुद्रट के बाद काव्यालङ्कार-धारणा के विशदीकरण में महनीय योग राजानक रुय्यक या रुचक ने दिया । उनका 'अलङ्कार-सूत्र' और उस पर 'अलङ्कार-सर्वस्व' नामक विवृति जो 'अलङ्कारसूत्र' के निर्णयसागर संस्करण के अनुसार मूल ग्रन्थकार के द्वारा ही रचित है, काव्य के अलङ्कारों के स्वरूप विवेचन की स्पष्टता की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । [ त्रिवेन्द्रम ग्रन्थमाला ने ‘अलङ्कार - सर्वस्व' को रुय्यक के शिष्य मङ्खक की रचना माना है । उक्त विवृति के रचयिता का निर्णय प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक का प्रकृत विषय नहीं है । ] अलङ्कार मीमांसा के क्षेत्र में रुय्यक का महत्त्व केवल पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा प्रतिपादित अलङ्कारों को सूत्रबद्ध कर सरल रूप में प्रस्तुत करने में ही नहीं है, वरन् कुछ नवीन अलङ्कारों की स्वीकृति और उनके स्वरूप-निरूपण में भी है । उनके द्वारा स्वीकृत प्रायः सभी अलङ्कार परवर्ती आचार्यों को मान्य हुए हैं । प्रस्तुत सन्दर्भ में रुय्यक के द्वारा कल्पित. नवीन अलङ्कारों का स्रोत-सन्धान अभिप्र ेत है ।
'अलङ्कार सूत्र' में निम्नलिखित अलङ्कार उल्लिखित हैं
(१) पुनरुक्तवदाभास, (२) छेकानुप्रास, (३) वृत्त्यनुप्रास, (४) यमक, (५) लाटानुप्रास, (६) चित्र, (७) उपमा, (८) अनन्वय, (९) उपमेयोपमा, (१०) स्मरण, (११) रूपक, (१२) परिणाम, (१३) सन्देह, (१४) भ्रान्तिमान्, (१५) उल्लेख, (१६) अपह्न ुति, (१७) उत्प्रेक्षा, (१८) अतिशयोक्ति, (१६) तुल्ययोगिता, ( २० ) दीपक, (२१) प्रतिवस्तूपमा, (२२) दृष्टान्त, (२३) निदर्शना, (२४) व्यतिरेक, (२५) सहोक्ति, (२६) विनोक्ति, (२७) समासोक्ति, ( २८ ) परिकर, ( २९ ) श्लेष, (३०) अप्रस्तुतप्रशंसा, (३१) अर्थान्तरन्यास, (३२) पर्यायोक्त, (३३) व्याजस्तुति, (३४) आक्षेप, (३५) विरोध, (३६), विभावना, (३७) विशेषोक्ति, (३८) अतिशयोक्ति, ( ३६ ) असङ्गति, (४०) विषम, ( ४१ ) सम, (४२) विचित्र, (४३) अधिक, (४४) अन्योन्य, (४५) विशेष, (४६) व्याघात, (४७) कारणमाला, (४८) एकावली, (४६) मालादीपक, (५०) सार, (५१) काव्यलिङ्ग, (५२) अनुमान, (५३) यथासंख्य,. (५४) पर्याय, (५५) परिवृत्ति, (५६) परिसंख्या, (५७) अर्थापत्ति, ( ५८ ) विकल्प, (५) समुच्चय, (६०) समाधि, (६१) प्रत्यनीक, (६२) प्रतीप, (६३) निमीलित, (६४) सामान्य, (६५) तद्गुण, (६६) अतद्गुण, (६.७ )
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२१६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उत्तर, (६८) सूक्ष्म, (६९) व्याजोक्ति, (७०) वक्रोक्ति, (७१) स्वभावोक्ति, (७२) भाविक, (७३) उदात्त, (७४) रसवत्, (७५) प्रेय, (७६), ऊर्जस्वी, (७७) समाहित, ( ७८) भावोदय ( ७९ ) भावसन्धि, ( 50 ) भावशबलता (८१) संसृष्टि और (८२) सङ्कर ।
कन्हैयालाल पोद्दार ने 'काव्यकल्पद्र ुम' के प्राक्कथन में लिखा है कि--' इस ग्रन्थ में (रुय्यक के अलङ्कारसूत्र में ) चौरासी अलङ्कार हैं ।" " पोद्दारजी का यह कथन प्रमाण-पुष्ट नहीं है । उक्त बयासी अलङ्कारों में अतिशयोक्ति के दो रूपों के आधार पर उसकी गणना दो बार की गयी है । दोनों की संख्या वस्तुतः एक ही मानी जानी चाहिए । अतः रुय्यक के अलङ्कारों की संख्या इक्यासी है ।
राजानक रुय्यक ने श्लेष के शब्दगत तथा अर्थगत भेद की पृथक्-पृथक् विवेचना नहीं कर एक ही परिभाषा में उन्हें परिभाषित किया है । उनके पूर्व शब्दश्लेष तथा अर्थश्लेष की पृथक्-पृथक् सत्ता स्वीकृत थी; किन्तु रुय्यक ने श्लेष का एक ही लक्षण देकर उसके शब्दगत, अर्थगत तथा उभयये तीन भेद स्वीकार किये हैं । यमक आदि शब्दालङ्कारों तथा उपमा आदि अर्थालङ्कारों के भेदोपभेदों के जिस जाल की कल्पना पूर्ववर्ती आचार्यों ने की थी, उसके सरलीकरण की प्रवृत्ति रुय्यक में पायी जाती है ।
गत ;
रुय्यक के पूर्ववर्ती आचार्य मम्मट अपने समय तक अलङ्कार- शास्त्र के क्षेत्र में होने वाले अलङ्कार के स्वरूप निर्धारण सम्बन्धी ऊहापोहों का सम्यक् परीक्षण कर निष्कर्ष रूप में जिन अलङ्कारों के स्वरूप की स्थापना कर चुके थे, उनमें से प्रायः सभी अलङ्कारों को रुय्यक ने यत्किञ्चित् परिष्कार के साथ स्वीकार कर लिया है । मम्मट के कुछ अलङ्कारों के लक्षण की समीक्षा भी रुय्यक ने की है; किन्तु ऐसे अलङ्कारों की संख्या नगण्य है । कुछ अलङ्कारों के भेदोपभेदों की कल्पना भी उन्होंने स्वतन्त्र रूप से की है; पर अधिकांश अलङ्कारों के विषय में मम्मट की धारणा को उन्होंने यथावत् स्वीकार कर लिया है । अनेक अलङ्कारों के उदाहरण भी रुय्यक ने 'काव्यप्रकाश' से ही लिये हैं । निम्नलिखित अलङ्कारों के सम्बन्ध में मम्मट और रुय्यक की धारणा समान है: - चित्र, लाटानुप्रास, पुनरुक्तवदाभास, उपमा,
१. कन्हैयालाल पोद्दार, काव्यकल्पद्र ुम, द्वितीय भाग, प्राक्कथन, पृ० २०
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २१७
अनन्वय, उपमेयोपमा, स्मरण, रूपक, सन्देह, भ्रान्तिमान, अपह्न ुति, उत्प्र ेक्षा, अतिशयोक्ति, तुल्ययोगिता, दीपक, प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त, सहोक्ति, विनोक्ति, समासोक्ति, परिकर, अप्रस्तुतप्रशंसा, अर्थान्तरन्यास, पर्यायोक्त, व्याजस्तुति, आक्षेप, विरोध, विभावना, विशेषोक्ति, असङ्गति, सम, अन्योन्य, विशेष, व्याघात, कारणमाला, एकावली, सार, काव्यलिङ्ग, अनुमान, यथासंख्य, पर्याय, परिवृत्ति, परिसंख्या, समुच्चय, समाधि, प्रत्यनीक, प्रतीप, निमीलित, या मीलित, सामान्य, तद्गुण, अतद्गुण, उत्तर, सूक्ष्म, व्याजोक्ति, वक्रोक्ति, स्वभावोक्ति, भाविक, उदात्त, संसृष्टि और सङ्कर । सम, परिसंख्या, सूक्ष्म आदि अलङ्कारों के उदाहरण भी रुय्यक ने 'काव्यप्रकाश' से ही लिये हैं ।
यमक, छेकानुप्रास, वृत्त्यनुप्रास, अतिशयोक्ति, विषम तथा अधिक के सम्बन्ध में रुय्यक की धारणा मम्मट से मिलती-जुलती ही है । यमक के जो तीन भेद — दोनो पदों की सार्थकता, दोनों की निरर्थकता तथा एक की सार्थकता एवं एक की निरर्थकता के आधार पर — रुय्यक ने स्वीकार किये हैं, उन भेदों की सम्भावना मम्मट के यमक - लक्षण में 'अर्थ सति' कथन में ही थी । मम्मट इस आधार पर भेद-कल्पना को समीचीन नहीं मानते थे । रुय्यक की अतिशयोक्ति का सामान्य स्वरूप मम्मट की अतिशयोक्ति से भिन्न नहीं । इसमें उपमान के द्वारा उपमेय का निगरणपूर्वक अध्यवसान तथा कार्य और कारण के पौर्वापर्य का व्यतिक्रम दोनों आचार्यों को अभीष्ट है । रुय्यक ने मम्मट के 'प्रस्तुतस्य अन्यत्व' के स्थान पर भेद में अभेद, अभेद में भेद, सम्बन्ध में असम्बन्ध तथा असम्बन्ध में सम्बन्ध - इन चार अतिशयोक्तिप्रकारों की कल्पना की है। भेद में अभेद तथा अभेद में भेद की कल्पना उद्भट से ली गयी है । उपमेय के अन्यत्व - प्रकल्पन-रूप अतिशयोक्ति का जो उदाहरण आचार्य मम्मट के 'काव्यप्रकाश' में दिया गया है उसमें अभेद में भेद दिखाया गया है । अन्य प्रभोद - कल्पना का अवकाश भी मम्मट के उक्त लक्षण में ही था । मम्मट के विषम के चार भेदों में से तीन को ही रुय्यक ने स्वीकार किया है । वे हैं - विरूप- कार्य की उत्पत्ति, अनर्थ की उत्पत्ति तथा विरूप की घटना । विषम के सामान्य स्वरूप के सम्बन्ध में रुय्यक की धारणा मम्मट की धारणा से अभिन्न है | अधिक के स्वरूप की कल्पना रुय्यक ने मम्मट से कुछ स्वतन्त्र रूप से की है, यद्यपि दोनों के अधिकलक्षण का स्रोत समान रूप से रुद्रट का द्वितीय अधिक- लक्षण है । रुद्रट की धारणा थी कि महान आधार में स्थित अल्प आधेय भी यदि आधार से
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२१८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
( उत्कर्ष में ) बढ़ा-चढ़ा वणित हो तो अधिक अलङ्कार होता है।' बढ़ा-चढ़ा या अधिक उत्कर्षशाली होने ( अतिरिच्येत ) का अर्थ अधिक होना मान कर मम्मट ने अधिक का यह लक्षण दिया कि यदि महत् आधार से आधेय का महत्तर होना अथवा महत् आधेय से आधार का महत्तर होना ( तत्त्वतः उनके अल्प होने पर भी ) वर्णित हो तो अधिक अलङ्कार होता है।२ रुय्यक ने रुद्रट की अधिक परिभाषा के 'तनीयोऽपि अतिरिच्यते' की स्वमत से व्याख्या कर यह लक्षण दिया कि आश्रय की विपुलता में आश्रित की परिमिति तथा आश्रित की विपुलता में आश्रय की परिमिति के वर्णन से उत्पन्न चारुता में प्रस्तुत अलङ्कार होता है । इस अलङ्कार में आश्रय तथा आश्रित की अननुरूपता रुद्रट, मम्मट तथा रुय्यक को समान रूप से इष्ट है।
रसवत्, प्रय, ऊर्जस्वी, समाहित, भावोदय, भावसन्धि तथा भावशबलता अलङ्कारों के जिन स्वरूपों की कल्पना रुय्यक के 'अलङ्कार-सूत्र' में की गयी है, वे नवीन नहीं हैं । भावोदय, भावसन्धि एवं भावशबलता के स्वरूप का विवेचन मम्मट ने रसादि ध्वनि-निरूपण के क्रम में किया था। 'रसादि' पदः से उन्होंने रस के साथ रसाभास, भाव, भावाभास, भावशान्ति, भावोदय, भावसन्धि तथा भावशबलता को ग्रहण किया था। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जहाँ ये रसादि प्रधान रहते हैं वहाँ वे अलङ्कार्य होते हैं; किन्तु जहाँ वाक्यार्थ की प्रधानता रहती है और रस आदि उसके अङ्ग होकर आते हैं वहाँ व्यङ्ग यार्थ के गौण हो जाने के कारण रस, भाव, रसाभास, भावाभास तथा भावशान्ति आदि का पर्यवसान क्रमशः रसवत्, प्रय, ऊर्जस्वो तथा समाहित आदि अलङ्कार के रूप में होता है। यह ध्यातव्य है कि मम्मट ने १. यत्राधारे सुमहत्याधेयमवस्थितं तनीयोऽपि । अतिरिच्येत कथंचित्तदधिकमपरं परिज्ञेयम् ।।
-रुद्रट, काव्यालङ्कार, ६, २८ २. महतोर्यन्महीयांसावाश्रिताश्रययोः क्रमात् । आश्रयाश्रयिणौ स्यातां तनुत्वेऽप्यधिकं तु तत् ॥
-मम्मट, काव्यप्रकाश, १०,१२८ ३. आश्रयाश्रयि गोरनानुरूप्यमधिकम् ।-रुय्यक, काव्यालङ्कार सूत्र ४८
तथा तच्चाननानुरूप्यमाश्रयस्य वैपुल्येऽप्याश्रितस्य परिमितत्वाद् वा आश्रितस्य वैपुल्येऽप्याश्रयस्य परिमितत्वाद् वा स्यात् ।
-वही वृत्ति, पृ० १६६ ४. द्रष्टव्य-मम्मट, काव्यप्रकाश, ४, ४२ तथा उसकी.वृत्ति, पृ० ३४
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २१६ इस सन्दर्भ में अलङ्कार शब्द का प्रयोग सामान्य अर्थ में ही किया है, काव्यालङ्कार के विशेष अर्थ में नहीं । इसीलिए उन्होंने रसादि के गुणीभूत स्वरूप को अलङ्कार कहने पर भी उनका विवेचन अलङ्कार - निरूपण के सन्दर्भ में नहीं कर गुणीभूतव्यङय के अपराङ्ग-भेद के विवेचन-क्रम में किया है । अलङ्कारसम्प्रदाय के आचार्यों ने रस आदि को भी अलङ्कार - विशेष की सीमा में आबद्ध करने का यत्न किया है । रुय्यक अलङ्कारवाद के प्रबल समर्थक थे । अतः उन्होंने रस, भाव आदि के निबन्धन में रसवत्, प्रोय आदि अलङ्कारों की सत्ता स्वीकार कर ली । ध्वनि-प्रस्थान की स्थापना के पूर्व भामह, दण्डी, उद्भट आदि ने भी रसपेशल वाक्य में रसादि अलङ्कार का सद्भाव माना था । उद्भट ने रस के निबन्धन में रसवत्, भाव- निबन्धन में प्रय, रसाभास तथा भावाभास - निबन्धन में ऊर्जस्वी एवं रस-भाव आदि की शान्ति के निबन्धन में समाहित अलङ्कार का सद्भाव माना था । रुय्यक की धारणा इससे अभिन्न है । भावोदय, भावसन्धि तथा भावशबलता के स्वरूप के सम्बन्ध में रुय्यक की धारणा मम्मट की धारणा के ही समान है । रुय्यक के प्रय, ऊर्जस्वी तथा समाहित का भामह के इन्हीं नाम वाले अलङ्कारों से सम्बन्ध नहीं है ।
व्यतिरेक अलङ्कार के सम्बन्ध में रुय्यक की धारणा उद्भट आदि प्राचीन आचार्यों की धारणा के समान है । मम्मट से पूर्व उपमान की अपेक्षा उपमेय के आधिक्य - रूप व्यतिरेक के साथ उपमेय के हीनत्व-रूप व्यतिरेक की भी सत्ता स्वीकृत थी । मम्मट ने उसका केवल प्रथम रूप स्वीकार किया था । रुय्यक ने व्यतिरेक उक्त दोनों रूप स्वीकार किये हैं ।
१
श्लेष अलङ्कार की सामान्य धारणा प्राचीन आचार्यों की धारणा के समान है । मम्मट के काल तक श्लेष के दो भेद – शब्दश्लेष तथा अर्थश्ले ष - स्थापित हो चुके थे । रुय्यक ने दोनों को मिला कर एक शब्दार्थोभयगत श्लेष भेद की भी कल्पना कर ली है । अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की तरह शब्दश्लेष तथा अर्थश्लेष का पृथक्-पृथक् लक्षण-निरूपण नहीं कर रुय्यक ने श्लेष का एक सामान्य लक्षण देकर उक्त तीन भेदों का स्पष्टीकरण किया है । यदि अलङ्कार सर्वस्व को रुय्यक - कृत नहीं माना जाय, जैसा कि कुछ विद्वानों का मत है, तो उक्त भेद-कल्पना के श्र ेय के भागी वृत्तिकार (मङ खुक ? ) होंगे ।
१. भेदप्राधान्य उपमानादुपमेयस्याधिक्ये विपर्यये वा व्यतिरेकः ।
—रुय्यक, अलङ्कारसूत्र २८, उद्भट का काव्यालङ्कार, २,११ भी द्रष्टव्य २. विशेष्यस्यापि साम्ये द्वयोर्वोपादाने श्लेषः । रुय्यक, अलङ्कार सूत्र, ३३ ॥
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२२० ] __ अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण ___ रुय्यक ने निदर्शना को किञ्चित् नवीन रूप से परिभाषित किया है, यद्यपि उक्त अलङ्कार के सम्बन्ध में उनकी मान्यता मूलतः प्राचीन आचार्यों से बहुत भिन्न नहीं है। भामह ने सादृश्य के वाचक पद के बिना केवल क्रिया से विशिष्ट अर्थ का प्रदर्शन निदर्शना का लक्षण माना था। उनके अनुसार इसमें सादृश्य व्यङग्य रहता है । ' उद्भट आदि ने वस्तु सम्बन्ध के असम्भव या सम्भव होने पर उपमा में उसके पर्यवसान में निदर्शना का सद्भाव माना था ।२ रुय्यक ने वस्तु सम्बन्ध के असम्भव या सम्भव होने पर गम्यमान वस्तु के साथ उसके (प्रस्तुत वस्तु के) बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव की कल्पना में उक्त अलङ्कार माना है। इस प्रकार प्राचीनों के उपमानोपमेयभाव में पर्यवसान की कल्पना के स्थान पर बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव की कल्पना-मात्र नवीन है । बिम्ब-प्रतिबिम्ब की कल्पना दृष्टान्त से ली गयी है । रुय्यक की निदर्शना का दृष्टान्त से यह भेद है कि दृष्टान्त में परस्पर निरपेक्ष वाक्यार्थों का बिम्ब-प्रतिबिम्ब सम्बन्ध होता है और निदर्शना में प्रकृत वाक्यार्थ पर ही अन्य वाक्यार्थ का आरोप हो जाता है। इस प्रकार प्रस्तुत अलङ्कार में प्रकृत तथा गम्यमान अर्थ में बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव सम्बन्ध दिखाया जाता है। रुय्यक की निदर्शना-धारणा भामह तथा उद्भट ; दोनों की धारणा से प्रभावित है।
रुय्यक के मालादीपक अलङ्कार का स्वरूप पूर्ववर्ती आचार्यों के मालादीपक के स्वरूप से बहुत-कुछ मिलता-जुलता है। आचार्य दण्डी ने दीपक के माला-भेद के सम्बन्ध में यह मान्यता प्रकट की थी कि इसमें उत्तर-उत्तर स्थित वाक्य अपने-अपने पूर्ववर्ती वाक्य की अपेक्षा रखते हैं।४ मम्मट ने इसी धारणा को व्यक्त करने के लिए कहा था कि मालादीपक में पूर्व-पूर्व स्थित वाक्य अपने-अपने उत्तरवर्ती वाक्य का उपकार करते हैं ।" उत्तरवर्ती वाक्यों का पूर्ववर्ती वाक्यों की अपेक्षा रखने में तथा उनसे उपकृत होने में कोई मौलिक भेद नहीं है। मम्मट ने उपकारकारक के अर्थ में मालादीपक की
१. क्रिययैव विशिष्टस्य तदर्थस्योपदर्शनात् ।
ज्ञेया निदर्शना नाम यथेववतिभिविना॥-भामह, काव्यालङ्कार, ३, ३३ २. उद्भट, काव्यालङ्कार, ५, ३१ ३. सम्भवतासम्भवता वा वस्तुसम्बन्धेन गम्यमानं प्रतिबिम्बकरणं निदर्शना।
-रुय्यक, अलङ्कारसूत्र, २७ ४. दण्डी, काव्यादर्श, २, १०८ ५. मम्मट, काव्यप्रकाश, १०, १५७ पृ० २५४
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[२२१ लक्षण-कारिका में 'गुणावह' शब्द का प्रयोग किया था। 'गुणावह' का 'उपकारक' अर्थ उन्हें अभीष्ट था, यह उस कारिका की वृत्ति से स्पष्ट है। रुय्यक ने मालादीपक का लक्षण मम्मट के ही मतानुसार दिया है। 'अलङ्कार सर्वस्व' में सूत्र में प्रयुक्त 'गुणावह' का अर्थ उत्कर्षकारक मान कर यह अर्थ किया गया है कि जहाँ पूर्व-पूर्व स्थित वाक्य से उत्तर-उत्तर में स्थित वाक्य के उत्कर्ष का निबन्धन हो, वहाँ मालादीपक अलङ्कार होता है ।' स्पष्ट है कि प्रस्तुत अलङ्कार के सम्बन्ध में रुय्यक की मान्यता मम्मट की मान्यता से अभिन्न है। रुय्यक ने मम्मट के मतानुसार इसे परिभाषित किया, इसका एक प्रमाण यह भी है कि उस परिभाषा के स्पष्टीकरण के लिए मालादीपक के 'काव्यप्रकाश' में उद्ध त उदाहरण का ही उपयोग किया गया है। ___ रुय्यक के 'अलङ्कार सूत्र' में जिन नवीन अलङ्कारों का विवेचन हुआ है, उनके उद्गम-स्रोत की समीक्षा प्रस्तुत सन्दर्भ में अपेक्षित है। रुय्यक ने निम्नलिखित नवीन अलङ्कारों का उल्लेख किया है-(१) परिणाम, (२) उल्लेख, (३) विचित्र, (४) अथ पत्ति और (५) विकल्प । परिणाम
परिणाम रुय्यक की नवीन कल्पना है। जहां आरोप्यमाण का प्रकृत के रूप में उपयोग हो, वहाँ रुय्यक के अनुसार परिणाम नामक अलङ्कार होता है। इसका स्वरूप रूपक से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। दोनों में प्रमुख भेद यह है कि रूपक में केवल प्रकृत पर अप्रकृत का आरोप होता है; पर परिणाम में आरोप के साथ ही आरोप्यमाण का प्रकृत में उपयोग भी दिखाया जाता है। इसमें समासोक्ति की तरह अप्रकृत के व्यवहार का प्रकृत पर आरोप होने की धारणा व्यक्त की गयी है। अप्रकृत की प्रकृतार्थ में उपयोगिता की धारणा नवीन है। उल्लेख
रुय्यक का उल्लेख नाम्ना नवीन; किन्तु स्वरूपतया प्राचान है। इसका स्वरूप आचार्य दण्डी के रूपक-भेद 'हेतुरूपक' के समान है। दण्डी ने हेतुरूपक का जो उदाहरण दिया है, उसमें रुय्यक का उल्लेख-लक्षण, घटित १. पूर्वपूर्वस्य तूत्तरोत्तरं प्रत्युत्कर्ष निबन्धनत्वे मालादीपकम् ।
-रुय्यक, अलं० सूत्र, अलं० सर्वस्व, पृ० १७४
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२२२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण होता है। दण्डी के अनुसार इस रूपक-प्रकार में विषय पर आरोप्यमाण के हेतु का कथन होता है । ' रुय्यक ने भी उल्लेख में एक वस्तु के अनेक रूप में ग्रहण करने के हेतु के निर्देश पर बल दिया है ।२ स्पष्ट है कि प्रस्तुत अलङ्कार की स्वरूप-कल्पना का उत्स ‘हेतुरूपक' है । विचित्र
__रुय्यक की मान्यता है कि जहाँ विपरीत कार्य के लिए अर्थात् इष्टविरोधी फल के लिए यत्न दिखाया जाता हो, वहाँ विचित्र नामक अलङ्कार होता है। विषम से इसका यह भेद बताया गया है कि विषम में स्वतः अभीष्ट से विपरीत फल हो जाता है; पर इसमें अभीप्सित फल से विपरीत फल के लिए यत्न किया जाता है। विचित्र रुय्यक की मौलिक उद्भावना है। अर्थापत्ति
अलङ्कार के क्षेत्र में अर्थापत्ति की अवतारणा सर्वप्रथम रुय्यक के 'अलङ्कार-सूत्र' में हुई; किन्तु इसके स्वरूप को रुय्यक की उद्भावना नहीं माना जा सकता । रुय्यक ने स्वयं यह स्वीकार किया है कि यह ( अर्थापत्ति ) वाक्यविदों का न्याय है।५ एक के कथन से दूसरे का स्वतः सिद्ध होना, जिसे दण्डापूपन्याय से स्पष्ट किया गया है, अर्थापत्ति है। शब्दशास्त्र की इस प्राचीन-धारणा को ही रुय्यक ने अलङ्कार के रूप में स्वीकार किया है। आचार्य भरत ने अर्थापत्ति नामक लक्षण का उल्लेख किया था। स्पष्ट है
१. दण्डी, काव्यादर्श, २,८५-८६ । काव्यादर्श की कुसुमप्रतिमा टीका में __ कहा गया है कि दण्डी के उक्त हेतुरूपक के उदाहरण में विश्वनाथ आदि
परवर्ती आचार्य उल्लेख अलङ्कार मानते हैं। द्रष्टव्य पृ० ११८ २. एकस्यापि निमित्तवशादनेकधा ग्रहण उल्लेखः।
-रुय्यक, अलङ्कारसूत्र, १६ ३. स्वविपरीतफलनिष्पत्तये प्रयत्नो विचित्रम् ।-वही, ४७ ४. द्रष्टय-वही, समुद्रबन्धकृत टीका, पृ० १६५ ५. दःडापूपिकयार्थान्तरापतनमापत्तिः।-रुय्यक, अलङ्कारसूत्र, ६३ ६. अर्थान्तरस्य कथने यत्राऽन्योऽर्थः प्रतीयते।। वाक्यमाधुर्यसम्पन्ना सार्थापत्तिरुदाहृता ।।
-भरत, नाट्यशास्त्र, १६,३२ (अनुबन्ध)
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २२३
'कि 'अलङ्कार-सूत्र' में उल्लिखित अर्थापत्ति का नाम रूप प्राचीन है, अलङ्कार के रूप में उसकी स्वीकृति - - मात्र नवीन ।
विकल्प
विकल्प की धारणा भी प्राचीन है; किन्तु अलङ्कार के रूप में उसकी स्वीकृति नवीन । समान बलशाली परस्पर विरोधी पदार्थों की युगपत् प्राप्ति में विकल्प की स्थिति आती है । रुय्यक ने विकल्प का यही स्वरूप स्वीकार किया है । साधारण विकल्प से विकल्प अलङ्कार का कुछ स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध करने के लिए रुय्यक ने इस अलङ्कार को औपम्य- गर्भ माना है । २ स्पष्टतः, विकल्प की पूर्व निर्धारित मान्यता के साथ उपमा - धारणा के योग से प्रस्तुत अलङ्कार का स्वरूप निर्मित है ।
रुय्यक की अलङ्कार-धारणा के उक्त विवेचन से प्राप्त निष्कर्ष निम्नलिखित हैं
:–
(क) अलङ्कारों की स्वरूप-मीमांसा में रुय्यक बहुलांशतः मम्मट से सहमत हैं ।
(ख) अलङ्कार - विशेष के भेदोपभेदों के अधिकाधिक सरलीकरण का प्रयास रुय्यक ने किया है ।
(ग) अलङ्कारों के लक्षण को सरल सूत्रों में आबद्ध करना रुय्यक की विशेषता है ।
(घ) परिणाम, उल्लेख, विचित्र, अर्थापत्ति तथा विकल्प --- इन पाँच नवीन अलङ्कारों का उल्लेख रुय्यक ने किया है । इनमें से उल्लेख की कल्पना दण्डी के 'हेतुरूपक' के आधार पर की गयी है । अर्थापत्ति तथा विकल्प के सम्बन्ध में पूर्वप्रचलित मान्यता को ही स्वीकार कर रुय्यक ने काव्य के अलङ्कार के रूप में उनकी कल्पना कर ली । परिणाम का स्वरूप अंशतः रूपक के समान होने पर भी अंशत: रुय्यक के द्वारा कल्पित है । उसकी कल्पना का श्रेय – आंशिक ही सही - रुय्यक को अवश्य है । विचित्र रुय्यक की मौलिक उद्भावना है ।
१. तुल्यबलविरोधो विकल्पः । - रुय्यक, अलङ्कार-सूत्र, ६४ २. औपम्यगर्भत्वाच्चात्र चारुत्वम् । - अलङ्कार - सर्वस्व पृ० १९६
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२२४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण (ङ) अलङ्कार प्रस्थान के अनुयायी होने के कारण रुय्यक ने उद्भट
आदि की तरह रस, भाव, तदाभास आदि के निबन्ध में रसवत्, प्रय, ऊर्जस्वी आदि अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार किया है।
हेमचन्द्र जैन आचार्य हेमचन्द्र ने अपने 'काव्यानुशासन' में छह शब्दालङ्कारों तथा उनतीस अर्थालङ्कारों का विवेचन किया है। पूर्वप्रतिपादित अलङ्कारों में से अनेक को अस्वीकार कर उक्त परिमित संख्या को स्वीकार करने में कोई युक्ति नहीं है । हेमचन्द्र के पूर्व अलङ्कारों को संख्या-परिमिति का प्रयास वामन तथा कुन्तक ने भी किया था। उनके उस आयास के पीछे उनका मौलिक दृष्टिकोण स्पष्ट था। केवल उपमामूलक अलङ्कारों का अस्तित्व स्वीकार कर उन्होंने शेष का अलङ्कारत्व अस्वीकार कर दिया था। हेमचन्द्र की अलङ्कार मीमांसा के क्षेत्र में इस प्रकार की कोई नवीन स्थापना या स्वतन्त्र दृष्टि नहीं है । अलङ्कार के सामान्य स्वरूप तथा काव्य में उसके स्थान-निरूपण की दृष्टि से वे आचार्य मम्मट के अनुयायी हैं। मम्मट का 'काव्यप्रकाश' ही हेमचन्द्र के 'काव्यानुशासन' का आकर-ग्रन्थ है। फिर भी मम्मट के बासठ अर्थालङ्कारों में से केवल उनतीस की ही सत्ता हेमचन्द्र को मान्य है। काव्यशास्त्र में नतन सिद्धान्त की स्थापना की दृष्टि से हेमचन्द्र का कोई योगदान नहीं है । पूर्व प्रचलित काव्य-सिद्धान्तों का आकलन ही उनका उद्देश्य रहा है । प्रस्तुत सन्दर्भ में हम उनके द्वारा विवेचित अलङ्कारों के स्वरूप का पूर्ववर्ती आचार्यों के अलङ्कारों से साम्य-वैषम्य की दृष्टि से परीक्षण करेंगे।
हेमचन्द्र के 'काव्यानुशासन' में निम्नलिखित अलङ्कारों का लक्षणनिरूपण किया गया है
शब्दालङ्कार-(१) अनुप्रास, (२) यमक, (३) चित्र, (४) श्लेष, (५) वक्रोक्ति और (६) पुनरुक्ताभास ।
अर्थालङ्कार-(१) उपमा, (२) उत्प्रेक्षा, (३) रूपक, (४) निदर्शन, (५) दीपक, (६) अन्योक्ति, (७) पर्यायोक्ति, (८) अतिशयोक्ति, (६) आक्षेप, (१०) विरोध, (११) सहोक्ति, (१२) समासोक्ति, (१३) जाति, (१४) व्याजस्तुति, (१५) श्लेष, (१६) व्यतिरेक, (१७) अर्थान्तरन्यास,
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २२५
(१८) ससन्देह, (१६) अपह्न ुति, (२०) परावृत्ति, (२१) अनुमान, (२२) स्मृति, (२३) भ्रान्ति, (२४) विषम, (२५) सम, (२६) समुच्चय, ( २७ ) परिसंख्या. (२८) कारणमाला तथा (२६) सङ्कर ।
अनुप्रास की सामान्य धारणा मम्मट से अभिन्न है । हेमचन्द्र ने यद्यपि छेकानुप्रास तथा वृत्यनुप्रास; इन दो अनुप्रास भेदों का मम्मट की तरह नाम्ना निर्देश नहीं किया है तथापि उक्त भेदों की स्वीकृति स्पष्ट है । उन्होंने एक की असकृत् आवृत्ति तथा अनेक की सकृत् और असकृत् आवृत्ति के उदाहरण दिये हैं । मम्मट ने एक या अनेक व्यञ्जन की असकृदावृत्ति को वृत्यनुप्रास तथा अनेक व्यञ्जन की सकृत् अर्थात् एक वार आवृत्ति को छेकानुप्रास नाम से अभिहित किया था । तात्पर्य भेदसे समानार्थक पद की आवृत्ति में मम्मट के मतानुसार हेमचन्द्र ने भी लाटानुप्रास अलङ्कार माना है । हेमचन्द्र लाटानुप्रास की गणना अनुप्रास से पृथक् करना समीचीन नहीं समझते । वे उसे अनुप्रास का ही भेद मानते हैं । अनुप्रास के वर्णावृत्ति या व्यञ्जनावृत्ति-लक्षण की व्याप्तिपदावृत्ति रूप लाटानुप्रास में नहीं होने के कारण ही कुछ आचार्यों को लाटानुप्रास का अनुप्रास से स्वतन्त्र रूप से उल्लेख करने की आवश्यकता जान पड़ी होगी । वस्तुतः छेक, वृत्ति आदि की तरह लाट को भी अनुप्रास का भेदमात्र ही स्वीकार करना चाहिए । अनुप्रास का सामान्य लक्षण इतना व्यापक होना चाहिए कि लाटानुप्रास के स्वरूप में उसका व्यभिचार नहीं हो । अस्तु, यहाँ इतना ही निर्देश अभीष्ट है कि हेमचन्द्र की अनुप्रास-धारणा मम्मट की धारणा से अभिन्न है । हेमचन्द्र ने यमक का स्वरूप - निरूपण भी मम्मट के ही मतानुसार किया है।
चित्र - अलङ्कार के विवेचन में हेमचन्द्र ने मम्मट के मत को तो स्वीकार किया ही है, उसके सम्बन्ध में दण्डी आदि की मान्यता को भी ग्रहण किया है । आकार - चित्र की धारणा मम्मट से ली गयी है; पर स्वरादि के नियम से सम्बद्ध चित्र तथा च्युत, गूढ़ आदि चित्र प्रकार की धारणा दण्डी तथा रुद्रट से गृहीत है । दण्डी ने यमक-प्रपञ्च के विवेचन-क्रम में स्वर- व्यञ्जन के नियम के अनेक भेदों का उल्लेख किया था और विस्मयजनक होने के कारण उन्हें चित्र कहा था । रुद्रट ने खड्गादि आकृति बद्ध चित्र का विवेचन करने के उपरान्त च्युतक, गूढ़ आदि का निर्देश किया था और उन्हें बौद्धिक क्रीड़ामात्र में उपयोगी कहा था। हेमचन्द्र ने चित्र अलङ्कार विषयक उक्त
१. द्रष्टव्य - रुद्रट, काव्यालङ्कार, ५, २४
१५
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२२६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
मान्यताओं को मिलाकर चित्र की परिभाषा दी है ।' हेमचन्द्र की शब्दश्लेषधारणा मम्मट की धारणा से भिन्न नहीं ।
वक्रोक्ति के दो भेद मम्मट ने स्वीकार किये थे : - श्लेष और काकु । हेमचन्द्र ने उनमें से केवल श्लेष - वक्रोक्ति का अलङ्कारत्व स्वीकार किया है। काकु को वे राजशेखर की तरह पाठधर्म मानते हैं, अलङ्कार नहीं । उनकी श्लेष-वक्रोक्ति का स्वरूप मम्मट की श्लेष - वक्रोक्ति से अभिन्न है । हेमचन्द्र ने मम्मट के पुनरुक्तवदाभास को पुनरुक्ताभास कहा है । उसके लक्षण निरूपण में वे मम्मट से पूर्णतः सहमत हैं । स्पष्ट है कि हेमचन्द्र की शब्दालङ्कार-धारणा पर मम्मट की धारणा का पुष्कल प्रभाव है । शब्दगत अलङ्कार के क्षेत्र में हेमचन्द्र ने कोई नूतन उद्भावना नहीं की है ।
उपमा
उपमा-अलङ्कार के सम्बन्ध में प्राचीन धारणा को ही हेमचन्द्र ने स्वीकार किया है । मम्मट की पद्धति पर उन्होंने प्रस्तुत अलङ्कार के भेदोपभेदों का विवेचन किया है। उन्होंने रुद्रट के रशनोपमा - भेद को भी स्वीकार किया है । मालोपमा के साथ उपमेयोपमा तथा अनन्वय को भी हेमचन्द्र ने उपमा का ही भेद माना है । रुद्रट ने भी उभयोपमा या उपमेयोपमा तथा अनन्वय की स्वतन्त्र सत्ता नहीं मान कर उपमा-भेद के रूप में ही उनका विवेचन किया था । मम्मट ने इन अलङ्कारों का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया है । स्पष्टतः हेमचन्द्र की मान्यता रुद्रट की मान्यता के अधिक निकट है । हेमचन्द्र ने उपमा - लक्षण में साधर्म्य के साथ 'हृद्य' विशेषण का प्रयोग किया है । यह वस्तुतः कोई नवीन स्थापना नहीं है । अलङ्कार मात्र के मूल में हृदयावर्जक होने की भावना निहित है ।
उत्प्र ेक्षा तथा रूपक के सम्बन्ध में हेमचन्द्र की मान्यता पूर्ववर्ती आचार्यों की मान्यता से अभिन्न है ।
निदर्शना के लक्षण-निरूपण में हेमचन्द्र ने पूर्ववर्ती आचार्यों के दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास एवं निदर्शना अलङ्कारों की धारणा को मिला-जुला कर खिचड़ी पका दी है । इस प्रकार वे इष्टार्थ की सिद्धि के लिए दृष्टान्त के निर्देश में
१. स्वरव्यञ्जनस्थानगत्याकारनियमच्युतगूढ़ा दि चित्रम् ।
- हेमचन्द्र, काव्यानुशासन ५, पृ० २५७ २. अर्थभेदभिन्नानां भङ्गाभङ्गाभ्यां युगपदुक्ति: श्लेषः - वही, ५, पृ० २७२
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अलङ्कार-धारणा का विकास
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निदर्शना अलङ्कार मानते हैं।' सामान्य से विशेष के समर्थन को तो वे अर्थान्तरन्यास कहते हैं; पर विशेष से विशेष एवं सामान्य के समर्थन को निदर्शना ।। उक्त अलङ्कारों के स्वरूप को मिला देने के कारण ही हेमचन्द्र इससे पृथक् दृष्टान्त की सत्ता नहीं मानते। भामह और दण्डी ने भी दृष्टान्त की सत्ता नहीं मानी थी। हेमचन्द्र ने निदर्शना के जो उदाहरण दिये हैं, उनमें देवीभाव गमिता....'आदि श्लोक वस्तुतः प्रतिवस्तूपमा का तथा 'क्व सूर्यप्रभवो वंशः ....' आदि श्लोक निदर्शना का उदाहरण है। उक्त दो अलङ्कारों के पृथक्-पृथक् अस्तित्व की स्थापना हो जाने के उपरान्त उनके वैशिष्ट्य के विगलन तथा एकीकरण में कोई सबल युक्ति नहीं दी गयी है।
दीपक, अन्योक्ति तथा पर्यायोक्त के सम्बन्ध में हेमचन्द्र ने आचार्य मम्मट की धारणा को यथावत् स्वीकार कर लिया है। हेमचन्द्र की अन्योक्ति मम्मट की अप्रस्तुत-प्रशंसा की ही अपर संज्ञा है ।
अतिशयोक्ति की सामान्य-धारणा मम्मट आदि से ही ली गयी है। इसके भेदों की विवेचना में हेमचन्द्र ने अपने पूर्ववर्ती आचार्य रुय्यक की मान्यता को स्वीकार किया है। मम्मट के भेद में अभेद तथा अभेद में भेद, इन दो अतिशयोक्ति-प्रकारों के साथ रुय्यक ने दो और प्रकारों की—सम्बन्ध में असम्बन्ध तथा असम्बन्ध में सम्बन्ध-की कल्पना की थी। हेमचन्द्र ने उक्त चारो अतिशयोक्ति-भेदों को स्वीकार किया है।
आक्षेप. विरोध या विरोधाभास, सहोक्ति, समासोक्ति, जाति या स्वभावोक्ति, व्याजस्तुति, श्लेष तथा व्यतिरेक के विषय में हेमचन्द्र की मान्यता मम्मट की मान्यता से अभिन्न है। जाति स्वभावोक्ति का पर्याय है।
आचार्य मम्मट की अर्थान्तरन्यास-परिभाषा को हेमचन्द्र ने अंशतः ही स्वीकार किया है। मम्मट साधर्म्य तथा वैधर्म्य के द्वारा सामान्य का विशेष से तथा विशेष का सामान्य से समर्थन अर्थान्तरन्यास का लक्षण मानते थे।
१. इष्टार्थसिद्ध्य दृष्टान्तो निदर्शनम् ।-वही, ६, पृ० ३०२ २. या सामान्यस्य विशेषस्य वा विशेषेण समर्थनं तन्निदर्शनम् । यत्र तु विशेषस्य सामान्येन समर्थनं सोऽर्थान्तरन्यासः ........।
-वही, व्याख्या, पृ० ३०३
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२२८ ]
अलङ्कार-धारणाः विकास और विश्लेषण
हेमचन्द्र साधर्म्य तथा वैधर्म्य के द्वारा केवल विशेष का सामान्य से समर्थन इसका लक्षण मानते हैं।
हेमचन्द्र के ससन्देह का स्वरूप मम्मट के ससन्देह के स्वरूप से मिलताजुलता ही है। मम्मट की तरह हेमचन्द्र ने भी इस अलङ्कार के निश्चयगर्भ तथा निश्चयान्त भेद स्वीकार किये हैं । वे भी मम्मट की तरह सन्देह के भेद की उक्ति तथा अनुक्ति; ये दो भेद स्वीकार करते हैं । सन्देह के स्वरूप-निरूपण के सम्बन्ध में इतनी सहमति होने पर भी हेमचन्द्र ने उसके लक्षण में अलङ्कारान्तर की छाया के गर्भीकरण तथा तात्त्विक असन्देह में भी सन्देह की कल्पना की बात अपनी ओर से कही है। निश्चयान्त सन्देह में तो सन्देह का निवारण कवि कर ही देता है। वस्तुतः, सन्देह अलङ्कार में सन्देह तो कविकल्पित ही होता है। मम्मट आदि को भी वक्ता के द्वारा सन्देह-कल्पना मान्य थी। अतः, इसे हेमचन्द्र की नवीन कल्पना नहीं माना जा सकता। रही अलङ्कारान्तर की छाया के गर्भीकरण की बात ! ऐसा लगता है कि सन्देह-सङ्कर की धारणा से, जिसमें अनेक अलङ्कारों में सन्देह होता है, अलङ्कारान्तर की छाया की धारणा ली गयी है।
अपह्नति में प्रकृत के अपलाप की धारणा मम्मट आदि आचार्यों से ली गयी है। मम्मट आदि पूर्ववर्ती आचार्यों ने अप्रस्तुत के द्वारा प्रस्तुत के अपलाप में अर्थात् प्रस्तुत के अपलाप और अप्रस्तुत की स्थापना में ही अपह्न ति मानी थी। हेमचन्द्र ने इसे तो स्वीकार किया ही, प्रस्तुत के द्वारा प्रस्तुत के अपलाप को भी अपह नुति का लक्षण मान लिया। इस प्रकार प्राचीन आचार्यों के व्याजोक्ति को अपह्न ति का अङ्ग बना दिया। प्रस्तुत के द्वारा प्रस्तुत के अपलाप का जो उदाहरण 'काव्यानुशासन' में दिया गया है, वह 'काव्यप्रकाश" में दिये गये व्याजोक्ति के उदाहरण से अभिन्न है। हेमचन्द्र ने व्याजोक्ति का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं माना है।
परावृत्ति या परिवृत्ति, अनुमान, स्मृति तथा भ्रान्ति की धारणा मम्मट की धारणा से अभिन्न है । हेमचन्द्र ने मम्मट के विषम का केवल एक भेदक्रिया के अभीष्ट फल से विपरीत फल की प्राप्ति-स्वीकार किया है। सम, समुच्चय, परिसंख्या, तथा कारणमाला के स्वरूप के सम्बन्ध में हेमचन्द्र १. विशेषस्य सामान्येन साधर्म्यवैधाभ्यां समर्थनमर्थान्तरन्यासः ।
हेमचन्द्र, काव्यानुशासन, ६, पृ०३३४
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २२६
मम्मट से पूर्णतः एकमत हैं। सङ्कर और संसृष्टि के स्थान पर हेमचन्द्र ने केवल सङ्कर का विवेचन किया है। संसृष्टि तथा सन्देह-सङ्कर को इसी . का अङ्ग माना गया है। ___इस विवेचन से स्पष्ट है कि हेमचन्द्र के 'काव्यानुशासन' में अलङ्कारविषयक कोई नवीन उद्भावना नहीं हुई है।
वाग्मट हेमचन्द्र के प्रायः समसामयिक जैन आचार्य वाग्भट (प्रथम) ने पूर्व-प्रचलित अलङ्कारों में से चार शब्दालङ्कारों तथा पैंतीस अर्थालङ्कारों का विवेचन किया है। शब्दगत श्लेष तथा पुनरुक्तवदाभास या पुनरुक्ताभास, जो हेमचन्द्र के काव्यानुशासन में स्वीकृत हैं, 'वाग्भटालङ्कार' में उल्लिखित नहीं हैं। अर्थालङ्कारों की संख्या एवं संज्ञा के सम्बन्ध में भी उन दोनों जैन आचार्यों में मतैक्य नहीं है। हेमचन्द्र ने जहाँ उनतीस अर्थालङ्कारों का उल्लेख किया था, वहाँ वाग्भट ने पैंतीस अलङ्कारों का उल्लेख किया है। 'वाग्भटालङ्कार' में हेमचन्द्र के द्वारा विवेचित सभी अलङ्कार स्वीकृत नहीं हैं । हेमचन्द्र के उनतीस अलङ्कारों में से पाँच का वाग्भट ने नाम्ना भी उल्लेख नहीं किया है। इस प्रकार केवल चौबीस अर्थालङ्कार 'काव्यानुशासन' तथा 'वाग्भटालङ्कार' में सामान्य रूप से उल्लिखित हैं। वाग्भट ने प्राचीन आचार्यों की रचनाओं से ऐसे ग्यारह अर्थालङ्कार ग्रहण किये हैं, जो हेमचन्द्र के द्वारा अगृहीत हैं। ___ 'वाग्भटालङ्कार' में उल्लिखित अर्थालङ्कार निम्नलिखित हैं-(१) उपमा, (२) उत्प्रक्षा, (३) रूपक, (४) दीपक, (५) अप्रस्तुतप्रशंसा, (६) पर्यायोक्ति, (७) अतिशय, (८) आक्षेप, (६) विरोध, (१०) सहोक्ति, (११) समासोक्ति, (१२) जाति, (१३) श्लेष, (१४) व्यतिरेक, (१५) अर्थान्तरन्यास, (१६) संशय, (१७) अपह्नति, (१८) परिवृत्ति, (१६) अनुमान, (२०) भ्रान्तिमान्, (२१) विषम, (२२) समुच्चय, (२३) परिसंख्या, (२४) सङ्कर, (२५) प्रतिवस्तूपमा, (२६) दृष्टान्त, (२७) तुल्ययोगिता, (२८) विभावना, (२६) हेतु, (३०) समाहित, (३१) यथासंख्य, (३२) अवसर, (३३) सार, (३४) एकावली और (३५) प्रश्नोत्तर ।
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२३० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
हेमचन्द्र के द्वारा स्वीकृत निदर्शना, व्याजस्तुति, स्मृति, सम तथा कारणमाला; इन पाँच अलङ्कारों का उल्लेख वाग्भट ने नहीं किया है ।
प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त, तुल्ययोगिता, विभावना, हेतु, समाहित, यथासंख्य, अवसर, सार, एकावली तथा प्रश्नोत्तर; इन ग्यारह अलङ्कारों का उल्लेख हेमचन्द्र ने नहीं किया है । वाग्भट ने इनका भी विवेचन अपने ग्रन्थ में किया है । प्रस्तुत सन्दर्भ में वाग्भट के अलङ्कारों का पूर्ववर्ती आचार्यों के अलङ्कारों से सम्बन्ध का परीक्षण अभिप्र ेत है ।
अनुप्रास, यमक, चित्र तथा वक्रोक्ति शब्दालङ्कारों का स्वरूप हेमचन्द्र की तरह वाग्भट ने भी मम्मट तथा रुय्यक के ही मतानुसार विवेचित किया है ।
उपमा के सामान्य स्वरूप के सम्बन्ध में वाग्भट मम्मट आदि आचार्यों की मान्यता सहमत हैं । हेमचन्द्र की तरह उन्होंने भी अनन्वय, उपमेयोपमा तथा मालोपमा को उपमा का ही भेद स्वीकार किया है । मालोपमा को उन्होंने अनेकोपमान -मूला उपमा कहा है । उन्होंने अनेक उपमेय-मूला उपमा की भी कल्पना की है ।' आचार्य भरत ने 'नाट्य-शास्त्र' में उपमा के भेदों का निरूपण उपमेय तथा उपमान की संख्या के आधार पर किया था । वे एक उपमेय का एक उपमान से अथवा अनेक उपमान से और अनेक उपमेय का एक अथवा अनेक उपमान से सादृश्य-प्रतिपादन में उपमा के तत्तद्भेद मानते थे । २ वाग्भट की अनेकोपमेय-मूला उपमा-धारगा आचार्य भरत की उक्त धारणा से अभिन्न है ।
उत्प्रेक्षा तथा रूपक अलङ्कारों के स्वरूप का विवेचन वाग्भट मम्मट आदि आचार्यों की मान्यता के अनुरूप ही किया है ।
दीपक के सम्बन्ध में वाग्भट की धारणा भरत, भामह आदि प्राचीन आचार्यों की धारणा से अभिन्न है ।
भामह आदि प्राचीन आचार्यों के मत का अनुसरण करते हुए व ग्भट ने अप्रस्तुत - प्रशंसा का लक्षण अप्रस्तुत अर्थात् उपमान की प्रशंसा या स्तुति को ही माना है । प्राचीन आचार्यों ने स्तुति या प्रशंसा से अभिप्राय केवल वर्णन का माना था । अतः अप्रस्तुत के वर्णन से प्रस्तुत के बोध में वे अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार मानते थे । मम्मट आदि ने इसे अधिक स्पष्ट रूप से परिभाषित
१. वाग्भटालङ्कार, ४, ५६
२. एकस्यैकेन सा कार्या ह्यनेकेनाथवा पुनः ।
अनेकस्य तथैकेन बहूनां बहुभिस्तथा ॥ - भरत, नाट्यशास्त्र, १६,४२
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[२३१
किया है। कुछ आचार्यों ने पूर्वाचार्यों की अप्रस्तुतप्रशंसा-परिभाषा में प्रयुक्त स्तुति शब्द का अर्थ उत्कर्ष-कथन मान कर अप्रस्तुत के गुणोत्कर्ष-वर्णन में या उसकी स्तुति करने में उक्त अलङ्कार मान लिया था। वाग्भट ने प्रशंसा का अर्थ स्पष्ट नहीं किया है। उनके द्वारा उद्धत प्रस्तुत अलङ्कार के उदाहरण से लगता है कि वे प्रशंसा का अर्थ उत्कर्षगान ही समझते हैं।'
पर्यायोक्ति, अतिशय या अतिशयोक्ति, आक्षेप तथा विरोध अलङ्कारों के स्वरूप का प्रतिपादन वाग्भट ने हेमचन्द्र की ही तरह मम्मट आदि पूर्ववर्ती आचार्यों के मतानुसार किया है। उनकी सहोक्ति का स्वरूप भी पूर्वाचार्यों की महोक्ति से मिलता-जुलता ही है। नवीनता यह है कि प्रस्तुत और अप्रस्तुत के सहकथन की जगह उन्होंने कारण और कार्य के सह-भाव-कथन को सहोक्ति माना है। ___ वाग्भट ने समासोक्ति की परिभाषा में उसे पूर्ववर्ती आचार्यों की अप्रस्तुतप्रशंसा या अन्योक्ति के समकक्ष बना दिया है। 3 'अप्रस्तुत-प्रशंसा' के लक्षण में अपस्तुन की स्तुति का गुगोत्कर्ष-वर्णन अर्थ लगा कर उन्होंने मम्मट आदि की अप्रस्तुत प्रशंसा से उसकी कुछ भिन्न प्रकृति मान ली और प्राचीन आचार्यों की अप्रस्तुत-प्रशंसा-परिभाषा के आधार पर समासोक्ति की स्वरूप-कल्पना कर ली। वस्तुतः प्राचीन आचार्यों ने समासोक्ति तथा अप्रस्तुत-प्रशंसा को विपरीत-स्वभावा माना था । समासोक्ति में प्रस्तुत के कथन से अप्रस्तुत की व्यञ्जना होती है तथा अप्रस्तुत-प्रशंसा में अप्रस्तुत के कथन से प्रस्तुत का बोध होता है । वाग्भट ने अप्रस्तुत के कथन से अभीप्सित या प्रस्तुत अर्थ के बोधन में समासोक्ति अलङ्कार मान लिया है। इसे समासोक्ति के सम्बन्ध में वाग्भट की नवीन स्थापना नहीं कहा जा सकता। समासोक्ति-परिभाषा में यह नवीनता-यदि इसे नवीनता कहा जाय-समासोक्ति तथा अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कारों के सम्बन्ध में पूर्ववर्ती आचार्यों की धारणा को स्पष्ट रूप से समझ पाने की अक्षमता का परिणाम है।
जाति या स्वभावोक्ति, श्लेष तथा व्यतिरेक के सम्बन्ध में वाग्भट धारणा मम्मट, रुय्यक आदि आचार्यों की धारणा से अभिन्न है ।
१. द्रष्टव्य-वाग्भटालङ्कार, ४, १३४-३५ २. सहोक्तिः सा भवेद्यत्र कार्यकारणयोः सह ।
समुत्पत्तिकथा हेतोर्वक्तुतज्जन्मशक्तताम् ।। वही,४,११६ ३. द्रष्टव्य-वही, ४,६५-६६
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२३२ ]
'अलङ्कार- धारणा : विकास और विश्लेषण
अर्थान्तरन्यास का सामान्य लक्षण पूर्ववर्ती आचार्यों की तद्विषयक मान्यता के अनुकूल ही कल्पित है । वाग्भट ने उसके दो भेद स्वीकार किये हैं: - श्लिष्ट तथा अश्लिष्ट । आचार्य दण्डी ने अर्थान्तरन्यास के अनेक भेदों में श्लेषाबिद्ध या श्लिष्ट विशेषणमूलक अर्थान्तरन्यास-भेद भी माना था । वाग्भट के उक्त भेद-निरूपण का यही आधार है ।
वाग्भट के संशय या सन्देह, अपह्न ुति, परिवृत्ति, अनुमान तथा भ्रान्तिमान् अलङ्कारों की प्रकृति प्राचीन आचार्यों के एतत्संज्ञक अलङ्कारों की प्रकृति से अभिन्न है ।
विषम का स्वरूप वाग्भट ने मम्मट के 'काव्यप्रकाश' से लिया है; किन्तु मम्मट के विषम के कई रूपों में से केवल एक ही रूप - 1 - विरूप पदार्थ की घटना रूप – वाग्भट ने स्वीकार किया है । २ हेमचन्द्र ने भी मम्मट के विषम का एक रूप स्वीकार किया था, पर वह वाग्भट के द्वारा स्वीकृत रूप से भिन्न था। इस प्रकार हेमचन्द्र और वाग्भट के विषम-विवेचन का स्रोत समान होने पर भी दोनों की विषम-विषयक मान्यता परस्पर भिन्न है ।
वाग्भट का समुच्चय-लक्षण रुद्रट के प्रथम समुच्चय-लक्षण से अभिन्न है । परिसंख्या तथा सङ्कर की धारणा हेमचन्द्र की तरह वाग्भट ने भी मम्मट आदि आचार्यों से ही ली है। हेमचन्द्र की तरह वाग्भट ने भी अनेक अलङ्कारों के एकत्र सन्निवेश के सभी प्रकारों को सामान्य रूप से सङ्कर व्यपदेश से उपस्थित किया है । इससे पृथक् संसृष्टि का स्वरूप - निरूपण वे आवश्यक नहीं समझते ।
प्रतिवस्तूपमा तथा दृष्टान्त की धारणा वाग्भट ने भामह, उद्भट, आदि प्राचीन आचार्यों के मतानुसार व्यक्त की है ।
तुल्ययोगिता की स्वरूप - कल्पना आचार्य दण्डी की तुल्ययोगोपमा के आधार पर की गयी है । वाग्भट की विभावना पूर्ववर्ती आचार्यों की विभावना से अभिन्न है । हेतु तथा समाहित के स्वरूप की कल्पना वाग्भट दण्डी के मतानुसार की है । यथासंख्य का स्वरूप भी उन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों से ही लिया है ।
१. वाग्भटालङ्कार, ४,६२
२. वही, ४, ११७-११८
३. हेमचन्द्र, काव्यानुशासन, ६, पृ० ३४१
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २३३
अवसर अलङ्कार की कल्पना वाग्भट ने आचार्य रुद्रट के 'काव्यालङ्कार' से ली है। रुद्रट के परवर्ती आचार्य मम्मट तथा रुय्यक ने अवसर का अलङ्कारत्व स्वीकार नहीं किया था। वाग्भट का अवसर-विवेचन उन पर रुद्रट के सीधे प्रभाव का परिचायक है। __ वाग्भट के सार तथा प्रश्नोत्तर का स्वरूप पूर्वाचार्यों की मान्यता के अनुरूप कल्पित है। 'वाग्भटालङ्कार' में विवेचित एकावली का स्वरूप मम्मट आदि आचार्यों की एकावली से मिलता-जुलता ही है। दोनों में थोड़ा अन्तर यह है कि जहाँ मम्मट आदि को इस अलङ्कार में यथापूर्व पर का विशेषणत्व अभिप्रेत था, वहाँ वाग्भट को यथापूर्व का पर के प्रति वैशिष्ट्यनिष्ठ होना अभीष्ट है। वाग्भटालङ्कार के एकावली-उदाहरण की परीक्षा से ऐसा लगता है कि वैशिष्ट्यनिष्ठता से उनका अभिप्राय उत्कर्षाधायकता का है। मम्मट ने एकावली के जो उदाहरण दिये हैं, उनमें भी विशेषणभूत पद परवर्ती पद के उत्कर्ष का आधान करते हैं।' सम्भव है, मम्मट के एकावली-उदाहरण को देख कर ही वाग्भट ने एकावली में पर के प्रति पूर्व का वैशिष्ट्यनिष्ठ होने या उत्कर्षाधायक होने की कल्पना कर ली हो। वस्तुतः, मम्मट की एकावली-परिभाषा अधिक व्यापक है। विशेषण-भूत पूर्व-पद परवर्ती पदों का उपकार तो करते ही हैं, वे उनका उत्कर्ष भी प्रतिपादित कर सकते हैं। स्पष्ट है कि वाग्भट के एकावली-लक्षण में मम्मट के लक्षण की अपूर्ण अनुकृति है।
वाग्भट की अलङ्कार-धारणा के उक्त परीक्षण से निम्नलिखित तथ्य प्रकाश में आते हैं :(क) 'वाग्भटालङ्कार' में किसी नवीन अलङ्कार की उद्भावना का प्रयास
नहीं है। पूर्व-प्रतिपादित अलङ्कारों में से ही कुछ को चुन कर उनका लक्षण-निरूपण किया गया है। शेष अलङ्कारों को या तो असुन्दर मान कर छोड़ दिया गया है या अन्य अलङ्कार में अन्तभूत मान कर ।' किन्तु, उन्होंने विशेष अलङ्कार की असुन्दरता
या परान्तभुक्तता सिद्ध करने के लिए कोई युक्ति नहीं दी है। (ख) श्लेष तथा पुनरुक्तवदाभास शब्दालङ्कारों का अस्तित्व अकारण
अस्वीकार कर दिया गया है। १. द्रष्टव्य-मम्मट, काव्य-प्रकाश पृ० २८६
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२३४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण (ग) स्वीकृत अलङ्कारों के लक्षण पूर्ववर्ती आचार्यों के मतानुसार ही
दिये गये हैं। जहाँ कोई नवीनता दीख पड़ती है वह वाग्भट के स्वतन्त्र चिन्तन का फल नहीं, प्राचीन धारणा की अनुकृति की असफलता का परिणाम है। उनका समासोक्ति-विवेचन इस कथन
का प्रमाण है। (घ) धार्मिक दृष्टि से एक सम्प्रदाय के अनुयायी होने पर भी वाग्भट
ने काव्यशास्त्रीय चिन्तन में हेमचन्द्र की पद्धति का अनुगमन नहीं किया है। वाग्भट ने किसी एक आचार्य को आदर्श नहीं मान कर पूर्ववर्ती सभी आचार्यों की रचनाओं से अलङ्कार-विषयक मान्यता का आहरण किया है। उनके अधिकांश अलङ्कारों के स्वरूप मम्मट तथा रुय्यक के मतानुसार अवश्य कल्पित हैं; पर कई अलङ्कारों के रूप-विधान में उन्होंने भरत, भामह, दण्डी, रुद्रट आदि का सीधा प्रभाव ग्रहण किया है। उदाहरणार्थ-उपमा के अनेकोपमेय-मूला भेद का भरत के आधार पर; हेतु, समाहित तथा तृल्ययोगिता का स्वरूप दण्डी के आधार पर ( तुल्ययोगिता दण्डी की तुल्ययोगिता के आधार पर नहीं, उनकी उपमा के एक भेद 'तुल्ययोगोपमा' के आधार पर) तथा अवसर और समुच्चय का स्वभाव रुद्रट के आधार पर कल्पित है।
शोमाकर मित्र शोभाकर मित्र ने 'अलङ्कार-रत्नाकर' में एक सौ नौ शब्दार्थालङ्कारों के स्वरूप का निरूपण राजानक रुय्यक के अलङ्कार-सूत्र की शैली में किया है। अलङ्कार-सूत्र की शैली को अपनाने पर भी उन्होंने रुय्यक की अलङ्कार-धारणा का अनुसरण नहीं किया है। यही नहीं, अपने पूर्ववर्ती किसी भी आचार्य की अलङ्कार-विषयक मान्यता का अन्धानुसरण नहीं कर शोभाकर ने अक नवीन अलङ्कारों के स्वरूप की कल्पना की है। यह ठीक है कि उनके नवोद्भावित अलङ्कारों में से अधिकांश को भारतीय अलङ्कारशास्त्र में स्वीकृति नहीं मिली, यह भी ठीक है कि उनके नवीन अलङ्कारों में से कई प्राचीन अलङ्कारों के ही नवीन नाम हैं, फिर भी शोभाकर की अलङ्कार-धारणा का अपना महत्त्व है।
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २३५.
पण्डितराज जगन्नाथ-जैसे समर्थ आचार्य ने अनेक स्थलों पर रत्नाकरकार का मत उद्धृत किया है।' यद्यपि जगन्नाथ ने अधिकतर शोभाकर की अलङ्कार-विषयक मान्यता का खण्डन करने के लिए ही उल्लेख किया है, फिर भी यह शोभाकर की अलङ्कार-धारणा की शक्ति का ही परिचायक है। इससे कम-से-कम इतना तो सिद्ध ही है कि जगन्नाथ पण्डितराज ने शोभाकर के अलङ्कार-सिद्धान्त को उपेक्षणीय नहीं माना। 'अलङ्कार-रत्नाकर' के अलङ्कार-विवेचन का महत्त्व इस बात से भी स्पष्ट है कि अर्वाचीन आलङ्कारिकों को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले आचार्य अप्पय्य दीक्षित ने कुछ अलङ्कार या अलङ्कार-विशेष के कुछ भेदों का स्वरूप वहीं से लिया है। उदाहरणार्थ, अप्पय्य की अपह्नति का पर्यस्त भेद ( उपमान का अपह्नव ) 'अलङ्काररत्नाकर' से ही गृहीत है। लगता है कि शोभा कर के 'अलङ्कार-रत्नाकर' का कुछ दिनों तक संस्कृत कवियों तथा अलङ्कार शास्त्र के आचार्यों पर बहुत प्रभाव रहा था। कहा जाता है कि 'यशस्कर' नामक कवि ने 'अलङ्कार-रत्नाकर' के विभिन्न अलङ्कार-लक्षणों के उदाहरण के रूप में ही देवीशतक की रचना की थी। ऐसी स्थिति में डॉ० डे ने जो शोभाकर मित्र की गणना गौण आलङ्कारिकों की कोटि में कर ली है, वह उचित नहीं जान पड़ती। यह बात दूसरी है कि शोभाकर ने नवीनता-प्रदर्शन के मोह में अनेक प्राचीन अलङ्कारों के लिए नवीन संज्ञाओं की कल्पना कर ली थी तथा कुछ ऐसी उक्तियों में अलङ्का रत्व मान लिया था, जिनमें वस्तुत: चमत्कार का तत्त्व नहीं था और फलतः उनकी मान्यता पीछे चल कर अस्वीकृत हो गयी, पर इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि उनके अलङ्कार-सिद्धान्त ने अनेक कवियों को प्रभावित किया और अनेक सशक्त समीक्षकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट
१. रसगङ्गाधर में ग्यारह स्थलों पर अलङ्काररत्नाकर-कार की तत्तदलङ्कार
विषयक मान्यता को उद्धृत कर उसकी समीक्षा की गयी है। २. ...Yasaskara, a Kasmirian poet, thought it fit to comrose
a Devisataka. .... .in which each verse, besides being a panegyric of the goddess, also serves as an illustration of Ratnakara's Alankarasutras.
-अलङ्कार-रत्नाकर की भूमिका, पृ० ६, ले० देवधर ३. द्रष्टव्य-डॉ० सुशीलकुमार डे, History of Sanskrit Poetics,
खण्ड १ पृ० ३०८:
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२३६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
किया। अतः गौण आलङ्कारिकों की उपेक्षित सूची में उनका नाम डाल देना समीचीन नहीं। प्रस्तुत सन्दर्भ में हम 'अलङ्कार-रत्नाकर' के अलङ्कारों के स्रोत * पर विचार करेंगे।
'अलङ्कार-रत्नाकर' में शब्द एवं अर्थ के निम्नलिखित एक सौ नौ अलङ्कारों का स्वरूप-निरूपण किया गया है:शब्दालङ्कार
पुनरुक्तवदाभास, यमक, छेकानुप्रास, वृत्यनुप्रास, लाटानुप्रास और चित्र । अर्थालङ्कार
उपमा, कल्पितोपमा, अनन्वय, असम, उपमेयोपमा, उदाहरण, प्रतिमा, तुल्ययोगिता, दीपक, प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त, निदर्शना, स्मृति, विनोद, व्यासङ्ग, • व्यतिरेक, प्रतीप, वैधर्म्य, रूपक, अभेद, परिणाम, अपह्नति, सन्देह, वितर्क,
उत्प्रेक्षा, भ्रान्तिमान्, उल्लेख. प्रतिभा, क्रियातिपत्ति, अतिशयोक्ति, अप्रस्तुत'प्रशंसा, व्याजस्तुति, प्रत्यनीक, विनोक्ति, सहोक्ति, समासोक्ति, श्लेष, परिकर, पर्यायोक्त, निश्चय, आक्षेप, विध्याभास, सन्देहाभास, विकल्पाभास, विरोध, विभावना, विशेषोक्ति, असङ्गति, अन्योन्य, विपर्यय, अचिन्त्य, विषम, सम, विचित्र, विशेष, व्याघात, अशक्य, व्यत्यास, समता, उद्रेक, तुल्य, अनादर, आदर, अनुकृति, प्रत्यूह, प्रत्यादेश, समाधि, अर्थान्तरन्यास, व्याप्ति, अनुमान, हेतु, आपत्ति, अर्थापत्ति, विधि, नियम, प्रतिसंख्या, प्रतिप्रसव, तन्त्र, प्रसङ्ग, -विकल्प, समुच्चय, परिवृत्ति, पर्याय, क्रम, वर्धमानक, अवरोह, अतिशय, . शृङ्खला, तद्गुण, मीलित, विवेक, परभाग, उद्भेद, गूढ़, सूक्ष्म, व्याजोक्ति, वक्रोक्ति, स्वभावोक्ति, भाविक, उदात्त, रसवत्, प्रेय और ऊर्जस्वी।
शोभाकर ने संसृष्टि की सत्ता का विरोध किया है। और सङ्कर के सम्बन्ध में कुछ विलक्षण धारणा व्यक्त की है। उन्होंने पूर्वाचार्यों की तरह अनेक अलङ्कारों के अङ्गाङ्गित्व में सङ्कर अवश्य माना है; पर यह नवीन : धारणा व्यक्त की है कि जहाँ अङ्गाङ्गि-भाव से अनेक अलङ्कार होंगे वहाँ प्रधान को अलङ्कार और अप्रधान को उसका सङ्कर कहा जायगा ।२ स्पष्टतः,
१. न संसृष्टि: पूर्वहानाच्चारुत्वाभावाच्च ।-शोभाकर, अलं० रत्ना०,१११ २. 'अङ्गत्वे तु सङ्करः ।....."तेन प्रधानतायां उपमादीनां निजं निजं नाम अङ्गत्वे पुनरेषां सङ्करधी ङ्गिभावेऽपि ।
-वही, सूत्र ११२ तथा उसकी वृत्ति, पृ० १६८
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २३७. उन्होंने सङ्कर को स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं मान कर अनेक अलङ्कारों के एकत्र सद्भाव की एक विशेष स्थिति मानी है। संसृष्टि एवं सङ्कर के विषय में शोभाकर की मान्यता का परीक्षण हम उचित प्रसङ्ग में करेंगे। प्रस्तुत प्रसङ्ग में उनके नवीन अलङ्कारों के स्रोत का सन्धान ही अभिप्रेत है।
'अलङ्काररत्नाकर' में विवेचित अलङ्कारों में से निम्नलिखित के अभिधान नवीन हैं:-असम, उदाहरण, प्रतिमा, विनोद, व्यासङ्ग, वैधर्म्य, अभेद, प्रतिभा, क्रियातिपत्ति, निश्चय, विध्याभास, सन्देहाभास, विकल्पाभास, विपर्यय, अचिन्त्य, अशक्य, व्यत्यास, समता, उद्रेक, तुल्य, अनादर, आदर, अनुकृति, प्रत्यूह, प्रत्यादेश, व्याप्ति, आपत्ति, विधि, नियम, प्रतिप्रसव, तन्त्र, प्रसङ्ग, वर्धमानक, अवरोह, अतिशय, शृङ्खला, विवेक, परभाग, उद्देद और गूढ़ ।
क्रियातिपत्ति अर्थापत्ति का ही अपर पर्याय है।
शोभाकर ने कुछ प्राचीन नाम वाले अलङ्कारों के भी नवीन रूप की कल्पना की है। उदाहरणार्थ, प्रचीन आचार्यों ने क्रम को यथासंख्य का पर्याय माना था; पर शोभाकर ने आरोहावरोह को क्रम कहा है।' यह आरोहावरोह-क्रम-रूप-समाधि-गुण से सर्वथा भिन्न है; क्योंकि प्राचीन आचार्यों ने समाधि-गुण में स्वर के आरोह और अवरोह का क्रम वाञ्छनीय माना था, शोभाकर के क्रम-अलङ्कार में अर्थ का आरोह-अवरोह वाञ्छनीय माना गया है। स्पष्ट है कि यह अलङ्कार नाम्ना प्राचीन होने पर भी स्वरूपतया नवीन है। ऐसे अलङ्कारों का भी स्रोत अनुसन्धेय है। ___जयरथ ने 'विमशिनी' में यह मन्तव्य प्रकट किया है कि 'अलङ्काररत्नाकर में कल्पित सभी नवीन अलङ्कारों का अन्तर्भाव पूर्ववर्ती आचार्यों ( विशेषतः रुय्यक के ) के तत्तदलङ्कारों में सम्भव है ।२ यही कारण है कि शोभाकर के नवीन अलङ्कारों का अस्तित्व परवर्ती आचार्यों ने स्वीकार नहीं किया। जयरथ ने ग्रन्थ-विस्तार के भय से शोभाकर के तत्तत् नवीन अलङ्कारों का प्राचीन अलङ्कारों में अन्तर्भावन नहीं दिखाया है। उनके इस मन्तव्य से हमें शोभाकर के स्वकल्पित अलङ्कारों के स्रोत-सन्धान में सहायता मिल सकती है।
आरोहावरोहादिः क्रमः ।-शोभाकर, अलं० रत्ना०, सूत्र ६२ । २. एवमन्येषामपि समग्राणामभिनवालङ काराणां चान्य रन्यालङ कारयोगो
योजयितु शक्य एवेति''जयरथ, विमशिनी।
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- २३८ ]
असम
असम की स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में कल्पना का श्र ेय शोभाकर को ही है । जहाँ उपमेय का कोई उपमान नहीं मिल पाता हो, वहाँ ( उपमान के असम्भव होने के कारण तथा उपमेय के समान किसी दूसरे के नहीं होने के कारण ) असम नामक अलङ्कार होता है । प्रायः ही कवि उपमेय की विलक्षणता के प्रतिपादन के लिए यह वर्णन करते हैं कि उसके समान संसार में दूसरा कोई नहीं । शोभाकर के अनुसार इस प्रकार की उक्ति में असम नामक अलङ्कार होगा। प्राचीन आचार्य इस प्रकार की उक्ति से अपरिचित नहीं थे; पर उन्होंने असम के स्वतन्त्र अस्तिव की कल्पना नही की थी । मम्मट आदि आचार्य इस प्रकार के कथन का अध्ययन अनन्वय के स्वरूप में कर रहे थे, तो दूसरी ओर कुछ आचार्य उसे लुप्तोपमा समझ रहे थे । शोभाकर ने दोनों से असम की स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध की। अनन्वय में किसी उपमेय के अन्य उपमान के अभाव की धारणा अवश्य रहती है, पर इससे आगे बढ़ कर अन्योपमान के अभाव में उपमेय को ही उसका उपमान बना दिया जाता है । असम में केवल उपमेय के सदृश किसी उपमान का अभाव मात्र कथित होता है । उपमानलुप्ता उपमा से यह भिन्न है; क्योंकि लुप्तोपमा में उपमान केवल अनुक्त होता है, इसमें उसका असम्भावित होना उक्त होता है । पण्डितराज जगन्नाथ ने भी असम की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार कर शोभाकर की मान्यता का ही समर्थन किया है । स्पष्ट है कि उपमेय की सर्वोत्कृष्टता की प्राचीन धारणा को लेकर भी शोभाकर मित्र ने स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में उसकी सत्ता स्वीकार कर अपनी उर्वर कल्पनाशक्ति का परिचय दिया है । कल्पितोपमा
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
शोभाकर ने कल्पितोपमा की गणना स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में की है । आचार्य भरत ने इसे उपमा का एक भेद माना था । २ उपमा से पृथक् इसकी सत्ता की कल्पना समीचीन नहीं ।
उदाहरण
उदाहरण अलङ्कार के स्वरूप की कल्पना पूर्वाचार्यों की अर्थान्तरन्यासधारणा के आधार पर की गयी है । रुय्यक ने जिस पद को अर्थान्तरन्यास के
१. ' तद्विरहोऽसमः । - शोभाकर, अलं० रत्ना०, सूत्र १०
२. द्रष्टव्य — भरत, ना० शा०, १६, ४६
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २३६
उदाहरण में उद्धृत किया था, उसे ही शोभाकर ने उदाहरण का उदाहरण माना है।' शोभाकर ने अर्थान्तरन्यास से उदाहरण का इतना भेद मान लिया है कि अर्थान्तरन्यास में सादृश्य का वाचक शब्द उक्त नहीं रहता, पर उदाहरण में वह उक्त रहता है । सादृश्य का वाचक उक्त हो या अनुक्त अलङ्कार में इसका महत्त्व नहीं; महत्व है सामान्य तथा विशेष कथन का क्रमशः विशेष और सामान्य कथन से समर्थन का। यह अर्थान्तरन्यास में भी होता है और उदाहरण में भी। फिर उदाहरण का अर्थान्तरन्यास से पृथक् अस्तित्व क्यों माना जाय ? शोभाकर के परवर्ती आचार्यों में से पण्डितराज जगन्नाथ ने तो उदाहरण का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया है. पर अन्य आचार्यों ने उसका सद्भाव नहीं माना है। शोभाकर ने उदाहरण का व्यपदेश आचार्य भरत के एतत्संज्ञक लक्षण से लिया है। प्रतिमा
शोभाकर का प्रतिमा अलङ्कार प्राचीन आचार्यों की उपमा-धारणा के आधार पर ही कल्पित है। शोभाकर के अनुसार प्रतिमा में अन्य धर्म का योग होने के कारण औपम्य अर्थगत होता है। अन्य धर्म के अन्यत्र आरोप की 'धारणा नवीन नहीं है। आर्थी उपमा में औपम्य अर्थगत ही होता है । अतः
उपमा से प्रतिमा के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना आवश्यक नहीं जान पड़ती। 'परवर्ती आचार्यों ने भी शोभाकर की प्रतिमा का अलङ्कारत्व स्वीकार नहीं किया है। विनोद
विनोद के लक्षण में कहा गया है कि जहाँ अनुभूत या अननुभूत वाञ्छित वस्तु के अप्राप्त होने पर उसके सदृश अन्य वस्तु से अपनी उत्कण्ठा शान्त की जाती है वहाँ विनोद नामक अलङ्कार होता है । यह शोभाकर का नवीन अलङ्कार है । प्राचीन आचार्यों की अलङ्कार-धारणा में इससे मिलती-जुलती उक्ति की
१. कुमारसम्भव का श्लोक 'अनन्तरत्नप्रभवस्य यस्य...' आदि अलङ्कारसूत्र
में अर्थान्तरन्यास के उदाहरण के रूप में उद्धृत है। उसे ही अलङ्काररत्नाकर में उदाहरण के उदाहरण में उद्धृत किया गया है।
-अलं० सू० पृ० १३१ तथा अलं० रत्ना० पृ० १३ २. अन्य वर्मयोगादार्थमोपग्यं प्रतिमा।-शोभाकर, अलं० रत्ना०, १३ ३. अन्यासङ्गात्कौतुकविनोदो विनोदः । -वही, २०
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२४० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
कल्पना अवश्य पायी जा सकती है, पर ठीक ऐसे स्वरूप की कल्पना किसी अलङ्कार लक्षण में नहीं पायी जाती। प्रतीप में अन्य उपमान के लाभ से उपमेय की उपेक्षा की धारणा व्यक्त की गयी थी। विनोद में भी सदृश वस्तु की प्राप्ति से वर्ण्य की उपेक्षा अन्ततः परिणत होती है। इस प्रकार प्रतीप के उक्त भेद को विनोद की कल्पना का आधार माना जा सकता है। इतना होने पर भी विनोद का प्रतीप से यह भेद है कि इसमें प्रतीप की तरह प्रस्तुत का अनादर प्रकट नहीं रहता। उसकी केवल व्यञ्जना हो सकती है । यह अलङ्कार इस मनोवैज्ञानिक तथ्य पर आधृत है कि किसी वस्तु के समान वस्तु से उस वस्तु की अभिलाषा कुछ हद तक तृप्त हो जाती है।
व्यासङ्ग
व्यासङ्ग अलङ्कार में अन्य वस्तु के संसर्ग से किसी अनुभव, स्मृति आदि का तिरोहित हो जाना वणित होता है। किसी तीव्र भावानुभूति से अन्य भाव की अनुभूति का तिरोहित हो जाना मनोवैज्ञानिक तथ्य है। एक अनुभव, स्मृति तथा किसी अन्य क्रिया से अन्य अनुभव आदि के तिरोभाव-वर्णन में अलङ्कार विशेष मानना उचित नहीं। भावों के आविर्भाव-तिरोभाव का अध्ययन अलङ्कार से पृथक् रस, भाव आदि के क्षेत्र में किया जाता है। उसे अलङ्कार का एक भेद मान लेना उसके महत्त्व को परिमित करना है। शोभाकर ने भावशान्ति, भावोदय आदि से पृथक व्यासङ्ग अलङ्कार के अस्तित्व की स्थापना का प्रयास किया है, किन्तु वह बुद्धिविलास-मात्र है। वैधर्म्य
वैधर्म्य को शोभाकर ने स्वतन्त्र अलङ्कार माना है। यह रुय्यक, मम्मट आदि के वैधर्म्य से समर्थन रूप अर्थान्तरन्यास से अभिन्न है ।२ शोभाकर ने पूर्वाचार्यों के सभी अर्थान्तरन्यास भेदों को स्वीकार नहीं किया है। वे साधर्म्य से समर्थन में अर्थान्तरन्यास तथा वधर्म्य से समर्थन में वैधर्म्य अलङ्कार मानते हैं। स्पष्ट है कि यह अलङ्कार नाममात्र से नवीन है, इसकी धारणा प्राचीन है।
१. अनुभवस्मृत्यादिप्रत्यूहो व्यासङ्गः।-शोभाकर, अलं० रत्ना० २१ २. 'उद्दिष्टस्य प्रतिपक्षतयानुनिर्देशो वैधर्म्यम् ।'-शोभाकर, अलं० रत्ना०
२५ । तुलनीय-रुय्यक अलं० सू० ३५ तथा उसकी वृत्ति, पृ० १३१
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बलकार-धारणा का विकास
[ २४१
अभेद
१
शोभाकर का अभेद पूर्ववर्ती आचार्यों के रूपक का ही एक भेद है । रूपक से पृथक् इसकी कल्पना अनावश्यक है । रूपक से एक सूक्ष्म भेद की कल्पना की गयी है कि रूपक में अभेद - मात्र की प्रतीति होती है, पर इसमें नियत धर्म के विनाश से सर्वतः अभेद प्रतीत होता है । २ अभेदप्रतीति रूपक काही विषय है । यह वामन की विशेषोक्ति से अभिन्न है ।
प्रतिभा
प्रतिभा नामक अलङ्कार की कल्पना कर शोभाकर ने उसकी परिभाषा में कहा है कि इसमें कवि प्रतिभा से सम्भाव्य वस्तु की कल्पना की जाती है । 3 स्वभावोक्ति से इसका भेद बताते हुए कहा गया है कि जब सम्भावना से वस्तु-स्वभाव का वर्णन होता है तब वह प्रतिभा का अङ्ग होता है । वस्तुस्वरूप का कवि - प्रतिभा से सम्भावना के रूप में वर्णन में प्रतिभा की सत्ता स्वीकृत है । अतः इसका सम्भावना पर आधृत वस्तुत्प्रेक्षा में समावेश सम्भव है । प्रतिभा को स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं माना जा सकता । उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि के अतिरिक्त भी जो किसी वस्तु के स्वरूप पर कवि की अनेक प्रकार की कल्पनाएं हो सकती हैं, उन सब को अलङ्कारविशेष मान लेना उचित नहीं ।
क्रियातिपत्ति
क्रियातिपत्ति नाम्ना नवीन किन्तु स्वरूपतया प्राचीन अलङ्कार है । इस अलङ्कार ने अनेक अभिधान धारण किये हैं । यद्यर्थ की उक्ति को शोभाकर ने क्रियातिपत्ति कहा है । मम्मट, रुय्यक आदि आचार्यों ने इसे सम्बन्धातिशयोक्ति कहा है। स्पष्ट है कि प्राचीन अलङ्कार को ही शोभाकर ने नवीन नाम से प्रस्तुत किया है, पर यह नाम अन्य आचार्यों को मान्य नहीं हुआ ।
१. तुलनीय - अलं ० रत्ना० २७ तथा रुय्यक, अलं० सू० १५
२. अभेदमात्रप्रतीतौ रूपकं, नियतधर्महानावन्यतः सर्वतोऽभेदप्रतीतौ अभेद इति प्रतीतिभेदात् । - अलं० रत्ना० पृ० ३८
३. 'सम्भाव्यमानस्य प्रतिभा । सम्भाव्यमानस्यार्थस्य कविना प्रतिभाख्येन चक्षुषा परिकल्पनमुल्ले खरूपं प्रतिभा ।
वही, ३५ तथा उसकी वृत्ति, पृ० ५५ ४. यद्यर्थोक्तावसम्भाव्यमानस्य क्रियातिपत्तिः । - वही, ३६
१६
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२४२ ] बलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण निश्चय
निश्चय अलङ्कार की परिभाषा में कहा गया है कि जहाँ विशेष-प्रतिपादन के लिए विहित या आशङ्कित का निषेध किया जाय वहाँ निश्चय नामक अलङ्कार होगा ।' विहित के तात्त्विक निषेध में कोई चमत्कार नहीं। उसके निषेधाभास में आक्षेप अलङ्कार होता है। आशङ्का के स्थल में निषेध को आचार्य दण्डी ने निर्णयोपमा कहा था। आक्षेप और निर्णयोपमा से पृथक् निश्चय की कल्पना पावश्यक नहीं। स्वयं शोभाकर के निश्चय-उदाहरण 'सतां कदर्थनां व्ययं' मादि में निषेध तात्त्विक नहीं है। उसमें आक्षेप अलङ्कार माना जा सकता है। विध्याभास
विध्याभास का नाम-रूप शोभाकर ने आचार्य रुय्यक के द्वितीय आक्षेपबक्षण से लिया है। रुय्यक के लक्षण 'अनिष्ट विध्याभासश्च' से विध्याभास अंश लेकर शोभाकर मे इस स्वतन्त्र अलङ्कार का नामकरण कर लिया है तथा उसी भाक्षेप-धारणा को इस प्रकार व्यक्त किया है कि जहां अविधेय अनिष्ट का विधान किया जाता है वहां विधान बाधित होने के कारण विध्याभास-मात्र में परिणत हो जाता है। भतः वहाँ विध्याभास नामक अलङ्कार होता है। स्पष्टतः, यह आक्षेप से स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं है । प्राचीन आचार्यों के अलङ्कार की ही नवीन संज्ञा से भवतारणा की गयी है। सन्देहाभास
सन्देह के पाधार पर शोभाकर ने सन्देहाभास अलङ्कार की कल्पना की है। उनकी मान्यता है कि जहाँ सन्दिह्यमान दो पदार्थों में से एक को अवश्यमेव स्वीकार्य बताना वक्ता का अभिप्राय हो वहाँ सन्देह के बाधित हो जाने से सन्देहाभास नामक अलङ्कार होता है । सन्देहाभास अलङ्कार की कल्पना भावश्यक नहीं जान पड़ती। इसमें सन्देह की स्थिति तो वस्तुतः आती ही नहीं, १. विहितस्याशंकितस्य वा विशेषागमाय निषेधो निश्चयः।
-शोभाकर, अलं० रत्ना० ४७ २. अनिष्टविधान विध्याभासः।
-वही, ४६, तुलनीय-रुय्यक, अलं० सू० ३६ ३. सन्दिह्यमानयोरेकत्र तात्पर्येच्छा सन्देहाभासः ।
-शोभाकर, अलङ्कार रत्ना० ५०
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २४३
वक्ता की केवल साभिप्राय उक्ति रहती है। इसमें दो वस्तुओं में से एक का स्वीकार्यत्व भी स्पष्ट ही रहता है । उदाहरण में 'वल्लभ के आलिङ्गन का सुधारस तुम्हें प्रिय है या मान के विष की ज्वाला?'यह उक्ति प्रस्तुत की गयी है। इन दोनों में कौन अधिक प्रिय होगा-विष या अमृत-यह सन्देह का तो विषय हो ही नहीं सकता। अतः इस प्रश्न में वक्ता का अभिप्राय ही महत्त्व रखता है। वक्ता के इस प्रश्न में ही उसका उत्तर भी निहित है। इस प्रकार की उक्ति में मम्मट, रुय्यक आदि आचार्यों ने प्रश्नपूर्विका परिसंख्या का सद्भाव माना था । स्पष्ट है कि प्राचीन धारणा को ही नवीन नाम से प्रस्तुत करने का आयास शोभाकर ने किया है। विकल्पाभास
_ विकल्पाभास में चमत्कार नहीं होने के कारण उसे अलङ्कार मानना उचित नहीं। दो वाञ्छित या अवाञ्छित पदार्थों में आकर्षण अथवा विकर्षण का समान बल हो तो उनमें से किसी के त्याग-ग्रहण में मानसिक द्वन्द्व की स्थिति आ सकती है, तथा कोई चमत्कार भी हो सकता है। विकल्पाभास के प्रदत्त उदाहरणों में विकल्प की कहीं स्थिति आती ही नहीं। विर्यय
विपर्यय अलङ्कार में धर्म और धर्मी का विपर्यय हो जाता है। इस प्रकार कहीं धर्मी का धर्मत्व और धर्म का मित्व हो सकता है और कहीं अन्य वस्तु के धर्म का अन्य वस्तु-धर्म से विनिमय हो सकता है। अन्य वस्तु के धर्म का अन्यत्र आरोप की धारणा तो आचार्य दण्डी ने समाधि गुण में व्यक्त की थी, पर यह उससे इस अंश में भिन्न है कि इसमें दो के धर्मों का विनिमय हो जाता है। अलङ्कार के रूप में विपर्यय की प्रथम कल्पना का श्रेय शोभाकर को है। समाधि गुण की धारणा में परिवृत्ति की पारस्परिक विनिमय की धारणा को मिला कर विपर्यय के स्वरूप का निर्माण किया गया है। अचिन्त्य
अचिन्त्य विभावना से स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रखता। कारण के स्वभाव से विरुद्ध स्वभाव वाले कार्य की उत्पत्ति में शोभाकर ने अचिन्त्य अलङ्कार
१. द्रष्टव्य-शोभाकर, अलङ्कार रत्ना० पृ० ८६ २. धर्मिधर्मभावस्य धर्माणां विनिमयो विपर्ययः । -वही, ५७
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२४४ ]
अलङ्कार- धारणा : विकास और विश्लेषण
१
माना है । कार्यकारण की अननुरूपता की धारणा प्राचीन आचार्यों की विभावना के सामान्य लक्षण में निहित थी । विभावना से स्वतन्त्र अचिन्त्य नामक नवीन अलङ्कार की कल्पना आवश्यक नहीं ।
अशक्य
कार्योत्पत्ति के प्रतिबन्धक के होने पर कार्य करने की असमर्थता के वर्णन में अशक्य अलङ्कार माना गया है ।२ प्रतिबन्धक के होने पर भी कार्योत्पत्ति में तो चमत्कार रहता है पर प्रतिबन्धक के होने पर कार्य की अशक्यता में क्या चमत्कार होगा ? अतः चमत्कार के अभाव के कारण अशक्य को अलङ्कार नहीं माना जा सकता ।
व्यत्यास
दोष में गुण तथा गुण में दोष मानने को शोभाकर ने व्यत्यास अलङ्कार कहा है । इसी अलङ्कार-धारणा ने पीछे चल कर 'कुवलयानन्द' तथा 'रसगङ्गाधर " में लेश को जन्म दिया । भरत ने लक्षण में इस प्रकार की उक्ति पर विचार किया था। शोभाकर ने उसे अलङ्कार के रूप में स्वीकार किया । अप्पय्य दीक्षित तथा पण्डितराज जगन्नाथ ने भी उसे कुछ संज्ञा-भेद से अलङ्कार के रूप में स्वीकृति दी । आचार्य भरत ने कार्य लक्षण में गुण का अपसारण कर दोष की योजना तथा दोष का अपसारण कर अर्थ से गुण की योजना की धारणा व्यक्त की थी । उसीसे गुण में दोषत्व तथा दोष में गुणत्व की धारणा ली गयी है । इसी लक्षण ने व्यङ्ग्यार्थ का सहारा लेकर व्याजस्तुति को जन्म दिया है । इस अलङ्कार में दोष और गुण का एक दूसरे से व्यत्यास की धारणा व्यक्त की गयी है ।
समता
गुण का दोष से तथा दोष का गुण से अपसारण किये जाने के स्थल में समता अलङ्कार का सद्भाव माना गया है ।" यह शोभाकर का नवीन
१. अविलक्षणाद्विलक्षणकार्योत्पत्तिश्चाचिन्त्यम् ।
- शोभाकर, अलं० रत्ना० ५८
२. प्रतिबन्धका देविधानासामर्थ्य मशक्यम् । - वही, ६५
३. दोषगुणयोरन्यथात्वं व्यत्यासः । - वही, ६६
४. द्रष्टव्य — भरत, ना० शा०, १६,३७
५. तदन्याभ्यां समाधानं समता । शोभाकर, अलं० रत्ना०, ६७
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २४५ अलङ्कार है। इस अलङ्कार की धारणा का बीज भी आचार्य भरत के कार्यलक्षण में देखा जा सकता है। उद्रक __ दोष और गुण का सजातोय या विजातीय की अपेक्षा तुच्छत्व-वर्णन में उद्रेक अलङ्कार की सत्ता स्वीकार की गयी है।' एक दोष या गुण से दूसरे दोष के तुच्छ किये जाने में तथा एक दोष या गुण से दूसरे गुण के न्यक्करण में विशेष चमत्कार नहीं। एक वस्तु से दूसरी वस्तु ( उपमेय से उपमान ) के न्यक्करण में व्यतिरेक अलङ्कार की सत्ता सभी आचार्यों ने मानी ही है। उससे पृथक् गुण-दोष में एक के द्वारा दूसरे के न्यग्भाव में पृथक् अलङ्कार की कल्पना आवश्यक नहीं। तुल्य
दोष-गुण के सम्बन्ध पर ही तुल्य अलङ्कार की भी कल्पना की गयी है । शोभाकर की मान्यता है कि जहाँ एक दोष के निवृत्त होने पर दूसरे दोष का उदय हो; इसी प्रकार एक गुण की निवृत्ति और दूसरे गुण का उदय हो वहाँ तुल्य अलङ्कार होता है ।२ एक के शमन के उपरान्त क्रम से दूसरे का उदय पर्याय का विषय है। अतः पर्याय अलङ्कार से पृथक् इसके अस्तित्व की कल्पना समीचीन नहीं। शोभाकर इस तथ्य से अवगत थे। इसलिए उन्होंने वृत्ति में यह स्पष्ट किया है कि यह पर्याय का विषय हो सकता है, पर दोष और गुण के ही उदय-प्रशम पर आधृत होने के कारण पर्याय से स्वतन्त्र अस्तित्व भी रखता है। स्पष्ट है कि तुल्य के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना के पीछे केवल नवीनता-प्रदर्शन का मोह ही है। अनादर
जैसी वस्तु प्राप्त हो उसके समान अन्य वस्तु की प्राप्ति के लिए उस ( प्राप्त ) वस्तु का जहाँ अनादर किया जाय वहाँ अनादर नामक अलङ्कार
१. सजातीयविजातीयाभ्यां तुच्छत्वमुद्रेकः ।-शोभाकर, अलं. रत्ना०६८ २. निवृत्तावन्योदयस्तुल्यम् ।-वहीं, ६६ ३. यद्यवमेकस्य दोषस्य निवृत्तौ क्रमेण दोषान्तरगमनात्पर्यायस्यायं विषयः ।
सत्यम् । तथाप्येक-दोषादि-निवृत्तौ दोषान्तरादेराविर्भावात्प्रकृताकार्यसम्पत्तिलक्षणायास्तुल्यताया अत्र निष्पत्तिरेव।
-वही, वृत्ति, पृ० १२१
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२४६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण माना गया है । ' रुय्यक आदि के प्रतीप से पृथक् अनादर की सत्ता की कल्पना आवश्यक नहीं जान पड़ती। अादर ___ आदर अलङ्कार में कोई चमत्कार नहीं। शोभाकर ने आदर के लक्षण में कहा है कि जहाँ अधिक गुण वाली वस्तु की प्राप्ति होने पर किसी वस्तु को तुच्छ समझ कर त्याग दिया गया हो, पर उस गुणवान वस्तु के दूर हो जाने पर त्यक्त वस्तु को पुनः स्वीकार कर लिया जाता हो वहाँ आदर अलङ्कार होता है ।२ वस्तु के त्याग और स्वीकार का कारण स्पष्ट होने से इसमें विशेष चमत्कार नहीं। अनुकृति
अनुकृति के स्वरूप को लक्षित करते हुए शोभाकार ने कहा है कि जहाँ एक हेतु से किसी वस्तु के रूप-विशेष धारण करने पर दूसरे हेतु से अन्य वस्तु का भी उससे ताद्र प्य वणित हो वहाँ अनुकृति अलङ्कार होता है। इसमें तार प्य का हेतु कथित होता है । 3 ताद्र प्य की धारणा रूपक में व्यक्त की गयी है। हेतु और हेतुमान का वर्णन हेतु का विषय है । अतः रूपक, हेतु आदि प्राचीन अलङ्कारों में ही इसका अन्तर्भाव हो जाता है ।
प्रत्यूह
प्रत्यूह में एक निमित्त से प्राप्त का दूसरे निमित्त से प्रतिबन्ध हो जाता है। प्राप्त एवं प्रतिबद्ध हेतुमान के साथ हेतु-कथन-मात्र में चमत्कार है। अतः हेतु से पृथक् इसकी कल्पना आवश्यक नहीं। प्रत्यादेश
प्रत्यादेश की धारणा भी हेतु पर ही आधृत है। इसमें स्थित वस्तु का अन्य हेतु से अन्यथात्व वर्णित होता है। इसमें भी हेतु के अतिरिक्त कोई अन्य चमत्कार नहीं। इस प्रकार हेतु-हेतुमान-कथन-रूप हेतु से स्वतन्त्र अनुकृति, प्रत्यूह तथा प्रत्यादेश की कल्पना अनावश्यक है। १. अप्राप्ताथं तत्त ल्यस्यानादरोऽनादरः।-शोभाकर, अलं० रत्ना०, ७० २. त्यक्तस्वीकार आदरः। वही, ७१ ३. हेत्वन्तरादन्यस्यापि तथात्वमनुकृतिः। वही, ७२ ४. प्राप्तस्य प्रतिबन्धः प्रत्यूहः। वही, ७३ ५. स्थितस्यान्यथापत्तिः प्रत्यादेशः। वही, ७४
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २४७
व्याप्ति तथा अनुमान
व्याप्ति और अनुमान की धारणा न्याय दर्शन से गृहीत है। हम देख चुके हैं कि छह प्रमाण-सम्बन्धी न्याय की धारणा को लेकर तत्तदलङ्कारों की कल्पना काव्यशास्त्र में कर ली गयी है। शोभाकर के व्याप्ति, अनुमान आदि अलङ्कार एतद्विषयक न्याय-सिद्धान्त पर ही अवलम्बित हैं। आपत्ति
अनिष्टापत्ति में शोभाकर ने आपत्ति नामक अलङ्कार माना है।' इसके लक्षण में कहा गया है कि यदि कुछ करते हुए किसी को अनिष्ट की प्राप्ति होने का वर्णन हो तो वहां आपत्ति अलङ्कार होगा। विषम के अनर्थोत्पत्ति भेद से पृथक् अनिष्टापत्ति के सद्भाव की कल्पना आवश्यक नहीं जान पड़ती। उत्तर काल में 'कुवलयानन्द' में इसे विषम का अनिष्टापत्ति भेद कहा गया ।' विधि
असम्भावित हेतु अथवा फल का विधान विधि अलङ्कार माना गया है । रुय्यक के अर्थान्तरन्यास का, कारण के द्वारा कार्य-समर्थन का, उदाहरण विधि में उद्ध त है। असम्भाव्य फल का हेतु से समर्थन तथा हेतु का फल से समर्थन अर्थान्तरन्यास का विषय है। विधि में समर्थन की जगह विधान की धारणा है। इसका समावेश अर्थान्तरन्यास के सामान्य लक्षण में सम्भव है। अतः इसके स्वतन्त्र अलङ्कारत्व की कल्पना आवश्यक नहीं। नियम
नियम अलङ्कार की कल्पना मम्मट आदि की परिसंख्या-धारणा से भिन्न नहीं। शोभाकर ने परिसंख्या से नियम के स्वरूप में कुछ सूक्ष्म भेद करने का प्रयास किया है । मम्मट के 'काव्यप्रकाश' में जिसे परिसंख्या का उदाहरण माना गया है उसे ही नियम का उदाहरण शोभाकर ने बताया है।४ नियम का अन्तर्भाव परिसंख्या में सम्भव है। .
१. अनिष्टापादनमापत्तिः।-शोभाकर, अलं० रत्ना० ८० २. द्रष्टव्य-अप्पय्य, कुवलया० ६० ३. असम्भाव्यहेतुफलप्रेषणं विधिः । शोभाकर, अलं० रत्ना० ८२ ४. द्रष्टव्य-अ० रत्ना० पृ० १४३-४४ तथा काव्य प्र०, पृ० २७७-७८
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२४८ ]
प्रतिप्रसव
प्रत्यापत्ति को प्रतिप्रसव कहा गया है । जहाँ निवृत्त अर्थ की पुनः प्राप्ति हो वहाँ प्रतिप्रसव अलङ्कार होगा ।' प्रतिप्रसव की कल्पना नवीन है ।
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
तन्त्र तथा प्रसङ्ग
तन्त्र और प्रसङ्ग दोनों की धारणा मम्मट आदि के विशेष की धारणा से मिलती-जुलती है । तन्त्र में एक कारण से एक साथ अनेक कार्य होता है, विशेष में भी एक कार्य के प्रयत्न से दूसरा कार्य भी स्वतः सम्पादित हो जाता है । शोभाकर ने स्वयं भी तन्त्र के साथ विशेष का सार्वत्रिक सङ्कर माना है । २ प्रसङ्ग का भी विशेष से थोड़ा भेद सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है । प्रसङ्ग में किसी कार्य के लिये किये गये यत्न से प्रसङ्गात् अन्य अर्थ की प्राप्ति हो जाती है । 3 स्पष्टतः, तन्त्र और प्रसङ्ग का विशेष से इतना स्वरूप-साम्य है कि इन दोनों की स्वतन्त्र सत्ता की कल्पना भावश्यक नहीं ।
क्रम
अर्थ का आरोह-अवरोह क्रम कहा गया है। पर्याय में इस क्रम का अन्तर्भाव सम्भव है ।
वर्धमानक
शोभाकर का वर्धमानक भोज के अर्थगुण रीति से - जिसमें वस्तु की उत्पत्ति आदि क्रिया का क्रम वर्णित होता है— मिलता-जुलता है ।"
अवरोह
अवरोह वर्धमानक का विपरीत स्वभाव है । इसका समावेश भी पर्याय में सम्भव है ।
१. प्रत्यापत्तिः प्रतिप्रसवः । - शोभाकर, अलं० रत्ना० ८५
२. नानाफलप्रयुक्तः प्रयत्नस्तन्त्रम् । विशेषालङ्कारेण सह तन्त्रस्य सङ्करः । —शोभाकर अलं० रत्ना० ८६ तथा उसकी वृत्ति, पृ० १४९
३. प्रसङ्गादन्यार्थः प्रसङ्गः । - वही, ८७
४. आरोहावरोहादिः क्रमः । वही, ६२
५. द्रष्टव्य - अलं० रत्ना० ६३ तथा सरस्वती कण्ठाभरण, १,११७
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[२४६
अतिशय तथा शृङ्खला
अतिशय तथा शृङ्खला अलङ्कारों का स्वभाव एकावली, कारणमाला तथा मालादीपक आदि से अभिन्न है। प्राचीनों के एकावली, कारणमाला, मालादीपक आदि को अस्वीकार कर शोभाकर ने उक्त दो अलङ्कारों की कल्पना की है। परम्परा का त्याग कर पुरानी बात को ही नवीन रूप में प्रस्तुत करने के पीछे नवीनता का आतङ्क उत्पन्न करने की प्रवृत्ति-मात्र है। शोभाकर के बहुत पूर्व रुद्रट ने एकावली आदि को शृङ्खलामूलक अलङ्कार कहा था। उनके स्थान पर शृङ्खला नामक अलङ्कार-विशेष की कल्पना उचित नहीं। विवेक
विवेक शोभाकर की नवीन उद्भावना है। विवेक शोभाकर के परवर्ती जयदेव के उन्मीलित से अभिन्न है । उन्मीलित की कल्पना पर हमने 'चन्द्रालोक' के उन्मीलित के परीक्षण-क्रम में विचार किया है। परभाग
परभाग की स्वतन्त्र अलङ्क र के रूप में स्वीकृति उचित नहीं जान पड़ती। इसके लक्षण में कहा गया है कि जहाँ स्वरूप-मात्र से अवगत वस्तु का अन्य वस्तु की प्राप्ति होने पर उससे भेद जान पड़े, वहाँ परभाग अलङ्कार होता है।' स्पष्ट है कि इस भेद-प्रतीत की परिणति वस्तु की अन्य वस्तु से अधिकता या न्यूनता की प्रतीति में होगी। इस प्रकार इस अलङ्कार का चमत्कार व्यतिरेक से ही अनुप्राणित होने में होगा। अतः व्यतिरेक से पृथक् इसकी सता की स्वीकृति आवश्यक नहीं । उद्भद
उद्भद पूर्वाचार्यों के पिहित से मिलता-जुलता है, जिसमें छिपी बात का उद्घाटन किया जाता है। गूढ
गूढ को प्रहेलिकादिवत् गूढ कहा गया है। 3 अतः इसकी धारणा प्राचीन आचार्यों की प्रहेलिका-धारणा से गृहीत जान पड़ती है।
१. अनुभूतस्यार्थान्तरोपलब्धौ परभागः।-शोभाकर, अलं० रत्ना०, १०० २. नगूढस्य प्रतिभेद उद्भदः।-वही, १०१ ३. गूढसाकांक्षोपनिबद्ध गूढम् । इह तु प्रहेलिकादिवद्गूढार्थत्वम् ।
-वही, १०२ तथा उसकी वृत्ति, पृ० १७५
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२५० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण __ शोभाकर के द्वारा कल्पित उपरिलिखित अलङ्कारों के स्वरूप के परीक्षण से निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं :
(क) शोभाकर ने पूर्ववर्ती आचार्यों के अनेक अलङ्कारों के भेदोपभेदों को स्वीकार नहीं किया है। अतः पूर्वाचार्यों के अलङ्कार-विशेष के तत्तद् भेदों के आधार पर तत्तद् नवीन अलङ्कारों की कल्पना उन्होंने कर ली है । उदाहरणार्थ; अर्थान्तरन्यास का केवल एक रूप-विशेष का सामान्य से समर्थन-स्वीकार कर उसके अन्य रूपों के आधार पर उदाहरण ( सामान्य का विशेष से समर्थन ), हेतु ( जिसे काव्यलिङ्ग का पर्याय कहा गया है, कार्य कारण भाव पर आधृत ), वैधर्म्य आदि अलङ्कारों की कल्पना की गयी है । उपमा के कल्पिता भेद को लेकर कलितोपमा की गणना स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में कर ली गयी है। अतिशयोक्ति के यद्यर्थोक्त-कल्पन-भेद को क्रियातिपत्ति नाम से स्वतन्त्र अलङ्कार माना गया है।
(ख) कुछ प्राचीन अलङ्कार-धारणा को भी शोभाकर ने नवीन व्यपदेश' से प्रस्तुत किया है। शृङ्खलामूलक अलङ्कारों के स्थान पर शृङ्खला नामक स्वतन्त्र अलङ्कार की ही कल्पना कर ली गयी। प्राचीनों के शृङ्खलामूलक एकावली, सार आदि के आधार पर ही अतिशय का नवीन नाम कल्पित है । पिहित को उद्भद सज्ञा से प्रस्तुत किया गया है।
(ग) कुछ प्राचीन अलङ्कारों के स्वरूप से बहुत सूक्ष्म भेद के आधार पर नवीन अलङ्कार की कल्पना की गयी है। यह भेद इतना नगण्य है कि शोभाकर के तत्तत् नवीन अलङ्कारों की कल्पना ही अनावश्यक जान पड़ती है। कवियों की अनन्त उक्तियों में एक से दूसरी का कुछ-न-कुछ तो सूक्ष्म भेद पाया ही जाता है। ऐसी स्थिति में यदि प्रत्येक उक्ति के लिए उन सूक्ष्म भेदों के आधार पर अलग-अलग अलङ्कार की कल्पना की जाने लगे तो अलङ्कार की कोई सीमा नहीं रह जायगी। नगण्य भेद के आधार पर नवीन-नवीन अलङ्कारों की कल्पना में नवीनता-प्रदर्शन का मोह-मात्र है। परिसंख्या से नियम के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना ऐसी ही है। शोभाकर के नियम अलङ्कार के उदाहरण को मम्मट ने परिसख्या के उदाहरण के रूप में ही उद्ध त किया था। क्रम, अवरोह आदि की पर्याय से स्वतन्त्र सत्ता की कल्पना आवश्यक नहीं।
(घ) शोभाकर के द्वारा कल्पित कुछ अलङ्कारों का अस्तित्व चमत्कार के अभाव के कारण अमान्य है। नवीनता के मोह में कुछ ऐसे अलङ्कारों की.
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २५१
कल्पना कर ली गयी है, जिनमें वस्तुतः कोई चमत्कार नहीं। अशक्य आदि चमत्कार-हीन होने के कारण अलङ्कार नहीं।
(ङ) शोभाकर की कुछ अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ अनुपेक्षणीय हैं। असम, विनोद, विवेक, प्रतिप्रसव विपर्यय, व्यत्यास, समता आदि की अलङ्काररूप में कल्पना का श्रेय शोभाकर को है। असम का स्वरूप मम्मट आदि आचार्यों के अनन्वय तथा अन्य आचार्यों की लुप्तोपमा से तत्त्व ग्रहण कर निर्मित है। विनोद की कल्पना का आधार प्रतीप की धारणा है। विपर्यय में समाधि गुण से अन्य धर्म के अन्यत्रारोप की तथा परिवृत्ति अलङ्कार से पारस्परिक विनिमय की धारणा ली गयी है। व्यत्यास तथा समता की स्वरूपकल्पना का मूल आचार्य भरत के कार्य-लक्षण में पाया जा सकता है। स्पष्ट है कि जिन अलङ्कारों की मौलिक उद्भावना का श्रेय शोभाकर को मिलना चाहिए उनके स्वरूप से भी प्राचीन आचार्य किसी-न-किसी रूप में अवगत अवश्य थे। प्राचीनों के गुण, लक्षण तथा अलङ्कार विशेष की धारणा को मिला कर शोभाकर ने नवीन अलङ्कारों की कल्पना की है। शोभाकर के द्वारा कल्पित नवीन अलङ्कारों में से निम्नलिखित पाँच अलङ्कारों का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकृत होना चाहिए-असम, विनोद, विपर्यय, व्यत्यास और समता। असम को पण्डितराज ने उसी नाम से स्वीकार भी किया है । व्यत्यास अप्पय्य दीक्षित तथा जगन्नाथ के द्वारा लेश के रूप में स्वीकृत है। विवेक में उम्मीलित की तथा प्रतिप्रसव में पूर्वरूप की कल्पना का बीज निहित था। इन अलङ्कारों के उद्भावक आचार्य शोभाकर को गौण आलङ्कारिक मान लेना उचित नहीं।
जयदेव जयदेव का 'चन्द्रालोक' अलङ्कारशास्त्र का बहुत ही लोकप्रिय ग्रन्थ सिद्ध हुआ है। अप्पय्य दीक्षित के 'कुवलयानन्द' का यह आधारभूत ग्रन्थ है।' 'चन्द्रालोक' पर आधृत 'कुवलयानन्द' हिन्दी के रीति-आचार्यों की अलङ्कार-- मीमांसा का आदर्श सिद्ध हुआ है। यह जयदेव के अलङ्कार-विवेचन के महत्त्व का द्योतक है।
आचार्य राजानक रुय्यक और जयदेव के बीच लगभग एक शताब्दी का अन्तराल है। रुय्यक का काल बारहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध तथा जयदेव का
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२५२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
काल तेरहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जाता है।' सौ वर्षों की इस अवधि में अलङ्कारों के नाम-रूप के विषय में अनेक नूतन स्थापनाएं उपलब्ध होती हैं । पूर्ववर्ती आचार्यों के अधिकांश अलङ्कारों की संज्ञा एवं परिभाषा को स्वीकार करने पर भी जयदेव ने उनकी अलङ्कार-धारणा का अन्धानुसरण नहीं किया है। उन्होंने पूर्वप्रचलित अलङ्कारों में से कई को अस्वीकार कर कई नवीन अलङ्कारों की कल्पना की है। प्रस्तुत सन्दर्भ में जयदेव की नूतन अलङ्कारसृष्टि की समीक्षा ही हमें इष्ट है।
'चन्द्रालोक' में विवेचित अलङ्कारों की संख्या के सम्बन्ध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। डॉ० सुशील कुमार डे के अनुसार जयदेव ने आठ शब्दालङ्कारों का तथा एक सौ अर्थालङ्कारों का स्वरूप-निरूपण किया था। उनके इस कथन का आधार सम्भवतः अप्पय्यदीक्षित की मान्यता है । अप्पय्य दीक्षित ने 'चन्द्रालोक' में निरूपित शब्दालङ्कारों की संख्या आठ तथा अर्थालङ्कारों की संख्या एकसौ मानी है। सेठ कन्हैयालाल पोद्दार ने लिखा है कि 'इसके (जयदेवकृत चन्द्रालोक के) पञ्चम मयूख में आठ शब्दालङ्कार और बयासी अर्थालङ्कारों का निरूपण किया गया है।' अलङ्कारों की संख्या के सम्बन्ध में इस मतभेद का कारण 'चन्द्रालोक' के विभिन्न संस्करणों में प्राप्त पाठ-भेद ही हो सकता है। डॉ० डे ने 'चन्द्रालोक' के अनेक पाठों की चर्चा की है।५ संख्या के अतिरिक्त अलङ्कारों की संज्ञा के सम्बन्ध में भी मत-वैभिन्न्य पाया जाता है। हमारे सामने बम्बई के गुजराती प्रेस से प्रकाशित चन्द्रालोक की जो मूल प्रति है तथा 'कुवलयानन्द' के मुखबन्ध के रूप में उद्ध त 'चन्द्रालोक' की जो अलङ्कारानुक्रमणिका है उन दोनों में अलङ्कारों के नाम में पर्याप्त अन्तर है। 'कुवलयानन्द' की प्रस्तावा में प्रदत्त अलङ्कारानुक्रमणिका में विंशत्यधिक नाम ऐसे हैं जो 'चन्द्रालोक' के बम्बई से प्रकाशित उक्त संस्करण में नहीं हैं। इसके विपरीत 'चन्द्रालोक' के उक्त - संस्करण में विवेचित कुछ अलङ्कारों की चर्चा उक्त अनुक्रमणी में नहीं की गयी १. द्रष्टव्य-डॉ. सुशीलकुमार डे, "History of Sanskrit Poetics,'
खण्ड १ पृ० १८१ तथा पृ० १६८ २. वही, पृ० २०१ ३. द्रष्टव्य-कुवलयानन्द के आरम्भ में उद्ध त चन्द्रालोक की अलङ्कारानु
क्रमणिका, पञ्चम मयूख । ४. द्रष्टव्य-कन्हैयालाल पोद्दार, काव्य कल्पद्रम, खण्ड २ प्राक्कथन, पृ० २१ ५. डॉ० डे, History of Sanskrit Poetics, खण्ड १, पृ० २०२-४
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २५३
है। नीचे उक्त अनुक्रमणी में प्रदत्त अलङ्कार-तालिका प्रस्तुत की जायगी। 'चन्द्रालोक' की अलङ्कार-संख्या के सम्बन्ध में अप्पय्य दीक्षित की मान्यता पर सन्देह करने का कोई कारण नहीं है। उन्होंने जयदेव के अर्थालङ्कारों की संख्या एक सौ मानी है । उन्होंने यह स्पष्टतः स्वीकार किया है कि 'चन्द्रालोक' में जिन अलङ्कारों के लक्षण-उदाहरण दिये गये हैं उनके लक्षण-उदाहरण मैंने वहीं से लिये हैं।' 'कुवलयानन्द' में एक सौ अर्थालङ्कारों के स्वरूप-विवेचन के उपरान्त अप्पय्य दीक्षित ने कहा है कि इतने अलङ्कारों का निरूपण प्राचीन तथा अर्वाचीन आचार्यों के मतानुसार किया गया है । २ स्पष्ट है कि अप्पय्यदीक्षित के एक सौ अर्थालङ्कारों की स्वरूप-मीमांसा का आधार ‘चन्द्रालोक' ही होगा। यदि दूसरे स्रोत से भी 'कुवलयानन्द' में अलङ्कार लिये गये होते तो केवल चन्द्रालोककार के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन का पक्षपात सम्भवतः अप्पय्य दीक्षित नहीं करते। अतः जयदेव के शब्दार्थालङ्कारों की संख्या एक सौ आठ मानना ही समीचीन जान पड़ता है। कुवलयानन्द में स्वीकृत चन्द्रालोक के अर्थगत अलङ्कारों की अनुक्रमणिका निम्नलिखित है :
(१) उपमा, (२) अनन्वय, (३) उपमेयोपमा, (४) प्रतीप, (५) रूपक, (६) परिणाम, (७) उल्लेख, (८) स्मृति, (६) भ्रान्तिमान्, (१०) सन्देह. (११) अपह्न ति, (१२) उत्प्रेक्षा, (१३) अतिशयोक्ति, (१४) तुल्ययोगिता, (१५) दीपक, (१६) आवृत्तिदीपक, (१७) प्रतिवस्तूपमा, (१८) दृष्टान्त, (१९) निदर्शना, (२०) व्यतिरेक, (२१) सहोक्ति, (२२) विनोक्ति, (२३) समासोक्ति, (२४) परिकर, (२५) परिकराङ्क र, (२६) श्लेष, (२७) अप्रस्तुतप्रशंसा, (२८) प्रस्तुताङ्कर, (२९) पर्यायोक्त, (३०) व्याजस्तुति, (३१) व्याजनिन्दा, (३२) आक्षेप, (३३) विरोधाभास, (३४) विभावना, (३५) विशेषोक्ति, (३६) असम्भव, (३७) असङ्गति, (३८) विषम, (३६) सम, (४०) विचित्र, (४१) अधिक, (४२) अल्प, (४३) अन्योन्य, (४४) विशेष, (४५) व्याघात, (४६) कारणमाला, (४७) एकावली. (४८) मालादीपक, (४९) सार, (५०) यथासंख्य, (५१) पर्याय, (५२) परिवृत्ति, १. येषां चन्द्रलोके दृश्यन्ते लक्ष्यलक्षणश्लोकाः। प्रायस्त एव तेषां ... ... ... ... ... ... ... ||
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द वृत्ति पृ० २ २. इत्थं शतमलङ्कारा लक्षयित्वा निदर्शिताः।
प्राचामाधुनिकानां च मतान्यालोच्य सर्वतः ॥-वही, १६६
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२५४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
(५३) परिसंख्या, (५४) विकल्प, (५५) समुच्चय, (५६) कारकदीपक, (५७) समाधि, (५८) प्रत्यनीक, (५९) अर्थापत्ति, (६०) काव्यलिङ्ग, (६१) अर्थान्तरन्यास, (६२) विकस्वर, (६३ प्रौढोक्ति, (६४) सम्भावना, (६५) मिथ्याध्यवसिति, (६६) ललित, (६७) प्रहर्षण, (६८) विषादन, (६९) उल्लास, (७०) अवज्ञा, (७१) अनुज्ञा, (७२) लेश, (७३) मुद्रा, (७४) रत्नावली, (७२) तद्गुण, (७६) पूर्वरूप, (७७) अतद्गुण, (७८) अनुगुण, (७६) मीलित, (८०) सामान्य, (८१) उन्मीलित, (८२) निमीलित, (८३) उत्तर, (८४) सूक्ष्म, (८५) पिहित, (८६) व्याजोक्ति, (८७) गूढोक्ति, (८) विवृतोक्ति, (८९) युक्ति, (९०) लोकोक्ति, (६१) छेकोक्ति, (९२) वक्रोक्ति. (९३) स्वभावोक्ति, (९४) भाविक, (९५) उदात्त, (९६) अत्युक्ति, ( ७) निरुक्ति, (८) प्रतिषेध, (६६) विधि तथा (१००) हेतु ।
गुजराती प्रिंटिंग प्रेस से प्रकाशित चन्द्रालोक' में पूर्वोक्त अलङ्कारों में से प्रस्तुताङ्कर, व्याजनिन्दा, अल्प, मालादीपक, मिथ्याध्यवसिति, ललित. अनुज्ञा, लेश, मुद्रा, रत्नावली, निमीलित, सूक्ष्म, गूढोक्ति, विवृतोक्ति, युक्ति, लोकोक्ति, निरुक्ति, प्रतिषेध, विधि तथा हेतु अलङ्कारों का उल्लेख नहीं पाया जाता। इसमें अनुमान, विरोध तथा भाविकच्छवि का उल्लेख है जिनकी गणना उक्त अनुक्रमणी में नहीं की गया है। अनुक्रमणी में मीनित के अतिरिक्त निमीलित का नामोल्लेख है। पूर्ववर्ती आचार्यों ने मीलित का ही सोपसर्ग प्रयोग निमीलित किया था । अप्पय्य दीक्षित भी सम्भवतः मीलित से पृथक् निमीलित
का अस्तित्व स्वीकार करना नहीं चाहते थे। इसीलिए उक्त अनुक्रमणी पर आधृत - अपनी अलङ्कार-तालिका में उन्होंने निमीलित के स्थान पर विशेषक अलङ्कार का विवेचन किया है। किन्तु, इस अनुपपत्ति से बचने के लिए उन्होंने जो पाठ-भेद किया उससे वे और अधिक उलझन में पड़ गये। विशेष का स्वरूपप्रतिपादन उन्हें दो बार करना पड़ा, जिसे कथमपि समीचीन नहीं माना जा सकता। अस्तु, उपरिलिखित अलङ्कारानुक्रमणिका तथा 'चन्द्रालोक' की उपलब्ध मूल प्रति में जिन अलङ्कारों का उल्लेख मिलता है उनका पूर्वविवेचित ‘अलङ्कारों से सम्बन्ध की दृष्टि से हम परीक्षण करेंगे। ___ 'चन्द्रालोक' में निम्नलिखित आठ शब्दालङ्कारों का विवेचन हुआ है :छेकानुप्रास, वृत्त्यनुप्रास, लाटानुप्रास, स्फुटानुप्रास, अर्थानुप्रास, पुनरुक्तप्रतीकाश, यमक और चित्र । पुनरुक्तप्रतीकाश उद्भट आदि प्राचीन आचार्यों के पुनरुक्तवदाभास का ही अपर पर्याय है। छेक, वृत्ति तथा लाट अनुप्रासों
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अलङ्कार-धारणा का विकास
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के नाम-रूप प्राचीन ही हैं। यमक और चित्र अलङ्कारों का विवेचन भी पूर्ववर्ती आचार्यों के मतानुसार ही किया गया है। जयदेव ने दो नवीन शब्दालङ्कारों का निरूपण किया है। वे हैं :- स्फुटानुप्रास और अर्थानुप्रास । स्फुटानुप्रास
चन्द्रालोककार ने स्फुटानुप्रास की परिभाषा में कहा है कि यदि श्लोक के आधे भाग में या उसके भी आधे अर्थात् पाद में किसी वर्ण की नियत आवृत्ति हो तो उसे स्फुटानुप्रास कहते हैं।' यह स्फुटानुप्रास-धारणा आचार्य दण्डी की 'धारणा से भिन्न नहीं। दण्डी ने अनुप्रास अलङ्कार का उल्लेख माधुर्य गुण के प्रसङ्ग में किया था, अलङ्कार के प्रसङ्ग में नहीं। दण्डी ने भी अनुप्रास के 'पदगत तथा पादगत भेद स्वीकार किया था। स्फुटानुप्रास की धारणा उससे मिलती-जुलती ही है।
अर्थानुप्रास
प्रस्तुत अलङ्कार जयदेव की नवीन कल्पना है। उनकी मान्यता है कि जहां उपमेय और उपमान-वाक्यों में नियत वर्णावृत्ति हो वहाँ अर्थानुप्रास अलङ्कार होता है ।२ सादृश्यमूलक रूपक आदि में भी उपमानोपमेय वाक्यों में नियत वर्णों की आवृत्ति की कल्पना की जा सकती है। इस प्रकार उपमा आदि अर्थालङ्कारों के साथ वर्णावृत्ति-रूप अनुप्रास की धारणा को मिला कर मर्थानुप्रास नामक नवीन अलङ्कार की कल्पना की गयी है ।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि जयदेव के 'चन्द्रालोक' में अधिकांशतः पूर्ववर्ती आचार्यों की शब्दालङ्कार-धारणा को ही स्वीकार किया गया है। स्फुटानुप्रास का नाम-मात्र नवीन है। उसका स्वरूप दण्डी के अनुप्रास के स्वरूप से अभिन्न है। एक नवीन शब्दालङ्कार 'अर्थानुप्रास' की उद्भावना का श्रेय जयदेव को है। इसमें नियत वर्णावृत्ति का विचार होने से यह शब्दालङ्कार है, पर उपमान तथा उपमेय-रूप अर्थ का विचार होने से अर्थालङ्कार । इसीलिए इसकी संज्ञा अर्थानुप्रास है, पर इसकी गणना शब्दालङ्कार-वर्ग में की गयी है।
१. श्लोकस्याध तदध वा वर्णावृत्तिर्यदि ध्र वा ॥
तदा मता मतिमतां स्फुटानुप्रासता सताम् ।।-जयदेव, चन्द्रालोक, ५,५ २. उपमेयोपमानादावर्थानुप्रास इष्यते । वही, ५, ६.
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२५६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण __ अर्थालङ्कारों के स्वरूप-निरूपण में जयदेव ने आचार्य भरत से लेकर रुय्यक तक की कृतियों में व्यक्त तत्तदलङ्कार-विषयक मान्यताओं का उपयोग किया है। प्राचीन आचार्यों के जिन अलङ्कारों को जयदेव ने स्वीकार किया है, उनके लक्षण भी प्रायः उन्होंने पूर्वाचार्यों के मतानुसार ही दिये हैं। प्राचीन अभिधान वाले अर्थालङ्कार के रूप-विधान में चन्द्रालोककार ने नवीन स्थापना का प्रयास बहुत कम किया है। उन्होंने किसी एक पूर्ववर्ती आचार्य के अलङ्कारसिद्धान्त का अनुगमन नहीं कर विभिन्न अलङ्कारों की स्वरूप-मीमांसा में अलगअलग आलङ्कारिकों के मत को स्वीकार किया है। इस दृष्टि से हम 'चन्द्रालोक' में प्रतिपादित प्राचीन अलङ्कारों के स्वरूप का परीक्षण नीचे करेंगे।
प्राचीन आचार्यों में सामान्य परिभाषा में अधिकाधिक तथ्य-प्रकाशन की प्रवृत्ति अधिक थी। धीरे-धीरे आचार्यों का झुकाव विशेषीकरण की ओर बढ़ा। एक सामान्य तथा व्यापक परिभाषा का ही तत्त्व लेकर अनेक विशिष्ट तथा सीमित परिभाषाएँ बनायी जाने लगी। अलङ्कार-विवेचन के क्षेत्र में भी यह प्रवृत्ति स्पष्ट है। आचार्यों के बुद्धि-विलास से ऐसे अनेक अलङ्कार आविभूत हुए जिनके स्वरूप में बड़े आयास से कुछ सूक्ष्म भेद दिखाया जा सकता है, और उस सूक्ष्म भेद के होने पर भी उन सब के स्वरूप तक प्राचीन आचार्य के किसी एक अलङ्कार-लक्षण की व्याप्ति पायी जा सकती है। 'चन्द्रालोक' में मम्मट आदि आचार्यों के किसी व्यापक अलङ्कार-लक्षण के आधार पर जिन नवीन अलङ्कारों की कल्पना की गयी है उनका परीक्षण जयदेव की अलङ्कारविषयक नूतन उद्भावना के सन्दर्भ में किया जायगा ।
अलङ्कार के क्षेत्र में जयदेव की कुछ नवीन उद्भावनाओं का भी अवमूल्यन नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत सन्दर्भ में जयदेव कृत 'चन्द्रालोक' में निरूपित अर्थालङ्कारों का प्राचीन आचार्यों की रचनाओं में विवेचित अलङ्कारों से स्वरूपगत समता-विषमता की दृष्टि से अध्ययन तथा 'चन्द्रालोक' में कल्पित नवीन अलङ्कारों का स्रोत-सन्धान वाञ्छनीय है।
उपमा
उपमा अलङ्कार के सामान्य स्वभाव का विवेचन जयदेव ने प्राचीन आचार्यों के मतानुसार ही किया है। इसी सन्दर्भ में उन्होंने अनन्वय तथा उपमेयोपमा का स्वरूप-निरूपण किया है, जी प्राचीनों की पद्धति पर ही किया गया है। इस प्रसङ्ग में उन्होंने एक प्रतीपोपमा अलङ्कार की कल्पना की है।
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २५७
૧
इस कल्पना के आधार का परीक्षण अपेक्षित है । जयदेव ने प्रतीपोपमा से पृथक् प्रतीप अलङ्कार का भी विवेचन किया है । उक्त दो अलङ्कारों के परस्पर स्वतन्त्र अस्तित्व की स्वीकृति का औचित्य विचारणीय है । प्रतीपोपमा के लक्षण में ' कहा गया है कि जहाँ प्रसिद्ध उपमान की कल्पना उपमेय के रूप में की जाती हो वहाँ प्रतीपोपमा नामक अलङ्कार होता है ।' स्पष्ट है कि मम्मट, रुय्यक आदि के प्रतीप - लक्षण से प्रतीपोपमा का उक्त लक्षण अभिन्न है । फिर, जयदेव के प्रतीप अलङ्कार की स्वरूप - कल्पना का क्या आधार है ? उन्होंने प्रतीप की परिभाषा इस प्रकार दी है : - उपमेय से उपमान की हीनता के वर्णन में प्रतीप नामक अलङ्कार होता है । उपमान के प्रति साधारणतः उपमेय की अपेक्षा आधिक्य की भावना रहा करती है । उपमेय के उत्कर्ष की व्यञ्जना के लिए कभी-कभी उसकी अपेक्षा उपमान को हेय बताया जाता है । ऐसे स्थल में जयदेव ने प्रतीप का सद्भाव माना है । स्पष्टतः, प्रतीप का यह लक्षण भी मम्मट आदि के प्रतीप-लक्षण के ही समान है । मम्मट ने प्रतीप के दो रूप माने थे – (क) उपमान का आक्षेप ( निन्दा या निषेध ) तथा (ख) अनादर के लिए उपमान का उपमेयत्व - प्रकल्पन । 3 मम्मट के प्रतीप के प्रथम भेद के स्वरूप के आधार पर जयदेव ने प्रतीप की परिभाषा दी तथा द्वितीय भेद की प्रकृति के आधार पर प्रतीपोपमा को परिभाषित किया । वस्तुतः प्रतीपोपमा और प्रतीप के पृथक्-पृथक् अस्तित्व की कल्पना आवश्यक नहीं । प्रतीपोपमा का नाम मात्र नवीन है, स्वरूप प्राचीन आचार्यों के प्रतीप से अभिन्न । जयदेव ने ललितोपमा नामक अलङ्कार की कल्पना कर उसके लक्षण में कहा है कि यदि उपमान लीला आदि पदों से युक्त हो तो उसे ललितोपमा कहेंगे । लीला के साथ 'आदि' से उन्हें कौन-कौन से पद अभिप्रेत यह स्पष्ट नहीं है । ललितोपमा के उदाहरण को दृष्टि में रखकर 'चन्द्रालोक'
१. विख्यातस्योपमानस्य यत्र स्यादुपमेयता । (इन्दुर्मुखमिवेत्यादौ स्यात् प्रतीपोपमा तदा ॥
-जयदेव, चन्द्रालोक, ५, १४
२. प्रतीपमुपमानस्य हीनत्वमुपमेयतः । - वही, ५, १०० ३. आक्षेप उपमानस्य प्रतीपमुपमेयता ।
तत्रव यदि वा कल्प्या तिरस्कारनिबन्धनम् ॥
- मम्मट, काव्यप्रकाश, १०, २०१ ४. उपमाने तु लीलादिपदाढ्य ललितोपमा । - जयदेव, चन्द्रालोक, ५, १५
१७
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२५८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
के टीकाकार वैद्यनाथ पायगुण्ड ने उक्त अलङ्कार के सम्बन्ध में जयदेव की मान्यता को इस प्रकार स्पष्ट करने का प्रयास किया है: - उपमान - वाचक पद में लीला आदि पदों का प्रयोग कर जहाँ उपमेय पर उपमान के धर्म का आरोप किया जाय, वहाँ जयदेव के मतानुसार ललितोपमा का सद्भाव माना जायगा । निष्कर्षतः, इस अलङ्कार में उपमान और उपमेय में एक के धर्म का अपरत्र आरोप होता है । " भरत ने लीलादि अर्थ का वर्णन ( लीला आदि चेष्टा का वर्णन ) कान्ति गुण का धर्म माना था । २ उपमान के साथ लीलादि-पद के प्रयोग की धारणा उक्त धारणा से प्रभावित जान पड़ती है । उपमान के धर्म का उपमेय पर आरोपित किया जाना ललितोपमा के जयदेव - प्रदत्त लक्षण पर टीकाकार के द्वारा आरोपित है । यदि यह जयदेव को अभीष्ट रहा हो तो उनके उक्त अलङ्कार का स्वरूप आचार्य दण्डी के समाधि गुण से मिलता-जुलता माना जायगा । किन्तु, जयदेव की यह मान्यता स्पष्ट नहीं है । केवल लीला आदि पद-विशेष के प्रयोग के आधार पर स्वतन्त्र अलङ्कार के अस्तित्व की कल्पना समीचीन नहीं जान पड़ती । स्तवकोपमा के लक्षण में कहा गया है कि जहाँ अनेक उपमान उपमेय रूप अर्थ-युग्म का सादृश्य दिखाया जाय वहाँ स्तवकोपमा नामक अलङ्कार माना जाता है । अनेक उपमेय का अनेक उपमान के साथ सादृश्य निरूपित होने के कारण, उपमेय तथा उपमान के गुच्छ के सद्भाव के कारण, इसे स्तवकोपमा कहा जाता है । यह धारणा आचार्य भरत की उपमा के उस भेद की धारणा के समान है, जिसमें उन्होंने अनेक उपमेय का अनेक उपमान से सादृश्य-प्रदर्शन वाञ्छनीय माना है | सम्पूर्णोपमा को प्रकृति के सम्बन्ध में यह मान्यता प्रकट की गयी है कि इसमें उपमान तथा
१. तत्रोपमानोपमेययोरन्यतरत्रान्यतरधर्मारोपो ललितोपमेति फलितम् । — जयदेव, चन्द्रालोक, रमा टीका, पृ० ४३
२. लीलाद्यर्थोपपन्नां वा तां कान्ति कवयो विदुः ॥
- भरत, नाट्यशास्त्र, १६, ११२ ३. अनेकार्थस्य युग्मस्य सादृश्यं स्तवकोपमा । - जयदेव, चन्द्रालोक, ५, १६ तथा
....अर्थयुग्मस्योपमानोपमेयरूपस्यानेकस्य यत्सादृश्यं सा सा, उपमानोपमेययोरनेकत्वं यत्र यत्र सेति यावत् । - वही, रमा टीका, पृ० ४३
४. भरत नाट्यशास्त्र १६, ४२
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २५६ उपमेय, दोनों में एक धर्म की वाच्यता रहती है।' इसके स्वरूप की कल्पना आचार्य दण्डी के श्लेषोपमा-लक्षण के आधार पर की गयी है।'
रूपक
'चन्द्रालोक' में रूपक अलङ्कार का सामान्य लक्षण प्राचीन आचार्यों के मतानुसार ही दिया गया है। जयदेव ने सोपाधिरूपक, सादृश्यरूपक, आभासरूपक तथा रूपितरूपक; इन चार रूपक-प्रकारों का निरूपण किया है। सोपाधि तथा सादृश्यरूपक प्राचीन आचार्यों के क्रमशः परम्परित रूपक एवं समस्तवस्तु-विषय सावयवरूपक के समान हैं। आभास रूपक की कल्पना आरोप्यमाण की असुन्दरता के आधार पर की गयी है। अङ्ग पर यष्टि आदि असुन्दर वस्तु के आरोप को जयदेव आभास रूपक या रूपकाभास कहेंगे । वस्तुतः अलङ्कार-योजना प्रस्तुत की प्रभाववृद्धि के लिए की जाती है। यदि आरोप्यमाण में रमणीयता का अभाव हो, वह आरोप विषय के प्रभाव के संवर्धन में अक्षम हो, तो उसे आभासरूपक कहा जायगा। प्रश्न यह है कि क्या इसे अलङ्कार का स्वतन्त्र प्रकार माना जाना चाहिए ? यदि आरोप्यमाण रमणीय नहीं है तो वह अलङ्कारत्व का विधान कैसे करेगा ? रस आदि के क्षेत्र में आभास की कल्पना अनौचित्य के स्थल में की गयी है। यदि आरोप के अनौचित्य के आधार पर रूपक के आभास-भेद की कल्पना की जाय तो उसका अलङ्कारत्व ही असिद्ध हो जायगा । स्पष्टतः, आभासरूपक की कल्पना बुद्धि-विलास-मात्र है। रूपितरूपक के स्वरूप की कल्पना का आधार प्राचीन आचार्यों के रूपक-रूपक का स्वरूप है।
परिणाम की धारणा जयदेव ने रुय्यक के 'अलङ्कार-सूत्र' से ली है। उल्लेख के स्वरूप की कल्पना भी रुय्यक आदि के मतानुसार ही की गयी है।
जयदेव की अपह्न ति का सामान्य स्वरूप आचार्य दण्डी की अपह्नति के स्वरूप से अभिन्न है। 'चन्द्रालोक' में अपह्नति के निम्नलिखित प्रकारों का विवेचन किया गया है:-पर्यस्तापह्न ति, भ्रान्तापह्न ति, छेकापह्न ति, तथा कैतवापह्नति । आचार्य दण्डी ने 'काव्यादर्श' में अपह्नति के भेदों के
१. स्यात् सम्पूर्णोपमा यत्र द्वयोरपि विधेयता । जयदेव, चन्द्रालोक ५, १७ २. तुलनीय-दण्डी, काव्यादर्श, २, २८ ३. स्यादङ गयष्टिरित्येवं विधमाभासख्यकम् ।-जयदेव, चन्द्रालोक, ५, २१
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२६० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
विवेचन के उपरान्त उसके अन्य अनेक भेदों की सम्भावना भी प्रकट की थी । 'काव्यादर्श' के टीकाकार नृसिंहदेव ने जयदेव - कल्पित उक्त अपह्न ुति-भेदों को दण्डी-सम्मत स्वीकार किया है ।" यह मान्यता उचित ही जान पड़ती है । ऐसे बहुत से अपह्न ुति प्रकार दण्डी आदि के समय ही प्रचलित रहे होंगे । उन्होंने सब को अलग-अलग परिभाषित करना आवश्यक नहीं समझा होगा । दण्डी के सङ्क ेत का सहारा लेकर ही जयदेव ने अपह्न ुति के उक्त भेदों की कल्पना की है ।
उत्प्रेक्षा की प्रकृति के सम्बन्ध में जयदेव प्राचीन आचार्यों से सहमत हैं । उन्होंने उत्प्र ेक्षा के एक गूढ़ा भेद की कल्पना की है, जिसमें उत्प्रेक्षा के वाचक इव आदि शब्दों के प्रयोग का अभाव रहता है । ' ' अलङ्कार - सर्वस्व' में इवादि के अभाव में प्रतीयमाना उत्प्रेक्षा की कल्पना की गयी थी । गूढोत्प्र ेक्षा का स्वरूप उक्त प्रतीयमाना उत्प्र ेक्षा के ही समान है ।
स्मृति भ्रान्ति, सन्देह, मीलित तथा सामान्य अलङ्कारों के लक्षण जयदेव ने मम्मट, रुय्यक आदि पूर्ववर्ती आचार्यों की मान्यता के अनुरूप दिये हैं ।
अनुमान का स्वरूप मम्मट, रुय्यक आदि के मतानुसार कल्पित है । अर्थापत्ति अलङ्कार की धारणा रुय्यक के 'अलङ्कार सूत्र' से ली गयी है । काव्यलिङ्ग तथा परिकर अलङ्कारों के स्वरूप के सम्बन्ध में जयदेव मम्मट तथा रुय्यक आदि आचार्यों से सहमत हैं ।
अतिशयोक्ति की सामान्य धारणा मम्मट आदि आचार्यों की तद्विषयक धारणा से अभिन्न है । जयदेव ने प्रस्तुत अलङ्कार के छह भेदों की कल्पना की है । वे भेद हैं: — अक्रमातिशयोक्ति, अत्यन्तातिशयोक्ति, चपलातिशयोक्ति, सम्बन्धातिशयोक्ति, भेदकातिशयोक्ति तथा रूपकातिशयोक्ति । अक्रम, अत्यन्त तथा चपल अतिशयोक्ति-भेद रुय्यक के कार्य-कारण- पौर्वापर्य - विध्वंस- रूप अतिशय के आधार पर कल्पित हैं । रूपकातिशयोक्ति मम्मट के 'निगीर्याध्य
१. ................अपह्न तेः प्रकारत्रयं निरूप्य ' इत्यपह्न ुतिभेदानां लक्ष्यो लक्ष्येषु विस्तर' इति आचार्यान्तरोक्तापह्न ुतिभेदसंग्रहीकरणायोक्तम् तेन शुद्धापह्न ुतिः, हेत्वपह्न ुतिः, पर्यस्तापह्न ुतिः, भ्रान्तापह्न ुतिः, छेकापह्न तिरित्याद्या अपि भेदा दण्डिनां सम्मता एवाभान्ति ।
- काव्यादर्श, कुसुमप्रतिमा टीका, पृ० २३६-३७ २. इवादिकपदाभावे गूढोत्प्रेक्षां प्रचक्षते । - जयदेव, चन्द्रालोक, ५, ३० ३. प्रतीयमानायां पुनरिवाद्यप्रयोगः । - रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० ५५
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[२६१
वसान' पर आधृत है। सम्बन्धातिशयोक्ति की कल्पना का आधार मम्मट, रुय्यक आदि के असम्बन्ध में सम्बन्ध-वर्णन-रूप अतिशयोक्ति-प्रकार है। भेदकातिशयोक्ति का स्वरूप मम्मट के 'प्रस्तुतस्य अन्यत्व' के आधार पर कल्पित है। स्पष्टतः, अतिशयोक्ति-विषयक प्राचीन मान्यता का ही स्पष्टीकरण जयदेव ने किया है।
तुल्ययोगिता तथा दीपक के सम्बन्ध में जयदेव की धारणा मम्मट आदि आचार्यों की धारणा के समान है। जयदेव ने आवृत्तिदीपक का लक्षणनिरूपण किया है। उनका आवृत्तिदीपक आचार्य दण्डी की आवृत्ति से अभिन्न है।
प्रतिवस्तूपमा तथा दृष्टान्त की परिभाषाएँ जयदेव ने मम्मट आदि पूर्वाचार्यों के मतानुसार दी हैं। निदर्शना को जयदेव ने किञ्चित् नवीन रूप से परिभाषित किया है, यद्यपि उनकी तद्विषयक धारणा आचार्य मम्मट की धारणा से तत्वतः मिलती-जुलती ही है। उन्होंने सादृश्य के कारण दो वाक्यार्थों में ऐक्य के आरोप में निदर्शना का सद्भाव माना है ।२ 'चन्द्रालोक' की 'रमा' व्याख्या में निदर्शना की उक्त परिभाषा के स्पष्टीकरण में कहा गया है कि इसमें दो वाक्यार्थों में उपमानोपमेय-भाव की कल्पना कर आहार्य अभेदरूप तादात्म्य का आरोप किया जाता है। इस प्रकार व्याख्याकार ने जयदेव की निदर्शना-धारणा को आचार्य मम्मट तथा रुय्यक की तद्विषयक धारणा से अभिन्न सिद्ध किया है। ___ व्यतिरेक और सहोक्ति के सम्बन्ध में जयदेव की धारणा मम्मट, रुय्यक आदि पूर्ववर्ती आचार्यों की धारणा के समान है। ___ मम्मट ने विनोक्ति के दो रूप स्वीकार किये थे—अन्य के बिना अन्य का अशोभन होना तथा अन्य के बिना अन्य का शोभन होना। जयदेव ने इन दोनों में से केवल प्रथम रूप का अलङ्कारत्व स्वीकार किया है।
समासोक्ति, श्लेष तथा अप्रस्तुतप्रशंसा का लक्षण-निरूपण जयदेव ने मम्मट आदि की मान्यता के अनुरूप ही किया है। श्लेष के शब्दगत तथा अर्थगत,
१. तुलनीय-जयदेव, चन्द्रालोक, ५, ५४ तथा दण्डी, काव्यादर्श २, ११६ २. वाक्यार्थयोः सदृशयोरैक्यारोपो निदर्शना । जयदेव, चन्द्रालाक, ५, ५८ ३. यत्र सादृश्यवशाद्वाक्यार्थयोरैक्यमारोप्यते उपमानोपमेयभावकल्पनाफलको वाक्यार्थयोराहार्याभेदनिश्चयरूपतादात्म्यारोप इति यावत्तत्र निदर्शनालङ्कारः। वही, रमा टीका पृ० ५६
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२६२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
दोनों भेद जयदेव को मान्य हैं। उन्होंने पदश्लेष के सभङ्ग तथा अभङ्ग भेदों का भी विवेचन किया है। शब्दश्लेष का शब्दालङ्कार के सन्दर्भ में पृथक् विवेचन नहीं कर एक ही स्थल में श्लेष के भेद के रूप में शाब्द तथा आर्थ श्लेषों का लक्षण-निरूपण किया गया है। .
अर्थान्तरन्यास का जयदेव-प्रदत्त लक्षण मम्मट आदि के लक्षण से मिलताजुलता है। पर्यायोक्ति तथा व्याजस्तुति की प्रकृति का विवेचन भी जयदेव ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के मतानुसार ही किया है । __ आक्षेप अलङ्कार के सामान्य लक्षण-निरूपण में जयदेव पूर्वाचार्यों से पूर्णतः सहमत हैं। उन्होंने गूढाक्षेप-नामक एक नवीन आक्षेप-प्रकार का उल्लेख किया है। यह आक्षेप-प्रकार नाम्ना ही नवीन है। इसकी प्रकृति आचार्य रुय्यक के द्वितीय आक्षेप-भेद के समान है। आचार्य दण्डी ने इससे मिलते-जुलते आक्षेप के स्वभाव का विवेचन साचिव्याक्षेप नाम से किया था।
विरोध अलङ्कार की धारणा जयदेव ने आचार्य रुद्रट के 'काव्यालङ्कार' से ली है। रुद्रट के पूर्व आचार्य दण्डी भी विरोध का विवेचन कर चुके थे ।
विरोधाभास के लक्षण-निरूपण में जयदेव ने मम्मट आदि प्राचीन आचार्यों की मान्यता को ही स्वीकार किया है।
विभावना, विशेषोक्ति और असङ्गति के लक्षण जयदेव ने पूर्वाचार्यों के मतानुसार दिये हैं।
विषम अलङ्कार के लक्षण-निरूपण में चन्द्रालोककार ने आचार्य मम्मट के विषम-विषयक सिद्धान्त का अंशतः उपयोग किया है। मम्मट ने विषम के चार रूपों को स्वीकार किया था। उनमें से एक लक्षण-अनुपपद्यमान का योग-को जयदेव ने विषम अलङ्कार का लक्षण स्वीकार किया। मम्मट के द्वितीय विषम-लक्षण के आधार पर उन्होंने विषादन नामक एक नवीन अलङ्कार की कल्पना कर ली। इसका विवेचन हम यथास्थान
करेंगे।
___सम की धारणा मम्मट आदि आचार्यों की धारणा के समान है। विचित्र की प्रकृति का निरूपण जयदेव ने रुय्यक के मतानुसार किया है। अधिक की परिभाषा देते हुए जयदेव ने मम्मट आदि आचार्यों के अधिक के एक ही
१. विषमं यद्यनौचित्यादनेकान्वयकल्पनम् ।-जयदेव, चन्द्रालोक, ५,८०.
तुलनीय-मम्मट, काव्यप्रकाश, १०, १२६-२७ पृ० २८५
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[२६३
रूप को-आधार से आधेय के आधिक्य-वर्णन-रूप अधिक को-स्वीकार किया है। अन्योन्य का लक्षण मम्मट आदि की मान्यता के अनुरूप दिया गया है। विशेष को जयदेव ने मम्मट के मतानुसार ही परिभाषित किया है; किन्तु उन्होंने मम्मट के विशेष का एक ही रूप स्वीकार किया है—ख्यात आधार के बिना भी आधेय का वर्णन ।
व्याघात का लक्षण-निरूपण 'चन्द्रालोक' में कुछ नवीन रूप में किया गया है । जयदेव की मान्यता है कि जहाँ लोकप्रसिद्ध कार्य करने वाली वस्तु अयथाकारी रूप में वर्णित हो अर्थात् प्रसिद्ध क्रिया को छोड़ विरुद्ध कार्य उत्पन्न करे, वहाँ व्याघात अलङ्कार होता है। ध्यातव्य है कि मम्मट ने किसी के द्वारा प्रयुक्त साधन का विजिगीषु के द्वारा उसी के विरुद्ध प्रयोग किये जाने में व्याघात का सद्भाव माना था। रुय्यक ने भी इस धारणा को स्वीकार किया था ; पर उन्होंने इसके साथ ही व्याघात के एक और रूप की कल्पना की थी, जिसमें किसी विशेष उद्देश्य से किसी कारण का उसके प्रकृत कार्य से विरुद्ध कार्य की निष्पादकता का समर्थन किया जाता है । जयदेव की व्याघात-धारणा रुय्यक की इस धारणा से प्रभावित जान पड़ती है; किन्तु इसमें उन्होंने रुय्यक की तरह विशेष प्रयोजन की सिद्धि पर बल नहीं दिया है।
कारणमाला, एकावली, दीपकैकावली या मालादीपक तथा सार अलङ्कारों के सम्बन्ध में जयदेव की धारणा पूर्वाचार्यों की धारणा से अभिन्न है । 'चन्द्रालोक' में उदारसार-नामक एक अलङ्कार का लक्षण-निरूपण किया गया है। इसकी परिभाषा में कहा गया है कि जहाँ उपमाननिष्ठ गुण की अपेक्षा उपमेयनिष्ठ गुण की अधिकता का वर्णन करते हुए भिन्न होने पर भी शब्दमहिमा से उनके गुणों में एकता का आभास दिलाया जाय, वहाँ उदारसार अलङ्कार होता है।२ भिन्न गुण में अभिन्नता का आभास आरोप का परिणाम होता है, जो लाक्षणिक प्रयोग पर आधृत है । उदाहरणार्थ; यदि काव्य को मधु से अधिक मधुर पीयूष से भी बढ़ कर मधुर कहा जाय तो जयदेव इसे उदारसार मानेंगे । काव्य की मिठास लाक्षणिक प्रयोग है। वह तत्त्वतः मधु आदि की मिठास से भिन्न है; फिर भी उक्त कथन में मधु और काव्य के १. स्याद्व्याघातोऽयथाकारि वस्तुनि अक्रियमुच्यते।
-जयदेव, चन्द्रालोक, ५, ८६ २. उदारसारश्चेद्भाति भिन्नोऽभिन्नतया गुणः । वही, ५, ६१
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२६४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण गुणों की एकता का आभास मिलता है। इस लाक्षणिक प्रयोग पर आधृत सार का भी समावेश मम्मट आदि के सामान्य सार-लक्षण में सम्भव है। अतः, उदारसार की पृथक् सत्ता की कल्पना को जयदेव का कल्पना-विलासमात्र माना जा सकता है।
यथासंख्य तथा पर्याय अलङ्कारों के स्वभाव के सम्बन्ध में जयदेव अपने पूर्ववर्ती मम्मट आदि आचार्यों की धारणा से पूर्णतः सहमत हैं। परिवृत्ति के लक्षण में उन्होंने मम्मट की परिवृत्ति का केवल असम में परिवर्तन रूप स्वीकार किया है। परिसंख्या के विषय में भी वे मम्मट आदि से एकमत हैं।
विकल्प अलङ्कार की धारणा जयदेव ने आचार्य रुय्यक से ली है। उनका समुच्चय आचार्य मम्मट के द्वितीय समुच्चय के समान है। समाधि तथा प्रत्यनीक के लक्षण की कल्पना उन्होंने मम्मट आदि की तद्विषयक धारणा के आधार पर की है।
हम देख चुके हैं कि 'चन्द्रालोक' में उल्लिखित प्रतीप अलङ्कार का लक्षण पूर्ववर्ती आचार्यों के प्रतीप-लक्षण से अभिन्न है। तद्गुण, अतद्गुण तथा प्रश्नोत्तर के स्वरूप की कल्पना जयदेव ने मम्मट आदि पूर्ववर्ती आचार्यों की तद्विषयक धारणा के अनुरूप की है। मम्मट के उत्तर को ही 'चन्द्रालोक' में प्रश्नोत्तर कहा गया है।
पिहित अलङ्कार के स्वरूप की कल्पना जयदेव ने कुछ नवीन रूप में की है। उनके पूर्व आचार्य रुद्रट पिहित का स्वरूप-निरूपण कर चुके थे; पर उन्होंने रुद्रट की पिहित-धारणा को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने पिहित के लक्षण में कहा है कि जहाँ दूसरे के वृत्तान्त को जानने वाला विशेष प्रकार की चेष्टा करता हो, वहाँ उक्त अलङ्कार होता है । ' इस प्रकार जयदेव ने पिहित का स्वभाव मम्मट आदि के सूक्ष्म अलङ्कार के स्वभाव के समान बना दिया है। मम्मट ने आकृति या इङ्गित से मनोभाव के प्रकटीकरण को सूक्ष्म कहा था।२ जयदेव ने रुद्रट से पिहित की संज्ञा लेकर मम्मट के सूक्ष्म की प्रकृति के आधार पर उसके रूप को कल्पना कर ली। उद्योतकार इसे मम्मट आदि के सूक्ष्म से स्वतन्त्र नहीं मानते ।
१. पिहितं परवृत्तान्तज्ञातुरन्यस्य चेष्टितम् । -जयदेव, चन्द्रालोक, ५,१०६ २. द्रष्टव्य-मम्मट, काव्यप्रकाश, १०,११२ पृ० २८१ ३. उद्योतकारास्तु-सूक्ष्मालङ्कारान्तर्भूतत्वान्न पिहितालङ्कारः
पृथगलङ्कार इत्याहुः। कुवलयानन्द अलङ्कारचन्द्रिका टीकापृ० १६८
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २६५
व्याजोक्ति, वक्रोक्ति, स्वभावोक्ति, भाविक तथा उदात्त अलङ्कारों के लक्षण भी जयदेव ने पूर्ववर्ती आचार्यों की मान्यता का अनुसरण करते हुए ही 'दिये हैं । वक्रोक्ति की गणना उन्होंने अर्थालङ्कारों की पंक्ति में की है । मम्मट आदि आचार्य उसे शब्दालङ्कार मानते थे । वस्तुतः वक्रोक्ति में पर्याय'परिवर्तन नहीं किया जा सकता । अतः वह शब्दालङ्कार ही है । उसके स्वरूप के सम्बन्ध में जयदेव मम्मट आदि से सहमत हैं ।
भाविक के साथ जयदेव ने एक भाविकच्छवि अलङ्कार का भी विवेचन किया है । इसमें उन्होंने देश से तथा अपने से दूरवर्ती पदार्थ के साक्षात्कार पर बल दिया है । ' भाविक के स्वरूप में ही इसका अन्तर्भाव सम्भव है । इसके स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना आवश्यक नहीं ।
स्पष्ट है कि पूर्व - प्रचलित जितने अलङ्कारों के नाम जयदेव ने स्वीकार किये हैं, प्रायः उनके रूप की कल्पना भी प्राचीन आचार्यों के मतानुसार ही की है। कुछ अलङ्कारों के प्राचीन लक्षण को अंशतः स्वीकार कर उन्होंने अवशिष्ट लक्षण का उपयोग दूसरे अलङ्कार की स्वरूप- कल्पना में कर लिया है । उदाहरणार्थ - प्रतीप के सम्बन्ध में पूर्वाचार्यों के मन्तव्य का अवलम्ब लेकर प्रतीप तथा प्रतीपोपमा की पृथक्-पृथक् कल्पना कर ली गयी है ।
कुछ अलङ्कार के प्राचीन स्वरूप को उन्होंने अस्वीकार भी किया है; पर उसके सर्वथा नवीन रूप की कल्पना नहीं कर उन्होंने प्राचीन आचार्यों के किसी अन्य अलङ्कार के स्वरूप के आधार पर उसकी स्वरूप-कल्पना कर ली है । पिहित के रुद्रट - प्रदत्त लक्षण को अस्वीकार कर मम्मट आदि के सूक्ष्म के स्वरूप के आधार पर पिहित की स्वरूप - कल्पना इस कथन का प्रमाण है ।
उपमा, रूपक, अपह्न ुति आदि के यत्किञ्चित् नवीन भेदों की कल्पना जयदेव ने की है । उनकी कल्पना का आधार प्राचीन आचार्यों के सामान्यतः तत्तदलङ्कार-लक्षण में ही पाया जा सकता है ।
'चन्द्रालोक' में नवीन नाम-रूप वाले जिन अलङ्कारों का लक्षण-निरूपण किया गया है, उनके स्रोत का परीक्षण प्रस्तुत सन्दर्भ में वाञ्छनीय है । उक्त
१. देशात्मविप्रकृष्टस्य दर्शनं भाविकच्छविः ।
— जयदेव, चन्द्रालोक, ५, ११४
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२६६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
ग्रन्थ में निम्नलिखित नवीन अर्थालङ्कारों का उल्लेख पाया जाता हैउन्मीलित, परिकराङ कुर, प्रौढोक्ति, सम्भावना, प्रहर्षण, विषादन, विकस्वर, असम्भव, उल्लास, पूर्वरूप, अनुगुण, अवज्ञा, भाविकच्छवि तथा अत्युक्ति ।
उन्मीलित
उन्मीलित जयदेव की नवीन कल्पना है । इसका स्वभाव मीलित के ठीक विपरीत है । उद्योतकार इसे मीलित की ही एक स्थिति मानते हैं । जगन्नाथ ने भी इस अलङ्कार की कल्पना को अनावश्यक माना है । * शोभाकर ने विवेक के स्वरूप की जो कल्पना की थी उससे उन्मीलित का स्वरूप मिलता-जुलता है ।
परिकराङ कुर
परिकराङकुर भी जयदेव का नवीन अलङ्कार है । इसकी प्रकृति परिकर से बहुत कुछ मिलती-जुलती है । भेद केवल इतना है कि परिकर में विशेषण साभिप्राय प्रयोग होता है और परिकराङ कुर में विशेष्य का । साभिप्राय पद - प्रयोग पर दोनों में समान रूप से बल दिया गया है ।
प्रौढोक्ति
अतिशयोक्ति की प्राचीन धारणा के आधार पर जयदेव ने प्रौढोक्ति-नामक नवीन अलङ्कार की कल्पना कर ली है । इसका स्वरूप अतिशयोक्ति से इतना मिलता-जुलता है कि इसके पृथक् अस्तित्व की कल्पना आवश्यक नहीं जान पड़ती । प्रौढोक्ति के सम्बन्ध में जयदेव की मान्यता है कि जिसमें जो अशक्त हो उसमें उसका सामर्थ्य वर्णन प्रौढोति है । 'चन्द्रालोक' की 'रमा' टीका में उचित ही कहा गया है कि यह मम्मट की अतिशयोक्ति से भिन्न नहीं ।
2
१. उन्मीलितालङ्कारो मीलितालङ्कारान्तर्भू तएवेति प्राहुरुद्योतकारादयः । — कुवलयानन्द, अलङ्कारचन्द्रिका टीका, पृ० १६५
२. द्रष्टव्य – जगन्नाथ, रसङ्गाधर, पृ० ८१७-१६
३. प्रौढोक्तिस्तदशक्तस्य तच्छक्तत्वविकल्पनम् । - जयदेव, चन्द्रालोक, ५,४७० ४. अयं चातिशयोक्त्ति भेदो नालङ्कारान्तरमिति काव्यप्रकाशः ।
वही, रमा टाका, पृ० ५३०
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २६७
सम्भावना
सम्भावना की कल्पना भी अतिशयोक्ति के ही आधार पर की गयी है। मम्मट ने अतिशयोक्ति के एक भेद 'यद्यर्थोक्ति' की कल्पना की थी। जयदेव की सम्भावना अतिशयोक्ति के उक्त प्रकार से अभिन्न है।'
प्रहर्षण
प्रहर्षण की परिभाषा में जयदेव ने कहा है कि जहाँ वाञ्छित अर्थ से अधिक की प्राप्ति का वर्णन होता है, वहाँ प्रहर्षण नामक अलङ्कार होता है ।२ अभीष्ट अर्थ से अधिक की प्राप्ति से उत्पन्न हर्ष ही प्रस्तुत अलङ्कार के अभिधान का आधार है। यह जयदेव का नवीन अलङ्कार है । विषादन
विषादन की कल्पना पूर्वाचार्य के विषम अलङ्कार के लक्षण के आधार पर की गयी है । रुय्यक ने विषम के दो रूप स्वीकार किये थे—विरूप पदार्थ की घटना तथा अनर्थोत्पत्ति। विरूप-घटना-रूप विषम की धारणा को स्वीकार कर जयदेव ने विषम अलङ्कार को परिभाषित किया और अनर्थोत्पत्ति-रूप विषम के लक्षण को लेकर विषादन नामक नवीन अलङ्कार की कल्पना कर ली। स्पष्टतः, विषादन का नाममात्र नवीन है, स्वरूप प्राचीन ।
विकस्वर
विकस्वर में जयदेव के अनुसार विशेष के समर्थन के लिए सामान्य का उपन्यास किये जाने पर पुनः उस सामान्य के समर्थन के लिए उपमानभूत विशेष का उपन्यास किया जाता है । ३ स्पष्टतः, इस अलङ्कार की सम्भावना प्राचीन आचार्यों के अर्थान्तरन्यास के सामान्य लक्षण में ही निहित थी। अर्थान्तरन्यास में विशेष का सामान्य से तथा सामान्य का विशेष से समर्थन होता है। इसमें समर्थक वाक्य का पुनः अन्य वाक्य से समर्थन की धारणा थोड़ी नवीन है; पर इसकी कल्पना का मूल अर्थान्तरन्यास-धारणा में ही है ।
१. सम्भावनं यदीत्थं स्यादित्यूहोऽन्यप्रसिद्धये ।-जयदेव, चन्द्रालोक, ५, ४८. २. वाञ्छितादधिकप्राप्तिरयत्नेन प्रहर्षणम् । -वही, ५, ४६ ३. यस्मिन्विशेषसामान्यविशेषाः स विकस्वरः ।-वही, ५,६९
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२६८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
असम्भव
अर्थ-निष्पत्ति में असम्भाव्यत्व के वर्णन में जयदेव ने असम्भव नामक अलङ्कार की सत्ता मानी है। प्राचीन आचार्यों के विरोधाभास की सामान्यधारणा में प्रस्तुत अलङ्कार की सम्भावना निहित थी। इसके स्वतन्त्र अस्तित्व की प्रथम कल्पना का श्रेय जयदेव को है । कुछ आचार्यों ने विरोधाभास से इसके स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना को अनावश्यक बताया है।
उल्लास
उल्लास में एक के गुण से दूसरे का दोष वणित होता है। टीकाकार ने उक्त कथन को उपलक्षण मान कर अन्य के दोष से अन्य के गुणवर्णन, अन्य के दोष से अन्य के दोष तथा अन्य के गुण से अन्य के गुण-वर्णन में भी उल्लास की सत्ता स्वीकार की है। यह जयदेव की नवीन कल्पना है। कुछ लोगों ने इसे काव्यलिङ्ग में अन्तर्भूत माना है। 'पूर्वरूप
पूर्वरूप की कल्पना भी नवीन है। इसमें वस्तु की पुनः पूर्वरूपता-प्राप्ति का वर्णन होता है । इसके दो रूप माने गये हैं-(क) वस्तु का पुनः अपना गुण प्राप्त कर लेना तथा (ख) वस्तु के नष्ट रूप की पुनः प्राप्ति । दूसरे पूर्वरूप में वस्तु के विनाश का वर्णन तथा दूसरी वस्तु से उस नष्ट वस्तु के कार्य का कथन होता है। शोभाकर ने इससे मिलते-जुलते स्वरूप की कल्पना प्रतिप्रसव नामक अलङ्कार में की थी। सम्भव है, पूर्वरूप के प्रसव का श्रेय प्रतिप्रसव को हो।
१. असम्भवोऽर्थनिष्पत्तावसम्भाव्यत्ववर्णनम् ।-जयदेव, चन्द्रालोक ५,७६ २. नेदमलङ्कारान्तरम् ; किन्तु विरोधाभासः ......"एवेत्यन्ये ।
-कुवलयानन्द, अलङ्कारचन्द्रिका टीका, पृ० १०८ ३. उल्लासोऽन्यमहिम्ना चेद्दोषो ह्यन्यत्र वर्ण्यते ।
-जयदेव, चन्द्रालोक, ५, १०१ तथा उसपर रमा टीका, पृ० ७० ४. काव्यलिङ्गन गतार्थोऽयं नालङ्कारान्तरत्वभूमिमारोहतीत्येके ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, २ पृ० ८०५ ५. पुनः स्वगुणसम्प्राप्तिर्विज्ञ या पूर्वरूपता । तथायद्वस्तुनोऽन्यथारूपं तथा स्यात् पूर्वरूपता ॥
-जयदेव, चन्द्रालोक, ५, १०३ तथा १०४
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लङ्कारधारेला को विकास
Pred
अनुगुण
अनुगुण अलङ्कार में वस्तु के स्वत: सिद्ध गुण का ही अन्य वस्तु के संसर्ग से उत्कर्ष का वर्णन होता है । यह जयदेव का नवीन अलङ्कार है । यह तद्गुण से इस अंश में मिलते-जुलते स्वभाव का है कि तद्गुण में भी एक वस्तु संसर्ग के कारण दूसरी वस्तु का गुण ग्रहण करती है और अनुगुण में भी एक वस्तु संसर्ग से दूसरी वस्तु का गुण ग्रहण कर अपने गुण का उत्कर्ष करती है । दोनों में स्वल्प भेद यह है कि तद्गुण में कोई वस्तु अपने गुण का त्याग कर दूसरी वस्तु का गुण ग्रहण करती है, पर अनुगुण में दूसरे का गुण लेकर अपने ही गुण का उत्कर्ष किया जाता है ।
अवज्ञा
अवज्ञा में एक वस्तु के गुण-दोष से दूसरी वस्तु का अप्रभावित रहना वर्णित होता है । २ अवज्ञा भी जयदेव की नूतन उद्भावना है ।
भाविकच्छवि
भाविक की तरह इसमें भी परोक्ष अर्थ के दर्शन पर बल दिया गया है । इस दृष्टि से इसकी प्रकृति भाविक से बहुलांशतः मिलती-जुलती है । भाविक से इसकी प्रकृति को कुछ अलग करते हुए जयदेव ने कहा है कि इसमें देश से या अपने से दूरवर्ती अर्थ का दर्शन वर्णित होता है । 3 भाविकच्छवि की कल्पना भी सूक्ष्म भेद के आधार पर पृथक्-पृथक् अलङ्कार के अस्तित्व -- प्रकल्पन की प्रवृत्ति का परिणाम है ।
अत्युक्ति
जयदेव के पूर्व अतिशयोक्ति से पृथक् अत्युक्ति के अस्तित्व की कल्पना नहीं की गयी थी । अत्युक्ति नामक स्वतन्त्र अलङ्कार की कल्पना सर्वप्रथम जयदेव ने ही की; पर इसकी धारणा को उनकी नवीन उद्भावना नहीं माना जा सकता। इसके स्वरूप की कल्पना आचार्य दण्डी के कान्ति गुण के स्वरूप
१. प्राक्सिद्धस्वगुणोत्कर्षोऽनुगुणः परसन्निधे ।
—जयदेव, चन्द्रालोक, ५, १०६ :
२ . वही, ५, १०७
३. देशात्मविप्रकृष्टस्य दर्शनं भाविकच्छविः । - वही, ५, ११४
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२७०]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
के आधार पर की गयी है। जयदेव के अनुसार इसमें अद्भुत तथा असत्य शौर्य, दान आदि का वर्णन किया जाता है । दण्डी ने भी कान्ति गुण में अलोकसिद्ध अर्थ के वर्णन पर बल दिया था। दण्डी ने स्वयं कान्ति के लिए अत्युक्ति, इस अपर पर्याय का प्रयोग किया था ।' स्पष्ट है कि दण्डी की उक्त कान्ति या अत्युक्ति की धारणा को लेकर जयदेव ने प्रस्तुत अलङ्कार की कल्पना की है। ___ 'चन्द्रालोक' में विवेचित उक्त अलङ्कारों के परीक्षण से प्राप्त निष्कर्ष 'निम्नलिखित हैं :
( क ) पूर्वाचार्यों ने जहाँ एक अलङ्कार के एकाधिक रूपों की कल्पना की थी, वहाँ जयदेव ने उन रूपों के आधार पर अनेक परस्पर स्वतन्त्र 'अलङ्कारों की कल्पना कर ली। इस प्रकार मम्मट आदि आचार्यों की अतिशयोक्ति के एक रूप को अतिशयोक्ति अभिधान से स्वीकार किया गया तथा उसी के दूसरे रूप को–यद्यर्थोक्त-प्रकल्पन रूप को सम्भावना नाम से - स्वतन्त्र अलङ्कार मान लिया गया। रुय्यक आदि के विषम अलङ्कार के दो रूपों के आधार पर विषम तथा विषादन, इन दो अलङ्कारों की कल्पना कर ली गयी। विरूप घटना-रूप विषम को विषम संज्ञा से स्वीकार कर उसके अनर्थोत्पत्ति रूप को विषादन नाम से नवीन अलङ्कार स्वीकार किया गया। "प्राचीन आचार्यों के प्रतीप के लक्षण के आधार पर ही प्रतीप तथा प्रतीपोपमा के पृथक्-पृथक् अस्तित्व की कल्पना की गयी। प्राचीनों के एक अलङ्कार के अनेक रूपों के आधार पर एकाधिक अलङ्कार की कल्पना 'चन्द्रालोक' में अलङ्कार की संख्यावृद्धि का एक कारण है। सम्भावना, विषादन तथा प्रतीपोपमा आदि नवीन अलङ्कारों के आविर्भाव का यही रहस्य है।
( ख ) जयदेव में थोड़े-थोड़े बहुत ही सूक्ष्म भेदों के आधार पर अलगअलग अलङ्कारों को कल्पना को प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है। प्राचीन आचार्यों में सामान्य रूप से तथ्य-निर्देश की प्रवृत्ति थी। जब नवीन-नवीन तथ्यों की उद्भावना का समय समाप्त हुआ तो उन्हीं पूर्वनिर्दिष्ट तथ्यों के
१. इदमत्युक्तिरित्युक्तम्........."।—दण्डी, काव्यादर्श, १,६२ तथा उस
पर 'कुसुमप्रतिमा' टीका-इदम् = उपरि दर्शितमेवम्प्रकारं काव्यम् 'अत्युक्तिः' इत्युक्तम् = अत्युक्तिनाम्ना कथितमालङ्कारिकः। तथा च जयदेवः--अत्युक्तिरद्भुतातथ्यशोर्योदार्यादिवर्णनम् ।-पृ० ६०
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २७१ आधार पर सूक्ष्म भेदों को लेकर अलग-अलग नाम से अलग-अलग अलङ्कारों की कल्पना की जाने लगी। भूत-भावी अर्थ के साक्षात्कार-रूप भाविक से स्वतन्त्र देशात्म-विप्रकृष्ट अर्थ के दर्शन-रूप भाविकच्छवि की कल्पना, ‘अन्य के संसर्ग में आकर उसके गुण को ग्रहण करने की प्रकृति वाले तद्गुण से अलग संसर्ग में आने वाली वस्तु का गुण ग्रहण कर अपने गुण का उत्कर्ष करने की प्रकृति वाले अनुगुण की कल्पना तथा साभिप्राय विशेषण-प्रयोग-रूप परिकर से पृथक् साभिप्राय विशेष्य-प्रयोग-रूप परिकराङ कुर की कल्पना इसी प्रवृत्ति का द्योतक है।
(ग) प्राचीन आचार्यों के कुछ अलङ्कारेतर काव्य-तत्त्वों के आधार पर भी पीछे चल कर कुछ अलङ्कारों की कल्पना की गयी है। जयदेव ने भी आचार्य दण्डी के कान्ति गुण के आधार पर, जिसे उन्होंने अत्युक्ति भी कहा है, अत्युक्ति नामक अलङ्कार की कल्पना की है।
(घ ) जयदेव ने कुछ ऐसे अलङ्कारों की भी नवीन नाम से कल्पना की है, जिनकी सम्भावना प्राचीन आलङ्कारिकों के विशेष अलङ्कार में ही थी। विकस्वर की कल्पना इस कथन का प्रमाण है। अर्थान्तरन्यास में सामान्य और विशेष का एक दूसरे से समर्थन वाञ्छनीय माना गया था। उसी की एक विशेष प्रक्रिया विकस्वर में पायी जाती है। इसमें विशेष का सामान्य से तथा फिर सामान्य का विशेष से समर्थन किया जाता है। असम्भव की सम्भावना विरोधाभास के सामान्य लक्षण में ही निहित थी।
(ङ) कुछ ऐसे स्वतन्त्र अलङ्कार की भी कल्पना 'चन्द्रालोक' में की गयी है, जिसके स्वरूप का प्राचीन आचार्य के किसी अलङ्कार-विशेष से इतना कम भेद है कि उसके स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना केवल कल्पनाविलास के लिए ही की गयी जान पड़ती है। उदाहरणार्थ; प्रौढोक्ति का स्वरूप अतिशयोक्ति से इतना मिलता-जुलता है कि उसके पृथक् अस्तित्व की कल्पना अनावश्यक ‘जान पड़ती है।
(च) चन्द्रालोककार ने कुछ प्राचीन अलङ्कारों के विपरीत स्वभाव वाले अलङ्कारों की भी कल्पना की है। मीलित-विपर्ययात्मक उन्मीलित की कल्पना इसका प्रमाण है।
(छ )उल्लास, पूर्वरूप, प्रहर्षण तथा अवज्ञा अलङ्कारों का उद्भावना के श्रेय के भागी जयदेव हैं।
उक्त अलङ्कारों के अतिरिक्त 'कुवलयानन्द' में विवेचित कुछ अलङ्कारों
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२७२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
को भी कुछ साहित्येतिहासविदों ने जयदेव के द्वारा कल्पित माना है। हम देख चुके हैं कि यह मान्यता विवादमुक्त नहीं है। कुछ विद्वान उन अलङ्कारों को जयदेव के परवर्ती आचार्य अप्पय्य दीक्षित की उद्भावना मानते हैं। उक्त मतों का परीक्षण कर किसी निष्कर्ष की प्राप्ति का आयास प्रस्तुत सन्दर्भ में प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक को अभीष्ट नहीं है। इस अध्याय में काव्यशास्त्र में परिगणित नवीन अभिधान वाले अलङ्कारों के स्वरूप का केवल इस दृष्टि से अध्ययन अपेक्षित है कि उन उक्तिभङ्गियों के स्वरूप से प्राचीन आचार्य किसी-न-किसी रूप में परिचित थे या नहीं। दूसरे शब्दों में उन अलङ्कारों के स्वरूप का बीज प्राचीन आचार्यों के काव्य-सिद्धान्त में पाया जाता है या नहीं। इस उद्देश्य में इस बात से विशेष अन्तर नहीं पड़ेगा कि वे अलङ्कार 'चन्द्रालोक' में सर्वप्रथम विवेचित हुए या 'कुवलयानन्द' में। अतः उन अलङ्कारों के स्रोत का अन्वेषण हम अप्पय्य दीक्षित की अलङ्कार-धारणा के अध्ययन-- क्रम में करेंगे।
अलङ्कारोदाहरण 'अलङ्कारोदाहरण' के रचयिता के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। मुरारिदान के 'यशवन्त यशोभूषण' में यशस्कर को 'अलङ्कारोदाहरण' का रचयिता माना गया है।' डॉ० डे के अनुसार रुय्यक के 'अलङ्कार-सर्वस्व' पर विमशिनी-नामक टीका लिखने वाले जयरथ ने 'अलङ्कारोदाहरण' की रचना की थी। इस ग्रन्थ का उद्देश्य बच्चों को सरलता से अलङ्कार का ज्ञान कराना था। अतः अलङ्कार-विषयक मौलिक चिन्तन की अपेक्षा अलङ्कारलक्षण की सरलता को ही दृष्टि से इस कृति का अधिक महत्त्व है । 'विमशिनी' में शोभाकर के जिन अलङ्कारों का खण्डन किया गया है, उन्हें भी 'अलङ्कारोदाहरण' में सोदाहरण विवेचित किया गया है । प्रस्तुत सन्दर्भ में उक्त ग्रन्थ में निरूपित नवीन अलङ्कारों का ही परीक्षण इष्ट है।
मुरारिदान ने 'अलङ्कारोदाहरण' के आठ नवीन अलङ्कारों की चर्चा की है। वे हैं:-अङ्ग, अनङ्ग, अप्रत्यनीक, अभ्यास, अभीष्ट, तात्पर्य, तत्सदृशाकार तथा प्रतिबन्ध ।
१. रामचन्द्र द्विवेदी, अलङ्कारसर्वस्व-मीमांसा, पृ० ५४ २. डॉ० डे, History of Sanskrit Poetics, खण्ड १, पृ० १८६
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २७३
अङ्गी के फलवत्त्व तथा अन्य के अफलवत्त्व-वर्णन में अङ्ग अलङ्कार माना गया है। अनङ्ग अङ्ग का विपरीत-धर्मा है। अप्रत्यनीक के स्वरूप की कल्पना प्रत्यनीक के वैपरीत्य के आधार पर की गयी जान पड़ती है। दुष्कर कार्य की सिद्धि के लिए अभ्यास का वर्णन अभ्यास अलङ्कार का स्वभाव माना गया है। कार्यारम्भ होते ही उसकी सिद्धि का वर्णन अभीष्ट की प्रकृति है। अनेक का निर्देश होने पर एक में तात्पर्येच्छा तात्पर्य अलङ्कार है ।' तत्सदृशाकार तथा प्रतिबन्ध का स्वरूप स्पष्ट नहीं । ___ इन नवोद्भावित अलङ्कारों में से एक भी अलङ्कार-शास्त्र में स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में स्वीकृति नहीं पा सका । कारण स्पष्ट है। अङ्ग में सौन्दर्य नहीं। अनङ्ग उसीका विपरीत-धर्मा है। अप्रत्यनीक प्रत्यनोक के वैपरीत्य के आधार पर कल्पित है । अभ्यास, अभीष्ट आदि सौन्दर्याभाव के कारण अलङ्कार नहीं।
'अलङ्कारोदाहरण' की पाण्डुलिपि के आधार पर रामचन्द्र द्विवेदी ने सम्भव तथा संस्कार नामक दो अलङ्कारों का उल्लेख किया है। संस्कार शोभाकर की भ्रान्ति के समान है। सम्भव के स्वरूप की कल्पना पहले ही हो चुकी थी। स्पष्टतः, 'अलङ्कारोदाहरण' में किसी महत्त्वपूर्ण अलङ्कार की उद्भावना नहीं हुई।
विश्वनाथ विश्वनाथ का 'साहित्य-दर्पण' संस्कृत काव्य-शास्त्र के विद्यार्थियों का बहुत ही प्रिय ग्रन्थ सिद्ध हुआ है । साहित्यशास्त्र के विभिन्न अङ्गों का सरल-सुबोध शैली में प्रतिपादन ही 'साहित्य-दर्पण' की लोकप्रियता का रहस्य है। दृश्य तथा श्रव्य काव्य के अङ्गोपाङ्गों का विवेचन विश्वनाथ ने अपने ग्रन्थ में किया है। उनकी ख्याति का कारण मुख्यतः शैली की प्राञ्जलता, विवेचन की विशदता तथा विषय. की व्यापकता है-तत्त्व-चिन्तन की मौलिकता नहीं। उन्होंने दृश्य-काव्य के अङ्गों का निरूपण 'नाट्यशास्त्र'
१. उद्धृत, रामचन्द्र द्विवेदी, अलं० सर्वस्व-मी०, पृ० ५०-५३ २. वही, पृ० ५४ ३. द्रष्टव्य-भोज, सरस्वती-कण्ठाभरण, ३, २५ १८
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२७४ ]
अलङ्कारं-धारणा : विकास और विश्लेषण
तथा 'दश रूपक' के आधार पर किया है । अलङ्कार के क्षेत्र में भी विश्वनाथ का विशेष मौलिक योगदान नहीं । इसका एक कारण तो यह है कि उनके पूर्ववर्ती आचार्यों की रचनाओं में अलङ्कार - विषयक इतनी उद्भावनाएँ हो चुकी थीं कि उनसे अधिक नूतन उद्भावनाओं की न तो आवश्यकता ही शेष थी और न उसके लिए विशेष अवकाश ही था । दूसरा कारण यह था कि विश्वनाथ रसवादी आचार्य थे और रस-ध्वनिवादी आचार्यों की तरह वे काव्य में रस आदि की अपेक्षा अलङ्कार का गौण महत्त्व मानते थे । अतः, अलङ्कार के क्षेत्र में विशेष ऊहापोह नहीं कर पूर्ववर्ती आचार्यों के बहुमान्य सिद्धान्त को ही परिष्कृत शैली में प्रस्तुत करना उनको अभीष्ट होगा । अस्तु, प्रस्तुत सन्दर्भ में साहित्यदर्पणकार की अलङ्कार - परिभाषाओं की परीक्षा कर पूर्वाचार्यों के अलङ्कार - लक्षण से उनके सम्बन्ध का दिग्दर्शन इन पंक्तियों के लेखक को अभिप्र ेत है ।
विश्वनाथ ने 'साहित्य दर्पण' में निम्नलिखित शब्दार्थालङ्कारों के स्वरूप निरूपण किया है
शब्दालङ्कार : - (१) पुनरुक्तवदाभास, (२) अनुप्रास ( छेक, वृत्ति, श्रुति अन्त्य तथा लाट), (३) यमक, (४) वक्रोक्ति, (५) भाषासम, ( ६ ) श्लेष तथा ( ७ ) चित्र ।
अर्थालङ्कार : - ( १ ) उपमा, (२) अनन्वय, (३) उपमेयोपमा, (४) स्मरण, (५) रूपक, (६) परिणाम, (७) सन्देह, ( 5 ) भ्रान्तिमान्, ( ६ ) उल्लेख, (१०) अपह्नति, (११) निश्चय, (१२) उत्प्रेक्षा, (१३) अतिशयोक्ति, (१४) तुल्ययोगिता, (१५) दीपक, (१६) प्रतिवस्तूपमा, (१७) दृष्टान्त, (१८) निदर्शना, (१६) व्यतिरेक, ( २० ) सहोक्ति, (२१) विनोक्ति, (२२) समासोक्ति, (२३) परिकर, (२४) श्लेष, (२५) अप्रस्तुत - प्रशंसा, (२६) व्याजस्तुति (२७) पर्य्यायोक्त, ( २८ ) अर्थान्तरन्यास, (२६) काव्यलिङ्ग, (३०) अनुमान, (३१) हेतु, (३२) अनुकूल, (३३) आक्षेप, (३४) विभावना, (३५) विशेषोक्ति, (३६) विरोध, (३७) असङ्गति, (३८) विषम, ( ३६ ) सम, (४०) विचित्र, ( ४१ ) अधिक, (४२) अन्योन्य, (४३) विशेष, (४४) व्याघात, (४५) कारणमाला, (४६) मालादापक, (४७) एकावली, (४८) सार, (४६) यथासंख्य, (५०) पर्याय, (५१) परिवृत्ति, (५२) परिसंख्या, (५३) उत्तर, ( ५४ ) अर्थावृत्ति, (५५) विकल्प, (५६) समुच्चय, (५७) समाधि, (५८) प्रत्यनीक, (५६) प्रतीप, (६०) मीलित, (६१) सामान्य, (६२) तद्गुण,
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २७५
(६३) अतद्गुण, (६४) सूक्ष्म, (६५) व्याजोक्ति, (६६) स्वभावोक्ति, (६७) भाविक, (६८) उदात्त, (६९) रसवत्, ( ७० ) प्र ेय, (७१) ऊर्जस्वी, ( ७२ ) समाहित, (७३) भावोदय, (७४) भाव - सन्धि, (७५) भाव - शबलता, (७६) संसृष्टि, तथा (७७) सङ्कर ।
विश्वनाथ ने कुछ पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा शब्दगत अलङ्कार रूप में स्वीकृत प्रहेलिका के अलङ्कारत्व का खण्डन किया है । पूर्वाचार्यों ने भी उसे क्रीड़ामात्रोपयोगी कहा था । २ बौद्धिक चमत्कार पर आधृत प्रहेलिका के अलङ्कारत्व की रसवादी आचार्यों के द्वारा अस्वीकृति स्वाभाविक ही है ।
विश्वनाथ के द्वारा निरूपित शब्दालङ्कारों में पुनरुक्तवदाभास, अनुप्रास, यमक, वक्रोक्ति, श्लेष तथा चित्र अलङ्कारों का सामान्य स्वरूप प्राचीन आचार्यों के अलङ्कारों के स्वरूप से अभिन्न है । अनुप्रास के पूर्वाचार्यों के द्वारा स्वीकृत छेक, वृत्ति तथा लाट-भेदों के साथ श्र ुति तथा अन्त्य भेदों की भी गणना विश्वनाथ ने की है । श्रत्यनुप्रास की धारणा नवीन नहीं है । आचार्य दण्डी ने माधुर्य-गुण-विवेचन-प्रसङ्ग में श्रत्यनुप्रास के जिस लक्षण की कल्पना की थी, उसे ही विश्वनाथ ने स्वीकार किया है । अन्त्यानुप्रास की कल्पना आचार्य दण्डी के पादान्त यमक की कल्पना पर आधृत है । 3
विश्वनाथ ने भाषासम - नामक स्वतन्त्र शब्दालङ्कार का अस्तित्व स्वीकार किया है । इस की स्वरूप - कल्पना के मूल में संस्कृत, प्राकृत आदि अनेक भाषाओं की एकत्र घटना की धारणा निहित है । पूर्वाचार्यों ने भाषाश्लेष में विविध भाषाओं की संघटना की धारणा व्यक्त की थी । प्रस्तुत अलङ्कार की धारणा उक्त अलङ्कार की धारणा से बहुत कुछ मिलती-जुलती है । अन्तर केवल इतना है कि विश्वनाथ ने विभिन्न भाषाओं में एक ही तरह के शब्द से वाक्य की योजना में भाषासम माना है जब कि भाषाश्लेष में एक तरह के शब्द का प्रयोग आवश्यक नहीं, अनेक भाषाओं से एक वाक्यार्थ की निष्पत्ति ही अपेक्षित रहती है ।
१. रसस्य परिपन्थित्वान्नालङ्कारः प्रहेलिका । उक्तिवैचित्र्यमात्र सा च्युतदंत्ताक्षरादिका ॥
1 - विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, १६
२. मात्रा बिन्दुच्युत के प्रहेलिका कारक क्रियागूढे । प्रश्नोत्तरादि चान्यत्क्रीडामात्रोपयोग मिदम् ॥
- रुद्रट, काव्यालङ्कार, ५,२४ ३. तुलनीय – विश्वनाथ, साहित्यद० १०, ७ तथा दण्डी, काव्यादर्श, ३, २
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२७६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
काकु तथा श्लेष पर आधृत वक्रोक्ति की स्वरूप-धारणा विश्वनाथ ने पूर्वाचार्यों से ही ली है; पर उसे उन्होंने शब्दगत अलङ्कार माना है। प्राचीन आचार्यों ने इसकी गणना अर्थालङ्कारों की पंक्ति में की थी।
विश्वनाथ ने वर्ण, प्रत्यय, लिङ्ग, वचन आदि की श्लिष्टता के आधार पर श्लेष के आठ भेद स्वीकार किये हैं। पूर्वाचार्यों के श्लेष के सामान्यलक्षण में ही इन भेदों की सम्भावना निहित थी। पूर्वाचार्यों की पद्धति पर श्लेष के सभङ्ग, अभङ्ग तथा उभयात्मक भेद भी साहित्यदर्पणकार के द्वारा स्वीकृत हैं।
अर्थालङ्कार ___ अर्थालङ्कारों के स्वरूप-निर्धारण में भा विश्वनाथ ने पूर्ववर्ती आचार्यों की मान्यताओं का ही अनुसरण किया है। उनके 'साहित्यदर्पण' में अर्थालङ्कारों के लक्षण रुय्यक तथा मम्मट के अलङ्कार-लक्षणों के आधार पर दिये गये हैं। हम यह देख चुके हैं कि मम्मट तथा रुय्यक की रचनाओं में अलङ्कारों की संख्या तथा संज्ञा में कुछ अन्तर है। रुय्यक के कुछ अलङ्कार मम्मट के 'काव्यप्रकाश' में उल्लिखित नहीं हैं; पर उसमें कुछ ऐसे अलङ्कारों का भी विवेचन है, जो रुय्यक के द्वारा स्वीकृत नहीं हैं। ऐसे अलङ्कारों के सम्बन्ध में विश्वनाथ ने समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाया है । उन्होंने मम्मट तथा रुथ्यक; दोनों आचार्यों की मान्यताओं को स्वीकार किया है। उदाहरणार्थ; सम की धारणा मम्मट से तथा विचित्र की धारणा रुय्यक से ली गयी है। निश्चय अलङ्कार शोभाकर के 'अलङ्कार-रत्नाकर' से गहीत है। शोभाकर को वह धारणा दण्डी की निर्णयोपमा-धारणा पर आधृत थी। विश्वनाथ ने उसके कुछ नवीन स्वरूप की कल्पना की। विश्वनाथ के अनुसार भ्रान्ति का निवारण कर अन्य वस्तु का स्थापन भी निश्चय होगा। विश्वनाथ का यह निश्चय दण्डी के तत्त्वाख्यानोपमा से अभिन्न है ।२ अनुकूल के स्वरूप की कल्पना नवीन है, जिसमें प्रतिकूल
१. विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, १३-१४ २. तुलनीय-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, ५६ तथा दण्डी, काव्या
दर्श, २, ३६
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २७७ आचरण को अनुकूल करने का वर्णन होता है ।' स्पष्टतः विश्वनाथ ने अनुकूल को छोड़ किसी नवीन अलङ्कार की उद्भावना नहीं की है ।
O
विद्यानाथ
विद्यानाथ-रचित 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' – जो प्रतापरुद्रीय नाम से भी पुकारा जाता है— उस काल की रचना है, जब काव्य-तत्त्व की मौलिक उद्भावना के स्थान पर पूर्व प्रतिष्ठापित काव्य - सिद्धान्त का विवेचन - विश्लेषणमात्र आचार्यों का उद्देश्य बच गया था । विद्यानाथ के पूर्व आचार्य मम्मट के 'काव्यप्रकाश' में काव्य-तत्त्व - विश्लेषण को चरम प्रौढ़ि प्राप्त हो गयी । फलतः परवर्ती आचार्यों का लक्ष्य सरल शैली में पूर्ववर्ती आचार्यों की काव्यतत्त्वविषयक मान्यताओं का उपस्थापन मात्र रह गया । विद्याधर, विद्यानाथ आदि की रचनाओं में इसी उद्देश्य की प्राप्ति का आयास है । अलङ्कार - विवेचन के क्षेत्र में ध्वनिवादी मम्मट की अपेक्षा अलङ्कार प्रस्थान के प्रबल पोषक आचार्य रुय्यक की धारणा परवर्ती आचार्यों के लिए अधिक अनुकरणीय सिद्ध हुई है । कुछ आचार्यों ने रुद्रट, मम्मट तथा कुछ अन्य प्राचीन आचार्यों की अलङ्कार - परिभाषाओं का भी इतस्ततः उपयोग किया है । प्रस्तुत सन्दर्भ में हम विद्यानाथ की अलङ्कार - परिभाषाओं का पूर्ववर्ती आचार्यों के अलङ्कारलक्षण से तुलनात्मक अध्ययन कर उन परिभाषाओं के स्रोत का निर्धारण करेंगे |
विद्यानाथ ने निम्नलिखित अलङ्कारों का विवेचन किया है :
शब्दालङ्कार :—छेकानुप्रास, वृत्त्यनुप्रास, यमक, पुनरुक्तवदाभास, लाटानुप्रास तथा चित्र ।
अर्थालङ्कार : - ( १ ) उपमा, (२) अनन्वय, (३) उपमेयोपमा, (४) स्मरण, (५) रूपक, (६) परिणाम, (७) सन्देह, (८) भ्रान्तिमान् ( ६ ) अपह्न ुति, (१०) उल्लेख, (११) उत्प्रेक्षा, (१२) अतिशयोक्ति, (१३) सहोक्ति, (१४) विनोक्ति, (१५) समासोक्ति, (१६) वक्रोक्ति, (१७) स्वभावोक्ति, (१८)
१. अनुकूलो प्रातिकूल्यमनुकूलानुबन्धि चेत् ।
- विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, ८४
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२७८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
व्याजोक्ति, (१९) मीलन, (२०) सामान्य, (२१) तद्गुण, (२२) अतद्गुण, (२३) विरोध, (२४) विशेष, (२५) अधिक, (२६) विभावना, (२७) विशेषोक्ति, (२८) असङ्गति, (२९) विचित्र, (३०) अन्योन्य, (३१) विषम, (३२) सम, (३३) तुल्ययोगिता, (३४) दीपक, (३५) प्रतिवस्तूपमा, (३६) दृष्टान्त, (३७) निदर्शना, (३८) व्यतिरेक, (३९) श्लेष, (४०) परिकर, (४१) आक्षेप, (४२) व्याजस्तुति, (४३) अप्रस्तुतप्रशंसा, (४४) पर्यायोक्त, (४५) प्रतीप, (४६) अनुमान, (४७) काव्य लिङ्ग, (४८) अर्थान्तरन्यास, (४९) यथासंख्य, (५०) अर्थापत्ति, (५१) परिसंख्या, (५२) उत्तर, (५३) विकल्प, (५४) समुच्चय, (५५) समाधि, (५६) भाविक, (५७) प्रत्यनीक, (५८) व्याघात, (५९) पर्याय, (६०) सूक्ष्म, (६१) उदात्त, (६२) परिवृत्ति, (६३) कारणमाला, (६४) एकावली, (६५) मालादीपक और (६६) सार ।
मिश्रालङ्कार :-संसृष्टि एवं सङ्कर ।
विद्यानाथ ने वक्रोक्ति को शब्दालङ्कार नहीं मान कर अर्थालङ्कार-वर्ग में उसकी गणना की है। इस दृष्टि से उनकी मान्यता मम्मट से भिन्न है । उन्होंने रुय्यक की पद्धति का अनुगमन किया है। उन्होंने श्लेष का शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार-वर्गों में अलग-अलग उल्लेख करने की मम्मट की पद्धति की उपेक्षा कर रुय्यक आदि की प्रणाली पर एकत्र ही उसका उल्लेख कर उसके शब्दगत, अर्थगत तथा उभयगत भेद स्वीकार किये हैं। ___ संसृष्टि एवं सङ्कर अलङ्कारों को विद्यानाथ ने मिश्रालङ्कार-नामक पृथक वर्ग में परिगणित किया है। नीचे हम विद्यानाथ के द्वारा स्वीकृत उपरिलिखित अलङ्कारों के स्वरूप का वर्गानुक्रम से पूर्वाचार्यों के द्वारा विवेचित अलङ्कारों के स्वरूप से सम्बन्ध की मीमांसा प्रस्तुत कर रहे हैं ।
शब्दालङ्कार :--यमक, पुनरुक्तवदाभास तथा चित्र अलङ्कारों के अतिरिक्त तीन अनुप्रासों का स्वतन्त्र अस्तित्व 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' में स्वीकृत है। वे हैं-छेक, वृत्ति तथा लाट । अनुप्रास के उक्त तीन स्वतन्त्र रूपों के अस्तित्व की कल्पना आचार्य रुय्यक की पद्धति पर की गयी है । मम्मट ने सामान्य रूप से एक ही अनुप्रास की गणना कर उसके तीन भेदों-छेक, वृत्ति तथा लाटका विवेचन किया था। रुय्यक की तरह विद्यानाथ ने भी उक्त तीनों अनुप्रासों की पृथक्-पृथक गणना की है।
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २७६
अर्थालङ्कार
विद्यानाथ ने आचार्य रुय्यक के 'अलङ्कार-सूत्र' में विवेचित अलङ्कारों में से रसवत्, प्रेय, ऊर्जस्वी, समाहित, भावोदय, भावसन्धि तथा भावशबलता को छोड़ शेष सभी अलङ्कारों के स्वरूप का विवेचन किया है। रुय्यक की अलङ्कार-धारणा के विवेचन-क्रम में हम देख चुके हैं कि उनके उक्त रसवदादि सात अलङ्कारों का अलङ्कारत्व निर्विवाद नहीं है। मम्मट ने भी रसवदादि अलङ्कारों का विवेचन अलङ्कार-प्रकरण में नहीं कर रस आदि के विवेचन-प्रसङ्ग में ही किया था। स्पष्ट है कि वे भी रसवदादि को एक विशेष अर्थ में ही अलङ्कार कहते थे। - विद्यानाथ ने अलङ्कारों के लक्षण भी रुय्यक के अलङ्कार-सूत्र के आधार पर ही दिये हैं । उनका उद्देश्य काव्यालङ्कारों के पूर्व-स्थापित सिद्धान्त को सरल रूप में प्रस्तुत करना तथा काकतीय नरेश प्रतापरुद्र के कीर्ति-पदों से उन्हें उदाहृत करना था। अतः, 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' के अलङ्कारों के स्वरूप प्राचीन ही हैं; पर उनके उदाहरणों की, नवीनता उक्त ग्रन्थ की अपनी विशेषता है।
प्रतापरुद्रीय के रचयिता ने न केवल अलङ्कार-लक्षण की कल्पना का आधार रुय्यक की अलङ्कार-धारणा को बनाया है, वरन् रुय्यक के अनेक अलङ्कारों के लक्षण को ही किञ्चित् शब्द-भेद के साथ उद्धत कर दिया है। उदाहरणार्थ; अनन्वय, अनुमान, काव्यलिङ्ग तथा सार अलङ्कारों के रुय्यक-प्रदत्त लक्षण ही थोड़े शब्द-परिवर्तन के साथ 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' में उद्ध त हैं। समुच्चय के प्रथम रूप की परिभाषा भी विद्यानाथ ने 'अलङ्कार-सूत्र' से ही ली है। उसके द्वितीय स्वरूप के सम्बन्ध में भी रुय्यक के समान धारणा व्यक्त की गयी है।
अतिशयोक्ति के पृथक्-पृथक् रूपों की कल्पना रुय्यक ने की थी। उनके पूर्ववर्ती मम्मट ने भी अतिशयोक्ति के एकाधिक रूप स्वीकार किये थे। मम्मट के निगीर्याध्यवसान-रूप अतिशयोक्ति-लक्षण के आधार पर रुय्यक ने अध्यवसित-प्रधान-रूप अतिशयोक्ति की कल्पना की थी। विद्यानाथ ने भी इसी अतिशय-लक्षण को स्वीकार किया है।
सहोक्ति के लक्षण में विद्यानाथ ने उसकी अतिशयोक्तिमूलकता
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२८० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
पर बल दिया है।' आपाततः यह लक्षण कुछ नवीन जान पड़ता है, पर तत्त्वतः रुय्यक के सहोक्ति-लक्षण से अभिन्न है ।
यद्यपि रुय्यक ने सहोक्ति के लक्षण-सूत्र में अतिशयोक्तिमूलकता का उल्लेख नहीं किया था, तथापि 'अलङ्कार-सर्वस्व' में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि उसके मूल में अतिशय की धारणा रहती है ।
निष्कर्षतः, विद्यानाथ की रचना में किसी नवीन अलङ्कार की उद्भावना नहीं हुई है।
विद्याधर ने भी 'एकावली' में अलङ्कारों का विवेचन विद्यानाथ की ही तरह मम्मट एवं रुय्यक के मतानुसार किया है। उन्होंने समुच्चय के अङ्ग के रूप में तत्कर का उल्लेख किया है । यह स्वतन्त्र अलङ्कार न होकर समुच्चय का ही अङ्ग है।
वाग्मट (द्वितीय) ___ वाग्भट ( द्वितीय ) ने 'काव्यानुशासन' में सूत्र-शैली में अलङ्कारों का स्वरूप-निरूपण किया है। उन्होंने अन्य तथा अपर; इन दो नवीन अलङ्कारों का विवेचन किया है। उनके अनुसार प्रभावशाली वस्तुओं तथा विभिन्न परिस्थितियों का एकत्र निबन्धन अन्य अलङ्कार है। गुण और क्रिया का एक साथ कथन अपर-नामक अलङ्कार का लक्षण माना गया है। कन्हैया लाल पोद्दार ने उक्त अलङ्कारों के सम्बन्ध में यह मान्यता प्रकट की है कि 'वास्तव में अन्य तुल्ययोगिता के और अपर समुच्चय के अन्तर्गत है।'४
१. सहार्थेनान्वयो यत्र भवेदतिशयोक्तितः । कल्पितौपम्यपर्यन्ता सा सहोक्तिरितीष्यते ॥
-विद्यानाथ, प्रतापरुद्रयशोभूषणं, अर्थालङ्कार प्रकरण, पृ० ४०० २. तत्रापि नियमेनातिशयोक्तिमूलत्वमस्याः ।
-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० ८६ ३. एकेन क्रियमाणं यत्रान्यः स्पर्धयैव तत्कुरुते । ___ सोऽपि समुच्चयभेदः कथितोऽन्यस्तस्करो द्वधम् ॥
-विद्याधर, एकावली, पृ० १५० ४. कन्हैयालाल पोद्दार-काव्यकल्पद्र म, भाग २, भूमिका, पृ० २१
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २८१
स्पष्ट है कि वाग्भट के अन्य तथा अपर नाम्ना ही नवीन हैं। उनका अन्तर्भाव प्राचीन आचार्यों के द्वारा निरूपित अलङ्कारों में ही हो जाता है।
भावदेव सूरि 'काव्यालङ्कार-सार' में जैन आचार्य भावदेव सूरि ने शब्दालङ्कारों के निरूपण के उपरान्त पचास अर्थालङ्कारों का विवेचन किया है। उन्होंने दैवकनामक एक अलङ्कार का उल्लेख किया है, जिसका नाम नवीन है। दैवक में उनके अनुसार अर्थ के अनौचित्य का तथा उसके अवश्यम्भावित्व का वर्णन किया जाता है। इस प्रकार दैवक के दो रूप हो जाते हैं। दोनों के अलगअलग उदाहरण भावदेव ने दिये हैं। एक में कहा गया है कि 'कहाँ कर्कश तप और कहाँ तुम्हारा कोमल शरीर !'' इस उदाहरण से स्पष्ट है कि अनौचित्य-वर्णन से तात्पर्य अननुरूप-घटना का है, जिसे मम्मट, रुय्यक आदि ने विषम का एक रूप माना था। भाग्य में लिखे का अवश्यम्भावित्व-वर्णनरूप दैवक का जो उदाहरण दिया गया है, उसमें कहा गया है कि 'पद्मिनी दावाग्नि के भय से लीला-सरोवर में छिपने गयी तो वहाँ हिम से मारी गयी।'२ भावदेव के दैवक अलङ्कार का अन्तर्भाव मम्मट आदि के विषम में सम्भव है। उसके स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना आवश्यक नहीं ।
केशव मिश्र अलङ्कारशेखरकार केशव मिश्र अनुमानतः अप्पय्यदीक्षित के समसामयिक थे। किन्तु, जहाँ अप्पय्य दीक्षित ने शताधिक अलङ्कारों का स्वरूप-निरूपण १. विषयो दैवकं यस्मिन् अनौचित्यं वर्ण्यते। क्व तपः कर्कशं क्वेदं सुकुमारं वपुस्तव ।। -काव्यालं० सार ६, २५ उद्धृत, नरेन्द्रप्रभ सूरि,
अलं० महोदधि, पृ० ३५३ २. दवभीत्या वनं हित्वा लीलासरसि पद्मिमी।
तत्र दग्धा हिमेनासौ सावश्यं भावि देवकम् ॥-६, २६ वही, पृ० ३५३ ३. डॉ० सुशीलकुमार डे ने केशव और अप्पय्य; दोनों का समय अनुमानतः
१६वीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना है। द्रष्टव्य-डे, History of Skt. Poetics Vol I, पृ० २१८
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२८२ ]
अलङ्कार- धारणा : विकास और विश्लेषण
किया है वहाँ केशव ने केवल आठ शब्दालङ्कारों एवं चौदह अर्थालङ्कारों का ही विवेचन किया है । काव्य-गुण-धारणा के परीक्षण क्रम में भी हम यह देख चुके हैं कि केशव मिश्र की प्रवृत्ति काव्यतत्त्व - विवेचन में संक्षेपीकरण की ओर थी।' अलङ्कारों की संख्या की परिमिति भी उनकी इसी प्रवृत्ति की परिणति है ।
केशव मिश्र ने अर्थालङ्कारों की संख्या को जितना कम किया है, उस अनुपात में शब्दालङ्कारों की संख्या को कम करने का प्रयास नहीं किया है । उनके शब्द और अर्थ के अलङ्कार निम्नलिखित हैं:
शब्दा नङ्कार - चित्र, वक्रोक्ति, अनुप्रास, गूढ, श्लेष, प्रहेलिका, प्रश्नोत्तर तथा यमक । २
अर्थालङ्कारर - उपमा, रूपक, उत्प्र ेक्षा, समासोक्ति, अपह्न ुति, समाहित, स्वभाव या स्वभावोक्ति, विरोध, सार, दीपक, सहोक्ति, अन्यदेशत्व या असङ्गति, विशेषोक्ति तथा विभावना | 3
उक्त अलङ्कारों के अतिरिक्त जितने अलङ्कार पूर्वाचार्यों के द्वारा कल्पित थे, उन्हें केशव ने अमान्य बताया है । अन्य अलङ्कारों की सत्ता के अपलाप में कोई सबल युक्ति नहीं । इस मान्यता के औचित्य की परीक्षा का प्रसङ्ग यहाँ नहीं । हमें प्रस्तुत सन्दर्भ में केशव के अलङ्कारों की स्वरूप कल्पना के स्रोत पर ही विचार करना है ।
वक्रोक्ति को केशव ने शब्दालङ्कार माना है । संस्कृत - अलङ्कार - शास्त्र में वक्रोक्ति के शब्दालङ्कारत्व के सम्बन्ध में दो मत रहे हैं । केशव ने मम्मट आदि के मत का अनुसरण करते हुए उसे शब्दालङ्कार-वर्ग में रखा है ।
मम्मट आदि आचार्यों ने प्रश्नोत्तर को अर्थालङ्कार माना था । केशव ने प्रश्नोत्तर को भी शब्दालङ्कार माना है । गूढ़ और प्रहेलिका का पृथक्-पृथक्
१. द्रष्टव्य - लेखक का 'काव्यगुणों का शास्त्रीय विवेचन'
२. चित्रवक्रोक्त्यनुप्रासगूढश्लेषप्रहेलिकाः ।
प्रश्नोत्तरं च यमकमष्टालंकृतयो ध्वनौ ॥ - केशव, अलं० शे०, १०, १
३. उपमारूपकोत्प्र ेक्षाः समासोक्तिरपह्न ुतिः ।
समाहितं स्वभावश्च विरोधः सारदीपकौ ॥ सहोक्तिरन्यदेशत्वं विशेषोक्तिविभावना ।
एवं स्युरर्थालङ्काराश्चतुर्दश न चापरे ॥ - वही, ११, १-२
४. मम्मट विश्वनाथ आदि ने उसे शब्दालङ्कार माना है; पर रुय्यक आदि ने अर्थालङ्कार ।
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अलङ्कार-धारणा का विकास . [२८३ अस्तित्व माना गया है। आचार्य दण्डी आदि की प्रहेलिका के ही व्यापक स्वरूप से गूढ़ की धारणा ली गयी है। स्पष्टतः, केशव के सभी शब्दालङ्कार' पूर्वाचार्यों की मान्यता के अनुरूप ही कल्पित हैं।
अर्थालङ्कारों में भी किसी नवीन अलङ्कार की कल्पना नहीं की गयी है। उपमा के दश भेद दण्डी आदि आचार्यों के मतानुसार स्वीकृत हैं। रूपक के पाँच भेद भी प्राचीन आचार्यों की रचनाओं से ही गृहीत हैं। उत्प्रेक्षा का केवल हेतूत्प्रेक्षा-भेद परिभाषित है। समासोक्ति को अप्रस्तुतप्रशंसा के समकक्ष कर दिया गया है। इसमें केशव के अनुसार अन्य वस्तु को लक्ष्य कर अन्य का कथन होता है। केशव के अन्य अर्थालङ्कार प्राचीन आचार्यों के तत्तदलङ्कारों से नाम-रूप की दृष्टि से अभिन्न हैं।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि केशव के 'अलङ्कारशेखर' में किसी नवीन अलङ्कार की उद्भावना नहीं हुई है। केशव का उद्देश्य अलङ्कारों को संक्षेप में तथा सुबोध बना कर प्रस्तुत करना-मात्र था।
अप्पय्य दीक्षित भारतीय अलङ्कार-शास्त्र के अर्वाचीन लेखकों एवं पाठकों में अप्पय्य दीक्षित की रचनाएँ सर्वाधिक जनप्रिय सिद्ध हुई हैं। हिन्दी के रीति-आचार्यों के ग्रन्थों में अधिकांशतः अप्पय्य की अलङ्कार-धारणा को ही स्वीकार किया गया है। उनकी दो रचनाओं—'कुवलयानन्द' तथा 'चित्रमीमांसा'–में से लोकप्रियता की दृष्टि से 'कुवलयानन्द' प्रथम है। उक्त पुस्तक की इतनी प्रसिद्धि का कारण चिन्तन की मौलिकता नहीं, वरन् विषय-विवेचन की स्पष्टता और शैली की सरलता है। जयदेव की अलङ्कार-धारणा के विवेचन-. क्रम में हम यह देख चुके हैं कि अप्पय्य दीक्षित ने उन्हीं की धारणा का मुख्यतः अनुसरण किया है। विद्वानों की यह मान्यता बहुलांश में सत्य है कि 'कुवलयानन्द' में 'चन्द्रालोक' की ही व्याख्या की गयी है। अप्पय्य दीक्षित ने स्वयं भी इसे स्वीकार किया है कि उनका अलङ्कार-विवेचन पूर्वाचार्यों
१. अन्यदेवाभिप्रेत्यान्याभिधानं समासोक्तिः । सैव चान्यापदेश इत्युच्यते । -केशव, अलं० शे०, मरीचि-१३, पृ०.३४ ..
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२८४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
के ही मतानुसार है। जयदेव की अलङ्कार-धारणा के विवेचन-क्रम में हमने जिन अलङ्कारों के स्रोत का परीक्षण किया है, उनके नाम-रूप को अप्पय्य दीक्षित ने यथावत् स्वीकार कर लिया है। उनके अतिरिक्त 'कुवलयानन्द' में कुछ अन्य अलङ्कारों का भी लक्षण-निरूपण किया गया है, जो कुछ विद्वानों के अनुसार जयदेव के 'चन्द्रालोक से ही लिये गये हैं तथा कुछ के अनुसार अप्पय्य के द्वारा उद्भावित हैं । वे अलङ्कार हैं :-प्रस्तुताङ कुर, व्याजनिन्दा, अल्प, मिथ्याध्यवसिति, ललित, अनुज्ञा, मुद्रा, रत्नावली, विशेषक, गूढोक्ति, विवृतोक्ति, युक्ति, लोकोक्ति, निरुक्ति, प्रतिषेध, और विधि ।
मालादीपक हेतु, सूक्ष्म और लेश के लक्षण और व्यपदेश प्राचीन ही हैं ।
प्रस्तुताङ कुर
प्रस्तुताङ कुर की कल्पना अप्रस्तुतप्रशंसा के स्वरूप के आधार पर की गयी है। प्राचीन आचार्यों ने अप्रस्तुत के वर्णन से प्रस्तुत का बोध कराने में अप्रस्तुतप्रशंसा का सद्भाव माना था। अप्पय्य ने प्रस्तुत के वर्णन से प्रस्तुत के द्योतन में प्रस्तुत अलङ्कार की कल्पना की है । ' एक के वर्णन से अन्य के द्योतन की धारणा प्राचीन आचार्यों से ही ली गयी है। व्याजनिन्दा
व्याजनिन्दा नामक नवीन अलङ्कार का स्वरूप बहुत-कुछ व्याजस्तुति नामक प्राचीन अलङ्कार से मिलता-जुलता है। व्याजस्तुति में निन्दामुखेन स्तुति अथवा स्तुतिमुखेन निन्दा के कथन की कल्पना की गयी थी। अप्पय्य ने निन्दामुखेन निन्दा की व्यञ्जना में व्याजनिन्दा-नामक नूतन अलङ्कार की कल्पना की है।
अल्प
अल्प के स्वरूप की कल्पना अधिक के वैपरीत्य के आधार पर की गयी है। अधिक में पृथुल आधेय से आधार का या पृथु आधार से आधेय का
१. प्रस्तुतेन प्रस्तुतस्यद्योतने प्रस्तुताङ्करः।-अप्पय्य, कुवलयानन्द, ६७ २. निन्दाया निन्दया व्यक्तिर्व्याजनिन्देति गीयते।-अप्पय्य, कुवलयानन्द,७२
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २८५
आधिक्य वर्णित होता है । इसके विपरीत अल्प में सूक्ष्म आधेय से भी आधार की सूक्ष्मता का वर्णन होता है ।
मिथ्याध्यवसिति
मिथ्याध्यवसिति की अलङ्कार के क्षेत्र में सर्वप्रथम अवतारणा अप्यय्य दीक्षित की रचना में ही हुई । आचार्य भरत ने मिथ्याध्यवसाय को लक्षण माना था । उनके उक्त लक्षण से अप्पय्य दीक्षित के मिथ्याध्यवसिति अलङ्कार का स्वरूप भिन्न नहीं । भरत की मान्यता है कि जहाँ अभूतपूर्व अर्थ से उसके समान अर्थ का निर्णय हो, वहाँ मिथ्याध्यवसाय नामक लक्षण होता है | २ अभिनवगुप्त ने उक्त लक्षण की भरत प्रदत्त परिभाषा की व्याख्या करते हुए लिखा है कि इसमें अपारमार्थिक या असत्य अर्थ से असत्य अर्थ का निश्चय होता है । 3 अप्पय्य दीक्षित ने मिथ्याध्यवसिति अलङ्कार में इससे मिलतीजुलती ही धारणा व्यक्त की है । उन्होंने कहा है कि जहाँ कुछ मिथ्यात्व की सिद्धि के लिए मिथ्या अर्थान्तर की कल्पना की जाय, वहाँ मिथ्याध्यवसिति नामक अलङ्कार होता है ।४ स्पष्ट है कि मिथ्याध्यवसाय या मिथ्याध्यवसिति की धारणा प्राचीन है; केवल अलङ्कार के रूप में उसकी स्वीकृति नवीन है ।
ललित
ललित अलङ्कार की परिभाषा देते हुए अप्पय्य दीक्षित ने कहा है कि जहाँ प्रस्तुत धर्मी के वर्णनीय वृत्तान्त का वर्णन नहीं कर उसके प्रतिबिम्ब-रूप किसी अप्रस्तुत का वर्णन किया जाय, वहाँ ललित नामक अलङ्कार होता है । निदर्शना से इसका बहुत कम अन्तर है । पण्डितराज जगन्नाथ ने यह माना है कि बहुत कम भेद के आधार पर निदर्शना से इसका स्वतन्त्र अस्तित्व
५.
१. अल्पं तु सूक्ष्मादाधेयाद्यदाधारस्य सूक्ष्मता । वही, १७ २. अभूतपूर्वैर्यत्रार्थैस्तत्त ुल्यार्थस्य निर्णयः ।
समिध्याध्यवसायस्तु प्रोच्यते काव्यलक्षणम् ।
- भरत, नाट्यशास्त्र, १६,१६ ३. अपारमार्थिकैरेवार्थैस्तत्त ुल्यस्यावस्तुभूतस्यार्थान्तरस्य यस्य वक्तृव्यापारे सति निश्चयः सोऽयम् । - वही, अभिनव भारती पृ० ३०७-८ ४. किञ्चिन्मिथ्यात्वसिद्ध्यर्थं मिथ्यार्थान्तरकल्पनम् ।
- अप्पय्य, कुवलयानन्द, १२७ ५. वर्ण्यं स्याद्वर्ण्यवृत्तान्तप्रतिबिम्बस्य वर्णनम् । - वही, १२८
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२८६ ]
अलङ्कार-धारणाः विकास और विश्लेषण
- कल्पित है । ' ( अप्रस्तुतप्रशंसा से इसका भेद इतना ही है कि इसमें धर्मी प्रस्तुत होता है ।) इसमें सादृश्य अन्यार्थ प्रतीति का हेतु होता है । • श्रनुज्ञा
दोष में गुण देख कर दोष की ही अभ्यर्थना करने में अनुज्ञा नामक अलङ्कार का सद्भाव माना गया है । २ आचार्य भरत ने दोष का अपसारण कर गुण की योजना किये जाने में कार्य लक्षण माना था । अनुज्ञा अलङ्कार के स्वरूप की कल्पना का स्रोत उक्त लक्षण के स्वरूप में माना जा सकता है । मुद्रा
मुद्रा की काव्यालङ्कार के रूप में स्वीकृति मात्र नवीन है, इसकी धारणा 'प्राचीन ही है । नाटक में प्रकृतार्थपरक पद से सूच्य अर्थ की सूचना पर विचार होता रहा था । वह नाटक का तत्त्व काव्य के अलङ्कार के रूप में • स्वीकार कर लिया गया है । भोज ने मुद्रा की गणना शब्दालङ्कार के रूप में की थी ।
रत्नावली
जिन पदार्थों का सहपाठ प्रसिद्ध है उनका प्रसिद्धि क्रम के अनुसार विन्यास होने पर रत्नावली नामक अलङ्कार होता है ।" उद्योतकार ने इसे स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं माना है । वे रूपक का ही इसमें सौन्दर्य मान कर इसे रूपक में अन्तर्भुक्त मानते हैं; किन्तु इसमें अर्थों की प्रसिद्धि क्रम से योजना पर बल १. निदर्शनाललितयोस्तु स्वरूपावैलक्षण्यं प्रदर्शितमेवेत्येकालङ्कारत्वमेवेत्याहु: । —जगन्नाथ रसगंगाधर, पृ० ७६५ २. दोषस्याभ्यर्थनानुज्ञा तत्रैव गुणदर्शनात् ।
- अप्पय्य, कुवलयानन्द, १३७
२३. यत्रापसारयन् दोषं गुणमर्थेन योजयेत् । भवाददोषाद्वाकार्यं तल्लक्षणं विदुः ।
— भरत, नाट्यशास्त्र १६, ३७ ४. द्रष्टव्य—– भोज, सरस्वती - कण्ठाभरण, २, ८२ ५. क्रमिकं प्रकृतार्थानां न्यासं रत्नावलीं विदुः ।
- अप्पय्य, कुवलयानन्द, १४० ६. इदमपि न पृथगलङ्कारान्तरम्, यतोऽत्र वर्ण्यस्य रूपकेणैवोपस्कारो न तुमकृतोऽपि इत्युद्योतकारादिभिरुक्तम् ।
— वही, अलङ्कार- चन्द्रिका व्याख्या, पृ० १५८
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २८७
• होने से इसका स्वरूप कुछ नवीन अवश्य है । भोज ने क्रम नामक अलङ्कार के ऐसे ही स्वरूप की कल्पना की थी ।
।'
विशेषक
'कुवलयानन्द' में विशेष या विशेषक को दो बार भिन्न-भिन्न रूप में परिभाषित किया गया है । प्रसिद्ध आधार के बिना भी आधेय का वर्णन विशेष कहा गया है, जो धारणा मम्मट के प्रथम विशेष की धारणा से अभिन्न है । जहाँ दो पदार्थों में वैशिष्ट्य की स्फूर्ति होती हो, वहाँ भी विशेष नामक अलङ्कार माना गया है । यह सामान्य अलङ्कार का विपरीतधर्मा है । - स्पष्ट है कि इसके स्वरूप की कल्पना सामान्य के स्वरूप के वैपरीत्य के आधार पर की गयी है ।
गूढ़ोक्ति
गूढोक्ति अलङ्कार की परिभाषा में कहा गया है कि इसमें किसी दूसरे को लक्ष्य कर दूसरे से कुछ कहा जाता है । इसका स्वभाव अन्योक्ति से इतना मिलता-जुलता है कि उससे पृथक् इसके अस्तित्व की कल्पना ही अनावश्यक जान पड़ती है । कुछ लोगों ने इसे ध्वनि या गुणीभूत व्यङग्य में अन्तर्भुक्त माना है, स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं ।
विवृतोक्ति
शब्दशक्तिमूल या अर्थशक्तिमूल गुप्त अर्थ को जहाँ कवि युक्ति से प्रकाशित करता हो, वहाँ विवृतोक्ति-नामक अलङ्कार माना गया है ।" इस अलङ्कार में शब्द - शक्तिमूल एवं अर्थशक्तिमूल-ध्वनि की धारणा को समेट लिया गया है । वस्तुतः विवृतोक्ति को अलङ्कार का एक भेद मानना युक्तिसङ्गत नहीं । गुप्त अर्थ का आविष्करण, प्रकाशन या ध्वनन ध्वनि का व्यापार है । स्पष्टतः
१. द्रष्टव्य – भोज, सरस्वती - कण्ठाभरण, ४, २७७
२. अप्पय्य, कुवलयानन्द, ६६ तथा १४८
३. गूढोक्तिरन्योद्दश्यं चेद्यदन्यं प्रति कथ्यते । - वही, ४. नायं
१५४
क्वचिद्गुणीभूतत्वाद्ध्वनित्वाकान्तत्वादिति
पृथगलङ्कारः,
केचित् । वही, टीका, पृ० १७०
५. विवृतोक्तिः श्लिष्टगुप्त कविनाविष्कृतं यदि । - वही, १५५
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२८८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण विवृतोक्ति की धारणा नवीन नहीं है। उसकी अलङ्कार-रूप में स्वीकृति-मात्र नवीन है । पर उसका अलङ्कारत्व असन्दिग्ध नहीं। युक्ति ___ युक्ति-नामक अलङ्कार का स्वरूप व्याजोक्ति-नामक प्राचीन अलङ्कार के स्वरूप से मिलता-जुलता है। युक्ति के स्वरूप-निर्धारण के क्रम में कहा गया है कि जहाँ अपने मर्म को छिपाने के लिए क्रिया के द्वारा दूसरे की वञ्चना की जाय, वहाँ युक्ति अलङ्कार होता है।' व्याजोक्ति से युक्ति की स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध करने के लिए दो युक्तियाँ दी गयी हैं:-(१) व्याजोक्ति में आकार का गोपन होता है, पर युक्ति में उससे अन्य वस्तु का गोपन होता है, (२) व्याजोक्ति में तथ्य का गोपन उक्ति से होता है; पर युक्ति में क्रिया से ।२ तथ्य को छिपाने का तथा कोई झूठा बहाना बना कर दूसरे को वञ्चित करने का प्रयास व्याजोक्ति और युक्ति-दोनों में समान रूप से होता है। इससे स्पष्ट है कि बहुत सूक्ष्म भेद के आधार पर एक अलङ्कार से अलग दूसरे अलङ्कार के अस्तित्व की कल्पना की प्रवृत्ति से ही युक्ति का जन्म हुआ है। लोकोक्ति
प्राचीन आचार्यों ने लोकोक्ति को अलङ्कार के रूप में स्वीकृति नहीं दी थी। काव्य में लोक-प्रचलित उक्ति का प्रयोग प्राचीन काल से होता रहा है। लोकोक्ति के प्रयोग में अलङ्कारत्व मानना युक्तिसङ्गत नहीं जान पड़ता। काव्य की उक्ति को अलङ्कार्य ही माना जाना चाहिए । छेकोक्ति
छेकोक्ति की भी अलङ्कार के रूप में स्वीकृति नवीन है। लोकोक्ति के अर्थान्तरगर्भ प्रयोग में प्रस्तुत अलङ्कार की सत्ता मानी गयी है। अर्थान्तर का बोध व्यञ्जना-वृत्ति कराती है । इस अलङ्कार में व्यञ्जना-व्यापार को भी समेट लिया गया है। व्यञ्जना-व्यापार से किसी लोकोक्ति में अन्यार्थ-बोध में प्रस्तुत अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार किया गया है। प्राचीन आचार्यों ने
१. युक्तिः परातिसन्धानं क्रियया मर्मगुप्तये ।-अप्पय्य, कुवलयानन्द, १५६ २. द्रष्टव्य—वही, वृत्ति, पृ० १७३ ३. छेकोक्तिर्यत्र लोकोक्तेः स्यादर्थान्तरगभिता। वही, १५८
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अलङ्कार-धारणा का विकास
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व्यङग्य-अर्थ का तथा व्यञ्जना-शक्ति का अध्ययन अलङ्कार से पृथक् सन्दर्भ में किया था। इसीलिए उन्हें ऐसी उक्ति में अलङ्कारत्व की कल्पना की आवश्यकता नहीं जान पड़ी होगी। लोकोक्ति के प्रयोग तथा अन्यार्थ की व्यञ्जना की धारणा नवीन नहीं है। निरुक्ति
जहाँ अर्थविशेष का अभिधान कराने वाली संज्ञा से उस अर्थ के साथ ही योगवशात् अन्य अर्थ का भी बोध हो, वहाँ निरुक्ति नामक अलङ्कार माना गया है।' आचार्य भरत ने लक्षण के एक निरुक्त भेद की कल्पना की थी और उसके लक्षण-निरूपण-क्रम में इससे मिलती-जुलती धारणा प्रकट की थी। इस अलङ्कार की धारणा का मूल उक्त लक्षण को ही माना जा सकता है। प्रतिषेध
प्रतिषेध या निषेध की धारणा से अन्यार्थ-व्यञ्जना की धारणा को मिला कर प्रतिषेध अलङ्कार की कल्पना कर ली गयी है। सामान्य निषेध में चमत्कार नहीं होने से उसमें अलङ्कारत्व नहीं होता। इसमें चमत्कार अन्यार्थगभिता से आता है। इसमें सर्वविदित का निषेध किया जाता है। यह निषेध अप्राप्त का निषेध है। ऐसे स्थल में निषेध का कोई अर्थ नहीं होता। अतः, किसी शब्द-विशेष के प्रयोग से उस निषेध में अन्तर्हित अन्य अर्थ को प्रकट किया जाता है। प्राचीन आचार्यों की दृष्टि में ऐसे स्थल में निषेध से अन्यार्थ की व्यञ्जना ही मानी जायगी। विधि
सिद्ध के ही विधान में विधि नामक अलङ्कार माना गया है।४ इसमें भी चारुता अर्थान्तरगर्भिता में ही रहती है। स्पष्टतः, यह भी व्यञ्जना का ही भेद है। शोभाकर ने भी इस अलङ्कार की कल्पना की थी।
१. निरुक्तिर्योगतो नाम्नामन्यार्थत्वप्रकल्पनम् । -वही, १६४ २. द्रष्टव्य-भरत, नाट्यशास्त्र १६, १२ तथा उसका पाठान्तर
पृ० ३०५ ३. प्रतिषेधः प्रसिद्धस्य निषेधस्यानुकीर्तनम् ।-अप्पय्य, कुवलयानन्द, १६५ ४. सिद्धस्यैव विधानं यतमाहुर्विध्यलंकृतिम् ।-वही, १६६
१६
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२९० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण . इस विवेचन से स्पष्ट है कि 'कुवलयानन्द' में जिन नवीन अलङ्कारों का विवेचन हुआ है उनमें से अधिकांश की स्वरूप-कल्पना का आधार प्राचीन आचार्यों की तत्तत् काव्य-तत्त्व-धारणा में ही है। उदाहरणार्थ; प्रतिषेध, विधि एवं छेकोक्ति के स्वरूप की कल्पना क्रमशः निषेध, विधि तथा लोकोक्ति के साथ व्यञ्जना-शक्ति की धारणा को मिला कर की गयी है। विवृतोक्ति ध्वनि की धारणा पर आधृत है।
कुछ अलङ्कार प्राचीन आचार्यों के लक्षण के आधार पर कल्पित हैं। मिथ्याध्यवसिति, निरुक्ति आदि इसके उदाहरण हैं, जिनका स्वरूप भरत के क्रमश: मिथ्याध्यवसाय एवं निरुक्त लक्षणों के स्वरूप से मिलता-जुलता है। अनुज्ञा अलङ्कार की कल्पना कार्य लक्षण के आधार पर की गयी है। ___कुछ अलङ्कारों के स्वरूप प्राचीन अलङ्कारों के स्वरूप के विपर्यय के आधार पर कल्पित हैं। इस प्रकार अधिक के विपर्यय के रूप में अल्प की कल्पना की गयी है। विशेष सामान्य के वैपरीत्य के आधार पर कल्पित है।
परवर्ती आचार्यों में भेदीकरण की प्रवृत्ति अधिक होने के कारण प्राचीन अलङ्कार से अत्यल्प भेद के आधार पर भी नवीन अलङ्कार की कल्पना कर ली गयी है। फलतः, व्याजस्तुति से मिलते-जुलते स्वभाव वाले व्याजनिन्दा अलङ्कार के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना हुई। अप्रस्तुतप्रशंसा के आधार पर प्रस्तुताङ कुर कल्पित हुआ । अन्योक्ति या अप्रस्तुतप्रशंसा से मिलते-जुलते स्वभाव वाले गूढोक्ति का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकृत हुआ तथा व्याजोक्ति से मिलते-जुलते रूप वाले युक्ति अलङ्कार की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की गयी।
नाटक आदि के कुछ तत्त्वों को भी अलङ्कार के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। उदाहरणार्थ; प्रकृतार्थ-परक पद से सूच्य अर्थ की सूचना नाटक का तत्त्व है। प्रायः इसका सहारा सूत्रधार नाटक की अवतारणा में लिया करता है। इसके आधार पर मुद्रा-नामक अलङ्कार की कल्पना की गयी है। इस कल्पना में भोज की धारणा का अनुगमन है। ____ कुछ ऐसे अलङ्कार कल्पित हैं, जिनका अलङ्कारत्व सन्दिग्ध है। उदाहरणार्थ; लोकोक्ति को अलङ्कार मानना समीचीन नहीं जान पड़ता। रत्नावली की धारणा नवीन है।
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अलङ्कार-धारणा का विकास पण्डितराज जगन्नाथ
पण्डितराज जगन्नाथ के 'रसगङ्गाधर' में काव्य के अलङ्कारों का स्वरूप - विवेचन मौलिक रूप में हुआ है । जिस समय हिन्दी रीति-साहित्य के आचार्य संस्कृत आचार्यों की अलङ्कारविषयक मान्यता का सफल-असफल अनुकरण कर रहे थे, उस समय पण्डितराज अपने गहन चिन्तन और प्रखर मेधा से प्राचीन मान्यताओं का परिष्कार कर अलङ्कार के स्वरूप का निर्धारण कर रहे थे। जगन्नाथ की मौलिक आलोचक प्रज्ञा सर्वविदित है । विषय के ऊहापोह में, खण्डन - मण्डन की पद्धति पर अपने मत की स्थापना में, उनका दार्शनिक चिन्तन सहायक सिद्ध हुआ है ।
हम इस तथ्य पर विचार कर चुके हैं कि भारतीय अलङ्कार - शास्त्र में कुछ समय तक नवीन-नवीन व्यपदेश से अलङ्कारों के विभिन्न प्रकारों की कल्पना की प्रवृत्ति रही; पर उत्तर काल में अलङ्कारों के स्वरूप का स्पष्टीकरण ही आलङ्कारिकों का उद्देश्य रहा । पण्डितराज जगन्नाथ ने काव्य के अलङ्कारों के सम्बन्ध में पूर्ववर्ती आचार्यों की मान्यता का परीक्षण कर स्वतन्त्र रूप से उनके स्वरूप का स्पष्टीकरण किया है । यह इतिहास का एक विलक्षण संयोग था कि अलङ्कार विषयक मान्यताओं का मूल्याङ्कन संस्कृत अलङ्कार - शास्त्र के अन्तिम आचार्य के द्वारा हुआ — जैसे वे अलङ्कार - शास्त्रीय मीमांसा का समापन करने के पूर्व उसका पुनः परीक्षण कर लेना चाहते हों । उन्होंने नवीन अलङ्कारों की कल्पना नहीं कर पूर्व प्रतिपादित अलङ्कारों का ही स्वरूपनिरूपण किया है ।
[ २६१
जगन्नाथ के द्वारा अप्पय्य दीक्षित की 'चित्रमीमांसा' का किया हुआ खण्डन प्रसिद्ध है । विभिन्न अलङ्कारों के विषय में पूर्ववर्ती आचार्यों की मान्यता के खण्डन तथा उनके विषय में अपनी मान्यता की पुष्टि में उनके दिये हुए तर्क पर हमने विशेष अलङ्कारों के स्वरूप - विकास के अध्ययन के सन्दर्भ में विचार किया है । प्रस्तुत अध्याय में हमारा उद्देश्य रसगङ्गाधरकार के द्वारा निरूपित अलङ्कारों के स्वरूप का स्रोत -सन्धान-मात्र है ।
'रसगङ्गाधर' में शब्दशक्तिमूलक ध्वनि के सन्दर्भ में काव्य के अलङ्कारों की स्वरूप-मीमांसा की गयी है । उसमें निम्नलिखित अलङ्कारों के स्वरूप का विवेचन किया गया है:
( १ ) उपमा, (२) उपमेयोपमा, (३) अनन्वय, (४) असम, (५) उदाहरण, (६) स्मरण, (७) रूपक, ( 5 ) परिणाम, ( 8 ) ससन्देह,
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२ε२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
(१०) भ्रान्तिमान्, (११) उल्लेख, (१२) अपह्नति, (१३) उत्प्र ेक्षा, (१४) अतिशयोक्ति, (१५) तुल्ययोगिता, (१६) दीपक, (१७) प्रतिवस्तूपमा, (१८) दृष्टान्त, (१९) निदर्शना, ( २० ) व्यतिरेक, (२१) सहोक्ति, (२२) विनोक्ति, (२३) समासोक्ति, (२४) परिकर, (२५) श्लेष, (२६) अप्रस्तुतप्रशंसा, (२७) पर्यायोक्त, (२८) व्याजस्तुति, (२६) आक्षेप, (३०) विरोध, (३१) विभावना, (३२) विशेषोक्ति, (३३) असङ्गति, (३४) विषम, (३५) सम, (३६) विचित्र, (३७) अधिक, (३८) अन्योन्य, ( ३६ ) विशेष, ( ४० ) व्याघात, (४१) कारणमाला, (४२) एकावली, (४३) सार, (४४) काव्यलिङ्ग, (४५) अर्थान्तरन्यास, (४६) अनुमान, (४७) यथासंख्य, (४८) पर्याय, (४९) परिवृत्ति, (०५) परिसंख्या, (५१) अर्थापत्ति, (५२) विकल्प, (५३) समुच्चय, (५४) समाधि, (५५) प्रत्यनीक, (५६) प्रतीप, (५७) प्रौढोक्ति, (५८) ललित, (५९) प्रहर्षण, (६०) विषादन, (६१) उल्लास, (६२) अवज्ञा, (६३) अनुज्ञा, (६४) तिरस्कार, (६५) लेश, (६६) तद्गुण, (६७) अतद्गुण, (६८) मीलित, ( ६ ) सामान्य और ( ७० ) उत्तर ।
प्रस्तुत अलङ्कार-तालिका से स्पष्ट है कि पण्डितराज जगन्नाथ ने बहुलांशतः पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा विवेचित अलङ्कारों का ही स्वरूपनिरूपण किया है । हम देख चुके हैं कि जगन्नाथ का उद्देश्य नवीन अलङ्कारों की उद्भावना करना नहीं, प्राचीन अलङ्कारों के स्वरूप का ही विशदीकरण था । जगन्नाथ ने 'असम' के सन्दर्भ में रत्नाकर का मत उद्धृत किया है । अतः 'असम' नाम को भी जगन्नाथ की कल्पना नहीं माना जा सकता । उदाहरण अलङ्कार भी 'अलङ्काररत्नाकर' से ही गृहीत है । २ प्राचीन आचार्यों ने इसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं मान कर इसके स्वरूप का विवेचन उपमा के अन्तर्गत ही किया है । स्वयं पण्डितराज जगन्नाथ ने इस तथ्य का उल्लेख किया है । 3 "रसगङ्गाधर' में एक नवीन अलङ्कार का उल्लेख है । वह हैतिरस्कार | यह अप्पय्य दीक्षित के अनुज्ञालङ्कार का विपरीतधर्मा है । अनुज्ञा
१. अपि त्वसमालङ्कार इति रत्नाकरेणोक्तम् ।
—जगन्नाथ, रसगङ्गाधर २, पृ० ३३४ २. तुलनीय - शोभाकर, अलङ्कार रत्नाकर पृ० १३ तथा रसगङ्गाधर, पृ० ३३६
३. प्राश्वस्तु नायमलङ्कारोऽतिरिक्तः । उपमयैव गतार्थत्वात् । —जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ३४०-१
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अलङ्कार-धारणा का विकास [२९३ में सदोष वस्तु में गुण की कल्पना कर उसकी स्पृहा की जाती है, सिरस्कार में इसके विपरीत प्रसिद्ध गुण वाली वस्तु में दोष की कल्पना कर उसे अवाञ्छनीय बताया जाता है ।' आचार्य भरत ने गर्हण नामक लक्षण में दोष में गुण तथा गुण में दोष-प्रदर्शन की कल्पना की थी। तिरस्कार की कल्पना का मूल उक्त लक्षण में माना जा सकता है। जगन्नाथ के शेष अलङ्कार प्राचीन ही हैं। ___ इस विवेचन से स्पष्ट है कि पण्डितराज ने अलङ्कार-विवेचन में जिन उक्तिभङ्गियों की कल्पना की है, उनसे प्राचीन आचार्य अनभिज्ञ नहीं थे।
विश्वेश्वर पण्डित पण्डितराज जगन्नाथ के बाद संस्कृत साहित्यशास्त्र में मौलिक चिन्तन की प्रवृत्ति समाप्त हो गयी। उनके बाद के आचार्यों का उद्देश्य साहित्य के विभिन्न अङ्गों को सुबोध बना कर संस्कृत के अध्येताओं के लिए प्रस्तुत करनामात्र रह गया । विश्वेश्वर पण्डित ऐसे ही आचार्यों में से एक थे। उन्होंने तीन ग्रन्थों में अलङ्कार के स्वरूप का विवेचन किया है। 'अलङ्कार कौस्तुभ', 'अलङ्कार-मुक्तावली' तथा 'अलङ्कार-प्रदीप'; इन तीन ग्रन्थों में अलङ्कार के स्वरूप-विवेचन में उनका उद्देश्य स्पष्ट है। विभिन्न स्तरों के पाठकों की रुचि
और योग्यता का ध्यान रख कर उन्होंने उक्त तीन ग्रन्थों की रचना की है। 'अलङ्कार-मुक्तावली' अलङ्कार-शास्त्र में प्रवेश करने वाले पाठकों के लिए लिखी गयी थी। 'अलङ्कार-कौस्तुभ'में एकसठ अलङ्कारों का विशद निरूपण किया गया। 'अलङ्कारप्रदीप' में एक सौ उन्नीस अलङ्कारों का विवेचन किया गया। ‘अलङ्कारकौस्तुभ' में विश्वेश्वर ने एकसठ अलङ्कारों की सत्ता स्वीकार कर पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा प्रतिपादित अन्य पचीस अलङ्कारों में से कुछ का उन्हीं में अन्तर्भाव माना है तथा कुछ के अलङ्कारत्व का खण्डन किया है। यह विलक्षण बात है कि एक ही आचार्य एक ग्रन्थ में एक सौ उन्नीस अलङ्कारों का विवेचन करे और दूसरे ग्रन्थ में उनमें से अनेक के अलङ्कारत्व का अथवा १. एवं दोषविशेषानुबन्धाद्गुणत्वेन प्रसिद्धस्यापि द्वषस्तिरस्कारः ।
-वही, पृ० ८०७ २. द्रष्टव्य-भरत, ना० शा०, अभिनव भारती में उद्धृत, पृ० ३१५
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२९४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण कुछ के स्वतन्त्र अस्तित्व का खण्डन करे। इसका कारण चिन्तन की अपरिपक्वता या आत्मविश्वास का अभाव ही हो सकता है। 'अलङ्कार-कौस्तुभ' में निम्नलिखित पचीस अलङ्कारों के स्वतन्त्र अस्तित्व का या अलङ्कारत्व का खण्डन किया गया है:-अनुगुण, अल्प, असम्भव, आनुकूल्य, उन्मीलित, उल्लेख, निमीलित, निश्चय, परिकराङ्क र, परिणाम, पूर्वरूप, प्रस्तुताङ्कर, प्रहर्षण, प्रौढ़ोक्ति, मिथ्याध्यवसिति, युक्ति, ललित, लेश, विकस्वर, विचित्र, वितर्क, विशेष, विषाद, सम्भावना और हेतु ।।
'अलङ्कार-प्रदीप' में सूत्र-शैली में 'कुवलयानन्द' के मुद्रा को छोड़ शेष सभी अलङ्कारों का निरूपण किया गया है। इसके अतिरिक्त विश्वनाथ के 'साहित्य-दर्पण' से अनुकूल,जगन्नाथ के 'रसगङ्गाधर' से तिरस्कार और शोभाकर के 'अलङ्कार-रत्नाकर' से निश्चय अलङ्कार गृहीत हैं। संस्कृत-आचार्यों की रचनाओं के साथ विश्वेश्वर ने हिन्दी रीति-आचार्यों की रचनाओं का भी उपयोग किया है।
स्पष्टतः, विश्वेश्वर पण्डित की रचनाओं में अलङ्कार-विषयक कोई मौलिक उद्भावना नहीं हुई है।
अच्युतराय अच्युतराय ने संस्कृत अलङ्कार-शास्त्र का मन्थन कर साहित्य का सार प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। अच्युत का काल ( अठारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध तथा उन्नीसवीं का पूर्वार्ध ) पूर्वाचार्यों के साहित्य-सिद्धान्त-सागर के मन्थन का ही काल था, स्वतन्त्र कल्पना का काल नहीं। 'साहित्यसार' के कौस्तुभरत्न एवं कामधेनुरत्न में क्रमशः अर्थालङ्कारों एवं शब्दालङ्कारों का विवेचन है । शब्द के छेक, श्र ति तथा लाट अनुप्रास एवं यमक का विवेचन हुआ है । अर्थ के एक सौ अलङ्कारों का निरूपण किया गया है । अलङ्कारों के लक्षण अधिकतर 'कुवलयानन्द' के अधार पर दिये गये हैं। 'साहित्य-सार' में किसी नवीन अलङ्कार की उद्भावना नहीं की गयी है। हाँ, अलङ्कारों के अधिकाधिक भेदों की स्थापना का प्रयास अवश्य किया गया है। भेदीकरण में भी प्राचीन आचार्यों की मान्यताओं का ही सहारा लिया गया है।
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अलङ्कार-धारणा का विकास . [२९५ संस्कृत में अलङ्कार-निरूपण करने वाले आचार्यों की एक सुदीर्घ परम्परा रही है। अनेक आचार्यों ने पूर्वाचार्यों के द्वारा स्वीकृत अलङ्कारों का लक्षणनिरूपण किया है। ऐसे गौण आचार्यों की एक लम्बी सूची डॉ० डे ने दी है।' जिन आलङ्कारिकों का अलङ्कार-धारणा के विकास में मौलिक योगदान नहीं, उनकी कृतियों की समीक्षा प्रस्तुत सन्दर्भ में अप्रासङ्गिक समझ कर छोड़ दी गयी है।
निष्कर्ष
संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र में काव्यालङ्कार-धारणा के विकास-क्रम के इस अध्ययन से निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं :
आचार्य भरत के उपरान्त काव्य के अलङ्कारों की संख्या में क्रमिक वृद्धि होती गयी है। भरत के चार अलङ्कारों की जगह परवर्ती आचार्यों की कृतियों में शताधिक अलङ्कारों की कल्पना कर ली गयी है। ___ यद्यपि अधिकांश परवर्ती आचार्यों में अलङ्कारों की संख्या के प्रसार की प्रवृत्ति ही अधिकतर पायी जाती है; पर कुछ आचार्यों ने समय-समय पर अलङ्कारों की संख्या के अनावश्यक प्रसार का विरोध कर संख्या को परिमित करने का भी आयास किया है। वामन, कुन्तक आदि आचार्यों का प्रयास इस दृष्टि से द्रष्टव्य है।
अलङ्कारों की संख्या की प्रसृति एवं परिमिति का कारण अलङ्कारों के सम्बन्ध में आचार्यों के दृष्टिकोण में मूलभूत अन्तर रहा है। कुन्तक ने अलङ्कार एवं अलङ्कार्य के बीच स्पष्ट विभाजक-रेखा खींच कर पूर्ववर्ती आचार्यों के कुछ अलङ्कारों को अलङ्कार्य सिद्ध कर अलङ्कार के क्षेत्र से बहिष्कृत कर दिया । वामन आदि आचार्यों ने केवल औपम्यगर्भ अलङ्कारों की ही सत्ता स्वीकार कर अन्य अलङ्कारों का अलङ्कारत्व अस्वीकार कर दिया है। केवल औपम्यमूलक अलङ्कारों का सद्भाव मानना युक्तिसङ्गत नहीं। विरोधमूलक, क्रममूलक आदि अलङ्कारों का अलङ्कारत्व भी उपेक्षणीय नहीं। अलङ्कार और अलङ्कार्य के बीच व्यावहारिक दृष्टि से विभाजक-रेखा अवश्य होनी चाहिए। अनेक आचार्यों ने काव्य के वर्ण्य को भी अलङ्कार
१. द्रष्टव्य-डॉ० डे, Hist. of skt. Poetics खण्ड १
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२९६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण में परिगणित कर लिया है। अलङ्कार काव्योक्ति को अलङ्कत करते हैं । अतः अलङ्कार और अलङ्कार्य का भेद-निरूपण उपक्षणीय नहीं। ___ अलङ्कारों के संख्या-प्रसार का प्रमुख कारण यह है कि नाट्याचार्य भरत के द्वारा विवेचित छत्तीस लक्षण अपनी संत्ता विसर्जित कर धीरे-धीरे कुछ परिवर्तन के साथ अलङ्कार के क्षेत्र में अवतरित होते गये हैं। कुछ लक्षण तो अपने अपरिवर्तित स्वरूप में ही अलङ्कार के रूप में स्वीकार कर लिये गये हैं। अलङ्कार और लक्षण में स्वरूपगत इतना साम्य था कि अनेक लक्षणों का तत्त्व लेकर नवीन-नवीन अलङ्कारों की सृष्टि कर ली गयी और नाटक का वह तत्त्व 'लक्षण' अपनी सत्ता खो बैठा। भारतीय साहित्य-शास्त्र के समर्थ समीक्षक अभिनवगुप्त-पाद ने तो यहाँ तक कह दिया है कि अलङ्कारों की संख्या लक्षणों के योग से ही बढ़ती गयी है।' एक लक्षण का किसी अलङ्कार से तथा एक लक्षण का किसी दूसरे लक्षण से योग अलङ्कार-विशेष की कल्पना में अवश्य सहायक सिद्ध हुआ है। फिर भी, आचार्य अभिनव की यह मान्यता किञ्चित् परिष्कार के साथ ही स्वीकार की जा सकती है। यह ठीक है कि अधिकांश अलङ्कारों का मूल लक्षणों में पाया जा सकता है; पर ऐसे भी अलङ्कार परवर्ती आचार्यों की कृतियों में पाये जाते हैं, जिनका मूल लक्षणों में नहीं पाया जा सकता । अभिनव के पूर्व भी ऐसे अनेक अलङ्कार प्रचलित थे, जिनका मूल लक्षण में नहीं। अभिनव गुप्त ने सम्भवतः वामन के अलङ्कारों को दृष्टि में रखते हुए उक्त मान्यता प्रकट की थी। अतः, उन्होंने अन्य अलङ्कारों की उपेक्षा कर दी होगी। अलङ्कार-शास्त्र के आधुनिक आलोचकों ने परवर्ती आचार्यों की रचनाओं में अलङ्कारों के संख्याधिक्य को देख कर उसकी तुलना में भरत आदि आचार्यों की कृतियों में अलङ्कार की संख्या की अल्पता देखते हुए यह मान लिया है कि आरम्भ में अलङ्कार-शास्त्र अविकसित था। धीरे-धीरे उसका विकास होता गया है। हमारी विनम्र मान्यता यह यह है कि भरत आदि प्राचीन आचार्य भी काव्य की विविध उक्तिभङ्गियों से अनभिज्ञ नहीं थे। लक्षण में अनेक उक्तिभङ्गियों पर विचार करने के कारण उन्होंने अलङ्कारों की उतनी कम संख्या स्वीकार की थी। परवर्ती आचार्यों की भेदीकरण की प्रवृत्ति के कारण भी अलङ्कारों की संख्या में वृद्धि होती गयी। एक अलङ्कार से बहुत सूक्ष्म भेद के आधार पर दूसरे १. द्रष्टव्य-नाट्यशास्त्र की अभिनव-कृत अभिनवभारती व्याख्या
पृ० ३१७ तथा ३२१
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- अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २९७ -स्वतन्त्र अलङ्कार की कल्पना परवर्ती आचार्यों ने कर ली है। इस तरह प्राचीन आचार्यों के एक लक्षण या एक अलङ्कार के सामान्य स्वरूप में ही परवर्ती आचार्यों के अनेक अलङ्कारों की सम्भावना बीज-रूप में पायी जा सकती है।
लक्षण के अतिरिक्त गुण आदि की धारणा के आधार पर भी पीछे चल कर नवीन अलङ्कारों की कल्पना कर ली गयी है।
कुछ नाटक आदि के अङ्गभूत तत्त्व भी अलङ्कार के आविर्भाव में सहायक हुए हैं। मुद्रा-जैसे अलङ्कार की कल्पना इसका उदाहरण है ।
दर्शन आदि में विवेचित काव्येतर तत्त्व भी काव्यालङ्कार की कल्पना में सहायक हुए हैं। इस प्रकार न्यायमूलक अलङ्कारों की काव्य-क्षेत्र में अवतारणा दर्शन के क्षेत्र से हुई है।
भोज ने रीति, वृत्ति आदि काव्य-तत्त्वों को अलङ्कार के रूप में परिगणित कर लिया है। यह मान्यता निर्धान्त नहीं। इसके पीछे भोज का संख्याविशेष के प्रति मोह ही हेतु है। इसीलिए भोज के परवर्ती आचार्यों ने रीति, वृत्ति आदि को अलङ्कार नहीं मान कर स्वतन्त्र काव्य-तत्त्व माना है । - कुछ आचार्यों द्वारा अलङ्कार-विशेष के अलङ्कारत्व का खण्डन किये जाने पर भी वह अलङ्कार परवर्ती आचार्यों के द्वारा स्वीकृत होता रहा है। उदाहरणार्थ; कुन्तक ने अलङ्कार और अलङ्कार्य का भेद स्पष्ट करते हुए -स्वभावोक्ति आदि को अलङ्कार्य सिद्ध किया था। फिर भी परम्परा का अनुसरण करते हुए प्रायः सभी आलङ्कारिकों ने स्वभावोक्ति को अलङ्कार मान लिया है। स्पष्ट है कि अलङ्कार और अलङ्कार्य के बीच स्पष्ट विभाजकरेखा नहीं रहने के कारण भी अलङ्कारों की संख्या का इतना प्रसार होता गया । उक्तिभङ्गी से आरम्भ होकर अलङ्कार का क्षेत्र वर्ण्य-वस्तु तक फैल गया। इस प्रकार उदात्त, भाविक आदि भी अलङ्कार बन गये। वर्ण्य-वस्तु में अलङ्कारस्व मानने में दो मत हो सकते हैं। विशेष मनोभावों के आधार पर भी कुछ अलङ्कारों के स्वरूप की कल्पना की गयी। प्रहर्षण, विषादन आदि इसके उदाहरण हैं।
आचार्य भरत से लेकर पण्डितराज जगन्नाथ तक निम्नलिखित अलङ्कारों की कल्पना की गयी है :
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२९८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
शब्दालङ्कार __ यमक, अनुप्रास (छेकानुप्रास, लाटानुप्रास आदि) पुनरुक्तवदाभास, वक्रोक्ति. श्लेष, चित्र, बन्ध, भाषासम, जाति, गति, रीति, वृत्ति, छाया, मुद्रा, उक्ति, युक्ति, भणिति, गुम्फना, शय्या, पठिति, वाकोवाक्य, प्रहेलिका, गूढ़, प्रश्नोत्तर, अध्येय, श्रव्य, प्रेक्ष्य और अभिनेय ।
चित्र, बन्ध, प्रहेलिका आदि का विवेचन कुछ आचार्यों ने यमक के भेद के रूप में किया है; किन्तु अन्य आचार्यों ने उन्हें स्वतन्त्र अलङ्कार माना है । भाषासम से अभिनेय तक परिगणित अलङ्कारों को अलङ्कार-शास्त्र के बहुत कम आचार्यों ने स्वीकार किया है। उनमें रीति, वृत्ति आदि तो काव्य के स्वतन्त्र तत्त्व ही हैं। श्रव्य, प्रक्ष्य आदि को अलङ्कार मानने में कोई युक्ति नहीं। इस प्रकार निम्नलिखित शब्दालङ्कार ही आलङ्कारिकों को बहुमान्य हुए हैं :-यमक, अनुप्रास, पुनरुक्तवदाभास, वक्रोक्ति तथा श्लेष । चित्र, बन्ध प्रहेलिका आदि को-जिनमें वर्गों के विशिष्ट गुम्फ से चमत्कार उत्पन्न किया जाता है—अनुप्रास, यमक आदि का भेद मानना ही समीचीन है। अर्थालङ्कार
उपमा, रूपक, दीपक, प्रतिवस्तूपमा, आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक या भेद, विभावना, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, यथासंख्य या क्रम, उत्प्रेक्षा, स्वभावोक्ति या जाति या स्वरूप, प्रेय, रसवत्, ऊर्जस्वी, पर्यायोक्त, समाहित, उदात्त, श्लिष्ट, अपह नुति, विशेषोक्ति, विरोध, तुल्ययोगिता, अप्रस्तुतप्रशंसा, व्याजस्तुति, निदर्शना, उपमारूपक, उपमेयोपमा, सहोक्ति, परिवृत्ति, ससन्देह, अनन्वय, उत्प्रेक्षावयव, भाविक, आशीः, हेतु, सूक्ष्म, लेश, काव्यलिङ्ग, दृष्टान्त, व्याजोक्ति, समुच्चय, भाव, पर्याय, विषम, अनुमान, परिकर, परिसंख्या, कारणमाला, अन्योन्य, उत्तर, सार, उदारसार, अवसर, मीलित, एकावली, मत, प्रतीप, उभयन्यास, भ्रान्तिमान्, प्रत्यनीक, पूर्व, साम्य, स्मरण, विशेष, तद्गुण, अधिक, विषम, असङ्गति, पिहित, व्याघात, अहेतु, सम्भव, वितर्क, प्रत्यक्ष, अनुमान, आप्तवचन या आगम, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव, समाध्युक्ति, प्रशस्ति, कान्ति, औचित्य, संक्षेप, यावदर्थता, अभिव्यक्ति, सम, मालादीपक, विनोक्ति, सामान्य, अतद्गुण, परिणाम, उल्लेख, विचित्र, अर्थापत्ति, विकल्प, प्रतीपोपमा, उन्मीलित, परिकरराङ्कर, प्रौढोक्ति, सम्भावना, प्रहर्षण, विषादन, विकस्वर, असम्भव, उल्लास, पूर्वरूप, अनुगुण, अनुकूल,
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २९६
अवज्ञा, भाविकच्छवि, अत्युक्ति, प्रस्तुताङ्कर, व्याजनिन्दा, अल्प, मिथ्या--- ध्यवसिति, ललित, अनुज्ञा, मुद्रा, रत्नावली, विशेषक, गूढोक्ति, विवृतोक्ति, युक्ति, लोकोक्ति, छेकोक्ति, निरुक्ति, प्रतिषेध, विधि, असम, उदाहरण, तिरस्कार संसृष्टि और सङ्कर । शोभाकर मित्र ने अनेक नवीन व्यपदेश वाले अलङ्कारों" की कल्पना की, जिनमें से असम, उदाहरण आदि कुछ अलङ्कार ही पीछे स्वीकृति पा सके।
उपरिलिखित अलङ्कारों में कुछ के एकाधिक स्वरूप विवेचित हैं। इस प्रकार समान संज्ञा होने पर भी उनका पृथक-पृथक् अस्तित्व स्वीकार किया. गया है। उदाहरणार्थ; रुद्रट के वास्तव-वर्गगत समुच्चय से उनके औपम्य- . वर्गगत समुच्चय का स्वरूप भिन्न है। उनके उत्तर के भी दो रूप हैं-वास्तव. तथा औपम्य, और वे दोनों एक दूसरे से सर्वथा स्वतन्त्र हैं। औपम्यमूलक पूर्व के स्वरूप को रुद्रट ने अतिशय-मूलक पूर्व से भिन्न माना है। इस प्रकार उक्त समुच्चय, उत्तर और पूर्व अलङ्कार नाम्ना तीन हैं किन्तु स्वरूप-दृष्ट्या वस्तुतः उनकी संख्या छह हो जाती है।
ऊपर जितने शब्दालङ्कारों एवं अर्थालङ्कारों के नाम गिनाये गये हैं, उन्हें समग्रतः संस्कृत अलङ्कार-शास्त्र के किसी भी एक आचार्य ने स्वीकार नहीं किया है। 'कुवलयानन्द' में अलङ्कारों की बहुत अधिक संख्या स्वीकृत है; फिर भी लगभग सवा सौ अलङ्कारों का ही अस्तित्व उसमें स्वीकृत है। भोज तथा अग्निपुराणकार के द्वारा कल्पित अनेक अलङ्कार आचार्यों की स्वीकृति नहीं पा सके। उपमा, रूपक, दीपक, यमक आदि अलङ्कार काव्यशास्त्र के आरम्भ से लेकर अन्त तक निर्विवाद रूप से सभी आचार्यों के द्वारा स्वीकृत हुए हैं। उपमारूपक, उपमेयोपमा आदि का स्वतन्त्र अस्तित्व मानने में आचार्यों में मतैक्य का अभाव रहा है। कुछ आचार्य उपमेयोपमा को उपमा-भेद मानते हैं तो कुछ उसकी स्वतन्त्र सत्ता के पक्षपाती हैं।
अलङ्कारों की संख्या का प्रसार हो जाने पर आचार्यों ने उनके वर्गीकरण का प्रयास किया है। विभिन्न आचार्यों ने भिन्न-भिन्न आधार पर उनका वर्गीकरण किया है। इस प्रकार सादृश्य, विरोध एवं शृङ्खला आदि के
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३०० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण आधार पर अलङ्कारों का वर्गीकरण हुआ तो दूसरी ओर वास्तव, औपम्य, अतिशय एवं श्लेष वर्गों में उन्हें विभाजित किया गया।'
उद्गम-स्रोत की दृष्टि से संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र में विवेचित काव्यालङ्कारों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैं :
(क) लक्षण से आविर्भूत, (ख) रीति, वृत्ति आदि काव्य-तत्त्वों से समुद्भूत, (ग) गुण से निःसृत, (घ) अन्य नाट्य-तत्त्वों के आधार पर कल्पित, (ङ) दर्शन आदि काव्येतर शास्त्र के क्षेत्र से काव्य-क्षेत्र में अवतरित (च) अलङ्कार-विशेष से बहुत सूक्ष्म भेद के आधार पर उससे स्वतन्त्र रूप में कल्पित, (छ) अलङ्कार-विशेष के विपर्ययात्मक रूप में कल्पित, (ज) समयसमय पर विशेष आचार्यों के द्वारा उद्भावित नवीन अलङ्कार, जिनमें से कुछ का अलङ्कारत्व असन्दिग्ध है; पर कुछ का सन्दिग्ध, (झ) रस, भाव आदि की धारणा से आविर्भूत, (ञ) औचित्य की धारणा पर आधृत तथा (ट) शब्दशक्तियों पर अवलम्बित ।
(१) लक्षण से आविर्भूत :-लक्षण के साथ लक्षण, गुण, अलङ्कार आदि के योग से अनेक अलङ्कारों की रूप-रचना हुई है। आचार्य अभिनव ने अलङ्कारों की संख्या-प्रसृति का प्रधान हेतु इसे ही माना था। संस्कृत काव्य-शास्त्र में कल्पित निम्नलिखित अलङ्कारों का मूल लक्षण में हैं :-प्रय, विरोध, आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, व्याजस्तुति, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, अपह्न ति, तुल्ययोगिता, अप्रस्तुतप्रशंसा, निदर्शना, सन्देह, उदात्त, हेतु, सूक्ष्म, लेश, दृष्टान्त, विरोधाभास, भाव, अनुमान, परिकर, परिसंख्या, उत्तर, अवसर (एक प्रकार), औपम्यवर्गगत मत, उत्तर, भ्रान्तिमान्, सम्भव, मिथ्याध्यवसिति, निरुक्ति, ललित और अनुज्ञा ।
(२) रोति, वृत्ति आदि काव्यतत्त्वों से समुद्भूत :-भोज ने रीति, वृत्ति आदि को भी काव्यालङ्कार के रूप में परिगणित कर लिया है। यह मान्यता समीचीन नहीं। रीति, वृत्ति आदि अलङ्कार से स्वतन्त्र काव्याङ्ग हैं। इसीलिए भोज की इस मान्यता को अलङ्कारशास्त्र में समर्थन प्राप्त नहीं हो सका । भणिति, शय्या, गुम्फना आदि भी ऐसे ही अलङ्कार हैं।
१. रुद्रट ने वास्तव, औपम्य, अतिशय एवं श्लेष वर्गों में अलङ्कारों का विभाजन किया है। सादृश्य, विरोध तथा शृङ्खला आदि के आधार पर अलङ कारों के वर्गीकरण का प्रयास रुय्यक आदि ने किया।
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ३०१ :
(३) गुण-धारणा से निःसृत : स्वभावोक्ति, अत्युक्ति, भाविक तथा अवसर (एक भेद) अलङ्कारों का मूल गुणधारणा में है । अग्निपुराणकार ने प्रशस्ति, कान्ति, औचित्य, संक्षेप और यावदर्थता की गणना अलङ्कार के रूप में कर ली है । भोज ने इन्हें गुण माना था | औचित्य को वस्तुतः न तो गुण माना जा सकता है, न अलङ्कार । वह गुण, अलङ्कार आदि का प्राणभूत काव्य का स्वतन्त्र ही तत्त्व है ।
(४) नाट्य-क्षेत्र से अलङ्कार के क्षेत्र में अवतरित : - मुद्रा की कल्पना नाटक-तत्त्व के आधार पर की गयी है । प्रक्ष्यत्व को भी कुछ आचार्यों ने अलङ्कार मान लिया है । यह उचित नहीं । प्रक्ष्यत्व नाटक का आवश्यक धर्म है, जिसके अभाव में रूपक की रचना का उद्देश्य ही विफल हो जाता है ।
(५) अन्य काव्य-तत्त्वों से आविर्भूत :- - श्रव्यत्व, अध्येयत्व आदि काव्य के सामान्य धर्म की गणना भी काव्यालङ्कार के रूप में कर ली गयी है; किन्तु इस कल्पना को अधिकांश आलङ्कारिकों ने स्वीकार नहीं किया है ।
(६) दर्शन के क्षेत्र से काव्यालङ्कार के क्षेत्र में अवतरित : स्मरण, प्रत्यक्ष, अनुमान आदि छह प्रमाण, वितर्क, अर्थापत्ति, विकल्प तथा उक्ति के विधि नियम और परिसंख्या भेद की धारणा दर्शन से ली गयी है और इन्हें कुछ आलङ्कारिकों ने अलङ्कार के रूप में परिगणित कर लिया है । (७) अलङ्कार-1 र - विशेष से सूक्ष्म भेद के आधार पर कल्पित स्वतन्त्र अलङ्कार :- - अलङ्कार - शास्त्र के परवर्ती काल के आचार्यों में भेदीकरण की प्रवृत्ति अधिक होने से थोड़े-थोड़े भेद के आधार पर स्वतन्त्र अलङ्कारों की कल्पना की जाने लगी । इस प्रकार किसी पूर्व प्रतिपादित अलङ्कार से ही दूसरे अलङ्कार का जन्म हुआ । इस वर्ग के अलङ्कार हैं: - अनुप्रास, अनन्वय, उपमेयोपमा, उत्प्र ेक्षा, आवृत्ति, चित्र, पूर्व, प्रतीप, उभयन्यास, साम्य, अतिशय -- वर्गगत पूर्वं तद्गुण का एक भेद, व्याघात, अहेतु, मालादीपक, उल्लेख, सम्भावना, विषादन, प्रतीपोपमा, भाविकच्छवि, अनुगुण, परिकराङकुर, विकस्वर, असम्भव, प्रौढोक्ति, निश्चय, प्रतिषेध, विधि, छेकोक्ति, व्याजनिन्दा, प्रस्तुताङ, कुर, गूढोक्ति तथा युक्ति ।
(८) अलङ्कार - विशेष के विपरीत स्वभाव : – सामान्य, अतद्गुण, उन्मीलित तथा अल्प आदि इस वर्ग में आते हैं । इनके स्वरूप की कल्पना
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३०२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण क्रमशः विशेष, तद्गुण, मीलित एवं अधिक आदि के वैपरीत्य के आधार पर की गयी है।
(९) रस-भाव आदि की धारणा पर अवलम्बित :-अलङ्कारप्रस्थान के कुछ आचार्यों ने रस-भाव आदि को भी अलङ्कार के क्षेत्र में समाविष्ट कर दिया है। रसवत्, प्रेय, ऊर्जस्वी आदि का सम्बन्ध रस, भाव आदि से है। रस, भाव आदि की प्राचीन मान्यता में ही अलङ्कारत्व की कल्पना पीछे चल कर कर ली गयी है ।
(१०) औचित्य-धारणा से आविर्भूत :-भोज का भाषौचित्य अलङ्कार औचित्य का ही एक प्रकार है। औचित्य को अलङ्कार मानना 'उचित नहीं।
(११) शब्दशक्ति की धारणा पर आधृत :-मुद्रा, विवृतोक्ति आदि अलङ्कार के मूल में शब्दशक्ति की धारणा निहित है ।
(१२) मौलिक अलङ्कारः-संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र में भरत के परवर्ती आचार्यों ने समय-समय पर जिन मौलिक अलङ्कारों की उद्भावना की है, वे निम्नलिखित हैं। उनको दो वर्गों में प्रस्तुत करना उचित होगा—(क) अंशतः मौलिक वर्ग में तथा (ख) पूर्ण मौलिक वर्ग में। अंशतः मौलिक अलङ्कार वे हैं, जिनके स्वरूप की कल्पना की कुछ सम्भावना तो भरत आदि प्राचीन आचार्यों के लक्षण, गुण, अलङ्कार आदि में ही थी, पर उनके स्वरूप की कल्पना कुछ स्वतन्त्र रूप से भी हुई है । पूर्णतः मौलिक वर्ग में वे अलङ्कार रखे गये हैं, जिनके स्वरूप का सङ्केत 'नाट्यशास्त्र' में कहीं नहीं मिलता।
(क) श्लिष्ट, सहोक्ति, परिवृत्ति, भाविक, वास्तव-वर्ग के पर्याय; परिवृत्ति, सूक्ष्म, अतिशय, तद्गुण; औपम्य-वर्गगत सहोक्ति और आक्षेप; परिणाम और लोकोक्ति ।
(ख) वक्रोक्ति, विभावना, विशेषोक्ति, पर्यायोक्ति, समाहित, पुनरुक्तवदाभास, व्याजोक्ति, यथासंख्य, वास्तव-वर्गगत समुच्चय, विषम, कारणमाला, अन्योन्य, सार, मीलित, एकावली तथा पर्याय का एक प्रकार; औपम्य-वर्गगत प्रत्यनीक; अतिशय-वर्गगत विशेष, अधिक, विषम, असङ्गति, पिहित तथा तद्गुण का एक प्रकार; अर्थानुप्रास, उल्लास, पूर्वरूप, प्रहर्षण, अवज्ञा, रत्नावली, विचित्र आदि पूर्ण मौलिक अलङ्कार हैं। इनमें से विभावना, विशेषोक्ति पर्यायोक्ति, समाहित और यथासंख्य की उद्भावना का श्र य भामह को; समुच्चय से तद्गुण तक के अलङ्कारों की उद्भावना का श्रेय रुद्रट को;
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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ३०३ व्याजोक्ति की कल्पना का श्रेय वामन को; उल्लास, पूर्वरूप, प्रहर्षण एवं अवज्ञा की उद्भावना का श्रेय जयदेव को और रत्नावली की कल्पना का श्रेय अप्पय्य दीक्षित को है । पुनरुक्तवदाभास की उद्भावना उद्भट ने की थी। विचित्र रुय्यक की कल्पना है।
स्पष्ट है कि सभी समर्थ आलङ्कारिकों ने अलङ्कारों के नवीन-नवीन स्वरूप की कल्पना का प्रयास किया है। भरत के बाद भामह और दण्डी के काल तक जिन अलङ्कारों की कल्पना हुई, उनमें से अधिकांश का स्वरूप भरत के लक्षण, अलङ्कार, गुण आदि के तत्त्व से बना है । सम्भवतः उन्हीं अलङ्कारों को लक्ष्य कर अभिनव गुप्त के गुरु भट्ट तौत ने कहा था कि लक्षणों के योग से अलङ्कारों में वैचित्र्य आता है। अभिनव के बाद भी बहुत-से अलङ्कारों के स्वरूप, लक्षण, अलङ्कार आदि के तत्त्वों के योग से कल्पित हुए हैं।
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तृतीय अध्याय
हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ और उनका स्रोत
हिन्दी में अलङ्कार-शास्त्र की सुदीर्घ परम्परा पायी जाती है। हिन्दीसाहित्य के उस काल-खण्ड में, जिसे 'रीति काल' की संज्ञा से अभिहित किया गया है, अलङ्कार का विवेचन ही प्रधान है। काव्य के अन्य अङ्गों-रस, शब्द-शक्ति, रीति, गुण, दोष, आदि का भी विवेचन हिन्दी रीति-साहित्य में हआ है; किन्तु रीति-काल में काव्याङ्ग-विवेचन में प्रधानता अलङ्कारविवेचन की ही रही है। संस्कृत में भी अलङ्कार-रहित काव्य की कल्पना को शीतल अग्नि की-सी अनुचित कल्पना मानने वाले आचार्य हुए हैं।' हम यह देख चुके हैं कि संस्कृत-साहित्य-शास्त्र में अलङ्कार-प्रस्थान के समर्थक आचार्यों की एक सशक्त परम्परा रही है; किन्तु रस-ध्वनि-प्रस्थान की स्थापना के बाद अलङ्कार-प्रस्थान की लोकप्रियता क्षीण पड़ गयी। ध्वनिध्वंस-प्रस्थान के आचार्यों का प्रयास सफल नहीं हो सका। आनन्दवर्धन, मम्मट आदि आचार्यों की तर्कपुष्ट मान्यताएँ अकाट्य प्रमाणित हुई। जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि पिछले खेवे के आचार्यों ने अलङ्कार के श्रेय की स्थापना का फिर से प्रयास किया; पर सुरुचि-सम्पन्न पाठकों की दृष्टि में रस, ध्वनि आदि की अपेक्षा अलङ्कार को काव्य में गौण स्थान ही मिला। हिन्दी रीति-शास्त्र में अलङ्कार-विवेचन की प्रधानता का कारण स्पष्ट है। रीति-काल दरबारी साहित्य का काल था। राजाओं के दरबार में आयोजित काव्य-गोष्ठियों में उक्ति-चमत्कार से श्रोताओं को चमत्कृत एवं मुग्ध करना कवियों का प्रधान उद्देश्य रहता था। फलतः उस काल की कविता सुन्दर अलङ्कारों से अलङ कृत. १. अङ्गीकरोति यः काव्यं शब्दावनलङ कृती।
असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलं कृती॥-जयदेव, चन्द्रालोक, १,८
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [ ३०५ होकर रसिकों का मनोरञ्जन करने लगी। अलङ्कार-विवेचन तत्कालीन साहित्य-शास्त्र का प्रधान अङ्ग बना । उक्ति-चमत्कार कविता का प्रधान अङ्ग स्वीकृत हुआ। हिन्दी के आचार्यों पर ही नहीं, उस काल के रस-सिद्ध संस्कृत के कवि तथा ध्वनि-सम्प्रदाय के समर्थ समर्थक आचार्य पण्डितराज जगन्नाथ पर भी चमत्कारवाद का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहा। उन्होंने भी काव्य की परिभाषा में उक्ति-चमत्कार पर बल दिया है।
रीतिकालीन सामाजिक स्थिति का स्वाभाविक प्रतिफलन कृत्रिम एवं अलङ कृत उक्ति से चमत्कार उत्पन्न करने के आयास में हुआ और अलङ्कारविवेचन को आचार्यों ने प्राथमिकता दी। रीति-काल के अनेक आचार्यों ने केवल काव्यालङ्कारों के ही स्वरूप का विवेचन किया है। काव्य के रस आदि अन्य अङ्गों का विवेचन करने वाले आचार्यों ने भी अलङ्कारों का लक्षणनिरूपण किया है। इस प्रकार काव्यालङ्कार का स्वरूप-निरूपण करने वाले आचार्यों की रीति-काल में लम्बी परम्परा रही है। प्रस्तुत अध्याय में हम हिन्दीरीति-आचार्यों की अलङ्कार-विषयक उद्भावना का मूल्याङ्कन करेंगे।
आचार्य केशव दास केशव दास हिन्दी-रीति-शास्त्र के प्रथम आचार्य हैं। उन्होंने 'कविप्रिया' में काव्यालङ्कारों का स्वरूप-विवेचन किया है। कवि के रूप में केशव बौद्धिक चमत्कार-प्रदर्शन के लिए विख्यात हैं। उन्होंने काव्य में अलङ्कार का सद्भाव आवश्यक माना है। अतः, पण्डित रामचन्द्र शुक्ल की यह मान्यता उचित ही है कि- केशव को ही अलङ्कार आवश्यक मानने के कारण अलङ्कारवादी कह सकते हैं । २ 'कवि-प्रिया' में विवेचित अलङ्कार निम्नलिखित हैं :___जाति या स्वभाव, विभावना, हेतु, विरोध, विरोधाभास, विशेष, उत्प्रेक्षा, आक्षेप, क्रम, गणना, आशिष, प्रेम, श्लेष, सूक्ष्म, लेश, निदर्शना, ऊर्जस्वी, रसवत्, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, अपह्नति, वक्रोक्ति, अन्योक्ति, व्यधिकरणोक्ति, विशेषोक्ति, सहोक्ति, व्याजस्तुति, व्याजनिन्दा, अमित, . १. जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुबरन सरस सुवृत्त । भूषन बिनु न विराजहीं, कविता बनिता मित्त ॥
-केशव, कविप्रिया, प्रभाव, ५,१ २. रामचन्द्र शुक्ल, हि० सा० का इतिहास, पृ० २३६
२०
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३०६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण पर्यायोक्ति, युक्त, समाहित, सुसिद्ध, प्रसिद्ध, विपरीत, रूपक, दीपक, प्रहेलिका, परिवृत्त, उपमा, यमक और चित्र ।
उक्त बयालिस अलङ्कारों का सोदाहरण लक्षण-निरूपण 'कविप्रिया' में किया गया है। कन्हैयालाल पोद्दार का कथन है कि (कविप्रिया के) नवें से सोलहवें प्रभाव तक शब्द और अर्थ के सैंतीस अलङ्कारों का निरूपण किया गया है। उन्होंने 'कविप्रिया' के टीकाकार लाला भगवान दीन के इस कथन को ही अपरीक्षित रूप से स्वीकार कर लिया है-'केशव ने मुख्य सैंतीस नाम कहे हैं; पर इनके अवान्तर भेद मिल कर इनसे अधिक अलङ्कारों का वर्णन इस पुस्तक में है।'' लाला भगवान दीन ने वक्रोक्ति, अन्योक्ति आदि अलङ्कारों को उक्ति अलङ्कार का भेद मान लिया है। वस्तुतः, वे उक्तिमूलक अलङ्कार हैं, उक्ति अलङ्कार के भेद नहीं। उनसे स्वतन्त्र उक्ति नामक कोई अलङ्कार नहीं।
हम देख चुके हैं कि केशव के पूर्व संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र में शताधिक अलङ्कारों का विवेचन हो चुका था; किन्तु केशव ने उनमें से सबका अलङ्कारत्व स्वीकार नहीं किया। उन्होंने जितने अलङ्कारों का स्वरूप-निरूपण किया है उन सब के नाम संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र से ही नहीं लिये गये हैं ; कुछ अलङ्कारों के नाम नवीन हैं। पूर्व-प्रतिपादित अनेक अलङ्कारों की अस्वीकृति का कोई कारण 'कवि-प्रिया' में निर्दिष्ट नहीं है। कुछ अलङ्कारों के नवीन व्यपदेश की कल्पना के पीछे भी मौलिकता-प्रदर्शन की भावना ही जान पड़ती है । प्रस्तुत सन्दर्भ में हम केशव के अलङ्कारों का संस्कृत-आचार्यों के अलङ्कार से तुलनात्मक अध्ययन कर केशव के द्वारा उद्भावित नवीन अलङ्कारों के उद्गम-स्रोत पर विचार करेंगे।
'कविप्रिया' में विवेचित अलङ्कारों में जाति या स्वभावोक्ति, विभावना, हेतु, उत्प्रेक्षा, आक्षेप, आशीः, श्लेष, सूक्ष्म, लेश, निदर्शना, ऊर्जस्वी, रसवत्, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, अपह नुति, विशेषोक्ति, सहोक्ति, व्याजस्तुति, पर्यायोक्ति, समाहित, रूपक, दीपक, प्रहेलिका, उपमा, यमक, और चित्र अलङ्कारों के नाम-रूप संस्कृत-आचार्यों के द्वारा विवेचित अलङ्कारों से अभिन्न हैं।
केशव ने विरोध एवं विरोधाभास के पृथक-पृथक स्वरूप का वर्णन किया है। संस्कृत अलङ्कार-शास्त्र में भी विरोध तथा विरोधाभास संज्ञाओं का
१. लाला भगवान दीन, प्रिया-प्रकाश, पृ० १४८
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएं [ ३०७ उल्लेख हुआ है । प्राचीन आचार्य विरोध और विरोधाभास को एक ही अलङ्कार के दो नाम मानते थे। इसलिए कुछ आचार्यों ने विरोध नाम से तथा कुछ आचार्यों ने विरोधाभास नाम से उसका लक्षण प्रस्तुत किया था। दोनों को अलग-अलग स्वीकार करने वाले आचार्यों ने परस्पर विरुद्ध पदार्थों की घटना को विरोध कहा, तथा विरोध के आभास के स्थल में विरोधाभास माना । केशव दास ने प्रस्तुत अलङ्कार के दो लक्षण दिये हैं। एक में इस अलङ्कार को विरोधाभास और दूसरे में विरोध कहा गया है। केशव का विरोध-लक्षण भामह तथा दण्डी के विरोध-लक्षण के समान है।' उनका विरोधाभास-लक्षण वामन के विरोध-लक्षण के आधार पर कल्पित है ।२ वामन ने ही सर्वप्रथम विरोध को स्पष्ट शब्दों में विरोध का आभास कहा था। उनका विरोधाभास-लक्षण विरुद्ध गुण, क्रिया आदि के संयोजन-रूप विरोध से किञ्चित् भिन्न था। केशव दास ने भामह तथा वामन की विरोध-धारणाओं को स्वीकार कर एक लक्षण भामह आदि के मतानुसार तथा दूसरा लक्षण वामन के मतानुसार दिया है।
विकल साधन से साध्य की पूत्ति में विशेष अलङ्कार के सद्भाव की कल्पना केशव ने कर ली है। यह एक विलक्षण कल्पना है। संस्कृत के आचार्यों ने विकल साधन से साध्य की सिद्धि को विभावना का एक प्रकार माना था। केशव ने पूर्ववर्ती आचार्यों की विशेषालङ्कार-विषयक मान्यता को छोड़ कर इस विभावना-भेद को विशेष मान लिया है। इस कल्पना में कोई नवीनता नहीं।
हेतु अलङ्कार की सामान्य धारणा भी संस्कृत-आचार्यों से ही ली गयी है। उसके सभाव, अभाव तथा सभाव-अभाव-भेदों की कल्पना का बीज प्राचीनों के द्वारा कल्पित हेतु अलङ्कार के सामान्य लक्षण में ही निहित था। १. केशव दास विरोधमय, रचियत बचन विचारि । तासों कहत विरोध सब.........॥-केशव, कविप्रिया, ६, १६
तुलनीय-दण्डी, काव्यादर्श, २, ३३३ २. बरनत लगै विरोध सो, अर्थ सवै अविरोध ।
प्रगट विरोधाभास यह........।-केशव, कविप्रिया, ६, २२ तुलनीय–विरुद्धाभासत्वं विरोधः । -वामन, काव्यालङ्कार, ४, ३, १२ ३. साधक कारण विकल जहँ, होय साध्य की सिद्धि ।
केशवदास बखानिये, सो विशेष परसिद्धि ॥-केशव, कविप्रिया, ६, २४
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३०८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण .. केशव की उत्प्रेक्षा संस्कृत आलङ्कारिकों की उत्प्रेक्षा से अभिन्न है; किन्तु केशव की उत्प्रेक्षा-परिभाषा प्राचीन आचार्यों की परिभाषा का तरह स्पष्ट और सटीक नहीं। उत्प्रेक्षा सादृश्यमूलक अलङ्कार है, जिसमें प्रस्तुत में अप्रस्तुत की सम्भावना होती है। केशव ने उत्प्रेक्षा का लक्षण अन्य वस्तु में अन्य का तर्क माना है।' इस परिभाषा में सादृश्य पर, जो उत्प्रेक्षा का आधार है, प्रकाश नहीं पड़ता । अतः यह लक्षण अशक्त है।
आक्षेप के लक्षण तथा भेदोपभेद आचार्य दण्डी की तद्विषयक मान्यता के आधार पर कल्पित हैं। संशय, आशिष, धर्म तथा उपाय आक्षेप-भेद दण्डी से लिये गये हैं। मरण, प्रेम आदि भेदों की कल्पना का आधार भी 'काव्यादर्श' के आक्षेप-भेदों के उदाहरण में ही है। दण्डी ने स्वयं भा आक्षेप के अन्य अनेक भेदों की सम्भावना स्वीकार की थी।
क्रम अलङ्कार के सम्बन्ध में केशव की धारणा संस्कृत-आचार्यों की क्रमधारणा से भिन्न है। संस्कृत के आचार्यों ने क्रम को यथासंख्य का पर्याय माना था; पर केशव ने उसे एकावली के समान बना दिया है। 'कविप्रिया' में कम की परिभाषा स्पष्ट नहीं है। आदि से अन्त तक वर्णन केशव के अनुसार क्रम है। भोज ने क्रमशः उत्पत्यादि-क्रम के वर्णन को क्रम कहा था। केशव का उक्त लक्षण भोज के क्रम-लक्षण के समीप है। केशव के द्वारा प्रदत्त निम्नलिखित उदाहरण एकावली का उदाहरण है
सोमति सो न समा जहँ वृद्ध न, बुद्ध न ते जु पढे कछु नाहीं । ते न पढे जिन साधु न साधित, दीह दया न दिपै जिन माहीं। सो न दया जु न धर्म धरै घर, धर्म न सो जहँ दान वृथाहीं । दान न सो जहं साँच न 'केशव' सांच न सो जु बसै छल छाहीं । 3
स्पष्ट है कि क्रम केशव की नवीन उद्भावना नहीं है। पूर्वाचार्यों की एकावली आदि की धारणा को ही केशव ने क्रम के नाम से कुछ विकृत रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों के एकावली, कारणमाला तथा यथासंख्य आदि का सद्भाव स्वीकार नहीं कर, सभी क्रम-मूलक अलङ्कारों को 'क्रम' की परिभाषा में समेट लेना चाहा है। परिणाम यह हुआ है कि
१. केशव और वस्तु में और कीजिये तर्क । - उत्प्रेक्षा तासों कहैं.....वही, ६, ३० २. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्यादर्श, २, १६८ ३. केशव, कविप्रिया, ११, ३
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [३०६ उनके क्रम का स्वरूप ही अस्पष्ट रह गया है । एकावली आदि अलङ्कारों को क्रम में समाविष्ट करने की प्रेरणा केशव को आचार्य रुय्यक के 'अलङ्कार-सूत्र' से मिली होगी। रुय्यक ने एकावली, कारणमाला, मालादीपक और सार अलङ्कारों को शृङ्खलाबद्ध या क्रम-मूलक अलङ्कार-वर्ग के अन्तर्गत परिगणित किया है। केशव ने मालादीपक को तो दीपक के सन्दर्भ में परिभाषित किया; 'पर एकावली और कारणमाला के स्थान पर क्रम-नामक अलङ्कार की सत्ता की ही कल्पना कर ली। वस्तुतः क्रम अपने आप में कोई स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं। उसका एकावली, कारणमाला आदि क्रम-मूलक अलङ्कारों से पृथक अस्तित्व नहीं।
केशव ने अनुगणना से एक, दो आदि संख्याओं के वर्णन में गणना अलङ्कार माना है। यह वस्तुतः अलङ्कार है ही नहीं।
प्रेमालङ्कार की कल्पना असङ्गत है। प्रेम-जैसे हृदय के व्यापक भाव के वर्णन को अलङ्कार-विशेष मान लिया गया है। इसके लक्षण में हृदय से कपट का विनाश और प्रेम के विकास पर बल दिया गया है। इस प्रकार सौहार्द का चित्रण केशव के अनुसार प्रेमालङ्कार होगा। सम्भवतः, केशव ने प्राचीन आचार्यों की प्रेय-धारणा को भ्रम-वश प्रेम अलङ्कार के रूप में विकृत कर प्रस्तुत कर दिया है। लाला भगवान दीन ने 'प्रिया-प्रकाश' में दोष-परिहार के लिए लिखा है- 'केशव ने उदाहरण में प्रेम भाव का ही वर्णन किया है। इससे यह कदापि न समझना चाहिए कि प्रेम-वर्णन में ही प्रेमालङ्कार होगा; वरन् यह जानना चाहिए कि किसी भी मनोभाव का सत्य और यथार्थ वर्णन ही प्रेमालङ्कार है। यह केशव के प्रेमालङ्कारलक्षण पर दीन जी के स्वमत का आरोप-मात्र है। केशव की प्रेमालङ्कारपरिभाषा से यह अर्थ नहीं निकलता। 'उपजै पूरण क्षेम' में प्रेम-भाव के उदय की स्पष्ट स्वीकृति है।
केशव की वक्रोक्ति-धारणा भामह आदि की वक्रोक्ति-धारणा से अभिन्न है। भामह ने उसे विशिष्ट अलङ्कार नहीं माना था। केशव ने उस व्यापक
१. कपट निपट मिटि जाय जहँ, उपजे पूरण क्षेम । ताही सों सब कहत हैं, केशव उत्तम प्रेम ॥
-केशव, कविप्रिया, ११, २७ २. वही, प्रियाप्रकाश टीका, पृ० १६३ ३. तुलनीय-केशव, कविप्रिया, १२, ३ तथा भामह, काव्यालङ्कार, २, ८५
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३१० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण धारणा को एक अलङ्कार मान लिया है। उनकी अन्योक्ति प्राचीनों की अप्रस्तुतप्रशंसा से अभिन्न है। प्राचीन आचार्यों की असङ्गति को केशव ने व्यधिकरणोक्ति की संज्ञा दी है। अमित
केशव ने अमित के लक्षण में कहा है कि जहाँ साधन ही साधक की शुभ सिद्धि का फल भोगता हो, वहाँ अमित अलङ्कार होता है।' साधक सिद्धि के लिए किसी साधन का प्रयोग करता है और उस साधन से प्राप्त होने वाली सिद्धि का भोग साधक ही करता है; पर जहाँ साधन के द्वारा ही सिद्धि के भोग किये जाने का वर्णन हो या सिद्धि की प्राप्ति का श्रेय साधन को ही मिले वहाँ अमित नामक अलङ्कार होता है। इसके दो उदाहरण दिये गये है। एक में नायिका की दूती का नायक के साथ सम्भोग का तथा दूसरे में मधुकर शाह की जगह उसके सेनापति दुलहराम का विजयश्री प्राप्त करने का वर्णन है ।२ केशव की मान्यता है कि पहले में नायिका साधक, दूती साधन तथा सम्भोग-सुख साध्य है; पर वह साध्य साधन को ही मिल जाता है। दूसरे में साधक है मधुकर शाह, पर विजयश्री प्राप्त करने के साधनभूत दुलह को विजयश्री प्राप्त हो जाती है। अमित केशव की नूतन उद्भावना है।
केशव का युक्त अलङ्कार प्राचीन आचार्यों के स्वभावोक्ति अलङ्कार के समान ही है, जिसमें किसी के बुद्धि-बल के अनुरूप स्वरूप का कथन होता है । प्राचीन आचार्यों के स्वभावोक्ति अलङ्कार को स्वीकार कर भी युक्त का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया गया है। इसमें स्वभावोक्ति के साथ 'सम' की योग्यतया योग की धारणा भी मिला दी गयी है।
सुसिद्ध, प्रसिद्ध तथा विपरीत अलङ्कारों के नाम नवीन हैं। सुसिद्ध का स्वरूप असङ्गति के आधार पर कल्पित है; पर इसमें असङ्गति-जैसा चमत्कार नहीं। किसी अन्य के द्वारा जुटाये हुए साधन का फल कोई अन्य भोगे तो उसे केशव सुसिद्ध अलङ्कार कहेंगे। इसमें कोई चमत्कार नहीं। पिता के साधन
१. द्रष्टव्य-केशव, कविप्रिया, १२, २६ २. वही, १२, २७-२८ ३. जैसो जाको रूप बल, कहिये ताही रूप । ताको कविकुल युक्त कहि, बरणन विविध सरूप ॥
-वही, १२, ३१ ४. साधि-साधि और मर, और भोगें सिद्धि ।
तासों कहत सुसिद्धि सब.........॥ वही, १३, ४
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [ ३११ का भोग पुत्र करता है। इसी प्रकार किसी की कमाई दूसरा भोग सकता है। पूजीवादी अर्थ-व्यवस्था में भोग के साधन श्रमिक जुटाते हैं और उनका भोग पूजीपति करते हैं। यह जो सामाजिक जीवन का अभिशाप है उसे काव्य में बलङ्कार कैसे मान लिया जाय ? दूसरी बात यह है कि यह लोक की बड़ी साधारण घटना है। साधारणता में चमत्कार का तत्त्व नहीं रह जाता; इसलिए उसमें अलङ्कारत्व मानना समीचीन नहीं। प्रसिद्ध की स्थिति भी सुसिद्ध-जैसी ही है। इसमें एक के साधन का फल अनेक के द्वारा भोगे जानेका वर्णन अपेक्षित माना गया है । एक राजा के पाप का फल असंख्य प्रजा को भोगना पड़ता है, यह साधारण-सी बात है। इसमें अलङ्कार का सद्भाव मानना उचित नहीं जान पड़ता।
जहाँ कार्य का साधन ही उस कार्य का बाधक बन जाय, वहाँ विपरीत अलङ्कार माना गया है। प्राचीन आचार्यों ने व्याघात का एक रूप वहाँ माना था, जहाँ किसी कार्य के लोक-प्रसिद्ध साधन को कोई उसके विरुद्ध कार्य का साधन बना दे ।२ इससे केशव के विपरीत का इतना ही अन्तर है कि उसमें कार्य का साधन ही उस कार्य का बाधक बन जाता है। स्पष्ट है कि विपरीत केशव की नवीन कल्पना है; पर उस कल्पना का आधार अप्पय्य आदि के व्याघात का एक रूप है।
परिवृत्त के स्वरूप को केशव ने कुछ अस्पष्ट कर दिया है। प्राचीन आचार्यों ने परिवृत्ति में न्यूनाधिक के पारस्परिक परिवर्तन की कल्पना की थी। केशव उस धारणा से भी सहमत जान पड़ते हैं। इस अलङ्कार के उदाहरण की निम्नलिखित पंक्ति में न्यून और अधिक के परिवर्तन की धारणा व्यक्त हुई हैदै परिरम्मन मोहन को मन मोहि लियो सजनी सुखदाई।
...............॥(४१) किन्तु; केशव ने परिवृत्त-परिभाषा में न्यूनाधिक के परिवर्तन पर कुछ भी प्रकाश नहीं डाला है। उन्होंने परिवृत्त की परिभाषा में कहा है कि जहाँ प्रयत्न कुछ और के लिए किया जाय और फल कुछ और उपज पड़े, वहाँ १ कारज साधक को जहाँ, साधन बाधक होय ।
तासों सब विपरीत कहि,.........॥-केशव, कविप्रिया, १३, ६ २. यद् यत्साधनत्वेन लोकेऽवगतं तत्केनचित्तद्विरुद्धसाधनं क्रियेत चेत्स
व्याघातः।-अप्पय्य, कुवलयानन्द, वृत्ति पृ० १२४
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३१२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
परिवृत्त अलङ्कार होता है। इसके एक उदाहरण में 'जिसका भला कीजिए वही बुरा मानता है', कहा गया है ।२ इस तरह प्राचीनों की अनिष्टावाप्तिरूप विषम-भेद की धारणा को भी केशव ने परिवृत्त में समेट लिया है । लाला भगवानदीन ने केशव के परिवृत्त अलङ्कार के स्वरूप को विषादन अलङ्कार के एक रूप के समान माना है । 3 भलाई के बदले बुराई मिलने की धारणा प्राचीन आचार्यों के परिवृत्ति-लक्षण के सहारे भी व्यक्त की जा सकती थी; पर केशव ने नवीनता के मोह में उस प्राचीन-धारणा को भी अस्पष्ट कर उपस्थित किया है ।
आचार्य केशव की अलङ्कार-धारणा के इस विवेचन से स्पष्ट है कि उनकी 'कविप्रिया' में अलङ्कारों का स्वरूप-विवेचन प्रौढ़ नहीं है। अलङ्कारवादी होने पर भी केशव ने अलङ्कार-निरूपण को चलता कर दिया है, जैसे वे अपने आचार्यत्व के दायित्व को अनिच्छा से ढो रहे हों। उनके पूर्व संस्कृतअलङ्कार-शास्त्र में जितने अलङ्कारों का स्वरूप-निरूपण हो चुका था तथा उनमें से जितने अलङ्कार-साहित्य के पाठकों को बहुमान्य हो चुके थे, उन सबों का भी स्पष्ट रूप से यथातथ उपस्थापन केशव की 'कविप्रिया' में नहीं हो सका। उन्होंने केवल बयालीस अलङ्कारों का लक्षण-निरूपण किया है, जिनमें प्रेम, अमित, गणना, सुसिद्ध, प्रसिद्ध, तथा विपरीत; नवीन नामधारी अलङ्कार हैं। इनमें से प्रेम को अलङ्कार नहीं माना जा सकता। वह हृदय का भाव है। सुसिद्ध, प्रसिद्ध और गणना में कोई चमत्कार नहीं; अतः उन्हें अलङ्कार मानना उचित नहीं। विपरीत में भी चमत्कार का अभाव है। अतः, उसका अलङ्कारस्व सन्दिग्ध है। अन्योक्ति अप्रस्तुतप्रशंसा का अपर पर्याय है। परिवृत्त की धारणा को केशव ने अस्पष्ट कर दिया है। उनका उत्प्रेक्षा-लक्षण भी स्पष्ट नहीं। युक्त में स्वभावोक्ति और सम का स्वभाव मिश्रित है। अमित की उद्भावना का श्रेय के शव को है; किन्तु यह अलङ्कार लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सका।
स्पष्टतः, 'कविप्रिया' में अलङ्कार की कुछ नवीन संज्ञाओं की कल्पना करने पर भी केशव ने अलङ्कार-शास्त्र को कोई मौलिक योगदान नहीं दिया है। उन्होंने प्राचीन आचार्यों की अलङ्कार-विषयक मान्यता का ही अनुसरण
१. जहाँ करत कछु और ही उपजि परत कछु और । ___ तासौं परिवृत जानियो.........|| केशव, कविप्रिया, १३,३६ २. द्रष्टव्य-वही, १३, ४२ ३. वही, प्रिया-प्रकाश टीका, पृ० २७२
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [ ३१३ किया है। जहाँ-कहीं नवीनता लाने का आयास उन्होंने किया है वहाँ या तो प्राचीन धारणा को ही कुछ विकृत और अस्पष्ट कर दिया है या फिर ऐसे अलङ्कारों के स्वरूप की कल्पना कर ली है, जिन्हें अलङ्कार माना ही नहीं जा सकता।
महाराज जसवन्त सिंह 'भाषाभूषण' में महाराज जसवन्त सिंह ने एक सौ आठ अलङ्कारों का लक्षण-निरूपण किया है। उन्होंने मौलिकता का मिथ्याभिमान नहीं कर स्पष्ट शब्दों में कहा है कि मैंने संस्कृत आचार्यों के अलङ्कार-लक्षणों के आधार 'पर अलङ्कारों को परिभाषित किया है।' 'भाषाभूषण' में एक ही पद में अलङ्कार के लक्षण-उदाहरण देने की 'कुवलयानन्द' आदि की पद्धति अपनायी नगयी है। प्रस्तुत सन्दर्भ में 'भाषाभूषण' में विवेचित अलङ्कारों के स्रोत का परीक्षण हमारा इष्ट है।
'भाषाभूषण' में अनुक्रम से निम्नलिखित अलङ्कारों का स्वरूप-निरूपण किया गया है :___ अर्थालङ्कार :-उपमा, अनन्वय, उपमानोपमेय, प्रतीप, रूपक, परिणाम, उल्लेख, स्मरण, भ्रम, सन्देह, अपह्नति, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, तुल्ययोगिता, दीपक, दीपकावृत्ति, प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त, निदर्शना, व्यतिरेक, सहोक्ति, विनोक्ति, समासोक्ति, परिकर, परिकराङ कुर, श्लेष, अप्रस्तुतप्रशंसा, प्रस्तुताङ कुर, पर्यायोक्ति, व्याजस्तुति, व्याजनिन्दा, आक्षेप, विरोधाभास, विभावना, विशेषोक्ति, असम्भव, असङ्गति, विषम, सम, विचित्र, अधिक, अल्प, अन्योन्य, विशेष, व्याघात, कारणमाला, एकावलो. मालादीपक, सार, यथासंख्य, पर्याय, 'परिवृत्ति, परिसंख्या, विकल्प, समुच्चय, कारकदीपक, समाधि, प्रत्यनीक, काव्यार्थापत्ति, काव्यलिङ्ग, अर्थान्तरन्यास, विकस्वर, प्रौढोक्ति, सम्भावना, मिथ्याध्यवसिति, ललित, प्रहर्षण, विषाद, उल्लास, अवज्ञा, अनुज्ञा, लेख, मुद्रा, रत्नावली, तद्गुण, पूर्वरूप, अतद्गुण, अनुगुण, मीलित, सामान्य,
१. अलङ कार शब्दार्थ के, कहे एक सौ आठ । किए प्रगट भाषा विर्षे, देखि संस्कृत पाठ ।।
-जसवन्त सिंह, भाषाभूषण, अलं० प्रकरण, २०६
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३१४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण उन्मीलित, विशेषक, गूढोत्तर, चित्र, सूक्ष्म, पिहित, व्याजोक्ति, गूढोक्ति, विवृतोक्ति, युक्ति, लोकोक्ति, छेकोक्ति, वक्रोक्ति, स्वभावोक्ति, भाविक, उदात्त, अत्युक्ति, निरुक्ति, प्रतिषेध, विधि और हेतु ।।
शब्दालङ्कार :-छेकानुप्रास, लाटानुप्रासं, यमकानुप्रास तथा वृत्त्यनुप्रास ।
उपरिलिखित एक सौ एक अर्थालङ्कारों एवं चार शब्दालङ्कारों के स्वरूप की विवेचना महाराज जसवन्त सिंह ने 'भाषाभूषण' में की है। उनके चार शब्दालङ्कार वस्तुतः एक ही अनुप्रास के चार भेद हैं, फिर भी परम्परा से उनका पृथक्-पृथक् अस्तित्व स्वीकार किया जाता रहा है । जसवन्त सिंह के शब्दालङ्कारों की संख्या चार मानने पर भी एक सौ एक अर्थालङ्कारों से उन्हें मिला कर कुल एक सौ पाँच अलङ्कार ही होते हैं। किन्तु; महाराज जसवन्त सिंह ने स्वयं एक सौ आठ अलङ्कारों के स्वरूप-निरूपण का दावा किया है । संख्या के सम्बन्ध में 'भाषाभूषण' के लेखक की मान्यता को गलत नहीं माना जा सकता। उससे 'भाषाभूषण' के प्राप्त पाठ में जो संख्या का अन्तर है, उसका एक कारण तो यह हो सकता है कि मूल पुस्तक के कुछ अलङ्कार-लक्षण किसी कारण नष्ट हो गये होंगे । एक दूसरे कारण का भी अनुमान किया जा सकता है। सम्भव है कि जिन-जिन अलङ्कारों के एकाधिक स्वरूप स्वीकृत हैं, उन-उन अलङ्कारों की गणना भाषाभूषणकार ने स्वरूप के आधार पर एक से अधिक कर ली हो। किन्तु, ऐसा अनुमान करने पर समस्या के सुलझने के बजाय दूसरी कठिनाई उपस्थित हो जाती है। ऐसा मानने पर अलङ्कारों की संख्या एक सौ आठ से अधिक हो जाती है। उदाहरणार्थ; व्यतिरेक, विभावना, अतिशयोक्ति आदि के तत्तद् रूपों की अलग-अलग गिनती करने पर अलङ्कारों की संख्या एक सौ आठ से बहुत अधिक हो जायगी। इसलिए, अलङ्कार की संख्या-विषयक इस गड़बड़ी का पहला कारण ही सम्भावित जान पड़ता है।
महाराज जसवन्त ने शब्दालङ्कारों की संख्या छह मानी है। उनका कथन है कि यों तो शब्द के अनेक अलङ्कार हो सकते हैं; पर मैंने छह अनुप्रासों का ही विवेचन किया है।' 'भाषाभूषण' में चार अनुप्रास ही विवेचित हैं। स्पष्ट है कि अनुप्रास के दो प्रकारों के लक्षण लुप्त हैं। यदि शब्दालङ्कारों १. शब्दालङ कृति बहुत हैं, अच्छर के संजोग । अनुप्रास षटविधि कहे, जे हैं भाषा जोग ।।
-जशवन्त, भाषाभूषण, अलङ्कार प्रकरण, २१०
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [३१५.. की संख्या छह हो तो अर्थालङ्कारों की संख्या एक सौ दो होनी चाहिए। एक सौ एक अलङ्कारों के लक्षण उपलब्ध हैं; अतः एक अर्थालङ्कार की परिभाषा लुप्त जान पड़ती है।
डॉ० रामशङ्कर शुक्ल 'रसाल' ने 'भाषाभूषण' के प्राप्त शब्दालङ्कार-लक्षण में यमकानुप्रास को स्वतन्त्र यमक अलङ्कार माना है। उनके अनुसार शेषः ( छेक, लाट, वृत्ति ) अनुप्रास के तीन प्रकार हैं।' यदि यमकानुप्रास को अनुप्रास से स्वतन्त्र यमक मान लिया जाय तब 'भाषाभूषण' के रचयिता के अनुसार इससे भिन्न छह अनुप्रास का स्वरूप-निरूपण किये जाने का अनुमान किया जायगा; और यह मान लिया जायगा कि तीन अनुप्रास-भेदों के लक्षणपरक पद अप्राप्य हैं। किन्तु, हमारा अनुमान है कि जसवन्त सिंह ने यमकानुप्रास सहित छह अनुप्रास-प्रकारों का विवेचन किया होगा। यदि वे यमक को अनुप्रास से स्वतन्त्र मानते तो यमक को यमकानुप्रास नहीं कहते । यमक को अनुप्रास के अन्तर्गत मानना असङ्गत भी नहीं कहा जा सकता। संस्कृतअलङ्कार-शास्त्र में भी कई आचार्यों ने अनुप्रास और यमक के स्वरूप का एक ही व्यपदेश से विवेचन किया है। अतः, डॉ० रसाल की मान्यता तर्कपुष्ट नहीं जान पड़ती। दो शब्दालङ्कार तथा एक अर्थालङ्कार के लक्षण ही लुप्त जान पड़ते हैं। सेठ कन्हैयालाल पोद्दार के अनुसार 'इसमें ( भाषाभूषण में ) चार शब्दालङ्कार और एक सौ अर्थालङ्कार निरूपण किये गये हैं ।'२ हम ऊपर 'भाषाभूषण के एक सौ एक अर्थालङ्कारों की गणना कर चुके हैं । सम्भव है कि पोद्दार जी ने गूढोत्तर और चित्र को एक अलङ्कार मान कर दोनों की गणना एक कर ली हो। अप्पय्य दीक्षित ने उत्तर तथा चित्र को एक ही अलङ्कार के दो भेद स्वीकार किये थे। पर, महाराज जसवन्त सिंह ने दोनों की पृथक्-पृथक् सत्ता स्वीकार कर दोनों को अलग-अलग परिभाषित किया है। 'भाषाभूषण' में अर्थालङ्कारों की संख्या एक सौ एक ही है, एक सौ नहीं।
अप्पय्य दीक्षित का 'कुवलयानन्द' महाराज जसवन्त के 'भाषाभूषण' का उपजीव्य है। एक साथ लक्षण और. उदाहरण देने की 'कुवलयानन्द' की शैली तो 'भाषाभूषण' में अपनायी गयी ही है, उपमा से लेकर हेतु तक सभी
१. द्रष्टव्य-रामशंकर शुक्ल 'रसाल' अलङ्कार पीयूष, खण्ड १, पृ० १०१ २. द्रष्टव्य-कन्हैयालाल पोद्दार, काव्यकल्पद्र म, खण्ड २, प्राक्कथन
पृ० ४१.
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३१६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अर्थालङ्कारों का अनुक्रम भी 'कुवलयानन्द' के ही आधार पर आधृत है। यही - नहीं, ‘भाषाभूषण' की अलङ्कार-परिभाषाएँ भी बहुलांशतः 'कुवलयानन्द' के अलङ्कार-लक्षणों का अविकल हिन्दीरूपान्तर-मात्र है। 'भाषाभूषण' और कुवलयानन्द के तुलनात्मक अध्ययन से ऐसा लगता है कि महाराज जसवन्त की इस स्वीकारोक्ति में-'किए प्रगट भाषा विर्षे, देखि संस्कृत पाठ ।' 'संस्कृत पाठ' से अभिप्राय 'कुवलयानन्द' का ही है। 'भाषाभूषण' में प्रमुख
अलङ्कारों के भेदोपभेदों का विवेचन भी 'कुवलयानन्द' के तत्तदलङ्कार-भेदों : के विवेचन से अभिन्न है। कुछ अलङ्कारों के प्रमुख भेदों का विवरण 'कुवलयानन्द' के आधार पर देकर उनके उपभेदों को जसवन्त सिंह ने छोड़ दिया है। सम्भव है कि ग्रन्थ-विस्तार-भय से ऐसा किया गया हो। उदाहरण के लिए उत्प्रेक्षा के तीन भेदों-वस्तूत्प्रेक्षा, हेतूत्प्रेक्षा तथा फलोत्प्रेक्षाका विवेचन तो 'कुवलयानन्द' के विवेचन से अभिन्न है; पर 'कुवलयानन्द' में विवेचित वस्तूस्प्रेक्षा के उक्तास्पद तथा अनुक्तास्पद; हेतूत्प्रेक्षा एवं फलोत्प्रेक्षा के सिद्धविषय और असिद्धविषय उपभेदों का विवेचन 'भाषाभूषण' में नहीं किया गया है।
'कुवलयानन्द' में व्याजस्तुति के दो रूप-(१) निन्दामुखेन स्तुति तथा (२) स्तुतिमुखेन निन्दा-विवेचित हैं; किन्तु 'भाषाभूषण' की व्याजस्तुतिपरिभाषा में उसके केवल प्रथम रूप को ( निन्दा के व्याज से की जाने वाली स्तुति को ) परिभाषित किया गया है। उसके दूसरे रूप की अस्वीकृति का कोई कारण नहीं।
अप्पय्य दीक्षित ने सामान्य से विशेष और विशेष से सामान्य के समर्थन में अर्थान्तरन्यास अलङ्कार का सद्भाव माना था; पर महाराज जसवन्त सिंह ने उस अलङ्कार की अपूर्ण परिभाषा की अवतारणा की है। बाबू गुलाब · राय के द्वारा सम्पादित 'भाषाभूषण' में उपलब्ध पाठ के अनुसार विशेष से . सामान्य के दृढीकरण में अर्थान्तरन्यास अलङ्कार माना गया है। यह परिभाषा
१. तुलनीय-उक्तिर्व्याजस्तुतिनिन्दास्तुतिभ्यां स्तुतिनिन्दयोः ।-कुवल
यानन्द,७०
तथा
व्याजस्तुति निन्दा मिसहि जब बड़ाई होहि ।
-भाषाभूषण, अलङ्कार-प्रकरण, १०४
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हिन्दी रीति- साहित्य में अलङ्कार विषयक उद्भावनाएँ [ ३१७ -
अर्थान्तरन्यास-विषयक प्राचीन मान्यता को अंशतः ही प्रस्तुत करती है । उक्त परिभाषा के एक पाठ भेद का भी निर्देश किया गया है । उस पाठान्तर के अनुसार सामान्य से विशेष के समर्थन में अर्थान्तरन्यास माना गया है । " यह पाठान्तर अर्थान्तरन्यास के दूसरे रूप को प्रकाशित करता है । दो में से किसी भी पाठ को शुद्ध मानने से कुवलयानन्दकार की अर्थान्तरन्यास-धारणा पूर्णतः परिभाषित नहीं हो पाती । स्पष्ट है कि 'भाषाभूषण' का अर्थान्तरन्यासलक्षण अपूर्ण है ।
अप्पय्य दीक्षित ने उत्तर अलङ्कार के दो भेद स्वीकार किये थे । उत्तर के एक लक्षण में उन्होंने गूढोत्तर शब्द का प्रयोग किया था । उसी परिभाषा से गूढोत्तर शब्द लेकर भाषाभूषणकार ने उत्तर का अभिधान गूढोत्तर दिया है । अप्पय्य ने उत्तर का दूसरा प्रकार चित्रोत्तर माना था, जिसमें प्रश्न और उत्तर साथ मिले रहते हैं । महाराज जसवन्त सिंह ने चित्रोत्तर की चित्र नाम स्वतन्त्र सत्ता मान ली है । इस तरह 'कुवलयानन्द' के एक अलङ्कार उत्तर से भाषाभूषण के गूढोत्तर तथा चित्र अभिन्न हैं ।
कुछ अर्थालङ्कारों के स्वरूप के सम्बन्ध में अप्पय्य दीक्षित से सहमत होने पर भी जसवन्त सिंह उनके लक्षण स्पष्ट रूप से प्रस्तुत नहीं कर पाये हैं । उनके लक्षण इसीलिए आपाततः अप्पय्य के अलङ्कार - लक्षण से किञ्चित् भिन्न लगते हैं; पर उन लक्षणों एवं उनके उदाहरणों के परीक्षण से स्पष्ट हो जाता है कि उन अलङ्कारों के सम्बन्ध में जसवन्त सिंह की धारणा अप्पय्य दीक्षित की धारणा से तत्त्वतः अभिन्न है । इस दृष्टि से निम्नलिखित अलङ्कारों के लक्षण विचारणीय हैं:
'कुवलयानन्द' में निरूपित तुल्ययोगिता के तीनों भेद 'भाषाभूषण' में परिभाषित हैं । 'हित और अहित में वृत्ति की तुल्यता' की जगह 'भाषाभूषण'
१. तुलनीय - उक्तिरर्थान्तरन्यासः स्यात्सामान्यविशेषयोः ।
तथा विशेष तें सामान्य दृढ, तब अर्थान्तरन्यास । पाठान्तर - सामान्य ते विशेष दृढ,
२. तुलनीय - अप्पय्य, कुवलयानन्द, अलङ्कार प्रकरण, १८०
"
- कुवलयान्द, १२२
,,।
""
- भाषाभूषण, अलङ्कार-प्रकरण १५४ १५० तथा जसवन्त, भाषाभूषण, -
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३१८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
में 'एक शब्द में हित अहित' कहा गया है। यह कथन तो कुवलयानन्दकार के मत को किसी तरह स्पष्ट कर देता है; किन्तु तुल्ययोगिता के शेष दो रूपों के “सम्बन्ध में प्राचीन आचार्यों की मान्यता जितनी स्पष्ट थी, उतनी स्पष्ट परिभाषा जसवन्त सिंह नहीं दे सके हैं। अप्पय्य की इस परिभाषा को कि 'तुल्ययोगिता में अनेक प्रस्तुतों और अनेक अप्रस्तुतों में परस्पर धर्म की एकता होती है', जसवन्त सिंह ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है-'बहु में एक बानि ।' 'बहु' से बहुत वर्गों का या बहुत अवर्यों का धर्मगत ऐक्य का भाव स्पष्ट नहीं होता। इस उक्ति की अशक्ति इस बात में है कि इसमें दीपक से तुल्ययोगिता का भेद कराने वाले तत्त्व का उल्लेख नहीं है। तुल्ययोगिता के तीसरे प्रकार के सम्बन्ध में अप्पय्य की मान्यता थी कि इसमें उत्कृष्ट गुण वाले के साथ समीकरण कर वस्तु का वर्णन होता है । इसे ही जसवन्त सिंह ने 'बहु सौं समता गुननि करि' कहा है।' गुण से ही उनका अभिप्राय सम्भवतः उत्कृष्ट गुण का रहा है।
प्रतिवस्तूपमा के लक्षण में जसवन्त सिंह ने कहा है कि जहाँ दोनों वाक्य समान हों, वहां प्रतिवस्तूपमा अलङ्कार होता है । प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत वाक्यों में एक ही समान धर्म का पृथक्-पृथक् निर्देश होने में कुवलयानन्दकार ने प्रतिवस्तूपमा अलङ्कार माना था। दो वाक्यों के समान होने के कथन से प्रतिवस्तूपमा का स्वरूप उतना स्पष्ट नहीं हो पाता। __ दृष्टान्त की परिभाषा तो 'भाषाभूषण' में और भी अस्पष्ट है। इसके सम्बन्ध में केवल इतना ही कह दिया गया है कि इसके नाम से ही इसका लक्षण समझा जा सकता है। यह ठीक है कि काव्य के अलङ्कारों की - संज्ञा अधिकतर अन्वर्थ ही है; पर इससे उन अलङ्कारों को परिभाषित करने के दायित्व से आचार्य मुक्त नहीं हो जाते ।
निदर्शना के लक्षण में सदृश वाक्यार्थ में ऐक्यारोप की धारणा अप्पय्य ने व्यक्त की थी। इसके स्थान पर जसवन्त सिंह ने निदर्शना में वाक्य अर्थ
१. जसवन्त, भाषाभूषण, अलङ कार प्रकरण, ८० २. प्रतिवस्तूपमा समझिये दोऊ वाक्य समान । बही, ८६ ३. द्रष्टव्य-अप्पय्य, कुवलयानन्द, ५१ ४. अलङ कार दृष्टान्त सो लच्छन नाम प्रमान ।
-जसवन्त, भाषाभूषण, अलङ्कार प्रकरण, ८७
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हिन्द रीति- साहित्य में अलङ्कार - विषयक उद्भावनाएँ [ ३१९
का सम होना' अपेक्षित माना है ।' यह कथन निदर्शना के स्वरूप को पूर्णतः - स्पष्ट नहीं कर पाता । निदर्शना के अन्य दो भेदों के लक्षण 'कुवलयानन्द' में दिये गये लक्षण के समान ही हैं ।
व्याघात का लक्षण भी 'भाषाभूषण' में कुछ अस्पष्ट रह गया है । इस अलङ्कार के दो रूपों की कल्पना 'कुवलयानन्द' में की गयी थी । एक में किसी वस्तु का जैसे कार्य का साधन होना लोक- प्रसिद्ध हो, उसके विरुद्ध कार्य का "साधन बनाया जाना वाञ्छनीय माना गया है । इस बात को इस वाक्य से व्यक्त किया गया है
व्याघात जो कछु और तें कीजें कारज और । २
स्पष्ट है कि 'कुवलयानन्द' की व्याघात - परिभाषा से यह परिभाषा कुछ अस्पष्ट है । व्याघात के दूसरे रूप की परिभाषा 'कुवलयानन्द' की परिभाषा के समान है ।
उदात्त में समृद्धि चरित, श्लाघ्य चरित तथा अन्योपलक्षण की धारणा 'कुवलयानन्द' में व्यक्त की गयी थी । समृद्धि, श्लाघ्य आदि के चरित का स्पष्ट उल्लेख नहीं कर भाषाभूषणकार ने उपलक्षण से आधिक्य वर्णन में उदात्त का सद्भाव माना है | 3
अत्युक्ति के लक्षण में 'भाषाभूषण' में सातिशय-रूप का वर्णन अपेक्षित बताया गया है । इस प्रकार अतिशयोक्ति से इसका भेद स्पष्ट नहीं रह पाता । 'कुवलयानन्द' में अद्भुत शौर्य, औदार्य आदि के वर्णन में अत्युक्ति का सद्भाव माना गया था । उसे 'भाषाभूषण' में कुछ अस्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया किया है ।
लेश अलङ्कार को जसवन्त सिंह ने लेख कहा है । परम्परा से स्वीकृत लेश नाम के स्थान पर लेख नाम का प्रयोग करने का कोई कारण नहीं दीखता । सम्भव है कि लेख अपपाठ हो । उसका स्वरूप अप्पय्य दीक्षित के लेश के स्वरूप से अभिन्न है । ४
१. तुलनीय - जसवन्त, भाषाभूषण, अलङ्कार प्रकरण, ८८-८६ तथा अप्पय्य, कुवलयानन्द, ५३-५६
२. जसवन्त, भाषाभूषण, अलङ्कार प्रकरण, १३५ ३. वही, १६२
४. तुलनीय - भाषाभूषण, अलङ्कार प्रकरण, १६७ तथा
कुवलयानन्द, १३८
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३२० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
समासोक्ति का लक्षण-निरूपण जसवन्त सिंह ने 'कुवलयानन्द' के आधार पर नहीं कर दण्डी के 'काव्यादर्श' के आधार पर किया है। दण्डी की समासोक्ति-परिभाषा की व्याख्या में नृसिंह देव ने अप्रस्तुत-वर्णन से प्रस्तुत अर्थ की अभिव्यक्ति को समासोक्ति में दण्डी का अभिमत सिद्ध किया है। जसवन्त सिंह भी अप्रस्तुत-वर्णन में प्रस्तुत की स्फूर्ति को समासोक्ति का लक्षण मानते हैं, अप्पय्य की तरह प्रस्तुत-वर्णन में अप्रस्तुत की स्फूर्ति को नहीं।
अप्रस्तुतप्रशंसा के केवल दो भेद 'भाषाभूषण' में स्वीकृत हैं, अप्पय्य के पाँच नहीं। अप्रस्तुत-वर्णन से प्रस्तुत की व्यञ्जना को समासोक्ति मान लेने पर अप्रस्तुतप्रशंसा के सम्बन्ध में अप्पय्य से सहमत होना जसवन्त सिंह के लिए सम्भव नहीं था। कारण, अप्रस्तुत से प्रस्तुत की अवगति को अप्पय्य अप्रस्तुतप्रशंसा मानते हैं और जसवन्त समासोक्ति। अतः, जसवन्त सिंह ने अप्रस्तुतप्रशंसा के स्वरूप की कल्पना अप्पय्य दीक्षित की तद्विषयक धारणा से किञ्चित् स्वतन्त्र रूप से की है। उनके अनुसार जहाँ प्रस्तुत को छोड़ केवल अप्रस्तुत का वर्णन होता हो, अथवा प्रस्तुत का भी अंशतः वर्णन करने के साथ अप्रस्तुत का वर्णन किया जाता हो, इन दोनों ही स्थितियों में अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार माना जाता है । यह मान्यता वामन की समासोक्ति-विषयक मान्यता से प्रभावित है। वामन ने प्रस्तुत के अनुक्त होने में समासोक्ति अलङ्कार माना था। दण्डी, वामन आदि की समासोक्ति पीछे चल कर अप्रस्तुतप्रशंसा के रूप में स्वीकृत हुई और समासोक्ति में उसके विपरीत स्वभाव ( प्रस्तुत से अप्रस्तुत की व्यञ्जना ) की कल्पना की गयी। महाराज जसवन्त सिंह ने दण्डी के समासोक्ति-लक्षण को समासोक्ति के लिए स्वीकार किया और उसीसे मिलते-जुलते वामन के समासोक्ति-लक्षण का उपयोग अप्रस्तुतप्रशंसा की परिभाषा में करना चाहा। फल यह हुआ कि उनकी अप्रस्तुतप्रशंसा का स्वरूप उन्हीं की समासोक्ति के स्वरूप से स्पष्टतः स्वतन्त्र नहीं हो पाया। यदि वे प्रस्तुत के बिना अप्रस्तुत का वर्णन अप्रस्तुतप्रशंसा
१. समासोक्ति प्रस्तुत फुरैऽप्रस्तुत वर्णन माँझ ।
-जसवन्त, भाषाभूषण, अलङ्कार प्रकरण, ६५ २. अलङ्कार द्व भाँति को अप्रस्तुत प्रशंस । इक वर्णन प्रस्तुत बिना दूज प्रस्तुत अंस ।
-वही, ६६
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएं [ ३२१ मानते हैं तो निश्चित रूप से उस अप्रस्तुत से प्रस्तुत की व्यञ्जना माननी पड़ेगी, फिर तो यह उनकी समासोक्ति से अभिन्न हो जायगा । समासोक्ति और अप्रस्तुतप्रशंसा की पृथक्-पृथक् सत्ता मानने पर भी समासोक्ति के सम्बन्ध में दण्डी आदि की धारणा को स्वीकार करने के कारण ही ऐसी गड़बड़ी हुई है।
उपरिविवेचित अलङ्कारों को छोड़, शेष अलङ्कारों के भेदसहित लक्षण महाराज जसवन्त सिंह ने 'कुवलयानन्द' के आधार पर ही दिये हैं। __इस विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि महाराज जसवन्त सिंह ने 'भाषाभूषण' में किसी नवीन अलङ्कार की उद्भावना नहीं की। उनका उद्देश्य संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र के बहुमान्य बलङ्कार-लक्षणों की भाषा में अवतारणा करना था। ऐसा करने में कुछ अलङ्कारों का स्वरूप कुछ अस्पष्ट अवश्य रह गया है; पर अधिकांशतः उनका आयास सफल रहा है। उन्होंने मुख्यतः 'कुवलयानन्द' के आधार पर अलङ्कारों का लक्षण-निरूपण किया है। पर यह मानने का सबल आधार है कि वे दण्डी, वामन आदि की अलङ्कारधारणा से भी पूर्णतः अवगत थे।
मतिराम मतिराम ने 'ललितललाम' में 'कुवलयानन्द' के आधार पर एक सो अर्थालङ्कारों का स्वरूप-विवेचन किया है। महाराज जसवन्त सिंह की अलङ्कार-धारणा के परीक्षण-क्रम में हम देख चुके हैं कि उन्होंने भी 'कुवलयानन्द' को अपना उपजीव्य बना कर अलङ्कारों के स्वरूप का निरूपण किया था; पर उनका आयास पूर्णतः सफल नहीं हुआ था। उनके अलङ्कारों का स्वरूप कहीं-कहीं अस्पष्ट रह गया था और कहीं-कहीं कुछ भ्रमात्मक स्थापनाएं भी हो गयी थीं। मतिराम ने महाराज जसवन्त को अपने अलङ्कार-विवेचन का आदर्श नहीं मान कर सीधे अप्पय्य के 'कुवलयानन्द' को ही 'आकर' माना। यद्यपि मतिराम ने जसवन्त सिंह की तरह एक ही छन्द में लक्षण-उदाहरण वाली 'कुवलयानन्द' की शैली को नहीं अपनाया है और फलतः उनका 'ललितललाम' बाह्य-रूप-विधान की दृष्टि से 'कुवलयानन्द' के उतना निकट नहीं है, जितना निकट जसवन्त का 'भाषाभूषण' है; पर यह स्पष्ट है कि 'कुवलयानन्द की आत्मा को 'ललितललाम' में अधिक सफलता से अवतरित किया गया है।
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३२२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
- 'कुवलयानन्द' में उपमा से लेकर हेतु तक जिन एक सौ अलङ्कारों के स्वरूप का विवेचन किया गया है, उनमें से प्रायः सभी को उसी क्रम से 'ललितललाम' में प्रस्तुत किया गया है । एक छोटा-सा भेद यह है कि 'कुवलयानन्द' के उन एक सौ अलङ्कारों में से एक काव्यलिङ्ग को मतिराम ने स्वीकार नहीं किया है। ऐसा होने पर भी 'ललितललाम' में अलङ्कारों की संख्या कम नहीं हुई। कारण यह हुआ कि एक अलङ्कार को छोड़ देने पर 'कुवलयानन्द' के ही एक अलङ्कार 'उत्तर' के दो रूपों का गूढोत्तर और चित्र नाम से पृथक्-पृथक् अस्तित्व स्वीकार कर लिया गया। मतिराम के पूर्व महाराज जसवन्त सिंह ने भी अप्पय्य के उत्तर के दो रूपों की पृथक्-पृथक् गणना कर ली थी। जसवन्त सिंह की यह मान्यता संम्ब्यागत एकरूपता की दृष्टि से मतिराम को भी अनुकूल जान पड़ी होगी। अप्पय्य दीक्षित ने हेतु-निरूपण के उपरान्त अपने अलङ्कारों की संख्या एक सौ बतायी थी। मतिराम भी सम्भवतः हेतु तक एक सौ अलङ्कारों का अस्तित्व मानना चाहते थे। इसीलिए एक को छोड़ देने पर दूसरे के दो रूपों को स्वतन्त्र अलङ्कार मान कर उन्होंने 'कुवलयानन्द' से संख्या-साम्य का निर्वाह कर लिया। ___अलङ्कार-धारणा में कुवलयानन्दकार के अनुयायी होने पर भी मतिराम ने रसवत्, प्रेय, ऊर्जस्वी आदि रस-भावाश्रित अलङ्कारों तथा प्रमाणालङ्कारों का विवेचन नहीं किया है। उन्होंने संसृष्टि और सङ्कर का भी लक्षण-निरूपण नहीं किया है । संसृष्टि, सङ्कर आदि स्वतन्त्र अलङ्कार तो हैं भी नहीं, वे तो एकाधिक अलङ्कारों के सहभाव की विभिन्न स्थितियाँ-मात्र हैं। प्रमाणालङ्कारों का अलङ्कारत्व असन्दिग्ध नहीं। रस, भाव आदि के निबन्धन-रूप रसवदादि को भी केवल अलङ्कार मानना मतिराम को उचित नहीं जान पड़ा होगा। यह भी ध्यातव्य है कि रसवदादि तथा प्रमाणालङ्कारों के स्वरूप-निरूपण के पूर्व ही अप्पय्य दीक्षित ने 'कुवलयानन्द' में विवेचित हेतु तक के अलङ्कारों की गणना कर ली थी और उनकी संख्या एक सौ बतायी थी। इससे लगता है कि स्वयं अप्पय्य दीक्षित पूर्व-विवेचित अलङ्कारों से रसवदादि अलङ्कारों को कुछ भिन्न महत्त्व देना चाहते थे। यदि उनकी दृष्टि में सभी समान महत्त्व के भागी होते तो सबको मिलाकर एक ही साथ गिना गया होता । एक सौ स्वीकार्य अलङ्कारों के स्वरूप का विवेचन कर लेने के उपरान्त अप्पय्य ने सम्भवतः यह सुझाव-मात्र देना चाहा था कि रसवदादि-जैसी उक्तियों में भी अलङ्कारस्व माना जाना चाहिए, जिस सुझाव को मतिराम ने स्वीकार नहीं
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [ ३२३ किया। रसवदादि को दण्डी आदि प्राचीन आचार्यों ने भी अलङ्कार माना था; पर हम देख चुके हैं कि संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र में भी उनके अलङ्कारत्व के सम्बन्ध में आचार्यों में मतैक्य नहीं रहा है।
मतिराम ने 'ललितललाम' में स्वीकृत सभी अलङ्कारों को अप्पय्य दीक्षित के 'कुवलयानन्द' की अलङ्कार-परिभाषाओं के आधार पर ही परिभाषित किया है। 'कुवलयानन्द' में जिन-जिन अलङ्कारों के जो-जो भेद कल्पित हैं, उन-उन अलङ्कारों के प्रायः वे सभी भेद 'ललितललाम' में निरूपित हैं। मतिराम ने अप्पय्य के कुछ अलङ्कारों की संज्ञाओं की जगह उनके पर्यायवाची अभिधान का प्रयोग किया है; पर उनके स्वरूप अप्पय्य के तत्तदलङ्कारों के स्वरूप से अभिन्न हैं। उदाहरणार्थ, मतिराम का परस्पर पूर्वाचार्य के अन्योन्य से तथा हेतुमाला कारणमाला से अभिन्न है। ये नाम प्राचीन अलङ्कारों के नाम के पर्याय-मात्र हैं।
अप्पय्य के 'उत्तर' के दो रूपों के आधार पर गूढोत्तर और चित्र-इन दो अलङ्कारों की स्वतन्त्र सत्ता तो मतिराम के पूर्व ही स्वीकृत हो चुकी थी, मतिराम ने चित्र के भी दो भेदों की परिभाषाएं दी हैं। उनके अनुसार चित्र का एक रूप वह है, जिसमें प्रश्न एवं उत्तर साथ रहें तथा दूसरा रूप वह है, जिसमें अनेक प्रश्नों का उत्तर एक हो।' चित्र के इन दो रूपों की कल्पना भी 'कुवलयानन्द' से ही ली गयी है । यद्यपि अप्पय्य दीक्षित ने उत्तर के दूसरे रूप, अर्थात् चित्रोत्तर के लक्षण में उसके दो स्वरूपों को स्पष्ट रूप से पृथक्-पृथक् परिभाषित नहीं किया है; पर उन्होंने उसके उदाहरण में परिभाषा को घटित करते हुए लिखा है कि यहाँ एक अंश में प्रश्न और उत्तर साथ हैं तथा दूसरे अंश में अनेक प्रश्नों का उत्तर एक है । अतः इन दोनों ही स्थितियों में चित्रउत्तर है ।२ स्पष्ट है कि उत्तर के भेद चित्रोत्तर के दो उदाहरणों को ध्यान में रख कर ही मतिराम ने चित्र के दो रूपों को परिभाषित किया है। १. जहँ बूझत कछु बात कौं उत्तर सोई बात । चित्र कहत मतिराम x x x ॥ बहुती बातनि को जहाँ उत्तर दीजे एक। चित्र बखानत हैं तहाँ कविजन बुद्धि-विवेक ।
-मतिराम, ललितललाम, ३५०, ३५२ २. अत्र 'केदारपोषणरता' इति प्रश्नाभिन्नमुत्तरं 'के खेटाः, किं चलम् ?' इति प्रश्नद्वयस्य 'वयः' इत्येकमुत्तरम् ।
"-अप्पय्य, कुवलयानन्द, वृत्ति पृ० १६७
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३२४]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
....: 'ललितललाम' में अपह्नति के सभी भेद 'कुवलयानन्द' से ही लिये गये हैं। उसके भेदों में एक छलापह्नति-भेद आपाततः नवीन जान पड़ता है; पर वस्तुतः वह 'कुवलयानन्द' के कैतवापत् ति से अभिन्न है । छल कैतव का ही अपर पर्याय है। 5 " उत्प्रेक्षा के मुख्य छह भेद तो मतिराम ने 'कुवलयानन्द' से ही लिये हैं, साथ ही एक गुणोत्प्रेक्षा-भेद की भी परिभाषा उन्होंने दी है। उनके अनुसार जहाँ उत्प्रेक्षा के वाचक शब्द उक्त नहीं होते, वहाँ गुणोत्प्रेक्षा होती है।' यह धारणा भी 'कुवलयानन्द' से ही ली गयी है। अप्पय्य दीक्षित ने इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया है कि वाचक शब्दों के उक्त होने पर उत्प्रेक्षा वाच्य होती है। उनके अनुक्त होने पर गम्य ।' अप्पय्य की गम्योत्प्रेक्षा-धारणा को ही मतिराम ने गुप्तोत्प्रेक्षा की परिभाषा में प्रस्तुत किया है।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि मतिराम के 'ललितललाम' में किसी नवीन अलङ्कार की उद्भावना नहीं हुई है। मतिराम की अलङ्कार-विवेचना का महत्त्व केवल परिभाषाओं की स्पष्टता में है।
भूषण भूषण आचार्य की अपेक्षा कवि के रूप में अधिक विख्यात हैं। 'शिवराजभूषण' में उन्होंने अर्थालङ्कारों को परिभाषित कर शिवराज के कीर्तिगान में स्वरचित छन्दों के उदाहरण दिये हैं। आश्रयदाता के स्तुतिपरक पदों से ही उदाहरण चुनने का आग्रह होने से कहीं-कहीं उदाहरण सदोष भी हो गये हैं। भूषण और मतिराम के अलङ्कार-विवेचन में पर्याप्त साम्य है। 'शिवराजभूषण' में विवेचित अलङ्कार निम्नलिखित हैं
शब्दालङ्कार-अनुप्रास, यमक, पुनरुक्तिवदाभास और चित्र ।
अर्थालङ्कार-उपमा, प्रतीप, उपमेयोपमा, मालोपमा, ललितोपमा, अनन्वय, रूपक, परिणाम, उल्लेख, स्मृति, भ्रम, सन्देह, अपह्न ति, उत्प्रेक्षा, . : १. उत्प्रेक्षा वाचक जहाँ शब्द कह्यो नहिं होय। .::... गुप्तोत्प्रेक्षा कहत हैं तहाँ x x x ॥
-मतिराम, ललितललाम, १०६ PUR. अप्पय्य, कुवलयानन्द, ३२ . ..
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएं [ ३२५ अतिशयोक्ति, सामान्यविशेष, तुल्ययोगिता, दीपक, आवृत्तिदीपक, प्रतिवस्तुपमज्ञान, दृष्टान्त, निदर्शना, व्यतिरेक, सहोक्ति, विनोक्ति, समासोक्ति, परिकर, परिकराङ कुर, श्लेष, अप्रस्तुतप्रशंसा, पर्यायोक्ति, व्याजस्तुति, आक्षेप, विरोध, विभावना, विशेषोक्ति, असम्भव, असङ्गति, विषम, सम, विचित्र, प्रहर्षण, विषादन, अधिक, विशेष, विपरीत, अन्योन्य, व्याघात, गुम्फं, एकावली, मालादीपक, सार, यथासंख्य, पर्याय, परिवृत्त, परिसंख्या, विकल्प, समाधि, प्रत्यनीक, अर्थापत्ति, काव्यलिङ्ग, अर्थान्तरन्यास, प्रौढोक्ति, सम्भावना, मिथ्याध्यवसिति, ललित, उल्लास, अवज्ञा, अनुज्ञा, लेश, तद्गुण, पूर्वरूप, पूर्वावस्था, अतद्गुण, अनुगुण, मीलित, उन्मीलित, सामान्य, विशेषक, गूढोत्तर, चित्रोत्तर, सूक्ष्म, पिहित, व्याजोक्ति, युक्ति, लोकोक्ति, छेकोक्ति, वक्रोक्ति, स्वभावोक्ति, भाविक, भाविकछवि, उदात्त, अत्युक्ति, निरुक्ति, प्रतिषेध, विधि, अनुमान और सङ्कर।
गुम्फ कारणमाला का पर्याय है । कारणमाला के लक्षण में अप्पय्य दीक्षित ने गुम्फ शब्द का प्रयोग किया था। वहीं से गुम्फ संज्ञा गृहीत है। .....
विपरीत का अभिधान तो केशव से लिया गया है; पर उसका स्वरूप नवीन रूप में कल्पित है। केशव ने कार्य के साधन के ही बाधक बन जाने में विपरीत अलङ्कार माना था; पर भूषण की मान्यता है कि जहाँ आधार को आधेय तथा आधेय को आधार बना दिया जाय, वहाँ विपरीत अलङ्कार होगा। भारतीय काव्य-शास्त्र में प्राचीन काल से ही आधाराधेय-भाव-सम्बन्ध पर आधृत कई अलङ्कार प्रचलित रहे हैं। विशेष, अधिक, अल्प आदि ऐसे ही अलङ्कार हैं। प्रतीप में उपमान और उपमेय में एक के दूसरे रूप में प्रकल्पन की धारणा है। उससे आधाराधेय में पारस्परिक परिवर्तन की धारणा मिला कर विपरीत का स्वरूप निर्मित है। विपरीत नाम्ना प्राचीन होने पर भी स्वरूपतया नवीन है। इसके स्वरूप-निर्माण के लिए उपरिलिखित दो अलङ्कारों से तत्त्व लिया गया है।
भूषण ने पूर्वरूप से पृथक् पूर्वावस्था के अस्तित्व की कल्पना की है। दोनों के स्वरूप में इतना साम्य है कि पूर्वरूप से स्वतन्त्र पूर्वावस्था की कल्पना
१. गुम्फः कारणमाला स्यात् .........।-अप्पय्य, कुवलयानन्द, १०४ २. जहिं अधार आधेय करि अरु आधेय आधार।.
ताहि कहत विपरीत है ........"।-भूषण, शिवराज भूषण, २०५
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३२६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
समीचीन नहीं जान पड़ती। दोनों में किसी वस्तु के रूप में किसी कारण से विकार होने पर पुनः पूर्वरूप की प्राप्ति का वर्णन रहता है।
सामान्यविशेष भूषण का नाम्ना नवीन अलङ्कार है। इसकी परिभाषा में कहा गया है कि जहां सामान्य का कथन अभीष्ट हो वहां यदि विशेष का कथन हो तो सामान्यविशेष अलङ्कार होता है।' स्पष्टतः, यह अप्रस्तुतप्रशंसा का एक भेद है। सामान्य की विवक्षा में विशेष का, विशेष की विवक्षा में सामान्य का तथा ऐसे अन्य का कथन होने में अप्रस्तुतप्रशंसा का सद्भाक प्राचीन आलङ्कारिकों ने माना था।२
भाविकछवि को आचार्य पण्डित रामचन्द्र शुक्ल ने भूषण की उद्भावना माना था। डॉ. भगीरथ मिश्र ने भी शुक्ल जी की मान्यता का ही अनुसरण किया है। हम देख चुके हैं कि भाविकच्छवि अलङ्कार का विवेचन जयदेव ने 'चन्द्रालोक' में किया था ।५ भूषण की भाविकछवि उससे अभिन्न है। 'चन्द्रालोक' के सभी संस्करणों में भाविकच्छवि का उल्लेख नहीं पाया जाता। सम्भव है कि शुक्ल जी के सामने 'चन्द्रालोक' की जो प्रति थी, उसमें भाविकच्छवि की परिभाषा नहीं रही हो। गुजराती प्रिंटिंग प्रेस से प्रकाशित 'चन्द्रालोक' में भाविकच्छवि का उल्लेख इतना तो अवश्य प्रमाणित करता है कि संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र में भी भाविकच्छवि का स्वरूप-निरूपण हो चुका था और भूषण ने वहीं से यह धारणा ली है। भाविकच्छवि की उद्भावना सर्वप्रथम या तो जयदेव ने की होगी या उनके समकालीन किसी अज्ञात आचार्य ने । भूषण को भाविकछवि की प्रथम कल्पना का श्रेय नहीं दिया जा सकता।
१. कहिबे जहिं सामान्य है कहै तहाँ जु बिसेष । .. सो सामान्य-बिसेष है.........॥-भूषण, शिवराजभूषण, १०६ २. तत्र सामान्यविशेषभावे सामान्याद् विशेषस्य विशेषाद्वा सामान्यस्या
वगतौ द्वविध्यम् ।-अप्पय्य, कुवलयानन्द, वृत्ति, पृ० ८२ ३. रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ० २३५ ४. भगीरथ मिश्र, हिन्दी काव्यशास्त्र का इतिहास, पृ० ८६ ५. देशात्मविप्रकृष्टस्य दर्शनं भाविकच्छविः।-जयदेव चन्द्रालोक, ५,११४ ६. जहँ दूरस्थित बस्तु को देखत वरनत कोइ। भूषन भूषनराज यो भाविकछवि है सोइ ॥
-भूषण, शिवराजभूषण, ३११
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [ ३२७ 'शिवराजभूषण' के अन्य सभी अलङ्कारों के नाम-रूप प्राचीन ही हैं'। कुछ अलङ्कारों के स्वरूप को भूषण ने किञ्चित् अस्पष्ट भी कर दिया है।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि अलङ्कार के क्षेत्र में भूषण ने कोई महत्त्वपूर्ण उद्भावना नहीं की है। आधाराधेय के पारस्परिक विपर्यय में जो विपरीत की सत्ता कल्पित है, उसका बीज प्रतीप तथा आधाराधेय-भाव पर आधृत अलङ्कारों की धारणा में है।
देव __ आचार्य देव ने 'शब्दरसायन' या 'काव्यरसायन' तथा 'भावविलास'; इन दो कृतियों में काव्यालङ्कार के स्वरूप का निरूपण किया है। उक्त ग्रन्थों में 'शब्दरसायन' ही देव की प्रौढ रचना है। अतः, देव की अलङ्कार-धारणा के मूल्याङ्कन के लिए वही परीक्ष्य है । 'भावविलास' में केवल उनचालीस अलङ्कारों का विवेचन किया गया है; पर 'शब्दरसायन' में मुख्य और गौण अलङ्कारों को मिला कर सत्तर अलङ्कार निरूपित हैं। इस ग्रन्थ में चालीस मुख्य तथा तीस गौण अलङ्कार माने गये हैं। इन अर्थालङ्कारों के अतिरिक्त 'शब्दरसायन' में शब्दालङ्कारों का भी विवेचन किया गया है। __'भावविलास' में देव ने जिन उनचालीस अलङ्कारों का विवेचन किया था, उनमें से बत्तीस अलङ्कार 'शब्दरसायन' में भी गृहीत हैं। उन बत्तीस को इस पुस्तक में मुख्य अलङ्कार माना गया है; किन्तु सात को क्यों छोड़ दिया गया, इसका कोई कारण नहीं जान पड़ता।
_ 'भावविलास' में विवेचित अलङ्कार हैं:-स्वभावोक्ति, उपमा, उपमेयोपमा, संशय, अनन्वय, रूपक, अतिशयोक्ति, समासोक्ति, वक्रोक्ति, पर्यायोक्ति, सहोक्ति, विशेषोक्ति, व्यतिरेक, विभावना, उत्प्रेक्षा, आक्षेप, उदात्त, दीपक, अपह्नति, श्लेष, अर्थान्तरन्यास, अप्रस्तुतप्रशंसा, व्याजस्तुति, आवृत्तिदीपक, निदर्शना, विरोध, परिवृत्ति, हेतु, रसवत्, ऊर्जस्वी या ऊर्जस्वल, सूक्ष्म, प्रेय, क्रम, समाहित, तुल्ययोगिता, लेश, भाविक, सङ्कीर्ण और आशिष । १. मुख्य कहो चालीस विधि, गौन सुतीस प्रकार।.. .
-देव, शब्दरसायन, ९ पृ० १४८
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३२८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण ___'भावविलास' के उक्त उनचालीस अलङ्कारों को ही आचार्य देव ने मुख्य अलङ्कार कहा है और समग्र अलङ्कार-प्रपञ्च को उन्हीं के भेद स्वीकार किया है।' 'भावविलास' के अलङ्कार-विवेचन में आचार्य दण्डी के 'काव्यादर्श' को
आदर्श माना गया है। संशय को देव ने यद्यपि स्वतन्त्र अलङ्कार स्वीकार किया; पर इसकी परिभाषा में उपमान और उपमेय के बीच सन्देह पर बल देकर इसे दण्डी के संशयोपमा से अभिन्न बना दिया है। भारतीय अलङ्कारशास्त्र में इस अलङ्कार ने सन्देह, ससन्देह, संशयोपमा, संशय आदि अभिधान ग्रहण किये हैं। 'शब्दरसायन' में विवेचित अलङ्कार निम्नलिखित हैं :
शब्दालङ्कार-अनुप्रास और यमक ( चित्र अन्तर्जापिका, प्रहेलिका आदि इसी में)।
[मुख्य] अर्थालङ्कार-स्वभावोक्ति, उपमा, रूपक, दीपक, आवृत्ति, परिवृत्ति, आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, विशेषोक्ति, समासोक्ति, विभावना, पर्यायोक्ति, वक्रोक्ति, अतिशयोक्ति, उत्प्रेक्षा, उल्लेख, हेतु, सहोक्ति, सहोक्तिमाला, सूक्ष्म, लेश, क्रम, प्रेय, रसवत्, उदात्त, ऊर्जस्वी, अपह्न ति, समाधि, निदर्शना, दृष्टान्त, निन्दास्तुति, स्तुतिनिन्दा, संशय, विरोध, विरोधाभास, तुल्ययोगिता, अप्रस्तुतस्तुति, असम्भव, असङ्गति, परिकर तथा तद्गुण ।
[गौण] अर्थालङ्कार-अतद्गुण, अनुगुण, अनुज्ञा, अवज्ञा, गुणवत, प्रत्यनीक, लेख, सार, मिलित, कारणमाला, एकावली, मुद्रा, मालादीपक, समुच्चय, सम्भावना, प्रहर्षण, गूढोक्ति, व्याजोक्ति, विवृतोक्ति, युक्ति, स्वभावोक्ति, विकल्प, सङ्कीर्ण, भाविक, आशिष, स्मृति, भ्रान्ति, सन्देह, निश्चय, सम, विषम, अल्प, अधिक, अन्योन्य, सामान्य, विशेष, उन्मीलित, पिहित, अर्थापत्ति, विधि, निषेध, अन्योक्ति, अत्युक्ति एवं प्रत्युक्ति।
उपरिलिखित अर्थालवारों से गौण अर्थालङ्कारों की संख्या के विषय में देव के कथन की सङ्गति नहीं बैठती। इस अव्यवस्था को देखते हुए कुछ विद्वानों ने देव के दोहे में पाठ-दोष मान कर उसके संशोधन का सुझाव दिया १. अलङ्कार मुख्य उनतालीस हैं देव कहें ये ही पुराननि मुनि मतनि
में पाइये। आधुनिक कवित के संगत अनेक और इनहीं के भेद और विविध बताइये ।
-देव, भावविलास, ५, १
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [ ३२९ है।' किन्तु, उससे भी समस्या का समाधान नहीं हो पाता। देव का गौण अर्थालङ्कार-विवेचन अनवधान-पूर्ण जान पड़ता है। ... स्वभावोक्ति को मुख्य अलङ्कारों में प्रथम स्थान दिया गया है और उसे गौण अलङ्कार-वर्ग में भी परिगणित कर लिया गया है। संशय को मुख्य तथा सन्देह को गौण अलङ्कार मानने में भी कोई युक्ति नहीं। अस्तु, प्रस्तुत सन्दर्भ में हमारा उद्देश्य देव के द्वारा कल्पित नवीन अलङ्कारों के स्रोत का परीक्षण है।
देव ने मुख्य अर्थालङ्कार-वर्ग में अप्रस्तुतस्तुति नाम के अलङ्कार का उल्लेख किया है। यह अप्रस्तुतप्रशंसा का अपर पर्याय है। संस्कृत-अलङ्कारशास्त्र में भी प्रस्तुत अलङ्कार के दो रूप मिलते हैं। एक में प्रशंसा का अर्थ केवल वर्णन माना गया है तथा दूसरे में प्रशंसा का अर्थ 'गुणगान' लिया गया है। इस प्रकार कुछ आचार्यों के मत से इसमें अप्रस्तुत के वर्णन से प्रस्तुत का बोध कराया जाता है और अन्य आचार्यों के मतानुसार इसमें अप्रस्तुत के गुणोत्कर्ष का वर्णन किया जाता है। देव ने दूसरे रूप को ग्रहण कर प्राचीनों की अप्रस्तुतप्रशंसा का नया नामकरण अप्रस्तुतस्तुति कर दिया। ___ निन्दास्तुति और स्तुतिनिन्दा का अलग-अलग विवेचन किया गया है। ये व्याजस्तुति के दो रूपों ( निन्दामुखेन स्तुति तथा स्तुतिमुखेन निन्दा ) के दो नाम हैं। उनकी पृथक्-पृथक् सत्ता की कल्पना आवश्यक नहीं।
देव के मुख्य अर्थालङ्कारों का स्वरूप-निरूपण अधिकतर दण्डी के आधार पर तथा गौण अर्थालङ्कारों का निरूपण 'चन्द्रालोक' तथा उसपर आधृत 'कुवलयानन्द' के आधार पर हुआ है।
देव के 'शब्दरसायन' में नवकल्पित अलङ्कार हैं-गुणवत्, सङ्कीर्ण प्रत्युक्ति और सहोक्तिमाला। डॉ० ओमप्रकाश शर्मा ने लेख को भी देव का नवीन अलङ्कार मान लिया है। 3 वस्तुतः लेख का नाम और रूप देव ने पूर्ववर्ती आचार्यों से ही लिया है। हम यह देख चुके हैं कि महाराज
१. डॉ० ओमप्रकाश शर्मा ने अपने शोध-प्रबन्ध में देव के गौण अलङ्कारों को
संख्या उनचालीस मान कर यह सुझाव दिया है कि देव के दोहे में 'सुतीस' की जगह 'नौतीस' पाठ माना जाना चाहिए। किन्तु, शब्द
रसायन में वस्तुतः अलङ्कारों की संख्या उनचालीस से भी अधिक है। २. देव, शब्दरसायन, पृ० १७३ ३. ओमप्रकाश शर्मा, रीतिकालीन अलङ्कार-साहित्य, पृ० ६७
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३३० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
जसवन्त सिंह ने अप्पय्य के लेश अलङ्कार का नाम लेख कर दिया था। देव ने भी लेख नाम वहीं से लिया है। देव का लेख-लक्षण भी जसवन्त के लेख-लक्षण के समान ही है।' अतः, लेख को देव की नूतन उद्भावना नहीं माना जा सकता।
गुणवत् अलङ्कार की परिभाषा में कहा गया है कि जहाँ गुणवान की सङ्गति से गुणहीन भी गुणवान बन जाय, वहाँ गुणवत् अलङ्कार होता है । इसके विपरीत जहाँ गुणहीन के संसर्ग से गुणवान भी गुणहीन बन जाय, वहाँ प्रत्यनीक अलङ्कार देव ने माना है ।२ गुणवत् नाम तो मतिराम के गुणवन्त के आधार पर कल्पित है; पर देव के गुणवत् का स्वरूप मतिराम के गुणवन्त से थोड़ा भिन्न है। देव के गुणवत् और प्रत्यनीक का स्वरूप प्राचीन आचार्यों के तद्गुण के स्वरूप से इतना मिलता-जुलता है कि तद्गुण से स्वतन्त्र उनके अस्तित्व की कल्पना अनावश्यक ही नहीं, अनुचित भी जान पड़ती है। तद्गुण में कोई वस्तु अपने गुण का त्याग कर उस वस्तु का गुण ग्रहण कर लेती है, जिसके सम्पर्क में वह आती है। गुगवत् में भी तो यही होता है। गुणहीन व्यक्ति अपने हीन गुण का त्याग कर ससर्ग में आने वाले गुणी व्यक्ति का उत्कृष्ट गुण ग्रहण कर लेता है। देव ने तद्गुग का अस्तित्व स्वीकार किया है। अतः, उनके द्वारा गुणवत् की कल्पना नवीनता-प्रदर्शन मात्र के लिए की मयी जान पड़ती है। प्रत्यनीक में भी दूसरे के अवगुण से अन्य के प्रभावित होने का ही भाव है।
सङ्कीर्ण का स्वरूप बहुत अस्पष्ट रह गया है। देव ने इसकी परिभाषा में कहा है कि इसमें बहुलक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास वणित रहता है। यदि इस कथन का यह अर्थ माना जाय कि इस अलङ्कार में अनेक लक्ष्यों की प्राप्ति का यत्न वणित होता है जैसा कि सङ्कीर्ण के उदाहरण की परीक्षा से भी देव
तथा
१. तुलनीय-गुन में दोष रु दोष में, गुन कल्पन सो लेख ।
-जसवन्त, भाषाभूषण, अलं० प्र० १६७ गुन दोषन के दोष गुन, लेख सु कहौ बखानि ।
-देव, शब्दरसायन, पृ० १७८ २. गुनवत संग गुनीन के, निगुनी गुननि प्रवीन, प्रत्यनीक उलटो गुनहि, निगुन कर गुनहीन ।
-देव, शब्दरसायन, पृ० १७८ ३. ....."संकीरण बहुलक्ष । वही, पृ० १८०
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [३३१ का अभिमत जान पड़ता है तो यह अलङ्कार शोभाकर मित्र के तन्त्र अलङ्कार से, जिसमें नाना फल की प्राप्ति के लिए प्रयत्न पर बल दिया गया है, नाम्ना ही भिन्न सिद्ध होता है। सङ्कीर्ण नाम का प्रयोग संस्कृत के आचार्यों ने अलङ्कारों के सङ्कर या उनकी संसृष्टि के लिए किया था; पर देव ने उस नाम को लेकर तन्त्र से उसे मिला दिया। शोभाकर की अलङ्कारधारणा के साथ देव की अलङ्कार-विषयक मान्यता के इस साम्य को देखते हुए यह अनुमान ठीक नहीं जंचता कि देव ने शोभाकर का 'अलङ्काररत्नाकर' नहीं देखा होगा।
प्रत्युक्ति में उक्ति-प्रत्युक्ति की धारणा व्यक्त की गयी है। यह धारणा प्राचीन आचार्यों के उत्तर या उसीके भेद प्रश्नोत्तर से भिन्न नहीं। यह पुरातन अलङ्कार का नूतन अभिधान-मात्र है।
देव ने कुछ अलङ्कारों के नवीन भेदोपभेदों की भी कल्पना की है। यमक का सिंहावलोकन-भेद (अपरिभाषित), उपमा के स्वभाव, योग, सङ्कीर्णभाव, उचित, प्रतिकार, उल्लेख, आक्षेप, गर्व आदि भेद स्वीकार किये गये हैं।।
सिंहावलोकन को आचार्य भिखारी दास ने परिभाषित किया है। अतः, उसकी कल्पना के स्रोत पर हम भिखारी की अलङ्कार-धारणा के सन्दर्भ में ही विचार करेंगे। स्वभावोपमा, आक्षेपोपमा, उल्लेखोपमा आदि की कल्पना तत्तदलङ्कारों के साथ उपमा की धारणा को मिला कर की गयी है। उचितोपमा आदि उपमा-भेद की कल्पना का बीज आचार्य भरत की सदृशी उपमा की धारणा में देखा जा सकता है। सङ्कीर्णभावोपमा की धारणा विचित्र-सी जान पड़ती है। इसके उदाहरण में 'खीझति-सी, रीझति-सी, रूसति, रिसानी-सी' आदि को प्रस्तुत किया गया है । एक तो रीझना, खीझना आदि क्रिया में सादृश्यवाचक 'सी' आदि लगाने से उसकी सम्भावना ही प्रकट होती है, उपमा नहीं; दूसरे, भावों के उपमान बनाये जाने में स्वतन्त्र उपमा-भेद की कल्पना आवश्यक भी नहीं। उपमा अलङ्कार का सञ्चारी आदि मानसिक भावों के साथ देव ने जो सम्बन्ध जोड़ा है, उसपर आक्षेप करते हुए डॉ० नगेन्द्र ने ठीक ही लिखा है कि-"प्रीति, मद, ईर्ष्या आदि संचारियों तथा वैर आदि स्वभाव-वृत्तियों से उपमा का ग्रन्थिबन्धन निरर्थक है।
४. द्रष्टव्य-शोभाकर, अलं० रत्ना० ८६ तथा उसकी वृत्ति पृ० १४६
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३३२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण और उसको एक विफल वैचित्र्य-प्रदर्शन के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है ?'
स्पष्ट है कि उपमा आदि के नवीन भेदों की कल्पना में नव-चिन्तन की कोई मूल्यवान उपलब्धि नहीं, चमत्कार-प्रदर्शन का लोभमात्र है।
देव के द्वारा उद्भावित अलङ्कारों में से गुणवत् का प्राचीन आचार्यों के तद्गुण में अन्तर्भाव सम्भव है। उनके सङ्कीर्ण की अपूर्ण परिभाषा से उदाहरण के सहारे उस अलङ्कार के सम्बन्ध में उनकी जो धारणा स्थिर होती है, उससे वह अलङ्कार शोभाकर के तन्त्र अलङ्कार से अभिन्न सिद्ध होता है। प्रत्युक्ति नाम-मात्र से नवीन है । उसका स्वरूप प्राचीन आचार्यों के प्रश्नोत्तर से भिन्न नहीं। उनके शेष अलङ्कारों के नाम-रूप पुरातन ही हैं । स्पष्टतः देव के 'शब्दरसायन' या 'भावविलास' में किसी भी सर्वथा नवीन अलङ्कार-स्वरूप की मौलिक उद्भावना नहीं की गयी है।
दूलह दूलह और रघुनाथ वन्दीजन समसामयिक थे। संवत् १८०० के आसपास दूलह ने 'कविकुलकण्ठाभरण' तथा रघुनाथ ने 'रसिकमोहन' की रचना की थी। दोनों रचनाओं में अलङ्कारों के लक्षण-निरूपण में पर्याप्त समता है। उदाहरण तो दोनों में अलग-अलग दिये गये हैं; पर लक्षण बहुलांशतः मिलतेजुलते हैं। दोनों में से किसने दूसरे को प्रभावित किया होगा, यह कहना तो कठिन है; पर इस समता का एक कारण स्पष्ट है। दोनों ही आचार्यों के अलङ्कार-विवेचन का आदर्श समान रूप से अप्पय्य का 'कुवलयानन्द' रहा है ।
कुवलयानन्दकार ने एक सौ अलङ्कारों का वर्णन कर लेने के उपरान्त रसवदादि तथा प्रमाणालङ्कारों का वर्णन किया था। 'कुवलयानन्द' में, यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उपमा से हेतु तक के एक सौ अलङ्कारों से रसवत् आदि का कुछ भिन्न महत्त्व माना गया था। दूलह ने भी उसी पद्धति का अनुगमन कर हेतु-विवेचन के उपरान्त उस अध्याय को समाप्त-सा करते हुए लिखा है कि एक सौ अर्यालङ्कार जो प्राचीन आचार्यों के द्वारा विवेचित थे,
१. डॉ० नगेन्द्र, देव और उनकी कविता, पृ० १५६ ।
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [ ३३३ उनका वर्णन किया गया ।' दूलह ने एक सौ के अतिरिक्त सत्तर-बहत्तर आधुनिक अलङ्कारों की ओर सङ्कत किया है ।२ पर, उनका अभिप्राय किनकिन अलङ्कारों से था, यह स्पष्ट नहीं। उन्होंने अप्पय्य की तरह रसवदादि भाव-सम्बन्धी तथा प्रमाण-सम्बन्धी अलङ्कारों का भी निरूपण किया है।
'कुवलयानन्द' के स्मृति एवं सन्देह को क्रमशः स्मृतिमान तथा सन्देहवान कहा गया है। नाम में यह परिवर्तन भ्रान्तिमान के सादृश्य के आधार पर हुआ है। दोनों के स्वरूप की कल्पना में कोई नवीनता नहीं।
__ व्याजस्तुति का नाम व्याजोक्ति कर दिया गया है। प्राचीन आचार्यों के व्याजोक्ति अलङ्कार की भी सत्ता स्वीकार करने के कारण व्याजोक्ति का दो बार उल्लेख करना पड़ा है। रघुनाथ के 'रसिकमोहन' में भी व्याजस्तुति को व्याज-उक्ति कहने से ऐसी ही अव्यवस्था उत्पन्न हुई है। दूलह ने व्याज-उक्ति नाम को व्याजस्तुति से अधिक व्यापक समझा होगा। उन्हें लगा होगा कि व्याजस्तुति नाम केवल व्याज से की जाने वाली स्तुति का ही बोधक हो सकता है, व्याज से की जाने वाली निन्दा का नहीं; इसीलिए व्याजोक्ति कह कर भी दूलह ने लक्षण में व्याजस्तुति तथा व्याज-निन्दा शब्दों का भी प्रयोग किया है।४ वस्तुतः व्याजस्तुति में स्तुति का अर्थ 'वर्णन' था। उसका नामपरिवर्तन उचित नहीं।
संसृष्टि और सङ्कर का विवेचन भी दूलह ने संस्कृत आचार्यों की मान्यता के अनुरूप ही किया है। सङ्कर के चार भेद-अङ्गाङ्गिभाव, समसुप्रधान,. सन्देह तथा वाचकानुप्रवेश-स्वीकृत हैं और उसे नृसिंहाकार कहा गया है।
शब्दालङ्कार-संसृष्टि के प्रसङ्ग में दूलह ने छेकानुप्रास और यमक का वर्णन किया है।५
स्पष्ट है कि प्राचीन अलङ्कारों के कुछ नवीन नाम की कल्पना को छोड़ 'कविकुलकण्ठाभरण' में किसी नवीन अलङ्कार की कल्पना नहीं की गयी है।
१. अरथालङ कृत शत प्राचीन कहे ते कहे।
-दूलह, कविकुलकण्ठाभरण, ७१ २. आधुनिक सत्तरि-बहत्तरि प्रमाने है। वही, ७१ ३. वही, ७२-७६ ४. द्रष्टव्य-वही, ३४ . ५. आवृति अक्षर अमित की है छेकानुप्रास; ... बार-बार पद अर्थ जहँ भिन्न यमक परकास । वही, ७९
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३३४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
भिखारी दास आचार्य भिखारी दास के 'काव्य-निर्णय' में काव्यालङ्कारों के स्वरूप की विस्तृत मीमांसा की गयी है। इस ग्रन्थ में दो स्थलों पर अलङ्कारों का -स्वरूप-निरूपण किया गया है। तीसरे उल्लास में अलङ्कारों का संक्षिप्त विवेचन है, और आठवें से अठारहवें उल्लास तक विशद विवेचन। तीसरे उल्लास में निरूपित अलङ्कारों का भी पुनः विवेचन किया गया है और उनके अतिरिक्त कुछ अन्य अलङ्कार भी आगे स्वीकृत हुए हैं। इस प्रकार तीसरे उल्लास तथा आठवें से अठारहवें उल्लासों में विवेचित अलङ्कारों में संख्यागत भेद स्पष्ट है । दास ने उक्त स्थलों में अलङ्कार-विवेचन को शैली भी अलग-अलग अपनायी है। तृतीय उल्लास में एक ही दोहे में लक्षण-उदाहरण वाली 'कुवलयानन्द', 'भाषाभूषण' आदि की शैली भी अपनायी गयी है और अलग-अलग पदों में लक्षणउदाहरण भी दिये गये हैं। पर आठवें से अठारहवें उल्लासों में पृथक्-पृथक छन्दों में लक्षण और उदाहरण दिये गये हैं। तृतीय उल्लास की अपेक्षा अगले उल्लासों में अलङ्कार-विशेष के भेदोपभेद भी अधिक दिये गये हैं। दो स्थलों पर अलङ्कार-विवेचन का कोई सङ्गत कारण नहीं दीखता। अस्तु, तृतीय उल्लास में निरूपित अलङ्कार निम्नलिखित हैं :
उपमा, अनन्वय, प्रतीप, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, निदर्शना, तुल्ययोगिता, उत्प्रेक्षा, अपह्न,ति, स्मरण, भ्रम, सन्देह, व्यतिरेक, रूपक, अतिशयोक्ति, उदात्त, अधिक, अन्योक्ति, व्याजस्तुति, पर्यायोक्त, आक्षेप, विरुद्ध, विभावना, 'विशेषोक्ति, उल्लास, तद्गुण, मीलित, उन्मीलित, सम, भाविक, समाधि, सहोक्ति, विनोक्ति, परिवृत्ति, सूक्ष्म, परिकर, स्वभावोक्ति, काव्यलिङ्ग, परिसंख्या, प्रश्नोत्तर, यथासंख्य, एकावली, पर्याय, संसृष्टि तथा सभेद सङ्कर ।
आठवें से अठारहवें उल्लासों तक विवेचित अलङ्कार निम्नलिखित हैं:
उपमा, अनन्वय, उपमेयोपमा, प्रतीप, श्रौती उपमा, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास विकस्वर, निदर्शना. तुल्ययोगिता, प्रतिवस्तूपमा; उत्प्रेक्षा, अपह्न ति, स्मरण, भ्रम, सन्देह; व्यतिरेक, रूपक ( परिणाम रूपक-भेद के रूप में परिगणित) उल्लेख; अतिशयोक्ति, उदात्त, अधिक, अल्प, विशेष; ( अन्योक्ति प्रधान→) अप्रस्तुतप्रशंसा, प्रस्तुताङ कुर, समासोक्ति, व्याजस्तुति, आक्षेप, पर्यायोक्ति; (विरोधमूलक→) विरुद्ध या विरोधाभास, विभावना, व्याघात, विशेषोक्ति, असङ्गति, विषम; उल्लास, अवज्ञा, अनुज्ञा, लेश, विचित्र, तद्गुण,
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [ ३३५ स्वगुण, अतद्गुण, पूर्वरूप, अनुगुण, मीलित, सामान्य, उन्मीलित, विशेष, सम, समाधि, परिवृत्ति, भाविक, हर्ष या प्रहर्षण, विषाद, असम्भव, सम्भावना, समुच्चय, अन्योन्य, विकल्प, सहोक्ति, विनोक्ति, प्रतिषेध, विधि, काव्यार्थापत्ति; सूक्ष्म, पिहित, युक्ति, गूढोतर, गूढोक्ति, मिथ्याध्यवसिति, ललित, विवृतोक्ति, व्याजोक्ति, परिकर, परिकराङकुर; स्वभावोक्ति, हेतु, प्रमाण, काव्यलिङ्ग, निरुक्ति, लोकोक्ति, छेकोक्ति, प्रत्यनीक, परिसंख्या, प्रश्नोत्तर; दीपक, ( दीपकभेद स्वतन्त्र विवेचित ) यथासंख्य, एकावली, कारणमाला, उत्तरोत्तर, रसनोपमा, रत्नावली और पर्याय ।
उन्नीसवें उल्लास से लेकर इक्कीसवें उल्लास तक शब्दालङ्कारों का विवेचन किया गया है। उन्नीसवें उल्लास में काव्य-गुणों का स्वरूप-निरूपण कर दास जी ने सबसे पहले गुणों के भूषण के रूप में अनुप्रास का विवेचन किया है। अनुप्रास अलङ्कार शब्दार्थ को अलङ कृत करते हुए शब्दार्थाश्रित गुणों के आभूषण तो हो सकते हैं; पर उन्हें रसाश्रित गुणों के अलङ्करण कैसे सिद्ध किया जा सकता है, इसमें कोई युक्ति नहीं दी गयी है। दास ने इस उल्लास में छेकानुप्रास, वृत्त्यनुप्रास, लाटानुप्रास के साथ वीप्सा, यमक तथा सिंहावलोकन अलङ्कारों का स्वरूप-निरूपण किया है।
बीसवें उल्लास में श्लेष, विरोधाभास, मुद्रा, वक्रोक्ति तथा पुनरुक्तबदाभास का उल्लेख कर उनके अर्थालङ्कारत्व का निषेध किया गया है।' इक्कीसवें उल्लास में स्वतन्त्र रूप से चित्रालङ्कार के विविध रूपों का विवरण दिया गया है।
'काव्यनिर्णय' में वीप्सा शब्दालङ्कार नवीन है। वीप्सा की धारणा नवीन नहीं, केवल शब्द के अलङ्कार के रूप में उसकी स्वीकृति नवीन है। किसी अर्थ पर बल देने के लिए शब्दों के दो बार प्रयोग का विधान संस्कृतव्याकरण में हुआ था ।२ _ सिंहावलोकन दास को नवीन कल्पना तो नहीं; पर सर्वप्रथम उसे परिभाषित करने का श्रेय उन्हीं को है। आचार्य देव ने यमक के सिंहा१. श्लेष, विरोधाभास है, सब्द-अलङ कृत दास ।
मुद्रा औ बक्रोक्ति पुनि, पुनरुक्तीबद भास ।। इन पाँचन-करि अर्थ कों भूषन कहै न कोई।
-भिखारी दास, काव्य-निर्णय, २०, १-२ पृ० ५५६ २. नत्यवीप्सयोः।-पाणिनि, अष्टाध्यायी, ८, १, ४
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३३६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
वलोकन-भेद का उल्लेख किया था। दास ने सिंहावलोकन की परिभाषा में कहा है कि इसमें पद का आदि और अन्त चरण कुण्डलित हो जाता है।' प्रथम चरण के अन्त का शब्द दूसरे चरण के आरम्भ में, दूसरे चरण के अन्त का शब्द तीसरे चरण के आरम्भ में तथा तीसरे चरण के अन्त का शब्द चौथे चरण के आरम्भ में और उसके अन्त का शब्द प्रथम चरण के आरम्भ में कुण्डलायित रूप से रहे, तो दास के अनुसार सिंहावलोकन अलङ्कार होगा। यह संस्कृत-आचार्यों के यमक-भेदों में से ही एक है। मम्मट के आद्यन्तिक यमक में यमक के ऐसे ही स्वरूप की कल्पना की गयी थी। इसे यमक से स्वतन्त्र अलङ्कार मानना उचित नहीं। सिंहावलोकन-न्याय संस्कृत में प्रचलित था, जिसमें आगे-पीछे के सुसम्बद्ध अवलोकन की धारणा व्यक्त की गयी थी। इसका नाम-रूप हिन्दी-आचार्यों ने उसी न्याय से लिया है।
दास ने अर्थालङ्कारों में श्रौती उपमा की गणना उपमा से स्वतन्त्र की है। उन्होंने अनन्वय, प्रतीप, उपमेयोपमा, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, विकस्वर, निदर्शना, तुल्ययोगिता तथा प्रतिवस्तूपमा की तरह श्रौती उपमा को भी उपमा का ही विकार स्वीकार किया है। किन्तु दृष्टान्त, विकस्वर आदि की तरह श्रौती उपमा को उपमा का विकार नहीं मान कर उपमा का भेद मानना ही उचित होता। उपरिलिखित अलङ्कारों को उपमा का विकार मानना नवीन सूझ नहीं। संस्कृत के आचार्यों ने भी सादृश्यमूलक अलङ्कारों को उपमाप्रपञ्च कहा था।
दीपक अलङ्कार का एकत्र सामान्य स्वरूप-निरूपण कर अपरत्र दीपकभेदों का वर्णन किया गया है। देहरी-दीपक का नया नाम सुन कर कुछ आलोचक चमत्कृत हो उठे हैं; पर इसकी धारणा बीज रूप में प्राचीन आचार्यों के सामान्य दीपक-लक्षण में ही निहित थी। कारक-दीपक, क्रिया-दीपक आदि में भी मध्यस्थित एक पद देहरी-दीपक-न्याय से दो पदों को दीपित करता है। एक पद से अनेक के दीपित होने में ही दीपक की सार्थकता है। अतः, देहरी-दीपक की कल्पना में भेदीकरण की प्रवृत्ति-मात्र का परिचय मिलता है,
१. चरन अंत और आदि के, जमक कुण्डलित होई। सिंघविलोकनि है वहै, ... ..॥
-भिखारी दास, काव्य-निर्णय, १६, पृ० ५५५ २. द्रष्टव्य-मम्मट, काव्यप्रकाश, पृ० २०६ ३. प्रतिवस्तुप्रभृतिरुपमाप्रपञ्चः । वामन, काव्यालङ्कार, ४, ३, १
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हिन्दी रीति- साहित्य में अलङ्कार - विषयक उद्भावनाएँ [ ३३७
है, तत्त्व-चिन्तन की मौलिकता का नहीं । देहरी - दीपक नाम भी नूतन नहीं है । देहरी - दीपक - न्याय की धारणा संस्कृत में प्रचलित थी ।
दास ने स्वगुण नामक एक नवीन अलङ्कार का उल्लेख किया है। उन्होंने उसका लक्षण नहीं देकर केवल उदाहरण दिया है । डॉ० ओम्प्रकाश ने स्वगुण की एक परिभाषा उद्धृत की है— ' पाये पूरब रूप फिरि स्वगुन सुमति कह देत । पर इस उद्धरण का स्रोत प्रमाणित नहीं । यदि स्वगुण की उक्त परिभाषा को दास रचित मान लिया जाय तो स्वगुण अलङ्कार का स्वरूप 'चन्द्रालोक' के पूर्वरूप से, जिसमें पुनः स्वगुण की प्राप्ति पर बल दिया गया है, अभिन्न हो जायगा । पूर्वरूप के दो रूपों की कल्पना भिखारी दास के पूर्ववर्ती आचार्यों ने की थी । एक में वस्तु पर सन्निधि से दूसरे का गुण ग्रहण कर पुनः अपने पूर्व गुणों को धारण कर लेती है और दूसरे में वस्तु के विकृत होने पर भी पहली ही-सी अवस्था की अनुवृत्ति का वर्णन किया जाता है । 3 भिखारी दास ने दूसरे रूप को पूर्वरूप तथा प्रथम रूप को स्वगुण कह दिया है । चन्द्रालोककार के पूर्वरूप लक्षण से ही स्वगुणं शब्द भी इस अलङ्कार के नामकरण के लिए लिया गया है ।
भिखारी दास ने रसनोपमा नामक उपमा-भेद को स्वतन्त्र अलङ्कार मान कर उसे उपमा और एकावली का सङ्कर कहा है । विश्नाथ ने 'साहित्यदर्पण' में रसनोपमा के ऐसे ही स्वरूप का निरूपण किया था । " अनेक अलङ्कारों के सङ्कर या संसृष्टि-रूप में मिश्रण से अलङ्कार - विशेष के भेदोपभेदों की कल्पना की जाने लगे तो अलङ्कारों के अनन्त भेद हो जायँगे । दास ने इसी पद्धति पर उपमातिशयोक्ति, उत्प्र ेक्षातिशयोक्ति आदि अलङ्कार-भेदों की कल्पना कर ली है । अपह्न ुति, संसृष्टि, मालोपमा आदि के भी अनेक भेदों की परीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि भिखारी दास ने प्राचीन आचार्यों
१. ओम्प्रकाश शर्मा, रीतिकालीन अलङ्कार साहित्य, पृ० ११३ २. तुलनीय - पुनः स्वगुणसंप्राप्तिर्विज्ञया पूर्वरूपता ।
— जयदेव, चन्द्रालोक, ५, १०३
३. वही, ५, १०४
४. उपमाँ और एकावली कौ संकर जहाँ होइ । ताही को 'रसनोपमाँ', कहैं..
11
- भिखारी दास, काव्य - निर्णय, १८, पृ० ५०८
三
५. विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, ३५ पृ० ६१४
२२
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३३८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण की अलङ्कार-धारणा को ही मिला-जुला कर तत्तदलङ्कारों के नवीन भेदोपभेदों की कल्पना कर ली है। ___ 'काव्य-निर्णय' के अलङ्कार-विवेचन के परीक्षण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि दास ने किसी सर्वथा नवीन उक्ति-भङ्गी की कल्पना अलङ्कार-क्षेत्र में नहीं की है।
शब्दालङ्कार में वीप्सा नामक नवीन अलङ्कार स्वीकृत है; पर वीप्सा की धारणा नवीन नहीं।
सिंहावलोकन मम्मट आदि के पादाद्यन्तिक यमक से अभिन्न है।
स्वगुण-नामक अर्थालङ्कार जयदेव के पूर्वरूप से भिन्न नहीं । यह नाम भी 'चन्द्रालोक' के पूर्वरूप-लक्षण से ही लिया गया है। पूर्वरूप के पूर्व-स्वीकृत दो रूपों में से एक को दास ने पूर्वरूप तथा दूसरे को स्वगुण मान लिया है। उपमा, अतिशयोक्ति, अपह्न ति आदि के नवीन भेदों की कल्पना उन अलङ्कारों के साथ अन्य अलङ्कारों की धारणा को मिलाकर कर ली गयी है।
हिन्दी के अन्य आलङ्कारिक हिन्दी के जिन रीति-आचार्यों ने अलङ्कार-क्षेत्र में कुछ नवीन कल्पना की है या कम-से-कम कुछ नवीनता-प्रदर्शन का आयास किया है, उनकी कल्पना के औचित्य और प्रेरणा-स्रोत पर विचार किया जा चुका है। प्रस्तुत सन्दर्भ में हम उन आचार्यों की अलङ्कार-मीमांसा पर विचार करेंगे, जिन्होंने संस्कृत तथा हिन्दी अलङ्कार-साहित्य में निरूपित स्वीकार्य अलङ्कारों का लक्षणनिरूपण किया है। इस प्रसङ्ग में उनकी अलङ्कार-धारणा का संक्षिप्त परिचय मात्र पर्याप्त होगा, चूकि प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक का उद्देश्य प्रस्तुत अध्याय में नवोद्भावित अलङ्कारों के स्रोत का अनुसन्धान है। हिन्दी के अनेक सशक्त आचार्यों ने तथ्यहीन नतनता से पाठकों को चमस्कृत या आतङ्कित करने की छिछली प्रवृत्ति से बच कर अलङ्कार-विषयक पूर्व-मान्यताओं का सार-ग्रहण कर हिन्दी के स्वनिर्मित या पररचित पदों के उदाहरण से अलङ्कारपरिभाषाओं का स्पष्टीकरण किया है। उनका महत्त्व अलङ्कार-क्षेत्र में मौलिक योगदान की दृष्टि से भले ही अधिक नहीं हो; पर अलङ्कारों को स्पष्ट कम से परिभाषित और उदाहृत कर हिन्दी के पाठकों के लिए बोधगम्य बनाने की दृष्टि से उनका महत्त्व उपेक्षणीय नहीं।
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [३३६ संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र में प्रचलित ( सूत्र शैली को छोड़ ) अलङ्कारनिरूपण की प्रायः सभी शैलियों का अनुवर्तन हिन्दी रीति साहित्य में हुआ है। दण्डी, मम्मट, विश्वनाय आदि की तरह पृथक्-पृथक् पदों में लक्षण और उदाहरण की शैली के साथ एक ही पद में लक्षण एवं उदाहरण की 'कुवलयानन्द' की शैली को भी अपनाया गया है । अलङ्कार-निरूपण के माध्यम से अपने आश्रयदाता के गुण-गान की 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' की पद्धति पर हिन्दी में अनेक अलङ्कार-ग्रन्थ लिखे गये हैं। ऐसे ग्रन्थों में प्रत्येक अलङ्कार को परिभाषित कर आश्रयदाता के महिमा-वर्णनपरक स्वनिर्मित पदों का उदाहरण दिया गया है। अलङ्कार-लक्षणों की अपेक्षा अलङ्कार-उदाहरणों में रीति-आचार्यों की महनीय मौलिकता है। यह रीति-आचार्यों के कवित्व की उपलब्धि है। ____संस्कृत-आचार्यों की तरह हिन्दी में भी विविध काव्याङ्ग-निरूपण के साथ अलङ्कार का विवेचन करने वाले तथा अलङ्कार सर्वस्वकार, कुवलयानन्दकार, आदि की तरह केवल अलङ्कार का निरूपण करने वाले आलङ्कारिकों के दो वर्ग पाये जाते हैं; पर संस्कृत में जहाँ अधिकांश आचार्यों ने अन्य काव्याङ्गनिरूपण के क्रम में अलङ्कार का स्वरूप-निरूपण किया है, वहाँ हिन्दी में केवल काव्यालङ्कार का निरूपण करने वाले आचार्यों की संख्या ही अधिक है। यह हिन्दी-रीति-साहित्य में चमत्कार प्रदर्शन की प्रवृत्ति का स्वाभाविकपरिणाम है।
'कुवलयानन्द' की पद्धति पर हिन्दी में भी अनेक आचार्यों ने केवल अर्थालङ्कारों का निरूपण किया है; किन्तु अधिकांश आचार्यों ने शब्दालङ्कार एवं अर्यालङ्कार का (कुछ ने अभयालङ्कार का भी) एक साथ लक्षण-निरूपण किया है। हिन्दी में चित्र के विविध रूपों का जिसकी धारणा का विकास अनुप्रास या यमक अलङ्कार की धारणा से हुआ था और जिसने संस्कृत में ही खड्ग आदि की आकृति में निबन्धन के रूप में यमक और अनुप्रास से स्वतन्त्र अस्तित्व पा लिया था-स्वतन्त्र रूप से विशद विवेचन किया गया है। चित्रकाव्य जो संस्कृत के सुरुचि-सम्पन्न पाठकों की दृष्टि में नीरस होने के कारण हेय और उपेक्षगीय था, हिन्दी-रीति-काल की दरबारी सभ्यता में दूर की कौड़ी लाकर श्रोता-मण्डली को विस्मय-विमुग्ध कर देने के कारण बहुत जनप्रिय हो गया था। इसलिए अनेक रीति-आचार्यों ने उसके स्वरूप का विस्तृत मीमांसा की है। भिखारी दास ने 'काव्य-निर्णय' के एक अध्याय में केवल
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३४० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण चित्र-भेदों का निरूपण किया है। यही नहीं, हिन्दी में केवल चित्र-निरूपण पर स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखे गये हैं। __ हिन्दी-रीति-साहित्य में कुछ आचार्यों ने अलङ्कार का रस, गुण आदि से नियत सम्बन्ध जोड़ने का भी प्रयास किया है। पर, ऐसा प्रयास निष्फल ही सिद्ध हुआ है। ऐसे प्रयास को अलङ्कार-क्षेत्र में उन आचार्यों का कोई महत्त्वपूर्ण योगदान नहीं माना जा सकता। __ नीचे हम प्राचीन आचार्यों के मतानुसार अलङ्कार का विवेचन करने वाले हिन्दी-रीति-आचार्यों की अलङ्कार-धारणा का सामान्य परिचय प्रस्तुत कर
आचार्य कुलपति मिश्र
कुलपति का 'रस-रहस्य' हिन्दी-रीतिशास्त्र में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। 'रस-रहस्य' के सातवें और आठवें वृत्तान्तों में क्रमशः शब्दालङ्कारों एवं अर्थालङ्कारों का निरूपण किया गया है । अलङ्कार-विवेचन में कुलपति ने मम्मट की अलङ्कार-धारणा को आदर्श माना है। कुलपति ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि मम्मट ने काव्य के जिन अलङ्कारों का वर्णन किया है, उन्हीं का निरूपण मैंने भाषा में किया है।' स्पष्ट है कि कुलपति ने किसी नवीन अलङ्कार की कल्पना की आवश्यकता नहीं समझी। मम्मट तथा संस्कृत और हिन्दी के अन्य समर्थ आचार्यों की कृतियों का अध्ययन कर आचार्य कुलपति ने काव्यालङ्कारों का प्रामाणिक विवेचन किया है। आचार्य पदुमन दास
‘पदुमन दास ने 'काव्यमंजरी' के दशवें तथा ग्यारहवें अध्यायों में क्रमशः शब्दालङ्कारों एवं अर्थालङ्कारों का लक्षण-निरूपण किया है। उन्होंने अलङ्कारक्षेत्र में कोई नवीन उद्भावना नहीं कर आचार्य केशव की 'कविप्रिया' में निरूपित अलङ्कारों को ही आदर्श मान कर काव्यालङ्कार का निरूपण किया है । श्रीधर या मुरलीधर ओझा
श्रीधर के 'भाषाभूषण' में अप्पय्य दीक्षित के 'कुवलयानन्द' में विवेचित अलङ्कारों का लक्षण-निरूपण किया गया है।
१. जिते साज हैं कवित के, मम्मट कहे बखानि। . . ते सब भाषा में कहे, 'रस रहस्य' में आनि ॥
-कुलपति मिश्र, रस रहस्य, पृ० ८८
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार विषयक उद्भावनाएँ [ ३४१
सूरति मिश्र
सूरति मिश्र ने भी 'कुवलयानन्द' की लक्ष्य - लक्षण - शैली में चन्द्रालोककार के द्वारा निरूपित (अप्पय्य के द्वारा स्वीकृत) अलङ्कारों के लक्षण उदाहरण दिये हैं ।
रघुनाथ
रघुनाथ ने 'रसिकमोहन' में 'कुवलयानन्द' के आधार पर अलङ्कारों का स्वरूप - निरूपण किया है । व्याजस्तुति को रघुनाथ ने व्याजोक्ति कहा और उसके दो रूपों – निन्दा के व्याज से की जाने वाली स्तुति तथा स्तुति के व्याज से की जाने वाली निन्दा - का सोदाहरण-निरूपण किया । १ परम्परा से स्वीकृत व्याजोक्ति अलङ्कार को भी उन्होंने स्वीकार किया । फलतः, 'रसिकमोहन' में दो बार व्याजोक्ति का उल्लेख किया गया है । रघुनाथ ने प्र ेमात्युक्ति-नामक अलङ्कार की कल्पना की है । यह वस्तुतः अलङ्कार का स्वतन्त्र रूप नहीं । अद्भुत तथा अतथ्य-वर्णन में अत्युक्ति अलङ्कार की कल्पना की जा चुकी थी । प्र ेमभाव के अत्युक्तिपूर्ण वर्णन में प्रमात्युक्ति का सद्भाव रघुनाथ ने कल्पित कर लिया है । यह अत्युक्ति में ही अन्तर्भुक्त है । स्पष्टतः, अलङ्कार के क्ष ेत्र में रघुनाथ की कोई मौलिक उद्भावना नहीं ।
रसरूप
रसरूप ने 'तुलसीभूषण' में अलङ्कारों के लक्षण मम्मट, अप्पय्य आदि की विचार- सरणि का अनुसरण करते हुए दिये हैं । 'तुलसीभूषण' का वैशिष्ट्य यह है कि उसमें उदाहरण तुलसी-साहित्य से ही लिये गये हैं । रसरूप ने एक सौ ग्यारह अलङ्कारों का सभेद निरूपण किया है । " शब्दालङ्कारों में अनुप्रास, यमक, वक्रोक्ति, श्लेष, चित्र तथा पुनरुक्तवदाभास का विवेचन किया गया है । 'चन्द्रालोक' आदि की पद्धति पर अर्थालङ्कारों का निरूपण किया
१. निंदा सो अस्तुति जहाँ प्रगट परति है जोइ । अस्तुति सो निंदा जहाँ व्याज उक्ति तह होइ ॥
- रघुनाथ, रसिकमोहन, २१०
२. एकादस अरु एक शत मुख्य अलङ कृत रूप ।
- रसरूप, तुलसीभूषण, पृ० ३५
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३४२] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण गया है। अकारादि अक्षर-क्रम से अलङ्कारों का उल्लेख भी 'तुलसीभूषण' का एक वैशिष्ट्य है।' _ 'तुलसीभूषण' में धन्यता तथा निर्णय नामक दो नये अलङ्कारों का उल्लेख हुआ है। धन्यता में करणीय अर्थ से अधिक बात उत्पन्न हो जाने की धारणा व्यक्त की गयी है। यह धारणा वाञ्छित से अधिक प्राप्ति-रूप प्रहर्षण की धारणा से मिलती-जुलती ही जान पड़ती है। अतः, प्रहर्षण में ही इसका अन्तर्भाव सम्भव है।
निर्णय की परिभाषा में कहा गया है कि जहाँ अनेक मुख से एक वस्तु के सम्बन्ध में निर्णय दिया जाता है, वहाँ यह अलङ्कार होता है। दण्डी ने निर्णय की बात निर्णयोपमा में कही थी, जहाँ उपमेय और उपमान में प्रमाता को सन्देह होने के स्थल में वक्ता सन्देह-निवारण के लिए वस्तु के सम्बन्ध में निर्णयात्मक बात कहता है। स्पष्टतः, रसरूप के निर्णय का स्वरूप दण्डी की निर्णयोपमा के स्वरूप से कुछ भिन्न है। निर्णय में एक ही वस्तु के सम्बन्ध में अनेक लोग अपना अलग-अलग निर्णय देते हैं, यह बात उसके उदाहरण से स्पष्ट हो जाती है, जिसमें एक ही व्यक्ति को कोई नर-नारायण कहता है, कोई हरि, कोई हर तो कोई कामदेव कहता है। निर्णय के लक्षण-उदाहरण पर विचार करने से उसका स्वरूप उल्लेख के स्वरूप से अभिन्न जान पड़ता है, जिसमें एक वस्तु का बहुत लोगों के द्वारा अनेक प्रकार से उल्लेख किया जाता है। रसरूप ने उल्लेख अलङ्कार का भी उल्लेख अपने ग्रन्थ में किया है। उसी में निर्णय का अन्तर्भाव मानना उचित होता।
'चन्द्रोदय' ग्रन्थ के आधार पर विक्षेप-नामक अलङ्कार का लक्षण रसरूप ने दिया है। इसके सम्बन्ध में यह मान्यता व्यक्त की गयी है कि जहाँ जो १. अक्षर को सम्बन्ध करि क्रम हि सो रसरूप ।
आदि बरन के नेम सो भूषन रचे अनूप ।।-रसरूप तुलसीभूषण, पृ० १ २. करन अर्थ ते अधिक जहाँ उपजावं कछु बात।
धन्यता तासों कहत हैं x x x x ॥-वही, पृ० २३ ३. जहाँ होत है एक की निर्णय बहुमुख माँह। ___ अलङ्कार निर्णय कहत x x x x ॥ वही, पृ० २३ ४. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्यादर्श, २, २७ ५. कोउ कह नरनारायण, हरि हर कोऊ। कोउ कहै विहरत वन मधु मनसिज दोउ ॥
-रसरूप, तुलसीभूषण, पृ० २३
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [ ३४३ जिसका अधिकार हो, वह काम कोई और कर दे; परन्तु उसका नाम न ले. वहाँ विक्षेप अलङ्कार होता है। यह चमत्कार के अभाव के कारण अलङ्कार नहीं। मिथ्याध्यवसित के साथ उसी रूप वाले मिथ्या अलङ्कार की भी कल्पना रसरूप ने की है। जिसमें सब झूठ का ही वर्णन किया जाता हो, वह रसरूप के अनुसार मिथ्या अलङ्कार है ।२ केवल मिथ्या-वर्णन अलङ्कार नहीं। अप्पय्य दीक्षित की मिथ्याध्यवसिति-धारणा को ठीक-ठीक न समझ पाने के कारण सम्भवतः रसरूप ने मिथ्या का यह स्वरूप मान लिया है।
निष्कर्ष यह कि रसरूप ने अलङ्कार-धारणा के विकास में कोई महत्त्वपूर्ण योगदान नहीं दिया। नये नाम के जो अलङ्कार 'तुलसीभूषण' में आये हैं, वे मौलिकता-प्रदर्शन-मात्र के लिए कल्पित हैं। धन्यता का प्रहर्षग में तथा निर्णय का उल्लेख में अन्तर्भाव सम्भव है। विक्षेप तथा मिथ्या चमत्कारहीन होने के कारण वस्तुतः अलङ्कार नहीं। बैरीसाल
_ 'भाषाभरण' में बैरीसाल ने 'कुवलयानन्द' की पद्धति पर अलङ्कारों का स्वरूप-निरूपण किया है। उन्होंने अप्पय्य दीक्षित का ऋण स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है। अप्पय्य दीक्षित के प्रमाणालङ्कारों के विवेचन के उपरान्त बैरीसाल ने चार और प्रमाणों का निर्देश किया है। वे हैं-पुराण-प्रमाण, आगम-प्रमाण, आचार-प्रमाण और आत्मतुष्टि-प्रमाण। इनके लक्षण नहीं, केवल उदाहरण दिये गये हैं। उक्त प्रमाणों से भारतीय पाठकों का इतना घनिष्ठ परिचय है कि उन्हें परिभाषित करने की आवश्यकता ही बैरीसाल को नहीं जान पड़ी होगी। इन प्रमाणों की कल्पना नवीन नहीं, फिर भो यह बैरीसाल की चिन्तनशीलता का एक प्रमाण तो है ही। जमत सिह
जगत सिंह ने 'साहित्य-सुधानिधि, में शब्दालङ्कारों तथा अर्थालङ्कारों का लक्षण-निरूपण किया है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में यह स्वीकार किया है १. जो जाको अधिकार है, करे और. सो काम । ताहि कहत विक्षेप है, लहै न ताको नाम ॥
-रसरूप, तुलसी भूषण पृ० ३४ २. मिथ्या तासों कहत हैं जो मिथ्या सब होइ। वही, पृ० ३४ ३. रीति कुवलयानन्द की, कीन्हौं भाषाभर्ण ।
-बैरीसाल, भाषाभरण, पृ० ३६
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३४४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
।
कि उनके अलङ्कार-विवेचन का आधार 'चन्द्रालोक' आदि ग्रन्थ हैं । ' ' साहित्य सुधानिधि, में निरूपित संग्रामोद्दाम हुङ, कृति, अलङ्कार को कुछ आलोचकों ने जगत सिंह की नवीन उद्भावना मान लिया है । २ वस्तुतः यह जगतसिंह की नवीन उद्भावना नहीं । जयदेव ने 'चन्द्रालोक' में संग्रामोद्दामहुङ कृति का उल्लेख किया था । दृष्टान्त के लक्षण में बिम्बप्रतिबिम्ब भाव का उल्लेख कर उन्होंने कहा था कि मल्ल - प्रतिमल्ल भाव के होने पर संग्राम क्षेत्र में होने वाली उद्दाम हुङ कृति के समान हुङ कृति होती है । 3 जयदेव के इस कथन की दो व्याख्याएँ सम्भव हैं एक यह कि उन्होने दृष्टान्त के स्वरूप को ही स्पष्ट करने के लिए मल्ल - प्रतिमल्ल भाव में संग्राम की उद्दाम हुङ कृति का उल्लेख किया होगा । दूसरी यह कि वस्तुओं के बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव में दृष्टान्त अलङ्कार मान कर उन्होंने मल्ल-प्रतिमल्ल भाव में संग्रामोद्दाम हुङ कृति नामक स्वतन्त्र अलङ्कार की सत्ता मानी होगी । वस्तुओं में मल्ल - प्रतिमल्ल भाव का अर्थ स्पष्ट नहीं । अतः, 'चन्द्रालोक' की संग्रामोद्दाम हुङ कृति का दृष्टान्त से स्वतन्त्र अस्तित्व सन्दिग्ध है । जगत सिंह ने चन्द्रालोककार की उसी धारणा को संग्रामोद्दामहुङ, कृति अलङ्कार में प्रस्तुत किया है । 'साहित्य सुधानिधि' में प्रस्तुत अलङ्कार का जो लक्षण दिया गया है, वह 'चन्द्रालोक' के श्लोक की एक पंक्ति का अविकल अनुवाद है । " अतः संग्रामोद्दाम हुङ, कृतिको जगतसिंह की नवीन उद्भावना मानना भ्रम है ।
१. चन्द्रालोक आदि हैं भाषा कीन ।
— जगत सिंह, साहित्य सुधानिधि, तरंग, ६, २. द्रष्टव्य – ओम् प्रकाश शर्मा, रीतिकालीन अलङ्कार - साहित्य, पृ० १३२ ३. चेद्विम्बप्रतिबिम्बत्वं दृष्टान्तस्तदलङ्कतिः । स्यान्मल्लप्रतिमल्लत्वे संग्रामोद्दामहु कृति ॥ — जयदेव, चन्द्रालोक, ५, ५६. ४. मल्लप्रतिमल्लत्वे संग्रामसम्बन्धिनी तदाधारा चोद्दामा निष्प्रतिबन्धा उत्कृष्टा हुङ, कृतिः स्यादित्युत्तरार्धार्थः । मल्लप्रतिमल्लत्वे यथा संग्रामोद्दामहुङ्कृतिः स्यात्तथा यदि बिम्बवत्वे तदा दृष्टान्तः स्यादित्यन्वयात् पूर्वोत्तरवाक्यार्थयोबिम्बप्रतिबिम्बभावाल्लक्ष्यमपीदमेव पद्यम् ।........... यद्वा दृष्टान्तसहितस्य बिम्बप्रतिबिम्बत्वस्य हुङ, कृतिसहितस्य मल्लप्रति - मल्लत्वस्य च सः । —चन्द्रालोक, रमा टीका, पृ० ५५-५६. ५. तुलनीय - मल्ल प्रतिमल्लत्व कहि कह अस होइ ।
हुकृति जानो सोइ ॥ - जगत सिंह, साहित्य सुधानिधि तथा - स्यान्मल्लप्रतिमल्लत्वे संग्रामोद्दाम हुङ, कृतिः ।
- जयदेव, चन्द्रालोक, ५, ५
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हिन्दी रीति - साहित्य में अलङ्कार - विषयक उद्भावनाएँ [ ३४५
जगत सिंह ने अन्य अलङ्कारों के स्वरूप का निरूपण भी 'चन्द्रालोक' आदि की पद्धति पर ही किया है । स्पष्ट है कि जगत सिंह की 'साहित्य-सुधा निधि' में अलङ्कार - विषयक कोई नवीन स्थापना नहीं ।
गोप कवि
गोप की दो रचनाएँ - ' रामचन्द्रभूषण' तथा ' रामचन्द्राभरण' - उपलब्ध हैं । इन ग्रन्थों में 'भाषाभूषण' की तरह 'कुवलयानन्द' के अलङ्कारों को स्वीकार किया गया है । शब्द के केवल अनुप्रास अलङ्कार का विवेचन है । गोप ने अलङ्कारों के उदाहरण, राम और सीता के चरितगान से सम्बद्ध पदों के दिये हैं । यह गोप कवि की मौलिकता है । दोनों ग्रन्थों की अलङ्कार - निरूपणशैली में थोड़ा अन्तर है । 'रामचन्द्रभूषण' के प्रथमार्ध में अलङ्कारों के लक्षण देकर उत्तरार्ध में उदाहरण दिये गये हैं; पर 'रामचन्द्राभरण' में अलङ्कार - विशेष का लक्षण देकर वहीं उसका उदाहरण दिया गया है । गोप ने स्वभावोक्ति के चार भेद – जाति, गुण, क्रिया तथा द्रव्य-वर्णन के आधार पर स्वीकार किये हैं । प्राचीन आचार्यों की स्वभावोक्ति-धारणा में जाति, गुण आदि के स्वाभाविक वर्णन की धारणा अन्तर्निहित थी ।
कुमारमणि शास्त्री
कुमारमणि शास्त्री ने 'रसिक - रसाल' की रचना में अपने ऊपर आचार्य मम्मट का ऋण स्वीकार किया है । अलङ्कारों के विवेचन में भी अंशतः वे मम्मट के ऋणी हैं । शब्दालङ्कार-निरूपण तथा अर्यालङ्कार में उपमा आदि के निरूपण में उनके ऊपर आचार्य मम्मट का प्रभाव स्पष्ट है; पर अर्थालङ्कारनिरूपण में वे अधिकांशतः अप्पय्य दीक्षित से प्रभावित हैं । 'रसिक - रसाल' के अष्टम उल्लास में सौ अलङ्कारों के विवेचन के उपरान्त ' कुवलयानन्द' की ही पद्धति पर प्रमाणालङ्कारों का निरूपण किया गया है । अतः, आशुकरण जी गोस्वामी का यह कथन उचित ही जान पड़ता है कि - ' अलङ्कारों के नाम, संख्या, क्रम, लक्षण व उदाहरण की उल्लास ) 'कुवलयानन्द' के आधार पर लिखा गया है । '२
दृष्टि से यह उल्लास ( अष्टम
१. द्रष्टव्य — कुमारमणि, रसिक रसाल, अर्थचित्र प्रकरण, ८,३३७-४५ २. रसिक रसाल की भूमिका, पृ० ४२-४३,
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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
याकूब खाँ
याकूब खाँ ने 'रसभूषण' में नायिका-भेद और काव्यालङ्कार का एक साथ निरूपण करने का नया प्रयोग किया। उनकी मान्यता थी कि नायिका की शोभा के लिए आभूषण की आवश्यकता होती है। अतः नायिका-भेद के वर्णन के साथ अलङ्कार का विवेचन होना चाहिए।' 'रसभूषण' में एक अलङ्कार और एक नायिका-भेद का लक्षण एक साथ दिया गया है। याकूब ने अद्भत रस के साथ यमक-अलङ्कार का वर्णन किया है। इस प्रकार रस-विशेष के साथ अलङ्कार-विशेष के सम्बन्ध का भी सङ केत 'रसभूषण' में मिलता है। काव्यालङ्कारों के स्वरूप-निरूपण में कोई नवीनता नहीं है ।
रसिक सुमति ___ 'अलङ्कार-चन्द्रोदय' में रसिक सुमति ने स्पष्ट शब्दों में यह स्वीकार किया है कि उनके अलङ्कार-निरूपण का आदर्श ‘कुवलयानन्द' है। उन्होंने अर्थालङ्कारों के लक्षण-निरूपण के उपरान्त वृत्त्यनुप्रास, छेकानुप्रास तथा लाटानुप्रास शब्दालङ्कारों का भी निरूपण किया है।
सोमनाथ
'रसपीयूष निधि' की बाइसवीं तरङ्ग में सोमनाथ ने चित्र-सहित शब्दालङ्कारों एवं अर्थालङ्कारों का विशद विवेचन किया है। उनका शब्दालङ्कारविवंचन मम्मट आदि आचार्यों की पद्धति पर तथा अर्थालङ्कार विवेचन कुवलयानन्द की पद्धति पर है। कहीं-कहीं सोमनाथ ने किसी अलङ्कार के सम्बन्ध में विभिन्न संस्कृत-आचार्यों का मत भी उद्धृत किया है। इससे स्पष्ट है कि अपने पूर्ववर्ती संस्कृत तथा हिन्दी के आचार्यों के अलङ्कारसिद्धान्त का अध्ययन कर सोमनाथ ने प्राप्त निष्कर्ष के आधार पर अलङ्कारनिरूपण किया है।
१. द्रष्टव्य-याकूब खाँ, रसभूषण, पृ० ४७ २. रसिक कुवलयानन्द लखि, अलि मन हरस बढाइ। अलंकार-चन्द्रोदयहिं, वरनतु हियहुलसाइ ।।
-रसिक सुमति, अलंकार चन्द्रोदय, पृ०१
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [ ३४७० गोविन्द
_ 'कर्णाभरण' में गोबिन्द ने अलङ्कारों के लक्षण-उदाहरण दिये हैं। उन्होंने 'कुवलयानन्द' की लक्षण-लक्ष्य शैली में एक ही दोहे में अलङ्कार-विशेष का लक्षण और उदाहरण देने का प्रयास किया था।' अधिकांश अलङ्कारों के लक्षण और उदाहरण एक ही दोहे में दिये गये हैं; पर सर्वत्र गोविन्द को इस प्रयास में सफलता नहीं मिली। अतः, कुछ अलङ्कारों के लक्षण और उदाहरण अलग-अलग दोहों में दिये गये हैं। सम आदि अलङ्कारों के लक्षण-उदाहरण इस दृष्टि से द्रष्टव्य हैं। अधिकांश में चन्द्रालोककार तथा कुवलयानन्दकार से प्रभावित होने पर भी गोविन्द ने अन्य आचार्यों की अलङ्कार-धारणा का भी प्रभाव ग्रहण किया है। श्लेष के प्रकृत-प्रकृत, प्रकृताप्रकृत तथा अप्रकृता--- प्रकृत-भेदों की कल्पना में प्राचीन आचार्यों की श्लेषोपमा-धारणा का प्रभाव स्पष्ट है।
रूपसाहि
रूपसाहि ने 'रूप-विलास' में विविध काव्याङ्गों का वर्णन करते हुए अलङ्कारों का भी स्वरूप-निरूपण किया है। इस ग्रन्थ के बारहवें विलास में अर्थालङ्कारों का निरूपण 'कुवलयानन्द', 'भाषाभूषण' आदि की पद्धति पर दोहों में ही लक्षण-उदाहरण देकर किया गया है। तेरहवें विलास में शब्दालङ्कार एवं चित्र का वर्णन किया गया है ।
रतन कवि
_ 'अलङ्कार-दर्पण' में रतन कवि ने एक ही छन्द में लक्षण-उदाहरण देने की शैली में अलङ्कार-निरूपण किया है। रतन पर 'कुवलयानन्द', 'भाषाभूषण' आदि का पुष्कल प्रभाव है । 'कान्ताभूषण' भी इन्हीं की रचना मानी गयी है । नायिका-भेद और अलङ्कार का एक साथ वर्णन इस कृति की विशेषता है।
१. अलङ्कार या में कहत लच्छन लच्छि समेत । निज मति के अनुसार तें समुझहिं बुद्धिनिकेत ॥
-गोविन्द, कण्ठाभरण, पृ० १.
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३४८ ]
ऋषिनाथ
ऋषिनाथ ने 'अलङ्कारमणि मञ्जरी' में शब्दालङ्कारों एवं अर्थालङ्कारों का निरूपण किया है । पूर्व प्रतिपादित अलङ्कारों को ही परिभाषित कर - नवीन उदाहरणों से स्पष्ट किया गया है ।
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
जनराज
'कविता - रसविनोद' में जनराज ने काव्य के तत्तदङ्गों का निरूपण करते हुए आठवें विनोद में ( अधम काव्य - वर्णन में ) अर्थालङ्कारों का लक्षण-निरूपण किया है । यह निरूपण 'कुवलयानन्द' के आधार पर किया गया है । बाइसवें - तथा तेइसवें विनोदों में क्रमशः शब्दालङ्कार एवं चित्र का विवेचन किया गया है। विवेचन विस्तृत होने पर भी परम्परागत ही है ।
राम सिंह
'अलङ्कार-दर्पण' में रामसिंह ने कुवलयानन्दकार के द्वारा स्वीकृत अलङ्कारों का निरूपण किया है । शैली में यह भेद है कि इसमें एक पद में लक्षणउदाहरण नहीं देकर सोरठा, चौपाई तथा गाथा में अलङ्कारों के लक्षण और दोहों में उनके उदाहरण दिये गये हैं ।
सेवादास
सेवादास का उद्देश्य नवीन अलङ्कार लक्षण की स्थापना नहीं था । वे - अलङ्कार - निरूपण के माध्यम से अपने उपास्य – राम और सीता — के गुण का 'प्रकाश करना चाहते थे । अतः उन्होंने अपने 'रघुनाथालङ्कार' में 'रामचन्द्र'भूषण' तथा 'रामचन्द्राभरण' की तरह प्रत्येक अलङ्कार का लक्षण देकर राम
गुणगान पर रचित पदों का उदाहरण दिया है । उन्होंने स्वयं यह स्वीकार • किया है कि उनका अलङ्कार - निरूपण 'चन्द्रालोक' और 'कुवलयानन्द' के आधार पर है । '
१. कुवलयानन्द चंद्रालोक में अलंकार के नाम । तिनकी गति अवलोकि के अलंकार कहि राम ॥
- सेवादास, रघुनाथालंकार, पृ० २४
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार - विषयक उद्भावनाएँ [ ३४९
गोकुल
गोकुल ने 'चेतचन्द्रिका' में रघुनाथ की प्रेमात्युक्ति- सहित उन्हीं के मतानुसार अर्थालङ्कार - निरूपण किया है । उनके अपह्नव ( अपह्नति और उत्प्र ेक्षा के योग से निर्मित ) को डॉ० रसाल ने उनकी नयी कल्पना माना है । पर यह विश्वनाथ के सापह्नवोत्प्रक्षा से अभिन्न है ।
चन्दन
चन्दन ने 'काव्याभरण' की रचना में अपने ऊपर संस्कृत एवं हिन्दी आचार्यों का ऋण स्वीकार किया है । उनका अलङ्कार - निरूपण मुख्यतः 'कुवलयानन्द " तथा 'भाषाभूषण' के अलङ्कार वर्णन पर आधृत है ।
रसिक गोविन्द
रसिक गोविन्द की दो रचनाएँ काव्यशास्त्र पर हैं और दोनों का नामकरण आचार्य ने अपने नाम के आधार पर किया है । 'रसिक - गोविन्द' में अलङ्कारों का निरूपण 'चन्द्रालोक', 'कुवलयानन्द' तथा 'भाषाभूषण' की पद्धति पर किया गया है । ' रसिक - गोविन्द - आनन्दघन' में विविध काव्याङ्गों के साथ अलङ्कारों का भी विवेचन किया गया है । इसमें अलङ्कारों का विवेचन गद्य में होने से विवेचन प्रौढ है । इसमें मम्मट, अप्पय्य आदि की अलङ्कार-धारणा के साथ हिन्दी के केशव आदि आचार्यों का भी अलङ्कार- विषयक मत गृहीत है । अलङ्कार - विषयक नवीन उद्भावना के नहीं होने पर भी विवेचन की प्रौढता में ही इस कृति का महत्त्व है ।
1
उमेद राय
उमेद राय ने 'वाणी-भूषण' में 'चन्द्रालोक' तथा 'भाषा - भूषण' के आधार पर अलङ्कार-निरूपण करने की बात स्वयं कही है । २ शब्दालङ्कार में यमक का वर्णन अनुप्रास के अन्तर्गत किया गया है । संस्कृत में भी कुछ आचार्यों ने केवल अनुप्रास का सद्भाव स्वीकार कर यमक को उसी का एक प्रकार माना
१. 'काव्याभरण' किये प्रगट, भाषा कवि आधार ।
ग्रन्थ संस्कृत देखि मैं x × × × ॥ —चन्दन, काव्याभरण, पृ० १ २. नित चन्द्रालोक विचारि मान ।
• किये भाषा भूषण की समान ॥ - उमेद राय, वाणीभूषण, पृ० ३
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३५० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
था। इसके विपरीत कुछ आचार्यों ने यमक के सन्दर्भ में ही अनुप्रास का • स्वरूप-निरूपण किया है। अनुप्रास की धारणा का विकास तो वस्तुतः आचार्य भरत की यमक-धारणा से ही हुआ है। दोनों में साम्य भी बहुत है। एक में वर्ण की आवृत्ति अपेक्षित है और दूसरे में पद की। पद वर्गों का ही समुदाय है। अतः पदावृत्ति और वर्णावृत्ति में तात्त्विक भेद नहीं।
उमेद राय ने शब्दालङ्कारों के अतिरिक्त एक सौ आठ अर्थालङ्कारों का निरूपण किया है।
ब्रह्मदत्त
ब्रह्मदत्त ने 'दीप-प्रकाश' की रचना का आधार दूलह के 'कविकुल-कण्ठाभरण, को माना है। प्रस्तुत पुस्तक के तृतीय प्रकाश में सभेद अनुप्रास का, जिसमें यमक भी अन्तर्भूत है, निरूपण है तथा चतुर्थ प्रकाश में अर्थालङ्कारों का 'विवेचन किया गया है। देव का गुणवत् अलङ्कार भी 'दीपप्रकाश' में स्वीकृत है ।
'पद्माकर
पद्माकर ने 'पद्माभरण' में काव्य के अलङ्कारों का विवेचन किया है। अर्थालङ्कार-प्रकरण में 'कुवलयानन्द' की तरह एक सौ अर्थालङ्कारों का निरूपण कर पद्माकर ने रसवदादि, भावोदयादि तथा प्रमाणालङ्कारों का निरूपण 'किया है। एक सौ अलङ्कारों के बाद रसवदादि पन्द्रह अलङ्कारों का वर्णन 'कविकुलकण्ठाभरण' के आधार पर है । संसृष्टि और सङ्कर के लक्षणउदाहरण अन्त में दिये गये हैं। प्रमाणालङ्कार-निरूपण के क्रम में बैरीसाल के 'भाषाभरण' में कल्पित आगम, आचार तथा आत्मतुष्टि प्रमाण को भी पद्माकर ने स्वीकार किया है । कई अलङ्कारों के उदाहरण में भी पद्माकर बैरीसाल के ऋणी हैं। स्पष्ट है कि पद्माकर ने 'चन्द्रालोक', 'कुवलयानन्द', 'कविकुलकण्ठाभरण', 'भाषाभरण' आदि ग्रन्थों के आधार पर अलङ्कार निरूपण ‘किया है।
१. एक सो आठ सब अलंकार, ___ अर्थ के कहे बुद्ध यानुसार ।-उभेदराय, वागीभूषण पृ० ३६ २. दीप नरायन सिंह की लहि आयुस कवि ब्रह्म। कविकुलकंठाभरण लखि कीन्हों ग्रन्थ अरम्भ ॥
बहादत्त, दीक प्रकाश, पृ० ५
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [३५१ राय शिवप्रसाद
शिवप्रसाद ने 'रस-भूषण' में रस के साथ अलङ्कार के लक्षण दिये हैं। इस वर्णन-परिपाटी का श्रीगणेश याकूब खाँ ने किया था। अलङ्कार के लक्षण मुख्यतः 'भाषाभूषण' के आधार पर दिये गये हैं। शिव प्रसाद ने रसविशेष के साथ अलङ्कार-विशेष को सम्बद्ध करने का प्रयास किया है । उदाहरणार्थ-हास्यरस के साथ व्याजस्तुति का, करुण रस के साथ प्रथम विषम का, रौद्र के साथ रूपक का, वीर के साथ उत्प्रेक्षा का, भयानक के साथ उत्प्रेक्षा एवं अतिशयोक्ति का (सङ्कर-रूप में), बीभत्स के साथ विभावना का, अद्भुत के साथ सम्भावना का तथा शान्त के साथ भेदकातिशयोक्ति का सम्बन्ध माना गया है। किसी रस के साथ विशेष अलङ्कार का सम्बन्ध मानना युक्तिसङ्गत नहीं। अलङ्कार शब्दार्थ के अनियत धर्म हैं। अतः, सभी अलङ्कार शब्दार्थ के सौन्दर्य की वृद्धि कर रसोपकारक हो सकते हैं। वे रस के बाधक भी हो सकते हैं और तटस्थ भी। रस और अलङ्कार के पारस्परिक सम्बन्ध पर हमने अपरत्र विचार किया है। प्रताप साहि
'व्यङ्ग यार्थ कौमुदी' में प्रतापसाहि ने प्रसङ्गात् अलङ्कारों का भी वर्णन कर 'दिया है। इसमें पूर्ववणित अलङ्कारों का संक्षिप्त परिचय-मात्र दिया गया है । कृष्ण भट्ट
'अलङ्कार-कलानिधि' में कृष्ण भट्ट ने परम्परागत काव्यलङ्कारों का ही लक्षण-निरूपण किया है। सटीक और सुन्दर उदाहरणों के चयन में ही उनकी मौलिकता है। बलवान सिंह ___ आचार्य बलवान सिंह ने 'चित्र चन्द्रिका' में केवल चित्रालङ्कारों का विशद वर्णन किया है। चित्र का विवेचन तो संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र में ही स्वतन्त्र रूप से होने लगा था; पर चित्र का इतना विस्तृत विवेचन करने वाला स्वतन्त्र ग्रन्थ संस्कृत में नहीं लिखा गया था। यह ठीक है कि संस्कृत के आचार्यों ने भी चित्र के असन्त भेदों की सम्भावना स्वीकार की थी। पद्म, मुरज, खड्ग आदि कुछ चित्र-बन्धों का वर्णन कर संस्कृत आचार्यों ने वैसे ही अन्य बन्धों की कल्पना सम्भव मानी थी। बलवान सिंह ने उन सङ केत-सूत्रों का सहारा
१. द्रष्टव्य-राय शिवप्रसाद, रसभूषण, पृ. ६४-६६
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३५२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
लेकर अनेक नये बन्धों की कल्पना कर ली है। मम्मट आदि आचार्यों ने चित्र के शब्द-चित्र तथा अर्थ-चित्र; दो भेद माने थे। बलवान सिंह ने दोनों के सङ्कर से सङ्कर-चित्र की भी कल्पना की है।' ईश्वर कवि
ईश्वर कवि-रचित 'चित्रचमत्कृतकौमुदी', जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, केवल चित्रालङ्कार पर लिखित पुस्तक है । ईश्वर कवि के अनुसार चित्र के दो भेद हैं—(क) श्रौती, जिनका सम्बन्ध सुनने से है तथा (ख) दृष्टि, जिनका सम्बन्ध देखने से ।२ ईश्वर कवि ने चित्रालङ्कारों का संक्षिप्त परिचय मात्र दिया है। रणधीर सिंह
रणधीर ने 'काव्यरत्नाकर' में अपनी रचना का आदर्श 'चन्द्रालोक', तथा 'काव्यप्रकाश' के अतिरिक्त भाषा के अन्य ग्रन्थों को बताया है। 3 डॉ० भगीरथ मिश्र के अनुसार उक्त ग्रन्थ में अलङ्कारों का विवेचन 'चन्द्रालोक' के आधार पर किया गया है। गिरधर दास
गिरधर दास ने 'भारतीभूषण' में 'कुवलयानन्द' में निरूपित अलङ्कारों का निरूपण किया है। उपमा-वाचक शब्दों के दो वर्ग गिरधर ने माने हैं-- मुलशब्द तथा इतर;" पर इस कल्पना में कोई नवीनता नहीं। दण्डी आदि के द्वारा गिनाये वाचक शब्दों को ही उक्त दो वर्गों में प्रस्तुत किया गया है। आचार्य मम्मट ने श्रौती तथा आर्थी उपमा के लिए अलग-अलग वाचक शब्द गिनाये हैं। गिरधर दास उसी मान्यता से प्रभावित हैं। १. अब शब्दचित्र बखानुपुनि अर्थ चित्र हि जानु । संकर सुचित्र हि मानु, त्रय भेद चित्र हि आनु॥
__-बलवानसिंह, चित्रचन्द्रिका, ५ पृ० ३ः २. सोई पुनि द्व बिधि जानि मैं स्रौती द्रष्टि ठानि। स्रोती सुनतहि सुष बढ़त द्रष्टि देषत मानि॥
-ईश्वर कवि, चित्रचमत्कृत कौमुदी, ५, पृ० १ ३. द्रष्टव्य-रणधीर सिंह, काव्यरत्नाकर, उद्ध त भगीरथ मिश्र, हिन्दी
काव्यशास का इतिहास, पृ० १६७ ४. द्रष्टव्य-भगीरथ मिश्र, हिन्दी काव्यशास्त्र का इतिहास, पृ० १६७ ५. द्रष्टव्य-गिरधर दास, भारतीभूषण, पृ० २.
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएं
[ ३५३
प्रताप साहि
'व्यङ्गयार्थ कौमुदी' में प्रताप साहि ने नायिका-भेद के साथ अलङ्कार का वर्णन किया है। अलङ्कार के क्षेत्र में नव-चिन्तन प्रताप साहि का उद्देश्य नहीं था। उनका उद्देश्य था, एक साथ नायिका-भेद, व्यङ्ग यार्थ तथा अलङ्कारों का वर्णन । अमीर दास ___ 'श्रीकृष्ण-साहित्य-सिन्धु' के पञ्चम तरङ्ग में अमीर दास ने शब्दालङ्कारों का वर्णन किया है। चित्र का एक घड़ी-बन्ध भेद इसमें कल्पित है।' उनके शब्दार्थालङ्कारों के विवेचन पर आचार्य मम्मट का प्रभाव है। निहाल ___ अमीर दास की तरह निहाल ने भी ब्रजभाषा को पंजाबी लिपि में लिखा है। ब्रजभाषा तथा पंजाबी लिपि में लिखित 'साहित्यशिरोमणि' की रचना का आधार उन्होंने स्वयं 'काव्यप्रकाश' को माना है। दामोदर ___ दामोदर अलङ्कारों की संख्या को परिमित करने के पक्षपाती थे। अतः, उन्होंने 'अर्थालङ्कार-मञ्जरी' में केवल छत्तीस अर्थालङ्कारों का विवेचन किया है। वे शेष अलङ्कारों का अन्तर्भाव उन्हीं छत्तीस में मानते थे। ग्वाल
ग्वाल ने 'अलङ्कार-भ्रमभञ्जन' में खण्डन-मण्डन की पद्धति से अलङ्कारविषयक मान्यताओं का परिष्कार करने की चेष्टा की थी। उन पर 'काव्यप्रकाश', 'चन्द्रालोक' आदि का प्रभाव स्पष्ट है। कवि दास ___ कवि दास ने 'अलङ्कार-माला' में परम्परा से वणित अलङ्कारों का ही वर्णन किया है। वे भाषा-कवि में आचार्य केशव की धारणा से प्रभावित थे। गद्य में अलङ्कारों का विवेचन दास कवि ने स्पष्टता से किया है।
१. द्रष्टव्य-अमीर दास, श्रीकृष्ण साहित्य-सिन्धु, पृ० १६६ २. मम्मट मत जे काव्य के कछु पदारथ चिह्न। ग्रन्थ बांध पूरन करयो कवि निहाल मतिहीन ॥
-निहाल, साहित्यशिरोमणि, ३३६ ३. इन में, आवत दौर त्यों सब सरिता सिन्धु में।
-दामोदर, अर्थालङ्कारमञ्जरी, पृ० १ २३
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३५४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
निष्कर्ष अलङ्कार-क्षेत्र में मौलिक उद्भावना की दृष्टि से हिन्दी-अलङ्कारशास्त्र के अध्ययन से निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं:
(१) संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र में प्रतिपादित अलङ्कार-सिद्धान्तों का सार लेकर ही अधिकांश हिन्दी-आचार्यों ने अलङ्कार-निरूपण किया है। कारण स्पष्ट है। हिन्दी-अलङ्कार-साहित्य का आरम्भ संस्कृत-साहित्य के अलङ्कारचिन्तन के प्रायः अवसान-काल में हुआ था। 'चन्द्रालोक' तथा उस पर आधुत 'कुवलयानन्द' के बाद संस्कृत-साहित्य में भी अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ नगण्य ही हुई। अप्पय्य के उपरान्त प्रायः उन्हीं के मान्य अलङ्कारों का लक्षण-निरूपण पण्डितराज जगन्नाथ के पूर्व तक किसी-न-किसी रूप में होता रहा। कुछ दिनों तक संस्कृत और हिन्दी में अलङ्कार ग्रन्थों का निर्माण समानान्तर चलता रहा। पण्डितराज जगन्नाथ ने अप्पय्य दीक्षित के अलङ्कार-सिद्धान्त पर तर्क के तीक्ष्ण कुठार का आघात किया । फिर भी, उनके परवर्ती हिन्दी आचार्यों ने पण्डितराज जगन्नाथ की दुर्बोध खण्डन-मण्डन की शैली की अपेक्षा अप्पय्य की सुगम अलङ्कार-निरूपण-पद्धति को ही अनुसरणीय माना । अप्पय्य के 'कुवलयानन्द' को आदर्श मान कर जसवन्त सिंह ने 'भाषाभूषण' की रचना की और हिन्दी के अधिकांश आचार्यों ने उसी मार्ग का अनुगमन किया। मम्मट, विश्वनाथ आदि के अलङ्कार-सिद्धान्त के अनुकरण पर भी हिन्दी में अलङ्कार-ग्रन्थों की रचना हुई है। अनेक हिन्दी आचार्यों ने दण्डी आदि प्राचीन आचार्यों का प्रभाव भी ग्रहण किया है।
(२) संस्कृत-आचार्यों के अलङ्कार-लक्षण को बहुलांशतः स्वीकार करने पर भी हिन्दी-आचार्यों ने स्वतन्त्र रूप से कुछ नवीन अलङ्कारों की कल्पना की है। हिन्दी-अलङ्कार-साहित्य में उद्भावित अलङ्कार उद्भावक-क्रम से निम्नलिखित हैं
केशव-(१) गणना, (२) प्रेम, (३) अमित, (४) युक्त, (५) सुसिद्ध, (६) प्रसिद्ध तथा (७) विपरीत ।
जसवन्त सिंह-(१) लेख ( लेश का अपर पर्याय ) तथा (२) चित्र ( उत्तर का चित्रोत्तर भेद, गूढोत्तर से स्वतन्त्र अस्तित्ववान् कल्पित; वस्तुतः कोई नवीन नहीं)।
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [ ३५५ मतिराम-अपह्न ति का छलापह्न ति भेद (कैतवापह्नति का पर्याय), उत्प्रेक्षा का गुप्तोत्प्रेक्षा भेद (गम्योत्प्रेक्षा का अपर नाम)।
भूषण-(१) सामान्य-विशेष, (२) पूर्वावस्था, (३) विपरीत ( नाम प्राचीन पर स्वरूप नवीन )।
देव-(१) गुणवत्, (२) सङ्कीर्ण, (३) प्रत्युक्ति ।
अलङ्कार के भेद-यमक-भेद-सिंहावलोकन, उपमा-भेद-स्वभाव, योग, सङ्कीर्णभाव, उचित, प्रतिकार, उल्लेख, आक्षेप, गर्व आदि ।
रघुनाथ—प्रेमात्युक्ति नामक अत्युक्ति भेद ।
भिखारी दास-(१) वीप्सा (शब्दालङ्कार) और (२) स्वगुण । दीपकभेद-देहरी दीपक, अतिशयोक्ति का उपमातिशयोक्ति, उत्प्रेक्षातिशयोक्ति आदि ।
रसरूप-(१) धन्यता तथा (२) निर्णय ।
बैरोसाल-प्रमाणालङ्कार-भेद-पुराण, आगम, आचार तथा आत्मतुष्टि प्रमाण।
इस प्रकार हिन्दी-रीति-शास्त्र में निम्नलिखित नवीन अलङ्कारों की कल्पना की गयी है, जिनके स्वरूप मौलिकता की दृष्टि से परीक्ष्य हैं-गणना, प्रेम, अमित, युक्त, सुसिद्ध, प्रसिद्ध, विपरीत (दो रूप केशव तथा भूषण के द्वारा कल्पित, विपरीत नाम्ना एक होने पर भी स्वरूपतया अलग-अलग हैं। अतः, हिन्दी में विपरीत नाम से वस्तुतः दो अलङ्कारों की कल्पना की गयी है। , सामान्यविशेष, पूर्वावस्था, गुणवत्, सङ्कीर्ण ( संस्कृत-आचार्यों के संसृष्टि-सङ्कर-रूप सङ्कीर्ण से भिन्न ), प्रत्युक्ति, वीप्सा, स्वगुण, धन्यता तथा निर्णय ।
लेख लेश का तथा चित्र चित्रोत्तर का अपर पर्याय-मात्र है। पुराण, आगम आदि प्रमाण शब्द-प्रमाण से भिन्न नहीं। आचार तथा आत्मतुष्टि प्रमाण की धारणा नवीन नहीं।
अलङ्कारों के तत्तत् नवीन भेदों की कल्पना विभिन्न अलङ्कारों की धारणा को मिला कर की गयी है। उदाहरणार्थ-उल्लेखोपमा, आक्षेपोपमा, उपमातिशयोक्ति, उत्प्रेक्षातिशयोक्ति आदि तत्तदलङ्कार-भेद द्रष्टव्य हैं। यमक का सिंहावलोकन भेद नाम्ना नवीन अवश्य है; पर उसका स्वरूप मम्मट बादि के पाद यमक (आद्यन्त भेद) से अभिन्न है। प्रेमात्युक्ति में भी प्रेमभाव की
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३५६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अत्युक्ति की कल्पना है । विभिन्न भावों के साथ अलङ्कार के योग का तथा विभिन्न अलङ्कारों के योग का नवीन-नवीन नामकरण होने से अलङ्कार के असंख्य भेद हो जायँगे । ऐसे भेदों की कल्पना में चिन्तन की मौलिकता की नहीं, अनावश्यक भेदीकरण से नवीनता - प्रदर्शन की प्रवृत्ति का परिचय मिलता है ।
उपरिलिखित नवीन अलङ्कारों में से
(अ) कुछ तो चमत्कार का अभाव होने से अलङ्कार ही नहीं हैं—गणना, सुसिद्ध, प्रसिद्ध, ( केशव का) विपरीत ।
(आ) कुछ का सम्बन्ध रस-भाव या चरित्र से है । अतः, उन्हें अलङ्कार की सीमा में परिमित कर देना उचित नहीं - प्र ेम आदि ।
(इ) कुछ अलङ्कारों का प्राचीन अलङ्कारों में अन्तर्भाव सम्भव है— पूर्वावस्था तथा स्वगुण का पूर्वरूप में, गुणवत् का तद्गुण में, प्रत्युक्ति का प्रश्नोत्तर में, सङ्कीर्ण का शोभाकर के तन्त्र में अन्तर्भाव सम्भव है ।
(ई) कुछ प्राचीन धारणा को अलङ्कार मान लिया गया है । अतः, अलङ्कार रूप में उसकी स्वीकृति मात्र नवीन है— बीप्सा की धारणा व्याकरण में प्राचीन काल से प्रचलित थी । वीप्सा में शब्द का दो बार प्रयोग व्याकरण - सम्मत है । इसे स्वतन्त्र अलङ्कार माना गया है। अनुप्रास आदि यह है |
( उ ) कुछ के स्वरूप की कल्पना पूर्वाचार्यों के एकाधिक अलङ्कारों की धारणा के योग से की गयी है -युक्त में स्वभावोक्ति और सम के स्वभाव का मिश्रण है । भूषण का विपरीत आधाराधेय भाव के साथ प्रतीप धारणा के योग से कल्पित है ।
(ऊ) प्राचीन अलङ्कार के ही किसी भेद को अन्य नाम से या उसी नाम से स्वतन्त्र अलङ्कार मान लिया गया है— सामान्यविशेष अप्रस्तुतप्रशंसा का एक भेद है, जो नाम भेद से स्वतन्त्र अलङ्कार मान लिया गया है । चित्र चित्रोत्तर का एक भेद है जो उसी नाम से स्वतन्त्र अलङ्कार बन गया है ।
(३) हिन्दी - रीति - शास्त्र के आचार्यों ने कुछ प्राचीन अलङ्कारों के नवीन अभिधान का भी प्रयोग किया है । ऐसा कहीं-कहीं तो सकारण हुआ है; पर कहीं-कहीं अकारण । उदाहरणार्थ - कारणमाला की जगह उसी के प्राचीन लक्षण से गुम्फ शब्द लेकर 'गुम्फ' नाम का प्रयोग तथा कारण का पर्यायवाची शब्द लेकर हेतुमाला संज्ञा का प्रयोग; इसी प्रकार सार की परिभाषा से
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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ
[ ३५७
'उत्तरोत्तर' शब्द लेकर उसका उत्तरोत्तर नामकरण, अन्योन्य के स्थान पर परस्पर अभिधान का प्रयोग, सन्देह तथा स्मृति के लिए, भ्रान्तिमान् के सादृश्य पर क्रमशः सन्देहवान् तथा स्मृतिमान् व्यपदेश का प्रयोग अकारण है। सम्भव है कि नवीनता-प्रदर्शन के लिए ऐसा किया गया हो।
व्याजस्तुति का व्याज-उक्ति नामकरण है तो सकारण; पर वह भ्रमोत्पादक भी हो गया है। व्याजस्तुति नाम में हिन्दी-आचार्यों को केवल व्याज से की जाने वाली स्तुति के अर्थ का बोध कराने की शक्ति जान पड़ी। उसमें स्तुति के व्याज से की जाने वाली निन्दा में अव्याप्ति समझ कर उसका नाम व्याजउक्ति कर दिया गया। इस प्रकार इस नाम-परिवर्तन से एक समस्या तो उन्होंने सुलझायी, पर दूसरी विकट उलझन आ पड़ी। प्राचीन, आचार्यों की व्याजोक्ति की भी सत्ता उन्होंने स्वीकार की है। परिणामतः, दो अलङ्कारों का एक ही नाम हो गया, जो अवैज्ञानिक है।
(४) हिन्दी में चित्र अलङ्कार का व्यापक और स्वतन्त्र वर्णन हुआ है। कई स्वतन्त्र ग्रन्थों में केवल चित्र के ही विविध रूपों की कल्पना की गयी है। अतः, हिन्दी में अनेक नवीन बन्धों की कल्पना हुई है। चित्र में विशेष रुचि साहित्यिक रुचि की विकृति का परिचायक है, जो हिन्दी-रीतिकाल की विकृत सामाजिक दशा की दुर्वार साहित्यिक परिणति थी। तत्कालीन राज-दरबारों में कवि दूरारूढ कल्पना से, मानसिक व्यायाम से, श्रोता को चमत्कृत करने का प्रयास करते थे। अतः चित्रकाव्य का, जिसका उद्देश्य ही क्रीड़ा-गोष्ठी-विनोद होता है, रीतिकाल में विकास हुआ और अलङ्कार-शास्त्र में उसका विशद विवेचन किया गया। चित्रों के विविध भेदों की कल्पना की सम्भावना प्राचीन आचार्यों ने भी स्वीकार की थी।
(५) केशव का अमित अलङ्कार मौलिक है और उसकी उद्भावना का श्रेय उन्हें मिलना चाहिए ।
(६) हिन्दी-अलङ्कार-शास्त्र में अलङ्कार के क्षेत्र में विशेष महत्त्वपूर्ण उद्भावना नहीं हो पायी।
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चतुर्थ अध्याय
अलङ्कारों का वर्गीकरण
काव्यालङ्कारों के विकास के साथ उनके वर्गीकरण की आवश्यकता अनुभूत हुई । भरत के चार अलङ्कारों ने शताधिक अलङ्कारों की कल्पना का द्वार खोला । लक्षण, गुण आदि काव्य-तत्त्वों के योग से नवीन-नवीन अलङ्कार आविर्भूत होने लगे । उक्तियों में थोड़े-थोड़े भेद के आधार पर समान अलङ्कार से अनेक स्वतन्त्र अलङ्कारों की कल्पना की जाने लगी। एक उपमा शैलूषी ने ही कितने रूप धारण किये ! एक अलङ्कार के सादृश्य विपर्ययात्मक रूप के आधार पर दूसरे अलङ्कार का उद्भावन हुआ । इस प्रकार अलङ्कार के एक संयोजक तत्त्व से अनेक अलङ्कार बने और वैपरीत्य के आधार पर अलङ्कार के नये संयोजकों की भी कल्पना की गयी । साधर्म्य के साथ वैधर्म्य भी अलङ्कार का विधायक बना । शृङ्खला आदि नवीन तत्त्वों के आधार पर भी अनेक अलङ्कारों की कल्पना की गयी । इसलिए, काव्य के अलङ्कारों का विभिन्न वर्गों में विभाजन आवश्यक जान पड़ा । अलङ्कारों के आश्रयभूत शब्द और अर्थ के आधार पर अलङ्कारों के दो स्थूल विभाग तो अलङ्कार-धारणा के आरम्भिक काल से ही स्पष्ट हो चुके थे; पर अनेक नवीन अलङ्कारों की स्वीकृति के साथ अर्थालङ्कार के वर्ग-विभाजन की भी आवश्यकता हुई । कुछ आचार्यों ने शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार के अतिरिक्त उभयालङ्कार की भी कल्पना की है । एकाधिक अलङ्कारों के एकत्र सद्भाव में मिश्रालङ्कार भी स्वीकृत है । शब्दालङ्कारों के वर्ग-विभाजन की न तो आवश्कता हुई और न उसमें अधिक कठिनाई है । कारण है, उनकी संख्या की परिमिति । हाँ, वक्रोक्ति को शब्दालङ्कार माना जाय या अर्थालङ्कार, इस
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अलङ्कारों का वर्गीकरण
[ ३५९
सम्बन्ध में दो मत अवश्य रहे हैं। उभयालङ्कार की सत्ता मानने के प्रश्न पर भी आचार्यों में मतैक्य नहीं। अलङ्कारों के एकत्र सद्भाव के संसृष्टि और सङ्कर, दो ही रूम हैं। अतः, उनके वर्गीकरण में भी कोई समस्या नहीं। समस्या है केवल अर्थालङ्कारों के वर्गीकरण की। संस्कृत तथा हिन्दी के अनेक सशक्त आलङ्कारिकों ने अलङ्कारों के वर्गीकरण का प्रयास किया है, फिर भी वह समस्या पूर्णतः सुलझ नहीं पायी। इसका कारण स्पष्ट है। रुद्रट, रुय्यक-जैसे अलङ्कार-शास्त्र के उद्भट व्याख्याताओं की शक्ति में तो सन्देह नहीं किया जा सकता; पर अलङ्कार-वर्गीकरण में उनकी सीमा भी स्पष्ट है। उन आचार्यों ने अपने स्वीकृत अलङ्कारों का ही वर्गीकरण प्रस्तुत किया है, जो स्वाभाविक ही है। आज केवल वे ही अलङ्कार स्वीकृत नहीं हैं, जो उन आचार्यों द्वारा निरूपित थे। परवर्ती आचार्यों के द्वारा कल्पित कुछ नवीन अलङ्कार भी स्वीकृत हैं। अतः, आधुनिक पाठकों को उन नवीन अवर्गीकृत अलङ्कारों के वर्गीकरण में कठिनाई हो सकती है। पिछले अध्याय में हम देख चुके हैं कि अलङ्कार के सम्बन्ध में आचार्यों के दृष्टि-भेद से अलङ्कार की संख्या में बहुत भेद रहा है। केवल संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र में ही लगभग दो सौ अलङ्कारों की कल्पना की गयी। हिन्दी में भी अठारह-उन्नीस नवीन अलङ्कारों की कल्पना की गयी। ये सभी अलङ्कार स्वीकार्य ही हों, यह बात नहीं। बीच-बीच में अलङ्कारों की संख्या के नियमन-संयमन की भी चेष्टा होती रही। वामन, कुन्तक आदि के प्रयास इस दृष्टि से विचारणीय हैं। यों तो वाग्विकल्प के अनन्त भेदों के आधार पर अलङ्कार के अनन्त भेदों की सम्भावना आनन्दवर्धन के द्वारा, उक्ति-भेद की अनन्तता के आधार पर अलङ्कारों की अनन्तता की सम्भावना दण्डी के द्वारा और हृदयावर्जक या अलङ कृत अर्थ की व्यापकता के आधार पर अलङ्कारों की व्यापकता रुद्रट के द्वारा स्वीकृत है; पर असंख्य अलङ्कार-भेदों को प्रमुख अलङ्कार-रूपों में परिमित और परिभाषित करना अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से उपयोगी है। अनन्त उक्ति-भेद में अनन्त अलङ्कार का सद्भाव मान लेने-मात्र से अलङ्कार की स्पष्ट धारणा नहीं बन सकती। अलङ्कार-विषयक संख्या-भेद का प्रमुख कारण. यह है कि कुछ आचार्यों ने अलङ्कार और अलङ्कार्य का स्पष्ट भेद स्वीकार किया, तो अन्य आचार्यों में वह भेद उपेक्षित हो गया। कुछ आचार्यों ने केवल साधर्म्यमूलक अलङ्कारों की सत्ता स्वीकार की, तो अन्य आचार्यों ने अन्य चमत्कार-जनक उक्तियों को भी अलङ्कार माना। कुछ अलङ्कारवादी आचार्यों
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३६० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
ने रस-भाव आदि को भी अलङ्कार की सीमा में समेट लिया। अलङ्कारविषयक इस दृष्टि-भेद के कारण अलङ्कारों के त्याग-ग्रहण का क्रम चलता रहा । इसीलिए, किसी एक आचार्य ने सवा सौ से अधिक अलङ्कार स्वीकार नहीं किये; पर सभी कल्पित अलङ्कारों की संख्या प्रायः दो सौ तक चली गयी। अलङ्कारों के वर्गीकरण के लिए स्वीकार्य अलङ्कारों का निर्धारण होना चाहिए और तब वर्गीकरण के ऐसे आधार का निर्णय होना चाहिए, जिसमें सभी स्वीकृत अलङ्कारों का वर्ग-विभाजन सम्भव हो सके।
अलङ्कारों का विभाजन कई दृष्टियों से सम्भव है। प्रस्तुत अध्याय में हम संस्कृत एवं हिन्दी-अलङ्कार-शास्त्र के आचार्यों के अलङ्कार-वर्गीकरण की परीक्षा कर सभी स्वीकार्य अलङ्कारों के वर्गीकरण का प्रयास करेंगे। ____ आश्रय के आधार पर अलङ्कारों के वर्गीकरण की बात आचार्यों के मन में सबसे पहले आयी। आचार्य भरत के यमक-लक्षण में-शब्दाभ्यास मेंशब्दालङ्कारत्व की धारणा निहित थी। भामह, दण्डी आदि ने शब्द और अर्थ के अलङ्कारों का पृथक्-पृथक् विवेचन कर दोनों के स्वतन्त्र वर्ग स्पष्ट कर दिये । कुछ आचार्यों ने शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार के साथ उभयालङ्कार की भी कल्पना की। उभयालङ्कार को शब्दार्थालङ्कार भी कहा गया है । कुछ आचार्यों ने मिश्रालङ्कार की भी चर्चा की है। उभयालङ्कार और मिश्रालङ्कार की धारणा सर्वसम्मत नहीं है । हाँ, अनेक अलङ्कारों के, सङ्कर
और संसृष्टि रूप में-अङ्गाङ्गिभाव तथा परस्पर स्वतन्त्र भाव से-एकत्र सद्भाव की कल्पना सर्वमान्य हुई है। सङ्कर और संसृष्टि की गणना अलङ्कार के रूप में होती रही है; पर वस्तुतः वे अलङ्कार नहीं, अनेक अलङ्कारों की एक आश्रय में स्थिति की विभिन्न प्रक्रिया-मात्र हैं। इन्हें सङ्कीर्ण भी कहा जाता है। सङ्कीर्ण या संसृष्टि-सङ्कर में अलङ्कारों का वर्गीकरण न तो सम्भव है और न आवश्यक ही। एक आश्रय में कोई भी दो या उससे अधिक अलङ्कार परस्पर निरपेक्ष या परस्पर सापेक्ष रूप में रह सकते हैं। अतः शब्दालङ्कार, अर्थालङ्कार, उभयालङ्कार तथा मिश्रालङ्कार-वर्गों में अलङ्कारविभाग परीक्षणीय है। ___संस्कृत के प्रामाणिक आलङ्कारिकों ने शब्द और अर्थ के आधार पर ही दो वर्गों में काव्यालङ्कारों का विभाजन किया है। भोज और अग्निपुराणकार ने उभयालङ्कार की कल्पना की तो विद्यानाथ ने शब्दालङ्कार एवं अर्थालङ्कार के साथ मिश्रालङ्कार-वर्ग मान लिया। भोज और
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अलङ्कारों का वर्गीकरण
[ ३६१ अग्निपुराणकार की उभयालङ्कार-धारणा तथा विद्यानाथ की मिश्रालङ्कारधारणा का औचित्य विचारणीय है ।
'अग्निपुराण' में यह मान्यता प्रकट की गयी है कि ऐसे अलङ्कार जो शब्द और अर्थ को एक साथ विभूषित करते हों, उभयालङ्कार कहे जाते हैं । उदाहरण से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है । उभयालङ्कार की स्थिति 'अग्निपुराण' में उस हार के समान मानी गयी है, जो एक साथ वक्ष और ग्रीवा, दोनों को अलङकृत करता है । स्पष्टतः, अग्निपुराणकार ने उभयालङ्कार का अभिप्राय समन्वित रूप से शब्द और अर्थ, दोनों को अलङ्कृत करने वाले अलङ्कारों से माना था । ये उभयालङ्कार स्वतन्त्र शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार के एकत्र सन्निवेश की स्थिति से - जैसा कि संसृष्टि और सङ्कर में होता हैसर्वथा भिन्न हैं । अतः, सङ्कर और संसृष्टि को उभयालङ्कार मानने की भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए । संसृष्टि तथा सङ्कर में एकाधिक अलङ्कार एक ही आश्रय को—दो शब्दालङ्कारों की संसृष्टि केवल शब्द तथा दो अर्थालङ्कारों की संसृष्टि केवल अर्थ को — अलङ कृत करने वाले हो सकते हैं; पर इसके विपरीत उभयालङ्कार में एक ही अलङ्कार दो आश्रयों को — शब्द और अर्थ को अलङ्कृत करता है । 'अग्निपुराण' में प्रशस्ति, कान्ति, औचित्य आदि को उभयालङ्कार-वर्ग में रखा गया है, जिनका अलङ्कारत्व ही सन्दिग्ध है ।
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भोज ने अर्थालङ्कार के रूप में परम्परा से स्वीकृत उपमा, रूपक आदि अलङ्कारों को उभयालङ्कार वर्ग में परिगणित कर उभयालङ्कार की धारणा को ही अस्पष्ट कर दिया है । यदि उपमा आदि की अभिव्यक्ति शब्द और अर्थ ; दोनों से मानी जाय, तो भोज के अनेक शब्दालङ्कारों और अर्थालङ्कारों की "स्थिति भी इससे भिन्न नहीं रह जायगी । वस्तुतः, शब्द और अर्थ परस्पर इतने सम्पृक्त हैं कि दोनों को सर्वथा पृथक् नहीं किया जा सकता । शब्दालङ्कारों के निर्धारण में भी तो अर्थ का विचार होता ही है । अर्थ-भेद से शब्दावृत्ति में तथा तात्पर्य- मात्र भेद से शब्दावृत्ति में अलग-अलग शब्दालङ्कार के अस्तित्व का निर्णय भी तो अर्थ- विचार की अपेक्षा रखता ही है । समासोक्ति आदि अर्थालङ्कार भी विशेषण - पद पर ही निर्भर हैं । अतः, आचार्यों ने शब्दालङ्कारत्व तथा अर्थालङ्कारत्व के निर्णय का आधार बड़ी सावधानी से स्थिर किया है । भोज ने शब्द अर्थ के आधार पर अलङ्कार- विभाजन के उस विवेक को अस्पष्ट कर दिया ।
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३६२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
भारतीय अलङ्कार-शास्त्र में श्लेष, पुनरुक्तवदाभास, वक्रोक्ति आदि अलङ्कारों का स्वरूप ऐसा है कि उनके शब्दालङ्कारत्व तथा अर्थालङ्कारत्व के निर्णय में कठिनाई होती रही है। कारण यह है कि वे अलङ्कार शब्द और अर्थ, दोनों की अपेक्षा रखते हैं। श्लेष के सम्बन्ध में तो आचार्यों में एक समझौता हो गया। उसके दो रूप मान कर-जो तत्त्वतः एक दूसरे से बहुत भिन्न नहीं-एक को शब्दालङ्कार तथा दूसरे को अर्थालङ्कार मान लिया गया। इस प्रकार श्लेष शब्दालङ्कार भी है और अर्थालङ्कार भी। उभयालङ्कार के रूप में भी उसके स्वरूप की कल्पना की गयी है।'
पुनरुक्तवदाभास में शब्द-विशेष के प्रयोग से पुनरुक्ति का भान होता है । उस शब्द के पर्यायवाची शब्द का प्रयोग यदि किया जाय तो पुनरुक्ति की प्रतीति नहीं होगी और फलतः उसका अलङ्कारत्व ही समाप्त हो जायगा। अभिप्राय यह कि पुनरुक्तवदाभास में शब्दों का पर्याय-परिवर्तनासहत्व रहता है; अतः वह शब्दालङ्कार है पर साथ ही उसमें विरोध-परिहार की भी अपेक्षा रहती है, जो अर्थ-सापेक्ष होता है । कुछ शब्द में पर्याय-परिवर्तन किये जाने पर भी अर्य के आधार पर पुनरुक्ति का आभास रह जाता है। इसलिए वह अर्थालङ्कार भी है। यही कारण है कि कुछ आचार्यों ने उसे शब्दालङ्कारवर्ग में परिगणित किया है तो अन्य आचार्यों ने अर्थालङ्कार-वर्ग में। मम्मट, विश्वनाथ आदि ने उसे स्पष्टतः उभयालङ्कार स्वीकार किया है।
वक्रोक्ति की भी यही स्थिति रही है। इसमें वक्ता के अन्यार्थक वाक्य का श्रोता अन्य अर्थ मान कर उत्तर देता है। यह या तो अनेकार्थ-वाचक शब्द के कारण होता है या कण्ठध्वनि-भेद के कारण ( क्रमशः श्लेषवक्रोक्ति तथा काकुवक्रोत्ति)। वक्रोक्ति का श्लेष-भेद तो शब्दाश्रित माना जा सकता है; पर काकु-भेद अर्थाश्रित है। विश्वनाथ ने काकुवक्रोक्ति में भी शब्दगत चमत्कार का प्राधान्य मान कर उसे शब्दालङ्कार ही माना है।
१. तत्रोदात्तादिस्वरभेदात् प्रयत्नभेदाच्च शब्दान्यत्वे शब्दश्लेषः; यत्र प्रायेण
पदभङ्गो भवति । अर्थश्लेषस्तु यत्र स्वरादिभेदो नास्ति । अतएव न तत्र सभङ्गादत्वम् । सङ्कलनया तूभयश्लेषः । -हय्यक, अलङ्कार
सर्वस्व, पृ० ११२ २. मम्मट, काव्यप्रकाश, ६, १२४ पृ० २१६ तथा विश्वनाथ, साहित्यदर्पण पृ० ५५८ ( मम्मट ने इसके शब्दनिष्ठ तथा शब्दार्थोभयनिष्ठ; दोनों रूपों की कल्पना की है।)
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अलङ्कारों का वर्गीकरण
[ ३६३ प्रहेलिका आदि गूढार्थवाची शब्दों पर अवलम्बित चित्रालङ्कार भी शब्दार्थाश्रित ही हैं। अतः, शब्द और अर्थ उभय आश्रयों पर एक साथ आश्रित श्लेष, पुनरुक्तवदाभास, वक्रोक्ति तथा प्रहेलिका आदि अर्थ-चित्र को उभयालङ्कार-वर्ग में परिगणित किया जाना चाहिए । अर्थचित्र में 'अर्थ' विशेषण का प्रयोग करने पर भी आचार्य मम्मट ने शब्दालङ्कार-निरूपण के सन्दर्भ में उसका विवेचन किया है। इससे इस मत की पुष्टि होती है कि मम्मट अर्थचित्र को शब्द और अर्थ के बीच की स्थिति में उभयालङ्कार की स्थिति में-मानते थे। श्लेष, पुनरुक्तवदाभास, वक्रोक्ति आदि को शब्दार्थाथित होने के कारण उभयालङ्कार-वर्ग में परिगणित करना युक्तिसङ्गत तो है ही, उनके शब्दालङ्कारत्व या अर्थालङ्कारत्व के विषय में परम्परागत मतभेद को दूर करने की दृष्टि से उपादेय भी है। उभय-सापेक्ष अलङ्कारों में से प्राधान्य के आधार पर कुछ को शब्दालङ्कार तथा कुछ को अर्थालङ्कार माना गया है।
मिश्रालङ्कार _ विद्यानाथ ने शब्दालङ्कार और अलङ्कार के अतिरिक्त अलङ्कार का तीसरा वर्ग, मिश्रालङ्कार-वर्ग, स्वीकार किया है और इस तीसरे वर्ग में संसृष्टि और सङ्कर को रखा है । संसृष्टि और सङ्कर में अन्य आचार्यों की तरह विद्यानाथ ने भी अनेक शब्दालङ्कारों, अनेक अर्थालङ्कारों तथा कुछ शब्दालङ्कारों और अर्थालङ्कारों का समानाश्रयत्व स्वीकार किया है। विश्वनाथ ने 'साहित्यदर्पण' में सङ्कर और संसृष्टि को अलङ्कारों का मिश्रित रूप कहा है। इसलिए उन अलङ्कारों को मिश्रालङ्कार-वर्ग में रखा गया है। हम इस तथ्य पर विचार कर चुके हैं कि संसृष्टि और सङ्कर का रूप स्थिर नहीं किया जा सकता । काव्य का कोई भी अलङ्कार दूसरे अलङ्कार के साथ अङ्गाङ्गिभाव से या परस्पर निरपेक्षभाव से समान आश्रय में रह सकता है । अतः, सङ्कर और संसृष्टि को शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार से स्वतन्त्र विशेष अलङ्कार नहीं माना जा सकता। शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार वर्गों में गिने जाने वाले अलङ्कार ही संसृष्टि और सङ्कर में रहा करते हैं। संसृष्टि में तो एक आश्रय में अनेक अलङ्कार परस्पर स्वतन्त्र भाव से रहा करते हैं। अतः, अलङ्कारों का मिश्रण भी नहीं माना जाना चाहिए। सङ्कर का भी अलङ्कार-विशेष के मिश्रण से कोई विशेष प्रकार का स्वरूप निर्धारित नहीं किया गया है । अतः, उसे भी
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३६४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
स्वतन्त्र अलङ्कार मान कर उसके लिए स्वतन्त्र अलङ्कार-वर्ग की कल्पना आवश्यक नहीं।
संस्कृत तथा हिन्दी-अलङ्कार-शास्त्र में दो अलङ्कारों के तत्त्व के मिश्रण से कुछ निश्चित स्वरूप वाले अलङ्कारों की कल्पना की गयी है । उनकी स्थिति - संसृष्टि और सङ्कर से भिन्न है। उनमें दो स्वतन्त्र अलङ्कारों के तत्त्व का ग्रहण होने पर भी उनके निश्चित स्वरूप का निर्धारण कर उन्हें स्वतन्त्र अस्तित्व दिया गया है। दीपक और एकावली के तत्त्वों के मिश्रण से मालादीपक; उपमा और रूपक के तत्त्व से उपमारूपक आदि अलङ्कारों का तथा अपह्न ति और उत्प्रक्षा के मिश्रण से सापह्नवोत्प्रेक्षा आदि अनेक अलङ्कार-भेदों का अध्ययन मिश्रालङ्कार-वर्ग में होना चाहिए। मालादीपक आदि का स्वतन्त्र अस्तित्व संस्कृत के समर्थ आलङ्कारिकों ने भी माना है। उपमा-रूपक की कल्पना सर्वमान्य नहीं हुई है; पर हमने पिछले अध्याय में इस तथ्य पर 'विचार किया है कि अनेक अलङ्कारों की कल्पना तत्तदलङ्कारों के तत्त्वों के मिश्रण से की गयी है। हमारी मान्यता है कि वैसे मिश्रित स्वभाव वाले अलङ्कारों का अध्ययन ही मिश्रालङ्कार-वर्ग में किया जाना चाहिए।
उभयालङ्कार से मिश्रालङ्कार का भेद स्पष्ट है। उभयालङ्कार एक साथ शब्द और अर्थ-दोनों पर आश्रित रह कर दोनों को अलङ कृत करते हैं, जैसा कि अग्निपुराणकार के कथन से स्पष्ट है। पर, मिश्रालङ्कार में दो अलङ्कारों के तत्त्व के मिश्रण से नया अलङ्कार-रूप बन जाता है। यह मिश्रण केवल शब्दालङ्कारों के तत्त्व का भी हो सकता है और केवल अर्थालङ्कारों के तत्त्व का भी । शब्द और अर्थ के अलङ्कारों के परस्पर मिश्रण से नवीन अलङ्कार बन सकता है। सङ्कर और संसृष्टि को इस वर्ग में नहीं रख कर अलग वर्ग में रखा जाना चाहिए । कारण यह है कि यदि उन्हें विश्वनाथ, “विद्यानाथ आदि के मतानुसार अनेक अलङ्कारों के मिश्रण से बने स्वतन्त्र अलङ्कार' मान भी लिया जाय, तो भी विभिन्न अलङ्कारों के तत्त्वों के मिश्रण से आविर्भूत मालादीपक आदि मिश्रालङ्कारों से उनका एक बड़ा भेद रह जायगा। वह यह कि जहाँ मालादीपक में दीपक और एकावली; इन दो
१. यद्यत एवालङ्काराः परस्परविमिश्रिताः। तदा पृथगलङ्कारौ संसृष्टिः सङ्करस्तथा।
-विश्वनाथ, साहित्य-दर्पण, १०, १२६ विद्यानाथ का प्रतापरुद्रयशोभूषण, पृ० ४७२ भी द्रष्टव्य
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अलङ्कारों का वर्गीकरण
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का ही मिश्रण नियत होने से उस अलङ्कार का स्वरूप निर्धारित है, वहाँ सङ्कर और संसृष्टि में एक से अधिक किन्हीं भी अलङ्कारों के मिश्रण की सम्भावना होने से उनका स्वरूप-निर्धारण सम्भव नहीं। अतः, नियत-स्वभाव तथा अनियत-स्वभाव अलङ्कारों का अध्ययन स्वतन्त्र वर्गों में किया जाना चाहिए । संसृष्टि और सङ्कर का विवेचन कुछ आचार्यों ने 'सङ्कीर्ण' शीर्षक में किया है। इसलिए अलङ्कारों की संसृष्टि तथा उनके सङ्कर को सङ्कीर्ण अलङ्कार-वर्ग में रखा जा सकता है। आश्रय-भेद के आधार पर अलङ्कारों के निम्नलिखित पाँच वर्गों की कल्पना की जा सकती है
१. शब्दालङ्कार-वर्ग २. अर्थालङ्कार-वर्ग ३. उभयालङ्कार-वर्ग [४. मिश्रालङ्कार वर्ग तथा
1 ५. सङ्कीर्ण अलङ्कार-वर्ग इन में प्रथम तीन का विभाजन तो केवल उनके आश्रय-भेद के आधार पर है; पर चौथे और पाँचवें वर्गों की कल्पना का आधार तत्तदलङ्कार-तत्त्वों का मिश्रण है। चौथे वर्ग के अलङ्कारों में दो अलङ्कारों के मिश्रण से नियत-स्वभाव विशेष अलङ्कार बन जाता है; पर पांचवें वर्ग में एक आश्रयगत तत्तदलङ्कारों की विशेष प्रकार की स्थिति का ही अध्ययन किया जाता है। शब्दालङ्कार : ___ शब्दालङ्कार में शब्द का चमत्कार प्रमुख रूप से रहता है। इसमें अर्थ: का विचार सर्वथा नहीं होता हो, यह बात नहीं। लाटानुप्रास में तात्पर्यमात्र के भेद से शब्द और अर्थ; दोनों की आवृत्ति अपेक्षित होती है। यमक में एक-से शब्द में अर्थ का भेद रहना आवश्यक माना जाता है। इस प्रकार शब्दालङ्कार में भी अर्थ का विचार रहता है; पर अर्थालङ्कार से इसका भेद यह है कि यह शब्द पर आश्रित रहता है। फलतः, यह अपने आश्रयभूत शब्द का पर्याय-परिवर्तन सहन नहीं कर सकता। अतः, अन्वय-व्यतिरेक से यह सिद्ध किया गया है कि किसी शब्द के स्थान पर उसका पर्यायवाची शब्द रख देने पर यदि अलङ्कारत्व नष्ट हो जाता है तो वह शब्दालङ्कारः होगा। पर्याय-परिवर्तन किये जाने पर भी यदि अलङ्कारत्व नष्ट नहीं होता तो उसे शब्दालङ्कार नहीं माना जा सकता।
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-३६६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अर्थालङ्कार
शब्दालङ्कार के विपरीत अर्थालङ्कार शब्द के अर्थ पर आश्रित रहता है । अतः, एक शब्द की जगह उसी अर्थ के वाचक दूसरे शब्द को रख देने पर भी अलङ्कारत्व की हानि नहीं होती । कारण यह है कि शब्द के पर्यायपरिवर्तन किये जाने पर भी अर्थ तो वही रह जाता है । अतः, अर्थ में परिवर्तन नहीं होने के कारण अर्थाश्रित अलङ्कार का उस शब्द - परिवर्तन से कुछ नहीं बिगड़ता । इसलिए, पर्याय - परिवर्तनासहत्व शब्दालङ्कार का तथा " परिवृत्तिसहत्व अर्थालङ्कार का व्यावर्त्तक है ।
शब्द, अर्थ, शब्दार्थोभय, मिश्र तथा सङ्कीर्ण-वर्गों में अलङ्कार का - विभाजन स्थूल है । इससे किसी अलङ्कार की प्रकृति का पता नहीं चलता । संस्कृत तथा हिन्दी के अनेक आचार्यों ने अलङ्कार के मूल तत्त्वों के • आधार पर वर्ग - विभाजन किया है । नीचे हम उन आचार्यों के वर्गीकरण - का समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर रहे हैं ।
अलङ्कारों के संख्या-प्रसार के साथ अर्थालङ्कार के व्यावर्तक दो तत्त्वों का प्रथम सङ्केत आचार्य भामह के 'काव्यालङ्कार' में मिलता है । शब्द - और अर्थ के अलङ्कारों का विभाजन तो आचार्य भरत के 'नाट्यशास्त्र' में - ही सङ्केतित था । ' भरत और भामह के बीच की अवधि में जिन अर्थालङ्कारों की कल्पना की गयी, उनके दो मूल तत्त्वों का निर्देश आचार्य • भामह ने किया है । वे हैं - वक्रोक्ति तथा स्वभावोति । वक्रोक्ति से भामह का अभिप्राय अतिशयोक्ति का था । इसलिए उन्होंने अतिशयोक्ति के सन्दर्भ में वक्रोक्ति शब्द का उल्लेख किया है । इस प्रकार भामह के पूर्व ही वस्तु के स्वाभाविक वर्णन में तथा उसके अतिशयपूर्ण कथन में क्रमशः स्वभावोक्तिमूलक तथा अतिशयोक्ति या वक्रोक्तिमूलक अलङ्कारों का सद्भाव स्वीकृत था । अलङ्कार के विधायक इन दो मूल तत्त्वों का पता होने पर भी भामह ने उक्त आधार पर अलङ्कारों के वर्ग-विभाजन की आवश्यकता नहीं समझी। कारण यह है कि अलङ्कार के सम्बन्ध में उनका दृष्टिकोण स्पष्ट था । वे वक्रोक्ति को अर्थ की चारुता का आवश्यक हेतु मानते थे । अतः, उनके अनुसार वक्रोक्ति या अतिशयोक्ति के अभाव में अलङ्कारत्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती । केवल वक्रोक्तिमूलक अलङ्कार ही काव्यालङ्कार
१. द्रष्टव्य - अभिनव गुप, लोचन, पृ० ५
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अलङ्कारों का वर्गीकरण
[ ३६७ के रूप में स्वीकार्य हैं । जिसमें वक्रोक्ति का अभाव था उसके अलङ्कारत्व का भामह ने खण्डन किया । हेतु, सूक्ष्म तथा लेश के अलङ्कारत्व को अस्वीकार करने का यही रहस्य है ।' स्वभावोक्ति अलङ्कार का उल्लेख कर भामह ने कहा है कि कुछ लोगों ने स्वभावोक्ति को भी अलङ्कार माना है । २ स्पष्ट है कि स्वभावोक्ति का अलङ्कारत्व भामह को मान्य नहीं था । भामह के द्वारा स्वीकृत सभी अलङ्कार वक्रोक्तिमूलक ही थे । इसलिए उनके सामने वक्रोक्ति और स्वभावोक्ति-वर्गों में अलङ्कार के विभाजन का प्रश्न नहीं था; पर स्वभावोक्ति आदि के उल्लेख से यह स्पष्ट है कि भामह अपने पूर्ववर्ती अज्ञातनाम आचार्यों के द्वारा निरूपित ऐसे अलङ्कारों के स्वरूप से भी परिचित थे, जिनका मूलभूत तत्त्व वक्रोक्ति या अतिशयोक्ति नहीं, वरन् स्वभावोक्ति था । स्वभावोक्ति तथा स्वभाव - कथन- मूलक अन्य अलङ्कारों के अलङ्कारत्व का प्रश्न विवादग्रस्त रहा है । भामह के उत्तरवर्ती वक्रोक्तिवादी आचार्य कुन्तक ने स्वभावोक्ति आदि के अलङ्कारत्व के खण्डन के लिए तर्क के तीक्ष्ण अस्त्र का प्रयोग किया; फिर भी अलङ्कार - शास्त्र की परम्परा में स्वभावोक्ति का अलङ्कारत्व स्वीकार किया जाता रहा । इतना ही नहीं, कुछ आचार्यों ने स्वभावोक्ति को काव्यालङ्कार में प्रथम स्थान देने का भी प्रयास किया है । यह तो वस्तुतः स्वभावोक्ति के प्रति अतिगामी पक्षपात है; फिर भी संस्कृत तथा हिन्दी - अलङ्कार - शास्त्र की सुदीर्घ परम्परा में स्वीकृत स्वभावोक्ति - जैसे अलङ्कार के अलङ्कारत्व पर आधुनिक अलङ्कारशास्त्र का छात्र सन्देह नहीं करता । परम्परागत मान्यता स्वतः ही प्रमाण • बन जाती है ।
स्वभावोक्ति को तो अलङ्कार रूप में स्वीकृति मिली ही -पीछे चल कर अनेक ऐसे अलङ्कार स्वीकृत हुए हैं, जिनके मूल में वस्तुरूप का स्वाभाविक वर्णन रहता है । तद्गुण, मीलित, अनुगुण, उदात्त, भाविक, भाविकच्छवि, अनुमान प्रमाण आदि अलङ्कारों के मूल में वस्तु-स्वभाव कथन ही है । ऐसे अलङ्कारों की संख्या अब इतनी अधिक हो गयी है कि इन्हें स्वभावोक्ति के • स्वतन्त्र वर्ग में वर्गीकृत करने की आवश्यकता है । स्वभावोक्ति और वक्रोक्ति
१. भामह, काव्यालङ्कार, २, ८५
२. वही, २, ८६
३. वही, २, ६३
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३६८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
या अतिशयोक्ति के मूल-तत्त्वों के आधार पर अर्थालङ्कारों के दो प्रमुख वर्गों की कल्पना की जा सकती है। ___अर्थालङ्कारों का विभाजन आचार्यों ने वाच्य और प्रतीयमान वर्गों में भी किया है। विद्यानाथ ने भी प्रतीयमान वास्तव, प्रतीयमान औपम्य आदि वर्गों में ऐसे अलङ्कारों को रखा है, जिनमें अर्थ प्रतीयमान रहते हैं।' अपह्न ति, उत्प्रेक्षा आदि के वाच्य और गम्य-भेद किये गये हैं। इस प्रकार एक ही अलङ्कार वाच्य भी होता है और गम्य भी। वाच्य और व्यङग्य या प्रतीयमान वर्गों में अलङ्कार-विभाजन में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि व्यङग्य तथा वाच्य पर आश्रित अलङ्कार पृथक्-पृथक् नहीं हैं। डॉ० ओमप्रकाश शर्मा ने अपने शोध-प्रबन्ध में व्यङग्य और अव्यङग्य वर्गों में अलङ्कारों के विभाजन का प्रयास किया है; पर वे इस क्षेत्र में कोई नवीन स्थापना नहीं कर सके । उन्हें उक्त दो शीर्षों में विभाजन के क्रम में प्राचीन आचार्यों के द्वारा निर्धारित सादृश्यमूलक, विरोधमूलक, शृङ्खलामूलक आदि उपवर्गों का सहारा लेना ही पड़ा है। उलटे नवीन स्थापना के मोह में उन्होने कुछ भ्रान्त वर्गीकरण भी कर दिया है। उत्प्रेक्षा आदि को उन्होंने केवल व्यङ्ग य-मूलक अलङ्कारवर्ग में रखा है ।२ उत्प्रेक्षा गम्या भी होती है; पर उसके वाच्य-भेद को व्यङ ग्यमूलक अलङ्कार-वर्ग में रखने में क्या औचित्य हो सकता है ?
रुद्रट, रुय्यक आदि आचार्यों ने अर्थालङ्कार के कुछ मूल तत्त्वों के आधार पर अलङ्कार का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। उनकी अलङ्कारवर्ग-धारणा परीक्ष्य है। रुद्रटकृत वर्गीकरण
काव्यालङ्कार को तत्तदलङ्कार-तत्त्वों के आधार पर वर्गीकृत करने का प्रयास आचार्य रुद्रट ने किया। उनके पूर्व अलङ्कारों के विधायक तथा व्यावर्तक वक्रोति, सादृश्य आदि तत्त्वों का निर्देश अवश्य मिलता है; पर उन मूलभूत तत्त्वों के आधार पर अलङ्कारों के वर्गों की कल्पना नहीं की गयी थी। उद्भट ने 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' में अलङ्कारों को छह वर्गों में अवश्य १. अर्थालङ्काराणां चातुर्विध्यम् । केचित् प्रतीयमानवास्तवः केचित् प्रतीय
मानौपम्याः। केचित् प्रतीयमानरसभावादयः। केचिदस्फुटप्रतीयमाना
इति ।-विद्यानाथ, प्रतापरुद्रयशोभूषण, पृ० ३३७ २. ओमप्रकाश शर्मा, रीतिकालीन अलङ्कार-साहित्य, पृ० ४६६
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अलङ्कारों का वर्गीकरण
३६६ प्रस्तुत किया है; पर उनके वर्ग-विभाग का कोई स्पष्ट आधार नहीं । अलङ्कार के मूल तत्त्व के आधार पर तो वह वर्ग विभाजन नहीं ही माना जा सकता—वह शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार के स्थूल विभाग के आधार पर भी विभाजित नहीं है । प्रथम वर्ग में ही शब्दालङ्कार के साथ उपमा, रूपक, दीपक तथा प्रतिवस्तूपमा अर्थालङ्कारों को प्रस्तुत किया गया है । यह ठीक है कि आचार्य उद्भट ने पुनरुक्तवदाभास, अनुप्रास आदि से अलग इन अर्थालङ्कारों का स्वभाव माना है; पर यह स्पष्ट है कि उन्होंने ग्रन्थ के वर्गों का विभाजन न तो अलङ्कार के आश्रयभूत शब्दार्थ के आधार पर किया है और न अलङ्कार के मूल तत्त्वों के आधार पर ही । सम्भव है कि उन वर्गों
अलङ्कार के विकास के एक-एक क्रम का सङ्क ेत उद्भट ने देना चाहा हो, या यह भी सम्भव है कि एक-एक वर्ग के अलङ्कारों को वे विशेष विशेष आलङ्कारिकों के द्वारा कल्पित मानते हों; पर प्रमाण के अभाव में इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता । 'काव्यालङ्कारसारसङग्रह' का वर्ग-विभाग अलङ्कारों के वर्गीकरण की दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं रखता । रुद्रट का वर्गीकरण ऐतिहासिक दृष्टि से तो प्रथम है ही - तत्त्व - निरूपण की दृष्टि से भी वह महत्त्वपूर्ण है ।
आचार्य रुद्रट ने अपने 'काव्यालङ्कार' में विवेचित अलङ्कारों को आश्रय के आधार पर शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार-वर्गों में विभाजित कर अर्थालङ्कारों को मूलतत्त्वों के आधार पर निम्नलिखित चार वर्गों में विभक्त कर उपस्थापित किया है— ( १ ) वास्तव - वर्ग, ( २ ) औपम्य - वर्ग, (३) अतिशय-वर्ग तथा ( ४ ) श्लेष - वर्ग ।
रुद्रट ने उक्त चार वर्गों में अलङ्कारों के विभाजन का सिद्धान्त स्पष्ट कर दिया है । उनके अनुसार जिन अलङ्कारों में सादृश्य, अतिशय तथा श्लेष को छोड़ केवल वस्तु के स्वरूप का स्पष्ट वर्णन होता है, वे वास्तवमूलक अलङ्कार हैं । जिन अलङ्कारों में वस्तु-विशेष का अन्य वस्तु के साथ सादृश्य से सम्यक् रूपेण तुलनात्मक प्रतिपादन किया जाता है, उन्हें औपम्यमूलक अलङ्कार कहा जाता है । जिन अलङ्कारों में लोक- प्रसिद्धि के बाध के
१. वास्तवमिति तज्ज्ञेयं क्रियते वस्तुस्वरूपकथनं यत् । पुष्टार्थमविपरीत निरुपममनतिशयमश्लेषम् ॥
- रुद्रट, काव्यालङ्कार, ७, १० २. सम्यक् प्रतिपादयितुं स्वरूपतो वस्तु तत्समानमिति । वस्त्वन्तरमभिदध्याद्वक्ता यस्मिंस्तदौपम्यम् ॥ - वही, ८, १
२४
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३७० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण कारण अर्थ, धर्म आदि के नियम का विपर्यय होता है और अतिलौकिक वर्णन किया जाता है, उन्हें अतिशयमूलक अलङ्कार कहते हैं। और जिन अलङ्कारों में अनेकार्थक पदों से वाक्य-योजना की जाती है वे श्लेषमूलक अलङ्कार हैं। हम पिछले अध्याय में वर्गानुक्रम से रुद्रट के द्वारा निरूपित अलङ्कारों का अध्ययन कर चुके हैं। यहाँ पुनरुक्ति के आक्षेप की आशङ्का होने पर भी हम अध्ययन की सुविधा के लिए प्रसङ्ग के अनुरोध से उन्हें उक्त वर्गों में पुनः उपस्थापित कर रहे हैं
१. वास्तव-वर्गग अलङ्कार-सहोक्ति, समुच्चय, जाति या स्वभावोक्ति, यथासंख्य, भाव, पर्याय, विषम, अनुमान, दीपक, परिकर, परिवृत्ति, परिसंख्या, हेतु, कारणमाला, व्यतिरेक, अन्योन्य, उत्तर, सार, सूक्ष्म, लेश, अवसर, मीलित तथा एकावली।
२. औपम्य-वर्गगत अलङ्कार-उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अपह्नति, संशय या सन्देह, समासोक्ति, मत, उत्तर, अन्योक्ति या अप्रस्तुतप्रशंसा, प्रतीप, अर्थान्तरन्यास, उभयन्यास, भ्रान्तिमान्, आक्षेप, प्रत्यनीक, दृष्टान्त, पूर्व, सहोक्ति, समुच्चय, साम्य और स्मरण।
३. अतिशय-वर्गगत अलङ्कार-पूर्व, विशेष, उत्प्रेक्षा, विभावना, तद्गुण, अधिक, विरोध, विषम, असङ्गति, पिहित, व्याघात और हेतु।
४. अर्थ-श्लेष-वर्गगत अलङ्कार-इसमें श्लेष के मुख्य दो भेद आते हैंशुद्ध और सङ्कीर्ण । प्रथम के भेद-अविशेष, विरोध, अधिक, वक्र, व्याज, उक्ति, असम्भव, अवयव, तत्त्व तथा विरोधाभास । द्वितीय के भेद-संसृष्टि और सङ्कर । ___इस प्रकार बारह अलङ्कार श्लेषमूलक माने गये हैं—दश शुद्ध और दो सङ्कीर्ण।
रुद्रट के पूर्व भामह ने अलङ्कार को वक्रोक्तिमूलक या अतिशयोक्तिमूलक कहा था। वामन ने सभी अलङ्कारों के मूल में सादृश्य की भावना मानने का आग्रह लेकर सभी अलङ्कारों को औपम्यमूलक मान लिया था और इसीलिए उन्होंने अलङ्कारों की संख्या भी बहुत सीमित कर दी थी। आचार्य रुद्रट ने पूर्वाग्रहमुक्त होकर भामह के अतिशयमूलक अलङ्कारों की सत्ता भी १. यत्रार्थधर्मनियमः प्रसिद्धिबाधाद्विपर्ययं याति । कश्चित्क्वचिदतिलोकं स स्यादित्यतिशयस्तस्य ॥
-रुद्रट, काव्यालङ्कार ६, १ " . २. यत्र कमनेकार्थक्यं रचितं पदैरनेकस्मिन् ।
अर्थ कुरुते निश्चयमर्थश्लेषः स विजेयः ॥ वही, १०, १ .
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अलङ्कारों का वर्गीकरण . . [ ३७१ स्वीकार की, और वामन के औपम्यमूलक अलङ्कारों की भी। उन दोनों के अतिरिक्त वास्तव और श्लेषमूलक अलङ्कार-वर्गों की भी कल्पना उन्होंने की है।
रुद्रट के उक्त चार अलङ्कार-वर्गों में समान व्यपदेश के कुछ अलङ्कार दो वर्गों में परिगणित हैं। उत्तर, सहोक्ति और समुच्चय, वास्तव तथा औपम्य; दोनों वर्गों में रखे गये हैं। हेतु तथा विषम वास्तवमूलक भी माने गये हैं और अतिशयमूलक भी। उत्प्रेक्षा और पूर्व का उल्लेख औपम्यवर्ग में भी है और अतिशयवर्ग में भी। इस प्रकार उक्त सात अलङ्कारों के दो-दो मूल-तत्त्व रुद्रट ने माने हैं और पृथक-पृथक् मूल-तत्त्वों के आधार पर उन्होंने उनके अलग-अलग स्वरूप की कल्पना की है। इस प्रकार वास्तव-वर्ग के उत्तर, सहोक्ति और समुच्चय; औपम्य-वर्ग के क्रमशः उत्तर, सहोक्ति और समुच्चय से नाम्ना अभिन्न होने पर भी स्वरूप-दृष्ट्या भिन्न हैं। यह बात दो-दो वर्गों में आने वाले हेतु, विषम, उत्प्रेक्षा और पूर्व के सम्बन्ध में भी सत्य है। एक अलङ्कार के अलग-अलग वर्गों के आधार पर दो-दो स्वरूपों की अनावश्यक कल्पना उक्त वर्गीकरण की व्यावहारिक कठिनाई से बचने के लिए करनी पड़ी है। यह उस वर्गीकरण की सीमा है। अलङ्कारों के पूर्वनिरूपित स्वरूप का तत्तद् वर्गों में विभाजन ही वर्गीकरण की स्वस्थ पद्धति है। वर्ग के अनुरोध से अलङ्कार-विशेष के नवीन स्वरूप की कल्पना वर्गविभाजन के आधार की अशक्ति या अव्याप्ति का परिचय देती है। अतः, रुद्रट का उक्त वर्गीकरण सर्वथा पूर्ण तो नहीं; पर अलङ्कारों के मूल-तत्त्व का अन्वेषण कर उनके आधार पर अलङ्कार-वर्गों के निर्धारण का प्रथम महत्त्वपूर्ण प्रयास अवश्य है।
रुय्यककृत वर्गीकरण-आचार्य रुय्यक का अलङ्कार-वर्गीकरण के क्षेत्र में महनीय योगदान है। उन्होंने सादृश्य, विरोध, शृङ्खला, न्याय (लोकन्याय तथा शास्त्र-न्याय ), और गूढार्थप्रतीति के आधार पर अपने अलङ्कारों का वर्गीकरण किया है। सादृश्य, विरोध आदि के पुनः कुछ उपखण्ड किये गये हैं।
१. सादृश्यगर्भ-इस वर्ग में सब से अधिक अलङ्कार आते हैं। इसका मूल तत्त्व है साधर्म्य । साधर्म्य के तीन भेद हैं
(क) भेदाभेदतुल्य-प्रधान (ख) अभेद-प्रधान और (ग) गम्यमानौपम्य ,
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३७२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
यह साधर्म्य कहीं वाच्य होता है और कहां प्रतीयमान । उक्त उपवर्गों में सादृश्य- गर्भ अर्थालङ्कारों का विभाजन इस प्रकार किया गया है— भेदाभेदतुल्यप्रधान सादृश्यगर्भ अलङ्कार : - (१) उपमा, (२) उपमेयोपमा, (३) अनन्वय और (४) स्मरण ।
अभेदप्रधान सादृश्यगर्भ अलङ्कारः - (अ) आरोपमूलक – (१) रूपक, (२) परिणाम, (३) सन्देह, (४) भ्रान्ति, (५) उल्लेख तथा ( ६ ) अपह्नति । (आ) अध्यवसायमूलक - ( १ ) उत्प्र ेक्षा एवं (२) अतिशयोक्ति ।
गम्यमान-औपम्य सादृश्यगर्भ अलङ्कार : - ( १ ) तुल्ययोगिता, ( २ ) दीपक, (३) प्रतिवस्तूपमा, (४) दृष्टान्त, (५) निदर्शना, (६) व्यतिरेक, (७) सहोक्ति, (८) विनोक्ति, (९) समासोक्ति, (१०) परिकर, (११) श्लेष, (१२) अप्रस्तुतप्रशंसा, (१३) पर्यायोक्त, (१४) अर्थान्तरन्यास, (१५) व्याजस्तुति तथा ( १६ ) आक्षेप |
सादृश्य की तीन प्रकार की स्थितियों के आधार पर सादृश्यगर्भ अलङ्कारवर्ग के उक्त तीन उपवर्ग माने गये हैं । प्रथम उपवर्ग के अलङ्कारों में उपमेय और उपमान में सादृश्यगत भेदाभेद में तुल्यता रहती है । द्वितीय उपवर्ग के अलङ्कारों में दोनों में ( उपमान -उपमेय में ) अभेद कथन रहता है । अभेद कथन के दो रूप हैं— आरोप- प्रधान और अध्यवसाय - प्रधान । रूपक आदि में आरोप की तथा उत्प्रेक्षा और अतिशयोक्ति में अध्यवसाय की प्रधानता रहती है । तृतीय उपवर्ग में वे अलङ्कार रखे गये हैं, जिनमें औपम्य व्यङ्गय रहता है । रुय्यक के अनुसार सादृश्यगर्भ अलङ्कार के भेदाभेद-तुल्य - प्रधान खण्ड में उपमा आदि चार; अभेदप्रधान खण्ड में रूपक आदि आरोपमूलक छह तथा उत्प्रेक्षा और अतिशयोक्ति; इन अध्यवसायमूलक दो को मिला कर कुल आठ तथा गम्यमानौपम्य खण्ड में तुल्ययोगिता आदि सोलह अलङ्कार आते हैं । इस प्रकार रुय्यक के सादृश्य या औपम्यगर्भ अलङ्कारों की संख्या अट्ठाइस है ।
२. विरोधगर्भ : - इस वर्ग में उन बारह अलङ्कारों की गणना की गयी है, जिनके मूल में विरोध की भावना निहित रहती है । वे अलङ्कार हैं(१) विरोध, (२) विभावना, (३) विशेषोक्ति, (४) सम, (५) विषम, (६) विचित्र, (७) अधिक, ( 5 ) अन्योन्य, (६) विशेष (१०) व्याघात, (११) कार्यकारणपौर्वापर्य रूप अतिशयोक्ति और (१२) असङ्गति ।
विषम के साथ सम को भी विरोधगर्भ अलङ्कार वर्ग में वर्गीकृत करने
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अलङ्कारों का वर्गीकरण
[ ३७३
का औचित्य बताते हुए आचार्य रुय्यक ने कहा है कि सम में विषम अलङ्कार का वैधर्म्य रहता है; अतः उसे इसी वर्ग में रखा जाना चाहिए। ___अतिशयोक्ति की गणना सादृश्यगर्भ तथा विरोधगर्भ-दोनों वर्गों में करने के कारण रुय्यक को इस अलङ्कार को दो बार परिभाषित करना पड़ा है। रुद्रट के वर्गीकरण की परीक्षा के क्रम में यह कहा जा चुका है कि वर्गानुरोध से एक अलङ्कार की दो परिभाषाओं की कल्पना वर्गीकरण के अधार की अपूर्णता का परिचायक है।
३. शृङ्खलामूलक :-इस वर्ग में रखे गये अलङ्कार में पद या वाक्य अन्य पद या वाक्य के साथ शृङ्खला के रूप में सम्बद्ध रहते हैं। इस वर्ग में चार अलङ्कार रखे गये हैं :-(१) कारणमाला, (२) एकावली, (३) मालादीपक और (४) सार । इन अलङ्कारों में कारण, विशेषण आदि की शृङ्खलाबद्ध स्थिति रहती है।
४. न्यायमूलक :-शास्त्रीय तथा लौकिक न्याय से सम्बद्ध अलङ्कारों को तीन वर्गों में रखा गया है
(क) तर्कन्यायमूलक (ख) वाक्यन्यायमूलक या काव्यन्यायमूलक तथा (ग) लोकन्यायमूलक तर्कन्यायमूलक अलङ्कार-(१) काव्यलिङ्ग और (२) अनुमान ।
वाक्यन्यायमूलक अलङ्कार-(१) यथासंख्य, (२) पर्याय, (३) परिवृत्ति, (४) अर्थापत्ति, (५) विकल्प, (६) परिसंख्या, (७) समुच्चय तथा (८) समाधि।
लोकन्यायमूलक अलङ्कार-(१) प्रत्यनीक, (२) प्रतीप, (३) मीलित, (४) सामान्य, (५) तद्गुण, (६) अतद्गुण और (७) उत्तर। इस प्रकार उक्त सत्रह अलङ्कार लोक तथा शास्त्र के न्याय पर आधृत माने गये हैं।
५. गूढार्थप्रतीतिमूलक-इस वर्ग में उन अलङ्कारों को रखा गया है जिनमें गूढ अर्थ की प्रतीति हुआ करती है। गूढार्थ-बोध में ही उन अलङ्कारों का सौन्दर्य निहित रहता है । वे अलङ्कार हैं-(१) सूक्ष्म, (२) व्याजोक्ति एवं (३) वक्रोक्ति। __इस प्रकार रुय्यक ने अपने चौंसठ अलङ्कारों का वर्ग-विभाजन किया है। उनके अनेक अलङ्कार अवर्गीकृत रह गये हैं। उदाहरणार्थ-स्वभावोक्ति,
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३७४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
भाविक, उदात्त, संसृष्टि, सङ्कर, रसवत्, प्रय, ऊर्जस्वी तथा समाहित आदि अलङ्कारों का सद्भाव स्वीकार कर भी रुय्यक ने उनके वर्ग की कल्पना नहीं की है। संसृष्टि और सङ्कर के वर्ग की कल्पना तो आवश्यक भी नहीं थी। कारण, उन्हें तत्तद्वर्ग के अलङ्कारों से स्वतन्त्र अस्तित्व वाला माना ही नहीं जा सकता। उनमें कोई स्वतन्त्र मूलतत्त्व नहीं। अन्य अलङ्कार ही अपने-अपने मूल तत्त्वों के साथ संसृष्टि एवं सङ्कर में सङ्कीर्ण रूप से रह सकते हैं। अतः आश्रय के आधार पर किये जाने वाले वर्गीकरण में ही इन दोनों का समाहार सम्भव है। रुय्यक ने इसीलिए मूल-तत्त्व पर आधृत किसी वर्ग में सङ्कर और संसृष्टि को स्थान नहीं दिया है। रस, भाव आदि पर आश्रित रसवदादि अलङ्कारों (रसवत्, प्रेय, ऊर्जस्वी, समाहित, भावोदय, भावसन्धि, भावशबलता) को एक पृथक् 'रसभावमूलक अलङ्कार-वर्ग' में वर्गीकृत किया जा सकता था। किन्तु, रुय्यक ने उन अलङ्कारों के वर्ग की कल्पना आवश्यक नहीं समझी। रस, भाव आदि के विवेचन-क्रम में रसवत् आदि के स्वरूप पर विचार हो रहा था; पर जब रस, भाव आदि की कल्पना (स्थितिविशेष में) रसवत् आदि अलङ्कारों के रूप में की गयी, तो उन्हें वर्गीकृत करने के लिए एक स्वतन्त्र वर्ग की कल्पना तो की ही जानी चाहिए। रुद्रट के वास्तव-वर्ग को अस्वीकृत करने के पूर्वाग्रह से भी रुय्यक के वर्गीकरण में थोड़ी त्रुटि रह गयी है। स्वभावोक्ति को जब रुय्यक ने अलङ्कार के रूप में स्वीकृति दी, तब अलङ्कार के वास्तव-वर्ग को अस्वीकार करने में कोई औचित्य नहीं। स्वभावोक्ति का मूलतत्त्व है वस्तु-स्वरूप-वर्णन। अतः, वह वास्तव-वर्ग का अलङ्कार है। भाविक और उदात्त में भी वस्तु-वर्णन की प्रधानता रहती है। अतः, वास्तव-वर्ग को स्वीकार करने से उदात्त तथा भाविक के वर्गीकरण की समस्या का भी समाधान हो जाता। ___ आचार्य रुय्यक ने अलङ्कार के कुछ मूलतत्त्वों को ढूढ़ कर उनके आधार पर नवीन दृष्टि से अलङ्कारों के वर्गीकरण का महत्त्वपूर्ण प्रयास अवश्य किया है; पर उनका वर्गीकरण भी सर्वथा पूर्ण तथा निर्दोष नहीं हो पाया। स्वभावोक्ति आदि का अवर्गीकृत रह जाना उनके वर्गीकरण-सिद्धान्त की अव्याप्ति का तथा अतिशयोक्ति को दो वर्गों में रखना उस सिद्धान्त की अशक्ति का द्योतक है। रुद्रट के द्वारा कल्पित वास्तव-वर्ग की उपेक्षा अकारण है। इस सीमा के होने पर भी सादृश्य के भेदाभेदप्रधान, अभेदप्रधान तथा गम्यमानौपम्य भेदों की कल्पना और विरोध, शृङ्खला, न्याय तथा गूढार्थप्रतीति-जैसे
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अलङ्कारों का वर्गीकरण
[ ३७५ अलङ्कार के मूलभूत तत्त्वों का निर्धारण भारतीय अलङ्कार शास्त्र को आचार्य रुय्यक का महनीय योगदान है। ____ रुय्यक ने मूलतत्त्वों के आधार पर अर्थालङ्कारों को प्रस्तुत कर काव्य के समग्र अलङ्कारों के आश्रय के आधार पर विभाजन का भी सङ्केत दिया है। उन्होंने शब्द, अर्थ तथा उभय वर्गों में अलङ्कारों का विभाजन स्वीकार किया है । 'अलङ्कार-सर्वस्व' में यमक आदि को शब्दालङ्कार, उपमा आदि को अर्थालङ्कार तथा लाटानुप्रास आदि को उभयालङ्कार कहा गया है।
विद्याधरकृत वर्गीकरण-विद्याधर ने 'एकावली' में अलङ्कार-वर्गीकरण बहुलांशतः आचार्य रुय्यक के वर्गीकरण-सिद्धान्त के आधार पर किया है। भाषाभेद से रुय्यक के अलङ्कार-वर्गों को स्वीकार कर उन्होंने संसृष्टि और सङ्कर के वर्गीकरण के लिए अन्योन्याश्लेषपेशल वर्ग की कल्पना की है। इस कल्पना का मूल आचार्य रुद्रट के श्लेष-भेद सङ्कीर्ण-वर्ग की कल्पना में है। रुद्रट के सङ्कीर्ण के लिए ही अन्योन्याश्लेषपेशल व्यपदेश प्रयुक्त हुआ है। आचार्य रुय्यक के सादृश्यगर्भ अलङ्कार के तीन उपवर्गो-भेदाभेदतुल्य-प्रधान, अभेद-प्रधान तथा गम्यमानौपम्य–के आधार पर विद्याधर ने तीन अलङ्कार-वर्गों की कल्पना की है। वे हैं-भेद-प्रधान, अभेद-प्रधान तथा गम्यौपम्याश्रयी। विरोधमूलक तथा शृङ्खलामूलक वर्गों को विद्याधर ने भी स्वीकार किया है। रुय्यक के न्यायमूलक अलङ्कारों के तीन वर्गोंलोकन्याय, वाक्यन्याय तथा तकन्याय—में से केवल लोकन्यायाश्रयी अलङ्कार-वर्ग की सत्ता विद्याधर ने स्वीकार की है। रुय्यक के गूढार्थप्रतीतिमूलक अलङ्कार-वर्ग को विद्याधर ने बलाद्गूढार्थप्रतीतिमूलक-वर्ग कहा है। विद्याधर ने रुय्यक के वर्गीकरण को स्वीकार कर उनके द्वारा अवर्गीकृत अलङ्कारों को भी उन्हीं वर्गों में समाविष्ट करने का प्रयास किया है। उदाहरणार्थ-स्वभावोक्ति, भाविक तथा उदात्त को उन्होंने बलाद्गूढार्थप्रतीतिमूलक-वर्ग में वर्गीकृत कर दिया है। किन्तु, यह वर्गीकरण अविचारित जान पड़ता है। स्वभावोक्ति, भाविक तथा उदात्त में किसी गूढ अर्थ की व्यञ्जना नहीं रहती, उनमें वस्तु-स्वरूप का और समृद्धि का यथार्थ तथा चित्रात्मक वर्णन अपेक्षित माना जाता है। रुय्यक स्वभावोक्ति आदि के इस स्वभाव से परिचित थे। इसीलिए उन्होंने उन अलङ्कारों का वर्गीकरण अलङ्कार के स्वीकृत वर्गों में नहीं किया था। विद्याधर यदि उन अलङ्कारों का वर्गीकरण करना ही चाहते थे ( और उन्हें वर्गीकृत करने की चेष्टा उचित ही होती)
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३७६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
तो उन्हें उन अलङ्कारों के मूल-तत्त्व के आधार पर नवीन वर्ग की कल्पना करनी चाहिए थी। यदि नवीन वर्ग की कल्पना नहीं कर वे रुद्रट के वास्तववर्ग को ही स्वीकार कर लेते-जैसे रुय्यक के द्वारा अवर्गीकृत संसृष्टि और सङ्कर के वर्गीकरण के लिए उन्होंने रुद्रट के सङ्कीर्ण के आधार पर अन्योन्याश्लेषपेशल-वर्ग को स्वीकार किया है तो समस्या का समाधान सरलता से हो जाता; पर इस उलझन को सुलझाने का प्रयास नहीं कर विद्याधर ने चलते ढंग पर रुय्यक के वर्गीकरण को आदर्श मान कर अलङ्कारों का वर्गीकरण कर दिया है।
पहले आश्रय के आधार पर शब्द और अर्थ-वर्गों में अलङ्कारों का विभाजन कर विद्याधर ने अर्थालङ्कारों को वर्गानुक्रम से इस प्रकार प्रस्तुत किया है
१. भेदप्रधान वर्ग-(१) उपमा, (२) उपमेयोपमा, (३) अनन्वय तथा (४) स्मरण ।
२. अभेदप्रधान वर्ग-(क) आरोपमूलक-(१) रूपक, (२) परिणाम, (३) सन्देह, (४) भ्रान्तिमान्, (५) उल्लेख और (६) अपह्नति ।
(ख) अध्यवसाय मूलक-(१) उत्प्रेक्षा और (२) अतिशयोक्ति ।
३. गम्यौपम्याश्रयी वर्ग-(१) तुल्ययोगिता, (२) दीपक, (३) प्रतिवस्तूपमा, (४) दृष्टान्त,(५) निदर्शना,(६) व्यतिरेक, (७) सहोक्ति,(८) विनोक्ति, (8) समासोक्ति, (१०) परिकर, (११) परिकराङ कुर, (१२) श्लेष, (१३) अप्रस्तुतप्रशंसा, (१४) अर्थान्तरन्यास, (१५) पर्यायोक्ति और )१६) आक्षेप ।
४. विरोधगर्भ-(१) विरोध, (२) विभावना, (३) विशेषोक्ति, (४) अतिशयोक्ति, (५) असङ्गति, (६) विषम, (७) सम, (८) विचित्र, (६) अधिक, (१०) अन्योन्य, (११) विशेष तथा (१२) व्याघात ।
५. शृङ्खलाकार-(१) कारणमाला, (२) एकावली, (३) मालादीपक, (४) सार, (५) काव्यलिङ्ग, (६) अनुमान, (७) यथासंख्य, (८) पर्याय, (९) परिवृत्ति. (१०) परिसंख्या, (११) अर्थापत्ति, (१२) समुच्चय और (१३) समाधि । इन्हें तर्कवाक्यन्यायमूलक भी कहा गया है।
६. लोकन्यायाश्रयो-(१) प्रत्यनीक, (२) प्रतीप, (३) मीलित, (४) सामान्य, (५) तद्गुण, (६) अतद्गुण, (७) उत्तर और (८) प्रश्नोत्तर । ___७. बलाद्गूढार्थप्रतातिमूलक-(१) सूक्ष्म, (२) व्याजोक्ति, (३) वक्रोक्ति, (४) स्वभावोक्ति, (५) भाविक और (६) उदात्त ।
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अलङ्कारों का वर्गीकरण
[ ३७७
८. अन्योन्याश्लेषपेशल - (१) संसृष्टि और (२) सङ्कर । शब्दालङ्कार-वर्ग में विद्याधर ने पुनरुक्तवदाभास, अनुप्रास, यमक, चित्र, छेकानुप्रास, वृत्यनुप्रास तथा लाटानुप्रास की गणना की है । अलङ्कारों के वर्गीकरण के क्षेत्र में विद्याधर ने कोई मौलिक योगदान नहीं दिया है ।
विद्यानाथकृत वर्गीकरण
विद्यानाथ ने 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' में पहले आश्रय-भेद के आधार पर अलङ्कार के तीन वर्ग स्वीकार किये हैं- शब्दगत, अर्थगत तथा उभयगत । अनुप्रास आदि को शब्दालङ्कार, उपमा आदि को अर्थालङ्कार तथा लाटानुप्रास, उभयसंसृष्टि आदि को उभयगत अलङ्कार माना गया है । अर्थालङ्कार के मुख्य चार विभाग कर पुनः अलङ्कार - कक्ष्याविभाग में विद्यानाथ ने - आचार्य रुय्यक के मत का अनुसरण किया। उनके चार प्रमुख अलङ्कारवर्ग तथा उन वर्गों में विभाजित अलङ्कार निम्नलिखित हैं
१. प्रतीयमान वास्तव - वर्ग - (१) समासोक्ति, (२) पर्यायोक्त, (३) आक्षेप, (४) व्याजस्तुति ( ५ ) उपमेयोपमा, (६) अनन्वय, (७) अतिशयोक्ति, · ( 5 ) परिकर, (2) अप्रस्तुतप्रशंसा तथा ( १० ) ( अनुक्त निमित्त) विशेषोक्ति । २. प्रतीयमानौपम्य वर्ग : - ( १ ) रूपक, (२) परिणाम, (३) सन्देह, (४) भ्रान्तिमान्, (५) उल्लेख, ( ६ ) ( सापह्नव ) उत्प्र ेक्षा, (७) स्मरण, ( 5 ) तुल्ययोगिता, ( 8 ) दीपक, (१०) प्रतिवस्तूपमा, (११) दृष्टान्त, (१२) सहोक्ति, (१३) व्यतिरेक, (१४) निदर्शना और ( १५ ) श्लेष । ३. प्रतीयमानरसभावादि वर्ग : - ( १ ) रसवत्, ( २ ) प्र ेय, (३) ऊर्जस्वी, (४) समाहित, (५) भावोदय, (६) भावसन्धि तथा ( ७ )
भावशबलता ।
अस्फुटप्रतीयमान-वर्ग : - ( १ ) उपमा, (२) विनोक्ति, (३) अर्थान्तरन्यास, (४) विरोध, (५) विभावना, ( ६ ) ( गुण निमित्त ) विशेषोक्ति, (७) विषम, (८) सम, (६) चित्र, (१०) अधिक, (११) अन्योन्य, (१२) कारणमाला, (१३) एकावली, (१४.) व्याघात, (१५) मालादीपक, (१६) काव्यलिङ्ग, (१७) अनुमान, (१८) सार, (१९) यथासंख्य, (२०) अर्थापत्ति, (२१) पर्याय, (२२) परिवृत्ति, (२३) परिसंख्या, (२४) विकल्प, (२५) समुच्चय, (२६) समाधि, (२७) प्रत्यनीक, ( २८ ) प्रतीप, (२६) विशेष, (३०) मीलित, (३१) सामान्य, (३२) असङ्गति, (३३) तद्गुण,
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३७८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
(३४) अतद्गुण, (३५) व्याजोक्ति, (३६) वक्रोक्ति, ( ३७ ) स्वभावोक्ति, (३८) भाविक, और ( ३६ ) उदात्त ।
समासोक्ति को रुय्यक ने गम्यमानौपम्य वर्ग में रखा था । विद्यानाथ ने उसे प्रतीयमानवस्तु वर्ग में गिना है । उपमेयोपमा को भी विद्यानाथ ने गम्यमानौपम्य वर्ग में परिगणित किया है । रुय्यक ने इसे भेदाभेदतुल्यप्रधान सादृश्यगर्भ अलङ्कार-वर्ग में रखा है। स्पष्टतः, विद्यानाथ ने कुछ नवीन दृष्टि से उक्त चार वर्गों में अलङ्कारों का विभाजन किया है । प्रतीयमानौपम्य अलङ्कार - वर्ग की कल्पना आचार्य रुय्यक के गम्यमानम्यसादृश्य वर्ग के आधार पर की गयी है । रुय्यक की तरह विद्यानाथ ने भी तुल्ययोगिता, दीपक, प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त आदि को प्रतीयमानौपम्य वर्ग में रखा है; पर रुय्यक के विनोक्ति, समासोक्ति, परिकर, अप्रस्तुतप्रशंसा, पर्यायोक्त अर्थान्तरन्यास, व्याजस्तुति और आक्ष ेप को गम्यमानौपम्य वर्ग में रखने के मत को विद्यानाथ
स्वीकार नहीं किया है । विद्यानाथ ने रूपक, परिणाम, सन्देह, भ्रान्तिमान् आदि को प्रतीयमानौपम्य वर्ग में वर्गीकृत किया है, जिन्हें रुय्यक ने इतर वर्गों में रखा था ।
प्रतीयमान- रसभावादि-वर्ग की कल्पना कर विद्यानाथ ने रसवदादि अलङ्कार के वर्गीकरण की समस्या का समाधान कर दिया है । रुय्यक इस समस्या को बिना सुलझाये छोड़ गये थे । इस वर्ग की कल्पना के लिए विद्यानाथ श्रेय के भागी हैं ।
विद्यानाथ ने उपरिलिखित अलङ्कार वर्गों के अतिरिक्त अलङ्कार के अवान्तर विभाग भी किये, जो अधिकांशतः आचार्य रुय्यक के वर्गीकरणसिद्धान्त पर आधृत है । वे अवान्तर विभाग - विद्यानाथ के शब्दों में 'अलङ्कारकक्ष्याविभाग' - निम्नलिखित हैं :
——
४. साधर्म्यमूलक
(क) भेदप्रधान, (ख) अभेदप्रधान तथा ( ग ) भेदाभेदप्रधान २. विरोधमूलक
३. वाक्यन्यायमूलक ४. लोकव्यवहारमूलक और
५. तर्कन्यायमूलक ६. शृङ्खलावैचित्र्यमूलक
७. अपह्नबमूलक ८. विशेषणवैचित्र्यमूलक
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अलङ्कारों का वर्गीकरण
[ ३७९ अलङ्कार के उपरिलिखित अवान्तर-वर्गों में सादृश्य, विरोध, न्याय तथा शृङ्खलामूलक-वर्ग रुय्यक के वर्गों से अभिन्न हैं । अपह्नवमूलक-वर्ग विद्यानाथ की नूतन उद्भावना है । वस्तुतः, अनेक अलङ्कारों के मूल में अपह्नव या गोपन का तत्त्व रहता है। उसके आधार पर एक अलङ्कार-वर्ग की कल्पना अनुचित नहीं। यदि अनेक अलङ्कारों के मूल में एक तत्त्व मिलता हो तो उस समान मूलतत्त्व के आधार पर अलङ्कारों को एक वर्ग में वर्गीकृत करना शास्त्रीय दृष्टि का ही परिचायक है ।
विद्यानाथ ने विशेषणवैचित्र्य के आधार पर एक स्वतन्त्र अलङ्कार-वर्ग की कल्पना कर समासोक्ति और परिकर को इस वर्ग में रखा है। प्रथम विभाजन में विद्यानाथ ने उक्त दोनों अलङ्कारों को प्रतीयमान-वास्तव-वर्ग में रखा है। विद्याधर ने उन अलङ्कारों को गम्यमानौपम्य वर्ग में रखा है। विशेषण-वैचित्र्यमूलक अलङ्कारों में विशेषण के वैचित्र्य के कारण प्रतीयमान होने वाले अर्थ का (चाहे वह वस्तु-रूप में हो या औपम्य-रूप में) ही प्राधान्य होता है; अतः प्रतीयमान, वास्तव, औपम्य आदि से स्वतन्त्र इस वर्ग की कल्पना बहुत आवश्यक नहीं।
अवान्तर वर्गों में अलङ्कारों का विभाजन विद्यानाथ ने इस प्रकार किया है :
१. सादृश्यमूलक-(क) अभेदप्रधान साधर्म्यनिबन्धन-(१) रूपक,. (२) परिणाम (३) सन्देह, (४) भ्रान्तिमान्, (५) उल्लेख और (६) अपह्नव ।
(ख) भेदप्रधान साधर्म्यनिबन्धन-(१) दीपक, (२) तुल्ययोगिता, (३) दृष्टान्त, (४) निदर्शना, (५) प्रतिवस्तूपमा, (६) सहोक्ति, (७) प्रतीप तथा (८) व्यतिरेक ।
(ग) भेदाभेदसाधारण साधर्म्यमूलक-(१) उपमा, (२) अनन्वय,. (३) उपमेयोपमा तथा (४) स्मरण।
(घ) अध्यवसायमूलक-(१) उत्प्रेक्षा और (२) अतिशयोक्ति ।
२. विरोधमूलक-(१) विभावना, (२) विशेषोक्ति, (३) विषम, (४) चित्र, (५) असङ्गति, (६) अन्योन्य, (७) व्याघात, (८) अतद्गुण, (६) भाविक और (१०) विशेष । '
३. न्यायमूलक-(क) वाक्यन्यायमूलक-(१) यथासंख्य, (२) परिसंख्या, (३) अर्थापत्ति,(४) विकल्प एवं (५) समुच्चय । __ (ख) लोकव्यवहारमूलक-(१) परिवृत्ति, (२) प्रत्यनीक, (३) तद्गुण, (४) समाधि, (५) सम, (६) स्वभावोक्ति, (७) उदात्त और (८) विनोक्ति।
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३८० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
(ग) तर्कन्यायमूलक-(१) काव्यलिङ्ग, (२) अनुमान एवं (३) अर्थान्तरन्यास।
४. शृङ्खलावैचित्र्यमूलक:- (१) कारणमाला, (२) एकावली, (३) मालादीपक और (४) सार।
५. अपह्नवमूलक:-(१) व्याजोक्ति, (२) वक्रोति और (३) मीलन या मीलित।
६. विशेषणवैचित्र्यमूलकः-(१) समासोक्ति और (२) परिकर। _ विशेषणवैचित्र्यमूलक अलङ्कार-वर्ग को स्वतन्त्र वर्ग नहीं मान कर मल्लिनाथ ने 'एकावली' की 'तरला' टीका में उसे औपम्य-गर्भ अलङ्कार-वर्ग का अवान्तर भेद 'विशेषण-विच्छित्ति' माना है। ___मल्लिनाथ ने सादृश्यमूलक और औपम्य-गर्भ अलङ्कार-वर्गों को पृथक्पृथक् रखा है। औपम्य-वर्ग में अलङ्कार को आचार्य रुद्रट ने विभाजित किया था। रुय्यक आदि ने सादृश्यमूलक-वर्ग की कल्पना की थी। सादृश्यमूलक-वर्ग में औपम्य-गर्भ अलङ्कार भी आ ही जाते हैं । अतः, दोनों वर्गों को अलग-अलग मानने में अलङ्कार-तत्त्व का अनुरोध नहीं, केवल स्पष्टीकरण का उद्देश्य है, जो व्याख्याता या टीकाकार के पक्ष में स्वाभाविक है ।
___ रुद्रट, रुय्यक, विद्याधर और विद्यानाथ के वर्गीकरण की परीक्षा से यह स्पष्ट है कि उनमें से किसी एक आचार्य का वर्गीकरण सर्वथा पूर्ण नहीं। रुय्यक के वर्गों को स्वीकार करने वाले विद्याधर तथा विद्यानाथ ने भी स्वेच्छा से काव्यालङ्कारों को उन वर्गों में विभक्त किया है। इस प्रकार रुय्यक ने अलङ्कार-विशेष को यदि एक वर्ग में रखा तो अन्य आचार्यों ने उसी अलङ्कार को किसी दूसरे वर्ग में वर्गीकृत किया है। विशेष वर्ग में अलङ्कार-विशेष को वर्गीकृत करने में मतैक्य का अभाव वर्गीकरण के आधार की अशक्ति का ही सूचक है। फिर भी, संस्कृत के उक्त आचार्यों ने जितने अलङ्कार-वर्गों की कल्पना की है उन्हें मिला-जुला कर वर्गीकरण का व्यापक आधार बनाया जा सकता है । रुय्यक के अलङ्कार-वर्गों के साथ रुद्रट के वास्तव तथा श्लेष, और विद्यानाथ के प्रतीयमान-रसभावादि वर्गों को मिला कर संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र के सभी स्वीकार्य अलङ्कारों का वर्गीकरण किया जा सकता है।
१. विद्यानाथ, प्रतापरुद्रयशोभूषण, पृ० ३३८-३६
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[ ३८१:
अलङ्कारों का वर्गीकरण
हिन्दी - रीति- आचार्यों का वर्गीकरण
हिन्दी - अलङ्कार - साहित्य में भी संस्कृत-साहित्य की पद्धति पर अलङ्कारों का शब्द, अर्थ के आधार पर वर्गीकरण कर पुन: अर्थालङ्कारों का मूल तत्त्वों के आधार पर वर्गीकरण किया गया है । कुवलयानन्दकार की तरह हिन्दी के मतिराम, रघुनाथ गोविन्द, रत्नेश आदि आचार्यों ने केवल अर्थालङ्कारों का ही निरूपण किया है । अतः उन आचार्यों के अलङ्कारों के लिए आश्रय के आधार पर वर्गीकरण की समस्या नहीं । हिन्दी में शब्द चित्र को, जो वस्तुतः शब्दालङ्कार है, स्वतन्त्र अस्तित्व प्राप्त हो गया है । बलवान सिंह तथा ईश्वर कवि ने केवल चित्रालङ्कार पर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे हैं । अतः, हिन्दी के अलङ्कारों का वर्गीकरण करने के क्रम में शब्दालङ्कार, अर्थालङ्कार, उभयालङ्कार आदि के साथ चित्रालङ्कार का स्वतन्त्र वर्ग भी स्वीकार किया जाना चाहिए । चित्र की धारणा का विकास यद्यपि यमक, अनुप्रास आदि शब्दा-लङ्कारों से ही हुआ है; पर उसने अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है । केवल अलङ्कार के रूप में ही नहीं, चित्र काव्य के एक स्वतन्त्र प्रकार के रूप में - अधम काव्यरूप में ही सही - चित्रकाव्य का अस्तित्व स्वीकृत हुआ है | चित्रालङ्कार चित्र काव्य का ही अङ्ग विशेष है । उसके इतने स्वरूपों की कल्पना की गयी है कि शब्दालङ्कार से स्वतन्त्र चित्रालङ्कार वर्ग में उन चित्र - रूपों का अध्ययन अपेक्षित है ।
हम यहाँ रीतिकालीन आचार्यों के अलङ्कार - वर्गीकरण के प्रयास का समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत करेंगे । रीतिकालीन हिन्दी - अलङ्कार - शास्त्र में केशव और भिखारी दास ने अलङ्कार वर्गीकरण का प्रयास किया है ।
आचार्य केशव-कृत वर्गीकरण
केशवदास ने अलङ्कार के मुख्य दो विभाग माने हैं - ( १ ) साधारण और (२) विशिष्ट । साधारण अलङ्कार के चार भेद माने गये हैं:
(क) वर्णालङ्कार,
(ख) वर्ष्यालङ्कार,
(ग) भूमिश्री वर्णन और
(घ) राज्यश्री वर्णन ।
१
१. द्रष्टव्य – केशव, कविप्रिया, ५, २-३
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३८२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उन्होंने उपमा आदि को विशिष्ट अलङ्कार माना है । केशव के द्वारा -निरूपित सभी शब्दगत तथा अर्थगत अलङ्कार विशिष्ट अलङ्कार हैं । इन विशिष्ट अलङ्कारों का विभाजन उन्होंने न तो शब्दार्थ-रूप आश्रय के आधार पर किया है और न अलङ्कार के मूल तत्त्वों के आधार पर ही । अतः, केशव का वर्गीकरण महत्त्वपूर्ण नहीं । साधारण और विशिष्ट वर्गों में विभाजन नयी सूझ नहीं । अलङ्कारवादी अलङ्कार की व्यापक परिभाषा 'सौन्दर्यमलङ्कारः' में समग्र काव्य-तत्त्वों को सामान्य रूप से अलङ्कार मान लेते हैं और उस अलङ्कार से ( काव्य से ) उपमा आदि का वैशिष्ट्य बताने के लिए इन उपमा आदि काव्यालङ्कारों को विशिष्टालङ्कार कहते हैं । अतः, विशिष्टालङ्कार की धारणा प्राचीन ही है । साधारण अलङ्कार को चार वर्गों में बाँट कर उसके सम्बन्ध में केशव ने कुछ नवीन धारणा अवश्य "प्रकट की है; पर वस्तुतः उनमें से किसी वर्ग में ऐसा अलङ्कार नहीं रखा गया है, जो किसी भी संस्कृत या हिन्दी - आचार्य के द्वारा अलङ्कार के रूप में स्वीकृत हो । अतः, प्रस्तुत सन्दर्भ में वह विवेच्य नहीं । वर्णों का विवरण, वर्ण्य वस्तुओं का विवरण अलङ्कार के रूप में स्वीकार्य नहीं । भोज ने भी नगर, अर्णव, शैल, ऋतु आदि के वर्णन को प्रबन्धगत अलङ्कार माना था; पर वह महाकाव्य आदि के अङ्ग के रूप में ही स्वीकृत हुआ, अलङ्कार के रूप में नहीं । वर्णों का विवरण केशव मिश्र तथा अमर ने भी दिया है; पर उस "विवरण को अलङ्कार मीमांसा के अन्तर्गत नहीं माना जा सकता ।
आचार्य भिखारीदास कृत वर्गीकरण
आचार्य भिखारी दास ने काव्यालङ्कार का वर्गीकरण कुछ नवीन दृष्टि - से किया है । हम देख चुके हैं कि आश्रय के आधार पर अलङ्कारों का वर्गीकरण शब्दालङ्कार, अर्थालङ्कार तथा उभयालङ्कार - वर्गों में परम्परा से 'किसी-न-किसी रूप में होता रहा था; पर भिखारी दास ने शब्दालङ्कार-वर्ग - तथा अर्थालङ्कार-वर्ग के अतिरिक्त एक तीसरे वर्ग - ' वाक्यालङ्कार-वर्ग' की कल्पना की और उसमें आठ अलङ्कारों को रखा । उन्होंने चित्र को शब्दालङ्कार वर्ग से स्वतन्त्र चित्रालङ्कार-वर्ग में रखा। 3 इन चार वर्गों के
१. केशव, कविप्रिया, प्रभाव - १६
२. भिखारी दास, काव्य निर्णय, १८ पृ० ४६५ ३. वही, २१, पृ० ५७५
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अलङ्कारों का वर्गीकरण
[ ३८३ अतिरिक्त भिखारी ने एक रसभावाश्रित अलङ्कारों के वर्ग की कल्पना को भी स्वीकार किया।' ___ शब्दालङ्कार-वर्ग से चित्र के लिए स्वतन्त्र वर्ग की कल्पना स्वाभाविक ही थी। रीतिकाल में चित्रकाव्य की सायास रचना बहुत अधिक मात्रा में हो रही थी। चित्र के नये-नये स्वरूपों की कल्पना में कवि अपने कौशल का प्रदर्शन बड़े मनोयोग से करने लगे थे। फलतः, चित्रालङ्कार के भेदों की संख्या स्फीत होती जा रही थी। अतः चित्र के विविध भेदों का अध्ययन एक स्वतन्त्र वर्ग में ही उपयोगी जान पड़ा होगा। ___ अर्थालङ्कार से स्वतन्त्र वाक्यालङ्कार की कल्पना दास की नवीन कल्पना है। इसका औचित्य विचारणीय है। प्रश्न यह है कि क्या यथासंख्य, एकावली, कारणमाला आदि का समावेश परम्परागत अर्थालङ्कार-वर्ग में नहीं होता था ? यदि होता था तो उससे पृथक् वाक्यालङ्कार-वर्ग की कल्पना की क्या आवश्यकता थी? इसमें सन्देह नहीं कि यथासंख्य आदि भी अर्थाश्रित अलङ्कार हैं। उनमें वाक्य का भी विचार अवश्य रहता है। अतः, उन अलङ्कारों को यदि वाक्यलङ्कार-वर्ग में वर्गीकृत करने का आग्रह हो तो वाक्यालङ्कार को अर्थालङ्कार-वर्ग का अवान्तर भेद मानना उचित होगा। अर्थालङ्कार वर्ग के शृङ्खला आदि के आधार पर अनेक वर्ग माने ही गये हैं। ___ रसवत् तथा भावाश्रित प्रेय, ऊर्जस्वी आदि को मूल-तत्त्व रस एवं भाव के आधार पर एक वर्ग में रखा गया है। उक्त पाँच वर्गों पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट हो जाता है कि भिखारी दास के सामने अलङ्कारों के वर्गीकरण का निश्चित आधार नहीं था। रसवदादि वर्ग की कल्पना मूलतत्त्व के आधार पर तथा शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार की कल्पना अलङ्कार के आश्रयभूत शब्द और अर्थ के आधार पर की गयी है। शब्दालङ्कार-वर्ग से पृथक चित्रालङ्कार-वर्ग की कल्पना का औचित्य केवल अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से है। वाक्यालङ्कारों को अर्थालङ्कारान्तर्गत नहीं मान कर उनका स्वतन्त्र वर्ग मानना बुद्धि-विलास-मात्र है। ___शब्दालङ्कारों में से वीप्सा, यमक और सिंहावलोकन का निरूपण दास ने शब्दालङ्कार-प्रकरण में नहीं कर काव्यगुण-विवेचन के सन्दर्भ में किया है। अनुप्रास, छेकानुप्रास, वृत्त्यनुप्रास तथा लाटानुप्रास का लक्षण-निरूपण
१. भिखारी दास, काव्य-निर्णय ५, पृ० १०१
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३८४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
पृथक् किया गया है और शब्दालङ्कार - निरूपण - प्रस्ताव में श्लेष, विरोधाभास, मुद्रा, वक्रोक्ति और पुनरुक्तवदाभास का निरूपण किया गया है । इन शब्दाश्रित अलङ्कारों के अलग-अलग विवेचन का भी कोई स्पष्ट कारण नहीं । वक्रोक्ति, पुनरुक्तवदाभास, विरोधाभास तथा मुद्रा को दास ने शब्दालङ्कार-वर्ग में रखा है । हम देख चुके हैं कि भारतीय अलङ्कार-शास्त्र में इन अलङ्कारों को शब्दालङ्कार मानने में दो मत रहे हैं । कुछ आचार्य इन्हें शब्दालङ्कार मानते हैं तो कुछ अर्थालङ्कार । वस्तुतः, इन अलङ्कारों के स्वरूप - विन्यास में शब्द और अर्थ; दोनों की अपेक्षा रहती है । अतः, इन्हें उभयालङ्कार माना जा सकता है । दास ने उभयालङ्कार तो नहीं माना; पर इन उभयात्मक स्वभाव वाले अलङ्कारों को ही एकत्र शब्दालङ्कार संज्ञा से वर्गीकृत कर भारतीय अलङ्कार - शास्त्र में प्रचलित एक मतवाद की ओर सङ्क ेत कर दिया है । अन्यथा अनुप्रास, यमक आदि का, जिन्हें सभी आचार्यों ने एक मत से शब्दालङ्कार स्वीकार किया है, अपरत्र वर्णन कर शब्दार्थोभयगत स्वभाव वाले अलङ्कारों के एकत्र निरूपण का क्या औचित्य होगा ?
भिखारी दास ने अर्थालङ्कारों को दश वर्गों में प्रस्तुत किया है। उन वर्गों का कोई विशेष नामकरण नहीं कर उन्होंने वर्ग के प्रधान अलङ्कार के आधार पर उपमादि, उत्प्र ेक्षादि आदि कहा है । उपमादि में उपमा के साथ उसके समान प्रतीप आदि; उत्प्र ेक्षादि में उत्प्रेक्षा के साथ उसके समान अपह्न ुति, स्मरण आदि अलङ्कार रखे गये हैं । यह विचारणीय है कि उस वर्ग के अन्य अलङ्कारों को उपमा के समान मानने का क्या आधार है ? यदि उस वर्ग के सभी अलङ्कारों में कुछ ऐसा समान तत्त्व हो, जो उन्हें उपमा के समान सिद्ध करता हो तब तो वह वर्गीकरण मूल तत्त्व पर आधृत शास्त्रीय वर्गीकरण माना जायगा । अन्यथा वह वर्ग-विभाजन उद्भट आदि के विभाजन की तरह यदृच्छात्मक और अवैज्ञानिक माना जायगा ।
दास के 'काव्यनिर्णय' में इतस्ततः जो सङ्केत दिये गये हैं, उनके आधार पर अर्थालङ्कारों के तत्तद् वर्गों में विभाजन के आधार का निर्णय किया जा सकता है । अलङ्कारों के वर्ग विशेष की कल्पना के आधार की परीक्षा के लिए तत्तदलङ्कार-वर्गों में दास ने जिस रूप में विशेष - विशेष अर्थालङ्कारों को प्रस्तुत किया है उस रूप में हम उन्हें नीचे उपस्थापित कर रहे हैं
१. उपमादि वर्ग - ( १ ) उपमा, (२) अनन्वय, (३) उपमेयोपमा,
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अलङ्कारों का वर्गीकरण
[३८५ (४) प्रतीप, (५) श्रौती उपमा, (६) दृष्टान्त, (७) अर्थान्तरन्यास, (८) विकस्वर, (8) निदर्शना, (१०) तुल्ययोगिता और (१३) प्रतिवस्तूपमा ।
२. उत्प्रेक्षादि वर्ग :-(१) उत्प्रेक्षा, (२) अपह्न ति, (३) स्मरण, (४) भ्रम, और (५) सन्देह ।
3. व्यतिरेक-रूपकादि वर्ग :- (१) व्यतिरेक, (२) रूपक, (३) परिणाम और (४) उल्लेष या उल्लेख । परिणाम को तो परिणाम-रूपक कहकर रूपक का ही प्रकार माना गया है; पर उल्लेख की स्वतन्त्र सत्ता मानी गयी है', यद्यपि उसकी प्रकृति परम्परित-माला-रूपक से मिलतीजुलती है। ___४. अतिशयोक्ति आदि वर्ग :-(१) अतिशयोक्ति, (२) उदात्त, (३) अधिक, (४) अल्प और (५) विशेष ।
५. अन्योक्ति आदि वर्ग :-(१) अप्रस्तुतप्रशंसा, (२) प्रस्तुताङ्कर, (३) समासोक्ति, (४) व्याजस्तुति, (५) आक्षेप एवं (६) पर्यायोक्ति ।
६. विरुद्धादि वर्ग :-(१) विरुद्ध, (२) विभावना, (३) व्याघात, (४) विशेषोक्ति, (५) असङ्गति तथा (६) विषम ।
७. उल्लासादि वर्ग :-(१) उल्लास, (२) अवज्ञा, (३) अनुज्ञा, (४) लेश, (५) विचित्र, (६) तद्गुण, (७) स्वगुण, (८) अतद्गुण, (६) पूर्वरूप, (१०) अनुगुण, (११) मीलित, (१२) सामान्य, (१३) उन्मीलित और (१४) विशेष।
८. समादि वर्ग :-(१) सम, (२) समाधि, (३) परिवृत्त, (४) भाविक, (५) प्रहर्षण, (६) विषादन, (७) सम्भव, (८) असम्भव, (६) समुच्चय, (१०) अन्योन्य, (११) विकल्प, (१२) सहोक्ति, (१३) विनोक्ति, (१४) प्रतिषेध, (१५) विधि तथा (१६) काव्यार्थापत्ति।
९. सूक्ष्मादि वर्ग:-(१) सूक्ष्म, (२) पिहित, (३) युक्ति, (४) गूढोत्तर, (५) गूढोक्ति, (६) मिथ्याध्यवसाय, (७) ललित, (८) विवृतोक्ति, (९) व्याजोक्ति, (१०) परिकर और .(११) परिकराङ कुर । १. एक में बहु बोध के, बहु गुन सो 'उल्लेख'। परंपरित-मालांन सों, लीनों भिन्न विसेख ॥
-भिखारी दास, काव्यनिर्णय, पृ० २६३ २५
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३८६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
१०. स्वभावोक्ति वर्ग :-(१) स्वभावोक्ति, (२) हेतु, (३) प्रमाण, (४) काव्यलिङ्ग, (५) निरुक्ति, (६) लोकोक्ति, (७, छेकोक्ति, (८) प्रत्यनीक, (९) परिसंख्या और (१०) प्रश्नोत्तर।
एक-एक वर्ग के अलङ्कारों का निरूपण 'काव्य-निर्णय' के एक एक उल्लास में किया गया है। इस प्रकार अष्टम उल्लास से सत्रहवें उल्लास तक क्रमशः उपरिलिखित अलङ्कार-वर्गों के अलङ्कारों का विवेचन किया गया है। आपाततः उक्त वर्गीकरण उद्भट आदि के वर्ग-विभाजन की तरह उद्देश्यहीन लगती है, पर भिखारी दास ने तत्तत् अलङ्कारों को तत्तद्वर्गों में विभाजित करने का उद्देश्य इतस्ततः व्यक्त कर दिया है ।
उपमादि वर्ग में दास ने औपम्यमूलक अलङ्कारों को रखा है। उन्होंने इस वर्ग के अलङ्कारों को उपमान और उपमेय का विकार कहा है।' इस वर्ग के दो खण्ड स्पष्ट हैं-उपमा के आर्थी और श्रौती-भेद के आधार पर इस वर्ग के अलङ्कार गम्यमान-सादृश्य तथा वाच्य-सादृश्य खण्डों में विभक्त माने जा सकते हैं। उपमा, अनन्वय, उपमेयोपमा एवं प्रतीप में सादृश्य वाच्य तथा दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, विकस्वर, निदर्शना, तुल्ययोगिता तथा प्रतिवस्तूपमा में सादृश्य गम्य होता है। वाच्य तथा गम्यमान सादृश्य की दृष्टि से इस वर्ग के अलङ्कारों के क्रम-विन्यास को देखने से भिखारी दास की शास्त्रीय दृष्टि का पता चलता है। औपम्य-गर्भ अलङ्कारों के एक वर्ग की परम्परागत धारणा पर इस वर्ग की कल्पना आधृत है।
उत्प्रेक्षादि-वर्ग में अलङ्कार-विभाजन दास की मनोवैज्ञानिक सूझ का परिचायक है। इस वर्ग में उन अलङ्कारों को वर्गीकृत किया गया है, जिनमें वस्तुओं के सारुप्य के कारण वस्तु-ज्ञान की विभिन्न स्थितियों का वर्णन रहा करता है। ज्ञान निश्चयात्मक तथा अनिश्चयात्मक होता है। इस आधार पर निश्चय, सन्देह आदि अलङ्कारों का स्वरूप-विधान होता है । निश्चयात्मक ज्ञान भी सत्य और मिथ्या होता है। भ्रम में एक वस्तु में अन्य वस्तु का निश्चयात्मक ज्ञान होता है; पर वह ज्ञान मिथ्या होता है। सिद्ध वस्तु-ज्ञान तथा असिद्ध वस्तु-ज्ञान के आधार पर भी ज्ञान की दो कोटियां होती हैं। उत्प्रेक्षा में दो वस्तुओं का अभेद-ज्ञान असिद्ध या सम्भावना के रूप में व्यक्त होता है। सदृश वस्तु से उसके समान वस्तु की स्मृति हो आती है। यह १. "उपमान और उपमेइ कौ, है विकार समझौ सुचित ।
-भिखारीदास, काव्यनिर्णय, पृ० १५६
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अलङ्कारों का वर्गीकरण
[ ३८७ पूर्वानुभूत वस्तु का स्मृतिजन्य ज्ञान भी ज्ञान की विशेष दशा है। द्वकोटिक ज्ञान सन्देह तथा एककोटिक सत्यासत्य ज्ञान निश्चय, भ्रम, सम्भावना, स्मृति आदि का हेतु सादृश्य होता है। हमने सादृश्य से स्मृति, भ्रान्ति, सन्देह, सम्भावना आदि मानसिक दशा के आविर्भाव के मनोवैज्ञानिक तथ्य पर काव्यालङ्कार के मनोवैज्ञानिक अध्ययन के सन्दर्भ में विस्तार से विचार किया है। स्पष्ट है कि दास ने मनोवैज्ञानिक आधार पर उत्प्रेक्षादि-वर्ग में अलङ्कारों का वर्गीकरण किया है। इन अलङ्कारों के मूल में समान तत्त्व है दो वस्तुओं के ज्ञान का सम्बन्ध-विशेष ।।
व्यतिरेक-रूपकादि-वर्ग के रूपक, परिणाम और उल्लेख रुय्यक आदि के द्वारा अभेद-प्रधान सादृश्यमूलक-वर्ग में रखे गये थे। रुय्यक की उस धारणा को लेकर दास ने उसमें गम्यमान औपम्य के व्यतिरेक को मिला कर एक वर्ग की कल्पना कर ली है। अतिशयोक्ति-वर्ग के अलङ्कारों में समान रूप से अतिशयता की धारणा है।
अन्योक्त्यादि-वर्ग में ऐसे अलङ्कारों को परिगणित किया गया है, जिनमें समान रूप से एक अर्थ के कथन से अन्य अर्थ की व्यञ्जना होती है । जहाँ कवि अभिप्रेत अर्थ का साक्षात् कथन न कर ऐसी भङ्गी से वर्णन करता है कि अभीष्ट अर्थ अभिव्यजित हो जाता है; ऐसी उक्तियों के विभिन्न रूपों में विभिन्न अलङ्कारों की कल्पना अलङ्कार-शास्त्र में की गयी है। भिखारी दास ने एक उक्ति से अन्य उक्ति की व्यञ्जना की धारणा पर आधृत अलङ्कारों को एक वर्ग में वर्गीकृत किया है। इस वर्ग के अलङ्कारों का मूल-तत्त्व है एक अर्थ की उक्ति से अन्यार्थ की व्यञ्जना। अतः, इस वर्ग के अलङ्कारों को अन्यार्थव्यञ्जनामूलक कहा जा सकता है। यह भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए कि अन्योक्ति आदि वर्ग में केवल अन्य उक्ति अर्थात् अप्रस्तुत-उक्तिमूलक अलङ्कार ही हैं । इस वर्ग के अप्रस्तुतप्रशंसा में यदि अप्रस्तुतकथन से प्रस्तुत
१. द्रष्टव्य-प्रस्तुत ग्रन्थ, अध्याय ८ २. डॉ० ओम्प्रकाश ने अन्योक्ति से केवल अप्रस्तुतोक्ति का अर्थ मान लिया है । (द्रष्टव्य, रीति-अलङ्कार साहि० पृ० ४६१) । ऐसा अर्थ मानने पर समासोक्ति आदि का इस वर्ग में समावेश सम्भव नहीं होगा। दास ने इस वर्ग के अलङ्कारों का मूलाधार अन्य की उक्ति से अन्य की व्यञ्जना को माना है। वह उक्ति अप्रस्तुत की भी हो सकती है और. प्रस्तुत की भी।
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३८८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण गम्यमान होता है तो इसके विपरीत समासोक्ति में प्रस्तुत की उक्ति से अप्रस्तुत की व्यञ्जना होती है। प्रस्तुताङ्कर में एक प्रस्तुत के वर्णन से दूसरे प्रस्तुत का भी बोध हो जाता है। व्याजस्तुति में निन्दा तथा स्तुति की उक्ति से क्रमशः स्तुति और निन्दा की व्यञ्जना होती. है। आक्षेप में विधि-मुख से निषेध आदि की व्यञ्जना होती है। निष्कर्ष यह कि अन्योक्त्यादि वर्ग के सभी अलङ्कारों में एक अर्थ के कथन से अन्य अर्थ की व्यञ्जना होती है।
विरुद्धादि अलङ्कार-वर्ग की कल्पना आचार्य रुय्यक के विरोधमूलक अलङ्कार-वर्ग के आधार पर की गयी है। इस वर्ग के अलङ्कारों का मूल-तत्त्व विरोध है। आचार्य रुय्यक ने इस वर्ग में विरोध, विभावना, व्याघात आदि बारह अलङ्कारों की गणना की थी। भिखारी दास ने उनमें से छह को विरुद्धादि अलङ्कार-वर्ग में रखा है।
उल्लास आदि वर्ग में परिगणित चौदह अलङ्कारों के समान मल-तत्व का स्पष्ट निर्देश भिखारी दास ने किया है। उन्होंने कहा है कि मैंने गुण-दोष की धारणा के आधार पर चौदह अलङ्कारों को उल्लासादि वर्ग में रखा है।' स्पष्टतः, अलङ्कारों के मूल-तत्त्व के आधार पर प्रस्तुत अलङ्कार-वर्ग कल्पित है । अलङ्कारों के मूल में गुण-दोष-धारणा का समान आधार स्थिर कर एक नवीन अलङ्कार-वर्ग की कल्पना का श्रेय भिखारी दास को है। ___सम आदि सोलह अलङ्कारों के एक वर्ग की कल्पना का आधार दास ने उचित-अनुचित बात के कहने का चमत्कार माना है। इस प्रकार इस वर्ग की कल्पना भी अलङ्कारों के मूल में निहित एक सामान्य तत्त्व के आधार पर ही की गयी है।
सूक्ष्म आदि वर्ग में अलङ्कार-वर्गीकरण का आधार ध्वनि को माना गया है। इस वर्ग के अलङ्कारों में समान रूप से वस्तु व्यङ्ग य हुआ करती है। रुय्यक आदि ने भी गूढार्थप्रतीतिमूलक अलङ्कारों का स्वतन्त्र वर्ग माना है। यह धारणा रुय्यक की धारणा से मिलती-जुलती है।
१. सब गु न-दोष-प्रकार गुनि, किएँ एक ही ठौर थिति ।
-भिखारी दास, काव्यनिर्णय, १४ पृ० ३५७ - २. वही, १५ पृ० ३८५
३. वही, १६ पृ० ४३१
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अलङ्कारों का वर्गीकरण
[३८९ स्वभावोक्ति-वर्ग के अलङ्कारों का समान तत्त्व वाचकपद-मूलकता को स्वीकार किया गया है। अतः, सूक्ष्म आदि व्यङ्ग यप्रधान अलङ्कारों से स्वभावोक्ति आदि वाचकपदप्रधान अलङ्कार भिन्न-धर्मा हैं।
दास के अर्थालङ्कार-विभाग की इस परीक्षा से स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने कुछ अलङ्कारों को एक वर्ग में रखने के समय उन अलङ्कारों में अन्तर्निहित कुछ मूल-तत्त्वों को ध्यान में अवश्य रखा था। उन वर्गों का स्पष्ट नामकरण नहीं होने के कारण मूल-तत्त्व की धारणा अवश्य ही कुछ अस्पष्ट रह गयी है; किन्तु कई वर्गों के मूलाधार का स्पष्ट उल्लेख भी दास ने कर दिया है। अतः, भिखारी दास के अलङ्कार-वर्गों के सम्बन्ध में कन्हैयालाल पोद्दार की यह मान्यता प्रमाण-पुष्ट नही है कि दास ने अलङ्कारों का क्रम मूल-तत्त्वों के आधार पर नहीं रखा । २
भिखारी दास के वर्गीकरण में थोड़ी अव्यवस्था भी अवश्य रह गयी है। उपमादि वर्ग से व्यतिरेक रूपकादि वर्ग को अलग करने का एक आधार यह माना जा सकता है कि सादृश्यमूलक होने पर भी उपमा आदि भेदाभेदतुल्यप्रधान हैं तो रूपक आदि अभेद प्रधान, पर प्रश्न यह है कि उस अभेदप्रधान सादृश्यमूलक अलङ्कार-वर्ग में व्यतिरेक को कैसे गिना जा सकता है ? अतिशयोक्ति-वर्ग के अलङ्कारों का मूल-तत्त्व भी यदि अतिशय की धारणा को स्वीकार किया जाय तो उदात्त की इस वर्ग में गणना उचित नहीं जान पड़ती। वर्गीकरण-विषयक ये छोटी-छोटी अव्यवस्थाएँ उपेक्षणीय ही मानी जा सकती हैं, फिर भी डॉ० भगीरथ मिश्र के इस अतिगामी कथन से सहमत होना कठिन है कि इस प्रकार अनेक अलङ्कारों का सामान्य आधार हूँढ़ कर उनका वर्ग बाँधना दास की विशेषता है, जैसा कि न किसी ने पहले और न किसी ने उनके पीछे किया।3 डॉ० मिश्र का. यह कथन इस सुधार के साथ मान्य है कि हिन्दी-रीति-आचार्यों में दास का वर्गीकरण-प्रयास सर्वाधिक प्रामाणिक है।
दास ने वाक्यालङ्कार-वर्ग की कल्पना कर प्राचीन आचार्यों के द्वारा अर्थालङ्कार के रूप में स्वीकृत यथासंख्य, एकावली, कारणमाला, उत्तरोत्तर, रसनोपमा, रत्नावली, पर्याय और दीपक को इस स्वतन्त्र वाक्यालङ्कार-वर्ग में विभाजित किया है।
१. भिखारी दास, काव्यनिर्णय १७ पृ० ४५७ २. कन्हैयालाल पोद्दार, काव्यकल्पद्रुम, भाग २, प्राक्कथन, पृ० ४२ ३. डॉ० भगीरथ मिश्र, हिन्दी काव्यशा० का इति०, पृ० १३७
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३६० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
आचार्य भिखारी दास के अलङ्कार वर्गों को निम्न तालिका से प्रकट किया जा सकता है—
अर्थालङ्कार
अलङ्कार
I
वाक्यालङ्कार
(5)
I
शब्दालङ्कार
(५)
चित्रालङ्कार
(१)
I
I
१
२
३
४
८
५
६
७
९
उपमादि, उत्प्र ेक्षादि व्यति- अतिशयोक्ति अन्यो- विरुद्धादि उल्लासादि समादि सूक्ष्मादि स्वभारेकरूपकादि आदि क्तिआदि वोक्ति आदि
संस्कृत तथा हिन्दी अलङ्कार - शास्त्र के आचार्यों के अलङ्कार वर्गीकरणप्रयास के इस परीक्षण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि काव्यालङ्कार का विभाग दो दृष्टियों से किया गया है - (क) अलङ्कार के आश्रयभूत शब्द और अर्थ की दृष्टि से तथा (ख) अर्थालङ्कारों में भी अनेक अलङ्कारों में समान रूप से पाये जाने वाले मूल तत्त्व की दृष्टि से । आश्रय के आधार पर मुख्यतः तीन अलङ्कार-वर्गों की कल्पना की गयी है - ( क ) शब्दालङ्कार-वर्ग, (ख) अर्थालङ्कार - वर्ग तथा ( ग ) उभयालङ्कार - वर्ग ।
उन तीन वर्गों के अतिरिक्त कुछ आचार्यों ने मिश्रालङ्कार - वर्ग की तथा सङ्कीर्ण या अन्योन्याश्लेषपेशल -वर्ग की भी कल्पना की है । उभय मिश्र तथा सङ्कीर्ण वर्गों की धारणा स्पष्ट नहीं रही है । कुछ आचार्यों ने उभयालङ्कारवर्ग में ही संसृष्टि और सङ्कर को रखा है । कुछ आचार्यों के द्वारा उभयालङ्कार-वर्ग में शब्दार्थोभयगत अलङ्कार रखे गये हैं । मिश्रालङ्कार-वर्ग की भी स्थिति स्पष्ट नहीं । एक तो इस वर्ग की सत्ता बहुत कम आचार्यों ने स्वीकार की है, दूसरे यह मत भी स्थिर नहीं हो पाया है कि इस वर्ग में केवल उन्हीं अलङ्कारों का वर्गीकरण किया जाय, जिनमें दो या अधिक अलङ्कारों की प्रकृति का मिश्रण है, या उनका भी, जिनमें एकाधिक अलङ्कार के साथ रहने की धारणा है । सङ्कीर्ण या अन्योन्याश्लेषपेशल - वर्ग में केवल अलङ्कारों की संसृष्टि या उनका सङ्कर रखा गया है ।
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अलङ्कारों का वर्गीकरण
[ ३६१ उपरिलिखित पाँच वर्गों को स्वीकार कर लेने से अलङ्कारों के आश्रय के आधार पर वर्गीकरण की समस्या का समाधान मिल जाता है। कुछ अलङ्कार शब्द पर आश्रित हैं, कुछ अर्थ पर तो कुछ शब्द और अर्थ दोनों पर । उदाहरणार्थ; अनुप्रास, यमक आदि शब्दाश्रित हैं; उपमा आदि अर्थाश्रित तथा वक्रोक्ति, पुनरुक्तवदाभास आदि शब्दार्थोभयाश्रित । श्लेष भी उभयालङ्कार है। अतः, उसके दो रूपों-शब्दश्लेष और अर्थश्लेष-की कल्पना करनी पड़ी है। मालादोपक, उपमारूपक आदि अलङ्कारों में दो अलङ्कारों के स्वभाव का मिश्रण है । ऐसे अलङ्कारों को सामान्यतः अर्थालङ्कार-वर्ग में रखा जाता है; पर उन्हें मिश्रालङ्कार-वर्ग में रखना अधिक सङ्गत होगा। संसृष्टि और सङ्कर को स्वतन्त्र वर्ग में—सङ्कीर्ण-वर्ग या अन्योन्याश्लेषपेशल-वर्ग में रखा जाना चाहिए।
हिन्दी-रीति-साहित्य में दो और वर्ग कल्पित हए-शब्दालङ्कार-वर्ग से स्वतन्त्र चित्रालङ्कार-वर्ग तथा लिङ्कार-वर्ग से स्वतन्त्र वाक्यालङ्कार-वर्ग । इन वर्गों की कल्पना केवल अध्ययन की सुविधा के लिए स्वीकार की जा सकती है।
पण्डित रामदहिन मिश्र ने आलोचक-सुलभ तटस्थता के साथ रुद्रट, विद्यानाथ, रुय्यक आदि के अलङ्कारवर्गीकरण की परीक्षा कर उन्हें वैज्ञानिक वर्गीकरण माना है। किन्तु, उन्होंने अपने मत से अलङ्कारों के शब्दगत एवं अर्थगत-वर्ग मान कर अर्थगत अलङ्कारों को पुनः औपम्यमूलक तथा वाक्यवक्रता-मूलक अलङ्कार-वर्गों में विभाजित किया है।
अर्थालङ्कार का समान मूल-तत्त्व के आधार पर वर्गीकरण का प्रयास रुद्रट से लेकर भिखारी दास तक चलता रहा। उन आचार्यों के द्वारा कल्पित अलङ्कार-वर्गों में से कोई एक तो सर्वथा पूर्ण और निर्दोष नहीं है; पर उन सब को मिला कर वर्गीकरण का एक व्यापक और पूर्ण आधार बनाया जा सकता है। अलङ्कारों के स्वरूप पर समग्रता से विचार करने पर उनके कुछ ब्यावर्तक धर्म स्पष्टतः परिलक्षित होते हैं। कुछ अलङ्कारों में प्रस्तुत की प्रभाव-वृद्धि के लिए अप्रस्तुत की योजना होती है। आरम्भ में अलङ्कारविधान के मूल में अप्रस्तुत विधान की ही धारणा थी। शब्दचमत्कारमूलक
१. द्रष्टव्य-रामदहिन मिश्र, काव्यदर्पण, पृ० ४३७-३८ २. वही, पृ० ४१६-२०
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३९२] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण यमक को छोड़, भरत के तीनों अर्थालङ्कारों के मूल में अप्रस्तुत-योजना की धारणा थी। वामन, अभिनव आदि आचार्य प्रस्तुत के लिए अप्रस्तुत का विधान करने वाले अलङ्कारों को ही स्वीकार्य मानते हैं। भारतीय अलङ्कारशास्त्र में अनेक ऐसे अलङ्कार भी कल्पित और स्वीकृत हुए हैं, जिनमें केवल वर्ण्य-वस्तु का भङ्गी-विशेष से वर्णन अपेक्षित होता है। यह वर्णन दो रूपों में हो सकता है-वस्तु-स्वभाव या स्वरूप का यथार्थ वर्णन तथा उसका सातिशय या कृत्रिम वर्णन । अप्रस्तुत-विधान में तो सातिशयता रहा ही करती है, वस्तु-स्वरूप के वर्णन में भी कहीं-कहीं सातिशय की धारणा रहा करती है। इस दृष्टि से रुय्यक के औपम्य, वास्तव और अतिशय-ये तीनों अलङ्कार-वर्ग वैज्ञानिक, अतः स्वीकार्य हैं। ___ अनेक अलङ्कारों का प्रधान स्वभाव गूढार्थ-प्रत्यायकता है; अतः रुय्यक का गूढार्थ-प्रतीतिमूलक एक अलङ्कार-वर्ग भी स्वीकार किया जा सकता है। भिखारी दास के अनुसार इसे व्यापक रूप देकर उन सभी अलङ्कारों को, जिनमें एक उक्ति से अन्य अर्थ की व्यञ्जना होती है, इसमें वर्गीकृत किया जा सकता है।
हम देख चुके हैं कि पीछे चलकर शास्त्र तथा लोकन्याय की धारणा की भी अवतारणा अलङ्कार-क्षेत्र में हुई है । अतः, रुय्यक के द्वारा कल्पित न्यायमूलक-वर्ग भी उपादेय है। ____ रस-भाव आदि पर आश्रित रसवत्, प्रय आदि के लिए एक स्वतन्त्र वर्ग स्वीकार किया जाना चाहिए । इस वर्ग को कल्पना का श्रेय विद्यानाथ को है ।
उक्तिवैचित्र्य या भङ्गी-भणिति पर आधृत अलङ्कारो का एक स्वतन्त्र वर्ग माना जा सकता है।
गुण-दोष, कार्य-कारण, विशेषण-विशेष्य आदि के सम्बन्ध पर आश्रित अलङ्कारों के भी पृथक्-पृथक् वर्ग माने जा सकते हैं।
इन वर्गों में अलङ्कारों का विभाजन निम्नलिखित रूप में किया जा सकता है :
शब्दालङ्कार-वर्ग :-अनुप्रास, यमक । चित्रालङ्कार-वर्ग :-चित्र, प्रहेलिका । उभयालङ्कार-वर्ग (शब्दार्थोभय):-पुनरुक्तवदाभास, वक्रोक्ति, श्लेष । मिश्रालङ्कार-वर्ग :-सापह्नवोत्प्र क्षा, उपमा-रूपक, मालादीपक आदि । सङ्कीर्ण अलङ्कार-वर्ग :-संसृष्टि, सङ्कर ।
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अलङ्कारों का वर्गीकरण
[ ३९३ अर्थालङ्कार-वर्ग :-शेष सभी अलङ्कार, जो अर्थ पर आश्रित हैं, इस वर्ग में आते हैं। पर्याय-परिवतन-सहत्त्व इस वर्ग के अलङ्कार की कसोटी है। अर्थालङ्कार का निम्नलिखित वर्गों में विभाजन किया जा सकता है :
अप्रस्तुत विधान वाले अर्थात् औपम्यमूलक अलङ्कार :-उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अपह्नति, संशय, समासोक्ति, अन्योक्ति, प्रतीप, अर्थान्तरन्यास, भ्रान्तिमान्, आक्षेप. दृष्टान्त, साम्य, स्मरण, उपमेयोपमा, अनन्वय, परिणाम, अतिशयोक्ति, तुल्ययोगिता, दीपक, प्रतिवस्तूपमा, निदर्शना, व्यतिरेक, विनोक्ति, अप्रस्तुत प्रशंसा, सहोक्ति आदि । __वस्तुवर्णनपरक अर्थात् वास्तवमूलक अलङ्कार :-स्वभावोक्ति, समुच्चय, यथासंख्य, पर्याय, विषम, अनुमान, परिकर, परिवृत्ति, परिसंख्या, हेतु, कारणमाला, अन्योन्य, उत्तर, सार, लेश, अवसर, मीलित, एकावली, अतद्गुण, पूर्वरूप, अनुगुण, स्वगुण, भाविक, उदात्त, भाविकच्छवि आदि । ___ अतिशयमूलक :-पूर्व, विशेष, विभावना, तद्गुण, अधिक, विरोध, विषम, असङ्गति, पिहित, व्याघात, अहेतु, विशेषोक्ति, विचित्र, अत्युक्ति, कार्यकारणपौर्वापर्य-विपर्यय-रूप अतिशयोक्ति आदि।
गूढार्थप्रतीतिमूलक या व्यङ्ग य-गर्भ अलङ्कार :-सूक्ष्म, व्याजोक्ति, पिहित, गूढोत्तर, गूढोक्ति, ललित, विवृतोक्ति, प्रस्तुताङ कुर आदि ।
रसभावाश्रित अलङ्कार :-रसवत्, प्रेय, ऊर्जस्वी, समाहित, भावसन्धि, भावशबलता आदि ।
न्यायमूलक :-(क) लोकन्यायाश्रित-प्रत्यनीक, प्रतीप, मीलित, सामान्य, तद्गुण, अतद्गुण, उत्तर ।
(ख) वाक्यन्यायमूलक-यथासंख्य, पर्याय, परिवृत्ति, अर्थापत्ति, विकल्प, परिसंख्या, समुच्चय, समाधि ।
(ग) तर्कन्यायमूलक-काव्यलिङ्ग, अनुमान, प्रमाणालङ्कार आदि ।
कार्यकारण-भाव, विशेष्यविशेषण-भाव आदि के आधार पर भी अलङ्कारों के अवान्तर-भेद सम्भव हैं । उक्ति-भङ्गिमा पर आधृत लोकोक्ति, छेकोक्ति, व्याजोक्ति आदि को अलग वर्ग में भी रखा जा सकता है। मनोभाव से प्रत्यक्षतः सम्बद्ध अलङ्कारों को अलग मनोभावाश्रित-वर्ग में वर्गीकृत किया जा सकता है । इस वर्ग में प्रहर्षण, विषादन, स्मृति, भ्रान्ति, सन्देह आदि को रखा जा सकता है।
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३९४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
प्रमाता-प्रमेय, वक्ता-बोद्धा आदि की अपेक्षा रखने वाले व्याजस्तुति, वक्रोक्ति, प्रश्नोत्तर, व्याजोक्ति आदि का भी एक स्वतन्त्र वर्ग कल्पित हो सकता है । अनेक दृष्टियों से अलङ्कार का वर्गीकरण किये जाने पर एक ही अलङ्कार अनेक वर्गों में भी आ सकता है । यह अशास्त्रीय नहीं । उदाहरणार्थ, लोकन्यायाश्रित अनेक अलङ्कार वास्तव वर्गगत भी हैं। __ अलङ्कार-वर्गीकरण के आयास की सार्थकता केवल तत्तद्वर्गों में अलङ्कार के अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से ही है। स्वीकार्य अलङ्कार-वर्गों की तालिका नीचे दी जाती है :
अलङ्कार
शब्दाल० चित्रालं० उभयालं० मिश्रालं० अर्थालं० साल.
संसृष्टि
सङ्कर
औपम्यमूलक वास्तव अतिशयमूलक व्यङ्ग,यगर्भ रसभावाश्रित न्यायमूलक (प्रकीर्ण)
वक्ताबोद्धा मनोभावा- उक्तिमूलक विशेषणविशेष कार्यकारण गुण-दोष सापेक्ष श्रित
पर आश्रित पर आश्रित पर आश्रित
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पञ्चम अध्याय"
अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
भारतीय अलङ्कार-शास्त्र में निरूपित काव्यालङ्कारों के लक्षण की परीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी अलङ्कार के किसी विशेष आचार्य द्वारा कल्पित लक्षण से सभी आचार्य सहमत नहीं । एक ही आचार्य के द्वारा प्रतिपादित अलङ्कार-लक्षण से सभी आचार्यों की सहमति उनकी स्वस्थ समीक्षात्मक दृष्टि का परिचायक भी नहीं होती। सभी आचार्यों ने अलङ्कार - विशेष के सम्बन्ध में पूर्व स्थापित मान्यता पर विचार करते हुए उसका परिमार्जित और निर्दुष्ट लक्षण-निरूपण करने का प्रयास किया है । जिन आचार्यों में विषयविवेचन की मौलिक दृष्टि थी, उन्होंने स्वतन्त्र रूप से अलङ्कार - विशेष की परिभाषा की कल्पना की । सामान्य मेधा वाले आचार्यों ने पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा निरूपित अलङ्कार - लक्षणों में से ही किसी एक का ग्रहण और अन्य का त्याग किया। कुछ आचार्यों ने पूर्व उद्भावित अनेक लक्षणों को मिला-जुला कर अलङ्कार - विशेष का एक लक्षण बना दिया । अलङ्कार - लक्षण का यह त्याग-ग्रहण आरम्भ से अन्त तक चलता रहा है । बीच-बीच में स्वतन्त्र चिन्तन से भी अलङ्कार-लक्षणों की कल्पना होती रही है । अतः, अलङ्कार - विशेष का लक्षण - विकास अलङ्कार-धारणा के क्रमिक विकास का प्रतिनिधित्व नहीं करता, जैसा कि भ्रमवश कुछ लोगों ने मान लिया है ।' अलङ्कार - विशेष के लक्षणविकास के पीछे कई कारण विद्यमान रहे हैं, जिनमें कुछ का सम्बन्ध साहित्य -- विषयक मान्यता से तथा कुछ का सम्बन्ध मूलतः भाषा की प्रकृति से है ।
१. द्रष्टव्य— डॉ० ओम्प्रकाश, रीतिकालीन अलङ्कार - साहित्य का शास्त्रीय विवेचन, पृ० २२ε
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३६६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
रसवत् आदि के स्वरूप के सम्बन्ध में अलङ्कारवादी एवं रसवादी आचार्यों का दृष्टिभेद स्वाभाविक था। रस आदि को अलङ्कार के क्षेत्र में परिमित करने का आग्रह रखने वाले आचार्यों ने रसपेशलता को रसवत् अलङ्कार मान लिया; किन्तु जो आचार्य काव्य में रस का अलङ्कार से स्वतन्त्र तथा उससे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान मानने के पक्षपाती थे, उन्होंने केवल रस की अप्रधानता के -स्थल में रसवत् अलङ्कार का अस्तित्व स्वीकार किया।' भावाश्रित प्रेय, ऊर्जस्वी आदि की भी यही स्थिति है । फलतः, रसवदादि अलङ्कारों के स्वरूप का निरूपण रसवादी तथा अलङ्कारवादी आचार्यों के द्वारा अलग-अलग रूपों में किया गया। __अलङ्कार के सम्बन्ध में आचार्यों की मूल धारणा के भेद के कारण भी अलङ्कार-विशेष का स्वरूप-परिवर्तन हुआ है। वामन आदि आचार्यों ने इस मूल धारणा के साथ अलङ्कार-विशेष का लक्षण-निरूपण किया कि प्रत्येक अलङ्कार में उपमानोपमेय भाव किसी-न-किसी रूप में अवश्य रहना चाहिए। अतः, उन्होंने पूर्वाचार्यों के अनेक अलङ्कारों का अलङ्कारत्व तो अस्वीकार कर ही दिया, साथ ही कुछ अलङ्कारों के स्वरूप में उपमानोपमेय-सम्बन्ध को जोड़ कर उनके किञ्चित् नवीन रूप का प्रतिपादन किया। फलतः; परिवृत्ति, सहोक्ति आदि में भी, जिनमें अन्य आचार्यों ने क्रमशः किन्हीं दो वस्तुओं का विनिमय तथा सहभाव-वर्णन अपेक्षित माना था, वामन के अनुसार विनिमय तथा सहभाव वाली वस्तुओं के बीच कुछ प्रस्तुत-अप्रस्तुत के सम्बन्ध की कल्पना आवश्यक हो गयी। उपमानोपमेय-भाव के आग्रह के कारण ही उनकी विशेषोक्ति शोभाकर के अभेद तथा जगन्नाथ के रूपक के समान बन गयी है।
अलङ्कार-शास्त्र का इतिहास प्रमाणित करता है कि प्राचीन आचार्यो में सामान्य रूप से तत्त्व-निरूपण की प्रवृत्ति थी; पर पीछे चल कर विशेषीकरण की प्रवृत्ति बढ़ती गयी। फलतः, प्राचीन आचार्यों के द्वारा निरूपित एक अलङ्कार के व्यापक स्वरूप से पीछे चल कर अनेक अलङ्कार आविर्भूत हुए हैं। एक अलङ्कार के आधार पर अनेक अलङ्कारों की कल्पना के लिए उन दोनों के बीच किञ्चित् भेद की कल्पना तथा दोनों की सीमा के निर्धारण की १. भामह, उद्भट आदि ने शृङ्गारादि रसयुक्त वाक्य में रसवत् अलङ्कार
माना है; पर विश्वनाथ के अनुसार रस-भाव आदि के गौण हो जाने में रसवत्, प्रेय आदि अलङ्कार का अस्तित्व माना जाता है।-तुलनीयउद्भट,काव्यालं० सार सं० ४,२-४ तथा विश्वनाथ,साहित्यद० १०,१२४
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[३६७
आवश्यकता हुई। उस मूल अलङ्कार के क्षेत्र को सीमित करने तथा उससे उद्भूत अलङ्कार से उसके स्वरूप का भेद सिद्ध करने के लिए उसकी परिभाषा में परिवर्तन किया गया। उदाहरणार्थ, आचार्य भरत ने यमक का लक्षण केवल 'शब्द का अभ्यास' अर्थात् शब्द की आवृत्ति को माना था ।' अभिनव गुप्त ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यमक के उक्त लक्षण में ही अनुप्रास, लाटानुप्रास आदि की सम्भावना निहित थी।२ पीछे चल कर जब यमक से अनुप्रास, लाटानुप्रास आदि की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की गयी तो उनके बीच कुछ भेद लाने के लिए भरत के यमक-लक्षण में एक विशेषण जोड़ दिया गया कि 'अर्थ-भेद से पदावृत्ति होने पर यमक अलङ्कार होता है।' इस प्रकार यमक के प्राचीन लक्षण में परिवर्तन तथा उसका सीमा-निर्धारण किया गया।
कुछ आचार्यों ने सभी अलङ्कारों की संज्ञा को अन्वर्था संज्ञा मान कर नाम के आधार पर उनके स्वरूप की कल्पना की है। अधिकांश अलङ्कारों के नाम अन्वर्थ अवश्य हैं; किन्तु कुछ अलङ्कारों के नामानुरूप लक्षण-योजना के लिए उनके स्वरूप में किञ्चित् परिवर्तन करना पड़ा है। शब्दार्थ के सम्बन्ध में धारणा के परिवर्तन के साथ अलङ्कार-लक्षण के परिवर्तन का विस्तार से अध्ययन हमने 'अलङ्कार और भाषा' नामक अध्याय में किया है। यहाँ एक उदाहरण पर्याप्त होगा-अप्रस्तुतप्रशंसा का लक्षण अधिकांश आचार्यों ने यह माना है कि इसमें अप्रस्तुत का वर्णन होता है और उससे प्रस्तुत अर्थ की व्यञ्जना होती है, पर कुछ आचार्यों ने प्रशंसा का अर्थ स्तुतिगान मान कर लक्षण में यह परिवर्तन कर दिया कि अप्रस्तुत प्रशंसा में उपमान की प्रशंसा अर्थात् स्तुति की जाती है और फिर इस लक्षण को देख कर कुछ आचार्यों ने उसके स्थान पर अप्रस्तुतस्तुति नामकरण कर दिया।
इस प्रकार अनेक कारणों से अलङ्कार-विशेष के लक्षण में संशोधनपरिवर्तन होते रहे हैं। अलङ्कार-विशेष के लक्षण-विकास (विकास से तात्पर्य परिवर्तन-मात्र का है ) के अध्ययन में उसके मूल में निहित साहित्य-शास्त्रीय तथा साहित्य-शास्त्र तर कारणों का परीक्षण वाञ्छनीय होगा। अलङ्कार के लक्षण में कुछ परिवतन तो केवल मौलिकता-प्रदर्शन के लिए कर दिया गया
१. शब्दाभ्यासस्तु यमकम्......-भरत, ना० शा० १६,५६ २. शब्दशब्देन वर्णः पदं तदेकदेश इति सर्व गृह्यते । तेनानुप्रासः, लाटीया--
देरनेनैवोपसंग्रहः।-वही, अभिनवभारती, पृ० ३२६ ।
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३६८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण है; कुछ परिवर्तन भ्रान्तिवश भी हो गया है ।' ऐसे भ्रान्तिमूलक तथा नवीनता-प्रदर्शनमूलक परिवर्तन अग्राह्य हैं। अतः, उनपर विशेष विचार की अपेक्षा नहीं।
प्रस्तुत अध्याय में हम चार मूल अलङ्कारों से लेकर शताधिक स्वीकार्य अलङ्कारों में से प्रत्येक के उद्भव से लेकर संस्कृत तथा हिन्दी-अलङ्कार-शास्त्र में उसके स्वरूप-विकास का अध्ययन प्रस्तुत करेंगे
यमक
भारतीय अलङ्कार-शास्त्र में उपलब्ध शब्दालङ्कारों में यमक प्रथम है। ऐतिहासिक दृष्टि से तो यह प्रथम है ही, समग्र शब्दालङ्कार-प्रपञ्च का उद्गमस्रोत होने के कारण महत्त्व की दृष्टि से भी प्रथम है। आचार्य भरत के द्वारा स्वीकृत एवं परिभाषित चार अलङ्कारों में यमक एकमात्र शब्दालङ्कार है । यद्यपि भरत ने शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार-वर्गों में अलङ्कारों का विभाजन नहीं किया था तथापि यमक के लक्षण से अन्य अलङ्कारों से इसका यह भेद स्पष्ट हो जाता है कि इसमें शब्द-सौन्दर्य पर बल दिया गया है, जब कि अन्य अलङ्कारों में अर्थ की चारुता का विचार है। अभिनवगुप्त ने यमक को शब्दालङ्कार कह कर भरत के शेष तीन अलङ्कारों से उसका भेद किया है। आचार्य भरत के अनुसार शब्द का अभ्यास अर्थात् शब्दावृत्ति यमक अलङ्कार है। एक शब्द की आवृत्ति ध्वनि-साम्य के कारण श्र ति-सुखद होती है। इस चारु श्र ति में ही इसका अलङ्कारत्व है। आचार्य भरत के यमक-लक्षण "शब्दाभ्यास' में वर्णावृत्ति तथा पदावृत्ति; दोनों की धारणा निहित थी।
भामह ने प्राचीन आचार्यों के पांच अलङ्कारों की चर्चा करते हुए भरत के चार अलङ्कारों के अतिरिक्त एक अनुप्रास का भी उल्लेख किया और वर्णाभ्यास को अनुप्रास का लक्षण मान लिया । ऐसी स्थिति में अनुप्रास और यमक की पृथक्-पृथक् सत्ता के प्रतिपादन के लिए यमक-परिभाषा से वर्णाभ्यास की धारणा को निकाल कर उसके क्षेत्र का सीमा-निर्धारण आवश्यक हो
१. हिन्दी के रीति-अलङ्कार-लक्षण में अनेकत्र ऐसी भ्रान्ति तथा नवीनता
प्रदर्शन के मोह का उल्लेख हमने किया है। द्रष्टव्य-प्रस्तुक ग्रन्थ
अध्याय ३ २. शब्दालङ्कारस्वरूपमाह शब्दाभ्यासस्तु यमकमिति ।
-भरत, ना० शा० अभिनव भारती, पृ० ३२६
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ३६६ गया । भामह ने यमक की कोई नवीन परिभाषा तो नहीं दी; पर उसके व्यापक स्वरूप से अनुप्रास को पृथक् करने के लिए यमक की पूर्व प्रतिपादित परिभाषा में कुछ विशेषण जोड़ कर उसके विषय क्षेत्र को सीमित कर दिया । भरत की वर्णाभ्यास-धारणा के आधार पर अनुप्रास की कल्पना की गयी और पदाभ्यास-धारणा के आधार पर यमक के स्वरूप का स्थिरीकरण किया गया। यमक और अनुप्रास के बीच कुछ व्यावत के धर्मों की कल्पना की गयी। जब वर्णावृत्ति को अनुप्रास कहा गया तब यमक में श्र ुतिसम वर्णसमुदाय की आवृत्ति पर बल दिया गया । समान श्रुति वाले स्वर और व्यञ्जन के समुदाय की आवृत्ति में ही यमक का सद्भाव माना गया। अनुप्रास में केवल व्यञ्जन की भी आवृत्ति हो सकती है; पर यमक में स्वर- व्यञ्जनसङ्घ की आवृत्ति आवश्यक मानी गयी । अनुप्रास में केवल व्यञ्जनावृत्ति के साथ स्वर-व्यञ्जन-समुदाय की भी आवृत्ति हो सकती है । अतः, यमक - लक्षण में एक और व्यावर्त्तक धर्म की कल्पना आवश्यक हुई। यह माना गया कि यमक में श्रुतिसमभिन्नार्थक वर्णसमुदाय की ही आवृत्ति होनी चाहिए । आचार्य भरत ने केवल शब्द की आवृत्ति यमक में अपेक्षित मानी थी, भामह ने उस परिभाषा को दो सुधारों के साथ स्वीकार किया— (क) केवल श्र ुतिसम व्यञ्जन की नहीं, स्वर- व्यञ्जन-समुदाय की आवृत्ति यमक में होनी चाहिए तथा (ख) पुनरावृत्त स्वर - व्यञ्जन - समुदाय में श्र ुति की समता; पर अर्थ की भिन्नता होनी चाहिए । इस प्रकार अनुप्रास को यमक से अलग कर दोनों का भेद इन रूपों में माना गया -
(अ) अनुप्रास में केवल एक या अनेक व्यञ्जन की भी आवृत्ति हो सकती है और स्वर के साथ भी । पर,
यमक में स्वर और व्यञ्जन के समुदाय की उसी क्रम में आवृत्ति होती है ।
( आ ) यमक में आवृत्ति वाले पदों में श्रुतिमात्र की समता अपेक्षित है । सार्थक पदों के अर्थ में भिन्नता आवश्यक है । निरर्थक वर्णों की भी आवृत्ति हो सकती है । अनुप्रास में (विशेषतः लाटानुप्रास में) अर्थ-भेद आवश्यक नहीं । केवल तात्पर्य-भेद से समानार्थक श्र ुतिसम शब्दों की भी आवृत्ति हो सकती है । स्पष्ट है कि यमक के ही कुछ तत्त्वों से अनुप्रास की कल्पना कर लेने पर यमक की परिभाषा में कुछ परिष्कार करने की आवश्यकता हुई ।
१. द्रष्टव्य, भामह, काव्यालङ्कार २,६-१८
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४०० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
आचार्य दण्डी ने यमक के भेदोपभेद-विवेचन में तो पर्याप्त श्रम किया है पर उसके लक्षण- निरूपण में उन्होंने विशेष सावधानी नहीं रखी है । उन्होंने आचार्य भरत के मतानुसार 'वर्णसङ्घात की आवृत्ति' को तथा दूसरे स्थल पर भी 'वर्ण संहति की अव्यवहित अथवा व्यवहित आवृत्ति' को यमक लक्षण मान लिया । परिणामतः उनके यमक लक्षण में अतिव्याप्ति दोष की आशङ्का आ गयी । भामह के द्वारा स्वीकृत लाटानुप्रास की प्रकृति पर सम्भवतः इस उलझन से बचने के लिए ही दण्डी ने विचार नहीं किया। अनुप्रास और यमक की पृथक्-पृथक् सत्ता स्वीकार करने पर दोनों के व्यावर्त्तक धर्मों का उनके लक्षण में उल्लेख आवश्यक है । अनुप्रास में वर्णावृत्ति और यमक में वर्णसङ्घ की आवृत्ति; दोनों की प्रकृति के व्यावर्त्तन के लिए पर्याप्त नहीं है । कारण यह है कि अनुप्रास के भी कुछ रूपों में वर्णसङ्घ की ही आवृत्ति होती है, वर्णमात्र की नहीं । दण्डी के द्वारा यमक - अनुप्रास - विवेक की उपेक्षा का कारण यह हो सकता है कि वे माधुर्य गुण के पोषक श्रत्यनुप्रास को ही वैदर्भ काव्य का (जिसे वे उत्तम काव्य मानते थे ) स्वीकार्य गुण समझते थे । उनकी मान्यता थी कि गौड मार्ग के कवि रस- पोषक श्रत्यनुप्रास को छोड़ अनुप्रास की योजना में रुचि रखते हैं । वे अनुप्रास और यमक, दोनों को, जिनमें केवल वर्ण या वर्णसङ्घ की आवृत्ति अपेक्षित होती है, उपेक्षणीय मानते थे । उन्होंने यमक के अन्त में विवेचन का कारण भी यही बताया है । 3 अलङ्कार के रूप में दण्डी ने अनुप्रास की सत्ता स्वीकार भी नहीं की है । सम्भव है कि वे अनुप्रास को भी अलङ्कार के रूप में यमक में ही अन्तभूत मानते हों । फिर भी दण्डी उक्त अव्यवस्था के दोषारोपण से मुक्त नहीं हो सकते ।
उद्भट ने यमक की सत्ता ही स्वीकार नहीं की । शब्दावृत्ति, पदावृत्ति आदि को उन्होंने अनुप्रास के अन्तर्गत रखा । यमक की इस अस्वीकृति का कोई सङ्गत कारण नहीं ।
१. आवृत्ति वर्णसङ्घातगोचरां यमकं विदुः । दण्डी, काव्याद० १, ६१ तथा अव्यपेतव्यपेतात्मा व्यावृत्तिर्वर्णं संहतेः ।
यमकं तच्च पादानामादिमध्यान्तगोचरम् ॥ - वही, ३, १
२. उक्त यमक लक्षण से तुलनीय - वर्णावृत्तिरनुप्रासः पादेषु च पदेषु च ।
वही, १, ५५.
३. तत्तु (यमकं तु) नैकान्तमधुरमतः पश्चाद्विधास्यते । - वही, १, ६१ ४. दण्डी ने गुण-निरूपण के प्रसङ्ग में ही गौडी के अनुप्रास का स्वरूपनिरूपण कर दिया है । - द्रष्टव्य, वही, प्रथम परिच्छेद ।
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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ४०१
वामन ने यमक के लक्षण में यह स्पष्ट किया कि अनेकार्थक पद अथवा अक्षर की आवृत्ति स्थान नियम से होने पर यमक अलङ्कार होता है ।' वामन के इस लक्षण में चिन्त्य है कि सार्थक केवल पद ही होते हैं । अतः पदावृत्ति के स्थल में ही पदों की भिन्नार्थकता अपेक्षित होगी । जहाँ निरर्थक समश्र ुति वाले वर्णों की भी स्थान नियम से आवृत्ति होगी, वहाँ भी यमक की सत्ता मानी जायगी। भरत ने यमक में केवल शब्दाभ्यास आवश्यक माना था । भामह के अनुसार अर्थ - भेद से वर्णावृत्ति ( जिसका अर्थ पदावृत्ति ही होगा, चूँकि अर्थ-भेद पद का ही हो सकता है ) यमक का लक्षण है । वामन ने यमक के लक्षण का और परिष्कार किया और उसके दो स्पष्ट भेद कर दिये(क) सार्थक पदों की अर्थभेद से स्थान नियम के साथ आवृत्ति तथा (ख) निरर्थक वर्णसङ्घ की स्थान- नियम के साथ आवृत्ति । वामन ने अनुप्रास और यमक का भेद भी स्पष्ट कर दिया है। उनके मतानुसार
(क) यमक में पद या वर्णसङ्घ की आवृत्ति नियत स्थान में ही होती है, पर अनुप्रास में आवृत्ति का स्थान अनियत है ।
(ख) यमक में पद की आवृत्ति अर्थभेद से ही हो सकती है, अनुप्रास में यह नियम नहीं ।
(ग) यमक में पूर्ण रूप से स्वर और व्यञ्जन - समुदाय की उसी क्रम से आवृत्ति होती है, पर अनुप्रास में स्वर-भेद के साथ भी व्यञ्जनावृत्ति हो सकती है ।
वामन का यमक-लक्षण भी आचार्य भरत की यमक धारणा का ही स्पष्टीकरण करता है । उसके सभी विशेषणों की कल्पना अनुप्रास और यमक के स्वतन्त्र अस्तित्व के प्रतिपादन के लिए की गयी है ।
रुद्रट ने भी यमक में आवृत्त वर्णों में श्र ुति की समता, क्रम की समानता तथा ( सार्थक पदों में ) अर्थ की भिन्नता वाञ्छनीय मानी है । वामन के स्थान- नियम को रुद्रट ने यमक का आवश्यक लक्षण नहीं माना है ।
वक्रोक्तिवादी कुन्तक ने वर्णविन्यास- वक्रता के भेद के रूप में यमक का लक्षण -निरूपण किया है । उन्होंने यमक-विषयक वामन की मान्यता को स्वीकार १. पदमनेकार्थमक्षरं वाऽवृत्त स्थाननियमे यमकम् ।
- वामन, काव्यालं० सू०, ४, १,
२. तुल्यश्रतिक्रमाणामन्यार्थानां मिथस्तु वर्णानाम् । पुनरावृत्तिर्यमकम् ४. X
[
२६
X x ॥ - रुद्रट, काव्यालङ्कार; ३,१
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४०२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण कर उसमें अपनी ओर से भी कुछ जोड़ा है। उन्होंने यमक की परिभाषा में कहा है कि जहाँ समान वर्ण वाले, पर भिन्नार्थक; प्रसादगुणयुक्त, श्र तिपेशल, औचित्ययुक्त पद की स्थान-नियम के साथ आवृत्ति होती हो, वहाँ यमक अलङ्कार होता है।' अर्थभेद से समान वर्ण वाले पद की नियत-स्थान में आवृत्ति की धारणा प्राचीन ही है। कुन्तक की इस परिभाषा में निरर्थक वर्ण-समुदाय की आवृत्ति में यमक की अव्याप्ति हो जाती है। प्रसाद गुण से युक्त होना, श्र तिपेशल होना तथा औचित्ययुक्त होना कुन्तक ने यमक में आवश्यक माना है। यह धारणा नवीन है। यमक में प्रसाद गुण भी हो तो अवश्य ही उसका सौन्दर्य बढ़ जायगा, पर प्रसादत्व को यमक का आवश्यक लक्षण मानना उसके क्षेत्र को अनावश्यक रूप से सीमित कर देना है। प्रसादेतर ओज आदि के स्थल में भी यमक के सद्भाव की सम्भावना को समाप्त नहीं किया जा सकता। श्र तिपेशलत्व विशेषण का औचित्य भी चिन्त्य है। समान वर्ण, पद आदि की आवृत्ति के मूल में श्रव्यत्व की धारणा प्राचीन काल से ही रही है, किन्तु कुन्तक ने श्र तिपेशल का विशेष अर्थ में प्रयोग किया है। उनके अनुसार अकठोर वर्ण-विन्यास ही श्र तिमधुर होता है। इस तरह कठोर वर्ण या पद की आवृत्ति में कुन्तक के अनुसार यमक का सद्भाव स्वीकार्य नहीं होगा। पर भारतीय साहित्य में कठोर पदावृत्ति-रूप यमक के भी अनेक सुन्दर उदाहरण पाये जाते हैं । अतः यह लक्षण अव्याप्ति दोष से मुक्त नहीं। औचित्ययुक्त का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए कुन्तक ने कहा है कि जहां यमकरचना के व्यसन से औचित्य की हानि नहीं होती हो, वहीं यमक का अलङ्कारत्व स्वीकीर्य होगा। अलङ्कार-विशेष के लक्षण में यह उल्लेख अनावश्यक है।
औचित्य तो गुण, अलङ्कार आदि का प्राण ही होता है। किसी भी अलङ्कार की योजना से यदि औचित्य में न्यूनता आती है तो वह अलङ्कार अलङ्कार नहीं माना जा सकता। अतः कुन्तक ने यमक-परिभाषा में कुछ स्वतन्त्र कल्पना करने पर भी इस क्षेत्र में कोई महत्त्वपूर्ण योगदान नहीं दिया ।
रुय्यक, भोज, अग्निपुराणकार, मम्मट, विश्वनाथ आदि संस्कृत-अलङ्कार
१. समानवर्णमन्याथं प्रसादि श्रुतिपेशलम् ।
औचित्ययुक्तमाद्यादिनियतस्थानशोभि यत् ।। यमकम् ४ ४ ४ ४ ४॥
-कुन्तक, वक्रोक्तिजी० २,६-७
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४०३ शास्त्र के प्रायः सभी आचार्यों ने वामन, रुद्रट आदि की यमक-विषयक मान्यता को ही स्वीकार किया है।
हिन्दी-रीति-साहित्य में भी यमक का परम्परागत स्वरूप ही स्वीकृत हुआ है। उसके कुछ नवीन भेदोपभेदों की कल्पना अवश्य की गयी, पर उसका सामान्य लक्षण वामन, रुद्रट आदि के मतानुसार ही कल्पित हुआ। याकूब खां ने यमक में श्लेष के तत्त्व की कल्पना की,' पर वह महत्त्वपूर्ण कल्पना नहीं। आवृत्त पद की भिन्नार्थकता की धारणा में ही यह धारणा अन्तनिहित थी।
सभी आचार्यों की यमक-धारणा का निष्कर्ष इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-यमक में स्वर-व्यञ्जन समुदाय की उसी क्रम में पाद के आदि, मध्य, अन्त आदि नियत स्थान में आवृत्ति होती है। यदि वह वर्ण-समुदाय सार्थक हुआ तो यह आवश्यक है कि आवृत्त पदों का अर्थ परस्पर भिन्न हो। निरर्थक वर्ण-समुदाय की आवृत्ति में स्वर-
व्यञ्जन का समान क्रम तथा आवृत्ति का नियत स्थान-मात्र अपेक्षित होता है। आवृत्ति व्यवहित भी हो सकती है और अव्यवहित भी। वर्ण-समुदाय की आवृत्ति की निम्नलिखित स्थितियां हो सकती हैं
(क) दोनों पद सार्थक हों, (ख) दोनों वर्ग समुदाय निरर्थक हों तथा (ग) एक अंश सार्थक और अन्य निरर्थक हो।
कहीं पूर्व अंश सार्थक और उत्तर अंश निरर्थक हो सकता है, कहीं इसके विपरीत पूर्व अंश निरर्थक और उत्तर अंश सार्थक हो सकता है ।
रस के साथ यमक का नियत सम्बन्ध नहीं होने से कुछ आचार्यों ने इसे महत्त्वहीन अलङ्कार माना है, पर काव्य-प्रवृत्ति को देखने से ऐसा जाना पड़ता है कि महाकवियों ने भी यमक में रुचि दिखलायी है। आचार्य भरत १. यमक सहित अश्लेष, पुनि पुनि पद आवै वही । अद्भुत कहै विशेष, अचरज उपज आय चित । -याकूब खां, रसभूषण, पृ० ४२। उद्ध त, ओमप्रकाश शर्मा, रीति.
अलङ्कार-साहित्य, शास्त्रीय विवेचन पृ०, ३१८ २. दण्डी ने यमक को 'नकान्तमधुर' कह कर अन्त में विवेच्य समझा था।
कुन्तक ने भी उसमें शोभा का अभाव माना है। दोनों के यमक-लक्षण
द्रष्टव्य
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४०४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
के द्वारा दश यमक-भेदों का विशद विवेचन तथा रामायण, महाभारत आदि में बहुलता से प्राप्य यमक-उदाहरण इसका प्रमाण है। वस्तुतः नाद-सौन्दर्य की दृष्टि से यमक का अपना महत्त्व है। अतः, उसे सर्वथा उपक्षेणीय नहीं माना जा सकता। रस-प्रधान काव्य में यमक की योजना अवश्य ही गौण पड़ गयी, क्योंकि ऐसे काव्य में कवि का ध्यान भाषा-सौन्दर्य या नाद-सौन्दर्य से हट कर भाव-सौन्दर्य पर केन्द्रित रहता है। हिन्दी-रीतिकालीन अलङ्कत साहित्य में यमक में कवियों की विशेष रुचि का परिचय मिलता है। यही कारण है कि हिन्दी-अलङ्कार-शास्त्र में यमक के कई नवीन भेदों की भी कल्पना की गयी।
- यमक के भरत प्रतिपादित दश भेदों के आधार पर अलङ्कार-शास्त्र में उसके असंख्य भेदों की कल्पना की गयी है। प्रत्येक अलङ्कार के भेदोपभेदों के विकास-क्रम का और उनके पारस्परिक भेद का विवेचन किया जाय तो एक विपुलकाय ग्रन्थ बन जायगा । अनुप्रास
अनुप्रास का स्वरूप-निरूपण सर्वप्रथम आचार्य भामह के 'काव्यालङ्कार' में उपलब्ध होता है। इसकी धारणा आचार्य भरत की यमक-धारणा से बाविर्भूत हुई है। यमक की तरह अनुप्रास भी वर्ण ( स्वर तथा व्यञ्जन के सम्मिलित या पृथक्-पृथक् ) की आवृत्ति पर अवलम्बित है। आचार्य भरत ने सामान्य रूप से शब्दाभ्यास या अक्षरसमूहावृत्ति को यमक कहा था। उस सामान्यतो निर्दिष्ट यमक-परिभाषा में अनुप्रास भी समाविष्ट है। पीछे चल कर कुछ वैशिष्ट्य की कल्पना कर यमक से स्वतन्त्र अनुप्रास की सत्ता स्वीकार की गयी। भामह ने अनुप्रास को परिभाषित करते हुए कहा-'समान रूप वाले वर्ण के विन्यास को अनुप्रास कहा जाता है।'' यमक में तो वर्ण-समूह (स्वर-व्यञ्जन-समूह) की उसी रूप में आवृत्ति अपेक्षित मानी गयी थी, पर अनुप्रास में सरूप वर्ण का विन्यास पर्याप्त माना गया। इस प्रकार एक व्यञ्जन की पुनरावृत्ति भी अनुप्रास में हो सकती है और उस वर्ण के समान श्रुति वाले वर्ण की भी योजना हो सकती है। 'र' के बाद 'ल' या 'ड' के विन्यास में भी वर्णसारूप्य के कारण अनुप्रास का सद्भाव माना जायगा ।
१. सरूपवर्णविन्यासमनुप्रासं प्रचक्षते ॥–भामह, काव्यालङ्कार २,५
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[४०५ वर्णसारूप्य के आधार पर अलङ्कार-विधान का मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि समान स्वरूप वाले वर्ण मन पर समान प्रभाव उत्पन्न करते हैं। अतः जब एक-से वर्ण एक वाक्य या पद में बार-बार आते हैं तो समान ध्वनि-प्रभाव की एकतानता पाठक के मन पर बनी रहती है । सम-ध्वनि से मन में एकतान ध्वनि-प्रभाव की सृष्टि में ही अनुप्रास का अलङ्कारत्व है। भामह के 'काव्यालङ्कार' में प्राप्त सङ्केत से जान पड़ता है कि उनसे बहुत पहले ही अनुप्रास ने यमक से स्वतन्त्र अपना अस्तित्व बना लिया था। भामह ने 'काव्यालङ्कार' में ग्राम्यानुप्रास तथा लाटानुप्रास; इन दो अनुप्रास-रूपों का उल्लेख किया है।' प्रतिहारेन्दुराज ने उक्त अनुप्रासों का सम्बन्ध क्रमशः ग्राम्या या कोमला तथा उपनागरिका वृत्तियों से जोड़ा है।
आचार्य दण्डी ने यद्यपि शब्दालङ्कार-निरूपण के सन्दर्भ में केवल यमक का सभेद निरूपण किया है, तथापि उनके 'काव्यादर्श' में अनुप्रास का स्पष्ट विवेचन हुआ है। उन्होंने गुण-विवेचन के प्रसङ्ग में श्रत्यनुप्रास-रूप माधुर्य गुण की चर्चा की और उसे वैदर्भ मार्ग के सरस काव्य का महत्त्वपूर्ण तत्त्व माना। उसी क्रम में उन्होंने गौड मार्ग के प्रदर्शन-प्रिय कवियों की अनुप्रास में विशेष रुचि की चर्चा की। दण्डी ने अनुप्रास को (श्र त्यनुप्रास से भिन्न वर्णावृत्ति-रूप अनुप्रास को) गौड मार्ग के काव्य का आदर्श मान कर श्रत्यनुप्रास की अपेक्षा उसे कम महत्त्व दिया है। दण्डी वैदर्भ मार्ग के काव्य को उत्तम कोटि का अकृत्रिम काव्य मानते थे। अतः, उस काव्य में ग्राह्य श्रु त्यनुप्रास दण्डी को अधिक अभिमत होगा। श्रुत्यनुप्रास में समान उच्चारण स्थान से उच्चरित होने वाले वर्णों की एकत्र योजना से भी समान प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है। जहाँ किसी भी प्रकार के अति-साम्य से समान प्रभाव मन पर उत्पन्न किया जा सकता हो, वहाँ अत्यनुप्रास माना गया है। दण्डी के अनुसार वर्णावृत्ति अनुप्रास का सामान्य लक्षण है।
उद्भट ने यमक को छोड़ वर्ण, पद आदि के अभ्यास के रूप में केवल अनुप्रास का भेदसहित विवेचन किया है। उन्होंने अनुप्रास के मुख्य तीन रूप माने हैं--(१) छेकानुप्रास, (२) वृत्त्यनुप्रास और (३) लाटानुप्रास । वृत्त्यनुप्रास तत्तवृत्तियों पर आधृत है। अतः ग्राम्या या कोमला, परुषा तथा
१. द्रष्टव्य-भामह, काव्यालं० २, ६-८ २. वर्णावृत्तिरनुप्रासः पादेषु च पदेषु च।
-दण्डी, काव्याद० १, ५५ उसके श्लोक ५२ से ५८ तक द्रष्टव्य
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४०६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण उपनागरिका वृत्तियों के आधार पर वृत्त्यनुप्रास के तीन उपभेद उद्भट के द्वारा स्वीकृत हैं। तत्तवृत्तियों में विशेष प्रकार के (कोमल, कठोर आदि) वर्णों के अनुकूल विन्यास का विधान है। वृत्त्यनुप्रास के उन उपभेदों में कोमल, कठोर आदि वर्गों की विशेष प्रकार की आवृत्ति का ही विचार रहता है । ग्राम्यानुप्रास अर्थात् ग्राम्या या कोमला वृत्ति पर आधुत वृत्त्यनुप्रास तथा लाटानुप्रास का उल्लेख भामह ने भी किया था। लाटानुप्रास का लक्षण उद्भट ने अधिक स्पष्टता से निरूपित किया। आवृत्त पदों में वर्णसमुदाय की समता के साथ वाच्यार्थ की भी समता लाटानुप्रास में रहती है, पर उनके तात्पर्यार्थ में भेद आवश्यक होता है। इस तरह यमक से लाटानुप्रास का यह भेद होता है कि जहाँ यमक में सार्थक पदों की आवृत्ति होने पर अर्थभेद (वाच्यार्थ का भेद) आवश्यक होता है, वहाँ लाटानुप्रास में वाच्यार्थ की समता रह सकती है, तात्पर्य-मात्र का भेद अपेक्षित रहता है। उद्भट ने छेकानुप्रास की कल्पना कर उसकी परिभाषा में अनेक वर्णों का दो बार उच्चारण अपेक्षित माना । वर्गों का द्विरुच्चारण क्रम-भेद से भी हो सकता है। 'प्रथम' शब्द के वर्णसमूह का क्रमभेद से 'प्रमथ' के रूप में द्विरुच्चारण छेकानुप्रास का उदाहरण है । इस दृष्टि से छेकानुप्रास यमक, लाटानुप्रास आदि से स्वतन्त्र है।' __ वामन ने यमक में स्वर-व्यञ्जन-सङ्घात की आवृत्ति की प्रक्रियाओं पर विचार करने के उपरान्त कहा है कि यमक से भिन्न अवशिष्ट सभी प्रकार के सारूप्य को अनुप्रास कहते हैं । २ सारूप्य शब्द इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि अनुप्रास में स्वर-व्यञ्जन-समुदाय की समग्रतः आवृत्ति भी हो सकती है और अंशतः भी। अभिप्राय यह कि यमक में स्वर-व्यञ्जन-सङ्घ की सम्पूर्णता में आवृत्ति अपेक्षित होती है; पर अनुप्रास में स्वर-भेद से भी केवल व्यञ्जन की आवृत्ति हो सकती है । वामन के अनुसार अनुप्रास का स्वरूप समझने के लिए उनके यमक के स्वरूप का विचार आवश्यक होगा। उनके यमक-लक्षण पर दृष्टि रखते हुए उनके अनुप्रास का स्वरूप इस प्रकार निर्धारित किया जा सकता है जहां एकार्थक अथवा अनेकार्थक पदों की
१. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं० १, ३-२० २. शेषःसरूपोऽनुप्रासः। -वामन, काव्यालंसू० ४, १-८ तथा उसकी वृत्ति-पदमेकार्थमनेकार्थं च स्थानानियतं तद्विधमक्षरं च शेषः।
-वही, पृ० १७७
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ४०७ (स्वर-व्यञ्जन-समुदाय की) अनियत स्थान में आवृत्ति हो, वहां अनुप्रास अलङ्कार होता है। स्पष्टतः, वामन की अनुप्रास-धारणा भामह, उद्भट आदि की धारणा से तत्त्वतः भिन्न नहीं । वामन ने अनुल्बण या मसृण अनुप्रास को ग्राह्य और उल्बण या उग्र को त्याज्य माना है।'
रुद्रट ने स्वर-निरपेक्ष व्यञ्जनावृत्ति को अनुप्रास का लक्षण माना, साथ ही उन्होंने यह भी आवश्यक माना कि आवृत्त वर्गों के बीच एक, दो या तीन वर्णों का व्यवधान रहना चाहिए। इस तरह रुद्रट के मतानुसार आवृत्त व्यञ्जनों की स्वर-निरपेक्षता तथा उनके (आवृत्त व्यञ्जनों के) बीच अन्य वर्गों के व्यवधान का नियम अनुप्रास का यमक से व्यावर्तन करता है। रुद्रट के इस अनुप्रास-लक्षण में लाटानुप्रास आदि का समावेश नहीं हो पाता। रुद्रट ने मधुरा, प्रौढा, परुषा, ललिता तथा भद्रा वृत्तियों के आधार पर अनुप्रास ( वृत्त्यनुप्रास ) के पाँच भेद स्वीकार किये हैं। उद्भट आदि की तीन वृत्तियों की जगह रुद्रट ने पांच वृत्तियाँ स्वीकार की हैं।।
कुन्तक ने अनुप्रास को 'वर्णविन्यास वक्रता' संज्ञा से प्रस्तुत किया है। उसके सम्बन्ध में उनकी धारणा प्राचीन आचार्यों की धारणा से मिलतीजुलती ही है। उनके अनुसार जहाँ एक, दो या बहुत-से वर्ण थोड़े-थोड़े अन्तर पर बार-बार ग्रथित होते हैं, वहाँ वर्णविन्यास की वक्रता मानी जाती है।४ ___ अग्निपुराणकार ने आचार्य रुद्रट की मान्यता के अनुसार मधुरा, ललिता आदि पाँच वृत्तियाँ स्वीकार कर वृत्त्यनुप्रास के पांच भेद स्वीकार किये हैं।" 'अग्निपुराण' में प्रतिपादित वर्णावृत्ति-रूप अनुप्रास का स्वरूप रुद्रट के अनुप्रास के स्वरूप से भिन्न नहीं।
१. अनुल्बणो वर्णानुप्रासः श्रेयान् । -वामन, काव्यालं० सू०४, १-६ तथा
उल्बणस्तु न श्रयान् ।-वही, वृत्ति पृ० १७६ २. एकद्वित्रान्तरितव्यञ्जनमविवक्षितस्वरं बहुशः।
आवय॑ते निरन्तरमथवा यदसावनुप्रासः ।।-रुद्रट, काव्याल०, २, १८ ३. वही, २, १६-३१ ४. एको द्वौ बहवो वर्णा बध्यमानाः पुनः पुनः । __ स्वल्पान्तरास्त्रिधा सोक्ता वर्ण विन्यासवक्रता ॥
-कुन्तक, वक्रोक्तिजी० २, १ ५. द्रष्टव्य-अग्निपुराण, अध्याय ३४३
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४०८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
___मम्मट ने भी आचार्य रुद्रट के अनुप्रास-लक्षण के आधार पर वर्णसाम्य को अनुप्रास का लक्षण कहा है। इसके स्पष्टीकरण में उन्होंने वर्णसाम्य का अभिप्राय स्वर की विरूपता होने पर भी व्यञ्जन के सदृश होने से माना है। इसके दो भेद-छेकानुप्रास तथा वृत्त्यनुप्रास--स्वीकृत हैं। तात्पर्य-भेद से शब्दावृत्ति या पदावृत्ति-रूप लाटानुप्रास का स्वतन्त्र विवेचन है। स्पष्टतः; छेक, वृत्ति और लाट अनुप्रासों के सम्बन्ध में मम्मट की धारणा उद्भट की धारणा से अभिन्न है। उद्भट की तरह मम्मट ने भी तीन ही वृत्तियाँ स्वीकार की हैं । मम्मट ने लाटानुप्रास के पाँच भेद स्वीकार किये हैं।' आचार्य रुय्यक की धारणा भी मम्मट की धारणा से मिलती-जुलती ही है। रुय्यक ने छेकानुप्रास
और वृत्त्यनुप्रास का निरूपण तो एक स्थल में किया है; पर लाटानुप्रास का निरूपण यमक-निरूपण के उपरान्त किया है। इससे स्पष्ट है कि पीछे चल कर लाटानुप्रास छेक, वत्ति आदि रूप अनुप्रास से स्वतन्त्र हो गया। इसका कारण अनुप्रास-लक्षण में वर्णावृत्ति ( स्वर-निरपेक्ष व्यञ्जनावृत्ति ) पर बल दिया जाना हुआ। लाटानुप्रास में स्वर-व्यञ्जन-समुदाय की आवृत्ति होती है। उसमें यमक की तरह पदावृत्ति ही होती है, तात्पर्यमात्र-भिन्न अर्थ-साम्य के साथ।
विश्वनाथ ने अपने पूर्ववर्ती मम्मट, रुय्यक आदि की अनुप्रास-धारणा को स्वीकार अवश्य किया; पर उन्होंने दण्डी आदि प्राचीन आचार्यों की अनुप्रासधारणा से भी सहायता ली। उन्होंने दण्डी के श्र त्यनुप्रास को (जिसे दण्डी ने माधुर्य का अङ्ग माना था) अनुप्रास अलङ्कार का एक रूप स्वीकार किया है, जो उचित ही है। इसके अतिरिक्त अन्त्यानुप्रास, जिसमें सरूप-वर्ण की आवृत्ति पद या पाद के अन्त में होती है, की भी कल्पना की गयी है। यह कल्पना तो नवीन नहीं; क्योंकि भरत ने भी पादान्त यमक आदि की कल्पना की थी, पर इससे अनुप्रास के सम्बन्ध में एक विशेष दृष्टिकोण का पता चलता है। वे अनुप्रास में वर्णावृत्ति के स्थान-नियम का अभाव आवश्यक नहीं मानते । अनुप्रास का यमक से इस आधार पर भी भेद-निरूपण का प्रयास हुआ था कि यमक में वर्णसमूह या पद की आवृत्ति का स्थान नियत होता है और अनुप्रास
१. वर्णसाम्यमनुप्रासः।-मम्मट, काव्यप्र० ६, १०४ तथा उसकी वृत्ति
द्रष्टव्य, पृ० २०१, २०८ २. द्रष्टव्य-रुय्यक, अलं सर्वस्व सूत्र सं० ४, ५ तथा ८ ३. विश्वनाथ, साहित्यद० १०, ३-६
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [४०९ में अनियत ।' विश्वनाथ ने अन्त्यानुप्रास में वर्णावृत्ति के स्थान-नियम को स्वीकार कर उक्त धारणा को अस्वीकार कर दिया।
अनुप्रास के सम्बन्ध में हिन्दी के आलङ्कारिकों की धारणा मम्मट, रुय्यक तथा विश्वनाथ आदि आचार्यों की धारणा से मिलती-जुलती है। दास ने अनुप्रास-भेद के रूप में तुक का विस्तार से वर्णन किया है। तुक की धारणा का मूल विश्वनाथ की अन्त्यानुप्रास-धारणा में है। हिन्दी-रीति-शास्त्र में तुक या अन्त्यानुप्रास का विशद विवेचन सकारण है। हिन्दी में तुकान्त छन्दों में बहुलता से काव्य-रचना होने के कारण तुक की विस्तृत मीमांसा की आवश्यकता हुई।
अनुप्रास को काव्य में यमक की अपेक्षा अधिक महत्त्व मिला; क्योंकि इसे रतोपकारक माना गया है। अनुप्रास शब्द के व्युत्पत्त्यर्थ में रसोपकारकता की धारणा निहित है। आचार्य दण्डी ने केवल श्र त्यनुप्रास को रस-पोषक माना था। आचार्य देव ने अनुप्रास-मात्र को 'रस-पूर' माना है।
अनुप्रास के स्वरूप के सम्बन्ध में संस्कृत तथा हिन्दी-आचार्यों की धारणा का सार-संक्षेप निम्नलिखित है :
अनुप्रास में स्वर-निरपेक्ष व्यञ्जन की व्यवहित आवृत्ति होती है। परुषा, कोमला आदि वृत्तियों के लिए निर्धारित वर्णों की आवृत्ति के आधार पर वृत्त्यनुप्रास के पाँच भेद स्वीकृत हैं। अनुप्रास में व्यञ्जनावृत्ति उसी क्रम में भी हो सकती है और क्रम-परिवर्तन से भी। स्वर-व्यञ्जन-समुदाय अर्थात् सार्थक पद की भी आवृत्ति अनुप्रास में हो सकती है; पर ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि आवृत्त पदों का वाच्यार्थ अभिन्न तथा तात्पर्यार्थ भिन्न हो। समान स्थान-प्रयत्न से उच्चरित वर्णों की अदूर योजना में भी ध्वनि-प्रभाव के साम्य के कारण अनुप्रास का सद्भाव माना जाता है। सामान्यतः अनुप्रास में वर्ण की आवृत्ति का स्थान अनियत रहता है; किन्तु अन्त्यानुप्रास में पाद या पद के अन्त में वर्ण की नियत आवृत्ति अपेक्षित होती है । इस प्रकार सरूप-वर्णाभ्यासरूप अनुप्रास के पाँच भेद हो जाते हैं :
(क) वृत्तिविशेष में प्रयुक्त व्यञ्जन-समुदाय की आवृत्ति (वृत्त्यनुप्रास) (ख) वर्णसङ्घ की क्रम-भङ्ग-आवृत्ति (छेकानुप्रास) (ग) तात्पर्य-भेद से समानार्थक पद की आवृत्ति (लाटानुप्रास) १. वामन आदि ने इसी आधार पर दोनों का भेद किया था।
-द्रष्टव्य वामन, काव्यालं. सू० वृत्ति ४, १, १ तथा ४, १,८
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४१० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण (घ) समान उच्चारणस्थान से उच्चरित वर्णों की अदूर योजना
(श्र त्यनुप्रास) तथा (ङ) पद या पाद के अन्त में सरूप वर्णावृत्ति (अन्त्यानुप्रास)
अनुप्रास के उक्त भेदों के स्वरूप पर विचार करने से यमक और अनुप्रास के निम्नलिखित भेदक तत्त्व स्पष्ट हो जाते हैं
(१) लाटानुप्रास में सार्थक पद की आवृत्ति होने पर आवृत्त पदों का वाच्यार्थ अभिन्न होता है, तात्पर्य-मात्र का भेद रहता है; पर यमक में पदावृत्ति अर्थभेद से ही होती है।
(२) अनुप्रास में वर्णावृत्ति अनियत स्थान में होती है ( अन्त्यानुप्रास में नियत स्थान में भी ); पर यमक में नियत स्थान में ही आवृत्ति होती है।
(३) अनुप्रास में स्वर-निरपेक्ष केवल व्यञ्जनावृत्ति अपेक्षित होती है ( केवल लाटानुप्रास में स्वर-व्यञ्जन-समुदाय की आवृत्ति होती है ); पर यमक में स्वर-व्यञ्जन-सङ्घ की आवृत्ति अपेक्षित है।
(४) अनुप्रास में वर्ण-समुदाय की आवृत्ति क्रम-भङ्ग से भी हो सकती है; पर यमक में उसी क्रम से शब्दावृत्ति की अपेक्षा होती है।
(५) अनुप्रास में एक उच्चारण-स्थान से उच्चरित वर्णों की योजना भी हो सकती है; पर यमक में पूर्व-उच्चरित वर्ण की ही आवृत्ति होती है, उसके सदृश वर्ण की नहीं। चित्रालङ्कार
अलङ्कार के रूप में चित्र की धारणा का विकास मूल शब्दालङ्कार यमक से हुआ; किन्तु उस धारणा का इतना विकास हुआ कि उसने अलङ्कार-भेद के रूप में अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बना लिया। ____ संस्कृत-साहित्य में चित्र-काव्य प्रायः उपेक्षित ही रहा था। रससिद्ध कवियों के सरस काव्य के सामने रसहीन और कृत्रिम चित्र-काव्य किसे भाता? फिर भी प्रदर्शन की स्वाभाविक प्रवृत्ति किसी-न-किसी रूप में प्रकट होती रही। सरस महाकाव्यों में भी चित्र, प्रहेलिका आदि की योजना कर बौद्धिक चमत्कार-प्रदर्शन के लिए विशेष स्थल सुरक्षित कर लिये गये । माघ-जैसे कवि ने भी महाकाव्य में चित्र का आवश्यक स्थान माना। फलतः, संस्कृत अलङ्कार-शास्त्र में भी चित्र, प्रहेलिका आदि के विविध रूपों का विवेचन चलता
१. माघ, शिशुपाल-वध, १६, ४१
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [४११ रहा । हिन्दी के रीतिकाल में चमत्कार उत्पन्न करने की प्रवृत्ति इतनी अधिक. बढ़ी कि विपुलकाय चित्रकाव्य की सर्जना होने लगी। उस काल की दरबारी कवि-गोष्ठियों में ऐसे काव्य की रचना स्वाभाविक ही थी। इसका दुर्वार प्रभाव अलङ्कार-शास्त्रीय चिन्तन पर भी पड़ा । चित्र का निरूपण महत्त्व पाने लगा। केवल चित्रालङ्कार-विवेचन के लिए स्वतन्त्र ग्रन्थों की भी रचना हुई। चित्रविषयक इतने बड़े ऊहापोह का इतिहास स्वतन्त्र प्रबन्ध का विषय है। अतः, इस सन्दर्भ में हमारा उद्देश्य चित्रालङ्कार-विषयक सामान्य धारणा के विकास का परिचय-मात्र देना होगा।
चित्रालङ्कार में वर्ण-कौतुक से चमत्कार उत्पन्न किया जाता है। इसमें वर्गों के विशेष प्रकार के विन्यास की अपेक्षा रहती है। अतः, इसकी कल्पना का बीज मूल शब्दालङ्कार यमक की वर्णावृत्ति की विभिन्न प्रक्रियाओं में माना जा सकता है। शब्दों या वर्णों की क्रीड़ा की प्रवृत्ति से चित्र-धारणा का स्वतन्त्र रूप में विकास हुआ। वर्षों का इतना सुविचारित संग्रथन, कि सम्पूर्ण पद का पद्म, खड्ग आदि चित्रों में नियमतः निबन्धन हो जाय, भारतीय चित्रकवियों के वर्ण-प्रयोग-कौशल का परिचायक है। यही नहीं, काव्य तथा काव्येतर चित्र आदि कलाओं के तात्त्विक अन्तःसम्बन्ध की स्थापना में उनकी उदार दृष्टि का भी परिचय चित्रालङ्कारों में मिलता है। विभिन्न चित्रबन्धों में वर्ण-विन्यास भाषा की शक्ति का भी परिचायक है। भारतीय कवियों की दृष्टि रस-प्रधान या भाव-प्रधान रही। इसीलिए चित्र-रचना को गौरव प्राप्त नहीं हो सका । कवियों की सहज काव्य-शक्ति की दृष्टि से भले ही चित्र अलङ्कार-विधान का कोई महत्त्व नहीं हो पर उनकी बौद्धिक क्षमता तथा प्ररूढ कल्पनाशक्ति की दृष्टि से तो उसका महत्त्व है ही। इसीलिए भारतीय अलङ्कार-शास्त्र के प्रायः सभी समर्थ आचार्यों ने उसे शब्द के अलङ्कार के रूप में स्वीकृति दी है।
यमक निरूपण-प्रस्ताव में आचार्य-दण्डी ने सर्वप्रथम दुष्कर चित्रबन्ध का उल्लेख किया । भामह ने चित्र का निरूपण नहीं किया है, यद्यपि बाण भट्ट के साक्ष्य से यह स्पष्ट है कि भामह के पूर्व चित्र की धारणा का विकास हो चुका था ।' दण्डी ने चित्र की कोई सामान्य परिभाषा तो नहीं दी; पर गोमत्रिका, अर्धभ्रम, सर्वतोभद्र आदि के उदाहरण से उनकी चित्र-धारणा
१. द्रष्टव्य, दण्डी, काव्याद० ३,७८-८३
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“४१२]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
• स्पष्ट है। शायद चित्र संज्ञा की अन्वर्थता के कारण ही दण्डी ने उसे “परिभाषित करना आवश्यक नहीं समझा। उन्होंने चित्रों में स्वर, वर्ण के उच्चारण-स्थान तथा व्यञ्जन के प्रयोग के जो सूक्ष्म नियम बताये हैं तथा एकाक्षर चित्र, द्विवर्ण चित्र, त्रिव्यञ्जन चित्र आदि में जो चित्रों का विभाग किया है, उसे देखते हुए यह आक्षेप नहीं किया जा सकता कि चित्र के सम्बन्ध में दण्डी की धारणा स्पष्ट नहीं थी। चित्र का लक्षण परवर्ती आचार्यों ने भी 'पद्म आदि आकृति में या चित्र में वर्णविन्यास' माना है। यह चित्र नाम से ही स्पष्ट है। अतः, दण्डी ने गोमूत्रिका आदि चित्र-भेदों को ही परिभाषित और उदाहृत किया है।
दण्डी के उपरान्त आचार्य रुद्रट ने चित्रालङ्कार का व्यवस्थित विवेचन किया। उन्होंने चित्र की सामान्य परिभाषा इस प्रकार दी-'जहाँ वस्तु के ( पद्म, खड्ग आदि वस्तु के ) स्वरूप की रचना उसके चिह्न के साथ वर्णों के द्वारा विशेष भङ्गी या विच्छित्ति से की जाती है, वहाँ चित्र-अलङ्कार होता है।'' स्पष्टतः, रुद्रट ने वर्ण-विन्यास की भङ्गी से वस्तु-रूप-रचना में चित्र अलङ्कार का सद्भाव माना है। यह चित्र-धारणा आचार्य दण्डी की तद्विषयक धारणा से अभिन्न है। तत्तत् चित्र-बन्धों के अतिरिक्त भी सर्वतोभद्र . अनुलोम, प्रतिलोम आदि अनेक विचित्र चित्र-भेदों की सत्ता रुद्रट ने मानी है। सर्वतोभद्र को चित्र के रूप में दण्डो ने भी स्वीकृति दी थी। रुद्रट के 'काव्यालङ्कार' में चित्र के दो प्रमुख भेद स्पष्ट हो गये
(क) चक्र, पद्म, खड्ग आदि वस्तुओं की आकृति को प्रकट करने वाला वर्ण-विन्यास-रूप चित्र तथा (ख) वर्गों के विशेष क्रम-विन्यास से अनुलोम प्रतिलोम आदि के रूप में विच्छित्ति प्रकट करने वाला चित्र ।
दण्डी ने भी चित्र के उक्त दो भेद स्वीकार किये थे। इसीलिए उन्होंने गोमूत्रिका आदि से थोड़ा अलग वर्ण-नियम के आधार पर (एक वर्ण, दो वर्ण आदि की योजना के आधार पर) कुछ चित्र-भेदों का निरूपण किया था, पर चित्र के उक्त मुख्य भेदों के स्पष्टीकरण का श्रेय आचार्य रुद्रट को ही है।
१. भङ ग्यन्तरकृततत्क्रमवर्णनिमित्तानि वस्तुरूपाणि। साकानि विचित्राणि च रच्यन्ते यत्र तच्चित्रम् ।।
-रुद्रट, काव्यालं० ५,१ २. वही, ५,२-३
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४१३
अग्निपुराणकार ने चित्र के सात भेद स्वीकार किये - प्रश्न, प्रहेलिका, गुप्ताक्षर, च्युताक्षर, दत्ताक्षर, च्युतदत्ताक्षर तथा समस्या । इन सभी रूपों में विदग्ध - महोत्सवकारी वर्ण- कौतुक की प्रधानता रहती है । अतः, सभी चित्र भेदमाने गये हैं । हमने इस तथ्य पर अलग विचार किया है कि प्रहेलिका की धारणा का चित्र से स्वतन्त्र रूप में भी विकास हुआ है । अग्निपुराणकार ने चित्र का कुछ व्यापक अर्थ गोष्ठी में कुतूहलजनक वाग्बन्ध लेकर प्रहेलिका को चित्र का ही एक भेद स्वीकार किया है । तत्तत्प्रसिद्ध वस्तुओं के रूप में वर्ण-गुम्फ, जिसे बन्ध कहा गया है, वित्र का एक रूप है, जिसके वस्तु-स्वरूप के आधार पर अनेक भेद हो जाते
1
चित्र के स्वरूप के सम्बन्ध में भोज की धारणा भी पूर्ववर्ती आचार्यों की तद्विषयक धारणा से मिलती-जुलती ही है ।
आचार्य मम्मट ने केवल वस्तु की आकृतियों के रूप में वर्ण-गुम्फन कोचित्र बन्ध को ही चित्रालङ्कार के रूप में स्वीकार किया है । दुष्कर वर्णविन्यास - रूप प्रहेलिका आदि में केवल कवि की बौद्धिक क्षमता का प्रदर्शन होता है । अतः, उसे अकाव्य समझ कर मम्मट ने अविवेच्य माना है । 3 आचार्य रुय्यक ने मम्मट के मत का ही अनुमोदन किया है । विश्वनाथ ने खङ्गादि आकृति के रूप में किये जाने वाले वर्णगुम्फ को चित्र - अलङ्कार माना और च्युताक्षर, दत्ताक्षर आदि क्लिष्ट वर्णगुम्फ से चमत्कार उत्पन्न करने वाली रस-विरोधी प्रहेलिका के अलङ्कारत्व का खण्डन किया । " विश्वनाथ के उपरान्त चित्र के सम्बन्ध में संस्कृत - अलङ्कार - शास्त्र में कोई नवीन कल्पना नहीं की गयी ।
इस प्रकार संस्कृत-अलङ्कार शास्त्र के आचार्यों में चित्र के सम्बन्ध में एक बात में तो मतैक्य है कि इसमें वर्णों की क्रीड़ा से चमत्कार उत्पन्न किया जाता है । विभिन्न आकृतियों में वर्णगुम्फ को चित्र अलङ्कार मानने में दण्डी,
१. अग्निपुराण, अध्याय ३४३
२. द्रष्टव्य, भोज, सरस्वतीकण्ठा० २, १०६ - १४७
३. तच्चित्र ं यत्र वर्णानां खड्गाद्या कृतिहेतुता । - मम्मट, काव्यप्र० ६ १२१ ४. वर्णानां खड्गाद्या कृतिहेतुत्वे चित्रम् ।
— रुय्यक, अलं० सर्वस्व, सूत्रसं० १० ५. पद्माद्याकारहेतुत्वे वर्णानां चित्रमुच्यते । तथा — रसस्य परिपन्थित्वान्ना-लङ्कारः प्रहेलिका । — विश्वनाथ, साहित्यद० १०, १५-१६
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४१४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
रुद्र, अग्निपुराणकार, भोज, मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि सभी एकमत हैं; पर जहाँ, दण्डी, रुद्रट, अग्निपुराणकार, आदि ने चित्र का अपेक्षाकृत व्यापक अर्थ लेकर सभी वैचित्र्यजनक वर्ण- कौतुक को — चाहे वर्ण-गोपन आदि के द्वारा प्रहेलिका के रूप में हो या पद्म, खड्ग आदि वस्तु स्वरूप में वर्ण-गुम्फ के रूप में - चित्र माना था, वहाँ मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि ने केवल वस्तु-बन्ध चित्र को ही अलङ्कार के रूप में स्वीकृति दी ।
I
हिन्दी - रीतिकाल में चित्र - काव्य तथा चित्रालङ्कार - विवेचन के लिए अनुकूल वातावरण मिला । चमत्कार- प्रधान काव्य-सर्जना के प्राचुर्य के कारण अनेक आचार्यों ने विस्तार से चित्रालङ्कार-निरूपण किया । चित्र पर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे गये और अनेक नवीन चित्र बन्धों की कल्पना की गयी । घड़ी-बन्ध आदि की कल्पना इसका प्रमाण है । बलवान सिंह ने शब्द-चित्र, अर्थ - चित्र तथा सङ्कर- चित्र भेदों से चित्र का विशद विवेचन किया है ।" यह ध्यातव्य है कि - संस्कृत-आचार्यों ने भी ध्वनि-हीन काव्य को चित्र - काव्य माना था । इस तरह चित्र - काव्य का क्षेत्र चित्र अलङ्कार से व्यापक है, जिसमें सभी शब्दार्थालङ्कारों की योजना हो सकती है । बलवान सिंह ने उसी चित्रकाव्य-धारणा के अनुरूप अर्थालङ्कारों को भी चित्रालङ्कार के क्षेत्र में ला दिया है । यह उचित नहीं । चित्र - अलङ्कार का क्षेत्र चित्र - काव्य से थोड़ा भिन्न है । हिन्दी - आचार्यों ने भी -संस्कृत-आचार्यों की तरह वर्ण- कौतुक को ही चित्र का लक्षण माना है ।
चित्र - अलङ्कार के महत्त्वहीन माने जाने पर भी बाणभट्ट के काल से हिन्दी - रीतिकाल तक उसमें कवियों की रुचि का इतिहास चित्र की लोकप्रियता प्रमाणित करता है ।
प्रहेलिका
चित्रालङ्कार के विकास क्रम की परीक्षा में हम देख चुके हैं कि प्रहेलिका की धारणा का विकास कुछ दूर तक चित्र धारणा के साथ हुआ है । दण्डी आदि आचार्यों ने चित्र से स्वल्प भेद के साथ प्रहेलिका का विवेचन किया था । अग्निपुराणकार ने दोनों को मिला कर प्रहेलिका को चित्र का एक भेद - स्वीकार कर लिया । दोनों में वर्ण- कौतुक की धारणा समान रूप से होने के - कारण ही ऐसा हुआ है । सर्वप्रथम भामह के 'काव्यालङ्कार' में प्रहेलिका की परिभाषा प्राप्त होती है । वहाँ यह सङ्क ेत भी स्पष्ट रूप से दिया गया है।
१. बलवान सिंह, चित्र चन्द्रिका पृ० ३
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४१५
कि उनके पूर्ववर्ती-रामशर्मा ने प्रहेलिका का निरूपण किया था। भामह की यह मान्यता उचित है कि प्रहेलिका 'यमक-व्यपदेशिनी' है। यमक में वर्णों की रचना की विभिन्न प्रक्रियाओं का विचार चल रहा था। उसी सन्दर्भ में धात्वर्थ के गहन प्रयोग में प्रहेलिका अलङ्कार का सद्भाव माना गया।' भामह ने प्रहेलिका में वर्णकौतुक ( जिसके कारण उसे यमक-व्यपदेशिनी कहा गया है) के साथ अनेक गूढ अर्थ से युक्त धातु-प्रयोग भी वाञ्छनीय माना है। अर्थ की दुरूहता के कारण ही इसे शास्त्रवत् व्याख्येय कहा गया है। ___ दण्डी ने प्रहेलिका के सोलह भेदों का विस्तार से विवेचन किया है। उन्होंने प्रहेलिका को दुष्कर चित्र-बन्ध से भी दुष्करतर माना है और क्रीडागोष्ठी-मात्र में इसकी उपयोगिता मानी है। उन्होंने प्रहेलिका के प्रत्येक भेद को पृथक्-पृथक् परिभाषित किया है। प्रहेलिका-विषयक सामान्य धारणा भामह की धारणा के समान ही है।
रुद्रट ने चित्र-विवेचन के उपरान्त मात्राच्युतक, विन्दुच्युतक प्रहेलिका आदि का वर्णन किया है; पर इसे अलङ्कार मानने के पक्ष में वे नहीं जान पड़ते। उन्होंने इसे क्रीडा-मात्र में उपयोगी मान कर उपेक्षणीय ही समझा है।
अग्निपुराणकार ने प्रहेलिका को चित्र के सात भेदों में एक माना है। इसके शाब्दी तथा आर्थी; दो भेद स्वीकार किये गये हैं। अर्थ का निगहन करते हुए शब्द-प्रयोग को प्रहेलिका का लक्षण माना गया है। स्पष्टतः यह धारणा प्राचीनों की धारणा से अभिन्न है। भोज आदि ने भी प्रहेलिका का यही स्वरूप स्वीकार किया है।
श्री धर्मदास सूरि ने 'विदग्धमुखमण्डन' में प्रहेलिका के स्वरूप को स्पष्ट
१. नानाधात्वर्थगम्भीरा यमकव्यपदेशिनी।
प्रहेलिका साह्य दिता रामशर्माच्युतोत्तरे ॥-भामह, काव्यालं० २,१६ २. काव्यान्यपि यदीमानि व्याख्यागम्यानि शास्त्रवत् ।
उत्सवः सुधियामेव हन्त ! दुर्मेधसो हताः ॥-वही, २,२० ३. द्रष्टव्य, दण्डी, काव्याद० ३,६६-१२४ ४. मात्राबिन्दुच्युतके प्रहेलिका कारकक्रियागूढे ।
प्रश्नोत्तरादि चान्यत्क्रीडामात्रोपयोगमिदम् ।।-रुद्रट, काव्यालं०५.२४
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४१६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण रूप से परिभाषित किया है। उनके मतानुसार प्रहेलिका में ऊपर से किसी अर्थ को प्रकट कर सही अर्थ का गोपन किया जाता है।' ___ रस-सम्प्रदाय के आचार्यों ने प्रहेलिका को अलङ्कार के रूप में स्वीकार नहीं किया है। विश्वनाथ ने इसे रस-परिपन्थी कह कर त्याज्य बताया है । २ प्राचीन आलङ्कारिकों ने भी प्रहेलिका को अलङ्कार के रूप में विशेष महत्त्व नहीं दिया था।
हिन्दी के रीति-आचार्यों ने भी प्रहेलिका में विशेष रुचि नहीं दिखायी। केशव, भिखारी, बलवान सिंह आदि ने प्रहेलिका को अलङ्कार के रूप में स्वीकार कर प्राचीन आचार्यों की धारणा के अनुरूप उसका स्वरूप-निरूपण किया है। वक्रोक्ति ___ भारतीय काव्य-शास्त्र में जहां एक ओर वक्रोक्ति की धारणा का विकास उसके व्यापक अर्थ में काव्य के प्रमुख तत्त्व के रूप में हुआ है, वहाँ दूसरी ओर सङ कुचित अर्थ में उसे काव्यालङ्कार का एक भेद-मात्र माना गया है। उक्ति की वक्रता अर्थात् लोकोत्तरता, जिसे पण्डितराज जगन्नाथ ने काव्य की चारुता से अभिन्न माना है, अलङ्कार-विशेष की सीमा में परिबद्ध नहीं की जा सकती। उक्तिगत वक्रता का यही अर्थ भामह, कुन्तक आदि के मन में था। इसीलिए भामह ने उसे अतिशयोक्ति से मिलाते हुए काव्यार्थ का विभावक माना था और कुन्तक ने लोक-सामान्य स्वभाव-उक्ति के अलङ्कारत्व का खण्डन किया था। यह ध्यातव्य है कि भारतीय अलङ्कार-शास्त्र में अलङ्कार-विशेष के रूप में वक्रोक्ति की धारणा कुछ विशिष्ट अर्थ के साथ विकसित हुई है। इसमें भी उक्ति की वक्रता की धारणा अवश्य है, पर एक विशेष अर्थ में । प्रस्तुत सन्दर्भ में हमारा विवेच्य विशिष्ट अर्थ में वक्रोक्ति-अलङ्कार का-जिसे रुद्रट आदि ने शब्दालङ्कार और रुय्यक, अप्पय्य आदि ने अर्थालङ्कार माना है—स्वरूप विकास है। १. व्यक्तीकृत्य कमप्यर्थ स्वरूपार्थस्य गोपनात् । यत्राबाह्यान्तरावर्थो कथ्यन्ते ता: प्रहेलिकाः॥
-धर्मदास सूरि, विदग्ध मुखमण्डन २. रसस्य परिपन्थित्वान्नालङ्कारः प्रहेलिका। उक्तिवैचित्र्यमात्र सा च्युतदत्ताक्षरादिका॥
.. -विश्वनाथ, साहित्यद० १०,१६
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'अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ४१७
अलङ्कार - विशेष के रूप में वक्रोक्ति का निरूपण सर्वप्रथम आचार्य वामन ने किया; पर उनका वक्रोक्ति अलङ्कार - लक्षण परवर्ती आचार्यों को मान्य नहीं हुआ । सादृश्यमूला लक्षणा में वक्रोक्ति अलङ्कार मान कर वामन ने उसे आचार्य दण्डी के समाधि गुण के समान बना दिया । "
रुद्रट ने वक्रोक्ति अलङ्कार वहाँ माना, जहाँ वक्ता के किसी विशेष अर्थ में प्रयुक्त वाक्य का श्रोता श्लेष या कण्ठध्वनि-भेद के सहारे उससे भिन्न अर्थ लगा लेता है । वक्ता के कथन में उसके अभीष्ट अर्थ से भिन्न अर्थ की योजना या तो सभङ्ग या अभङ्ग श्लेष से सम्भव है या काकु अर्थात् कण्ठ-ध्वनि के भेद से । इस प्रकार वक्रोक्ति के दो मुख्य भेद होते हैं - श्लेष - वक्रोक्ति तथा काकु - वक्रोक्ति । २ रुद्रट का यह वक्रोक्ति-लक्षण ही परवर्ती आचार्यों को मान्य हुआ । उसके शब्दालङ्कारत्व तथा अर्थालङ्कारत्व के विषय में आचार्यों में दो मत अवश्य रहे हैं; पर उसके स्वरूप तथा श्लेष और काकु भेदों के सम्बन्ध में मतभेद नहीं रहा । रुद्रट ने वक्रोक्ति को शब्दालङ्कार माना था । आचार्य मम्मट तथा विश्वनाथ ने रुद्रट के मत का ही समर्थन किया; पर रुय्यक, अप्पय्य आदि आचार्यों ने वक्रोक्ति के उसी स्वरूप को स्वीकार करने पर भी अर्थालङ्कार के रूप में स्वीकार किया । वस्तुत: सभङ्ग तथा अभङ्ग श्लेष और काकु पर आश्रित वक्रोक्ति में शब्दालङ्कारत्व भी है और अर्थालङ्कारत्व भी । अत:, उसे उभयालङ्कार वर्ग में मानना ही उचित होगा ।
निष्कर्ष यह कि रुद्रट - कल्पित वक्रोक्ति अलङ्कार के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं हुआ । संस्कृत तथा हिन्दी के आचार्यों ने वक्रोक्ति की रुद्रटप्रदत्त परिभाषा को ही स्वीकार किया है ।
श्लेष
श्लेष ही एक ऐसा अलङ्कार है, जिसे आचार्यों ने शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार - दोनों रूपों में स्वीकार किया है । वक्रोक्ति आदि की स्थिति यह है कि उसे कुछ आचार्य शब्दालङ्कार मानते हैं तो अन्य आचार्य अर्थालङ्कार, पर
१. सादृश्याल्लक्षणा वक्रोक्तिः । - वामन, काव्यालं ० सू० ४,३,८ - तुलनीय दण्डी, काव्याद० १, ६३-६५
२. वक्त्रा तदन्यथोक्त व्याचष्टे चान्यथा तदुत्तरदः ।
वचनं यत्पदभङ्ग ज्ञेया सा श्लेषवक्रोक्तिः ॥ विस्पष्टं क्रियमाणादक्लिष्टा स्वरविशेषतो भवति ।
अर्थान्तरप्रतीतिर्यत्रासौ काकुवक्रोक्तिः ॥ रुद्रट, काव्यालं ० २, १४, १६
२७
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४१८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
श्लेष आचार्यों के द्वारा दोनों रूपों में स्वीकृत है। इस प्रकार श्लेष के दो भेद मान्य रहे हैं-शब्दश्लेष तथा अर्थश्लेष । श्लेष के दोनों रूपों का निरूपण अलग-अलग–शब्दालङ्कार-प्रकरण तथा अर्थालङ्कार-प्रकरण मेंकिया गया है। ___ अलङ्कार-निरूपण के सन्दर्भ में श्लेष की चर्चा सर्वप्रथम आचार्य भामह ने की। यद्यपि शब्द और अर्थ के स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में श्लेष के स्वरूपनिरूपण का क्रम आचार्य उद्भट से आरम्भ हुआ है; पर उद्भट के पूर्व भामह
और दण्डी श्लेष के स्वरूप पर विचार कर चुके थे। दण्डी ने तो श्लेष को सभी अलङ्कारों का सौन्दर्याधायक भी माना था।
भामह ने उपमान के साथ उपमेय के तत्त्व-साधन में अर्थात् उपमान से अभेद-साधन में श्लिष्ट का सद्भाव मानकर उसे उपमाहेतुक सहोक्ति आदि के रूप में विवेचित किया। भामह के श्लिष्ट (तीन रूप) का स्वरूप अपरिष्कृत ही रह गया है।' ___ दण्डी ने श्लेष को किञ्चित् परिष्कृत रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने श्लेष को परिभाषित करते हुए कहा कि इसमें एक रूप अर्थात् अभिन्न-पदयुक्त वाक्य अनेकार्थ का वाचक होता है। युगपद् उच्चार्य समान-रूप पद से अनेकार्थ-बोध में दण्डी के अनुसार श्लेष अलङ्कार माना जाना चाहिए। दण्डी ने श्लेष के अभिन्न-पद तथा भिन्न-पद अर्थात् अभङ्ग तथा सभङ्ग-ये दो भेद स्वीकार किये हैं। पीछे चलकर अभिन्न और भिन्न पद के आधार पर श्लेषभेद की कल्पना के आधार पर ही शब्दगत तथा अर्थगत श्लेष-भेदों की कल्पना की गयी है। दण्डी ने श्लेष का शब्दार्थ-विभाग स्पष्ट नहीं किया था।
आचार्य उद्भट ने श्लेष की परिभाषा का परिष्कार किया और उसके शब्दगत तथा अर्थगत-दो भेद स्वीकार किये। तब से श्लेष के ये दो भेद प्रायः सर्वसम्मति से स्वीकृत रहे हैं । उद्भट के द्वारा परिष्कृत श्लेष-लक्षण ही परवर्ती काल में स्वीकृत हुए हैं। अतः उसका स्वरूप-परीक्षण यहाँ प्रासङ्गिक होगा। दण्डी की तरह उद्भट ने भी अनेक अर्थ की युगपत् विवक्षा में श्लेष का सद्भाव माना है। उनका कहना है कि जहां एक प्रयत्न से उच्चार्य शब्दों से अनेक
१. द्रष्टव्य, भामह, काव्यालं० ३,१४-२० २. श्लिष्टमिष्टमनेकार्थमेकरूपान्वितं वचः।
तभिन्नपदं भिन्नपदप्रायमिति द्विधा ।।-दण्डी, काम्यार० २,३१०
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[४१९ अर्थ का निबन्धन होता हो, वहाँ श्लिष्ट अलङ्कार होता है। अनेक अर्थ की युगपत् विवक्षा की दो स्थितियां सम्भव हैं-(१)एक-प्रयत्नोच्चार्य तथा उदात्त, स्वरित आदि अभिन्न गुण से युक्त शब्द से अनेकार्थ-बोध ( ऐसा शब्द देखने में तो एक लगता है पर शास्त्रीय दृष्टि से तत्त्वतः अनेक होता है; क्योंकि अर्थभेद से शब्द में भिन्नता मानी गयी है । अर्थात् एक ही शब्द यदि अनेकार्थवाची हो तो एक अर्थ का बोध कराने के समय वह अलग शब्द माना जायगा
और दूसरे अर्थ का बोध कराने के समय अलग । फलतः वह एक ही शब्द उच्चारण के प्रयत्न तथा उदात्त, अनुदात्त, स्वरित आदि की दृष्टि से अभिन्न होने पर भी दो अर्थों का बोध कराने के कारण दो माना जायगा ), तथा (२) प्रयत्न, उदात्त आदि स्वर के भेद के कारण युगपत् प्रयुक्त न हो सकने पर भी परस्पर छायानुकारी शब्दों से अनेकार्थ बोध । प्रथम को ( जिसमें अर्थ-भेद के कारण समान शब्द परस्पर भिन्न माना जाता है) अर्थश्लेष तथा द्वितीय को शब्दश्लेष माना गया है। ये क्रमशः अभङ्ग तथा सभङ्ग श्लेष के समान हैं।
रुद्रट ने शब्दश्लेष का निरूपण शब्दालङ्कार-प्रकरण में किया तथा अर्यालङ्कार का श्लेषमूलक स्वतन्त्र वर्म मान कर एक स्वतन्त्र अध्याय में उसका सभेद निरूपण किया। ___ मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि आचार्यों ने श्लेष के सामान्य स्वरूप के सम्बन्ध में दण्डी, उद्भट आदि आचार्यों की मान्यता को ही स्वीकार किया है। श्लेष के लक्षण की दृष्टि से कोई नवीन ऊहापोह परवर्ती आचार्यों ने नहीं किया। मम्मट और रुय्यक ने श्लेष के शब्दगत तथा अर्थगत होने के प्रश्न पर सूक्ष्मता से विचार किया है । मम्मट ने किसी अलङ्कार को शब्दगत या अर्थगत मानने का आधार अन्वय-व्यतिरेक को माना था। इस आधार पर उनका निष्कर्ष यह था कि जहां शब्दों के पर्याय-परिवर्तन से अलङ्कारत्व की हानि हो, वहां शब्दालङ्कार और जहाँ पर्याय-परिवर्तन होने पर भी अलङ्कारत्व बना रहे, वहाँ अर्यालङ्कार होता है। आचार्य रुय्यक ने अलङ्कार के आश्रमभूत शब्द और अर्थ के आधार पर उसका शब्दगत तया अर्थगत विभाम उचित माना। फलतः मम्मट ने अपने निर्धारित निकष पर श्लेष में पर्याय-परिवर्तन १. एकप्रयत्नोच्चार्याणां तच्छायां चैव बिभ्रताम् । स्वरितादिगुणैभिन्नः बन्धः श्लिष्टमिहोच्यते ॥
. -उद्भट, काव्यालं०-सार सं०४,२ २. द्रष्टव्य, रुद्रट, काव्यालं. अध्याय ४ तथा १०
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४२० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
के असहत्व तथा सहत्व के आधार पर उसे शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार माना । रुय्यक ने आश्रय के आधार पर श्लेष को न केवल शब्दगत तथा अर्थगत माना वरन् उसे उभयगत भी स्वीकार किया। इस प्रकार रुय्यक के अनुसार श्लेष शब्दगत, अर्थगत तथा उभयगत हो सकता है । रुय्यक के अनुसार शब्दश्लेष में पदभङ्ग से दो अर्थ निकलते हैं । उन शब्दों में उच्चारणप्रयत्न तथा उदात्तादि स्वर की भिन्नता रहती है; अतः वे शब्द परस्पर स्वतन्त्र होते हैं । वे तत्त्वतः अलग-अलग शब्द होने पर भी एकरूपता का आभास - मात्र उत्पन्न करते हैं । इन दोनों शब्दों का सम्बन्ध जतु-काष्ठ सम्बन्ध के समान होता है । जैसे लकड़ी में सटी हुई लाह उससे अभिन्न जान पड़ती है; पर वस्तुतः वह लकड़ी से भिन्न होती है, उसी तरह सभङ्ग पदश्लेष अर्थात् शब्दश्लेष में दो स्वतन्त्र शब्द एक से प्रतिभात होते हैं । अर्थश्लेष में एक ही शब्द, जिसका उच्चारण प्रयत्न, स्वर आदि एक ही होते हैं; दो अर्थों का वाचक होता है । इसमें एक शब्द में दो अर्थ एक वृन्त में लगे दो फल की तरह रहा करते हैं । उभयश्लेष में उक्त दोनों स्थितियाँ रहा करती हैं । २ शब्दालङ्कार - विभाग के आधार की भिन्नता के कारण दोनों आचार्यों के शब्दश्लेष और अर्थश्लेष की धारणा कुछ अलग-अलग है । मम्मट शब्दश्लेष के सभङ्ग एवं अभङ्ग दोनों भेद स्वीकार करेंगे, पर रुय्यक केवल सभङ्ग को ही शब्दश्लेष मानेंगे ।
मम्मट और रुय्यक के उपरान्त अलङ्कार - शास्त्र में श्लेषविषयक दोनों ही मान्यताएँ प्रचलित रही हैं । विश्वनाथ आदि आचार्यों ने मम्मट की श्लेष विषयक मान्यता का अनुमोदन किया तो विद्याधर आदि ने आचार्य are के सिद्धान्त का समर्थन किया । जयदेव आदि परवर्ती आचार्य भी प्राचीन आचार्यों के श्लेष - लक्षणको ही मान कर चले । हिन्दी - रीति-आचार्यों ने भी श्लेष के उस परम्परागत लक्षण को ही स्वीकार किया है ।
- श्लेष के मुख्य दो भेद दण्डी ने सभङ्ग तथा अभङ्ग पद के आधार पर किये थे । १. अर्थश्लेषस्य तु स विषयः यत्र शब्दपरिवर्त्तनेऽपि न श्लेषत्वखण्डना । मम्मट, काव्य प्र०, पृ० २१२ २. एष च शब्दार्थोभयगतत्वेन वर्तमानत्वात् त्रिविधः । तत्रोदात्तादिस्वरभेदात् प्रयत्नभेदाच्च शब्दान्यत्वे शब्दश्लेषः यत्र प्रायेण पदभङ्गो भवति । अर्थश्लेषस्तु यत्र स्वरादिभेदो नास्ति । अतएव न तत्र सभङ्गपदत्वम् । सङ्कलनया तूभयश्लेषः । - रुय्यक, अलं० सर्वस्व पृ० ११२
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[४२१ उनके अनुसार श्लेष के अभिन्न क्रियावान्, अविरुद्ध क्रियावान्, विरुद्ध क्रियावान् तथा नियमवान् आदि भेद भी होते हैं।' दण्डी के सभङ्ग-अभङ्ग भेद के आधार पर उद्भट ने श्लेष के शब्दगत और अर्थगत भेद स्वीकार किये। रुद्रट ने शब्द-श्लेष के वर्ण, पद, लिङ्ग भाषा, प्रकृति, प्रत्यय, विभक्ति तथा वचन के आधार पर आठ और श्लेष- वर्ग में परिगणित अर्थश्लेष के अविशेष, विरोध, अधिक, वक्र, व्याज, उक्ति, असम्भव, अवयव; तत्त्वश्लेष तथा विरोधाभास- ये दश भेद माने ।२ भोज ने शब्दश्लेष और उभय-श्लेष के 'छह-छह भेद किये । शब्द-श्लेष के भेद प्रकृति, प्रत्यय, विभक्ति, वचन, पद तथा भाषा भेद के आधार पर तथा शब्दार्थोभय-श्लेष के भेद पद, क्रिया, कारक आदि के आधार पर किये गये। ___ आचार्य मम्मट ने शब्दश्लेष के नौ भेदों में सभङ्ग और अभङ्ग श्लेष-भेदों को भी परिगणित किया तथा अर्थश्लेष को भी स्वीकार किया। रुय्यक ने शब्दश्लेष और अर्थश्लेष के साथ उभयश्लेष भेद को भी कल्पना की। अप्पय्य दीक्षित ने वर्ण्य, अवर्ण्य तथा वावर्ण्य की अनेकता के आधार पर श्लेष के तीन भेद किये। हिन्दी में आचार्य केशव ने समान पद-वाक्य से पांच-पाँच अर्थ तक के उदाहरण दिये हैं।
काव्य में श्लेष अलङ्कार का महत्त्वपूर्ण स्थान माना गया है। दण्डी ने श्लेष को सभी अलङ्कारों का शोभाधायक कहा था। उद्भट ने अन्य अलङ्कारों के साथ श्लेष के रहने पर उसकी सार्वत्रिक प्रधानता स्वीकार की।" रुय्यक तथा मम्मट ने इस मान्यता से असहमति प्रकट कर उपमा आदि के साथ श्लेष के रहने पर साधारण्य की ही प्रधानता मानी। फिर भी, इतना तो कहा ही जा सकता है कि श्लेष को आचार्यों ने बहुत महत्त्वपूर्ण अलङ्कार माना है । वस्तुतः, एक साथ अनेकार्थ के गुम्फन में कवि के कौशल का परिचय मिलता है। अतः, श्लेष का महत्त्व अनुपेक्षणीय है।
१. द्रष्टव्य, दण्डी, काव्याद० २,३१०-२२ । २. द्रष्टव्य, रुद्रट, काव्यालं, ४,२ तथा १०, २ ३. द्रष्टव्य, भोज, सरस्वती कण्ठा० २,६६ तथा ४,८४ ४. द्रष्टव्य, केशव, कविप्रिया, ११,३३ . ५. अलङ्कारान्तरगतां प्रतिभां जनयत्पदैः ।
-उद्भट, काव्यालं०, सारसं० ४,२४ ६. द्रष्टव्य-अलङ्कार सर्वस्व पृ० ११६-१७
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४२२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
पुनरुक्तवदाभास ___ आचार्य उद्भट ने सर्वप्रथम पुनरुक्तवदाभास अलङ्कार का निरूपण किया। उन्होंने यद्यपि शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार का सैद्धान्तिक रूप से विभाजन वहीं किया है, तथापि उनके अलङ्कार-विवेचन के क्रम को देखते हुए यह स्पष्ट है कि उन्होंने प्रस्तुत अलङ्कार को शब्दालङ्कार माना है। पुनरुक्तवदाभास के लक्षण में उद्भट ने कहा है कि इस में पुनरुक्ति का आभास होता है, अर्थात् भिन्न-भिन्न पद एक ही वस्तु का बोध कराते-से जान पड़ते हैं। एक ही वर्थ का भिन्न-भिन्न पदों से पुनः-पुनः कथन पुनरुक्ति-दोष माना जाता है; पर जहाँ तत्त्वतः अर्थ की पुनरुक्ति नहीं रहने पर भी आपाततः पुनरुक्ति का बाभास होता है और विचार करने पर परिणामतः पुनरुक्ति का परिहार हो जाता है, वहां चमत्कार के कारण पुनरुक्तवदाभास या पुनरुक्ताभास अलङ्कार माना जाता है।
संस्कृत तथा हिन्दी अलङ्कार-शास्त्र के प्रायः सभी प्रमुख आचार्यों ने पुनरुक्तवदाभास का यही स्वरूप माना है। इस अलङ्कार के विषय में आचार्यों में थोड़ा मतभेद इसके शब्दगतत्व तथा अर्थगतत्व आदि को लेकर ही रहा है। एक ओर रुय्यक तथा उनके अनुयायी विद्याधर, विद्यानाथ आदि ने इसे अर्थालङ्कार माना तो दूसरी ओर आचार्य मम्मट तथा उनके अनुयायियों ने इसे शब्दार्थोभयगत अलङ्कार माना है। विश्वनाथ भी इसे उभयालङ्कार मानने के पक्ष में ही हैं। विश्वनाथ के शब्दालङ्कार-प्रकरण में पुनरुक्तवदाभास का निरूपण होने से यह भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए कि वे इसे शब्दालङ्कार मानने के पक्ष में थे। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि इसे उभयालङ्कार मानने पर भी उन्होंने केवल परम्परा के निर्वाह के लिए इसका निरूपण शब्दालङ्कारप्रकरण में किया है। हिन्दी अलङ्कार-शास्त्र के एक शोधक ने तो यहाँ तक मान लिया है कि विश्वनाथ ने पुनरुक्तवदाभास को अर्थालङ्कार माना है। 3.
१. पुनरुक्तवदाभासमभिन्नवस्तिवोद्भासिभिन्नरूपपदम् ।-उद्भट, काव्यालं.
सारसं० पृ० १ २. शब्दार्थयोः प्रथमं शब्दस्य बुद्धिविषयत्वात् शब्दालङ्कारेषु वक्तव्येषु
शब्दार्थालङ्कारस्यापि पुनरुक्तवदाभासस्य चिरन्तनैः शब्दालङ्कारमध्ये लक्षितत्वात् प्रथमं तमेवाह। -विश्वनाथ, साहित्यद० वृत्ति पृ० ५५८ ३. द्रष्टव्य, डा० ओमप्रकाश, रीतिकालीन अलं० सा० का शास्त्रीय
विवेचन, पृ० २३६
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४२३
पता नहीं, ऐसी भ्रान्त धारणा का क्या आधार था। पुनरुक्तवदाभास को उभयगत मानना ही युक्तिसङ्गत जान पड़ता है; क्योंकि इसमें पुनरुक्ति का बोध पहले शब्द-प्रयोग चातुरी से होता है, पर पुनरुक्ति का परिहार अर्थसापेक्ष होता है।
हिन्दी के कुछ आचार्यों ने पुनरुक्तवदाभास के स्थान पर पुनरुक्ति संज्ञा का प्रयोग किया है। यह उचित नहीं । तात्त्विक पुनरुक्ति को तो काव्य में दोष ही माना जायगा । पुनरुक्ति के आभास-मात्र में अलङ्कारत्व रहता है । विरोधाभास
संस्कृत तथा हिन्दी-अलङ्कार-शास्त्र में प्रस्तुत अलङ्कार के दो नाम उपलब्ध हैं—विरोध तथा विरोधाभास । आरम्भ में भामह, दण्डी, उद्भट आदि ने विरोध संज्ञा से ही इस अलङ्कार के स्वरूप का निरूपण किया था; पर पीछे चल कर उसके लिए अधिक सार्थक अभिधान का प्रयोग हुआ। मम्मट ने यद्यपि विरोध संज्ञा का ही प्रयोग किया है, पर उन्होंने यह उल्लेख किया है कि इसे ही विरोधाभास भी कहते हैं। दण्डी, उद्भट, मम्मट, रुय्यक आदि के विरोधलक्षण पर विचार करने से उसका विरोधाभास नाम ही अन्वर्थ, अतः अधिक समीचीन जान पड़ता है। रुद्रट आदि आचार्यों के विरोध-अलङ्कार के लिए विरोध संज्ञा उपयुक्त है।
विरोध को अधिकांश आचार्यों ने अर्थालङ्कार माना है। मम्मट के अन्वय-व्यतिरेक के निकष पर तो शब्द-परिवृत्ति-सहत्व के कारण यह अर्थालङ्कार सिद्ध किया जा सकता है; पर आश्रय-भेद के आधार पर इसे केवल अर्थाश्रित मानने में दो मत हो सकते हैं । इसमें तात्त्विक अविरोध में विरोध का आभास उत्पन्न किया जाता है। स्वरूपतः विरोध की प्रतीति में शब्द-प्रयोग का चमत्कार अपेक्षित रहता है, विरोध-परिहार अवश्य अर्थ के आधार पर हुआ करता है । आचार्य भिखारी दास ने विरोध तथा विरोधाभास की अलग-अलग सत्ता मान कर विरोध को तो अर्थालङ्कार माना है; पर विरोधाभास को शब्दालङ्कार ।' संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र का एक ही अलङ्कार दो संज्ञाओं के कारण दो स्वतन्त्र-अलङ्कार बन गया। इसका दूसरा कारण यह था कि भामह, दण्डी तथा उद्भट के उपरान्त विरोध की परिभाषाएं १. भिखारी दास, काव्यनिर्णय, उल्लास १३ तथा २० । उसकी टीका पृ०
५६६ भी द्रष्टव्य
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४२४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण वामन तथा रुद्रट के द्वारा कुछ अलग-अलग रूप में कल्पित हुई। उन्हीं दोनों के परस्पर स्वतन्त्र विकास की परिणति विरोध तथा विरोधाभास; इन दो स्वतन्त्र अलङ्कारों के रूप में हुई है। विरोधाभास को एक ओर केवल अर्थालङ्कार तथा दूसरी ओर केवल शब्दालङ्कार (दास आदि के द्वारा) मानने के दो अतिगामी विचारों के बीच उसे उभयालङ्कार-वर्ग में रखना समीचीन जान पड़ता है। दास ने विरोधाभास में शब्द का चमत्कार स्वीकार करने पर भी विरोध-परिहार आवश्यक माना है, जो अर्थ के आधार पर ही सम्भव है। अतः, दास के विरोधाभास-लक्षण के अनुसार उसे शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार; दोनों (स्पष्ट शब्दों में शब्दार्थोभयालङ्कार) माना जा सकता है।
भामह, दण्डी तथा उद्भट ने विरोधाभास को जो परिभाषाएँ दी थीं, वे व्याख्या-सापेक्ष थीं। उनके अनुसार विरुद्ध पदार्थों का संसर्ग-वर्णन इस अलङ्कार में विशेष अर्थात् वर्ण्य के उत्कर्ष प्रदर्शन के लिए किया जाता है। दण्डी की इस धारणा को व्याख्या में नृसिंहदेव ने 'विशेषदर्शनायैव' ( केवल उत्कर्ष-निरूपण के लिए ) की व्याख्या करते हुए कहा है कि तात्त्विक-अविरोध में भी विरोध-प्रदर्शन वर्ण्य के उत्कर्ष-निरूपण के लिए 'विरोध' में किया जाता है। निष्कर्ष यह कि इसमें तात्त्विक अविरोध और प्रातिभासिक विरोध रहा करता है। इसलिए इसे विरोधाभास भी कहा जाता है।
भामह, दण्डी तथा उद्भट की विरोध-परिभाषाओं में, जो एक-दूसरे से मिलती-जुलती ही हैं, (भामह और उद्भट की परिभाषा तो अभिन्न है२) विरुद्ध गुण, क्रिया आदि की योजना का तो स्पष्ट शब्दों में उल्लेख हुआ है; पर यह स्पष्टतः अभिहित नहीं है कि विरोध तात्त्विक नहीं, प्रातिभासिकमात्र होता है। वामन ने अपनी विरोध-परिभाषा में यह स्पष्ट किया कि विरोध का आभास ही विरोध अलङ्कार है।3 भामह तथा दण्डी की
१. विशेषदर्शनायव विशेषः वर्णनीयस्य उत्कर्षः तस्य दर्शनाय निरूपणायव
विरुद्धानाम् अन्योन्यविरुद्धधर्मवतां पदार्थानां= जातिगुण क्रियाद्रव्याणाम् यत्र वैचित्र्ये संसर्गदर्शनम् सम्बन्धवर्णनम् सामानाधिकरण्यप्रतिपादनमिति यावत्, स विरोधः = वास्तवविरोधाभावेऽपि विरोधप्रयोजकत्वात् विरोधः [विरोधाभास] इति नामालङ्कारः स्मृतः ........।
-दण्डी, काव्याद० २, ३३३ की कुसुमप्रतिमा टी० पृ० २५४ २. द्रष्टव्य-भामह,काव्यालं० ३,२५ तथा उद्भट, काव्यालं० सार सं०५,६ ३. विरुद्धाभासत्वं विरोधः । -वामन, काव्यालं० सू० ४,३,१२
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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ४२५ 'परिभाषाओं में भी यह आभास का भाव निहित अवश्य था, जो 'विशेषाभिधानाय' तथा 'विरोधदर्शनाय व' से व्यक्त होता है । वामन ने उसका स्पष्ट उल्लेख किया ।
आचार्य रुद्रट ने भामह आदि की परिभाषा से विरुद्ध गुण-क्रिया आदि की एकत्र सङ्घटना की धारणा तो ली; पर विशेषमात्र प्रदर्शन के उद्देश्य से प्रातिभासिक विरोध की योजना की धारणा को अस्वीकार कर दिया । फलतः, उन्होंने विरोध के लक्षण में आभास की धारणा का त्याग कर यह मान्यता प्रकट की कि इसमें एक समय एक ही आधार में परस्पर सर्वथा विरुद्ध द्रव्य, गुण, क्रिया और जाति का अवस्थान वर्णित होता है । १ भामह, दण्डी • आदि की विरोध- परिभाषाओं में प्रकारान्तर से व्यक्त तथा वामन की परिभाषा ' में स्पष्टतः अभिहित विरोध का स्वभाव ही परवर्ती आचार्यों के द्वारा परिभाषित हुआ है । संस्कृत के मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि तथा हिन्दी के चिन्तामणि, यशवन्त सिंह, मतिराम, दूलह, पद्माकर आदि ने वामन की विरोध- धारणा को ही अपनाया है । केशव ने विरोध में विरोधमय वचन की रचना पर बल देकर रुद्रट की धारणा स्वीकार की है, साथ ही विरोध के आभास को भी स्वीकृति दी है, जैसा कि उनके विरोध - उदाहरण से स्पष्ट है । उसकी व्याख्या में लाला भगवान दीन ने यह मान्यता प्रकट की है कि इस कवित्त के पहले और तीसरे चरण में 'विरोध' अलङ्कार तथा दूसरे और चौथे में 'विरोधाभास' अलङ्कार है; पर विरोधाभास को केशव ने 'विरोध' ही के अन्तर्गत माना है । २ दास ने वामन आदि आचार्यों के मतानुसार 'विरोधाभास का स्वरूप स्वीकार किया (यद्यपि उन्होंने उसकी परिभाषा को कुछ अस्पष्ट कर दिया है ) और उससे स्वतन्त्र विरोध अलङ्कार का अस्तित्व स्वीकार कर उन्होंने विरोधाभास को शब्दालङ्कार तथा विरोध को अर्थालङ्कार मान लिया है । यह दास के अलङ्कार - निरूपण की सीमा है कि वे अर्थगत विरोध- अलङ्कार तथा शब्दगत विरोधाभास - अलङ्कार का भेद स्पष्ट नहीं कर सके । यदि वे विरोध का लक्षण केशव के मतानुसार देते तो उन्हीं के मतानुसार विरोधाभास का भेद स्पष्ट हो जाता । केशव की विरोध-धारणा : में — जिसमें एक साथ रुद्रट के मतानुसार विरोध तथा वामन आदि के
१. यस्मिन् द्रव्यादीनां परस्परं सर्वथा विरुद्धानाम् ।
एकत्रावस्थानं समकालं भवति स विरोधः ॥ - रुद्रट, काव्यालं० ९,३० २. द्रष्टव्य, केशव, कविप्रिया,....लाला भगवानदीन की टीका पृ० १५५
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४२६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
मतानुसार विरोधाभास की धारणा समन्वित है - परम्परागत दो विरोधधारणाओं का प्रतिफलन है ।
स्पष्ट है कि विरोध अलङ्कार के सम्बन्ध में दो विचारधाराएँ प्रचलित रही हैं। एक का प्रवर्त्तन रुद्रट ने किया और दूसरी का वामन ने । केशव ने दोनों को एक साथ मिलाने का प्रयत्न किया; पर दास ने दोनों की परस्पर स्वतन्त्र सत्ता मान कर दो अलङ्कारों की कल्पना कर ली । वामन की विरोधधारणा, जिसके लिए विरोधाभास नाम अधिक उपयुक्त है, अधिक मान्य हुई | रुद्र की धारणा को केशव आदि कुछ आचार्यों ने ही स्वीकार किया है ।
अर्थालङ्कार
अब तक हमने उन अलङ्कारों के स्वरूप विकास का अध्ययन किया है, जो या तो शब्दगत हैं या शब्दार्थोभयगत । कुछ अलङ्कारों के शब्दार्थगतत्व के सम्बन्ध में आचार्यों ने विरोधी मत प्रकट किये हैं । अलङ्कार - विशेष के समान स्वरूप को स्वीकार करने पर भी एक आचार्य उसे शब्दालङ्कार मानते हैं तो दूसरे अर्थालङ्कार । दोनों पक्षों में अपनी-अपनी कुछ युक्तियाँ हैं । ऐसे स्थल में इतना तो मान ही लिया जाना चाहिए कि उस अलङ्कार में प्रधानता भले शब्द या अर्थ की हो, पर वह किसी-न-किसी अंश में शब्दगत भी है और अर्थगत भी । पुनरुक्तवदाभास, विरोधाभास आदि की यही स्थिति है । प्रस्तुत सन्दर्भ में हम उन अलङ्कारों के स्वरूप - विकास का अध्ययन करेंगे, जो सर्वमत से अर्थालङ्कार माने गये हैं ।
उपमा
उपमा भारतीय काव्यशास्त्र में उपलब्ध प्राचीनतम अलङ्कारों में से एक तो है ही, महत्त्व की दृष्टि से भी वह सभी अलङ्कारों में अग्रगण्य है । वामन, अभिनव आदि आचार्यों ने काव्य के सभी स्वीकार्य अलङ्कारों का मूल उपमा की धारणा को माना था । राजशेखर ने उपमा को अलङ्कारों में मूर्धाभिषिक्त, काव्य का सर्वस्व तथा कवि - कुल की माता कहा है । अप्पय्य दीक्षित ने
१
१. सम्प्रत्यर्थालङ्काराणां प्रस्तावः । तन्मूलं चोपमेति ।
- वामन, काव्यालं ० सू० वृत्ति पृ० १८५ तथा— उपमाप्रपञ्चश्च सर्वोऽलङ्कार इति विद्वद्भिः प्रतिपन्नमेव - ना० शा ० अभिनव भारती पृ० ३२१
२. अलङ्कारशिरोरत्नं सर्वस्वं काव्यसम्पदाम् । उपमा कविवंशस्य मातैवेति मतिर्मम ॥
- केशव मिश्र के अलङ्कार शेखर में उद्धृत, पृ० ३२
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४२७ सभी अलङ्कारों को उपमा-नटी का विभिन्न रूप स्वीकार किया।' वेदों में उपमा का बाहुल्य यह प्रमाणित करता है कि आरम्भ में किसी वस्तु के सौन्दर्य आदि से प्रभावित मानव ने उसकी तुलना किसी अन्य सर्वविदित सौन्दर्य आदि के प्रभाव वाले पदार्थ से की होमी। एक वस्तु का प्रभाव उसके समान ही पूर्वानुभूत तथा संस्कार-रूप में स्थित दूसरी वस्तु के प्रभाव को मन में जगा देता है। इस प्रकार एक सुन्दर वस्तु को देख कर अनायास भी किसी अन्य सुन्दर वस्तु का ध्यान आ जाता है। कवियों के द्वारा एक वस्तु के प्रभाव की वृद्धि के लिए ख्यात प्रभाव वाली अन्य वस्तु की सायास योजना भी हो सकती है। काव्य में कवि-कल्पना से प्रस्तुत के लिए अप्रस्तुत की योजना बहुधा सायास ही होती है; पर व्यवहार में उपमा का जन्म अनायास ही हो गया होगा। वस्तु के प्रभाव की सबसे सहज अभिव्यक्ति उपमा में ही होती है। अतः, यह अनुमान किया जा सकता है कि सर्वप्रथम मानव के अन्तर की वस्तु-- विशेष के प्रति प्रतिक्रिया अलङ्कत रूप में, उपमा के रूप में ही व्यक्त हुई होगी। उसी उपमा के रूप में थोड़े-थोड़े विकार के साथ अन्य औपम्यमूलक अलङ्कारों का विकास हुआ होगा। उपमा, इसीलिए, आद्या अलङ्क ति है। प्राचीनता तथा महत्ता की दृष्टि से प्रथम अर्थालङ्कार होने की दृष्टि से उपमा का निरूपण अधिकांश आचार्यों ने अर्थालङ्कार-निरूपण-प्रस्ताव में सर्वप्रथम किया है । दण्डी ने अलङ्कार-निरूपण-प्रस्ताव में स्वभावोक्ति को प्रथम स्थान दिया है। पर, भामह ने अतिशयोक्ति या वक्रोक्ति को सभी अलङ्कारों का हेतु मानने पर भी उपमा का निरूपण ही सबसे पहले किया है । उद्भट, वामन आदि ने उपमा का प्रथम निरूपण किया और यही परम्परा पीछे चलती रही। हिन्दी में कुछ आचार्यों ने दण्डी की पद्धति पर स्वभावोक्ति का निरूपण पहले किया है।
अलङ्कार-शास्त्र में उपमा का निरूपण इतना सूक्ष्म तथा उसके भेदोपभेदों का विवेचन इतना विस्तृत हुआ है कि उसका सैद्धान्तिक विवेचन और ऐतिहासिक विकास स्वतन्त्र शोध का विषय है। प्रस्तुत सन्दर्भ में हमारा उद्देश्य उपमा-धारणा के विकास का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करना ही होगा।
१. उपमैका शैलूषी सम्प्राप्ता चित्रभूमिकाभेदान् । रञ्जयति काव्यरङ्ग नृत्यन्ती तद्विदां चेतः॥
-अप्पय्यदी. चित्रमी० पृ० ६.
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१४२८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
__ ऐतिहासिक दृष्टि से उपमा की सामान्य धारणा में विशेष परिवर्तन या विकास नहीं हुआ है। इस बात में दो मत नहीं कि उपमा में प्रस्तुत वस्तु की तुलना अप्रस्तुत वस्तु के साथ की जाती है। यह • तुलना दोनों के बीच किसी साधारण धर्म के आधार पर होती है।
यदि किसी कारण वर्ण्य वस्तु अन्य वस्तु के सदृश नहीं जान पड़े तो दोनों की • तुलना का कोई अर्थ नहीं होगा। दो वस्तुओं की तुलना में दोनों के बीच
साधारण धर्म के वाचक शब्दों का प्रयोग होता है। इस प्रकार उपमा के चार "अङ्ग स्वीकृत हैं :-(१) वह वर्ण्य वस्तु, जिसकी तुलना अन्य वस्तु से की जाती है अर्थात् उपमेय, (२) जिस वस्तु के साथ वर्ण्य वस्तु की तुलना की जाती है अर्थात् उपमान, (३) दोनों के बीच साधारण रूप से रहने वाला धर्म, जिसे साधारण धर्म कहते हैं और (४) उपमेय एवं उपमान के बीच सादृश्य के वाचक शब्द । इन चार तत्त्वों-उपमेय, उपमान, साधारण धर्म तथा उपमा-वाचक शब्द-से उपमा अलङ्कार की योजना होती है। जहाँ ये चारो तत्त्व उक्त रहते हैं, वहाँ पूर्णा उपमा तथा इनमें से एक, दो तथा तीन के लुप्त — रहने पर लुप्ता उपमा होती है ।
उपमा के उक्त चार अङ्ग तथा उनके सम्पूर्णतः उक्त तथा अंशतः उक्त होने के आधार पर उपमा के पूर्णा एवं लुपा भेद सर्वसम्मत हैं। इस प्रकार आचार्य भरत से लेकर अधुनातन आचार्यों की उपमा-धारणा का सार यह है कि जहाँ कुछ साधारण धर्म या सादृश्य के आधार पर वर्ण्य वस्तु की अप्रस्तुत वस्तु के साथ तुलना की जाती हो, वहाँ उपमा अलङ्कार होता है। उदाहरण के लिए उज्ज्वल अपाङ्ग में काली कनीनिका के सौन्दर्य के लिए यदि कवि यह वर्णन करता है कि- उज्ज्वल अपाङ्ग में काली कनीनिका श्वेत पद्म में बैठे काले भ्रमर के समान सुन्दर है' तो यह उपमा अलङ्कार का उदाहरण होगा। इसमें उज्ज्वल अपाङ्ग में काली कनीनिका उपमेय, श्वेत कमल में • काला भ्रमर उपमान, सुन्दरता दोनों में साधारण धर्म तथा 'समान' उपमा • का वाचक शब्द होगा। यहाँ ध्यातव्य है कि दोनों की सुन्दरता तो उपमा
का हेतु है ही, अपाङ्ग तथा कमल के एवं कनीनिका और भ्रमर के वर्ण आदि का सादृश्य भी उसका हेतु है। इस प्रश्न को लेकर बहुत सूक्ष्म विचार किया गया है कि दो वस्तुओं के बीच साधर्म्य में उपमा मानी जाय या सादृश्य में ? उपमा के सन्दर्भ में दूसरा विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या सार्वत्रिक रूप से
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
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उपमान को उत्कृष्ट गुणवान् तथा उपमेय को उससे निकृष्ट- गुणयुक्त माना जाना चाहिए ? इन प्रश्नों के सम्बन्ध में आचार्यों की मान्यता का सार यह है कि धर्म, स्वरूप आदि की समानता के आधार पर उपमानोपमेय भाव की कल्पना की जा सकती है । समानोपमा में तो विशेषण मात्र के साम्य के आधार पर उपमा की कल्पना होती है । उपमा की योजना में उपमान के रूप, गुण आदि की अतिशय प्रसिद्धि, अतः, उसकी उत्कृष्टता की धारणा भी रहा ही करती है । दोष आदि के लिए उपमान की कल्पना के पीछे भी उपमान में दोष के आधिक्य की धारणा निहित रहा करती है ।
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प्राचीन आलङ्कारिकों के उपमा-लक्षण में साधर्म्य तथा सादृश्य — दोनों शब्दों का प्रयोग हुआ है । आचार्य भरत, दण्डी आदि ने दो वस्तुओं के बीच सादृश्य की प्रतीति को उपमा कहा तो मम्मट, रुय्यक आदि ने उपमा-लक्षण में 'साधर्म्य' शब्द का प्रयोग किया । उपमान के साथ उपमेय के गुण आदि से साम्य को भी भामह, कुन्तक आदि ने उपमा का लक्षण माना है । इस प्रकार 'साधर्म्य', 'सादृश्य' तथा 'गुण - साम्य या धर्म साम्य' शब्दों का प्रयोग तत्तदा-चार्यों के उपमा-लक्षण में हुआ है । गुणसाम्य तथा धर्मसाम्य साधर्म्य से अभिन्न है । ऐतिहासिक दृष्टि से उपमा के लक्षण - विकास का अध्ययन वाञ्छनीय है ।
उपमा के अलङ्कार-शास्त्रीय निरूपण के पूर्व निरुक्ति की दृष्टि से यास्क के 'निरुक्त' में तथा ज्ञान के साधन के रूप में न्यायशास्त्र में उसका विवेचन हो चुका था । यास्क ने उपमा के स्वरूप के सम्बन्ध में अपने पूर्ववर्ती आचार्य गार्ग्य की मान्यता उद्धृत की है । गार्ग्य का मत था कि किसी वस्तु से भिन्न वस्तु का उससे सादृश्य उपमा है । उपमा का कर्म है— श्रेष्ठ या प्रख्यात गुण वाले पदार्थ से कनीय या अख्यात गुण वाली वस्तु की तुलना । कहीं-कहीं हीन गुण वाले पदार्थ के साथ भी अधिक गुण वाली वस्तु की तुलना उपमा में की जा सकती है (इसे भरत आदि निन्दोपमा कहेंगे ) ।
आचार्य भरत ने उपमा को परिभाषित करते हुए कहा कि जहाँ काव्य-रचना में कोई वस्तु ( वर्ण्य वस्तु) सादृश्य के कारण दूसरी वस्तु के साथ उपमित होती है, वहीं उपमा होती है । वह उपमा गुण और आकृति पर
१. अथात उपमा यदतत्तत्सदृशम् इति गार्ग्यस्तदासां कर्म ज्यायसा वा गुणेन प्रख्यातमेन वा कनीयांसं वाप्रख्यातं वाथापि कनीयसा ज्यायांसम् - यास्क, निरुक्त ३, १.
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४३० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
आश्रित होती है। भरत की उपमा-धारणा का सार यह होगा कि उपमा में दो वस्तुओं में गुण और आकृति का सादृश्य होने से एक वस्तु की दूसरी वस्तु के साथ तुलना की जाती है । स्पष्टतः, भरत के उपमा-लक्षण पर यास्क के द्वारा निर्दिष्ट गार्यकृत उपमा-लक्षण का पुष्कल प्रभाव होने पर भी किञ्चित् नवीनता है। एक तो काव्य-बन्ध की चर्चा कर आचार्य भरत ने सादृश्य में चारुता की धारणा को प्रकारान्तर से मिला दिया । अतः, 'यत्किञ्चित्' के उल्लेख से भरत की उपमा-परिभाषा का अर्थ "जिस-किसी प्रकार से सादृश्य के आधार पर की जाने वाली तुलना' नहीं माना जा सकता। गार्य ने गुण के सादृश्य का उल्लेख किया तो भरत ने उपमा को गुणाकृतिसमाश्रया कह कर उसमें किञ्चित् वैशिष्ट्य का आधान किया।
भामह ने अपने पूर्ववर्ती आचार्य भरत के उपमा-लक्षण को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने उपमा की परिभाषा में कहा कि जहां देश-काल, क्रिया आदि की दृष्टि से विरुद्ध उपमान के साथ उपमेय का गुण-लेश के कारण साम्य दिखाया जाय, वहाँ उपमा होती है । २ भामह की मान्यता है कि एक वस्तु का दूसरी वस्तु से साम्य वास्तविक नहीं, कवि कल्पित ही हुआ करता है; क्योंकि -संसार में एक वस्तु का दूसरी वस्तु से तात्त्विक साम्य हो ही नहीं सकता। हर वस्तु दूसरी वस्तु से विलक्षण हुआ करती है । कवि की प्रतिभा दो वस्तुओं में गुण के लेश से साम्य ढूढ़ कर उपमा की योजना करती है। 3 ____ दण्डी ने जिस-किसी प्रकार के सादृश्य की प्रतीति में उपमा की सत्ता मान • ली। आचार्य भरत ने उपमा के लक्षण में 'यत्किञ्चित्' शब्द का प्रयोग किया था और किञ्चित् सदृशी उपमा आदि की सत्ता स्वीकार की थी। दण्डी की उपमा-धारणा भरत की उसी धारणा से अनुप्राणित है।
१. यत्किञ्चित् काव्यबन्धेषु सादृश्येनोपमीयते ।
उपमा नाम सा ज्ञया गुणाकृतिसमाश्रया ॥-भरत, ना० शा १६, ४१ २. विरुद्ध नोपमानेन देशकालक्रियादिभिः ।
उपमेयस्य यत्साम्यं गुणलेशेन सोपमा ॥–भामह, काव्यानं० २, ३० ३. वही, २, ४३-४४ ४. यथाकथञ्चित् सादृश्यं यत्रोद्भूतं प्रतीयते । उपमा नाम सा तस्याः प्रपञ्चोऽयं निदर्श्यते ॥
-दण्डी काव्याद० २, १४
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४३१ उद्भट ने उपमेय और उपमान के मनोहारी साधर्म्य को उपमा कहा और उसमें भामह की तरह देश, काल आदि की भिन्नता को भी स्वीकृति दी।' आचार्य वामन ने भामह के उपमा-लक्षण को ही सूत्रबद्ध किया है।'
आचार्य रुद्रट ने भी पूर्वाचार्यों की तरह दोनों में उपमेय और उपमान में एक समान गुण या साधारण धर्म का सद्भाव उपमा के लिए आवश्यक माना है। ____ कुन्तक ने वर्ण्य वस्तु के स्वभाव की मनोहारिता की सिद्धि के लिए उत्कृष्ट मनोहरता वाली किसी वस्तु के साथ उसकी तुलना में उपमा का सद्भाव माना। कुन्तक के इस उपमा-लक्षण में उनका यह अभिप्राय जान पड़ता है कि उपमा-योजना की सार्थकता वर्ण्य वस्तु के सौन्दर्य आदि के प्रभाव की वृद्धि में है। यह मान्यता उचित ही है। केवल उपमा में ही नहीं, सर्वत्र अप्रस्तुत-योजना का उद्देश्य प्रस्तुत की प्रभावोत्पादकता की वृद्धि ही होनी चाहिए।
अग्निपुराणकार ने दण्डी के उपमा-लक्षण को स्वीकार कर उसमें लोकव्यवहार का तत्त्व मिला दिया। इस प्रकार लोक-सीमा में किञ्चित् सारूप्य के आधार पर एक वस्तु की दूसरी वस्तु के साथ तुलना अग्निपुराणकार के मतानुसार उममा है।५ दण्डी के सादृश्य के स्थान पर अग्निपुराण में सारूप्य १. यच्चेतोहारि साधर्म्यमुपमानोपमेययोः । मिथोऽविभिन्नकालादिशब्दयोरुपमा तु तत् ॥
-उद्भट, काव्यालं. सार सं० १,३२ २. उपमानेनोपमेयस्य गुणलेशतः साम्यमुपमा। -वामन, काव्यालं० सू० वृत्ति ४, २, १ तुलनीय, भामह, काव्यालं.
२, ३० ३. उभयोः समानमेकं गुणादि सिद्ध भवेद्यथैकत्र । अर्थेऽन्यत्र तथा तत्साध्यत इति सोपमा धा॥
-रुद्रट, काव्यालं० १,४ ४. विवक्षितपरिस्पन्दमनोहारित्वसिद्धये।। वस्तुनः केनचित् साम्यं तदुत्कर्षवतोपमा ।
-कुन्तक, वक्रोक्तिजी० ३, ३० ५. किञ्चिदादाय सारूप्यं लोकयात्रा प्रवर्तते । समासेनासमासेन सा द्विधा प्रतियोगिनः॥ .
-अग्निपुराण, अध्याय, ३४
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४३२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
शब्द का प्रयोग हुआ । इस तरह दो वस्तुओं में रूपगत समता आवश्यक मानी गयी । भोज ने भी दो पदार्थों के बीच अवयव - सामान्य उपमा में वाञ्छनीय माना है। इस प्रकार भोज की उपमा का स्वरूप अग्निपुराणकार की उपमा से तत्त्वतः भिन्न नहीं । उनकी उपमा - परिभाषा में 'प्रसिद्धि के अनुरोध' का उल्लेख भी उसे अग्निपुराण की उपमा - परिभाषा में निर्दिष्ट 'लोक-यात्रा के प्रवर्त्तन' के समीप ला देता है ।
मम्मट ने परस्पर स्वतन्त्र दो वस्तुओं में साधर्म्य को उपमा कहा । २ रुय्यक की धारणा मम्मट की इस धारणा से मिलती-जुलती अवश्य है; पर उसमें साधर्म्य की भेदाभेदतुल्यता का स्पष्ट उल्लेख हुआ है । उपमा में साधर्म्य की भेदाभेदतुल्यता आवश्यक मानी जाती है । अर्थात्, इसमें दो वस्तुओं के बीच कुछ साधारण तत्त्व रहते हैं, जो दोनों का अभेद-ज्ञान कराते हैं और कुछ असाधारण तत्त्व होते हैं, जिनसे दोनों का भेद प्रतीत होता है । मम्मट ने भी साधर्म्य के इसी भेदाभेदतुल्य रूप को उपमा में अपेक्षित माना था । भेदप्रधान साधर्म्य वाले व्यतिरेक को तथा अभेद-प्रधान साधर्म्य वाले रूपक आदि को मम्मट ने भी भेदाभेदतुल्य साधर्म्य-प्रधान उपमा से स्वतन्त्र माना है ।
हेमचन्द्र, वाग्भट, शोभाकर, जयदेव, विद्यानाथ, विद्याधर, विश्वनाथ, केशव मिश्र, अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि संस्कृत के परवर्ती आचार्यों ने उपमा के लक्षण में कोई विशेष बात नहीं लायी । कुन्तक आदि की तरह चेतोहारी, हृद्य, सुन्दर आदि विशेषण सादृश्य के लिए जगन्नाथ आदि के उपमा - लक्षण में प्रयुक्त हुए हैं । 3 कुछ लोगों ने अलङ्कार-मात्र के मूल में सौन्दर्य की धारणा निहित रहने के कारण अलङ्कार - विशेष के लक्षण में सुन्दर आदि पद के प्रयोग को अनावश्यक ही नहीं, पुनरुक्ति दोष-दुष्ट भी माना है । * उपमा-लक्षण में सुन्दर आदि विशेषण का प्रयोग विशेष उद्देश्य से किया गया जान पड़ता है। दो वस्तुओं के बीच सादृश्य - निरूपण की चर्चा शास्त्र में - काव्यशास्त्र तर शास्त्र में हो रही थी । न्याय, व्याकरण आदि के उस शुष्क १. प्रसिद्ध ेरनुरोधेन यः परस्परमर्थयोः । भूयोऽवयव सामान्ययोगः सेहोपमा मता ॥
- भोज, सरस्वती कण्ठा, ४, ५.
२. साधर्म्यमुपमा भेदे...... । - मम्मट, काव्यप्र० १०, १२५ ३. सादृश्यं सुन्दरम् उपमालङ्क तिः । - जगन्नाथ, रसगंगा० पृ० २४८ ४. द्रष्टव्य, डॉ० रामचन्द्र द्विवेदा, अलङ्कार मीमांसा, पृ० २१४-१५
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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ४३३ उपमा-विवेचन से काव्य के अलङ्करणभूत उपमा के भेद-निरूपण के लिए यदि उसमें सुन्दर या हृदयग्राही सादृश्य वाञ्छनीय माना गया तो यह अनुचित नहीं हुआ ।
हिन्दी - रीति-काल में परम्परागत उपमा-धारणा का ही अनुवर्तन होता रहा । केशव ने उपमान और उपमेय में रूप, शील तथा गुण की समता आवश्यक बतायी। दोनों के बीच साधारण धर्म या समान गुण की चर्चा तो प्राचीन काल से उपमा-लक्षण में चल ही रही थी; अग्निपुराणकार ने दोनों की रूपगत समता ( सारूप्य) का भी उल्लेख किया था । केशव ने रूप एवं गुण की समता की धारणा प्राचीनों से लेकर एक शील की समता भी आवश्यक बता दी । प्राचीन आचार्यों के साधर्म्य या सादृश्य में केवल गुण की ही नहीं; क्रिया, द्रव्य आदि की समता की धारणा भी अन्तर्निहित थी । केशव ने कोई नवीन धारणा तो उपमा में नहीं जोड़ी, उलटे गुण के अतिरिक्त शील-जैसे अनावश्यक पद को परिभाषा में जोड़ कर परिभाषा को शिथिल बना दिया ।
देव ने दो वस्तुओं में गुण तथा अवगुण की समता के आधार पर उपमा की कल्पना की । इस प्रकार उनके मतानुसार उत्कृष्ट गुण की समता के आधार पर एक प्रकार की; और दुर्गुण की समता के आधार पर दूसरे प्रकार की उपमा होगी । स्पष्ट है कि पहले से जो समान धर्म या समान गुण की चर्चा होती रही थी, उसका सीमित अर्थ ही देव ने समझा था । अतः, गुण का अर्थ उत्कृष्ट गुण मान कर उन्होंने अपनी ओर से निकृष्ट गुण में भी उपमा की कल्पना की । गुण का अर्थ केवल सद्गुण समझने का कारण यह हो सकता है कि प्राचीन आचार्य उत्कृष्ट गुणवान् ( उपमान ) के साथ किसी वस्तु के सादृश्य के वर्णन में उपमा मानते रहे थे । उपमेय की अपेक्षा उपमान में गुणोत्कर्ष की धारणा आवश्यक मानी गयी थी । वर्ण्य वस्तु की किसी अन्य वस्तु से तुलना ही इस मान्यता पर आधृत है कि उस ख्यात गुण बाली
1
१. रूप शील गुण होय सम जो क्यों हूँ अनुसार । तास उपमा कहत कवि केशव बहुत प्रकार ॥
- केशव, कविप्रिया, १४, १
२. गुन, औगुन सम तौलि कँ, जहाँ एक सम और,
सो उपमा, कहि (गहि) वाच्य (वाक्य) पद, सकल अर्थ लघु ठौर
- देव, शब्दरसायन ६ पृ० १५०
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४३४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण वस्तु (उपमान) से तुलना करने पर वर्ण्य वस्तु का गुण-या उसके गुण का प्रभाव-भी स्पष्ट हो जायगा। कुछ आधुनिक आलोचकों ने यह युक्ति दी है कि प्रस्तुत या वर्ण्य वस्तु के गुणोत्कर्ष से प्रभावित होकर ही कवि अप्रस्तुत की योजना करता है । इस तर्क में कवि की अनुभूति पर तो ध्यान रखा गया है; पर उस अनुभूति की अभिव्यञ्जना को स्वाभाविक पर्युत्सुकता की उपेक्षा कर दी गयी है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की यह मान्यता उचित है कि अप्रस्तुतयोजना की सार्थकता प्रस्तुत की प्रभाववृद्धि में ही है ।' कवि प्रस्तुत की प्रभाव-वृद्धि के लिए ऐसा अप्रस्तुत सामने लाता है जिसमें, प्रस्तुत-सा गुण अधिक मात्रा में तथा प्रसिद्ध रूप में रहता है। अतः, उपमेय की अपेक्षा उपमान में गुणोत्कर्ष मानने में आचार्यों का तात्पर्य यह नहीं था कि उपमान में अच्छे गुण ही रहा करते हैं। गुणोत्कर्ष से अभिप्राय किसी धर्म (सद्गुण या अवगुण) के आधिक्य का तथा सुविख्यात होने का ही था। जब भरत के समय से ही निन्दोपमा, आदि को उपमा के रूप में स्वीकृति मिलती रही, तब आचार्य गुणोत्कर्ष का अर्थ सद्गुण मात्र का उत्कर्ष कैसे समझते ? गुण शब्द का प्रयोग आज कुछ अर्थ-विकास के साथ होता है । केवल गुण कहने से सद्गुण के अर्थ का बोध होता है तथा हीन गुण के बोध के लिए 'अव' 'दुर' आदि उपसर्ग के साथ गुण शब्द का प्रयोग आवश्यक माना जाता है। अच्छे गुण के बोध के लिए 'सत्' उपसर्ग लगाया भी जाता है; पर वह आवश्यक नहीं माना जाता । पहले गुण का अर्थ व्यापक था। अच्छे तथा बरे के लिए 'सत्' तथा 'अव' आदि उपसर्ग का प्रयोग आवश्यक था। यह ध्यातव्य है कि किसी आचार्य ने गुणोत्कर्ष के लिए सद्गुण के उत्कर्ष का भाव व्यक्त नहीं किया है। देव ने गुण-साम्य का अर्थ सद्गुण-साम्य मान कर अपनी ओर से यह जोड़ दिया कि अवगुण की समता में भी उपमा होगी। गुण से ही अर्थबोध हो जाने के कारण अवगुण शब्द का प्रयोग अनावश्यक है।
हिन्दी के अन्य रीति-आचार्यों ने उपमा अलङ्कार की परिभाषा में परम्परा का ही निर्वाह किया है। उपमा-धारणा के विकास-क्रम की इस परीक्षा का निष्कर्ष यह है कि जहां वर्ण्य वस्तु की अन्य वस्तु से सादृश्य के कारण तुलना की जाती है, वहां उपमा अलङ्कार होता है। सादृश्य के लिए इसमें दो सदृश वस्तुओं का परस्पर पार्थक्य आवश्यक है । शास्त्र में विवेचित उपमा से काव्यशास्त्रीय उपमा के भेद के लिए इसमें सादृश्यगत चारुता अपेक्षित है।
१. द्रष्टव्य, रामचन्द्र शुक्ल, चिन्तामणि ।
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४३५
उपमा-भेद
आचार्य भरत के समय से ही उपमा के अनेक भेदोपभेदों की कल्पना होती रही है। भरत ने उपमा के पांच भेद-(१) प्रशंसोपमा, (२) निन्दोपमा, (३) कल्पितोपमा, (४) सदृशी उपमा तथा (५) किञ्चत्सदृशी उपमा-स्वीकार किये हैं।' भामह ने उसके तीन भेदों का उल्लेख किया-(१) यथा, इन आदि वाचक शब्द-प्रयोग पर आधृत, (२) समासगा तथा (३) वति प्रत्यययुक्त क्रिया-सामान्य वाली। उन्होंने अनेक भेदों की सम्भावना स्वीकार कर भी उनका विवेचन अनावश्यक समझा ।२ दण्डी ने उसके बत्तीस भेद किये हैं। वे हैं :-धर्मोपमा, वस्तूपमा, दिपर्यासोपमा, अन्योन्योपमा, नियमोपमा, अनियमोपमा, समुच्चयोपमा, अतिशयोपमा, उत्प्रेक्षितोपमा, अद्भुतोपमा, मोहोपमा, संशयोपमा, निर्णयोपमा, श्लेषोपमा, समानोपमा, निन्दोपमा, प्रशंसोपमा, आचिख्यासोपमा, विरोधोपमा, प्रतिषेधोपमा, चटूपमा, तत्त्वाख्यानोपमा, असाधारणोपमा, अभूतोपमा, असम्भावितोपमा, बहूपमा, विक्रियोपमा, मालोपमा, वाक्यार्थोपमा, प्रतिवस्तूपमा, तुल्ययोगोपमा तथा हेतूपमा । वामन ने उपमा के कल्पिता एवं लौकिकी भेद कर पुनः पदवृत्ति तथा वाक्यवृत्ति-रूप में दो विभाग किये हैं। उन्होंने पूर्णोपमा तथा लुप्तोपमा भेदों का भी निर्देश किया है। उद्भट ने व्याकरण-सिद्धान्त के आधार पर श्रोती, आर्थी भेदों की कल्पना की।' उनके समय से पूर्णा एवं लुप्ता के भेदोपभेदों की कल्पना की जाने लगी। पूर्णा के श्रीती एवं आर्थी तथा लुप्ता के उपमेय, उपमान, साधारण धर्म तथा वाचक शब्द में से एक, दो या तीन के अनुपादान के आधार पर पाँच भेद स्वीकृत हुए । उसके भी श्रौती तथा आर्थी विभाग किये गये। श्रौती एवं आर्थी पूर्णा पुन: तद्धितगत, समास-गत एवं वाक्यगत होने के आधार पर छह प्रकार की मानी गयी। लुप्तोपमा के इक्कीस भेद कल्पित हुए। निम्नलिखित तालिका से परवर्ती आचार्यों के उपमा-विभाग की धारणा प्रस्तुत की जा सकती है
१. प्रशंसा चैव निन्दा च कल्पिता सदृशी तथा। किञ्चिच्च सदृशी ज्ञेया ह्य पमा पञ्चधा पुनः ॥-भरत, ना० शा.
२. द्रष्टव्य, भामह, काव्यालं० २,३०-३८ ३. द्रष्टव्य, दण्डी, काव्याद० २,१५-५० ४. द्रष्टव्य,वामन, काव्यालं० सू० १,२,२-७ ५. द्रष्टव्य, उद्भट, काव्यालं. सारसं० १,३३-३८
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४३६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
__ इस प्रकार उपमा के चार तत्त्वों-उपमेय, उपमान, वाचक एवं साधारण धर्म के समग्रतः उपादान में पूर्णोपमा तथा उनमें से एक, दो तथा तीन के लोप के आधार पर लुप्तोपमा भेद कर पुनः तद्धित, समास आदि प्रत्ययों के बाधार पर दोनों के उपभेद किये गये हैं। पूर्णा के छह तथा लुप्ता के इक्कीस मेद मिला कर सत्ताइस भेद हो जाते हैं । उद्भट के इस व्याकरणाश्रित उपमा-विभाग को मम्मट, विश्वनाथ आदि परवर्ती आचार्यों ने भी स्वीकार किया है। विश्वनाथ ने उपमा के रसना आदि भेदों की कल्पना को भी स्वीकार किया है। मम्मट ने उसे स्वतन्त्र रूप से परिभाषित करने की बावश्यकता नहीं समझी थी।' - उपमा के लक्षण-निरूपण के प्रसङ्ग में साधर्म्य तथा सादृश्य पदों के प्रयोग के औचित्य पर विचार कर लेना वाञ्छनीय है। मम्मट ने परस्पर भिन्न वस्तुओं में साधयं को उपमा का लक्षण माना, सादृश्य को नहीं । साधर्म्य और सादृश्य-पदों के अर्थ में थोड़ा भेद है । वैयाकरणों की मान्यता है कि साधर्म्य शब्द का 'य' प्रत्यय समान धर्म-युक्त वस्तु या वस्तुओं के साथ सम्बन्ध का बोधक है। समान धर्म और समान धर्म वाली वस्तु के बीच का सम्बन्ध सादृश्य नहीं कहा जा सकता । पीताम्बरत्व कहने से पीला वस्त्र और पीला वस्त्र धारण करने वाले के बीच का जो सम्बन्ध प्रकट होता है, वह सादृश्य नहीं, साधर्म्य है। क्योंकि, सादृश्य दो वस्तुओं के बीच ही होता है, जो वस्तुएं समान धर्म से युक्त रहती हैं; न कि समान धर्म और उससे युक्त वस्तु के बीज ।
एक उदाहरण से साधर्म्य और सादृश्य का भेद स्पष्ट हो जायगा। उपमादोष का एक उदाहरण है-'हंसी के समान शुभ्र चन्द्रमा'। यहाँ उपमा के वाचक पद का प्रयोग होने से उपमा है; पर दोष यह है कि शुभ्र या धवल धर्म का हंसी के साथ सम्बन्ध नहीं। कारण यह है कि हंसी स्त्रीलिङ्ग का पद है और धवल पुल्लिङ्ग का। धवल चन्द्र और धवल हंसी के बीच सादृश्य
१. ....रशनोपमा च न लक्षिता एवंविधवैचित्र्यसहस्रसम्भवात् उक्तभेदा
नतिक्रमाच्च ।-मम्मट, काव्यप्रकाश, १० पृ० २३१ २. समासकृत्तद्धितास्तु यद्यपि केवलं सम्बन्धं नाभिदधति, तथापि सम्बन्धिनि वत्तंमानाः सम्बन्धं प्रवृत्तिनिमित्तमपेक्षन्त इति तेभ्यः सम्बन्धे भावप्रत्ययः । तथा “च राजपुरुषत्वमिति स्वस्वामिभावः प्रतीयते। पाचकत्वमिति क्रियाकारकसम्बन्धः । औपगवत्वमिति अपत्यापत्यवत्सम्बन्धः।-महाभाष्य पर, कैयट का
प्रदीप, अध्याय ५
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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ४३७ तो है, पर साधर्म्य नहीं । यदि सादृश्य मात्र में उपमा का सद्भाव माना जाता तो उक्त उदाहरण में उपमा अलङ्कार ही माना जाता, उपमा- दोष नहीं । निष्कर्ष यह कि साधर्म्य का अर्थ है साधारण धर्म-सम्बन्ध | यह शब्द उपमेय के साथ धर्म के सम्बन्ध का; उसके उपमान के साथ समान धर्म के सम्बन्ध का तथा दोनों वस्तुओं (उपमेय एवं उपमान) के बीच समान-धर्मसम्बन्ध का बोध कराता है । साधर्म्य में ही उपमा होती है ।
रूपक
'नाट्य-शास्त्र' में उपलब्ध चार प्राचीनतम अलङ्कारों में से रूपक भी एक है | स्वरूपगत चारुता तथा कवि-परम्परा में प्राप्त प्रतिष्ठा की दृष्टि से उपमा के बाद रूपक का ही स्थान माना जाना चाहिए । हम देख चुके हैं कि काव्यशास्त्र में स्वभावोक्ति तथा अतिशयोक्ति या वक्रोक्ति को अलङ्कार में प्रथम स्थान दिलाने के भी प्रयास हुए हैं । ' स्वभावोक्ति का तो अलङ्कारत्व ही विवादग्रस्त रहा है । सर्वमान्य अलङ्कार नहीं होने के कारण स्वभावोक्ति को अलङ्कारों में प्रथम स्थान तो नहीं ही दिया जा सकता; द्वितीय स्थान में भी उसकी गगना नहीं की जा सकती । अतिशयोक्ति एक निश्चित सीमा में ही रुचिकर होती है । जहाँ कवि की कल्पना अतिशयोक्ति में खींच-तान आरम्भ करती है, वहाँ काव्य का प्रभाव जाता रहता है। अतिशयोक्ति पर आश्रित कवि की वह ऊहा बौद्धिक चमत्कार की सृष्टि भले करे, हृदय की संवेदना का उत्कर्ष नहीं कर पाती । अतः, अलङ्कार - विशेष के रूप में अतिश - योक्ति को उपमा, रूपक आदि की अपेक्षा अधिक महत्त्व देना उचित नहीं । रूपक में लाक्षणिक प्रयोग का सौन्दर्य निहित रहता है । काव्य में ऐसे प्रयोग का महत्व अनुपेक्षणीय है । अरस्तू के अनुसार लाक्षणिक प्रयोग का कौशल कवि-प्रतिभा को ईश्वर का महनीय वरदान है । २ भारतीय आचार्यों ने भी लक्षणा शक्ति को एवं उस पर आश्रित रूपक अलङ्कार को बहुत महत्त्वपूर्ण माना है | सभी आचार्यों के द्वारा रूपक की अलङ्कार रूप में स्वीकृति तथा उसकी सभेद विशद मीमांसा इस कथन का प्रमाण है । कवियों में भी रूपक
१. भामह ने अतिशयोक्ति या वक्रोक्ति को अलङ्कारसर्वस्व माना तो दण्डी स्वभावोक्ति को प्रथम निरूप्य समझा ।
2. But for the greatest thing is a gift for metaphor. For this alone cannot be learnt from others and is a sign of inborn power. - Aristotle. Poetics, chapter XXII.
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४३८]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
का पर्याप्त आदर रहा है। संस्कृत-साहित्य के कनिष्ठिकाधिष्ठित कवि कालिदास की उपमा में रुचि जितनी विख्यात है, हिन्दी-कवियों में मूर्धाभिषिक्त कवि तुलसीदास की रूपक में रुचि उतनी ही ख्यात है। ___ उपमा की तरह रूपक के स्वरूप के सम्बन्ध में भी आचार्यों में अधिक मतभेद नहीं रहा है। आचार्य दण्डी से लेकर आधुनिक आचार्य तक रूपक का प्रायः समान स्वरूप ही स्वीकृत होता रहा है। उसके लक्षण का शोधपरिष्कार विभिन्न आचार्य अपने-अपने मत के अनुसार अवश्य करते रहे हैं; पर उसके सामान्य स्वरूप के सम्बन्ध में उनकी धारणा प्रायः समान ही रही है। वह भारत की शास्त्रीय चिन्तन-प्रणाली की अपनी विशेषता रही है कि तत्त्व. निरूपण में एक-दूसरे से बहुलांशतः सहमत रहने पर भी विचारकों ने किसी परिभाषा को अन्वय-व्यतिरेक के कठोर निकष पर कस कर उसके औचित्य की परीक्षा की है तथा पूर्व-निरूपित परिभाषा में कुछ अव्याप्ति या अतिव्याप्तिदोष दिखा कर अपने मत से नवीन परिभाषा की स्थापना की है। पण्डितराज जगन्नाथ ने अप्पय्य की 'चित्र-मीमांसा' की अलङ्कार-परिभाषाओं का तर्क के तीक्ष्ण कुठार से जो खण्डन किया है, उसके पीछे अलङ्कारों के नवीन स्वरूप की कल्पना की अपेक्षा उनके प्राचीन रूप को ही अधिक उपयुक्त परिभाषा में प्रस्तुत करने की प्रेरणा प्रधान रूप में है । जगन्नाथ का उपमा, रूपक आदि की धारणा तद्विषयक प्राचीन धारणा से तत्त्वतः भिन्न नहीं है, फिर भी उन्होंने उन बलङ्कारों के निरूपण-क्रम में जो निविड तर्क-जाल बुना है, उसकी सार्थकता निर्दोष परिभाषा की स्थापना में ही है ।
आचार्य भरत ने रूपक अलङ्कार के लक्षण में अनेक द्रव्यों के अनुषङ्ग बादि से गुणाश्रित औपम्य का, रूप की निवर्णना से युक्त होना अपेक्षित माना है। उनके अनुसार रूपक स्वविकल्प से विरचित होता है तथा उसके तुल्यावयव लक्षण-युक्त होने तथा किञ्चित् सादृश्य से सम्पन्न होने के आधार पर दो रूप होते हैं।' अभिनव गुप्त ने अभिनव-भारती में यह सङ्कत दिया है कि समस्तवस्तुविषय तथा एक देश विवर्ति रूपक भेदों की कल्पना का मूल
१. नानाद्रव्यानुरागाद्य यंदौपम्यगुणाश्रयम् । रूपनिवर्णनायुक्त तद्र पकमिति स्मृतम् ॥
–भरत, ना० शा० १६,५७ तथा स्वविकल्पेन रचितं तुल्यावयवलक्षणम् । किञ्चित् सादृश्यसम्पन्नं यद् पं रूपकं तु तत् ।।-वही १६,५६
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४३६ भरत के उक्त रूपक-भेदों में ही है। स्वविकल्प से किसी वस्तु (वर्ण्य वस्तु) की रूप-रचना में अर्थात् उस वर्ण्य में अन्य वस्तु के रूप की कल्पना में प्रस्तुत पर अप्रस्तुत के आरोप की धारणा-निहित थी। यही धारणा परवर्ती काल के आचार्यों के रूपक-लक्षण में स्पष्टतया व्यक्त हुई है।
भामह ने अपनी रूपक-परिभाषा में भरत की रूपक-धारणा को अधिक स्पष्टता से प्रस्तुत किया है। उनके मतानुसार जहाँ प्रस्तुत और अप्रस्तुत में गुण की समता देख कर अप्रस्तुत के साथ प्रस्तुत का तत्त्व रूपित किया जाय, अर्थात् प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का आरोप किया जाय, वहाँ रूपक अलङ्कार होता है। रूपक के दो भेद होते हैं-(१) समस्तवस्तुविषय और (२) एकदेशविवति ।। रूपक की कल्पना में उपमेय और उपमान के बीच गुण की समता को 'गुणाश्रित औपम्य' पद से भरत ने भी हेतु बताया था। भरत के द्वारा सङ्कतित रूपक के दो भेदों का स्पष्ट निरूपण भामह ने किया है।
दण्डी का रूपक-लक्षण उपमा-लक्षण-सापेक्ष है। उन्होंने कहा है कि उपमान और उपमेय का भेद जहाँ तिरोभूत हो जाय, ऐसी उपमा ही रूपक है। उपमा में दोनों के बीच साधर्म्य में भेदाभेद की प्रधानता होती है। दोनों के साधर्म्य के अभेद की दशा में रूपक अलङ्कार होता है। इस प्रकार उपमा के साथ रूपक के स्वरूप के तुलनात्मक अध्ययन का निष्कर्ष यह होगा कि गुण की समता के कारण उपमान और उपमेय का अभेदारोप अर्थात् उपमेय पर उपमान के आहार्य अभेद का आरोप रूपक अलङ्कार है । स्पष्टतः, दण्डी के रूपक का यह स्वरूप भामह के रूपक से अभिन्न है; पर जहां भामह ने रूपक का स्वतन्त्र तथा पूर्ण लक्षण दिया था, वहाँ दण्डी ने उसे उपमा-लक्षणसापेक्ष बना कर परिभाषित किया है।
१. तस्य ( रूपकस्य ) द्वौ भेदौ तुल्यैरवयवैः सर्व रेवान्यरूपीकृतयुक्त, यदि
वा किञ्चित् सादृश्ययुक्त रूपितम् । अत्रापि किञ्चिदन्ये रूपसादृश्याद्य क्त रूपान्तररूपितं यत्र कदेश विवर्ति प्रसिद्ध द्रव्यास्ति ।
-ना० शा०, अभिनव भारती पृ० ३२५ २. उपमानेन यत्तत्वमुपमेयस्य रूप्यते।
गुणानां समतां दृष्टवा रूपकं नाम तद्विदुः । समस्तवस्तुविषयमेकदेशविवर्तिच ।
द्विधा रुपकमुद्दिष्टम्..."||-भामह, काव्यालं०, २,२१-२२ ३. उपमैव तिरोभूतभेदा रूपकमुच्यते ॥-दण्डी, काव्याद० २,६६
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४४० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उद्भट ने रूपक की परिभाषा किञ्चित् स्वतन्त्र रूप में दी है । उन्होंने उपमान और उपमेय के गुण-साम्य की चर्चा छोड़ कर लक्षणा वृत्ति के आधार पर एक पद से दूसरे पद के सम्बन्ध में रूपक अलङ्कार का सद्भाव माना है । रूपक - परिभाषा में गौणीवृत्ति का उल्लेख निस्सन्देह तथ्य के स्पष्टीकरण की दृष्टि से उद्भट की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है । रूपक में प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का आरोप लक्षणा से ही सम्भव होता है । भरत, भामह आदि की रूपक - परिभाषाओं में भी आरोप की सङ्गति गौणीवृत्ति के आधार पर ही मानी जायगी। उद्भट ने इसी तथ्य के स्पष्टीकरण के लिए गौणीवृत्ति का उल्लेख करते हुए कहा कि जहाँ श्र ुति ( अर्थनिष्ठ निरन्तर शब्द- व्यापार अर्थात् मुख्य वृत्ति) से प्रतिपादित अर्थ से सम्बन्ध का अभाव होने पर गौणीवृत्ति से पद का पदान्तर से सम्बन्ध होता है, वहाँ रूपक अलङ्कार होता है । "
आचार्य वामन ने भामह के रूपक - लक्षण को ही सूत्रबद्ध किया है । रुद्रट ने रूपक के मुख्य दो प्रकार स्वीकार कर उन्हें पृथक् पृथक् परिभाषित किया । प्रथम रूपक - लक्षण में उन्होंने भ मह के मत का अनुसरण करते हुए गुण- साम्य के कारण उपमान और उपमेय का अभेद वाञ्छनीय बताया, साथ ही उत्प्रेक्षा से उसका भेद निरूपित करने के लिए उसकी परिभाषा में 'अविवक्षित सामान्या' विशेषण भी जोड़ दिया । इस प्रकार रुद्रट की मान्यता यह थी कि उपमान और उपमेय का अभेद तो रूपक और उत्प्रेक्षा — दोनों में समान रूप से रहता है; पर उत्प्रेक्षा से रूपक का यह भेद है कि उत्प्र ेक्षा में छल, छद्म, व्याज आदि शब्दों से उपमान और उपमेय के बीच अभेद और भेद विवक्षित रहता है; पर रूपक में सामान्य विवक्षित नहीं रहता । रूपक में भी उपमान और उपमेय के बीच सामान्य (कोई साधारण - धर्म) रहता तो अवश्य है; पर वह अविवक्षित रहता है । रुद्रट के रूपक का दूसरा प्रकार
१. श्र ुत्या सम्बन्धविरहाद्यत्पदेन पदान्तरम् । गुणवृत्तिप्रधानेन युज्यते रूपकं तु तत् ॥
- उद्भट, काव्यलं० सारसं० १, २१ २. उपमानेनोपमेयस्य गुणसाम्यात् तत्त्वारोपी रूपकम् । — वामन, काव्यालं० सू० ४, ३-६ तुलनीय, भामह, काव्यालं० २,२१
३. यत्र गुणानां साम्ये सत्युपमानोपमेययोरभिदा ।
अविवक्षित सामान्या कल्प्यत इति रूपकं प्रथमम् ॥
— रुद्रट, काव्यालं० ८, ३८
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४४१ “समस्त' रूपक है, जिसकी परिभाष कहा गया है कि इसमें उपमान और उपमेय का समास कर उपमेय को गौण रूप में प्रस्तुत किया जाता है।' रूपक के प्रथम प्रकार में उपमान और उपमेय पृथक्-पृथक् रहते हैं; पर द्वितीय प्रकार में वे समस्त रहते हैं । रुद्रट के ये दो रूपक क्रमशः व्यस्त तथा समस्त रूपक-भेदों के रूप में परवर्ती आचार्यों के द्वारा स्वीकृत हुए हैं। __कुन्तक ने आचार्य उद्भट के मत का अनुसरण करते हुए उपमान के द्वारा उपमेय को अपने रूप को अर्पण रूपक का लक्षण माना और इस रूपार्पण की प्रक्रिया के मूल में निहित प्रस्तुत-अप्रस्तुत की समता का प्राण-भूत तत्त्व उपचार-वक्रता को स्वीकार किया। भोज ने भी रूपक का मूलाधार लक्षणावृत्ति को स्वीकार कर उद्भट की रूपक-धारणा का ही अनुमोदन किया है। अग्निपुराणकार ने भामह और दण्डी–दोनों के रूपक-लक्षणों को उद्धृत कर दिया है। मम्मट, रुय्यक आदि आचार्यों को आचार्य दण्डी का रूपक-लक्षण उपयुक्त जान पड़ा और उन्होंने उसी के आधार पर रूपक को परिभाषित किया। मम्मट ने उपमान और उपमेय के अभेद को रूपक का लक्षण स्वीकार किया।५ दण्डी के रूपक-लक्षण का भी निष्कर्ष यही था। रुय्यक ने भी अभेद'प्रधान आरोप को (उपमेय पर उपमान के आरोप को) रूपक का प्रधान लक्षण माना और अपह्न ति से उसके भेद-निरूपण के लिए परिभाषा में "आरोप-विषयानपह्नवे' पद जोड़ दिया।६ रूपक में विषय का निगरण नहीं होता, केवल उस पर विषयी का आरोप होता है ।
उत्तर काल में परम्परानुमोदित रूपक-धारणा ही प्रस्तुत की गयी है । यह सत्य है कि रूपक की निर्दोष परिभाषा की स्थापना के आयास-क्रम में
१. उपसर्जनोपमेयं कृत्वा तु समासमेतयोरुभयोः ।
यत्तु प्रयुज्यते तद्र पकमन्यत्समासोक्तम् ।।-रुद्रट, काव्यालं० ८, ४० २. उपचारैकसर्वस्वं यत्र (वस्तु) तत् साम्य मुद्वहत् । यदर्पयति रूपं स्वं वस्तु तद् रूपकं विदुः ॥
-कुन्तक, वक्रोक्तिजी० ३, २० ३. द्रष्टव्य, भोज, सरस्वतीकण्ठा० ४, २४ ४. द्रष्टव्य, अग्निपुराण, अध्याय ३४४ ५. तद्पकमभेदो य उपमानोपमेययोः । -मम्मट, काव्यप्र० १०,१३६ ६. अभेदप्राधान्य आरोप आरोपविषयानपह्नवे रूपकम् ।
-रुय्यक अलं० सर्वस्व १५
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४४२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उत्तरकालीन आचार्यों ने पूर्ववर्ती आचार्यों की रूपक-परिभाषा का खण्डन कर नवीन रूप से उसे परिभाषित करने का प्रयास किया है। शोभाकर के द्वारा रुय्यक-प्रदत्त रूपक-परिभाषा का खण्डन तथा पण्डितराज जगन्नाथ के द्वारा अप्पय्य की 'चित्रमीमांसा' के रूपक-लक्षण का खण्डन ऐसा ही प्रयास है।' पर, ऐसे खण्डन-मण्डन के प्रयास के होने पर भी रूपक के स्वरूप की मूलधारणा में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ।
हिन्दी-रीति-आचार्यों ने भी रूपक के प्राचीन स्वरूप को ही परिभाषित किया है। रूपक अलङ्कार के सम्बन्ध में आचार्यों की धारणा के सार निम्नलिखित हैं :
(क) इस अलङ्कार में उपमान और उपमेय में अभेद की प्रतीति होती है। दूसरे शब्दों में, उपमान के साथ उपमेय का तत्त्व अर्थात् ताद्र प्य या अभेद दिखाना रूपक का प्रधान लक्षण है।
(ख) इस अभेद-प्रतीति का हेतु दोनों के बीच गुण की समता है ।
(ग) इसमें उपचार या लक्षणा का चमत्कार निहित रहता है; क्योंकि प्रस्तुत का अप्रस्तुत के साथ ताद्र प्य लक्षणा शक्ति से ही उपपन्न हो सकता है।
(घ) उपमा से रूपक का केवल इतना भेद है कि उपमा में प्रस्तुत और अप्रस्तुत के बीच साधर्म्य में भेदाभेद की प्रधानता रहती है; पर रूपक में दोनों के बीच साधर्म्य अभेद-प्रधान होता है।
(ङ) रूपक में उपमेय और उपमान का सामान्य अर्थात् साधारण धर्म विवक्षित नहीं होता।
(च) रूपक में उपमेय और उपमान पृथक्-पृथक् भी रह सकते हैं और दोनों का समास कर उपमेय को गौणरूप में भी प्रस्तुत किया जा सकता है। इस आधार पर रूपक के व्यस्त और समस्त, दो रूप होते हैं । रूपक-भेद
संस्कृत-अलङ्कारशास्त्र के विभिन्न आचार्यों ने अलग-अलग रूप में रूपक के भेदों की कल्पना की है। हम देख चुके हैं कि रूपक के समस्तवस्तुविषय और एकदेश विवति अथवा साङ्ग और निरङ्ग भेदों की कल्पना आरम्भ से
१. द्रष्टव्य, शोभाकर, अलङ्काररत्नाकर, पृ० ३२ तथा जगन्नाथ, चित्र
मीमांसा-खण्डन पृ० ४४-५३
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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[8835 होती रही थी । आचार्य दण्डी ने रूपक के बोस प्रमुख भेदों का लक्षण -निरूपण कर उसके अन्य भेदों की भी सम्भावना स्वीकार की । दण्डी के द्वारा निरूपित रूपक-भेद निम्नलिखित हैं- समस्तरूपक, व्यस्तरूपक ( दोनों का सम्मिलित रूप समस्तव्यस्त-रूपक भी), सकलरूपक, अवयवरूपक, अवयविरूपक, एकाङ्ग रूपक, द्व्यङ्गादिरूपक, युक्तरूपक, अयुक्तरूपक, विषमरूपक, सविशेषणरूपक, विरुद्धरूपक, हेतुरूपक, श्लिष्टरूपक, उपमारूपक, व्यतिरेकरूपक, आक्षेपरूपक,समाधानरूपक, रूपकरूपक तथा तत्त्वापह्नवरूपक । '
आचार्य उद्भट ने समस्तवस्तुविषय मालारूपक का उल्लेख किया है । रुद्रट ने रूपक के प्रमुख दो रूपों को परिभाषित कर समासरूपक के तीन भेदों - सावयव, निरवयव तथा सङ्कीर्ण – के लक्षण दिये हैं । सावयव और निरवयव के दो-दो भेद माने गये हैं- समस्तविषय एवं एकदेशी । सावयव के सहजावयव, आहार्यावयव और उभयावयव उपभेद भी कल्पित हैं । निरवयव के शुद्ध, माला, रशना तथा परम्परित – ये चार उपभेद माने गये है । शुद्ध और माला वाक्यगत निरवयवरूपक के तथा रशना और परम्परित समस्त-रूपक के भेद हैं । सङ्कीर्ण के सहजावयव, आहार्यावयव तथा उभयावयव उपभेद स्वीकृत हैं । ' रुद्रट का रूपक - विभाग निम्न तालिका से स्पष्ट किया जा सकता है :
वाक्यरूपक
समास रूपक
सावयव
निरवयव
( सङ्कीर्ण
सावयव
निरवयय सङ्कीर्ण
समस्तविषय
{ सम्म देश
समस्त विषय ( एकदेशी
{
समस्त विषय
{ एम मदेशी
समस्त विषय एकदेशी
१. द्रष्टव्य, दण्डी, काव्यादर्श २, ६६-९६ २. समस्तवस्तुविषयं मालारूपकमुच्यते ।
सहजावयव आहार्यावयव
उभयावयव
३. रुद्रट, काव्यालङ्कार, ८, ४१, ५६
शुद्ध
माला
सहजावयव आहार्यावयव
- उभयावयव
रशना परम्परित
—उद्भट, काव्यालं० सार सं० १, २५
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-४४४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि परवर्ती आचार्यों का रूपक - विभाग रुद्रट के उक्त विभाग से प्रभावित है । उन आचार्यों के रूपक विभाग के तुलनात्मक ● अध्ययन की सुविधा के लिए हम के रूपक विभाग की तालिका दे रहे हैं :
:―
- मम्मट का रूपक भेद
साङ्ग
समस्तवस्तु एकदेशविषय विवर्ति
शुद्ध
रूपक
निरङ्ग
माला श्लिष्ट
परम्परित
अश्लिष्ट
शुद्ध
माला शुद्ध
माला
रुय्क का रूपक - विभाग मम्मट के उक्त विभाग से अभिन्न है । रुय्यक ने · साङ्ग और निरङ्ग के स्थान पर क्रमशः सावयव और निरवयव -शब्दों का - प्रयोग किया है। शुद्ध के लिए केवल तथा श्लिष्ट और अश्लिष्ट के लिए क्रमशः 'श्लिष्टशब्द निबन्धन' एवं 'अश्लिष्टशब्द निबन्धन' शब्दों का प्रयोग किया गया है ।
विश्वनाथ ने मम्मट और रुय्यक की रूपक - विभाजन पद्धति का ही अनुसरण किया है । उन्होंने मम्मट की तरह 'साङ्ग' और 'निरङ्ग' शब्दों का प्रयोग किया है; पर 'शुद्ध' की जगह रुय्यक की तरह 'केवल' शब्द का प्रयोग किया है । श्लिष्टशब्द निबन्धन तथा अश्लिष्टशब्दनिबन्धन शब्दों का प्रयोग भी रुय्यक के मतानुसार किया गया है ।
भोज ने रूपक के जो चौबीस भेद माने हैं, उस मान्यता में तथ्य - निरूरण की अपेक्षा संख्याविशेष के प्रति मोह ही प्रधान हेतु है । ' हिन्दी - रीति-साहित्य में रूपक - विभाग के क्षेत्र में कोई नवीन उद्भावना नहीं हुई । रुद्रट, मम्मट,
१. गुण आदि के क्षेत्र में भी गुणों की चौबीस संख्या निर्धारित करने के भोज के आग्रह की परीक्षा हम कर चुके हैं ।
द्रष्टव्य, लेखक का 'काव्य-गुणों का शास्त्रीय विवेचन' अ० १
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ४४५. रुय्यक आदि की धारणा का ही अनुगमन रीति-आचार्यों ने किया। यह मान्यता भ्रान्तिपूर्ण है कि केशव ने 'रूपकरूपक' नाम में एक नये भेद का निर्देश किया है।' रूपकरूपक-भेद का सोदाहरण-निरूपण दण्डी ने किया था, जिसमें एक बार रूपित पदार्थ पर पुनः रूपण की धारणा व्यक्त की गयी थी।२ स्पष्टत: रीति-काल में परम्परानुमोदित रूपक-विभाग का ही निरूपण किया गया है। दीपक
उपमा और रूपक की तरह दीपक भी भारतीय अलङ्कार-शास्त्र में प्राप्त प्राचीनतम अर्थालङ्कारों में से एक है। आचार्य भरत से लेकर आधुनिक काल तक के प्रायः सभी आलङ्कारिकों ने दीपक का अलङ्कारत्व स्वीकार किया है। भामह और दण्डी ने तुल्ययोगिता अलङ्कार का स्वरूप दीपक से इतना मिला दिया कि पीछे चल कर जयरथ, पण्डितराज जगन्नाथ, आदि आचार्यों ने तुल्ययोगिता से पृथक् दीपक का सद्भाव मानना अनावश्यक बताया; पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि दीपक के स्वरूप के आधार पर ही उससे मिलते-जुलते स्वरूप वाले तुल्ययोगिता अलङ्कार के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना की गयी है । अतः, यह कल्पना अपने आधार के ही अस्तित्व का अपलाप नहीं कर सकती। यदि उक्त दोनों अलङ्कारों के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना आवश्यक न मानी जाय और दोनों के स्थान पर एक ही अलङ्कार के व्यापक स्वरूप की कल्पना लाघव के लिए उचित मानी जाय, तो भी दीपक के अस्तित्व को अस्वीकार करने का कोई आधार नहीं होगा। अस्तु, प्रस्तुत प्रसङ्ग में हम दीपक के स्वरूप-विकास का अध्ययन करेंगे। ____ आचार्य भरत ने दीपक का स्वरूप-निरूपण करते हुए कहा था कि इसमें वाना अधिकरण में रहने वाले शब्दों का एक ही वाक्य से संयोग होता है । एक वाक्य अनेक शब्दों का दीपन करता है, इसीलिए इस अलङ्कार का १. डॉ० ओमप्रकाश शर्मा, रीतिकालीन अलं० साहित्य का शास्त्रीय
विवेचन, पृ० २५४ २. दण्डी, काव्यादर्श, २, ६३ ३. नानाधिकरणार्थानां शब्दानां सम्प्रदीपकम् ।
एकवाक्येन संयुक्त तद्दीपकमिहोच्यते ॥-भरत, ना० शा० १६,५३.
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४४६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अभिधान अन्वर्थ है । अभिनवगुप्त ने भरत के दीपक - लक्षण का स्पष्टीकरण करने के क्रम में कहा है कि जहाँ विभिन्न आश्रयों अर्थात् वाक्यों में रहने वाले परस्पर साकांक्ष पदों की आकांक्षापूर्ति एक ही वाक्य से संयुक्त क्रिया, - गुण, जाति आदि करते हों, वहाँ भरत के अनुसार दीपक अलङ्कार होता है । " भामह ने भी भरत की ही तरह दीपक को अन्वर्था संज्ञा मान कर एक पद से अनेक पदार्थ के दीपन में दीपक अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार किया । दण्डी ने भी पूर्वाचार्यों से मिलती-जुलती धारणा ही दीपक के सम्बन्ध में व्यक्त की । उनके अनुसार जहाँ जाति, गुण, क्रिया अथवा द्रव्य का वाचक कोई शब्द एकत्र रह कर अनेक वाक्यों का उपकार करता हो, वहाँ दीपक अलङ्कार होता है । 3 दण्डी का 'उपकार' शब्द भरत के 'सम्प्रदीपन' तथा भामह के 'दीपन' से अभिन्न अर्थ रखता है । आचार्य उद्भट ने सर्वप्रथम दीपक - लक्षण में उपमान और उपमेय के सम्बन्ध का स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया । उन्होंने दीपक में प्रधान और अप्रधान में अर्थात् प्रस्तुत और अप्रस्तुत में प्रतीयमान सम्बन्ध भी वाञ्छनीय बताया । इस तरह उनके दीपक - लक्षण का आशय होगा कि एक शब्द अनेक उपमेय और उपमान-बोधक शब्दों का जहाँ दीपन करता है, वहीं दीपक अलङ्कार होता है । तुल्ययोगिता अलङ्कार के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना हो जाने पर दीपक के लक्षण में कुछ व्यावर्तक धर्मों की कल्पना आवश्यक थी । उद्भट ने इस आवश्यकता को समझा और दोनों में यह भेद - व्यवस्था कर दी कि दीपक में उपमान- उपमेय वाक्यों का ही एक शब्द से
१. नाना ये शब्दान्तरवाक्यपदात्मानस्तेषां अधिकरणार्थानामाश्रये अर्थोऽता येषां तथाभूतानां साकांक्षाणामिति तेषां यत्सम्यक् प्रकर्षेण दीपकाकांक्षा पूरकं क्रियागुणजात्यादि तद्दीपकं यत एकेनावान्तरवाक्येनासंयुक्त सत्तथाकरोति दीपकप्रकृतित्वात्तथोक्तमित्यर्थः । - ना० शा ० अभिनव भारती, पृ० ३२४-२५
२. अमूनि कुर्वतेऽन्वर्थामस्याख्यामर्थदीपनात् ।
—- भामह, काव्यालं० २,२६
३. जातिक्रियागुणद्रव्यवाचिनैकत्रवत्तिना ।
सर्ववाक्योपकारश्चेत् तमाहुर्दीपकं यथा ॥ दण्डी, काव्याद० २,९७
-४. आदिमध्यान्तविषयाः प्राधान्येत रयोगिनः । अन्तर्गतोपमाधर्मा यत्र तद्दीपकं विदुः ॥
- उद्भट, काव्यालं० सारसं० १,२८
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[४४७ सम्बन्ध होता है, जब कि तुल्ययोगिता में अनेक उपमेय-वाक्यों का अथवा अनेक उपमान-वाक्यों का ही परस्पर सम्बन्ध एक शब्द से दीपित होता है।' वामन ने उद्भट की दीपक-धारणा को ही सूत्रबद्ध किया। उन्होंने उपमान और उपमेय-वाक्यों में एक क्रिया का सम्बन्ध होना दीपक का लक्षण माना। भरत से दण्डी तक अनेक वाक्यों के बीच एक पद का सम्बन्ध दीपक का लक्षण माना जाता रहा था। वाक्यों को दीपित करने वाला वह पद जाति, गुण, क्रिया या द्रव्य-किसी का भी वाचक हो सकता था। वामन ने केवल क्रिया-पद से अनेक वाक्यों ( उपमेय और उपमान वाक्यों ) में सम्बन्ध-निर्देश को दीपक का लक्षण स्वीकार किया। रुद्रट ने दीपक को औपम्य-गर्भ नहीं मान कर वास्तव-वर्गगत अलङ्कार माना है। इसलिए यह स्वाभाविक था कि उनके दीपक-लक्षण में अनेक वाक्यों के बीच उपमानोपमेय का सम्बन्ध आवश्यक नहीं माना गया। उन्होंने अनेक वाक्यों में एक पद से सम्बन्धसूचना की धारणा पूर्वाचार्यों से ली। क्रिया-पद के साथ कारक-पद को ‘भी उन्होंने अनेक वाक्यों का दीपक स्वीकार किया। इस प्रकार रुद्रट की दीपक-धारणा उद्भट और वामन की दीपक-धारणा से इस दृष्टि से भिन्न है कि वे उद्भट आदि की तरह दीपित होने वाले वाक्यों में उपमान-उपमेय का सम्बन्ध आवश्यक नहीं मानते । वामन से रुद्रट की धारणा इस दृष्टि से भी कुछ भिन्न है कि जहाँ वामन ने केवल क्रिया-पद को अनेक वाक्यों का उपकारक माना था, वहाँ रुद्रट ने क्रिया-पद के साथ कारक-पद को भी दीपक अलङ्कार में अनेक वाक्यों का दीपक स्वीकार किया है। स्पष्ट है कि रुद्रट की दीपक-धारणा भरत, भामह और दण्डी की धारणा के मेल में है। आचार्य कुन्तक ने केवल क्रिया-पद से अनेक वाक्यों के दीपन की धारणा को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने इस धारणा के खण्डन के लिए भामह के दीपक-उदाहरणों को उद्धृत कर यह दिखाया है कि उनमें केवल क्रिया-पद को दीपक माना गया है। केवल क्रियापद से अनेक अर्थ के द्योतन में दीपक का सद्भाव १. द्रष्टव्य, उद्भट, काव्यालं० सार सं० १, २८ पर तिलक की विवृति
पृ० ११ २. उपमानोपमेयवाक्येष्वेका क्रिया दीपकम् ।
-वामन, काव्यालं० सू० ४,३,१८ ३. द्रष्टव्य, रुद्रट, काव्यालं० ७,६४ ४. द्रष्टव्य, कुन्तक, वक्रोक्तिजी० पृ० ३९१-६७
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४४८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण मानने वाले मत का खण्डन कर कुन्तक ने स्वमत से दीपक को परिभाषित करते हुए कहा कि इस अलङ्कार में 'औचित्य के अनुरूप सुन्दर एवं सहृदयहृदयाह्लादक पदार्थों के प्रतीयमान धर्म का दीपन होता है।' कुन्तक ने नवीन रूप से दीपक को परिभाषित करने का आयास किया है; पर वे वस्तुतः, दीपक के सम्बन्ध में किसी नवीन तथ्य की स्थापना नहीं कर सके हैं। क्रिया के अतिरिक्त जाति, गुण, द्रव्य के वाचक शब्दों का दीपकत्व दण्डी आदि स्वीकार कर चुके थे। रुद्रट ने भी कारक-दीपक का अस्तित्व स्वीकार किया था। भामह ने कहीं भी स्पष्टतः केवल क्रिया-पद के दीपकत्व की धारणा व्यक्त नही की थी। यह एक संयोग भी हो सकता है कि उनके तीन उदाहरणों में क्रिया से ही अर्थ-दीपन हुआ है। कुन्तक ने दीपक की परिभाषा में उचित, सुन्दर तथा तद्विदाह्लादकारक विशेषणों का जो प्रयोग किया है, उसका औचित्य भी विचारणीय है। औचित्य तो सभी अलङ्कारों का प्राण ही है। उसके अभाव में अलङ्कारत्व ही सम्भव नहीं। सुन्दर होने तथा सहृदय के लिए माह्लादकारी होने की धारणा भी अलङ्कार-मात्र के स्वरूप की कल्पना के मूल में निहित है। अतः, उक्त विशेषणों का अलङ्कार-विशेष के लक्षण में प्रयोग आवश्यक नहीं। अशक्त अर्थात् प्रतीयमान धर्म के द्योतन की धारणा कुन्तक ने उद्भट से ली है। स्पष्ट है कि कुन्तक ने पूर्वाचार्यों की दीपकधारणा को ही कुछ परिष्कार के साथ प्रस्तुत किया है।
आचार्य मम्मट ने रुद्रट की तरह क्रिया-दीपक और कारक-दीपक; इन दो दीपक-प्रकारों का अस्तित्व स्वीकार किया है। उन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों के मत का अनुसरण करते हुए प्रस्तुत और अप्रस्तुत धर्मियों के गुण, क्रिया आदि. धर्म का एक ही बार उपादान, दीपक का लक्षण माना। बहुत क्रियाओं के होने पर कर्ता आदि छह कारकों में से किसी एक का एक ही बार उपादान, कारकदीपक का लक्षण माना गया। स्पष्टतः, मम्मट पर रुद्रट की दीपक-धारणा का प्रभूत प्रभाव है; पर, जहाँ रुद्रट ने दीपक को वास्तव-वर्ग का अलङ्कार माना था, वहां मम्मट ने वामन आदि की तरह उसमें उपमानोपमेय-सम्बन्ध १. औचित्यावहमम्लानं तद्विदा ह्लादकारणम् ।
अशक्तं धर्ममर्थानां दीपयद् वस्तु दीपकम् ॥-कुन्तक,वक्रोक्तिजी० ३,१७ २. सकृवृत्तिस्तु धर्मस्य प्रकृताप्रकृतात्मनाम् । पेष क्रियासु बहीषु कारकस्येति दीपकम् ॥
-मम्मट, काव्याप्र० १०,१५६
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४४६
भी आवश्यक माना। मम्मट के बाद दीपक का यही स्वरूप रुय्यक, विश्वनाथ बादि के द्वारा स्वीकृत हुआ है।' भोज ने आचार्य दण्डी का ही दीपक-लक्षण किञ्चित् शब्द-भेद से उद्धृत कर दिया है ।२ मम्मट के बाद दीपक के सम्बन्ध में दो धारणाएँ मुख्य रूप से स्वीकृत होती रही हैं—(क) उपमान एवं उपमेय-वाक्यों का एक धर्म से (क्रिया, गुण आदि से) सम्बन्ध तथा (ख) अनेक क्रियाओं का एक कारक से दीपन । प्रथम धारणा का बीज उद्भट की दीपकपरिभाषा में था, जिसमें 'अन्तर्गतोपमाधर्माः' का उल्लेख हुआ था। वामन ने उस धारणा को और स्पष्ट स्वरूप दिया था। कारक-दीपक की प्रथम कल्पना का श्रेय रुद्रट को है। इन दो धारणाओं को मिला कर मम्मट ने दीपक का जो स्वरूप स्थिर किया, वही परवर्ती आचार्यों को बहुमान्य हुआ है। भरत, भामह, दण्डी आदि के दीपक अलङ्कार में न तो उपमान-उपमेय की धारणा थी, न कारक से क्रिया-पदों के दीपन की। उन आचार्यों ने सामान्यतः दो या अधिक पदार्थों के एक धर्म से दीपन में दीपक का सद्भाव माना था। परवर्ती काल में तुल्ययोगिता की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकृत हो जाने के कारण उससे भेदनिरूपण के लिए उपमान और उपमेय-वाक्यों तक ही दीपक का क्षेत्र सीमित करने की आवश्यकता हुई। इस प्रकार ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से दीपक के तीन रूप सामने आते हैं :
(क) किन्हीं दो पदार्थों का एक धर्म से सम्बन्ध-द्योतन, (ख) केवल उपमानोपमेय वाक्यों का एक धर्म से सम्बन्ध-द्योतन तथा (ग) अनेक क्रियाओं का एक कारक से दीपन ।
इनमें से दीपक के अन्तिम दो रूप ही परवर्ती काल में स्वीकृत हुए हैं। प्रथम को क्रियादि-दीपक तथा द्वितीय को कारक-दीपक कहा जाता है। हिन्दी के रीति-आचार्यों ने दीपक के सम्बन्ध में कोई नवीन उद्भावना नहीं की। उन्होंने मम्मट आदि के दीपक-लक्षण को ही मुख्यतः स्वीकार किया है। दीपक-भेद
दीपक अलङ्कार के भेदों की कल्पना वाक्यों को दीपित करने वाले क्रियादिपद की वाक्य में स्थिति के आधार पर आरम्भ हुई । भामह ने क्रियापद के
१. द्रष्टव्य-रुय्यक, अलं० सर्वस्व २४ तथा विश्वनाथ, साहित्यद० १०,६७ २. क्रियाजातिगुण द्रव्यवाचिन कत्रवतिना। सर्ववाक्योपकारश्चेत् दीपकं तन्निगद्यते ॥
-भोज, सरस्वतीकण्ठा० ४,७७ तुलनीय-दण्डी, काव्याद० २,९७ २६
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४५० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण वाक्य के आरम्भ, मध्य और अन्त में रहने के आधार पर आदिदीपक, मध्यदीपक तथा अन्तदीपक-इन तीन दीपक भेदों की कल्पना की।' आचार्य दण्डी ने वाक्यों को दीपित करने वाले गुण, जाति, क्रिया तथा द्रव्य के पद के आधार पर दीपक के मुख्य चार भेद स्वीकार कर भामह के आदि, मध्य तथा अन्तदीपक-भेदों को भी स्वीकार किया। इन भेदों के अतिरिक्त मालादीपक, विरुद्धार्थदीपक, एकार्थदीपक तथा श्लिष्टार्थदीपक की भी कल्पना दण्डी ने की। दण्डी की आवृत्ति के अर्थावृत्ति, पदावृत्ति तथा उभयावृत्ति भेद भी तत्त्वतः दीपक के ही भेद हैं। इस तरह दण्डी के द्वारा निरूपित दीपक-भेदों की संख्या पन्द्रह हो जाती है। वे भेद हैं—आदिजातिदीपक, आदिगुणदीपक, आदिक्रियादीपक, आदिद्रव्यदीपक, मध्यजातिदीपक, मध्यक्रियादीपक, अन्तजातिदीपक, अन्तक्रियादीपक, मालादीपक, विरुद्धार्थदीपक, एकार्थदीपक, श्लिष्टार्थदीपक, अर्थावृत्तिदीपक, पदावृत्तिदीपक तथा उभयावृत्तिदीपक ।२
रुद्रट ने क्रियादिदीपक और कारकदीपक-नामक दो मुख्य दीपक-भेदों की कल्पना की तथा उनके आदि, मध्य और अन्तगतत्व के आधार पर तीनतीन उपभेद स्वीकार किये । इस प्रकार तीन प्रकार के क्रिया-दीपक तथा तीन प्रकार के कारक-दीपक स्वीकृत हुए। कुन्तक ने दीपक के दो भेद मानेकेवल-दीपक और पंक्तिसंस्थ-दीपक अर्थात् मालादीपक । पंक्तिसंस्थ के पुनः तीन भेद स्वीकार किये गये हैं।" कुन्तक ने कर्तृपद के निबन्धन के आधार पर दीपक के अनेक भेदों की सम्भावना भी स्वीकार की है। मम्मट, रुय्यक आदि आचार्यों ने क्रियादीपक एवं कारकदीपक भेदों को स्वीकार किया।
१. आदिमध्यान्तविषयं त्रिधा दीपकमिष्यते । -भामह, काव्यालं० २,२५ २. द्रष्टव्य, दण्डी, काव्याद० २, ६७-११६ ३. द्रष्टव्य, रुद्रट, काव्यालं० ७, ६४-६५ ४. एकं प्रकाशकं सन्ति भूयांसि भूयसां क्वचित् । . केवलं पंक्तिसंस्थं वा द्विविधं परिदृश्यते ॥ .
-कुन्तक, वक्रोक्तिजी० ३, १८ ५. यदपरं पक्तिसंस्थं नाम तत् कारण विध्यात् त्रिप्रकारम् ।
—वही, वृत्ति, पृ० ४०० ६. .."कर्तृपदनिबन्धनानि दीपकानि बहूनि सम्भवन्तीति ।
-वही, वृत्ति पृ० ४०३ ७. द्रष्टव्य, मम्मट, काव्यप्र० १० पृ० २५३
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[४५१
रुय्यक ने क्रिया आदि के आदिगत, मध्यगत एवं अन्तगत भेदों को स्वीकार किया है।' जयदेव ने दण्डी के आवृत्तिदीपक, मालादीपक आदि भेदों को भी स्वीकार किया है; पर उन्होंने मालादीपक के स्वरूप की कल्पना स्वतन्त्र रूप से की है। उनके मतानुसार दीपक और एकावली अलङ्कारों के स्वरूप का मिश्रण मालादीपक है ।२ नरसिंह कवि ने 'नजराज यशोभूषण' में दीपक के दो मुख्य भेदों के तीन-तीन उपभेद-गुणतद्भावरूपधर्मान्वय, क्रियातद्भावान्वय एवं द्रव्यतद्भावान्वय–मान कर छह प्रकार के दीपक माने हैं।
हिन्दी-रीति-आचार्यों ने संस्कृत के आचार्यों की दीपक-भेद-विषयक मान्यता को ही प्रधानतः स्वीकार किया है। केशव ने मणिदीपक-नामक एक नवीन दीपक-भेद की कल्पना की, जिसमें वर्षा, शरद्, भूषण, भाव आदि का वर्णन अपेक्षित माना गया।४ देव ने परिवृत्ति, कारणमाला तथा समुच्चय को दीपक का भेद मान लिया है। यह नवीन भेद की कल्पना नहीं, अन्य अलङ्कारों के दीपक में अन्तर्भावन का आयास-मात्र है; जिसका औचित्य सन्दिग्ध है। आचार्य भिखारी ने देहरीदीपक नामक दीपक-भेद को भी स्वीकार किया है । अनन्वय ___ स्वरूप-विकास की दृष्टि से अनन्वय के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं दीख पड़ता। उपमा से उसकी स्वतन्त्र सत्ता माने जाने के प्रश्न पर आचार्यों के दो मत रहे हैं। उपमा के एक भेद के रूप में इस अलङ्कार की धारणा का जन्म हुआ था। पीछे चल कर अधिकांश आचार्यों ने अनन्वय के प्राचीन स्वरूप को ही स्वीकार कर उपमा से उसकी स्वतन्त्र सत्ता मान ली। अन्य उपमामूलक अलङ्कारों की तरह उपमा की मूल धारणा पर आधृत होने पर भी उसे उपमा का एक भेद-मात्र नहीं मान कर स्वतन्त्र अलङ्कार माना जाने लगा। परवर्ती
१. रुय्यक अलं० सर्वस्व, पृ० ७४ २. दीपकैकावलीयोगान्मालादीपकमिष्यते ।
-जयदेव, चन्द्रालोक, ५, ८६ ३. द्रष्टव्य, नरसिंह, नजराजयशोभू० पृ० १९८ ४. द्रष्टव्य, केशव, कविप्रिया पृ० २६४-६५ ५. देव, शब्दरसायन पृ० १५८ ६. भिखारी, काव्यनि० पृ० ५२२
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४५२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
काल में भी कुछ आचार्य अनन्वय का उपमा में अन्तर्भाव मानने के पक्ष में युक्तियाँ देते रहे; पर अलङ्कार-शास्त्र के पाठकों ने उसकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार कर ली थी।
आचार्य भरत ने उपमा के एक भेद, सदृशी उपमा का जो उदाहरण दिया था, उसमें उपमेय को ही उसका उपमान बताया गया था। उस उदाहरण को देखते हुए अभिनव गुप्त ने सदृशी-उपमा का लक्षण निर्धारित किया कि जहाँ उपमेय को ही अपना उपमान बना दिया जाता है वहाँ सदृशी उपमा होती है।' सामान्यतः कवि जब वर्ण्य वस्तु को सर्वोत्कृष्ट या अद्वितीय सिद्ध करना चाहता है, तब उसके समान अन्य किसी भी वस्तु का सर्वथा अभाव सूचित करने के लिए उस वर्ण्य वस्तु की उपमा स्वयं उस वर्ण्य वस्तु से ही देता है। दूसरे शब्दों में, वर्ण्य वस्तु का उपमान उससे भिन्न कोई पदार्थ नहीं होता, वर्ण्य ही अपना उपमान आप बन जाता है। ऐसी स्थिति में अनन्वय अलङ्कार का सद्भाव माना जाता है। स्पष्ट है कि आचार्य भरत की सदृशी उपमा को ही पीछे चल कर नयी संज्ञा और उपमा से स्वतन्त्र सत्ता दी गयी है। अनन्वय अभिधान का उल्लेख सर्वप्रथम भामह ने किया और उन्होंने उसे उपमा से स्वतन्त्र अस्तित्व दिया। भामह ने अनन्वय को परिभाषित करते हुए कहा कि जहाँ वर्ण्य वस्तु से अन्य वस्तु के सादृश्य का अभाव बताने के लिए उस वस्तु से उसी का उपमानोपमेय-भाव कल्पित होता है, वहाँ अनन्वय अलङ्कार होता है। भामह के उत्तरवर्ती आचार्य दण्डी ने अनन्वय का न तो स्वतन्त्र अस्तित्व माना और न उसका नाम्ना उल्लेख ही किया। उन्होंने भरत की तरह अनन्वय के इस स्वरूप की कल्पना उपमा के प्रकार-निरूपण के क्रम में की; पर उपमा के उस प्रकार की भरत-निर्दिष्ट संज्ञा को स्वीकार नहीं कर उन्होंने उसे असाधारणोपमा-संज्ञा से अभिहित किया। उद्भट ने भामह के मतानुसार अनन्वय की परिभाषा दी और उसका स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया। १. यत्रोपमेयस्यैवोपमानता सेयं सदृशी......"। -भरत ना०शा० १६, ५०
पर अभिनव भारती टीका० पृ० ३२४ २. यत्र तेनैव तस्य स्यादुपमानोपमेयता। ___ असादृश्यविवक्षातस्तमित्याहुरनन्वयम् ॥-भामह, काव्यालं० ३, ४५ ३. द्रष्टव्य, दण्डी की असाधारणोपमा धारणा, काव्याद० २, ३७
यह धारणा भामह आदि की अनन्वय-धारणा से अभिन्न है। ४. द्रष्टव्य, उद्भट, काव्यालं सारसं० ६, ७
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४५३
वामन ने अनन्वय के इसी प्राचीन स्वरूप को स्वीकार किया; पर भामह और उद्भट की अनन्वय-परिभाषाओं को कुछ संशोधन के साथ ग्राह्य माना । उन्होंने अनन्वय की परिभाषा में केवल इतना कहा कि एक ही वस्तु में उपमानोपमेयत्व की जहाँ कल्पना की जाय, वहाँ अनन्वय अलङ्कार होता है।' परिभाषा में सम्भवतः उन्होंने 'असादृश्यविवक्षा' का उल्लेख अनावश्यक समझा । किसी वस्तु को उसके अपने ही समान कहने मात्र से अन्य वस्तु का उससे असादृश्य व्यजित हो जाता है। अतः, अनन्वय-लक्षण में 'असादृश्यविवक्षा' शब्द अपेक्षातिरिक्त माना गया । सम्भव है कि भामह, उद्भट आदि आचार्यों ने भी केवल विषय के स्पष्टीकरण के लिए उक्त शब्द का उल्लेख परिभाषा में किया हो। परवर्ती आचार्यों में रुद्रट, पण्डितराज जगन्नाथ आदि ने भामह की परिभाषा को ही स्वीकार किया है; पर मम्मट, रुय्यक, विद्यानाथ विश्वनाथ, जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित आदि अधिकांश आचार्यों ने वामन की परिभाषा का ही अनुमोदन किया है।
हिन्दी के भिखारी दास आदि आचार्यों ने वामन के मतानुसार अनन्वय को परिभाषित किया है।
अनन्वय के स्वरूप के सम्बन्ध में एक समस्या मीमांसकों ने उठायी है, जिसपर इस सन्दर्भ में विचार कर लेना अपेक्षित है। उनकी मान्यता है कि एक ही वस्तु में उपमानोपमेय-भाव सम्भव नहीं। कोई वस्तु स्वयं अपना उपमान कैसे बनेगी ? अतः, मीमांसकों का तर्क यह है कि जब ऐसी उक्तियों का प्रयोग होता है कि 'राम-रावण का युद्ध राम-रावण के युद्ध के ही समान था' या 'आकाश आकाश के ही समान है' तब उनके अर्थ की सङ्गति के लिए यह कल्पना आवश्यक होती है कि 'राम और रावण के बीच जो युद्ध हुआ वह कल्पान्तर में हुए राम और रावण के युद्ध के समान था', 'यह आकाश पूर्वकल्प के ऐसे ही आकाश के समान है' आदि ।२ निष्कर्ष यह कि मीमांसक किसी वस्तु का उसी वस्तु के साथ उपमानोपमेय-भाव तभी सम्भव मानेंगे, जब उस वस्तु को सविशेषण कर उसके अपने ही रूप से कुछ भेद कल्पित कर
१. एकस्योपमेयोपमानत्वेऽनन्वयः । -वामन, काव्यालं०सू० ४, ३-१४ २. अप्पय्य दीक्षित, चित्रमीमांसा, सुधा-टीका, पृ० १५०
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४५४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
लिया जाय । वाचस्पति मिश्र ने इस भेद कल्पना को अगतिकगति मान कर इससे अपनी असहमति प्रकट की है।'
साहित्य-शास्त्र के आचार्यों की मान्यता वाक्य-मीमांसकों की उक्त मान्यता से भिन्न है। उनकी युक्ति है कि भेद हो जाने पर चाहे वह भेद कल्पित ही क्यों न हो-उक्ति में अनन्वय नहीं माना जायगा । वैसी उक्ति में उपमा का ही सद्भाव माना जायगा। अतः, आचार्यों ने इस बात का स्पष्ट उल्लेख अनन्वय के लक्षण में किया है कि जहाँ एक वस्तु की ठीक उसीसे उपमा दी जाय, अर्थात् उपमेय और उपमान एक वस्तु तो हो ही, उसमें उपाधिगत भी कोई भेद न हो, वहाँ अनन्वय अलङ्कार होता है। अनन्वय नाम की सार्थकता भी इसी में है कि धर्म का अभेद होने पर वस्तु की अपने से उपमा अन्वित नहीं होती। अनन्वय का पर्यवसान द्वितीय सादृश्य के निषेध में होता है। वह वस्तु ठीक अपने ही समान है, अर्थात् जिस देश-काल में वह है, उसी देश-काल में अपने ही समान है, इस कथन का तात्पर्य यह होता है कि उसके समान दूसरी कोई वस्तु नहीं है । निष्कर्षतः, एक धर्मयुक्त किसी वस्तु का उसी धर्म से युक्त अपने से ही उपमानोपमेय-भाव में सभी आचार्यों ने एक-मत से अनन्वय अलङ्कार माना है। द्वितीय-सादृश्य-व्यवच्छेद इस अलङ्कार का व्यावर्तक है।
उपमेयोपमा
अनन्वय की तरह उपमेयोपमा को भी उपमा का भेद तथा उससे स्वतन्त्र अलङ्कार मानने वाले दो मत पाये जाते हैं। उसके स्वरूप के सम्बन्ध में प्रायः आचार्यों में मतैक्य ही रहा है। भामह ने सर्वप्रथम उपमेयोपमा अलङ्कार का स्वरूप-विवेचन किया और उसे स्वतन्त्र अलङ्कार माना । उपमा से इसका भेद यह माना गया कि जहाँ उपमा में किसी प्रस्तुत के लिए अन्य अप्रस्तुत की योजना की जाती है, वहाँ उपमेयोपमा में प्रस्तुत और अप्रस्तुत के बीच पारस्परिक उपमानोपमेय भाव की कल्पना की जाती है। इसमें एक वाक्य के
१. तेन तस्योपमेयत्वं रामरावणयुद्धवत् । अगत्या भेदमारोप्य गतौ तस्यां न विद्यते ।।-वाचस्पति मिश्र,
भामती, उद्धृत चित्र-मीमांसा, सुधा-टीका, पृ० १५३
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४५५ उपमेय और उपमान अपरत्र क्रमशः एक दूसरे के उपमान और उपमेय' बन जाते हैं। आचार्य दण्डी ने उपमेयोपमा के इसी स्वरूप को स्वीकार कर उसे अन्योन्योपमा व्यपदेश दिया और उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं मान कर उसे उपमा का ही एक भेद स्वीकार किया। उद्भट ने उपमेयोपमा के लक्षण में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया कि इसमें दो वस्तुओं का पारस्परिक सादृश्य दिखाया जाता है, जिससे परिणामत: उन दो वस्तुओं से अन्य वस्तु के सादृश्य का अभाव सूचित होता है। आचार्य रुद्रट ने उपमेयोपमा के स्थान पर उभयोपमा शब्द का उल्लेख कर उसे उपमा का ही एक भेद माना है। उसकी परिभाषा में उन्होंने उद्भट की उपमेयोपमा-धारणा को स्वीकार कर कहा है कि इन दो वस्तुओं-उपमेय और उपमान के समान कोई अन्य वस्तु नहीं है, ऐसा मान कर जहाँ इन दोनों की क्रमशः एक दूसरे से समता दिखायी जाती हो, वहाँ उभयोपमा अलङ्कार माना जाता है। पण्डितराज जगन्नाथ ने भी उपमेयोपमा के लक्षण में 'तृतीय सादृश्य व्यवच्छेद' का उल्लेख आवश्यक समझा ।५ इस प्रकार उपमेयोपमा के सम्बन्ध में उद्भट, रुद्रट, जगन्नाथ आदि का मत भामह आदि के मत से मूलतः अभिन्न है, पर भद यह है कि जहां भामह ने इस अलङ्कार की परिभाषा में केवल दो वस्तुओं की पारस्परिक समता की चर्चा की, वहाँ उद्भट आदि ने उसमें 'अन्यसादृश्य व्यवच्छेद' के तत्त्व का उल्लेख भी आवश्यक समझा । अनन्वय में एक वस्तु से दूसरी किसी भी वस्तु की समता का अभाव बताया जाता है और उपमेयोपमा में दो वस्तुओं
१. उपमानोपमेयत्वं यत्र पर्यायतो भवेत् । उपमेयोपमां नाम ब्रवते तां यथोदिताम् ।।
-भामह, काव्यालं० ३, ३७ २. द्रष्टव्य, दण्डी, काव्याद० २, १८ । ३. अन्योन्यमेव यत्र स्यादुपमानोपमेयता। उपमेयोपमामाहुस्तां पक्षान्तरहानिगाम् ॥
-उद्भट, काव्यालं० सार सं० ५, २७ ४. वस्त्वन्तरमस्त्यनयोर्न सममिति परस्परस्य यत्र भवेत् ।
उभयोरुपमानत्वं सक्रममुभयोपमा सान्या ॥-रुद्रट, काव्यालं० ८, ९ ५. तृतीयसदृशव्यवच्छेदबुद्धिफलकवर्णनविषयीभूतं परस्परमुपमानोपमेयभावमापन्नयोरर्थयोस्सादृश्यं सुन्दरमुपमेयोपमा।
-जगन्नाथ, रसगंगा० पृ० ३०६ ।
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४५६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
की समता स्वीकार कर किसी भी तीसरी वस्तु की उन दोनों से समता का अभाव माना जाता है । इसीलिए उद्भट आदि ने उपमेयोपमा की परिभाषा में तृतीय-सादृश्य के व्यपोह का उल्लेख किया है । परवर्ती आचार्यों में से जगन्नाथ को छोड़ मम्मट, रुय्यक, जयदेव, विद्यानाथ, विश्वनाथ आदि प्रायः सभी आचार्यों ने भामह की उपमेयोपमा - परिभाषा को ही स्वीकार किया है । उन्होंने 'तृतीय - सादृश्य-व्यवच्छेद' का परिभाषा में उल्लेख आवश्यक नहीं समझा । परिभाषा में उक्त शब्द के उल्लेख का औचित्य विचारणीय है ।
दो वस्तुओं में पारस्परिक उपमानोपमेयभाव की कल्पना में ही उन दो वस्तुओं से तृतीय वस्तु के सादृश्य के अभाव की धारणा निहित है । यही उपमा से उपमेयोपमा का भेद है । उपमा में भी दो वस्तुओं की समता दिखायी जाती है, पर अन्य वस्तुओं से किसी वस्तु के सादृश्य की सम्भावना का निषेध नहीं होता । जब दो वस्तुओं के पारस्परिक उपमानोपमेयभाव की कल्पना से ही तृतीय - सादृश्य के व्यवच्छेद की धारणा व्यक्त हो जाती है तो उसका परिभाषा में उल्लेख अपेक्षातिरिक्त ही है । केवल विषय के स्पष्टीकरण में उक्त शब्द-प्रयोग की सार्थकता मानी जा सकती है ।
उत्प्रेक्षा
भारतीय साहित्य - शास्त्र में उत्प्रेक्षा को उपमा, रूपक आदि की तरह ही महत्त्वपूर्ण अलङ्कार माना गया है । भामह से लेकर आधुनिक काल तक के प्रायः सभी आचार्य उत्प्र ेक्षा का अलङ्कारत्व मानने में एकमत हैं । संस्कृत के अनेक आचार्यों ने अन्य अलङ्कारों की अपेक्षा उत्प्र ेक्षा को अधिक महत्त्वपूर्ण माना था । कुन्तक ने अन्य अलङ्कारों के साथ उत्प्र ेक्षा के रहने पर सार्वत्रिक रूप से उत्प्रेक्षा को शोभातिशायी स्वीकार किया था । केशव मिश्र ने उसे 'सर्वालङ्कारसर्वस्व' कह कर अलङ्कारों में शीर्षण्य माना । २ हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मनोवैज्ञानिक आधार पर उत्प्रेक्षा के महत्त्व की
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१. अपहृत्यान्यालङ्कारलावण्यातिशयश्रियः । उत्प्र ेक्षा प्रथमोल्लेखजीवितत्वेन जृम्भते ॥
—कुन्तक, वक्रोक्तिजी० पृ० ४२९ ( अन्तरश्लोक ) २. सर्वालङ्कारसर्वस्वं कविकीर्तिविवर्धिनी ।
उत्प्रेक्षा हरति स्वान्तमचिरोढा स्मितादिव ॥
- केशव मिश्र, अलं० शे० १३, पृ० ३४
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४५७
स्थापना की है । उनके अनुसार उत्प्रेक्षा में अध्यवसान साध्य या सम्भावना के रूप में रहता है । इसमें अन्तर की वेदना की व्यञ्जना प्रधान
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रहती है । अतः यह अतिशयोक्ति आदि की अपेक्षा भाव व्यञ्जना में अधिक - सहायक होती है ।' प्रस्तुत सन्दर्भ में उत्प्रेक्षा के उद्भव और विकास का अध्ययन अभीष्ट है |
सर्वप्रथम आचार्य भामह ने उत्प्र ेक्षा अलङ्कार के अस्तित्व की कल्पना कर उसे परिभाषित किया। उनके मतानुसार उत्प्रेक्षा में उपमा का पुट, पर सामान्य की अविवक्षा होती है; असिद्ध गुण, क्रिया आदि का योग रहता है तथा अतिशय का भाव मिला रहता है । २ आचार्य भरत की कल्पिता उपमा के स्वरूप में, 'अतद्गुणक्रियायोग' तथा 'सातिशय' की धारणा निहित थी । भामह की उत्प्रेक्षा धारणा का बीज उसी में था । उत्प्र ेक्षा के सामान्य -स्वरूप के सम्बन्ध में एकमत होने पर भी भामह के उत्तरवर्ती आचार्यों ने उसके स्वरूप के स्पष्टीकरण के लिए नवीन-नवीन शब्दावलियों का प्रयोग किया है । आचार्य दण्डी ने उत्प्र ेक्षा के स्वरूप और क्षेत्र के निर्धारण के लिए उसके एक प्रसिद्ध उदाहरण — लिम्पतीव तमोऽङ्गानि वर्षतीवाञ्जनं नभःका सूक्ष्म विश्लेषण कर उसकी परिभाषा में नूतन शब्दावली की कल्पना का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने उत्प्र ेक्षा की परिभाषा में कहा कि जहाँ चेतन या अचेतन पदार्थ की स्वभावसिद्ध वृत्ति ( अर्थात् गुण, क्रिया आदि व्यापार और स्वतः सिद्ध स्वरूप ) के अन्यथा रहने पर अन्यथा - रूप से सम्भावना की जाती है, वहाँ उत्प्रेक्षा अलङ्कार होता है । 3 चेतन, अचेतन की स्वभावसिद्ध वृत्ति प्रस्तुत रहती है और उसकी अन्यथा अर्थात् अप्रस्तुत रूप में सम्भावना की जाती है । निष्कर्षतः, दण्डी अन्य-धर्म के सम्बन्ध के हेतु से अन्य वस्तु में अन्य के तादात्म्य की सम्भावना में उत्त्र क्षा का सद्भाव मानते थे । उद्भट ने भामह के मतानुसार, उपमानोपमेयभाव के सद्भाव में भी उसके अविवक्षित
१. द्रष्टव्य, रामचन्द्र शुक्ल, जायसी ग्रन्थावली की भूमिका । २. अविवक्षितसामान्या किञ्चिच्चोपमया सह । अतद्गुणक्रियायोगादुत्प्रक्षातिशयान्विता ॥
३. अन्यथैव स्थिता वृत्तिश्चेतनस्येतरस्य वा । अन्यथोत्प्रक्ष्यते यत्र तामुत्प्र ेक्षां विदुर्यथा ॥
- भामह, काव्यालं० २,६१
- दण्डी, काव्याद० २,२२१
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४५८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण होने तथा उत्कर्ष के लिए अप्रकृत के गुण, क्रिया आदि के प्रकृत में योग होने में उत्प्रेक्षा का सद्भाव माना। यह उत्प्रेक्षा सम्भावना-रूप होती है। उद्भट ने इस तथ्य का भी स्पष्टीकरण किया कि क्रिया के साथ प्रयुक्त 'इव' आदि सम्भावना व्यक्त करते हैं; अतः वहाँ उत्प्रेक्षा होती है।' दण्डी भी इस तथ्य पर विचार कर चुके थे। वामन ने अतिशय के लिए अतद्रूप का अन्यथा अध्यवसान उत्प्रेक्षा का लक्षण माना।२ उत्प्रेक्षा की परिभाषा में विशेष नवीनता नहीं होने पर भी 'अध्यवसान' शब्द का प्रयोग महत्त्वपूर्ण है। 'अतद्रूप वस्तु में अतिशय के लिए तद्रूपतया अध्यवसान' आरोप, लक्षणा आदि के परिहार के लिए प्रयुक्त है। आरोप आदि का परिहार कर यह अध्यवसान सम्भावना-लक्षण होता है । 3 'अतिशयार्थ' से वामन का तात्पर्य भ्रान्तिज्ञान-निवृत्ति का है। उद्भट की उत्प्रेक्षा-परिभाषा में प्रयुक्त 'अतिशय' का अर्थ तिलक ने 'उत्कर्ष' माना था। इस प्रकार सातिशय की धारणा उत्प्रेक्षा के स्वरूप में आरम्भ से ही पायी जाती है।
रुद्रट ने उत्प्रेक्षा के दो रूप स्वीकार किये हैं। एक को उन्होंने औपम्यगर्भ अलङ्कार-वर्ग में रखा है और दूसरे को अतिशयगर्भ अलङ्कार-वर्ग में । हम देख चुके हैं कि आरम्भ से ही उपमेय में उपमान की सम्भावना पर उत्प्रेक्षा-लक्षण में बल दिया जाता रहा है। उद्भट, वामन आदि आचार्यों
१. साम्यरूपाविवक्षायां वाच्येवाद्यात्मभिः पदैः । अतद्गुणक्रियायोगादुत्प्रेक्षाऽतिशयान्विता ॥x x सम्भावनेयम् ।
-उद्भट, काव्यालं० सारसं० ३,४-५ २. अतद्र पस्यान्यथाध्यवसानमतिशयार्थमुत्प्रेक्षा।
-वामन, काव्यालं० सू० ४,३,९ ३. अतत्स्वभावस्य वस्तुनस्तत्तद्गुणयोगात्तत्तद्भावकल्पनमध्यारोपः; यत्र
रूपकादिस्वरूपलाभः। यत्तु सादृश्ये सत्येकेन वस्तुना वस्त्वन्तरस्य प्रतिपादनमध्यवसायरूपं सा सादृश्यमूला लक्षणा; यत्र वक्रोक्तिव्यपदेशः । यत् पुनस्तद्र पे वस्तुन्यतिशयमाधातु तद्र पतयाऽध्यवसानं, सोऽयमध्यवसायः सम्भावनालक्षण उत्प्रेक्षेति विवेकः ।
-वामन, काव्यालं० सू०, कामधेनु-टीका, पृ० १३१ ४. अतिशयार्थमिति-भ्रान्तिज्ञाननिवृत्त्यर्थम् ।।
-वामन, काव्यालं० सू० पृ० १३१ ५. अतिशयेति । उत्कर्षपर्यवसायिनीत्यर्थः।।
-उद्भट, काव्यालं० सारसं० की विवृति पृ० ३०
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४५९. ने इस सम्भावना का प्रयोजन ‘अतिशय' (उत्कर्षाधान या भ्रान्तिज्ञान-निवृत्ति) की सिद्धि में माना था। इस प्रकार अतिशयार्थ उपमेय की उपमान के साथ सम्भावना उत्प्रेक्षा की परिभाषा मानी गयी थी। रुद्रट ने उत्प्रेक्षा में उपमानोपमेय के सद्भाव के कारण जहाँ एक ओर उसे औपम्यगर्भ अलङ्कार माना, वहाँ दूसरी ओर अतिशय की धारणा के सद्भाव के कारण उसे अतिशयमूलक अलङ्कार भी माना। रुद्रट के अनुसार औपम्यगर्भ उत्प्रेक्षा के तीन रूप हैं। प्रथम उत्प्रेक्षा वह है, जहाँ सिद्ध उपमान के साथ अतिशय सादृश्य के कारण उपमेय का अभेद बताया जाय और उपमान के गुण आदि का उपमेय में सम्भव न होने पर उस उपमेय में उसका आरोप किया जाय । स्पष्टतः, इसमें उपमेय में उपमान की सम्भावना का तत्त्व स्वीकृत है । उत्प्रेक्षाः के दूसरे रूप में आचार्य रुद्रट ने उपमेय से सम्बद्ध अन्य उपमेय तथा उपमान से सम्बद्ध अन्य उपमान के बीच सम्भावना के सद्भाव की कल्पना की। उनके अनुसार जहाँ उपमेयस्थ अन्य उपमेय की उपमान से सम्बद्ध अन्य उपमान के तत्त्व के साथ ताद्र प्य की सम्भावना की जाय, वहाँ द्वितीय उत्प्रेक्षा होती है । उत्प्रेक्षा के तीसरे भेद की परिभाषा में कहा गया है कि जहाँ सुन्दर या असुन्दर विशेषण से विशिष्ट उपमेय में किसी अविद्यमान अन्य (उपमान) वस्तु की समता का आरोप किया जाता हो, वहाँ तीसरी उत्प्रेक्षा होती है। इसमें अविद्यमान वस्तु की सम्भावना किसी युक्ति से उपपन्न बतायी जाती है ।
__ अतिशयमूलक उत्प्रेक्षा के भी दो रूपों की कल्पना रुद्रट ने की है। एक में असम्भव क्रिया आदि के सम्भव बताये जाने पर तथा अविद्यमान क्रियादि को विद्यमान बताये जाने पर बल दिया गया है। दूसरे में किसी वस्तु के रूप के स्वाभाविक कारण से भिन्न कारण का आरोप अपेक्षित माना गया है।3।
आचार्य कुन्तक ने भी सम्भावना में उत्प्रेक्षा का सद्भाव स्वीकार कर सम्भावना से सम्भाव्य के अनुमान और सादृश्य को अलग-अलग तथा दोनों
१. द्रष्टव्य, रुद्रट, काव्यालं० ८,३२-३७ २. यत्रातितथाभूते सम्भाव्येत क्रियाद्यसम्भाव्यम् ।
सम्भूतमतद्वति वा विज्ञेया सेयमुत्प्रेक्षा ।।-रुद्रट, काव्यालं० ६, ११ . ३. अन्यनिमित्तवशाद्यद्यथा भवेद्वस्तु तस्य तु तथात्वे ।।
हेत्वन्तरमतदीयं यत्रारोप्येत सान्येयम् (उत्प्रेक्षा)।-वही, ६, १४
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४६० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण को समन्वित रूप में भी उसका हेतु स्वीकार किया। उनके अनुसार समुल्लिखित वाक्यार्थ से तदतिरिक्त अर्थ की योजना उत्प्रेक्षा का लक्षण है। यह अतिरिक्तार्थ की योजना या तो सम्भाव्य के अनुमान से सम्भव होती है या सादृश्य के कारण। अनुमान और सादृश्य; दोनों एक साथ भी उल्लिखितार्थव्यतिरिक्त अर्थ की योजना के साधक हो सकते हैं। कुन्तक ने अतिशयोक को उत्प्रेक्षा का प्रयोजन माना है।' स्पष्ट है कि वे रुद्रट की तरह उत्प्रेक्षा में अतिशय और सादृश्य; दोनों का तत्त्व स्वीकार करते हैं। उत्प्रेक्षा के एक अन्य रूप में कुन्तक ने क्रियारहित वस्तु में भी किसी क्रिया के प्रति कर्तृत्व की कल्पना पर बल दिया है। क्रिया में कर्तृत्व का आरोप वस्तु के अपने सौन्दर्य की महिमा से हो सकता है अथवा भावक को वैसी प्रतीति होने के कारण भी हो सकता है।
वामन उत्प्रेक्षा को सादृश्यमूलक स्वीकार कर अतिशयोक्ति से उसका भेद-निरूपण कर चुके थे, फिर भी रुद्रट के द्वारा स्पष्ट रूप से और कुन्तक के द्वारा प्रकारान्तर से प्रस्तुत अलङ्कार का मूलतत्त्व सादृश्य के साथ अतिशय भी स्वीकृत हुआ। अग्निपुराणकार ने भी उत्प्रक्षा में अतिशय का तत्त्व स्वीकार कर उसके लक्षण में 'लोकसीमातिवर्तन' का उल्लेख किया। मम्मट ने उद्भट की तरह सम्भावना को उत्प्रेक्षा का लक्षण माना। ___आचार्य रुय्यक ने उत्प्रेक्षा की परिभाषा में उद्भट तथा वामन की "उत्प्रेक्षा-परिभाषाओं में प्रयुक्त क्रमशः सम्भावना एवं अध्यवसान पदों का सार लेकर 'साध्य अध्यवसाय' पर बल दिया।५ सम्भावना साध्य अध्यवसाय के रूप में ही व्यक्त होती है, सिद्ध के रूप में नहीं। ___ रुय्यक के परवर्ती आचार्य उत्प्रेक्षा के लक्षण में सम्भावना या साध्याध्यवसाय पद का ही प्रयोग करते रहे हैं। विद्याधर के उत्प्रेक्षा-लक्षण में अध्यवसान पद प्रयुक्त हुआ है। विश्वनाथ, विद्यानाथ, हेमचन्द्र, शोभाकर,
१. द्रष्टव्य, कुन्तक, वक्रोक्तिजी० ३, २५-२७ २. वही, ३, २८ ३. अग्निपुराण, अध्याय, ३४४ ४. सम्भावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत् ।
___-मम्मट, काव्यप्र० १०, १३७ ५. अध्यवसाये व्यापारप्राधान्य उत्प्रेक्षा।
-रुय्यक, अलं० सर्वस्व, सूत्रसंख्या २१ ६. विद्याधर, एकावली।
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४६१ अप्पय्यदीक्षित, पण्डितराज जगन्नाथ आदि आचार्यों ने उत्प्रेक्षा के लक्षण में सम्भावना पद का प्रयोग किया है; परवर्ती आचार्यों में केशव मिश्र ने आचार्य रुद्रट की तरह उत्प्र ेक्षा में आरोप का तत्त्व स्वीकार किया है । वाग्भट उत्प्रेक्षा में की जाने वाली सम्भावना या कल्पना में औचित्य को भी वाञ्छनीय बताया । २ इसकी विशेष आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि औचित्य सभी अलङ्कारों का स्वीकृत मूलाधार ही है ।
हिन्दी के रीति- आचार्यों ने संस्कृत-आलङ्कारिकों की उत्प्रेक्षा- धारणा को ही स्वीकार किया है । उत्प्र ेक्षा लक्षण में सम्भावना या अनुमान के स्थान पर हिन्दी - रीतिशास्त्र में तर्क तथा ऊहा शब्दों का भी प्रयोग हुआ है । गोविन्द कवि ने उत्प्र ेक्षा में तर्क पर बल दिया तो गोकुल कवि ने सम्भावना के लिए ऊहा शब्द का प्रयोग किया । 3 शब्द प्रयोग मात्र के इस भेद के होने पर भी हिन्दी - आलङ्कारिकों की उत्प्रेक्षा का स्वरूप प्राचीन उत्प्र ेक्षा के स्वरूप से अभिन्न रहा है ।
उत्प्रेक्षा के स्वरूप - विकास के अध्ययन का निष्कर्ष निम्नलिखित है (क) एक पदार्थ में अन्य पदार्थ की सम्भावना उत्प्रेक्षा का स्वरूप है । (ख) यह सम्भावना प्रायः अतिशयार्थ अर्थात् उत्कर्ष की सिद्धि के लिए की जाती है ।
(ग) उपमेय में उपमान की सम्भावना होने से — उपमान एवं उपमेय के सम्बन्ध की कल्पना के कारण उत्प्र ेक्षा सादृश्यमूलक अलङ्कार भी है और सम्भावना का प्रयोजन अतिशय या उत्कर्ष - साधन होने के कारण अतिशय -- मूलक भी ।
:
(घ) किसी वस्तु की स्वाभाविक स्थिति में उसके किसी भिन्न कारण की सम्भावना भी उत्प्रेक्षा में की जाती है । वस्तु, फल और हेतु की सम्भावना के आधार पर उत्प्रेक्षा के तीन रूप स्वीकृत हुए हैं ।
(ङ) मन्ये, शङ्क े आदि शब्दों के साथ क्रिया-पद के साथ प्रयुक्त होने
१. अन्यनिमित्तके वस्तुन्यन्यनिमित्तकत्वारोप उत्प्र ेक्षा ।
– केशव मिश्र, अलं० शे० १३, पृ० ३४
२. वाग्भटालङ्कार, ४, १०
३. द्रष्टव्य, गोविन्द, कर्णाभरण पृ० ५ तथा गोकुल, चेतचन्द्रिका पृ० ४०
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“४६२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
वाले इव, सा, सी आदि शब्द सम्भावना-सूचक होने के कारण उत्प्रेक्षा के वाचक-पद माने गये हैं।
(च) उत्प्रेक्षा में अध्यवसान साध्य होता है अर्थात् वह सम्भावना के रूप में रहता है। इस तथ्य की अभिव्यक्ति के लिए उत्प्रेक्षा-लक्षण में सम्भावना, कल्पना, तर्क, ऊहा, अध्यवसान, साध्याध्यवसाय आदि पदों का प्रयोग हुआ है। अन्य हेतु आदि के आरोप के भाव को व्यक्त करने के लिए आरोप-पद का भी प्रयोग हुआ है। सम्भावना-पद अधिक प्रिय रहा है। वस्तुतः, वह अध्यवसान आदि पारिभाषिक पदों की अपेक्षा अधिक बोधगम्य भी है। एक वस्तु, फल एवं हेतु में अन्य की सम्भावना उत्प्रेक्षा का सरल लक्षण है। उत्प्रक्षा के भेद ___ आचार्य उद्भट ने भाव एवं अभाव के आधार पर उत्प्रेक्षा के दो भेद कर उनके वाच्य एवं प्रतीयमान भेदों की कल्पना की थी। रुद्रट ने औपम्यगर्भ उत्प्रेक्षा के तीन एवं अतिशयगर्भ के दो रूपों का निरूपण किया। कुन्तक के अनुसार सम्भाव्य के अनुमान से, सादृश्य (काल्पनिक एवं वास्तव) से तथा दोनों के सम्मिलित रूप से उत्प्रेक्षा होती है। इस प्रकार वे उसके तीन भेद कर चौथे भेद में क्रिया-हीन वस्तु में किसी क्रिया के प्रति कर्तृत्व की कल्पना कर लेते हैं।
रुय्यक ने उत्प्रेक्षा के अनेक भेदोपभेदों की कल्पना कर ली है। . रुय्यक-सम्मत उत्प्रेक्षा के भेदों की संख्या के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद रहा है। अप्पय्य दीक्षित ने 'चित्रमीमांसा में यह मन्तव्य व्यक्त किया है कि रुय्यक की वाच्योत्प्रेक्षा पचपन प्रकार की तथा गम्योत्प्रेक्षा चालीस प्रकार की है। इस प्रकार उत्प्रेक्षा के कुल पञ्चानबे भेद होते हैं। 'सञ्जीवनी' के अनुसार रुय्यक की वाच्या उत्प्रेक्षा छियानबे प्रकार की है; किन्तु द्रव्योत्प्रक्षा के फलमूलक और हेतुमूलक सोलह भेदों को इस संख्या से निकाल' भी दिया जा सकता है। कारण यह है कि रुय्यक द्रव्य का केवल स्वरूपोत्प्रेक्षण ही मानते हैं। अतः, फल और हेतु की द्रव्य से उत्प्रेक्षा मानने में कोई युक्ति नहीं है। इस प्रकार रुय्यक के मतानुसार अस्सी वाच्योत्प्रेक्षा-भेदों का ही सद्भाव स्वीकार किया जाना चाहिए। गम्योत्प्रेक्षा में अनुपात्तनिमित्ता को छोड़ केवल उपात्तनिमित्ता के छियालीस भेद ही स्वीकार्य हैं। रुय्यक की उत्प्रेक्षा “का सञ्जीवनी-समर्थित विभाग निम्न तालिका में प्रस्तुत है :
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(१) जाति
भावाभिमान
गुण
वाच्या
उपात्तनिमित्ता (१२)
हेतु (२४)
(२) गुण
(३) क्रिया
अभावाभिमान भावाभिमान
(३) = ६
T क्रिया
(६) = १२
अनुपात्त निमित्ता (१२) = २४
स्वरूप (२४) = ७२
उपात्तनिमित्ता
उक्षी
I
द्रव्य
=४
अभावाभिमान भावाभिमान
क्रिया
(R) =
अनुपात्तनिमित्ता (४) =
=5
फल
स्वरूप
(5) (5) = २४ (७२+२४=ε६)
जाति
फल
(5)
(२४)
[ इनमें द्रव्य के केवल स्त्ररूपगत ८ भेदों को स्वीकार करने वाले इसके ८० ही
भेद मानते हैं ।]
T गुण
-
प्रतीयमान
क्रिया
।
फल
द्रव्य
अभावाभिमान
(४):
==
क्रिया
(८) = १६
( ये सब ) उपात्तनिमित्ता १६ भेद
हेतु
स्वरूप
[ इनमें से स्वरूपोत्प्र ेक्षा के १६ भेदों को हटा देने से केवल ३२ भेद स्वीकार्य बचते हैं ।]
अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ४६३
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४६४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उक्त तालिका को देखने से सजीवनीकार के मतानुसार उत्प्रेक्षा के भेदोपभेद स्पष्ट हो जाते हैं। उनके अनुसार उत्प्रेक्षा के मुख्य दो भेद हैं-वाच्या और गम्या । वाच्या केछियानबे भेद हैं। उसके प्रथम चार भेद होते हैं-जाति, गुण, क्रिया तथा द्रव्य की उत्प्रेक्षा। इन चारों में से प्रत्येक के चौबीस उपभेद हो जाते हैं । इन सब के भावाभिमान तथा अभावाभिमान दो भेद होते हैं, फिर दोनों के गुणनिमित्ता तथा क्रियानिमित्ता भेद से चार प्रकार हो जाते हैं । पुनः चारो उपात्तनिमित्ता और अनुपात्तनिमित्ता भेद से आठ प्रकार के हो जाते हैं । इन आठो के तीन-तीन-भेद हेतु, स्वरूप तथा फल की उत्प्रेक्षा की दृष्टि से हो जाते हैं। इस प्रकार वाच्योत्प्रेक्षा के जाति, गुण, क्रिया एवं द्रव्य-भेदों में से प्रत्येक के चौबीस-चौबीस भेद होते हैं; किन्तु द्रव्योत्प्रक्षा के आठ ही भेद लोग मानते हैं, चूंकि उसकी स्वरूप-मात्र में ही उत्प्रेक्षा सम्भव है, हेतु और फल में नहीं। अतः, स्थूल दृष्टि से वाच्योत्प्रेक्षा के अस्सी भेद ही मान्य हुए हैं। प्रतीयमाना उत्प्रेक्षा के भेदों का विभाजन भी इसी पद्धति पर होता है; पर उसमें केवल उपात्तनिमित्ता के अड़तालीस भेदों का सद्भाव मान्य है। अनुपात्तनिमित्ता प्रतीयमाना सम्भव ही नहीं। प्रतीयमाना में स्वरूपोत्प्रेक्षा नहीं होती। अतः, स्वरूपोत्प्रेक्षा के सोलह भेदों को कम कर देने से प्रतीमाना उत्प्रेक्षा के केवल बत्तीस भेद बच रहते हैं।
जयदेव और अप्पय्य दीक्षित ने वस्तूत्प्रेक्षा, हेतूत्प्रेक्षा तथा फलोत्प्रेक्षाइन उत्प्रेक्षा-भेदों का सद्भाव स्वीकार कर प्रत्येक के इवादि पद से वाच्य होने पर वाच्या तथा उसके अभाव में गूढ़ा या गम्या; दो भेद माने हैं। विद्यानाथ ने रुय्यक के उत्प्रेक्षा-जाल से प्रमुख बत्तीस भेद लेकर उनका विवेचन किया है। उनके अनुसार वाच्या और गम्या उत्प्रेक्षा में से प्रत्येक जाति, गुण, क्रिया और द्रव्य-भेदों से चार-चार प्रकार की होती है । पुनः, भाव एवं अभाव के भेद से उनके आठ-आठ भेद हो जाते हैं। गुणनिमित्ता और क्रियानिमित्ता होने से वे सोलह-सोलह प्रकार की होती हैं। इस प्रकार सोलह वाच्या और उतनी ही गम्या उत्प्रेक्षा होती है। विश्वनाथ ने भी उत्प्रेक्षा के बत्तीस भेद ही माने थे।
उत्प्रेक्ष्य वस्तु आदि के आधार पर किये गये उक्त वर्गीकरण के अतिरिक्त श्लिष्टशब्दनिमित्तकोत्प्रेक्षा, उपमोपक्रमोत्प्रेक्षा, सापह्नवोत्प्रेक्षा आदि उत्प्रेक्षा-भेदों की भी कल्पना कुछ आचार्यों ने की है पर इन्हें उत्प्रेक्षा
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४६५ का भेदोपभेद मानना समीचीन नहीं जान पड़ता। इनमें श्लेष, उपमा, अपह्न ति आदि अलग-अलग अलङ्कारों के साथ उत्प्रेक्षा की अवस्थिति का सङ्केत-मात्र मिलता है। अतः, वहाँ उत्प्रेक्षा के साथ अन्य अलङ्कार की संसृष्टि या सङ्कर का ही विचार होना चाहिए।
उत्प्रेक्षा के सर्वाधिक भेदों की कल्पना रुय्यक ने ही की थी। 'अलङ्कारसूत्र' पर टीका करते हुए रुय्यक के टीकाकार जयरथ ने उत्प्रेक्षा के अतिशयमूलक भेदों को गिन कर उसके भेदों की संख्या और भी बढ़ा दी है। उत्प्रेक्षा की सादृश्यमूलकता के साथ उसके अतिशयगर्भ होने की मान्यता आचार्य रुद्रट प्रकट कर चुके थे। उत्प्रेक्षा के औपम्य-गर्भ स्वरूप के साथ उसके अतिशयमूलक-भेद भी स्वीकार्य हैं। अपह्न ति
अपह्न ति उक्ति में अपह्नव की कला पर आधृत अलङ्कार है। निषेधमुखेन विधान में जो विधि की व्यञ्जना होती है, वह निस्सन्देह आकर्षक होती है। ऐसी उक्ति-भङ्गी में अलङ्कारत्व असन्दिग्ध है। पीछे चल कर अपह्नव पर आश्रित अनेक उक्ति-भङ्गियों में अनेक अलङ्कार की कल्पना अलङ्कारशास्त्र में की गयी है। अपह्नति के स्वरूप की कल्पना ही अपह्नवमूलक समग्र अलङ्कार-प्रपञ्च की कल्पना का उत्स है। प्रस्तुत सन्दर्भ में हम अपह्न ति के स्वरूप का विकास-क्रम की दृष्टि से अध्ययन करेंगे।
सर्वप्रथम भामह के 'काव्यालङ्कार' में अपह्न ति का स्वरूप-निरूपण मिलता है। भामह से पूर्व मिथ्याध्यवसाय लक्षण के स्वरूप में अपह्नव की धारणा निहित थी। भामह ने उपमान-उपमेय की धारणा के साथ मिथ्याध्यवसाय के तत्त्व का मिश्रण कर अपह्न ति अलङ्कार के स्वरूप की कल्पना की।' इस प्रकार भामह के मतानुसार प्रस्तुत का अपह्नव और उसके स्थान पर अप्रस्तुत का स्थापन अपह्न ति का स्वरूप बना। भामह ने अपह्नति में उपमानोपमेय-सम्बन्ध आवश्यक माना । उन्होंने स्पष्टतः कहा कि अपह्न ति में उपमा किञ्चित् अन्तर्गता होती है।
१. मिथ्याध्यवसायेनापह्न तिः।-अभिनव, अभिनव भारती, पृ० ३२१ २. अपह्न तिरभीष्टा च किञ्चिदन्तर्गतोपमा। भूतार्थापह्नवादास्याः क्रियते चाभिधा यथा ॥
-भामह, काव्यालं ० ३,२१
३०
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४६६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
आचार्य दण्डी ने भामह की अपह्नति-विषयक उक्त मान्यता को स्वीकार कर उसे उपमा का एक भेद माना और उसे प्रतिषेधोपमा या उपमापह्नति अभिधान दिया। इसके साथ ही दण्डी ने अपह्न ति के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना कर उसके कुछ व्यापक स्वरूप का निरूपण किया, जिसमें उपमानोपमेय-सम्बन्ध आवश्यक नहीं माना गया। अपह्न ति की परिभाषा में दण्डी ने कहा कि जहाँ वर्णनीय वस्तु के कुछ ( क्रिया, गुण आदि ) धर्म का अवगोपन कर अर्थात् उसका असत्यतया प्रतिपादन कर अन्य अर्थ का दर्शन अर्थात् सत्यतया स्थापन किया जाय, वहाँ अपह्न ति-नामक अलङ्कार होता है ।२ दण्डी की इस अपह्न,ति-परिभाषा में उपमानोपमेय-भाव की धारणा जोड़ने का प्रयास टीकाकार नसिंहदेव ने किया है। उन्होंने अन्यार्थदर्शन की व्याख्या 'अप्रस्तुत धर्मान्तरस्य दर्शनम्' की है। किन्तु, उपमापह्न ति से स्वतन्त्र अपह्न ति की सत्ता की कल्पना की सार्थकता उपमानोपमेय-सम्बन्ध के अतिरिक्त स्थल तक अपह्नति के क्षेत्र-विस्तार में ही है। विषयापह्नति आदि का जो उदाहरण 'काव्यादर्श' में दिया गया है, उसमें वर्णनीय का अपह्नव तो है; पर आवश्यक रूप से उसके उपमान का अवस्थापन नहीं है। स्पष्टतः, दण्डी वर्णनीय से भिन्न किसी अन्य का (वर्णनीय का अपह्नवपूर्वक) अवस्थापन अपह्न ति का लक्षण मानते थे। भामह से कुछ विस्तृत रूप अपह्न ति को दण्डी ने दिया।
भामह और दण्डी की अपह्न.ति-धारणा के आधार पर परवर्ती काल में अपह्नति-विषयक दो धारणाएँ प्रचलित हुई। कुछ आचार्य भामह के मत का अनुमोदन करते हुए अपह्नति के स्वरूप-विधान के लिए उपमानोपमेय भाव को आवश्यक मानते रहे, तो अन्य आचार्य दण्डी की मान्यता का अनुसरण करते हुए सादृश्येतर स्थल में भी अपह्नति का सद्भाव स्वीकार करते रहे। उद्भट, वामन, रुद्रट, रुय्यक, मम्मट, जगन्नाथ आदि आचार्यों ने सादृश्य को अपह्नति का आधार माना है। भोज ने अपह्नति के सादृश्यवती और सादृश्यरहिता; दो भेद स्वीकार कर दण्डी की मान्यता का अनुमोदन किया है । विश्वनाथ, अप्पय्य दीक्षित तथा शोभाकर आदि ने दण्डी की तरह सादृश्येतर में भी अपह्न ति की सत्ता स्वीकार की है ।
१. उपमापह्न तिः पूर्वमुपमास्वेव दर्शिता।-दण्डी, काव्याद० २, ३०६ २. अपह्न तिरपह्नत्य किञ्चिदन्यार्थदर्शनम् ।-वही, २,३०४ ३. द्रष्टव्य, काव्यादर्श की कुसुमप्रतिमा-टीका पृ० २३३
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४६७
आचार्य कुन्तक भी तत्त्वतः अपह्न ुति को सादृश्यमूलक अलङ्कार ही मानते हैं । उन्होंने वर्ण्य वस्तु के स्वरूप का अप्रस्तुत रूपार्पण के लिए अपह्नव प्रस्तुत अलङ्कार का लक्षण माना है । किन्तु, कुन्तक ने उत्प्रेक्षाको अपह्नति का प्राण मानकर उसमें सम्भावना की अनिवार्य स्थिति स्वीकार की है । जयदेव ने अपह्नति-लक्षण में अतथ्य आरोप शब्द का प्रयोग किया । 3 अतथ्य से तात्पर्य तद्भिन्नमात्र का है । विद्याधर, विद्यानाथ, अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ, नरसिंह कवि, विश्वेश्वर पण्डित आदि ने भी आरोप शब्द का प्रयोग अपह्न ुति की परिभाषा में किया है । वर्ण्य का अपह्नवपूर्वक अन्य का स्थापन या वर्णनीय के स्वरूप का निषेध कर अन्य रूप का अर्पण अपह्न ुति का सर्वसम्मत लक्षण है ।
आचार्य केशव दास ने मन की बात छिपाकर कहने में अपह्न ुति का सद्भाव माना है । अपह्नव की धारणा को उन्होंने कुछ अस्पष्ट कर दिया । रघुनाथ कवि सच्ची बात छिपाकर झूठी बात का आरोप अपह्न ुति का लक्षण मानते हैं । दास सच्चे धर्म को छिपाकर अन्य धर्म की ( झूठे या अर्धसत्य धर्म की) स्थापना को अपह्न ुति का लक्षण मानते हैं । गोकुल के अनुसार सत्य को झूठ और झूठ को सत्य बना कर कहना अपह्न ुति है । स्पष्टतः, रीतिकाल में परम्परा का ही प्रकारान्तर से अनुमोदन हुआ है ।
आचार्यों की अपह्न तिविषयक मान्यता का सार निम्नलिखित है(क) अपह्न ुति में प्रस्तुत का निषेध तथा अप्रस्तुत की प्रतीति या उसका विधान होता है ।
(ख) इसमें वर्णनीय का निषेध कर किसी अन्य का ( उपमान भिन्न का) अवस्थापन भी हो सकता है ।
(ग) वर्ण्य का निषेध कर प्रकारान्तर से उसी (वर्ण्य की ही ) की प्रतीति अति नहीं होती, वैसे स्थल में रूपक होता है । और उपमानतावच्छेदक की असामानाधिकर्येन आवश्यक है ।
अतः उपमेयतावच्छेदक
प्रतीति
अपह्नति में
१. अन्यदर्पयतु रूपं वर्णनीयस्य वस्तुनः । स्वरूपापह्नवो यस्यामसावपह्न ुतिर्मता
॥
— कुन्तक, वक्रोक्तिजी ० ३,४३
―
२. पूर्ववदुत्प्रेक्षमूलत्वमेव जीवितमस्याः ॥ त्रही, वृत्ति, पृ० ४७५ ३. जयदेव, चन्द्रालोक, ५,२४
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४६८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अपह्न ति के भेदोपभेद
अपह्नति के अनेक भेदोपभेदों की कल्पना तत्तद् आधारों पर की गयी है। अपह्नति के स्वरूप के दो प्रमुख. विधायक-तत्त्वों-अपह्नव तथा अन्यारोप–के पौर्वापर्य के आधार पर अपह्न ति के दो भेद कल्पित हुए(क) निषेधपूर्वक आरोप तथा (ख) आरोपपूर्वक निषेध । कहीं निषेधवाक्य पहले रहता है और विधिवाक्य पोछे; पर इसके विपरीत, कहीं विधि-वाक्य ही पहले रह सकता है और निषेध-वाक्य पीछे । इस प्रकार उक्त दो भेद अपह्न ति के हो जाते हैं। विधिवाक्य और निषेधवाक्य जहाँ अलग-अलग न रहें और छल, व्याज, नत्र आदि के प्रयोग के द्वारा एक ही वाक्य से अपह्नव का तत्त्व निर्दिष्ट होता हो और केवल आरोप का विधान होता हो, वह अपह्न ति का तीसरा भेद है ।'
शोभाकर ने अपह्नव के शाब्द एवं आर्थ होने के आधार पर अपह्नति के दो भेद स्वीकार किये हैं। उनके अनुसार जहाँ नत्र आदि के द्वारा साक्षात् निषेध होता है, वहाँ अपह्नति शाब्दी होती है और जहाँ छल, व्याज आदि शब्दों का प्रयोग कर प्रकारान्तर से निषेध होता है, वहाँ आर्थी अपह्न ति होती है।२ __ हम देख चुके हैं कि अपह्नति की सादृश्यमूलकता तथा सादृश्येतरमूलकता को लेकर दो मत रहे हैं। दण्डी ने उसके दोनों स्वरूपों को स्वीकृति दी थीएक को उपमा-भेद के रूप में तथा दूसरे को शुद्ध अपह्नति के रूप में । भोज ने इस आधार पर अपह्नति के दो भेद स्वीकार किये-औपम्यवती और अनौपम्या। सादृश्य के वाच्य तथा प्रतीयमान होने के आधार पर अपद्धति के पुनः दो उपभेद माने गये । अनौपम्या के दो उपभेद कल्पित हुए-पूर्व एवं अपूर्व ।
जयदेव ने अपह्नति के पर्यस्तापह्न ति, भ्रान्तापह्न ति, छेकापह्न ति तथा कैतवापत ति भेदों का निरूपण किया। पण्डितराज जनन्नाथ ने पर्यस्ता
१. द्रष्टव्य, रुय्यक, अलङ्कार-सर्वस्व, पृ. ४६ २. द्रष्टव्य, शोभाकरकृत अलङ्कार-रत्नाकर, पृ० ४० ३. द्रष्टव्य, भोजकृत सरस्वतीकण्ठाभरण ४, ४१-४३ ४. द्रष्टव्य, जयदेवकृत चन्द्रालोक ५, २५-२६
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४६६ पह्नति को अपह्नति का भेद नहीं मानकर रूपक माना है।' किन्तु, पर्यस्तापह्नति में निषेवपूर्वक आरोप होने के कारण उसे अपह्नति-भेद मानना ही समीचीन जान पड़ता है।
विश्वनाथ ने अपह्नवपूर्वक आरोप तथा आरोपपूर्वक अपह्नव; इन दो भेदों को स्वीकार कर श्लेषमूला तथा अश्लेषमूला अपह्न तियों की भी कल्पना की। अप्पय्ण दीक्षित ने 'कुवलयानन्द' में तो जयदेव की मान्यता ही स्वीकार की; पर 'चित्रमीमांसा' में वाक्य के आधार पर अपह्न ति की वाक्यभेदवती तथा वाक्याभेदवती विधाओं की भी कल्पना की है।
पण्डितराज ने अपह्न ति के सावयव एवं निरवयव-भेद भी माने हैं।
इस भेद-विवेचन से स्पष्ट है कि अपह्नति के कुछ भेदों की कल्पना उसके मूल में निहित सादृश्य तथा सादृश्येतर-सम्बन्ध के आधार पर; कुछ की उसके विधायक-तत्त्व अपह्नव और आरोप के आधार पर; कुछ की निषेध-वाक्य एवं आरोप वाक्य की एकता-अनेकता के आधार पर तथा कुछ की अन्य अलङ्कारों के साथ अपह्नति के मेल के आधार पर की गयी है। औपम्यवती और अनौपम्यापह्न ति क्रमशः सादृश्य तथा सादृश्येत्तर-सम्बन्ध पर आधृत है। अपह्नवपूर्वक आरोप तथा आरोपपूर्वोऽपह्नव भेद आह्नव और आरोप के पैर्वीपर्य-क्रम पर अवलम्बित हैं। वाक्यभेदवती तथा अनेक वाक्यगा अपह्न ति की कल्पना निषेध तथा आरोप वाक्य की एकता-अनेकता पर आश्रित है। भ्रान्तापह्न, ति, श्लेषमूलापह्न ति आदि क्रमशः भ्रान्तिमान्, श्लेष आदि के साथ अपह्नति की अवस्थिति की कल्पना के फल हैं।
निषेध तथा आरोप के साक्षात् या वाच्य तथा असाक्षात् या गम्य होने के आधार पर भी वाच्या तथा प्रतीयमाना अपह्न तियों की कल्पना की गयी है। पर्यस्तापह्नति, छेकापह्न ति, हेत्वपह्नति, कैतवापह्नति आदि अपह्न ति-भेदों की कल्पना का आधार अपह्नव एवं आरोष की उक्तियों की विचित्रता है । परिणाम
परिणाम अलङ्कार की उद्भावना बहुत पीछे चल कर हुई है; पर उद्भूत होने के उपरान्त यह अलङ्कार प्रायः सर्वसम्मत रहा है। रुय्यक के 'अलङ्कार
१. जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ०४४२-४३ २. द्रष्टव्य, विश्वनाथ का साहित्यदर्पण पृ० ६४४-४६ ३. द्रष्टव्य, अप्पय्यदीक्षित, चित्रमीमांसा, पृ० ६६ ४. द्रष्टव्य, जगन्नाथ, रसगङ्गाधर पृ० ४३६
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४७० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
सूत्र' में सर्वप्रथम परिणाम का स्वरूप-निरूपण मिलता है। रुय्यक के पूर्व रूपक के स्वरूप में ही परिणाम समाविष्ट था । 'काव्यप्रकाश' के कुछ टीकाकारों ने इस बात का सङ्केत दिया है कि मम्मट परिणाम को रूपक का ही अङ्ग मानते थे। मम्मट की रचना में रूपक के अङ्ग के रूप में परिणाम का स्पष्ट विवेचन नहीं मिलता। टीकाकारों की मान्यता का आधार रूपक और परिणाम का स्वरूप-साम्य है। इसमें सन्देह नहीं कि परिणाम के स्वरूप को सम्भावना रूपक के व्यापक स्वरूप में ही निहित थी। प्रस्तुत पर अप्रस्तुत के आरोप को सामान्य रूप से प्राचीन आचार्यों ने रूपक की संज्ञा दी थी। परिणाम में भी प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का आरोप होता है । इस दृष्टि से परिणाम रूपक के व्यापक रूप में व्याप्य है। रूपक से परिणाम के स्वतन्त्र अस्तित्व की स्थापना के लिए एक विभाजक तत्त्व की कल्पना की गयी है। रूपक जहां प्रकृत पर अप्रकृत के आरोप के बाद विरत हो जाता है; वहाँ परिणाम प्रकृत पर अप्रकृत का आरोप तो करता ही है; आरोप्यमान का प्रकृतार्थ में उपयोग भी दिखाता है। इस प्रकार प्रकृत के व्यवहार पर अप्रकृत के व्यवहार का भी आरोप हो जाता है और अप्रकृत प्रकृतोपयोगी हो जाता है। स्पष्ट है कि परिणाम की रूप-रचना में रूपक और समासोक्ति के तत्त्वों ने योग दिया है; पर साथ ही अप्रकृत की प्रकृतोपयोगिता की धारणा मिलाकर रुय्यक ने इस नवीन अलङ्कार की उद्भावना की है।
रुय्यक ने परिणाम को परिभाषित करते हुए कहा है कि जहाँ आरोप्यमान की प्रकृतार्थ में उपयोगिता वणित हो, वहाँ परिणाम अलङ्कार होता है ।। परिणाम का रूपक से भेद बताते हुए रुय्यक ने वृत्ति में लिखा है कि रूपक में आरोप्यमान के प्रकृतोपयोग का प्रश्न नहीं; अतः उसमें अप्रकृत प्रकृत पर आरोपित होकर उसका (प्रकृत का ) उपरञ्जन-मात्र कर विरत हो जाता है; पर परिणाम में प्रस्तुत पर आरोपित अप्रस्तुत प्रस्तुत का उपरञ्जन तो करता ही है, साथ ही वह प्रकृत की तरह उपयोगी भी होता है। परिणाम नाम की सार्थकता इसीमें है कि इसमें प्रकृत या उपमेय अप्रकृत या उपमान के रूप में
१. द्रष्टव्य, काव्यप्रकाश, नागेश्वरी-टीका, पृ० २४० २. आरोप्यमाणस्य प्रकृतोपयोगित्वे परिणामः।
-रुय्यक, अलं० सर्वस्व, सूत्र सं० १६
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[४७१ परिणत हो जाता है।' रूपक में प्रकृत के केवल रूप पर अप्रकृत के रूप का समारोप होता है, पर परिणाम में रूप के साथ व्यवहार का भी समारोप हो जाता है । इसीलिए परिणाम को 'व्यवहारान्त आरोप' कहा गया है। और भी स्पष्ट करने के लिए कहें, तो 'अलङ्कार-सूत्र' के टीकाकार जयरथ के शब्दों में कह सकते हैं कि परिणाम में प्रकृत या उपमेय अप्रकृत या उपमान के व्यवहार से युक्त हो जाता है।
परिणाम का जो लक्षण रुय्यक ने दिया है, उस लक्षण-सूत्र की व्याख्या के क्रम में टीकाकारों ने दो प्रकार की मान्यताएँ व्यक्त की हैं। कुछ टीकाकारों के अनुसार आरोप्यमाण या अप्रकृत ही प्रकृत के रूप में परिणत होकर प्रकृतार्थ में उपयोगी होता है । इस धारणा के विपरीत अन्य टीकाकारों ने यह मन्तव्य प्रकट किया है कि प्रकृत ही अप्रकृत के रूप में परिणत होकर अर्थात् अप्रकृत का व्यवहार लेकर प्रकृत कार्य में उपयोगी होता है। उक्त दोनों मता की पुष्टि रुय्यक के सूत्र की वृत्ति से हो जाती है। रुय्यक ने वृत्ति में कहा है कि परिणाम में आरोप्यमाण का प्रकृत-रूप में उपयोग होता है; अतः इसमें प्रकृत आरोप्यमाण के रूप में परिणत होता है।४ 'प्रकृतात्मतयारोप्यमाणस्योपयोग' इस वाक्यांश का सहारा लेकर यह मत व्यक्त किया गया है कि आरोप्यमाण या अप्रकृत ही प्रकृत के रूप में परिणत होकर प्रकृत-कार्य में उपयोगी होता है। पर, 'प्रकृतमारोप्यमाणरूपत्वेन परिणमति' इस वाक्य-खण्ड में स्पष्टतः कहा गया है कि प्रकृत ही अप्रकृत के रूप में परिणत होता है । प्रकृत का परिणाम मानने वाले इस वाक्यांश को प्रमाण के रूप में उद्धृत करते हैं। __ परवर्ती आचार्यों में विद्याधर, शोभाकर आदि ने प्रकृत की अप्रकृत के रूप में परिणति को परिणाम का लक्षण माना है, पर विश्वनाथ, विद्यानाथ, अप्पय्यदीक्षित तथा पण्डितराज जगन्नाथ ने परिणाम में अप्रकृत का प्रकृत के रूप में परिणाम स्वीकार किया है।
१. आरोग्यमाणं रूपके प्रकृतोपयोगित्वाभावात् प्रकृतोपरजकत्वेनैव केवलेनान्वयं भजते । परिणामे तु प्रकृतात्मतयारोप्यमाणस्योपयोग इति
प्रकृतमारोप्यमाणरूपत्वेन परिणमति ।-रुय्यक, अलं० सर्व० पृ० ३८ २. अतो व्यवहारान्तमारोपः ."-अलं० सर्वस्व, संजीवनी-टीका पृ० ५८ ३. प्रकृतमप्रकृतव्यवहारविशिष्टतयावतिष्ठते ।
-अलं० सर्वस्व, विमशिनी-टीका पृ० ५१ ४. परिणामे तु प्रकृतात्मतयारोप्यमाणस्योपयोग इति प्रकृतमारोप्यमाणरूपत्वेन परिणमति ।-रुय्यक, अलं० सर्वस्व, पृ० ३८
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४७२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उत्तरकाल में परिणाम की परिभाषा में विकास की स्थितियाँ बहुत कम आयीं। प्रकृत तथा अप्रकृत के अन्य रूप में परिणत होने का प्रश्न लेकर जो दो मत चल पड़े थे, उन्हीं को लेकर परिणाम-परिभाषा की दो धाराएँ प्रचलित हुई। एक में विद्याधर, शोभाकर आदि आचार्य आते हैं और दूसरी में विश्वनाथ, विद्यानाथ, जयदेव अप्पय्य दीक्षित एवं जगन्नाथ आदि ।
परिणाम, विषयक उक्त दो मान्यताएँ आपाततः परस्पर विरोधिनी लगती हैं; किन्तु स्पष्टतः दोनो का स्रोत एक ही है। दोनों रुय्यक की मान्यता की पृथक्-पृथक् व्याख्या के परिणाम हैं। एक उत्स के दो स्रोत होने के कारण दोनों में समन्वय-बिन्दु का निर्धारण सम्भव है। परिणाम का यह लक्षण मानने में तो सभी एकमत हैं कि इसमें प्रस्तुत पर अप्रस्तुत के रूप एवं व्यवहार का आरोप होता है। जब प्रस्तुत अप्रस्तुत के व्यवहार से युक्त होता है तो वह एक प्रकार से अप्रस्तुत के रूप में परिणत हो ही जाता है, भले ही वह अपने स्वरूप का उत्सर्ग नहीं करता हो। अप्रस्तुत के प्रकृत-कार्य में उपयोगी होने की धारणा भी परिणाम में सर्वसम्मत है। प्रकृत-कार्य से साक्षात् सम्बन्ध प्रस्तुत का ही होता है। अप्रस्तुत प्रकृतार्थ में तभी उपयोगी हो सकता है, जब वह प्रस्तुत के रूप में परिणत हो। अतः, परिणाम में अप्रस्तुत प्रस्तुतात्मना परिणत होकर प्रकृत कार्य में उपयोगी होता है। निष्कर्ष यह कि प्रस्तुत पर अप्रस्तुत के व्यापार-समारोप की दृष्टि से प्रस्तुत का अप्रस्तुत के रूप में परिणत होने का सिद्धान्त भी सङ्गत है और अप्रस्तुत की प्रकृतार्थोंपयोगिता की दृष्टि से अप्रस्तुत के प्रस्तुत-रूप में परिणाम का मत भी समीचीन है।
इस प्रकार परिणाम के स्वरूप के दो अपरिहार्य विधायक हैं
(क) प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का व्यवहारान्त समारोप अर्थात् अप्रस्तुत के रूप एवं व्यापार का आरोप और (ख) अप्रस्तुत का प्रस्तुतात्मना परिणत होकर प्रकृत कार्य में उपयोगी होना ।
हिन्दी के रीतिकालीन आचार्यों ने जयदेव एवं अप्यय्य दीक्षित की धारणा का अनुसरण करते हुए अप्रकृत का प्रकृत के रूप में परिणत होकर प्रकृतोपयोगी होना परिणाम का लक्षण माना है। याकूब ने परिणाम का सम्बन्ध नायिका-भेद से जोड़ा है;' पर यह विशेष महत्त्वपूर्ण कल्पना नहीं है। १. कर काज परिनाम, उपमेय जो उपमान ह्व। सो परकीया वाम कर केलि परपुरुष सो॥
-याकूब खां, रसभूषण, पृ०७
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४७३ परिणाम-विषयक परम्परागत धारणा का ही अनुमोदन हिन्दी अलङ्कार-शास्त्र में हुआ है। व्यतिरेक
व्यतिरेक का स्वरूप-निरूपण सर्वप्रथम भामह के 'काव्यादर्श' में मिलता है। तबसे प्रायः सभी आचार्यों ने व्यतिरेक की सत्ता स्वीकार कर उसका विवेचन किया है। भामह ने उपमान से उपमेय का आधिक्य-वर्णन व्यतिरेक का लक्षण माना था ।' सामान्यतः उपमेय की अपेक्षा उपमान में गुणाधिक्य की धारणा निहित रहती है। उपमान की कल्पना अर्थात् अप्रस्तुत-योजना का उद्देश्य ही प्रस्तुत का उपरञ्जन है। प्रस्तुत का उपरञ्जक होने के कारण अप्रस्तुत में गुणाधिक्य की पूर्वमान्यता अन्तनिहित रहती है। उपमा आदि भेदाभेद-प्रवान अलङ्कार में अप्रस्तुत सादृश्य से प्रस्तुत का उपरञ्जन करता है। रूपक आदि अभेद-प्रधान अलङ्कार में वह प्रस्तुत पर आरोपित होकर अभेद-प्रतीति के द्वारा प्रस्तुत का उपरञ्जन करता है; पर व्यतिरेक में वह भेद-प्रतीति से प्रकृत का उपरञ्जन करता है। व्यतिरेक का उपमा, रूपक आदि से तात्विक भेद यह है कि जहाँ उपमा भेदाभेदप्रधान तथा रूपक अभेदप्रधान अलङ्कार है, वहाँ व्यतिरेक भंद-प्रधान अलङ्कार है।
यह प्रश्न किया जा सकता है कि व्यतिरेक में जब उपमान और उपमेय के बीच सादृश्य भेद-प्रधान रहता है तो उपमान से उपमेय का उपरञ्जन कैसे होता है ? उपरञ्जक और उपरञ्ज्य में या तो अभेद रहना चाहिए या भेदाभेद । इस प्रश्न का उत्तर सरल है। व्यतिरेक में उपमेय और उपमान के सादृश्य का निषेध कर जो दोनों के बीच भेद-कथन होता है, वह कथन स्वयं ही दोनों के बीच सादृश्य-प्रतीति के लिए अलम् है। निषेध प्राप्त का ही होता है, अप्राप्त का नहीं। अतः, सादृश्य का निषेध सादृश्य के प्राप्त होने का भी प्रमाण है । दण्डी ने व्यतिरेक की परिभाषा में इस तथ्य का सङ्कत दिया है कि जब उपमान और उपमेय के बीच सादृश्य गम्य या वाच्य रहता है, तभी दोनों के बीच भेद-कथन व्यतिरेक का स्वरूप-विधान करता है।
१. उपमानवतोऽर्थस्य यद्विशेषनिदर्शनम् ।
व्यतिरेक तमिच्छन्ति विशेषापादनाद्यथा ॥–भामह, काव्यालं० २, ७५ २. शब्दोपात्त प्रतीते वा सादृश्ये वस्तुनोई योः।
तत्र यद्भ दकथनं व्यतिरेकः स कथ्यते ॥-दण्डी, काव्यादर्श २,१८०
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४७४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
भामह के व्यतिरेक का स्वरूप अपेक्षाकृत सीमित था । उसमें पीछे चल कर थोड़ा विस्तार हो गया है । भामह ने उपमान से उपमेय के आधिक्य - कथन मात्र को व्यतिरेक का लक्षण माना था । उनकी दृष्टि में इस अलङ्कार का चमत्कार इस बात में होगा कि इसमें अप्रस्तुत के उत्कृष्ट गुण विशिष्ट होने की सामान्य धारणा को मानने पर भी कवि उपमेय को उससे भी बढ़कर उत्कर्षवान् बताकर उसकी प्रभविष्णुता बढ़ा देता है ।
आचार्य दण्डी ने भामह की व्यतिरेक विषयक मूल धारणा से सहमत होने पर भी लक्षण में व्यतिरेक को किञ्चित् विस्तृत रूप दिया। उन्होंने दो वस्तुओं में (प्रस्तुत एवं अप्रस्तुत में ) सादृश्य के वाच्य या प्रतीयमान होने पर दोनों में भेद-कथन व्यतिरेक का लक्षण माना । यह भेद कथन तीन रूपों में हो सकता है :
१. दोनों में विद्यमान सादृश्य के निषेध के रूप में,
२. उपमान से उपमेय के उत्कर्ष-वर्णन के रूप में तथा
३. उपमेय से उपमान के उत्कर्ष-वर्णन के रूप में ।
इस प्रकार लक्षण में व्यतिरेक के स्वरूप को विस्तार देने पर भी दण्डी ने उसके उदाहरण में उपमान से उपमेय का उत्कर्ष - वर्णन मात्र दिखाया है । यह सम्भवतः परम्परा के दुर्निवार प्रभाव का अनिवार्य परिणाम था । दण्ड के व्यतिरेक के लक्षण में 'प्रस्थान' है तो उदाहरण में 'अनुगमन' ।
परवर्ती काल में व्यतिरेक के सम्बन्ध में दो प्रकार की मान्यताएँ प्राप्त होती हैं । कुछ आचार्य अप्रस्तुत से प्रस्तुत के उत्कर्ष वर्णन मात्र को व्यतिरेक-लक्षण मानते हैं । यह मान्यता इस युक्ति पर आद्धृत है कि उपमान में तो उपमेय की अपेक्षा गुणोत्कर्ष की धारणा अन्तर्निहित ही है, फिर उपमेय की अपेक्षा उपमान के उत्कर्ष - वर्णन में क्या चमत्कार होगा ? पर, कुछ आचार्यों ने दण्डी के मत को स्वीकार करते हुए उपमान की अपेक्षा उपमेय के गुणाधिक्य वर्णन के साथ उपभेय से उपमान के गुणाधिक्यवर्णन में भी व्यतिरेक अलङ्कार का सद्भाव माना है । इन मतों के औचित्य की परीक्षा हम यथास्थान करेंगे। एक वस्तु की अपेक्षा दूसरी वस्तु के गुणोत्कर्ष - वर्णन की धारणा के विपरीत एक वस्तु से दूसरी वस्तु के अपकर्ष-वर्णन को भी परवर्ती कुछ आचार्यों ने व्यतिरेक लक्षण में समाविष्ट कर लिया है । यह कोई नवीन धारणा नहीं है । एक का अन्य की अपेक्षा गुणोत्कर्ष - वर्णनआक्षेप से अन्य का अपकर्ष सूचित करता ही है । एक का सापेक्ष उत्कर्ष-वर्णन कर आक्षेप से अन्य का अपकर्ष सूचित करने तथा एक के आपेक्षिक अपकर्ष -
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४७५. वर्णन से अन्य का उत्कर्ष सूचित करने में वर्णन-पद्धति-मात्र का भेद है-दोनों का फल समान है। ____ आचार्य उद्भट ने व्यतिरेक को परिभाषित करते हुए कहा है कि 'उपमान
और उपमेय का विशेषापादन अर्थात् उत्कर्ष-वर्णन व्यतिरेक है।'' तिलक ने 'विवृति' में इस कथन की व्याख्या करते हुए उद्भट की व्यतिरेक-विषयक मान्यता को भामह की तद्विषयक मान्यता से अभिन्न सिद्ध करने का आयास किया है। उनके अनुसार उपमेय का उत्कर्ष तथा उपमान का अपकर्ष उद्भटसम्मत व्यतिरेक-लक्षण है। तिलक की यह व्याख्या पूर्वाग्रहपूर्ण जान पड़ती है। 'उपमानोपमेययोः विशेषापादनम्', इस कथन से 'उपमान का अपकर्ष और उपमेय का उत्कर्ष' अर्थ निकालना कल्पना-विलास-सा लगता है, जिस पर भामह की मान्यता की छाप स्पष्ट है। इन्दुराज ने लघुवृत्ति-टीका में उद्भट के उक्त कथन का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि 'उसमें (व्यतिरेक में) उपमान से उपमेय का अथवा उपमेय से उपमान का आधिक्य वर्णित होता है; इसलिए उसका व्यतिरेक व्यपदेश है ।'स्पष्टतः उद्भट की व्यतिरेक-. धारणा पर आचार्य दण्डी का पुष्कल प्रभाव है।
वामन ने व्यतिरेक का केवल एक रूप-'उपमान से उपमेय का गुणाधिक्य-वर्णन-रूप'—स्वीकार किया है।४ रुद्रट ने स्पष्ट शब्दों में व्यतिरेक के दो रूपों का उल्लेख किया है। एकत्र उन्होंने व्यतिरेक में उपमेय के गुण के प्रतिपन्थी दोष का उपमान में उल्लेख वाञ्छनीय माना है और अपरत्र उसमें उपमान के गुण के प्रतिपन्थी दोष का उपमेय में निर्देश अपेक्षित बताया है।५ पहला उपमेयाधिक्य-वर्णन-रूप व्यतिरेक है और दूसरा उपमानाधिक्य१. विशेषापादनं यत्स्यादुपमानोपमेययोः ।
-उद्भट, का० अ० सा० सं० २,१२ २. स च उपमेयोत्कर्षापमाननिकर्षरूपव्यतिरेकनिमित्तस्योपादाने उत्कर्ष-. निकर्षो भयनिमित्तानां पर्यायेणानुपाढाने च भवतीति चतुर्भदः ।।
-वही, विवृति, पृ० २५ ३. तत्र ह्य पमानादुपमेयस्योपमेयादुपमानस्य वा केनचिद् विशेषणातिरेक' __ आधिक्यं ख्याप्यते तस्माद् व्यतिरेकः।-लघुवृत्ति, पृ० ३५ ४. उपमेयस्य गुणातिरेकित्वं व्यतिरेकः ।-वामन का० अ० सू० ४,३,२२
तथा वृत्ति-उपमेयस्य गुणातिरेकित्वं गुणाधिक्यं यद् अर्थादुपमानात्
स व्यतिरेकः। ५. यो गुण उपमेये स्यात् तत्प्रतिपन्थी च दोष उपमाने ।
x
X
उपमाने वा तत्प्रतिपन्थी च दोष उपमेये।
-रुद्रट, काव्यालं. ७,८६-८६:
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४७६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
वर्णन-रूप । इस प्रकार भामह तथा दण्डी की रचनाओं में निहित व्यतिरेक विषयक विचार-बिन्दु क्रमशः वामन और रुद्रट की कृतियों में स्पष्ट रूप पाकर समानान्तर रेखाओं की तरह आगे बढ़ा।
कुन्तक ने दण्डी के मतानुसार उपमान और उपमेय के बीच शाब्द या 'प्रतीयमान धर्मसाम्य के रहने पर प्रस्तुत के उत्कर्ष-साधन के लिए दोनों का व्यतिरेचन अर्थात् भेद-कथन व्यतिरेक का लक्षण माना है।' आचार्य रुय्यक ने भी दण्डी, उद्भट, रुद्रट तथा कुन्तक की तरह उपमान से उपमेय के आधिक्यवर्णन तथा उपमेय से उपमान के आधिक्य-वर्णन में समान रूप से व्यतिरेक अलङ्कार का सद्भाव माना है ।२ उपमान से उपमेय तथा उपमेय से उपमान के आधिक्य वर्णन में-दोनों स्थितियों में व्यतिरेक की सत्ता मानने वाले : आचार्यों की पंक्ति में परिगणनीय हैं-विश्वनाथ, विद्याधर, शोभाकर, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित, हेमचन्द्र, वाग्भट, केशव मिश्र, विश्वेश्वर आदि । मम्मट तथा पण्डितराज जगन्नाथ केवल उपमान से उपमेय के आधिक्य-वर्णन में व्यतिरेक · का सद्भाव मानने के पक्ष में हैं। वत्सलाञ्छन, कर्णपूर आदि इसी मत के . अनुयायी हैं।
स्पष्ट है कि उपमान से उपमेय के गुणोत्कर्ष-वर्णन में व्यतिरेक का सद्भाव मानने में सभी आचार्य एक-मत हैं; पर उपमेय से उपमान के आधिक्य-वर्णन में व्यतिरेक मानने के प्रश्न को लेकर दो मत हैं। मम्मट, जगन्नाथ आदि की व्यतिरेक-मान्यता इस युक्ति पर आधृत है कि उपमान का गुणोत्कर्ष तो पूर्वस्वीकृत ही रहता है। अलङ्कार-योजना में कवि का उद्देश्य उस उत्कृष्टगुणवान् उपमान के साथ तुलना कर उपमेय का उत्कर्ष-साधन रहता है। अतः, उपमान से उपमेय का सादृश्य, अभेद तथा आधिक्य बताने में अलङ्कारत्व असन्दिग्ध है; पर उपमेय से उपमान के गुणोत्कर्ष-वर्णन में क्या चमत्कार होगा जब कि उपमान का गुणोत्कर्ष सर्वविदित ही रहता है ? इस प्रश्न का समाधान कठिन नहीं। निश्चय ही उपमान के साथ उपमेय की
१. सति तच्छब्दवाच्यत्वे धर्म साम्येऽन्यथास्थितेः। व्यतिरेचनमन्यस्मात् प्रस्तुतोत्कर्ष सिद्धये । शाब्दः प्रतीयमानो वा व्यतिरेकोऽभिधीयते ॥
–कुन्तक, वक्रोक्तिजी० ३,३५ २. भेदप्राधान्य उपमानादुपमेयस्याधिक्ये विपर्यये वा व्यतिरेकः ।
-रुय्यक, अलं० सर्वस्व, सूत्र सं० २८
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[४७७
तुलना में कवि का उद्देश्य उपमेय का उत्कर्ष-साधन रहता है । यह उद्देश्य उपमेय के आधिक्य-वर्णन में प्रत्यक्षतः सिद्ध होता है; पर उपमान का उत्कर्ष तथा उपमेय की उससे हीनता बताकर भी कवि प्रकारान्तर से उपमेय का गुणोत्कर्ष-साधन कर लेता है । यह कवि की उक्ति की विलक्षणता होती है कि वह शब्दत: उपमेय से उपमान को उत्कृष्ट कहकर या उपमेय को उपमान से हीन कहकर भी उपमेय का गुणोत्कर्ष प्रकारान्तर से सिद्ध कर लेता है । व्यतिरेक के इस रूप में उपमेय की हीनता शाब्द होती है तथा उसका उत्कर्ष आक्षिप्त । वर्ण्य को प्रत्यक्षतः हीन कहकर भी उसके उत्कर्ष-साधन की चमत्कारपूर्ण उक्ति में अलङ्कारत्व मानना उचित ही है। इस प्रकार उपमान और उपमेय का सादृश्य बताकर सादृश्य का निषेध; उपमान से उपमेय का आधिक्य वर्णन;; उपमेय से उपमान का आधिक्य-वर्णन; उपमान से उपमेय की हीनता का वर्णन :: तथा उपमेय से उपमान की हीनता का वर्णन-ये व्यतिरेक के स्वरूप हैं। व्यतिरेक-भेद
आचार्य दण्डी ने व्यतिरेक के शब्दोपात्त तथा प्रतीयमान भेदों की कल्पना कर श्लेष तथा अश्लेष के आधार पर भी उसके भेदोपभेद स्वीकार किये ।। परवर्ती काल में व्यतिरेक की भेद-कल्पना के ये आधार स्वीकृत रहे हैं। उपमान और उपमेय में से एक के उत्कर्ष तथा दूसरे के अपकर्ष के कथित तथा अकथित होने के आधार पर भी व्यतिरेक के भेदोपभेदों की कल्पना हई है। भोज ने व्यतिरेक के मुख्य छह भेद माने हैं और उनके अनेक उपभेदों की कल्पना की है ।२ विश्वनाथ ने अपने पूर्ववर्ती सभी आचार्यों के व्यतिरेकविभाग के आधारों को समन्वित रूप से स्वीकार कर व्यतिरेक के अड़तालीस भेद किये हैं। विश्वनाथ के बाद प्रस्तुत अलङ्कार के नवीन भेदों की कल्पना १. दण्डी के अनुसार व्यतिरेक के-एकव्यतिरेक, उभयव्यतिरेक, सश्लेष
व्यतिरेक, साक्ष पव्यतिरेक, सहेतुकव्यतिरेक, प्रतीयमानसादृश्यव्यतिरेक शाब्दसादृश्यसदृशव्यतिरेक, प्रतीयमानसादृश्यसदृशव्यतिरेक तथा सजातिव्यतिरेक भेद होते हैं ।
-द्रष्टव्य, काव्यादर्श २, १८०-६८ २. द्रष्टव्य, भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ३,३३-१०२ ३. व्यतिरेकः एक उक्त हेतौ नोक्त स च त्रिधा।
चतुर्विधोऽपि साम्यस्य बोधनाच्छब्दतोऽर्थतः ।। आक्षेपाच्च द्वादशधा श्लेषेऽपीति त्रिरष्टधा। प्रत्येकं स्यान्मिलित्वाष्टचत्वारिंशद्विधः पुनः ॥
-विश्वनाथ, साहित्यद० १०,७१'
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४७८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
नहीं हुई है । विश्वनाथ ने आचार्य मम्मट के व्यतिरेक-भेदों को भी स्वीकार किया है । मम्मट केवल उपमेय के आधिक्य वर्णन में व्यतिरेक का सद्भाव मानते थे । उन्होंने उसके चौबीस भेद किये थे । वे भेद निम्नलिखित हैं
(१) जिसमें उपमेय के उत्कर्ष एवं उपमान के अपकर्ष का हेतु उक्त हो । • हेतु के अनुक्त होने के तीन प्रकार - उत्कर्ष के हेतु का अनुक्त होना, अपकर्ष के " हेतु का अनुक्त होना, तथा दोनों का अनुक्त होना - के आधार पर अनुक्त निमित्त तीन भेद । ये चारो सादृश्य के शाब्द, आर्थ तथा आक्षिप्त होने के आधार पर तीन-तीन प्रकार के हो जाते हैं । पुनः, श्लिष्ट तथा अश्लिष्ट-भेद से ये बारह प्रकार के व्यतिरेक चौबीस प्रकार के हो जाते हैं । विश्वनाथ ने — मम्मट के द्वारा कल्पित व्यतिरेक के उक्त चौबीस भेदों को स्वीकार किया है । वे उपमान के आधिक्य वर्णन में भी व्यतिरेक मानते थे । अतः, उपमानाधिक्य रूप व्यतिरेक के भी उक्त आधार पर ही चौबीस भेद उन्होंने माने हैं । इस प्रकार उनके अनुसार उपमेयाधिक्य रूप व्यतिरेक तथा उपमानाधिक्य रूप व्यतिरेक के चौबीस चौबीस भेद हो जाते हैं । नीचे की तालिका में व्यतिरेक के भेदोपद स्पष्ट किये जा सकते हैं -
- उक्त हेतु (१)
व्यतिरेक
- अनुक्त हेतु -
)
(अनुक्तउत्कर्ष हेतु (२) अनुक्तापकर्ष हेतु (३) अनुक्त उभय हेतु (४)) श्लिष्ट ( १२ )
अश्लिष्ट (१२) = २४
(
शाब्द सादृश्य ( ४ ) आर्थ सादृश्य (४) आक्षिप्त सादृश्य (४) = १२ उपमेयाधिक्य (२४)
उपमानाधिक्य (२४) =४८
दृष्टान्त
दृष्टान्त अलङ्कार का निरूपण सर्वप्रथम उद्भट ने किया । उन्होंने इसे काव्य दृष्टान्त व्यपदेश दिया था । दृष्टान्त के साथ काव्य शब्द के प्रयोग का उद्देश्य न्याय आदि में प्रचलित दृष्टान्त से दृष्टान्त अलङ्कार की धारणा का भेद-निरूपण था । उद्भट के परवर्ती आचार्यों में से वामन को छोड़, प्रायः सभी आचार्यों ने दृष्टान्त का अस्तित्व स्वीकार कर उसका लक्षण -निरूपण किया है । पर उन आचार्यों ने नाम के साथ काव्य का प्रयोग अनावश्यक समझ कर केवल दृष्टान्त नाम का प्रयोग किया है । वस्तुतः अलङ्कार के नाम के -साथ काव्य शब्द का उल्लेख आवश्यक नहीं है । अलङ्कार का क्षेत्र केवल - काव्यात्मक उक्ति है । अतः, काव्य शब्द का प्रयोग न करने पर भी शास्त्रीय
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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ४७ दृष्टान्त तक दृष्टान्त अलङ्कार की अतिव्याप्ति की प्राप्ति नहीं होती और अप्राप्त अतिव्याप्ति के निषेध के लिए अलङ्कार की संज्ञा के साथ अतिरिक्त शब्द प्रयोग अनावश्यक है ।
आचार्य उद्भट ने दृष्टान्त अलङ्कार का मूलाधार प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत ACT बिम्बप्रतिबिम्ब-सम्बन्ध माना था । दृष्टन्त की परिभाषा में उन्होंने कहा था कि जहाँ इष्ट अर्थ अर्थात् प्रस्तुत के प्रतिबिम्ब का स्पष्ट निदर्शन हो, वहाँ दृष्टान्त अलङ्कार होता है । बिम्ब का यह प्रतिबिम्ब - निदर्शन 'यथा', 'इव' आदि सादृश्यवाचक शब्दों से रहित होता है । इस अलङ्कार में धर्मी और धर्म का पूर्ण चित्र बिम्ब बन कर उभड़ता है और कवि अन्य प्रतिबिम्ब से उसकी एकता का बोध कराना चाहता है । इस प्रकार बिम्बप्रतिबिम्ब - भाव धर्म तथा धर्मी दोनों का हो सकता है। इसमें अप्रस्तुत की योजना का उद्देश्य प्रस्तुत की स्पष्ट प्रतीति कराना है । दोनों के बीच उपमानोपमेय - भाव शाब्द नहीं होता, गम्य रहता है । कवि वर्ण्य का वर्णन कर उसकी स्पष्ट प्रतीति के लिए उसके समान वृत्तान्त का निदर्शन प्रस्तुत कर देता है । इसीलिए उद्भट ने इसे 'यथा', 'इव' आदि सादृश्यवाचक शब्दों से शून्य कहा है ।
आचार्य रुद्रट ने दृष्टान्त - लक्षण में 'बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव' इस पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग न कर उसी तथ्य को शब्दान्तर से और स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया है । उनकी दृष्टान्त परिभाषा इस प्रकार है— जहाँ प्रस्तुत एवं अप्रस्तुत अर्थविशेषों में से कोई अर्थविशेष जिस धर्म से युक्त होकर पहले वर्णित हो उसी के सदृश धर्म से युक्त अन्य वस्तुविशेष का न्यास किया जाय, वहाँ दृष्टान्त अलङ्कार होता है ।" 'अर्थविशेष' शब्द के उपादान की सार्थकता अर्थान्तरन्यास से भेद - ख्यापन में बतायी गयी है, जिसमें सामान्य और विशेष में से एक उपमेय और दूसरा उपमान होता है । दृष्टान्त में विशेष अर्थ ही उपमेय और उपमान होता है । उभयन्यास का सत्सामान्यत्व उसे दृष्टान्त से अलग करता है अर्थात् उभयन्यास में दो अर्थों में सामान्य
१. इष्टस्यार्थस्य विस्पष्टप्रतिबिम्ब निदर्शनम् । वादिपदैः शून्यं बुधैर्दृष्टान्त उच्यते ॥
—उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह, ६, १६
२. अर्थविशेषः पूर्वं यादृङ्न्यस्तो विवक्षितेतरयोः । तादृशमन्यं न्यस्येद्यत्र पुनः सोऽत्र दृष्टान्तः ।।
—– रुद्रट, काव्यालङ्कार, ८, ६४
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४५० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
विद्यमान रहता है; पर दृष्टान्त में सामान्य विद्यमान नहीं रहता । यही बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव का वस्तुप्रतिवस्तु-भाव से तात्त्विक भेद है । बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव में दो पदार्थों के धर्मों में तात्त्विक अभेद न रहने पर भी अभेद का अध्यवसाय या प्रतिपत्ता को अभेद की प्रतीति होती है, जब कि वस्तुप्रतिवस्तु भाव में तत्त्वत: अभिन्न धर्म का शब्द भेद से दो बार उपादान होता है । पारिभाषिक शब्दावली की दुर्बोधता के सरलीकरण का आयास रुद्रट ने दृष्टान्त के लक्षण में किया है । रुद्रट ने दृष्टान्त के दो उदाहरण दिये हैं । एक में प्रस्तुत का पहले उल्लेख कर उसी के सदृश धर्म वाले अप्रस्तुत का न्यास दिखलाया गया है तथा दूसरे में अप्रस्तुत का निर्देश कर उसके सदृश प्रस्तुत का न्यास दिखाया गया है । स्पष्टतः, रुद्रट ने दृष्टान्त के दो रूप माने हैं(१) प्रस्तुत का पूर्व निर्देश कर उसके सदृश धर्म वाले अप्रस्तुत का न्यास तथा (२) अप्रस्तुत का पूर्व निर्देश कर उसके सदृश प्रस्तुत का न्यास ।
कुन्तक ने आचार्य रुद्रट की ही तरह दृष्टान्त की परिभाषा में बिम्बप्रतिबिम्ब पद का उल्लेख न कर कहा कि जहाँ वस्तुओं के ( दृष्टान्त और दान्तिक के ) सादृश्य के कारण वर्ण्य वस्तु से भिन्न अन्य वस्तु का अर्थात् उपमान का प्रदर्शन होता हो, वहाँ दृष्टान्त अलङ्कार होता है ।' स्पष्टतः, यह धारणा रुद्रट आदि की दृष्टान्त-धारण से अभिन्न है ।
आचार्य मम्मट ने उद्भट की तरह दृष्टान्त- लक्षण में प्रतिबिम्ब शब्द का प्रयोग किया। उनके अनुसार उपमान, उपमेय तथा साधारण धर्म आदि सभी का प्रतिबिम्बन अर्थात् बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव दृष्टान्त में अपेक्षित है । मम्मट ने दृष्टान्त संज्ञा की सार्थकता दो धर्मियों या धर्मों में सादृश्य कारण होने वाले अभेद-बोध में मानी है । बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव में धर्म तत्त्वतः भिन्नभिन्न रहते हैं पर सादृश्य के कारण अभिन्न से प्रतीत होते हैं और उनका दो बार उपादान होता है । अन्त या निश्चय ( दो में अभिन्नता की निश्चयात्मक प्रताति) के दृष्ट होने के कारण इसे दृष्टान्त कहते हैं ।
१. वस्तुसाम्यं समाश्रित्य यदन्यस्य प्रदर्शनम् । दृष्टान्तनामालङ्कारः ॥ - कुन्तक, वक्रोक्ति जी० २. दृष्टान्तः पुनरेतेषां सर्वेषां प्रतिबिम्बनम् ॥ धर्मादीनां दृष्टोऽन्तो निश्चयो यत्र स दृष्टान्तः ।
३,३८
- एतेषां साधारण --
तथा -
— मम्मट, काव्यप्र० १०,१५५ तथा उसकी वृत्ति पृ० २५२
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४८१
रुय्यक की दृष्टान्त - परिभाषा मम्मट की उक्त परिभाषा से अभिन्न है । उन्होंने उपमान और उपमेय के साथ साधारण धर्म का भी बिम्बप्रतिबिम्बतया निर्देश दृष्टान्त का स्वरूप माना है । इस प्रकार धर्मी और धर्म; दोनों को लेकर दृष्टान्त का विधान मम्मट, रुय्यक आदि को अभीष्ट है ।
परवर्ती आचार्यों ने दृष्टान्त का यही स्वरूप स्वीकार किया है । पण्डित - राज जगन्नाथ ने इस तथ्य को स्पष्ट किया है कि दृष्टान्त में धर्म के साथ धर्मी का भी दो बार उपादान होता है । आचार्यों की दृष्टान्तविषयक मान्यता का निष्कर्ष निम्नलिखित है
(क) दो वस्तुओं में बिम्बप्रतिबिम्ब भाव दिखाना दृष्टान्त अलङ्कार है 1 (ख) बिम्बप्रतिबिम्ब - भाव उपमान, उपमेय और धर्म का भी होता है । (ग) बिम्बप्रतिबिम्ब का कारण सादृश्य होता है । तत्त्वतः भिन्न धर्म के होने पर भी दोनों के सादृश्य के के लिए दो बार उपादान होता है ।
दूसरे शब्दों में, इसमें कारण अभेद - प्रत्यायन
(घ) साधर्म्य और वैधर्म्य; दोनों से बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव हो सकता है । दृष्टान्त भेद
दृष्टान्त के अधिक भेदोपभेद की कल्पना नहीं की गयी है । धर्म तथा धर्मी के बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव- प्रदर्शन के आधार पर इसके दो भेद माने जा सकते हैं । बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव साधर्म्य तथा वैधर्म्य; दोनों से होता है । इस प्रकार साधर्म्य और वैधर्म्य के भेद से उक्त दो भेद के चार उपभेद हो जाते हैं ।
निदर्शना
सर्वप्रथम आचार्य भामह के 'काव्यालङ्कार' में निदर्शना अलङ्कार का स्वरूप - निरूपण मिलता है । भामह ने इसे परिभाषित करते हुए कहा है कि 'जहाँ त्रिया के द्वारा ही यथा, इव आदि के प्रयोग के बिना विशिष्ट अर्थ का
१. तस्यापि बिम्बप्रतिबिम्बतया निर्दशे दृष्टान्तः । तथा — तस्यापि न केवलमुपमानोपमेययाः । तच्छब्देन सामान्यलक्षणो धर्मः प्रत्यवमृष्टः । — रुय्यक, अलङ्कार सर्वस्व सूत्र २६ तथा उसकी वृत्ति पृ० ७८ २. द्रष्टव्य, जगन्नाथ, रसगंगा० पृ० ५३२-३३
३१
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४८२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उपदर्शन होता है, वहाँ निदर्शना नामक अलङ्कार होता है ।" अभिप्राय यह कि किसी क्रिया के वर्णन से अन्य विशिष्ट अर्थ का निदर्शन निदर्शना है । उदाहरणार्थ, सूर्य का कान्तिहीन होकर अस्तोन्मुख होना अभ्युदय के बाद पतन का बोध कराता है । इसी तरह प्रभात काल में सूर्य का उदित होना पराभव के उपरान्त अभ्युदय की सूचना देता है । ऐसे कथन में – किसी विशेष क्रिया से विशिष्ट अर्थावबोध के कथन में - भामह के अनुसार निदर्शना होती है ।
आचार्य दण्डी ने निदर्शना को कुछ नवीन रूप में परिभाषित किया है । उनके अनुसार किसी कार्यान्तर में प्रवृत्त होने पर उसके अनुरूप किसी अच्छे या बुरे फल का निदर्शन निदर्शना अलङ्कार का स्वरूप है । २ स्पष्टतः, दण्डी की निदर्शन - परिभाषा में एक कार्य से अन्य अर्थ के निदर्शन की धारणा भामह की निदर्शना धारणा के समान है; पर दण्डी ने सत् एवं असत् ( अच्छे तथा बुरे ) फल के निदर्शन का तत्त्व निदर्शना में जोड़ दिया है । तात्त्विक दृष्टि से दण्डी की निदर्शना का स्वरूप भामह - कल्पित निदर्शना के स्वरूप से भिन्न नहीं । एक क्रिया से अन्य कार्य का निदर्शन निदर्शना में दोनों आचार्यों को अभीष्ट है । एक क्रिया अपने समान उत्कृष्ट या निकृष्ट अर्थ का निदर्शन बन सकती है । भामह ने निदर्शना का जो उदाहरण दिया था, वह असत् - फल निबन्धना निदर्शना का उदाहरण था, जिसमें अस्तोन्मुख सूर्य के निस्तेज होकर उदय के उपरान्त पतन की सूचना देने का वर्णन है । भामह की निदर्शना के सामान्य स्वरूप में सत्फल - निबन्धना की भी सम्भावना निहित थी । दण्ड ने उसके दोनों रूपों का स्पष्ट विवेचन किया । यही उनका श्रेय है ।
उद्भट ने अपने पूर्ववर्ती भामह तथा दण्डी; दोनों की निदर्शना - परिभाषा को अस्वीकार कर उसे नवीन रूप में परिभाषित किया है । उनकी मान्यता है कि 'जहाँ दो वस्तुओं का सम्बन्ध - चाहे वह उपपन्न हो या अनुपपन्न - उपमानोपमेय-भाव में पर्यवसित होता है - वहाँ निदर्शना होती है ।'
3
१. क्रिययैव विशिष्टस्य तदर्थस्योपदर्शनात् ।
ज्ञेया निदर्शना नाम यथेववतिभिर्विना ॥ - भामह, काव्यालं० ३,३३ २. अर्थान्तरप्रवृत्त ेन किञ्चित् तत्सदृशं फलम् । सदसद्वा निदर्श्यत यदि तत्स्यान्निदर्शनम् ॥
- दण्डी, काव्यादेश, २,३४८
३, अभवन्वस्तुसम्बन्धो भवन्वा यत्र कल्पयेत् । उपमानोपमेयत्वं कथ्यते सा निदर्शना ।।
- उद्भट, काव्यालं ० सारसं ० ५,१८
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [४८३ वस्तु-सम्बन्ध अन्वय के अभाव में अनुपपन्न होता है और अन्वय रहने पर उपपन्न । उद्भट दोनों ही स्थितियों में सम्बन्ध के उपमा में पर्यवसान होने पर निदर्शना अलङ्कार का सद्भाव मानते हैं ।
वामन ने भामह की निदर्शना-धारणा को स्वीकार कर सूत्रबद्ध किया है। उनका कथन है कि 'जहां शुद्ध क्रिया से ही एक वस्तु विशिष्ट अर्थ से (अर्थान्तर से) अपना सम्बन्ध निदर्शित करती हो, वहाँ निदर्शना होती है।' इस प्रकार भामह तथा उद्भट की निदर्शना-धारणा अलग-अलग विकसित हो रही थी। भामह के अनुयायी क्रिया से एक अर्थ का विशिष्ट अर्थ से सम्बन्ध-ख्यापन निदर्शना का लक्षण मान रहे थे । दूसरी ओर उद्भट के अनुयायी दो वस्तुओं के सम्भव अथवा असम्भव सम्बन्ध का उपमानोपमेय भाव में पर्यवसित होना उसका लक्षण मानते थे। आचार्य मम्मट ने उक्त दोनों मतों को समन्वित रूप में स्वीकार किया। उन्होंने उद्भट के निदर्शना-लक्षण को अंशतः ही ग्राह्य समझा। वस्तु-सम्बन्ध के असम्भव होने-मात्र के स्थल में दोनों के बीच उपमानोपमेय का प्रकल्पन उनके अनुसार निदर्शना का लक्षण है ।२ स्पष्टतः, उन्होंने उद्भट की निदर्शना का एक ही भेद-अभवद्वस्तुसम्बन्धा भेदस्वीकार किया है। उन्होने वामन की निदर्शना-परिभाषा को, जो भामह की मान्यता पर आधृत है, स्वीकार कर उसे निदर्शना का एक स्वीकार्य प्रकार माना है।3 परवर्ती आचार्यों में शोभाकर ने मम्मट के मत का अनुसरण करते हुए केवल असम्भववस्तुसम्बन्धा निदर्शना का ही अस्तित्व स्वीकार किया है।
आचार्य रुय्यक ने उद्भट की निदर्शना-धारणा का प्रभूत प्रभाव ग्रहण किया है। उन्होंने उद्भट की 'निदर्शना-परिभाषा' में प्रयुक्त 'उपमानोपमेयत्व' के स्थान पर प्रतिबिम्बकरण' शब्द का प्रयोग किया है। इस प्रकार रुय्यक
१. क्रिययव स्वतदर्थान्वयख्यापन निदर्शनम् ।
-वामन, काव्यालं० सू० ४,३,२० निदर्शना......... २. अभवन्वस्तुसम्बन्ध उपमापरिकल्पकः।-मम्मट, काव्यप्र० १०, १४६ ३. स्वस्वहेत्वन्वयस्योक्तिः क्रिययैव च साऽपरा। वही, १०, १५० ४. असति सम्बन्धे निदर्शना ।-शोभाकर, अलङ्कार रत्नाकर, सूत्र १८ ५. सम्भवतासम्भ वता वा वस्तुसम्बन्धेन गम्यमानं प्रतिबिम्बकरणं निदर्शना।
-रुय्यक, अलङ्कार-सूत्र सं० २७
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४८४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
के अनुसार दो वस्तुओं का सम्भव या असम्भव सम्बन्ध जहाँ विम्बप्रतिबिम्ब की प्रतीति कराता हो, वहाँ निदर्शना अलङ्कार होता है ।' बिम्बप्रतिबिम्ब में दो वस्तुओं के बीच सादृश्य का अनुभव वाञ्छनीय होता है । इससे स्पष्ट है कि रुय्यक उद्भट की ही तरह निदर्शना को सादृश्यमूलक मानते हैं । विश्वनाथ ने रुय्यक की तरह वस्तु सम्बन्ध के सम्भव होने तथा असम्भव होने पर दोनों के बीच बिम्बप्रतिबिम्ब की कल्पना को निदर्शना का स्वरूप माना है । अप्पय्य दीक्षित ने निदर्शना के सम्बन्ध में पूर्वप्रचलित प्रायः सभी मान्यताओं को स्वीकार कर उन्हें पृथक्-पृथक् निदर्शना-प्रकार के रूप में परिभाषित किया है | २ पण्डितराज जगन्नाथ की निदर्शना - परिभाषा रुय्यक की परिभाषा से मिलती-जुलती है । 3
विभिन्न आचार्यों की निदर्शना धारणा का सार निम्नलिखित है --
(क) एक क्रिया का दूसरे विशिष्ट अर्थ के निदर्शन के रूप में वर्णन निदर्शना है । क्रिया सत् और असत्; दोनों प्रकार के अर्थों का निदर्शन हो सकती है ।
(ख) दो वस्तुओं के सम्बन्ध के असम्भव होने पर उनके बीच उपमानोप-भाव या बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव की कल्पना निदर्शना है ।
(ग) दो वस्तुओं के सम्भव सम्बन्ध होने पर भी उनमें उपमानोपमेय या बिम्बप्रतिबिम्ब की कल्पना में कुछ आचार्य निदर्शना मानते हैं ।
निदर्शना-भेद
निदर्शना के एकवाक्यगत तथा अनेक वाक्यगत होने के आधार पर क्रमश: उसके पदार्थवृत्ति या एकत्राक्यगा भेद और वाक्यार्थवृत्ति या अनेकवाक्यगा भेद माने गये हैं । फिर माला और शृङ्खला भेद से निदर्शना के दो और भेद कल्पित हैं । साधारण धर्म की अनुगामिता ( उपमानोपमेय-भाव ), वस्तुप्रतिवस्तुभाव एवं बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव के आधार पर निदर्शना के तीन भेदों की कल्पना की गयी है । वस्तुसम्बन्ध के सम्भव तथा असम्भव होने के आधार पर निदर्शना के दो भेद किये गये हैं । असम्भवद्वस्तुसम्बन्धा - निदर्शना में वस्तु
१. द्रष्टव्य, विश्वनाथ, साहित्यद० १०, ७०
२. द्रष्टव्य, अप्पय्य दीक्षित, कुवलया० ५३, ५६
३. उपात्तयोरर्थयोरार्थाभेद औपम्यपर्यवसायी निदर्शना ।
—जगन्नाथ, रसगङ्गाधर पृ० ५३६ तुलनीय रुय्यक, अलङ्कार सू० २७
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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ४८५ सम्बन्ध की अनुपपत्ति भाव-रूप में भी हो सकती है और आक्षिप्त रूप में भी । इस आधार पर असम्भवद्वस्तुसम्बन्धा निदर्शना के दो भेद सम्भव हैं । उपमेय में उपमान-वृत्त के असम्भव होने तथा उपमान-वृत्त में उपमेय-वृत्त के असम्भव होने के आधार पर उनके दो-दो उपभेद माने जा सकते हैं ।
प्रतिवस्तूपमा
आचार्य भामह ने उपमा के एक भेद के रूप में प्रतिवस्तूपमा का स्वरूपनिरूपण किया था । पीछे चलकर प्रतिस्तूपमा का उपमा से स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकृत हुआ । आचार्य दण्डी ने भी भामह की तरह ही इसे उपमा का एक भेद मानकर उपमा-प्रपञ्च में इसका विवेचन किया है । उद्भट ने सर्वप्रथम प्रतिवस्तूपमा का स्वतन्त्र अस्तित्व प्रतिपादित किया । उन्होंने इससे मिलतेजुलते स्वरूप वाले दृष्टान्त आदि से इसका सूक्ष्म भेद भी स्पष्ट कर दिया । किन्तु, प्रस्तुत अलङ्कार के उपमा से स्वतन्त्र अस्तित्व के सम्बन्ध में विवाद शमित नहीं हुआ । उद्भट के उत्तरवर्ती आचार्य वामन ने उद्भट की मान्यता को अस्वीकार कर भामह और दण्डी की तरह प्रतिवस्तूपमा को उपमा का ही एक भेद माना है । इस प्रकार अलङ्कारशास्त्र में इस विषय में दो मत प्रचलित रहे हैं । रुद्रट ने प्रतिवस्तूपमा अभिधान का प्रयोग न कर प्रस्तुत अलङ्कार को उभयन्यास व्यपदेश दिया है । उनका उभयन्यास पूर्वाचार्यों के प्रतिवस्तूपमा अलङ्कार से अभिन्न है ।
मम्मट, रुय्यक, विद्यानाथ, विश्वनाथ, जयदेव, अप्पय्यदीक्षित तथा जगन्नाथ ने प्रतिस्तूपमा को स्वतन्त्र अलङ्कार मानकर उसका स्वरूप- निरूपण किया है ।
प्रतिवस्तूपमा के लक्षण में विशेष विकास नहीं हुआ है । भामह से लेकर रीतिकालोन हिन्दी - आचार्यों तक इसका समान स्वरूप ही विवेचित होता रहा है । भामह ने 'समान वस्तु का न्यास' प्रतिवस्तूपमा में अपेक्षित माना था । उनके अनुसार इसमें सादृश्यवाचक 'यथा' 'इव' आदि शब्दों का उपादान न होने पर भी गुण की साम्य प्रतीति होती है ।' अभिप्राय यह कि प्रतिवस्तूपमा में औपम्य गम्य होता है । एक वाक्य में वस्तु- विशेष का निर्देश कर दूसरे वाक्य में उसके समान अन्य वस्तु का न्यास प्रतिवस्तूपमा का लक्षण है ।
१. समानवस्तुन्यासेन प्रतिवस्तूपमोच्यते ।
यथेवानभिधानेऽपि गुणसाम्यप्रतीतितः ॥ - भामह, काव्यालं० २,३४
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४८६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण इसमें दो वाक्यों में सामान्य का पृथक्-पृथक् निर्देश होता है । प्रतिवस्तूपमा का यही स्वरूप सभी आचार्यों ने स्वीकार किया है। कुछ आचार्यों ने दो वाक्यार्थों में एक सामान्य धर्म के सद्भाव को प्रतिवस्तूपमा का लक्षण माना है तो कुछ ने उसी तथ्य को वाक्यार्थों के बीच वस्तु-प्रतिवस्तु-सम्बन्ध पर बल देकर स्वीकार किया है। ___ स्पष्टीकरण के लिए आचार्यों की प्रति वस्तूपमा-धारणा का विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है :
(क) प्रतिवस्तूपमा का स्वरूप-सङ्घटन दो स्वतन्त्र वाक्यों से होता है ।
(ख) एक वाक्य में निर्दिष्ट किसी वस्तु के समान वस्तु का न्यास दूसरे वाक्य से किया जाता है।
(ग) दो वाक्यों में अलग-अलग साधारण धर्म का निर्देश किया जाता है ।
(घ) यह निर्देश वस्तुप्रतिवस्तुभाव से अर्थात् एक ही धर्म का शब्दान्तर से उल्लेख होता है । साधारण धर्म के लिए दो वाक्यों में पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग इसका वैशिष्ट्य है।
(ङ) इसमें 'यथा' 'इव' आदि सादृश्यवाचक शब्दों का प्रयोग नहीं होता। अतः, दो वाक्यों के बीच औपम्य गम्य रहता है।
(च) साधर्म्य तथा वैधर्म्य, दोनों से औषम्य गम्य हो सकता है। तुल्ययोगिता
आचार्य भामह ने तुल्ययोगिता अलङ्कार को परिभाषित करते हुए कहा था कि जहां न्यून अर्थात् उपमेय का विशिष्ट अर्थात् उपमान से गुण-साम्य विवक्षित रहता है तथा कार्य और क्रिया का समान योग रहता है, वहाँ तुल्ययोगिता नामक अलङ्कार होता है। इस प्रकार भामह की तुल्ययोगिता में दो बातें अपेक्षित मानी गयी हैं—(क) न्यून का विशिष्ट से अर्थात् उपमेय का उपमान १. मम्मट, रुय्यक आदि ने दो वाक्यों में एक ही समान धर्म के दो बार
उल्लेब पर बल दिया है। इस तथ्य के लिए जगन्नाथ ने पारिभाषिक शब्द 'वस्तु-प्रतिवस्तु' का प्रयोग किया है । वस्तुतः, अभिन्न धर्म का
शब्दभेद से दो वाक्यों में दो बार प्रयोग वस्तुप्रतिवस्तुभाव कहलाता है । २. न्यूनस्यापि विशिष्टेन गुणसाम्यविवक्षया । तुल्यकार्यक्रियायोगादित्युक्ता तुल्ययोगिता ॥
-भामह, काव्यालं० ३, २७
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[४८७ से गुण-साम्य विवक्षित होना तथा (ख) कार्य-क्रिया का समान योग । ध्यातव्य है कि भामह ने न्यून शब्द का प्रयोग उपमेय के लिए किया था । कारग यह है कि उपमेय की अपेक्षा उपमान की अधिकता की मान्यता अप्रस्तुत-योजना में अन्तनिहित है। उपमेय में उत्कृष्ट या निकृष्ट गुण जितना रहता है, उससे अधिक उत्कृष्ट या निकृष्ट गुण के लिए प्रसिद्ध उपमान की योजना कवि किया करता है।
आचार्य दण्डी ने भामह की इस तुल्ययोगिता-धारणा को स्वीकार अवश्य किया किन्तु उसे उपमा का एक भेद 'तुल्ययोगोपमा' माना। उनके अनुसार एक क्रिया से हीन अर्थात् उपमेय का अधिक अर्थात् उपमान के साथ साम्य-प्रदर्शन तुल्ययोगोपमा का लक्षण है। तुल्ययोगोपमा का विवेचन कर दण्डी ने उससे स्वतन्त्र तुल्ययोगिता का भी अस्तित्व स्वीकार किया है। तुल्ययोगिता को उन्होंने कुछ नवीन रूप में परिभाषित किया है। यह तुल्ययोगोपमा से तुल्ययोगिता के भेदनिरूपण के लिए आवश्यक था । तुल्ययोगिता की परिभाषा में दण्डी ने कहा कि प्राकरणिक के जिस गुण का-चाहे वह स्तुति का हेतुभूत गुण हो या निन्दा का हेतुभूत-वर्णन अभीष्ट हो, उस गुण से अप्रस्तुत के साथ समीकृत कर प्रस्तुत की स्तुति या निन्दा करना तुल्ययोगिता है । २ स्पष्ट है कि अप्रस्तुत के साथ प्रस्तुत के साम्य-प्रदर्शन की धारणा भामह की तुल्ययोगिता-धारणा के समान ही है; किन्तु स्तुति-निन्दा की धारणा दण्डी ने प्रस्तुत अलङ्कार की परिभाषा में मिलायी है। विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भामह के तुल्ययोगिता-लक्षण में स्तुति-निन्दा आदि की धारणा के लिए भी अवकाश था। भामह के मतानुसार भी उपमान के साथ उपमेय के साम्य-प्रदर्शन में स्तुति और निन्दा की व्यञ्जना होती ही है । भामह ने जो उदाहरण दिया है, उसमें उपमेय का उपमान के साथ साम्य-प्रदर्शन उसकी स्तुति में पर्यवसित होता है। सम्भव है, उसी उदाहरण से प्रेरणा लेकर उसके निन्दा-रूप की भी कल्पना कर ली गयी हो और इस तथ्य को परिभाषा में स्पष्टतः उल्लिखित कर दिया गया हो। १. अधिकेन समीकृत्य हीनमेकक्रिया विधौ । यद्व वन्ति स्मृता सेयं 'तुल्ययोगोपमा' यथा ।।
-दण्डी, काव्यादर्श २, ४८ २. विवक्षितगुणोत्कृष्टर्यत् समीकृत्य कस्यचित् ।
कीतनं स्तुतिनिन्दार्थं सा मता तुल्ययोगिता ॥ - वही, २, ३३०
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४८८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
आचार्य उद्भट ने पूर्ववर्ती दोनों आचार्यों की तुल्ययोगिता-धारणा को अस्वीकार कर उसे नवीन रूप में परिभाषित किया। उन्होंने दो वस्तुओं के साम्य-प्रदर्शन की धारणा तो पूर्वाचार्यों से ली; पर प्रस्तुत और अप्रस्तुत के साम्याभिधान या एक क्रिया-सम्बन्ध की धारणा के स्थान पर अनेक प्रस्तुतों के बीच तथा अनेक अप्रस्तुतों के बीच साम्य-अभिधान की धारणा प्रस्तुत की। इस प्रकार उनके मतानुसार 'उपमान और उपमेय की उक्ति से शून्य अनेक अप्रस्तुतों तथा अनेक प्रस्तुतों के बीच साम्याभिधायी वचन तुल्ययोगिता है।'' अभिप्राय यह कि तुल्ययोगिता में दो या दो से अधिक प्रस्तुतों का अथवा दो या दो से अधिक अप्रस्तुतों का ही साम्य दिखाया जाता है। इसमें औपम्य अनिवार्यतः गम्य ही होता है, क्योंकि सादृश्य के वाचक-पद का प्रयोग इस में नहीं होता। उद्भटकल्पित यह परिभाषा ही परवर्ती काल में बहुमान्य हुई है। तुल्ययोगिता की यह परिभाषा दीपक से तुल्ययोगिता के भेद-निरूपण की दृष्टि से भामह और दण्डी को परिभाषाओं की तुलना में अधिक प्रौढ है। उपमेय और उपमान के बीच एक क्रिया-सम्बन्ध दीपक का क्षेत्र है; पर उपमेय-उपमेय के बीच तथा उपमान-उपमान के बीच एक धर्म का सम्बन्ध तुल्ययोगिता का क्षेत्र है।
उद्भट के उपरान्त तुल्ययोगिता के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। बामन ने भामह आदि की एतद्विषयक मान्यता को ही सूत्रबद्ध किया है ।२ कुन्तक ने तुल्ययोगिता के इस स्वरूप को स्वीकार कर भी उसे उपमा का ही एक भेद बताया है। तुल्ययोगिता को उपमा-भेद मानने में दण्डी की तुल्ययोगोपमा-धारणा का प्रभाव जान पड़ता है। भोज ने आचार्य दण्डी की तरह स्तुति-निन्दा में तुल्ययोगिता का पर्यवसान माना है। उन्होंने स्तुतिनिन्दा के लिए सुखद तथा दुःखद वस्तु की तुल्यता पर बल दिया है । रुय्यक
१. उपमानोपमेयोक्तिशून्य रप्रस्तुतैर्वचः । __ साम्याभिधायि प्रस्तावभाग्भिर्वा तुल्ययोगिता ॥
-उद्भट, काव्यालं० सारसं० ५, ११ २. विशिष्टेन साम्यार्थमेककाल क्रियायोगस्तुल्ययोगिता।
-वामन, काव्यालं० सू० ४, ३-२६ ३. तथैव तुल्ययोगिता सा भवत्युपमा स्फुटा। कुन्तक, वक्रोक्तिजी० ३,३२ ४. भोज ने दण्डी की तुल्ययोगिता-परिभाषा को शब्दश: उद्धत कर
अन्य आचार्यों के मत से सुखद तथा दुःखद वस्तुओं के स्तुतिनिन्दार्थ साम्यप्रदर्शन में तुल्ययोगिता का उल्लेख किया है।
-द्रष्टव्य, सरस्वतीकण्ठाभरण ४, ५४-५५
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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
१
[ ४८ ने उद्भट सम्मत तुल्ययोगिता लक्षण को सूत्रबद्ध करते हुए कहा कि जहाँ औपम्य गम्य हो और पदार्थगत रूप में प्रस्तुतों अथवा अप्रस्तुतों का समान धर्म से सम्बन्ध दिखाया जाय, वहाँ तुल्ययोगिता होती है । ' उद्भट की परिभाषा के 'उपमानोपमेयोक्ति शून्य' पद की जगह रुय्यक ने 'औपम्यस्य गम्यत्वे' पद का उल्लेख किया है । 'समान धर्माभिसम्बन्ध' पद के प्रयोग पर भामह की परिभाषा में प्रयुक्त 'तुल्यकार्यक्रियायोग' का प्रभाव है । उसका पदार्थगतत्व' पूर्ववर्ती आचार्यों को भी मान्य था । मम्मट ने प्रस्तुतों तथा अप्रस्तुतों का एक धर्म से सम्बन्ध तुल्ययोगिता का लक्षण माना है । २ औपम्य की गम्यता तथा तुल्ययोगिता की पदार्थगतता का उल्लेख उन्होंने परिभाषा में आवश्यक नहीं माना । इस प्रकार भामह, दण्डी तथा उद्भट की तुल्ययोगिता - परिभाषाओं में तुल्ययोगिता के उपरिविवेचित तीन स्वरूप प्रस्तुत हुए । आचार्य वामन ने भामह की तुल्ययोगिता विषयक मान्यता का, भोज ने दण्डी की एतद्विषयक धारणा का तथा रुय्यक, मम्मट आदि आचार्यों ने उद्भट की तुल्ययोगितापरिभाषा का समर्थन किया। फलतः, अनेक प्रस्तुतों अथवा अनेक अप्रस्तुतों
एकधर्माभिसंबन्ध ही तुल्ययोगिता की बहुमान्य परिभाषा है । पण्डितराज जगन्नाथ, जयरथ आदि दीपक और तुल्ययोगिता का अलग-अगल अस्तित्व नहीं मानते । रुद्रट ने भी तुल्ययोगिता का उल्लेख नहीं किया था । सम्भव है कि वे भी दीपक से पृथक् तुल्ययोगिता का स्वरूप- निरूपण आवश्यक नहीं मानते हों ।
यह विचारणीय है कि दीपक से स्वतन्त्र तुल्ययोगिता की सत्ता मानी जाय या नहीं । हम यह देख चुके हैं कि दीपक से तत्त्व लेकर ही तुल्ययोगिता आविर्भूत हुई है । अनेक पदार्थों का एक धर्म से सम्बन्ध दोनों का प्रधान
१. औपम्यस्य गम्यत्वे पदार्थगतत्वेन प्रस्तुतानामप्रस्तुतानां वा समानधर्माभिसम्बन्धे तुल्ययोगिता । —रुय्यक, अलं० सर्वस्व सू० सं० २३ २. नियतानां सकृद्धर्मः सा पुनस्तुल्ययोगिता ।
- मम्मट, काव्यप्र० १०, १०४ नियतानां प्राकरणिकानामेव अप्राकरणिकानामेव ॥ - वही, वृत्ति । ३. परम्परा के अनुरोध से तुल्ययोगिता और दीपक को पृथक्-पृथक् परिभाषित करने पर भी जगन्नाथ ने कहा है : - तुल्ययोगितातो दीपकं न पृथग्भावमर्हति । धर्मसकृद्वृत्तिमूलाया विच्छित्तेरविशेषात् । - रसगङ्गाधर पृ० ५१५
४. द्रष्टव्य, प्रस्तुत ग्रन्थ अध्याय २
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४६० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण लक्षण है। फिर भी दोनों के बीच भेदक तत्त्वों की कल्पना होती रही है । अलङ्कार-प्रसार के मूल में ही यह भेदीकरण की प्रवृत्ति अन्तनिहित रही है । एक ही अलङ्कार से जीवन-रस लेकर अनेक अलङ्कार अवतरित हुए हैं । यदि तुल्ययोगिता और दीपक के बीच कल्पित सूक्ष्म भेद की उपेक्षा कर दोनों के अलग-अलग अस्तित्व की कल्पना को अनावश्यक माना जाय तो अलङ्कारशास्त्र में कल्पित अनेक अलङ्कार अपनी प्रकृति से मिलते-जुलते अलङ्कार के व्यापक स्वरूप में ही अन्तभुक्त हो जायेंगे। इस तर्क पर कई आचार्यों ने अलङ्कारों की संख्या को परिमित करने का आयास भी किया है; किन्तु अलङ्कारों की संख्या- स्फीति को रोकने में वे असमर्थ रहे हैं। तुल्ययोगिता में अनेक प्रस्तुतों का अथवा अनेक अप्रस्तुतों का ही एक धर्माभिसम्बन्ध दिखाया जाता है । यही दीपक से उसका भेद है। तुल्ययोगिता-भेद - उद्भट की तुल्ययोगिता-परिभाषा में उसके दो रूप निर्दिष्ट हैं :-(क), अनेक प्रस्तुतों का एकधर्माभिसम्बन्ध तथा (ख) अनेक अप्रस्तुतों का एक धर्माभिसम्बन्ध । इन दो भेदों के साथ दो और भेद 'कुवलयानन्द' में उल्लिखित हैं। हित और अहित में तुल्यवृत्तित्व, जो दण्डी और उनके अनुयायी भोज की मान्यता पर आधृत है और उत्कृष्ट गुण वाले के साथ समीकृत कर कथन, जिस पर भामह-अभिमत तुल्ययोगिता के स्वरूप का प्रभाव है।' विद्याधर ने भी तुल्ययोगिता के चार भेद स्वीकार किये हैं । २ नरसिंह कवि ने 'नञ्जराजयशोभूषण' में द्रव्यतद्भाव, गुणतद्भाव तथा क्रियातद्भाव के भेद से छह प्रकार के धर्मों का प्रकृतगत तथा अप्रकृतगत होने के आधार पर तुल्ययोगिता के बारह भेद बताये हैं। समासोक्ति
समासोक्ति, अर्थ की व्यञ्जना पर आधृत अलङ्कार है । एक के कथन से अन्य अर्थ की व्यञ्जना ही इसका स्वरूप है। समास में एक के कथन-मात्र १. वर्णानामितरेषां वा धमक्यं तुल्योगिता। तथा हिताहिते वृत्तितौल्यमपरा तुल्ययोगिता।
-अप्पय्यदी० कुवलया० ४४, ४६ २. विद्याधर, एकावली ३. द्रव्यतद्भाव-गुणतद्भाव-क्रियातद्भावभेदेन भिन्नानां षण्णां धर्माणां प्रत्येक प्रकृतगतत्वाप्रकृतगतत्वभेदेन तुल्ययोगिताया द्वादश विधत्वम् ।
-नरसिंह कवि, नजराजयशोभूषण ।
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४६१
से-दो अर्थों का बोध कराने के कारण इसका अभिधान अन्वर्थ है। आचार्य भामह से लेकर आधुनिक युग तक के प्रायः सभी आलङ्कारिक समासोक्ति के अलङ्कारत्व के विषय में एकमत हैं; किन्तु समासोक्ति के स्वरूप के सम्बन्ध में आचार्यों में कुछ मतभेद रहा है। अर्वाचीन सभी आचार्य प्रस्तुत के वर्णन से अप्रस्तुत की व्यञ्जना में समासोक्ति का सद्भाव मानते हैं । प्रस्तुत से अप्रस्तुत की व्यञ्जना दोनों में समान रूप से लागू होने वाले विशेषणों के प्रयोग से सम्भव होती है। इस प्रकार समासोक्ति में श्लिष्ट विशेषण का प्रयोग अपेक्षित होता है।
दण्डी आदि आचार्यों ने समासोक्ति के सम्बन्ध में जो धारणा प्रकट की थी, वह इस अर्वाचीन धारणा से भिन्न थी। प्राचीन आचार्यों ने एक की उक्ति से अन्य की व्यञ्जना की धारणा समासोक्ति के लक्षण में व्यक्त की थी, जो कुछ परिवर्तन-संशोधन के साथ 'प्रस्तुत की उक्ति से अप्रस्तुत की व्यञ्जना' की धारणा के रूप में अर्वाचीन आचार्यों के द्वारा स्वीकृत हुई है। __ भामह ने सामान्य रूप से एक की उक्ति से उसके समान विशेषण वाले अन्य अर्थ की व्यञ्जना में समासोक्ति की सत्ता मानी थी। उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया था कि प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत में से किस अर्थ का कथन होगा और कौन दूसरा अर्थ गम्य होगा। उनकी अप्रस्तुत-प्रशंसा-परिभाषा को ध्यान में रखते हुए यह जान पड़ता है कि प्रस्तुत की उक्ति से अप्रस्तुत की अभिव्यक्ति उन्हें समासोक्ति में अभीष्ट होगी; क्योंकि इसके विपरीत अप्रस्तुत के वर्णन (तथा उससे प्रस्तुत की प्रतीति) में वे अप्रस्तुतप्रशंसा मानते हैं ।
दण्डी ने अप्रस्तुत के कथन से प्रस्तुत का व्यञ्जना से बोध समासोक्ति का लक्षण माना। उनके अनुसार जिस वस्तु का वर्णन अभिप्रेत हो, उस प्रस्तुत वस्तु के समान अन्य वस्तु का (अर्थात् अप्रस्त त का) वर्णन समासोक्ति अलङ्कार है।
१. यत्रोक्त गम्यतेऽन्योऽर्थस्तत्समानविशेषणः । ___ सा समासोक्तिरुद्दिष्टा संक्षिप्तार्थतया यथा ॥
-भामह. काव्यालं० २, ७६ २. वही० ३, २६ ३. वस्तु किञ्चिदभिप्रेत्य तत्त ल्यस्यान्यवस्तुनः। उक्तिः संक्षेपरूपत्वात् सा समासोक्तिरिष्यते ॥
-दण्डी, काव्यादर्श २, २०५
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४ε२ ]
अलङ्कार- धारणा : विकास और विश्लेषण
उद्भट ने समासोक्ति को परिभाषित करते हुए कहा कि जहाँ प्रस्तुतार्थ वाक्य समान विशेषणों से अप्रस्तुत अर्थ का भी अभिधान करता है, वहाँ समासोक्ति होती है । इसमें विशेष्य पद प्रस्तुत अर्थ के वाचक होते हैं, केवल समान विशेषणों से अप्रस्तुत अर्थ का कथन होता है । भामह तथा दण्डी से स्वतन्त्र रूप में उद्भट ने समासोक्ति को परिभाषित किया; किन्तु अप्रस्तुत की व्यञ्जना की चर्चा नहीं कर उन्होंने समान विशेषण से अप्रस्तुत के भी कथन ( अभिधा से प्रतिपादन ) को वाञ्छनीय बताया । श्लेष से इसके भेद - निरूपण के लिए उन्होंने 'तत्समान विशेषण : पद का प्रयोग किया है । इसमें विशेष्य चूँकि केवल प्रस्तुत अर्थ के वाचक होते हैं; इसलिए यह श्लेष से भिन्न है । प्रकृतार्थ वाक्य से अप्रस्तुत के भी कथन ( अभिधया प्रतिपादन ) की धारणा इस लक्षण की एक सीमा थी । प्रस्तुत के कथन से अप्रस्तुत के बोध की यह धारणा अर्वाचीन आचार्यों को मान्य है ।
वामन और भोज ने दण्डी के मत का अनुकरण करते हुए अप्रस्तुत के कथन से प्रस्तुत की प्रतीति को समासोक्ति का लक्षण माना है । " रुद्रट ने भी इसी मत का अनुसरण करते हुए कहा कि जहाँ एक उपमान ही उपमेय के साथ घटित होने वाले साधारण विशेषणों के साथ वर्णित होने के कारण उपमेय की प्रतीति कराता है, वहाँ समासोक्ति अलङ्कार होता है । 3
१. प्रकृतार्थेन वाक्येन तत्समानविशेषणः । अप्रस्तुतार्थकथनं समासोक्तिरुदाहृता ॥
- उद्भट, काव्यालं० सारसं० २, २१ २. अनुक्तौ समासोक्तिः । - वामन, काव्यालं ० सू० ४, ३, ३ तथा — उपमेयस्यानुक्तौ समानवस्तुन्यासः समासोक्तिः । वही वृत्ति । और — यत्रोपमानादेवैतदुपमेयं प्रतीयते ।
अतिप्रसिद्ध स्तामाहुः समासोक्ति मनीषिणः ॥
- भोज, सरस्वतीकण्ठा० ४, ४६ ३. रुद्रट, काव्यालं० ८, ६७ तथा - वामन, काव्यालङ्कार, ४,३, ३ त्रकमुपमानमेवोपमेयेन सह सकलसाधारणविशेषणमभिधीयमानं सदुपमेयं गमयेत्सा समासोक्तिः । - वही, वृत्ति, पृ० २७५
रुद्र की समासोक्ति - परिभाषा का हिन्दी रूपान्तर करते हुए डॉ० सत्यदेव चौधरी ने भ्रमवश उसका उलटा अर्थ कर दिया है कि जहाँ कोई उपमेय उपमान से घटित होने योग्य विशेषणों से कथित होने के कारण उपमान की प्रतीति कराये, वहाँ समासोक्ति अलङ्कार होता है । — रुद्रटप्रणीत काव्यालं हिन्दी, पृ० २७
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[४६३
स्पष्ट है कि मम्मट और रुय्यक के पूर्ववर्ती आचार्य अप्रस्तुत के कथन से प्रस्तुत की व्यञ्जना समासोक्ति का लक्षण मान रहे थे। इस मान्यता के विपरीत मम्मट और रुय्यक ने प्रस्तुत के वर्णन से अप्रस्तुत की व्यञ्जना को प्रस्तुत अलङ्कार का स्वरूप माना।' पूर्वाचार्यों की उक्त समासोक्ति-परिभाषा को अप्रस्तुतप्रशंसा के स्वरूप में समाविष्ट कर लिया गया। इस प्रकार मम्मट तथा रुय्यक के बाद प्रस्तुत से अप्रस्तुत की व्यञ्जना समासोक्ति का तथा अप्रस्तुत से प्रस्तुत की व्यञ्जना अप्रस्तुप्रशंसा का व्यवस्थित लक्षण बना । प्रस्तुत से अप्रस्तुत की व्यञ्जना समान विशेषण के प्रयोग के कारण होती है। समासोक्ति की यही परिभाषा परवर्ती आचार्यों को मान्य हुई।
मम्मट की समासोक्ति-परिभाषा की कुछ सीमाएँ हैं। एक तो वे श्लिष्टविशेषण-मात्र से अन्यार्थ अर्थात् अप्रस्तुतार्थ का बोध समासोक्ति में मानते हैं, जब कि अश्लिष्ट विशेषण से भी प्रस्तुत में अप्रस्तुत की प्रतीति हो सकती है, दूसरे, उन्होंने परिभाषा में 'प्रकृतार्थ-प्रतिपादक वाक्य से अप्रकृत अर्थ का अभिधान' माना है। वस्तुतः, इसमें अप्रकृत का बोध व्यञ्जना-शक्ति से होता है। 'अभिधानम्' पद व्यञ्जना से प्रतीति के अर्थ को ठीक-ठीक प्रकट नहीं कर सकता। कहने की आवश्यकता नहीं कि मम्मट की समासोक्ति-परिभाषा पर उद्भट की परिभाषा का प्रभूत प्रभाव है। रुय्यक की समासोक्ति-परिभाषा, 'विशेषण-साम्य से अप्रस्तुत का गम्य होना समासोक्ति है', अधिक उपयुक्त है।
समासोक्ति-भेद
समान विशेषण के निर्देश की तीन प्रक्रियाएं सम्भव हैं-(क) श्लेष के द्वारा, (ख) प्रस्तुत एवं अप्रस्तुत दोनों में साधारण (उभयार्थसाधारण) शब्द के द्वारा तथा (ग) उपमागर्भ शब्द के द्वारा। इस प्रकार क्रमश: श्लिष्टविशेषणा, अश्लिष्टविशेषणा तथा औपम्यगर्भविशेषणा-ये तीन प्रमुख भेद समासोक्ति के हो जाते हैं। अश्लिष्ट विशेषणा के धर्मसमारोपा तथा कार्यसमारोपा-भेद सम्भव हैं। औपम्यगर्भविशेषणा के भी दो भेद-उपमागर्भ
१. परोक्तिभदकैः श्लिष्टः समासोक्तिः।-मम्मट, काव्यप्र० १०,१४८ तथा विशेषणसाम्यादप्रस्तुतस्य गम्यत्वे समासोत्तिः।
-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व सू० सं० ३१
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४६४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
समासमूला तथा सङ्करसमास-मूला हो सकते हैं। इस प्रकार विशेषणसाम्यनिबन्धना समासोक्ति के पांच भेद हो जाते हैं। रुय्यक ने समासोक्ति के प्रधान तीन भेद स्वीकार किये हैं-(१) शुद्धकार्यसमारोपा, (२) विशेषण-साम्यमूला तथा (३) कार्यविशेषण साम्यमूला ।'' शोभाकर ने कार्य और विशेषण का भेद अनुचित मानकर कार्य को भी तत्त्वतः विशेषण ही माना है। यह मान्यता उचित ही जान पड़ती है। विशेषण के व्यापक अर्थ में कार्य भी आ जाता है। थोड़े-से इस भेद की कल्पना की जा सकती है कि कार्यसमारोप में विशेषण-साम्य उपचरित है और अपरत्र अनुपचरित। पर, यह भेद तात्त्विक नहीं है। कार्यविशेषणसाम्यमूला समासोक्ति के सात भेद मानकर रुय्यक ने शास्त्रीय एवं लौकिक वस्तुओं के पारस्परिक व्यवहार-समारोप के आधार पर अनेक अवान्तर भेद किये हैं। समर्थ्य तथा समर्थक वाक्य-गत होने के आधार पर भी समासोक्ति के भेद कल्पित हैं। वह उत्प्रेक्षामूला भी मानी गयी है। समासोक्ति के अनन्त भेदों की सम्भावना रुय्यक ने स्वीकार की है। अप्रस्तुतप्रशसा
भामह ने अप्रस्तुतप्रशंसा को परिभाषित करते हुए कहा था कि जिस वस्तु का वर्णन अभिप्रेत हो, उस वर्ण्य से भिन्न अन्य वस्तु का, अर्थात् अप्रस्तुत का वर्णन किया जाना अप्रस्तुतप्रशंसा है।४ अप्रस्तुतप्रशंसा में प्रशंसा का अर्थ वर्णन-मात्र है । वर्ण्य को छोड़ अन्य के वर्णन की सार्थकता भी वर्ण्य की प्रतीति में ही होगी। अतः, अप्रस्तुत का वर्णन कर प्रस्तुत का व्यञ्जना से बोध कराना भामह के अप्रस्तुतप्रशंसा-लक्षण का सार है । इस अलङ्कार के लक्षण में भामह ने वर्णन के अर्थ में स्तुति शब्द का प्रयोग किया है।
आचार्य दण्डी ने अप्रस्तुतप्रशंसा के प्रशंसा-पद का अर्थ स्तुति मानकर अप्रस्तुत की स्तुति को अप्रस्तुतप्रशंसा का लक्षण माना ।" इसका जो उदाहरण
१. द्रष्टव्य, रुय्यक, अलं० सर्वस्व पृ० ६२ २. शोभाकर, अलङ्कार रत्नाकर, पृ० ७२ ३. एवमियं समासोक्तिरनन्तप्रपञ्चेत्यनया दिशा स्वयमुत्प्रक्ष्या।
-रुय्यक, अलं०.सर्वस्व पृ० १०८ ४. अधिकारादपेतस्य वस्तुनोऽन्यस्य या स्तुतिः । ___ अप्रस्तुतप्रशंसेति सा चैवं कथ्यते यथा ॥–भामह, काव्यालं० ३, २६ ५. अप्रस्तुतप्रशंसा स्यादप्रक्रान्तेषु या स्तुतिः ।
-दण्डी, काव्यादर्श, २, ३४०
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४६५ दण्डी ने दिया है, उसमें अप्रस्तुत की स्तुति का पर्यवसान प्रस्तुत की निन्दा में होता है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दण्डी अप्रस्तुत की स्तुति से प्रस्तुत की निन्दा की प्रतीति में अप्रस्तुतप्रशंसा का सद्भाव मानते थे। 'प्रशंसा का 'वर्णन' अर्थ (जो भामह ने माना था) छोड़ कर 'स्तुति' अर्थ मानना अकारण नहीं था। दण्डी अप्रस्तुत के वर्णन से प्रस्तुत की व्यञ्जना समासोक्ति का लक्षण मानते थे। अतः, यह आवश्यक था कि वे समासोक्ति से अप्रस्तुतप्रशंसा के स्वतन्त्र स्वरूप के प्रतिपादन के लिए अप्रस्तुत के वर्णन के स्थान पर अन्य अर्थ की कल्पना करते । अप्रस्तुतप्रशंसा के नाम में ही उन्हें अन्यार्थकल्पना का सूत्र मिल गया और प्रशंसा का वर्णन' की अपेक्षा अधिक प्रचलित अर्थ 'स्तुति' मानकर उन्होंने प्रस्तुत अलङ्कार का स्वरूप-निरूपण किया। परवर्ती काल में दण्डी की यह मान्यता विशेष समर्थन नहीं पा सकी। दण्डी की अप्रस्तुतप्रशंसा-परिभाषा भामह की परिभाषा से आपाततः अभिन्न जान पड़ती है, पर उसके स्वरूप के सम्बन्ध में दण्डी की मान्यता भामह की मान्यता से तत्त्वतः किञ्चित् भिन्न है।
आचार्य उद्भट ने भामह के अप्रस्तुतप्रशंसा-लक्षण को ही कुछ परिवर्तन के साथ प्रस्तुत किया है । उस परिवर्तन से उद्भट की परिभाषा अधिक स्पष्ट हो पायी है। उन्होंने भामह की तरह अप्राकरणिक का वर्णन अप्रस्तुतप्रशंसा में वाञ्छनीय माना। इसे 'प्रस्तुतार्थनिबन्धिनी' कह कर प्रस्तुत की प्रतीति के तत्त्व को उन्होंने स्पष्टतया उल्लिखित किया है।' __ वामन ने भी अप्रस्तुत की उक्ति से प्रस्तुत अर्थ का बोध ही अप्रस्तुतप्रशंसा का लक्षण माना है । वे भामह तथा उद्भट की तरह प्रशंसा का अर्थ वर्णन या कथन ही मानते हैं । ध्यातव्य है कि अप्रस्तुत की उक्ति से प्रस्तुत की व्यञ्जना में वामन समासोक्ति मानते हैं। अप्रस्तुतप्रशंसा का समासोक्ति से भेद उन्होंने केवल इस आधार पर किया है कि समासोक्ति में उपमेय सर्वथा अनुक्त रहता है, जबकि अप्रस्तुतप्रशंसा में वह किञ्चित् उक्त अर्थात् लिङ्ग-मात्र से कथित होता है।
१. अधिकारादपेतस्य वस्तुनोऽन्यस्य या स्तुतिः । अप्रस्तुतप्रशंसेयं प्रस्तुतार्थनिबन्धिनी ॥
-उद्भट, काव्यालं० सारसं० ५, १४ २. उपमेयस्य किञ्चिल्लिङ्गमात्रेणोक्तौ समानवस्तुन्यासे अप्रस्तुतप्रशंसा ।
-वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, ४, की वृत्ति पृ० २२६
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४६६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
रुद्रट ने अप्रस्तुतप्रशंसा को अन्योक्ति कहा है। उनके अनुसार इसमें उपमान के कथन से असमान विशेषण वाले किन्तु समान इतिवृत्त वाले उपमेय की प्रतीति होती है । ' कुन्तक ने अप्रस्तुत अर्थ का वर्णन अप्रस्तुतप्रशंसा का लक्षण माना और उसकी सार्थकता प्रस्तुत के सौन्दर्योत्पादन में मानी।२ जो अप्रस्तुत प्रस्तुत की विच्छित्ति या उसका सौन्दर्य उत्पन्न न कर सके, उसकी काव्य में उपादेयता ही क्या होगी?
भोज ने अस्तोतव्य अर्थात् निन्दित की, किसी कारण, स्तुति को अप्रस्तुतप्रशंसा का लक्षण मान कर उसे हेतु से वाच्य तथा प्रतीयमान-दोनों माना । यह प्रायः धर्म, अर्थ, काम में से किसी एक की बाधा से या अपने अभिप्राय की सिद्धि से उत्पन्न होती है।
मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि आचार्यों ने अप्रस्तुत के वर्णन से प्रस्तुत के बोध कराये जाने में अप्रस्तुतप्रशंसा मानी है। स्पष्ट है कि दण्डी को छोड़, प्रायः सभी आचार्य अप्रस्तुत प्रशंसा के स्वरूप के सम्बन्ध में एकमत हैं । अप्रस्तुत के वर्णन से प्रस्तुत की प्रतीति अप्रस्तुतप्रशंसा को स्वीकार्य परिभाषा है। रीतिकालीन हिन्दी-अचार्यों में से कुछ ने प्रशंसा का अर्थ दण्डी की तरह स्तुति मानकर अप्रस्तुत की प्रशंसा या उसका गुणगान इस अलङ्कार में अपेक्षित माना। शेष आचार्य अप्रस्तुत का वर्णन ही इसमें अपेक्षित मानते हैं। अप्रस्तुतप्रशंसा-भेद
अप्रस्तुत विशेष से प्रस्तुत सामान्य की, अप्रस्तुत सामान्य से प्रस्तुत विशेष की, अप्रस्तुत कार्य से प्रस्तुत कारण की, अप्रस्तुत कारण से प्रस्तुत कार्य की तथा तुल्य अप्रस्तुत से तुल्य प्रस्तुत की प्रतीति करायी जा सकती है। इस आधार पर मम्मट, रुय्यक आदि को अप्रस्तुतप्रशंसा के पाँच भेद मान्य हैं। कर्णपूर ने प्रतीयमान के आरोपित तथा अनारोपित होने के आधार पर १. असमानविशेषणमपि यत्र समानेतिवत्तमपमेयम । उक्त न गम्यते परमुपमानेनेति साऽन्योक्तिः ॥
-रुद्रट,काव्यालं० ८, ७४ २. कुन्तक, वक्रोक्तिजी० ३, २३-२४ ३. भोज, सरस्वतीकण्ठा० ४, ५२-५३ ४. कार्ये निमित्त सामान्ये विशेष प्रस्तुते सति ।
तदन्यस्य वचस्तुल्ये तुल्यस्येति च पञ्चधा ।- मम्मट, काव्यप्र० १०,१५२
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४६७
उक्त पाँच भेदों के दो-दो प्रकार स्वीकार कर अप्रस्तुतप्रशंसा के दश भेद स्वीकार किये हैं ।
सहोक्ति
सहोक्ति का अलङ्कारत्व भामह के समय से ही स्वीकृत है । सहोक्ति का अर्थ है - दो वस्तुओं की साथ-साथ उक्ति । यह अन्वर्था संज्ञा है । भामह ने सहोक्ति की परिभाषा में कहा था कि जहाँ एक काल में दो अलग-अलग वस्तुओं में रहने वाली दो क्रियाओं का एक पद से कथन होता है, वहाँ सहोक्ति अलङ्कार होता है । २ दो क्रियाओं की साथ-साथ उक्ति - एकपदेन कथन - होने के कारण भामह इसे सह उक्ति कहेंगे ।
३
दण्डी ने भामह की सहोक्ति-धारणा को स्वीकार कर उसमें गुण के सहभाव से कथन की धारणा भी जोड़ दी। इस प्रकार उनके अनुसार गुण और कर्म का सहभाव से कथन सहोक्ति का लक्षण बना । इसे और स्पष्ट रूप में कहना चाहें तो कहेंगे कि दो वस्तुओं के गुण तथा कर्म का सहभाव से कथन दण्डी - सम्मत सहोक्ति-लक्षण है । 'कर्म का सहभावेन कथन' भामह की 'क्रियाओं की सह-उक्ति से अभिन्न है; पर गुणों का सहभावेन कथन नवीन है ।
उद्भट ने भामह के सहोक्ति-लक्षण को ही कुछ शब्द भेद से उद्धृत कर दिया है । दोनों की सहोक्ति-धारणा अभिन्न है । वामन ने भी भामह के मत को स्वीकार कर उनकी सहोक्ति- परिभाषा को ही सूत्रबद्ध किया है । ५
रुद्रट ने सहोक्ति को वास्तव तथा औपम्य; दोनों वर्गों में रखा है । वास्तव - वर्गगत सहोक्ति को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा है कि जो वस्तु जिस रूप में हो अर्थात् जिस गुण से युक्त हो, उसी रूप में अन्य वस्तु को भी कर दे और उस अन्य वस्तु के समान कथित हो तो ऐसी स्थिति में वास्तव सहोक्ति
१. कर्णपूर, अलङ्कार कौस्तुभ, ८, पृ० ५६६-६७
२. तुल्यकाले क्रिये यत्र वस्तुद्वयसमाश्रये ।
पथ्ये सहोक्तिः सा मता यथा ॥ - भामह, काव्यालं ० ३,३६ ३. सहोक्तिः सहभावेन कथनं गुणकर्मणाम् । —दण्डी, काव्यादर्श २, ३५१
४. उद्भट, काव्यालं० सारसं० ५,२६
५. वस्तुद्वयक्रिययोस्तुल्यकालयोरेकपदाभिधानं सहोक्तिः ।
३२
— वामन, काव्यालं० सू० ४,३,२८
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४६८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
होती है । इसमें एक अर्थ, जो कर्तृभूत होगा वह प्रधान होगा तथा दूसरा कर्मभूत अर्थ, जिसके साथ उस कर्तृभूत अर्थ का तुल्यत्व प्रतिपादित होगा वह अप्रधान होगा । रुद्रट ने अप्रधान या कर्मभूत अर्थ का प्रधान अर्थ के साथ उसी गुण या धर्म से युक्त कर सह-कथन को सहोक्ति का दूसरा प्रकार माना है । इसमें क्रियमाण का ही प्राधान्य हो जाता है और कर्त्ता का अप्राधान्य, जब कि सहोक्ति के पहले प्रकार में कर्तृभूत अर्थ प्रधान रहता है और क्रियमाण या कर्मभूत अर्थ अप्रधान । औपम्य वर्ग की सहोक्ति में प्रसिद्ध तथा अधिक क्रिया वाले अर्थ, अर्थात् उपमान के साथ अन्य वस्तु, अर्थात् उपमेय को समानक्रिय कहा जाना अपेक्षित माना गया है । इसके दूसरे रूप की कल्पना करते हुए रुद्रट ने कहा है कि जहाँ एक कर्त्ता तथा अनेक कर्मों वाली क्रिया का वर्णन हो और उन कर्मों में से प्रधान, अर्थात् उपमेयभूत अर्थ दूसरे उपमानभूत कर्म के साथ कथित हो, वहाँ भी सहोक्ति होती है ।' वास्तव वर्गगत तथा औपम्य वर्गगत सहोक्तियों में यह भेद माना गया है कि पहले में कार्यकारणसम्बन्ध का भाव तथा औपम्य का अभाव रहता है; पर दूसरे में इसके विपरीत औपम्य का सद्भाव और कार्य-कारण-सम्बन्ध का अभाव रहता है । नमिसाधु की मान्यता है कि वास्तव वर्ग की सहोक्ति में कार्य-कारण-भाव रहता है तथा औपम्य का अभाव रहता है; पर औपम्य वर्गगत सहोक्ति में केवल औपम्य रहता है, कार्य-कारण भाव नहीं । २
कुन्तक ने भामह की सहोक्ति - परिभाषा को अमान्य बताकर उसे नवीन रूप में परिभाषित किया है । उनका तर्क है कि भामह - सम्मत सहोक्ति में सौन्दर्य का कारण दो वस्तुओं के साम्य को माना गया है । अतः वह उपमा ही है । 3 कुन्तक की सहोक्ति - परिभाषा है कि जहाँ वर्णनीय अर्थ की सिद्धि के लिए एक ही वाक्य से अनेक अर्थों की एक साथ उक्ति होती है, वहाँ सहोक्ति मानी जाती है । कुन्तक ने गुण या क्रिया की सह उक्ति की जगह अर्थों के
१. द्रष्टव्य, रुद्रट, काव्यालं० ७,१३ - १७ तथा ८, ६६-१०१ २. तत्र ( वास्तव सहोक्ती ) कार्यकारणभाव औपम्याभावश्च समस्ति । अस्यां (औपम्य सहोक्ती) तु तद्विपर्ययः ।
- काव्यालं०, नमिसाधु की टीका पृ० २८७
३. द्रष्टव्य, कुन्तक, वक्रोक्तिजी० ३, पृ० ४६१ ४. यत्र केनैव वाक्येन वर्णनीयार्थसिद्धये ।
अर्थानां युगपदुक्तिः सा सहोक्तिः सतां मता ॥ - वही ३,३७
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४ee सह-कथन का उल्लेख किया तथा एक पद से कथन के स्थान पर एक वाक्य से कथन पर बल दिया ।
अग्निपुराणकार ने दण्डी के सहोक्ति-लक्षण को स्वीकार कर भी उनके लक्षण में प्रयुक्त 'गुणकर्मणाम्' के स्थान पर 'तुल्यधर्मिणाम्' पद का प्रयोग किया । इस प्रकार वे धर्मियों का ही सह कथन सहोक्ति में अपेक्षित मानते हैं । L
रुय्यक के अनुसार उपमान और उपमेय में से एक का प्राधान्य से तथा दूसरे का सहार्थ - सम्बन्ध से कथन सहोक्ति है । इसमें दोनों अर्थ प्राकरणिक या अप्राकरणिक होते हैं; पर उनमें से एक क्रिया मुख्यतया सम्बन्ध रखने वाला कर्त्ता होता है और उसका दूसरे अर्थ के साथ कथन होता है । जिसके साथ कथन हो, वह सहार्थ की तृतीया विभक्ति से युक्त पद व्याकरण के नियमानुसार अप्रधान होता है । जिसका किसी के साथ कथन होता है, वह प्रधान अर्थ उपमेयभूत तथा जिसके साथ उसका कथन होता है, वह अप्रधान अर्थ उपमानभूत होता है । इस प्रकार रुय्यक के सहोक्ति-लक्षण का सार यह है कि इसमें एक अर्थ का दूसरे अर्थ के साथ - उपमेय का उपमान के साथ — कथन होता है। ध्यातव्य है कि इसमें उपमानोपमेय-भाव नियत नहीं रहता । दोनों ही अर्थ समानकोटिक ( प्राकरणिक अथवा अप्राकरणिक ) होते हैं; पर सहार्थ की विभक्ति वाला अर्थ अप्रधान होने के कारण उपमान और अन्य विभक्ति वाला प्रधान होने के कारण उपमेय हो जाता है । रुय्यक ने सहोक्ति को अतिशयोक्तिमूला माना है । मम्मट के अनुसार सहोक्ति में सहार्थ अर्थात् 'सह', 'सम', आदि शब्दों के अन्वय से एक पद दो अर्थों का वाचक होता है।
विश्वनाथ, विद्यानाथ, विद्याधर, शोभाकर, अप्पय्यदीक्षित आदि आचार्यो ने रुय्यक की सहोक्ति - परिभाषा को ही स्वीकार किया है ।
इस विवेचन का निष्कर्ष यह है कि सहोक्ति में एक साथ एक पद से दो अर्थों का कथन होता है । एक अर्थ का दूसरे के साथ वर्णन होने के कारण
१. अग्निपुराण, अध्याय ३४४
२. उपमानोपमेययोरेकस्य प्राधान्यनिर्देशेऽपरस्य सहार्थसम्बन्धे सहोक्तिः । -- रुय्यक, अलं० सर्वस्व, सूत्र सं० २९
३. सा सहोक्तिः सहार्थस्य बलादेकं द्विवाचकम् ।
- मम्मट, काव्यप्र० १०,१७०
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५०० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
दोनों में वास्तविक उपमानोपमेय-भाव नहीं रहने पर भी वैवक्षिक उपमानोपमेयसम्बन्ध हो जाता है । इसमें दोनों अर्थ या तो प्राकरणिक रहते हैं या अप्राकरणिक; पर एक का दूसरे के साथ कथन होने से जिसके साथ कथन होता है, वह अप्रधान होकर उपमान में पर्यवसित हो जाता है और जिसका किसी के साथ कथन होता है, वह प्रधान होकर उपमेय-स्थानीय हो जाता है । अभेदाध्यवसाय के कारण यह अलङ्कार अतिशयोक्तिमूलक माना जाता है ।
सहोक्ति-भेद
विश्वनाथ ने सहोक्ति को अतिशयोक्तिमूला मानकर उसके अभेदाध्यवसायमूलक तथा कार्यकारणपौर्वापर्यमूलक भेद माने हैं। अभेदाध्यवसायमूला सहोति श्लेष तथा अश्लेष के आधार पर दो प्रकार की हो जाती है । इस प्रकार उनके मतानुसार सहोक्ति के तीन भेद मान्य हैं। शोभाकर ने तुल्ययोगितामूला सहोक्ति का नया भेद प्रस्तुत किया ।२ क्रिया-सहोक्ति तथा गुण-सहोक्ति के रूप में भी इसके दो भेद कल्पित हुए हैं । रुद्रट की सहोक्ति के दो औपम्यगत तथा दो वास्तवगत प्रकारों का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है ।
अर्थान्तरन्यास
अर्थान्तरन्यास के अलङ्कारत्व का निरूपण सर्वप्रथम भामह ने किया था । परवर्ती काल के प्रायः सभी आचार्यों ने इसका अलङ्कारत्व स्वीकार किया है। इसके स्वरूप में भी अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। इसे सादृश्यमूलक अलङ्कार मानने के प्रश्न पर आचार्यों में दो मत अवश्य रहे हैं ।
भामह ने अर्थान्तरन्यास की परिभाषा में कहा था कि इसमें एक अर्थ का वर्णन कर उस वर्णित अर्थ से भिन्न किन्तु उससे अनुगत ( सम्बद्ध ) अन्य अर्थ का उपन्यास होता है । 3 अर्थान्तर के न्यास में ही प्रस्तुत अलङ्कार के नामकरण की सार्थकता है ।
१. द्रष्टव्य, विश्वनाथ का साहित्यद० पृ० ६६२ २. द्रष्टव्य, शोभाकरकृत, अलङ्काररत्नाकर, पृ० ७० ३. उपन्यसनमन्यस्य यदर्थस्योदितादृते । ज्ञयः सोऽर्थान्तरन्यासः पूर्वार्थानुगतो यथा ॥
- भामह, काव्यालं० २,७१
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[५०१
आचार्य दण्डी ने दो वाक्यार्थों में समर्थ्य-समर्थक-भाव की कल्पना कर यह परिभाषा दी कि जहाँ किसी प्रकृत वस्तु को प्रस्तुत कर उसके साधन में समर्थ अन्य अर्थ का न्यास होता है, वहाँ अर्थान्तरन्यास अलङ्कार होता है। अभिप्राय यह कि अभिप्रेत अर्थ की अनुपपत्ति की सम्भावना से उसके उपपादन के लिए उसके समर्थक अन्य अर्थ का न्यास किया जाना अर्थान्तरन्यास है। वर्णनीय को प्रस्तुत कर उसके समर्थक अन्यार्थ का न्यास अर्थान्तरन्यास का सामान्य क्रम है; पर इसके विपरीत समर्थक का भी पहले कथन इसमें हो सकता है। क्रम गौण है। प्रस्तुत वाक्यार्थ का अप्रस्तुत वाक्यार्थ से समर्थन ही अर्थान्तरन्यास का प्रधान लक्षण है।
___ उद्भट ने अर्थान्तरन्यास के सम्बन्ध में पूर्वाचार्यों की मान्यता को ही स्वीकार किया है; किन्तु उन्होंने उसे अधिक स्पष्टता से प्रस्तुत किया है। उन्होंने प्रकृत तथा अप्रकृत के बीच समर्थ्य-समर्थक-सम्बन्ध का स्पष्ट उल्लेख किया है। प्रकृत अर्थ का अन्य अर्थ से समर्थन होने के कारण ही इसे अर्थान्तरन्यास कहते है। समर्थक तथा समर्थ्य में से किसीका भी पूर्व-अपर निर्देश हो सकता है। भामह तथा दण्डी के अर्थान्तरन्यास-लक्षण में प्रस्तुत अर्थ के साथ अन्य अर्थ के सम्बन्ध का स्पष्ट उल्लेख नहीं हो पाया था। भामह ने उपन्यस्त होने वाले अन्य अर्थ को पूर्व-वणित अर्थ का अनुगत कहा था। यह अनुगम दो अर्थों के बीच सादृश्य से भी हो सकता है और उनमें सामान्यविशेष-भाव का सूचक भी हो सकता है। दण्डी की परिभाषा में प्रयुक्त 'तत्-साधन-समर्थ' पद का अर्थ भी सन्दिग्ध है। उसका अर्थ दो पदार्थों में साध्य-साधन-सम्बन्ध भी माना जा सकता है और समर्थ्य-समर्थकसम्बन्ध भी। परिभाषा में ऐसे सन्दिग्धार्थ-पदों का प्रयोग उचित नहीं माना जाता। उद्भट का लक्षण भामह-दण्डी के लक्षण से अधिक परिमार्जित है। वामन ने भी उक्त अर्थ की सिद्धि के लिए अन्य वस्तु या वाक्यार्थ का न्यास
२. ज्ञेयः सोऽर्थान्तरन्यासो वस्तु प्रस्तुत्य किञ्चन । तत्साधनसमर्थस्य न्यासो योऽन्यस्य वस्तुनः ।।
-दण्डी, काव्यादर्श २,१६६ ३. द्रष्टव्य, उद्भट, काव्यालं. सारसं० २,६-७
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५०२]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अर्थान्तरन्यास का लक्षण माना। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि हेतु का न्यास अर्थान्तरन्यास का रूप-विधान नहीं करता।
रुद्रट ने अर्थान्तरन्यास को औपम्यमूलक अलङ्कार मानकर उसकी परिभाषा में कहा है कि जहां विशेष या सामान्य धर्मी अर्थ का अभिधान कर उसकी सिद्धि के लिए इतर सधर्मी का न्यास होता है. वहाँ अर्थान्तरन्यास अलङ्कार माना जाता है ।२ औपम्य-गर्भ होने के कारण दोनों अर्थों में उपमानोपमेय-भाव-सम्बन्ध तो रहेगा ही। इस तरह उपमेय के सामान्य या विशेष धर्म का वर्णन कर उसके समर्थन के लिए इतर सधर्मी अर्थात् क्रमशः विशेष या सामान्य धर्म वाले उपमान का न्यास रुद्रट के मतानुसार इस अलङ्कार का लक्षण होगा। उपमेय सामान्य होगा तो उपमान विशेष और उपमेय विशेष होगा तो उपमान सामान्य । उपमानभूत विशेष या सामान्य क्रमशः उपमेयभूत सामान्य या विशेष की सिद्धि साधर्म्य एवं वैधर्म्य-दोनों से कर सकता है।
कुन्तक ने दो वाक्यार्थों में पूर्वाचार्यों की तरह समर्थ्य-समर्थक-भाव नहीं कहकर समर्प्य-समर्पक-भाव कहा है। कुन्तक का 'समर्पक' उद्भट के समर्थक का पर्याय ही है। कुन्तक के अनुसार अर्थान्तरन्यास में दो वाक्यार्थों के बीच यह समl-समर्पक-सम्बन्ध मुख्य तथा तात्पर्य के साम्य पर अवलम्बित होता है। इसमें प्रथम अर्थ मुख्य होता है और अन्य अर्थ उसका तात्पर्यार्थ होता है।
भोज ने रुद्रट की तरह साधर्म्य तथा वैधh; दोनों से एक अर्थ का अर्थान्तर से समर्थन स्वीकार किया। उन्होंने समर्थ्य और समर्थक वाक्यार्थों
१. ""उक्तस्यार्थस्य सिद्ध्यर्थं वस्तुनो वाक्यार्थान्तरस्यैव न्यसनमर्थान्तरन्यासः । वस्तुग्रहणादर्थस्य हेतोय॑सनान्नार्थान्तरन्यासः ।
-वामन, काव्यालं० सू० वृत्ति पृ० २५९ २. धर्मिणमर्थविशेषं सामान्यं वाभिधाय तत्सिद्ध यै । ___ यत्र समिकमितरं न्यस्येत्सोऽर्थान्तरन्यासः ॥
-रुद्रट, काव्यालं० ८,७६ ३. वाक्यार्थान्तरविन्यासो मुख्यतात्पर्यसाम्यतः । ज्ञेयः सोऽर्थान्तरन्यासो यः समर्पकतयाहितः ।।
__-कुन्तक, वक्रोक्तिजी० ३,३६ ४. भोज, सरस्वतीकण्ठा० ४,६७-६८
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५०३ के पौर्वापर्य क्रम को सर्वथा उपेक्षणीय माना । दोनों के पौर्वापर्य का व्यतिक्रम भोज के पूर्व भी मान्य हो चुका था ।
आचार्य मम्मट ने भी अर्थान्तरन्यास - विषयक पूर्व - प्रचलित मान्यता का अनुमोदन करते हुए विशेष या सामान्य का क्रमशः सामान्य या विशेष से साधर्म्य अथवा वैधर्म्य के द्वारा समर्थन इस अलङ्कार का लक्षण माना है । "
रुय्यक ने दो अर्थों में सामान्य- विशेष - भाव तथा समर्थ्य - समर्थक-भाव की धारणा पूर्ववर्ती आचार्यों से ली और इसके साथ हो अर्थान्तरन्यास के लक्षण में कार्य-कारण-भाव की धारणा अपनी ओर से जोड़ दी। इस प्रकार उनके मतानुसार सामान्य- विशेष - भाव तथा कार्य-कारण-भाव से पूर्वनिर्दिष्ट प्रकृत का समर्थन अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है । 'अलङ्कार-सूत्र' के टीकाकार जयरथ ने यह आपत्ति की है कि कार्य-कारण-भाव के स्थल में अर्थान्तरन्यास मानने से उसका काव्यलिङ्ग से अभेद हो जायगा; क्योंकि दो अर्थों में कार्य-कारणभाव काव्यलिङ्ग का विषय है । अतः, केवल सामान्य विशेष तक ही अर्थान्तरन्यास का क्षेत्र माना जाना चाहिए । रुय्यक ने कार्य-कारण-भावाश्रित अर्थान्तरन्यास का काव्यलिङ्ग से भेद निरूपित करते हुए कहा कि काव्यलिङ्ग में वाक्यार्थ में हेतु का निबन्धन हेतु रूप में ही होता है, उपनिबद्ध अर्थ हेतु नहीं बनता । उपनिबद्ध अर्थ का हेतु होना अर्थान्तरन्यास का विषय है । श्री विद्याचक्रवर्ती ने कार्य-कारण-भाव में अर्थान्तरन्यास के सद्भाव की मान्यता का समर्थन करते हुए काव्यलिङ्ग से उसका भेद इस आधार पर किया है कि अर्थान्तरन्यास में प्रकृत का समर्थन अर्थतः होता है; पर काव्यलिङ्ग में शब्दतः समर्थन होता है । निष्कर्षतः रुय्यक, विद्याचक्रवर्ती आदि के मतानुसार सामान्य-विशेष के अतिरिक्त कार्य-कारण में भी समर्थ्यसमर्थक सम्बन्ध रहने पर अर्थान्तरन्यास होता है । रुय्यक का कार्य-कारणभावाश्रित अर्थान्तरन्यास उद्भट आदि पूर्ववर्ती आचार्यों के काव्यलिङ्ग से अभिन्न है । उद्भट काव्यलिङ्ग में उपन्यस्त अर्थ की हेतुरूपता मानते थे ।
१. सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते । यत्तु सोऽर्थान्तरन्यासः साधर्म्येणेतरेण वा ।
- मम्मट, काव्यप्र ० १०, १६५ २. सामान्य विशेषकार्यकारणभावाभ्यां निर्दिष्टप्रकृतसमर्थनमर्थान्तरन्यासः । - रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, सूत्र सं० ३५
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५०४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
रुय्यक ने उसे अर्थान्तरन्यास मानकर अर्थ का हेतु रूप में उपन्यास काव्यलिङ्ग
का लक्षण माना ।
परवर्ती आचार्यों में विश्वनाथ ने रुय्यक की तरह कार्य कारण तथा सामान्य-विशेष के साधर्म्य और वैधर्म्य से समर्थ्य - समर्थक होने में अर्थान्तरन्यास माना है । शोभाकर ने अर्थान्तरन्यास के क्षेत्र को और भी सीमित कर केवल सामान्य से विशेष के समर्थन को उसका विषय माना है । २ विशेष से सामान्य के विशदीकरण में वे उदाहरण अलङ्कार मानते हैं और कार्य-कारण-भाव को हेतु अलङ्कार का विषय मानते हैं । अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि ने मम्मट की तरह केवल सामान्य विशेष में अर्थान्तरन्यास की सत्ता मानी है । 3
अर्थान्तरन्यास के लक्षणों की परीक्षा से प्राप्त निष्कर्ष निम्नलिखित हैं(क) इसमें दो अर्थों में सामान्य विशेष या कार्य-कारण-सम्बन्ध रहता है । (ख) यह सम्बन्ध समर्थ्य - समर्थक भाव में पर्यवसित होता है ।
(ग) इसमें प्रकृत का समर्थन होता है और अप्रकृत समर्थक होता है । (घ) समर्थन साधर्म्य और वैधर्म्य; दोनों से हो सकता है ।
(ङ) साधारणत: इसमें समर्थ्य वाक्य पहले और समर्थक पीछे आता है; पर यह नियम नहीं । समर्थक पहले और समर्थ्य पीछे भी रखा जा सकता है ।
अर्थान्तरन्यास-भेद
दण्डी ने अर्थान्तरन्यास के आठ भेद - विश्वव्यापी, विशेषस्य, श्लेषाबिद्ध, विरोधवान्, अयुक्तकारी, युक्तात्मा, युक्तायुक्त और विपर्यय - किये थे । ४ ये भेद परवर्ती काम में स्वीकृत नहीं हुए । रुय्यक ने सामान्य- विशेष तथा कार्यकारण के पारस्परिक समर्थन के आधार पर चार भेद कर साधर्म्य तथा वैधर्म्य से समर्थन किये जाने के आधार पर चारो के दो-दो भेद माने हैं ।
१. द्रष्टव्य, विश्वनाथ, साहित्यद० १०,८०
२. द्रष्टव्य, शोभाकर, अलङ्कार रत्नाकर, सूत्र ७६
३. द्रष्टव्य, अप्पय्य दी०, कुवलया० १२२ तथा जगन्नाथ, रसगङ्गाधर
पृ० ७४६ ४. विश्वव्यापी विशेषस्थः श्लेषाबिद्धो विरोधवान् । अयुक्तकारी युक्तात्मा युक्तायुक्तो विपर्ययः । - दण्डी, काव्यादर्श २,१७०
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[५०५
समर्थ्य-समर्थक वाक्यों के पौर्वापर्य के आधार पर तथा 'हि' शब्द के उपादान से समर्थन के शाब्द होने और उसके अनुपादान से आर्थ होने के आधार पर भी अनेक भेदों की कल्पना की गयी है।' आक्षेप
आक्षेप का अलङ्कारत्व भारतीय अलङ्कार-शास्त्र के प्रायः सभी आलङ्कारिकों को मान्य है। उसकी लोकप्रियता का रहस्य उसकी चमत्कारपूर्ण उक्तिभङ्गी में है। इसमें अभीष्ट अर्थ का सीधा कथन न होकर प्रकारान्तर से उसका बोध कराया जाता है; निषेधमुखेन अर्थविधान किया जाता है। आपाततः निषेध तथा परिणामतः अभीष्ट-विधान कराने वाली उक्ति का सौन्दर्य असन्दिग्ध है।
आचार्य भामह ने सर्वप्रथम आक्षेप को परिभाषित करते हुए कहा था कि जहाँ अर्थ में वैशिष्ट्य लाने के लिए अभीष्ट अर्थ का निषेध-सा किया जाता है, वहाँ आक्षेप अलङ्कार होता है। यह निषेध अतात्त्विक होता है। 'प्रतिषेध' क्रिया के साथ 'इव' के प्रयोग से भामह ने इस तथ्य को स्पष्ट कर दिया है। इसमें आपाततः तो ऐसा लगता है मानो कवि अर्थविशेष काजो उसका अभीष्ट अर्थ होता है-निषेध कर रहा हो; किन्तु, तत्त्वतः उसका पर्यवसान अभीष्ट अर्थ के विधान में होता है ।
__आक्षेप में अतात्त्विक निषेध या निषेधाभास ही आचार्य दण्डी को मान्य हैं। उन्होंने परिभाषा में केवल इतना कहा है कि 'निषेध की उक्ति आक्षेप है।'3 इसका यह अर्थ नहीं माना जाना चाहिए कि निषेध का कथन आक्षेप का स्वरूप है। निषेध अपने-आप में कोई चमत्कार नहीं रखता। अतः, वह अलङ्कार का विधायक नहीं माना जा सकता। 'प्रतिषेधोक्ति' को आक्षेप का लक्षण मानने में दण्डी का अभिप्राय यह था कि जहाँ प्रतिषेध की केवल उक्ति होती है, अर्थात् प्रतिषेध कथित होने पर भी तात्त्विक नहीं होता, ऐसे निषेधाभास के स्थल में आक्षेप अलङ्कार होता है।
१. द्रष्टव्य, रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १३०-३१ २. प्रतिषेध इवेष्टस्य यो विशेषाभिधित्सया।
आक्षेप इति.............."||--भामह, काव्यालं० २.६८ ३. प्रतिषेधोक्तिराक्षेपः.......|दण्डी, काव्यादर्श २,१२०
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५०६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उद्भट ने भामह के आक्षेप - लक्षण को ही किञ्चित् शब्द-भेद के साथ उद्धृत कर दिया है । विवृति में आक्षेप के उद्देश्य का स्पष्टीकरण करते हुए. कहा गया है कि इसमें निषेधाभास से अर्थ में विशेष का प्रतिपादन होता है । वह विशेष - प्रतिपादन अभीष्ट अर्थ के अंशक्य- वचनत्व आदि के रूप में होता है ।
वामन ने आक्षेप को उपमानोपमेय-भाव पर आधृत मानकर उपमान के आक्षेप या प्रतिषेध को आक्षेप का स्वरूप माना है । जहाँ उपमान एवं उपमेय का समान कार्य हो, वहाँ प्रस्तुत से भिन्न अप्रस्तुत की अनुपादेयता का प्रतिपादन हो सकता है । अप्रस्तुत की अनुपादेयता का कथन या उसका निषेध वामन के अनुसार आक्षेप है । उपमान का आक्षेप अर्थात् आक्षेप अकथित उपमान की प्रतिपत्ति भी वामन के अनुसार आक्षेप का दूसरा रूप है । " वामन के आक्षेप का प्रथम रूप अन्य आचार्यों के उपमान के अनादररूप प्रतीप से तथा उसका दूसरा रूप समासोक्ति से मिलता-जुलता है । इस आक्षेप का समासोक्ति से इतना ही भेद है कि समासोक्ति में प्रस्तुत से अप्रस्तुत अर्थ की प्रतीति व्यञ्जना से होती है और इसमें आक्षेप से ।
रुद्रट के मतानुसार आक्षेप की परिभाषा है कि जहाँ वक्ता लोक में प्रसिद्ध अथवा विरुद्ध उपमेय रूप अर्थ को कह कर उस वचन का आक्षेप करता हुआ उसकी सिद्धि के लिए उपमान का कथन करता है, वह आक्षेप है | 3 इस प्रकार रुद्रट के अनुसार आक्षेप के रूप-विधान की तीन अवस्थाएँ हैं— प्रसिद्ध या विरुद्ध उपमेय की उक्ति, उक्त का आक्षेप तथा उसके समर्थन में उपमान का कथन ।
१. द्रष्टव्य, उद्भट, कान्यालं० सारसं० २,२ तथा उसकी विवृति - अभिमतस्याशक्यवचनत्वादिविशेषप्रतिपादनाय यः प्रतिषेधः प्रतिषेधः इव .......। - न तु प्रतिषेध एव । – पृ० २१
२. उपमानाक्षेपश्चाक्षेपः । तथा — उपमानस्याक्षेपः प्रतिषेधः उपमानाक्षेपः । तुल्यकार्यार्थस्य नैरर्थक्य विवक्षायाम् । उपमानस्याक्षेपतः: प्रतिपत्तिरित्यपि सूत्रार्थः । - वामन, काव्यालं० सू० ४,३, २७ तथा उसकी वृत्ति पृ० २७०-७१
३. वस्तु प्रसिद्धमिति यद्विरुद्धमिति वास्य वचनमाक्षिप्य ।
अन्यत्तथात्वसिद्ध्यै यत्र ब्रूयात् स आक्षेपः ॥ — रुद्रट, काव्यालं ० ८९.
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[५०७.
कुन्तक ने प्रस्तुत की सौन्दर्य-वृद्धि के लिए निषेधाभास के रूप में उसका (उपमेय का) आक्षेप, आक्षेप अलङ्कार का लक्षण माना है। कुन्तक के अनुसार आक्षेप का अर्थ निन्दा है। इस प्रकार उपमेय के सौन्दर्य की वृद्धि के लिए उसका निषेध-सा करता हुआ जहाँ कवि उसकी निन्दा करता हो, वहाँ कुन्तक आक्षेप मानेंगे।' अभीष्ट अर्थ के निषेधाभास या निवर्तन की यह धारणा भामह, दण्डी आदि की आक्षेप-धारणा से मिलती-जुलती ही है; पर कुन्तक ने उपमेय के आक्षेप का स्पष्ट उल्लेख कर आक्षेप को औपम्यगर्भ अलङ्कार स्वीकार किया है। वामन के उपमानाक्षेप के विपरीत उपमेयाक्षेप को कुन्तक ने आक्षेप का स्वरूप माना है। ध्यातव्य है कि कुन्तक ने उपमेय के निवर्तन या निषेध को तात्त्विक नहीं मानकर भामह आदि की तरह निषेधाभास ही माना है। ___अग्निपुराणकार ने आक्षेप का दण्डी-कृत लक्षण ही उद्धृत किया है; किन्तु, इसके साथ आक्षेप का अर्थ ध्वनि मानकर श्रुति से अलभ्य अर्थ का ध्वनि से बोधगम्य होने पर बल दिया ।२ आक्षेप और ध्वनि के सूक्ष्म भेद की उपेक्षा कर दोनों को अभिन्न मानना युक्तिसङ्गत नहीं जान पड़ता।
भोज ने दण्डी आदि की तरह 'प्रतिषेधोक्ति' को आक्षेप का प्रधान लक्षण माना तथा विधिमुखेन प्रतिषेधोक्ति और निषेधमुखेन प्रतिषेधोक्ति की धारणा व्यक्त की। दण्डी भी निषेधपर्यवसायी विधि या विधिमुखेन निषेधोक्ति को आक्षेप का एक प्रकार मान चुके थे। भोज की आक्षेप-धारणा पर दण्डी की धारणा का प्रभूत प्रभाव है। ___ मम्मट, रुय्यक आदि आचार्यों ने भामह आदि की तरह विवक्षित अर्थ में१. निषेधच्छाययाक्षेपः कान्तिं प्रथयितु पराम् ।
आक्षेप इति स ज्ञेयः प्रस्तुतस्यैव वस्तुनः । तथा'."प्रकृतस्यैव 'आक्षेपः'
क्षेपकृत् । -कुन्तक, वक्रोक्ति जी० ३,४० तथा वृत्ति पृ० ४७० २. श्र तेरलभ्यमानोऽर्थो यस्मात् भाति सचेतनः। स आक्षेपो ध्वनिः स्यात् च ध्वनिना व्यज्यते यतः ॥
-अग्निपुराण, अध्याय, ३४४" ३. विधिनाथ निषेधेन प्रतिषेधोक्तिरत्र या। शुद्धा मिश्रा च साक्षेपो रोधो नाक्षेपतः पृथक् ।।
-भोज, सरस्वतीकण्ठा० ४,६४
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५०८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण विशेष प्रतिपादन के लिए उसका निषेध-सा किया जाना, अर्थात् निषेधाभास . आक्षेप में अपेक्षित माना है।
शोभाकर, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने स्वकथित का विचार के बाद प्रतिषेध आक्षेप का लक्षण माना। अप्पय्य-दीक्षित ने अन्य आचार्यों की आक्षेप-विषयक मान्यता का भी निर्देश किया है।२ जयदेव की तरह वाग्भट, कर्णपूर, विश्वेश्वर पण्डित आदि ने प्रतिषेध को ही आक्षेप का लक्षण माना है। विद्याधर, विद्यानाथ, विश्वनाथ, जगन्नाथ, केशव मिश्र, नरसिंह आदि ने भामह की तरह निषेधाभास को आक्षेप माना।
आक्षेप के लक्षणों के इस अध्ययन से स्पष्ट है कि उसकी धारणा में विकास की कई कोटियाँ आयी हैं। विकास के मूल में आक्षेप शब्द के विभिन्न अर्थ रहे हैं। निन्दा, निवर्तन या निषेध, आक्षेपेण बोध आदि अर्थों के आधार पर क्रमशः उपमेयाक्षेप (कुन्तक); उक्त का निषेध (जयदेव आदि), श्र ति से अलभ्य अर्थ का आक्षेप ( ध्वनि ? ) से बोध (अग्निपुराण) आक्षेप अलङ्कार का लक्षण माना गया है। उक्त मतों में से आक्षेप के निम्नलिखित रूप अनेक आचार्यों का समर्थन पाते रहे हैं :
(क) निषेधाभास अर्थात् अभीष्ट अर्थ का निषेध-सा किया जाना, (ख) कुछ कहकर पुनः विचार कर उस कहे हुए का प्रतिषेध करना तथा (ग) विधिमुखेन निषेध किया जाना।
श्राक्षेप-भेद
उक्त तथा वक्ष्यमाण के आधार पर आक्षेप के दो भेद किये गये हैं। तीन काल के आधार पर दण्डी ने उसके तीन भेद किये हैं । उन्होंने धर्म, कार्य, अनुज्ञा, प्रभुत्व, अनादर, आशीर्वचन, परुष, साचिव्य, यत्न, उपमा, मूर्छा, अनुक्रोश, "श्लिष्ट, अनुशय, संशय तथा अर्थान्तर नामक आक्षेप-भेदों का सोदाहरण निरूपण
१. निषेधो वक्तुमिष्टस्य यो विशेषाभिधित्सया । वक्ष्यमाणोक्तविषयः स आक्षेपो द्विधा मतः ।
-मम्मट, काव्यप्र० १०,१६१ तथा उक्तवक्ष्यमाणयोः प्राकरणिकयोविशेषप्रतिपत्त्यर्थ निषेधाभास आक्षेपः ।
–रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, सूत्र सं० ३८ २. द्रष्टव्य, अप्पय्य दी०, कुवलया० ७३-७५
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५०६ किया है। प्रसिद्ध तथा विरुद्ध के आधार पर एवं विधि और निषेध के आधार पर भी आक्षेप के भेद कल्पित हैं। वस्तु-निषेध तथा वस्तु-कथन-निषेध नामक आक्षेप-भेदों की कल्पना नरेन्द्रप्रभ सूरि के द्वारा की गयी। स्मरण
मम्मट-रुय्यक के पहले स्मरण या स्मृति को अलङ्कार के रूप में स्वीकृति नहीं मिली थी। स्मृति के स्वरूप तथा कारण पर दर्शन में बहुत पहले से विचार हो रहा था। दार्शनिकों ने ज्ञान के स्वरूप का निरूपण करते हुए स्मृतिजन्य ज्ञान, प्रत्यभिज्ञा आदि का विशद विवेचन किया था। रुय्यक और मम्मट के काल में स्मृति-धारणा की अवतारणा अलङ्कार-क्षेत्र में हुई। स्मरणालङ्कार में स्मृति का स्वरूप तो दर्शन की स्मृति से ही गृहीत हुआ; . किन्तु उसके सदृश वस्तु के अनुभव से सदृश वस्त्वन्तर की स्मृति को ही स्मरण अलङ्कार माना गया, स्मरण के अन्य रूपों को नहीं। ध्यातव्य है कि पूर्वानुभूत वस्तु की स्मृति सदृश वस्तु के अनुभव से तो हो ही आती है, अदृष्ट चिन्ता आदि से भी स्मृति उत्पन्न होती है। पूर्वानुभूत वस्तु का जिस किसी वस्तु से साहचर्य रहा हो, उसका अनुभव भी अनुभूत वस्तु की स्मृति में सहायक होता है। राम की अंगूठी देख कर सीता राम की स्मृति से विह्वल हो उठी होगी। गोदावरी का तट राम के हृदय में सीता के साथ बिताये क्षणों की स्मृति जगा देता है। ऐसी स्मृतियां सादृश्य पर नहीं, साहचर्य आदि पर अवलम्बित हैं। रुय्यक, मम्मट आदि के अनुसार केवल सादृश्यजन्य स्मृति ही स्मरणालङ्कार है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से स्मृति की प्रक्रिया यह है कि मन में किसी वस्तु का जो अनुभव होता है, उसका संस्कार मन पर बच रहता है। संस्कार के रूप में मन में स्थित अनुभूत वस्तु के समान किसी वस्तु का अनुभव करने अथवा उस वस्तु से साहचर्य आदि किसी प्रकार का सम्बन्ध रखने वाली
१. द्रष्टव्य, दण्डी, काव्यादर्श २,१२०-६८ २. नरेन्द्रप्रभ सूरि, अलङ्कार महोदधि, ८ ३. यथानुभवमर्थस्य दृष्टे तत्सदृशे स्मृतिः । स्मरणम् ।-मम्मट, काव्यप्र०
१०,१९६ तथा सादृश्यानुभवाद् वस्त्वन्तरस्मृतिः स्मरणम् ।
-रुय्यक, अलं० सर्वस्व, सूत्र सं० १४'
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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण वस्तु का अनुभव करने से पूर्वानुभूत वस्तु का संस्कार जाग्रत हो जाता है । अनुभूत वस्तु के साथ सम्बन्ध रखने वाली अन्य वस्तुओं का संस्कार भी उस वस्तु के संस्कार के साथ सम्पृक्त रहता है। अतः, एक संस्कार जगकर सम्बद्ध संस्कारों को भी जगा देता है। किसी वस्तु का अनुभव मन में . संस्कार के रूप में निहित उसके सदृश अन्य वस्तु के संस्कार को जगा देता है। यही स्मृति स्मरण या स्मृति अलङ्कार का रूप-विधान करती है ।
भोज ने सादृश्यजन्य स्मृति के साथ चिन्ता, सम्बन्धिज्ञान आदि से समुत्था"पित स्मृति को भी स्मरण अलङ्कार का स्वरूप माना है। उनके अनुसार किसी भी आधार पर पूर्वानुभूत वस्तु की होने वाली स्मृति स्मरग अलङ्कार का विषय मानी जायगी। विश्वनाथ, शोभाकर, अप्पय्य दीक्षित आदि सभी प्रमुख आलङ्कारिकों ने सादृश्यमूलक स्मृति को स्मरणालङ्कार का विषय माना है। शोभाकर, अप्पय्य दीक्षित, जयरथ आदि आचार्यों ने. इसे स्मृति कहा है। रुय्यक, मम्मट आदि ने इसे स्मरण नाम से अभिहित किया है।
वैधर्म्य भी स्मृति का हेतु होता है। राघवानन्द महापात्र ने वैधर्म्य से उत्पन्न स्मृति को भी सादृश्यसमुत्थित स्मृति के साथ स्मरण अलङ्कार माना था। उनके इस मत का उल्लेख साहित्यदर्पण में मिलता है ।२।।
पण्डितराज जगन्नाथ की मान्यता है कि स्मरण सादृश्यजन्य स्मृति तो है ही; पर केवल सदृश के अनुभव से उसके सदृश पूर्वानुभूत वस्तु की स्मृति तक उसके क्षेत्र को सीमित नहीं किया जा सकता। सदृश वस्तु की स्मृति से उससे सम्बद्ध अन्य अनुभूत वस्तु की स्मृति भी स्मरण अलङ्कार का विषय मानी जायगी। अभिप्राय यह कि यदि कोई वस्तु सादृश्य सम्बन्ध से किसी वस्तु की स्मृति जगाती है और उस स्मृति से किसी प्रकार सम्बद्ध किसी अन्य वस्तु की स्मृति हो आने का वर्णन होता है तो वहाँ जगन्नाथ स्मरण १. सदृशादृष्टचिन्तादेरनुभूतार्थवेदनम् । स्मरणं प्रत्यभिज्ञान-स्वप्नावपि न तद्बहिः ।।
-भोज, सरस्वतीकण्ठा० ३,४२ २. राघवानन्दमहापात्रास्तु वैसादृश्यात् स्मृतिमपि स्मरणालङ्कार
मिच्छन्ति ।-विश्वनाथ, साहित्यद० पृ० ६१६ ३. सादृश्यज्ञानोबुद्धसंस्कारप्रयोज्यं स्मरणं स्मरणालङ्कारः।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर पृ० ३४१
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५११
अलङ्कार मानेंगे। रुय्यक मम्मट आदि ने स्मरण का एक ही रूप माना थाकिसी वस्तु के अनुभव से उसके सदृश वस्तु की स्मृति–पर, जगन्नाथ ने किसी वस्तु के अनुभव से उसके सदृश अन्य की स्मृति और पुनः उस स्मृत वस्तु से किसी दूसरी वस्तु की स्मृति को भी स्मरण का दूसरा रूप माना। उन्होंने स्मृति को परिभाषित करते हुए कहा है कि 'सादृश्य के बोध से उबुद्ध संस्कार के फलस्वरूप होने वाले स्मरण को स्मरणालङ्कार कहते हैं।'
इस प्रकार जगन्नाथ के मतानुसार स्मृति या स्मरण के रूप होंगे—(क) अनुभूयमान अर्थ से उसके सदृश पूर्वानुभूत वस्तु की स्मृति, (ख) स्मर्यमाण अर्थ से उसके सदृश अनुभूत वस्तु की स्मृति और (ग) अनुभूयमान के सदृश की स्मृति से उससे किसी प्रकार सम्बद्ध अन्य वस्तु की स्मृति । निष्कर्षतः, जगन्नाथ केवल अनुभूयमान के सदृश की स्मृति को ही स्मरण नहीं मानते, सादृश्य द्वारा उबुद्ध संस्कार के फलस्वरूप होने वाली स्मृति को वे व्यापक रूप में स्मरण मानते हैं। सादृश्य अनुभूयमान तथा स्मरण होने वाली वस्तु के बीच भी रह सकता है और स्मर्यमाण तथा उससे स्मरण होने वाली वस्तु के बीच भी। सादृश्य साक्षात् हो या परम्परया, दोनों में जगन्नाथ स्मरण मानते हैं । कुछ लोग जगन्नाथ के एक उदाहरण में, जिसमें सेना को देखकर कृष्ण के मन में सादृश्य से समुद्र की स्मृति हो आती है और समुद्र के सम्बन्ध से शेषशय्या
और निद्रा की, अलङ्कारत्व नहीं मानते, क्योंकि वे इसे (निद्रा की स्मृति को) 'सदृश के ज्ञान से उबुद्ध संस्कार द्वारा उत्पन्न या सेना के सदृश विषय की स्मृति नहीं मानते।' किन्तु, तथ्य यह है कि सेना से समुद्र का स्मरण सदृश का ही ज्ञान है और उससे सम्बद्ध शय्या, निद्रा आदि का ज्ञान 'सदृश की स्मृति से उबुद्ध संस्कार से ही उत्पन्न है ।' अतः परम्परया वह भी सादृश्यानुभव पर ही अवलम्बित है और ऐसी स्थिति में अलङ्कारत्व न मानने का कोई सबल आधार नहीं । अनुभूयमान से स्मर्यमाण के सादृश्य-विधान में जो चमत्कार है वही स्मरण का अलङ्कारत्व है। स्मर्यमाण एवं अन्य स्मर्यमाण के बीच सादृश्य-विधान में चमत्कार को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। अतः, स्मृति के इस रूप को भी अलङ्कार मानना उचित ही है । जगन्नाथ ने रुय्यक के स्मरणालङ्कार-लक्षण में स्मर्यमाण से उबुद्ध स्मृति का सङग्रह न
१. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ३४२-४३ तथा उस पर नागेश
की टिप्पणी।
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५१२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण होने के कारण उसका खण्डन करते हुए यह सुझाव दिया है कि उसमें 'सदृश के अनुभव' से स्मृति की जगह 'सदृश के ज्ञान' से स्मृति का उल्लेख होता तो वह लक्षण अव्यानि दोष से मुक्त हो पाता । रुय्यक स्मृति का एक ही रूप मानते थे-अनुभूयमान से सदृश की स्मृति । अतः उनकी दृष्टि को स्पष्ट करने के लिए उनकी परिभाषा पूर्ण है। वे जगन्नाथ की तरह स्मरण से उबुद्ध स्मरण में तो स्मरणालङ्कार मानते ही नहीं थे। अतः, उनकी परिभाषा में परिवर्तन का सुझाव कोई अर्थ नहीं रखता।
स्मरण अलङ्कार के सम्बन्ध में आचार्यों की मान्यता के इस परीक्षण से निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं :
(क) स्मरण सादृश्यमूलक अलङ्कार है । अतः, सदृश वस्तु के ज्ञान से उद्बुद्ध स्मृति ही इसका विषय है ।
(ख) सदृश वस्तु के ज्ञान से साक्षात् या परम्परया सम्बद्ध स्मृति भी वस्तुतः सादृश्यमूलक ही मानी जायगी। अतः, ऐसे स्थल में भी स्मरण अलङ्कार माना जाना चाहिए। इस प्रकार सादृश्यमूलक स्मृति या स्मरण अलङ्कार के तीन रूप हो सकते है-(१) सदृश के अनुभव से सदृश की स्मृति, (२) सदृश के अनुभव से अन्य की स्मृति होने पर उससे किसी प्रकार सम्बद्ध की स्मृति तथा (३) किसी वस्तु के ज्ञान से उसके सम्बन्धी की स्मृति और पुनः स्मर्यमाण के सदृश की स्मृति । मयूरपिच्छ को देखकर सादृश्य से प्रिया के रतिविगलित केश-पाश की स्मृति प्रथम का तथा सादृश्य से केश-पाश की स्मृति होने पर उससे सम्बद्ध रंगरभस की स्मृति द्वितीय का उदाहरण होगी। चातक को देख कर उसके सम्बन्धी सजल मेध की स्मृति तथा उसके सादृश्य से कृष्ण की स्मृति तृतीय का उदाहरण है।
स्मरण अलङ्कार में विचारणीय है कि अनुभूत होने वाली वस्तु तथा उसके कारण स्मरण होने वाली वस्तु में कौन उपमेय होती है और कौन उपमान ? रुय्यक ने दो उदाहरण देकर यह दिखाया है कि एक में अनुभूयमान उपमेय है और दूसरे में अनुभूयमान उपमान । अलङ्कार के क्षेत्र में उपमान और उपमेय के बीच विभाजक रेखा नहीं है । एक स्थिति में जो उपमेय रहता है वह दूसरी स्थिति में उपमान बन जाता है । अतः, रुय्यक की यह मान्यता उचित ही है कि अनुभूयमान से स्मर्यमाण का सादृश्यविधान भी हो सकता है और स्मर्यमाण से अनुभूयमान का सादृश्यविधान भी।
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अलङ्कारों का स्वरूप- विकास
[ ५१३
स्मरण के भेद :
अप्यय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि ने इस सादृश्यमूलक अलङ्कार का त्रिविध भेद किया है । यह भेद-निरूपण साधारण धर्म के अनुगामितया निर्देश ( जैसा उपमा आदि में होता है), बिम्बप्रतिबिम्बभाव से ( दृष्टान्त आदि की तरह ) निर्देश एवं वस्तुप्रतिवस्तु भाव से ( प्रतिवस्तूपमा आदि की तरह ) निर्देश के आधार पर है । वैधर्म्यं से स्मृति भी स्मरण का एक भेद माना गया है ।
I
भ्रान्तिमान्
भ्रान्तिया भ्रान्तिमान् के अलङ्कार रूप में कल्पित होने के पूर्व दर्शन के ज्ञान-शास्त्र में उसके स्वरूप का निर्धारण हो चुका था । भ्रान्ति किसी वस्तु में उससे भिन्न वस्तु का निश्चयात्मक ज्ञान है । यह ज्ञान अतात्त्विक होने पर भी निश्चयात्मक होता है। जब तक किसी वस्तु में अन्य वस्तु की भ्रान्ति रहती है, तब तक उस यथार्थ वस्तु का आभास भी ज्ञाता के मन में नहीं रहता । भ्रम की दशा में यथार्थ ज्ञान की तरह ही असत्य वस्तु का एककोटिक ज्ञान रहता है ।
सादृश्य भ्रान्ति का हेतु होता है । किसी वस्तु में उसके सदृश अन्य वस्तु का ही भ्रमात्मक ज्ञान होता है । शोक, भय, काम, उन्माद आदि से भी भ्रान्ति उत्पन्न होती है; पर ऐसी भ्रान्ति को अलङ्कार नहीं माना गया है । भ्रान्ति की प्रक्रिया विचारणीय है । मन में पूर्वानुभूत असंख्य वस्तुओं का संस्कार पड़ा रहता है । किसी वस्तु के अनुभव से सामान्यतः उसी वस्तु का पूर्वानुभूतिजन्य संस्कार जाग्रत हो जाता है । इस प्रकार प्रत्यभिज्ञा सम्भव होती है; किन्तु कभी - कभी किसी वस्तु का अनुभव उसी वस्तु का संस्कार न जगाकर उसके सदृश अन्य वस्तु का संस्कार जगा देता है । परिणामतः, उस अनुभूयमान वस्तु के सदृश किसी अन्य वस्तु का मानस- प्रत्यक्ष होने लगता है । यही भ्रम कहलाता है । रास्ते पर पड़ी हुई रस्सी यदि रस्सी का संस्कार मन में जगाती हो, तो उसकी प्रत्यभिज्ञा होगी; पर यदि उससे उसके सदृश साँप का मन में सोया हुआ संस्कार जग पड़े, तो उसमें अन्य वस्तु की भ्रान्ति होगी । किसी वस्तु में जिस अन्य वस्तु की भ्रान्ति होती है उसकी पूर्वानुभूति आवश्यक है । पूर्वानुभूति-जन्य संस्कार के उद्बोध के अभाव में
१. द्रष्टव्य, जगन्नाथ, रसगङ्गा० पृ० ३५३-५४
३३
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५१४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
भ्रमात्मक प्रतीति सम्भव नहीं । जिसने कभी साँप को देखा नहीं हो, अथवा उसके सम्बन्ध में सुनकर उसकी कोई रूपरेखा मन में नहीं बनायी हो, उसे रज्जु को देखकर उसमें साँप का ज्ञान नहीं होगा, अन्य किसा वस्तु का ( लकड़ी आदि का ) असत्य ज्ञान भले हो । किसी कारण से भ्रम का परिहार हो जाने पर अनुभूयमान वस्तु का यथार्थ ज्ञान पुनः हो जाता है । अस्तु !
अलङ्कार के रूप में दार्शनिकों की समग्र भ्रान्ति धारणा को स्वीकार न कर आचार्यों ने कवि-प्रतिभा से कल्पित काव्यात्मक भ्रान्ति को ही भ्रान्ति या भ्रान्तिमान् अलङ्कार माना है । सभी प्रकार की उक्तियाँ तो काव्यात्मक उक्तियाँ होती नहीं । अलङ्कार-विधान के लिए उक्ति में चारुता आवश्यक है । यह कवि की प्रतिभा से ही उत्पन्न होती है । इस प्रकार कवि-प्रतिभा से किसी वस्तु में सादृश्य के कारण उससे भिन्न वस्तु की भ्रमात्मक प्रतीति का रमणीय वर्णन आचार्यों के द्वारा भ्रान्तिमान् अलङ्कार माना गया ।
ऐतिहासिक दृष्टि से प्रस्तुत अलङ्कार के स्वरूप का प्रथम निर्देश दण्डी के 'काव्यादर्श' में मिलता है । उन्होंने इसे उपमा का एक भेद मानकर मोहोपमा नाम से अभिहित किया था । अन्य वस्तु में अन्य का ज्ञान 'मोह' कहलाता है । यही भ्रम है । इस प्रकार सादृश्य के कारण एक वस्तु को उससे भिन्न वस्तु समझ लेने में दण्डी ने मोहोपमा माना था । पीछे चल कर इसे ही भ्रान्तिया भ्रान्तिमान् व्यपदेश मिला । दण्डी के उत्तरवर्ती उद्भट तथा वामन ने इस अलङ्कार की चर्चा नहीं की ।
रुद्रट ने सर्वप्रथम इसका निरूपण स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में किया । उसे परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा है कि जहाँ किसी अर्थविशेष ( अर्थात् उपमेय ) को देखता हुआ ज्ञाता उसके सदृश अन्य वस्तु का ( उपमान का ) संशयरहित अर्थात् निश्चयात्मक ज्ञान करता है, वहाँ भ्रान्तिमान् अलङ्कार होता है । भोज ने भी भ्रान्ति अलङ्कार का यही स्वरूप निरूपित किया है | मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, विद्यानाथ, शोभाकर, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित,
१. द्रष्टव्य, दण्डी, काव्यादर्श २,२५
२. अर्थविशेषं पश्यन्नवगच्छेदन्यमेव तत्सदृशम् । निस्सन्देहं यस्मिन्प्रतिपत्ता भ्रान्तिमान् स इति ॥
३. द्रष्टव्य, भोज, सरस्वतीकण्ठा० ३,३५
— रुद्रट, काव्यालं० ८,८७
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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ५१५ जगन्नाथ आदि सभी आचार्यों ने एक वस्तु में अन्य वस्तु के भ्रमात्मक ज्ञान को भ्रान्तिमान् अलङ्कार माना है । शोभाकर ने भ्रमात्मक प्रतीतिमात्र के रमणीय वर्णन में अलङ्कारत्व माना है । उनकी मान्यता है कि केवल सादृश्य- समुत्थ भ्रमात्मक प्रतीति में अलङ्कारत्व मानना भ्रान्तिमान् के क्षेत्र को सीमित करना है ।' शोक, भय, उन्माद आदि से उत्पन्न भ्रम का वर्णन भी भ्रान्तिमान् अलङ्कार का विषय माना जाना चाहिए; पर यह सिद्धान्त रुय्यक, मम्मट आदि को मान्य नहीं था । शोभाकर को छोड़, प्रायः सभी आचार्यों ने सादृश्यमूलक भ्रान्ति में ही भ्रान्तिमान् अलङ्कार की सत्ता मानी है । कुछ आचार्यों ने भ्रान्ति का नाममात्र उसके लक्षण में कह दिया है। कुछ ने अलङ्कारत्व के लिए 'कवि प्रतिभा कल्पित' भ्रान्ति का होना आवश्यक माना है । अधिकांश आचार्य एक वस्तु में अन्य वस्तु के ( उपमेय में उपमान के ) सादृश्य के कारण निश्चयात्मक ज्ञान की सुन्दर कल्पना को भ्रान्तिमान् अलङ्कार मानते हैं । यही लक्षण अधिक ग्राह्य जान पड़ता है । कुछ आचार्यों ने इसे भ्रान्ति संज्ञा से अभिहित किया है ।
भ्रान्तिमान् के भेद
जयरथ, जगन्नाथ आदि को साधारण धर्म के अनुगामितया बिम्बप्रतिबिम्बभावेन तथा वस्तुप्रतिवस्तुभावतया निर्देश के आधार पर इसके तीन भेद इष्ट हैं । भोज ने भ्रान्ति के अनेक भेदों की कल्पना की है । २
सन्देह
स्मृति तथा भ्रान्ति की तरह सन्देह की धारणा का विकास भी दर्शन के ज्ञान-विवेचन में हुआ था । सन्देह या संशय किसी वस्तु में उस वस्तु के तथा उससे भिन्न वस्तु के अनिश्चयात्मक ज्ञान की स्थिति है । इसमें ज्ञान
कोटिक तथा अनिश्चयात्मक रहता है । किसी वस्तु में उस वस्तु के साथ अन्य वस्तु का भी अनिश्चयात्मक ज्ञान प्रधानतः उन दो वस्तुओं के बीच सादृश्य के कारण ही होता है । अतः, सन्देह सादृश्यमूलक अलङ्कार माना गया है ।
सन्देह और संशय पर्यायवाची शब्द हैं । अलङ्कार के रूप में ससन्देह तथा ससंशय व्यपदेश का भी प्रयोग हुआ है । इन अभिधानों के मूल में यह धारणा
१. द्रष्टव्य, शोभाकर, अलं० रत्नाकर, पृ० ५३ २. द्रष्टव्य, भोज, सरस्वतीकण्ठा० ३,३५-३८
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५१६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
रही होगी कि इस अलङ्कार में सन्देह या संशय की उक्ति रहती है; अतः इसे ससन्देह या ससंशय (सन्देह या संशय की उक्ति के साथ) कहा जाना चाहिए। सन्देह और संशय नाम भी सन्देह या संशय की उक्ति का अर्थ ही व्यक्त करते हैं । अतः सन्देह, संशय, ससन्देह या ससंशय-किसी भी संज्ञा से प्रस्तुत अलङ्कार को अभिहित किया जा सकता है।
आचार्य भामह ने सर्वप्रथम ससन्देह अलङ्कार की कल्पना कर उसका स्वरूप-निरूपण किया था। उनके अनुसार उपमान के साथ वर्ण्य का अभेद (तत्त्व) तथा भेद-कथन ससन्देह का लक्षण है।' स्पष्टतः, भामह ने इसे सादृश्यमूलक अलङ्कार माना था। सादृश्य के कारण प्रमाता को वर्ण्य विषय में उपमान का संशयात्मक ज्ञान होता है क्योंकि उसे उपमान से उस वर्ण्य में भेद की भी प्रतीति होती रहती है। प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत में अभेद एवं भेद की अनिश्चयात्मक मनःस्थिति का वर्णन चमत्कारपूर्ण होने से ससन्देह अलङ्कार बन जाता है।
आचार्य दण्डी ने संशय के वर्णन में अलङ्कार की स्थिति तो मानी पर उसे उपमा से पृथक् न मानकर उसका संशयोपमा भेद स्वीकार किया। सादृश्यमूलक होने पर भी संशय की प्रकृति उपमा से अभिन्न नहीं है। अतः, इसे स्वतन्त्र अलङ्कार मानना ही उचित होता । दण्डी के अनुसार सादृश्य में पर्यवसित होने वाली संशयहेतुका उपमा सुन्दर होने पर संशयोपमा अलङ्कार कहलाती है।
उद्भट ने भामहकृत ससन्देह-लक्षण को ही स्वीकार किया है। उन्होंने इसे सन्देह तथा ससन्देह-दोनों कहा है। वस्तुतः, सह-वाचक उपसर्ग का अर्थदृष्टया यहां कोई वैलक्षण्य नहीं है। राजानक तिलक की मान्यता है कि इस अलङ्कार के सन्देह तथा ससन्देह-दोनों नाम व्यवहृत हैं।
वामन ने उपमेय में अतिशय या चमत्कार का आधान करने के लिए
१. उपमानेन तत्त्वं च भेदं च वदतः पुनः ।
ससन्देहं वचः स्तुत्यै ससन्देहं विदुर्यथा ।—भामह, काव्यालं० ३, ४३ २. द्रष्टव्य, दण्डी, काव्यादर्श २, २६ ३. द्रष्टव्य, उद्भट, काव्यालं० सारसं० ६, २, ५
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ५१७ उपमान और उपमेय का संशय अर्थात् उभयकोटिक अनिश्चयात्मक ज्ञान सन्देह अलङ्कार का लक्षण माना है।'
रुद्रट ने एक वस्तु में सादृश्य के कारण प्रमाता को अनेक का सन्देह होना अनिश्चय-रूप संशय का लक्षण माना। इसके साथ ही उन्होंने इस अलङ्कार के निश्चयगर्भ और निश्चयान्त रूप भी स्वीकार किये । निश्चयगर्भ में उपमेय में असम्भव वस्तु का सद्भाव या सम्भव वस्तु का अभाव तथा उपमान में भी इसी तरह सम्भव का अभाव या असम्भव का सद्भाव बताया जाता है। जहाँ अन्त में वस्तु का निश्चय हो जाय, वहाँ निश्चयान्त संशय होता है। अनिश्चय रूप संशय ही सन्देह का शुद्ध रूप है; जिसमें चित्त दो वस्तु की प्रतीति की दोलाचल स्थिति में रहता है । निश्चयगर्भ में चित्तवृत्ति शुद्ध संशय की स्थिति से वितर्क की स्थिति में आ जाती है तथा निश्चयान्त में वह वितर्क के सहारे निश्चयात्मक ज्ञान की स्थिति में पहुँच जाती है। निश्चयगर्भ और निश्चयान्त सन्देह को संशय अलङ्कार इसलिए माना जाता है कि इन दोनों में चित्त में संशय की उत्पत्ति के बाद ही वितर्क तथा उसके सहारे निश्चयास्मक ज्ञान की स्थिति का वर्णन होता है। भामह के समय से ही ससन्देह में वितर्क की स्थिति को समाविष्ट किया जाता रहा है। एक उपमेय में दो की ( उपमान तथा उपमेय की ) अनिश्चयात्मक प्रतीति होने पर दोनों में भेद'निरूपण वितर्क का कार्य है। सन्देह अनिश्चयात्मक ज्ञान की एक विशेष स्थिति है तो वितर्क सन्दिग्ध वस्तु में तत्त्व-ज्ञान का साधन । अलङ्कारशास्त्र में दोनों को सन्देह अलङ्कार मान लिया गया है ।
कुन्तक के अनुसार जहाँ कवि-प्रतिभा से सम्भावित (उत्प्रेक्षित) वस्तु का स्वरूप अन्य की भी उत्प्रेक्षा के सम्भव होने के कारण सन्देह की स्थिति को प्राप्त करता है, वहाँ सन्देह अलङ्कार माना जाता है। उन्होंने इसका उद्देश्य विशेष सौन्दर्य का आधान माना है। मम्मट, रुय्यक, भोज, विश्वनाथ, शोभाकर, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि सभी प्रमुख आलङ्कारिकों १. उपमानोपमेययोरतिशयार्थ यः क्रियते संशयः स सन्देहः ।।
-वामन, काव्यालं. सू० वृत्ति पृ० २४४ २. द्रष्टव्य, रुद्रट, काव्यालं० ८, ५६-६५ ३. यस्मिन्नुत्प्रेक्षितं रूपं सन्देहमेति वस्तुनः । उत्प्रेक्षान्तरसद्भावात् विच्छित्यै (सन्देहो मतः) ॥
-कुन्तक, वक्रोक्तिजी० ३,४२
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५१८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
ने संशयात्मक मनःस्थिति के चारुतापूर्ण वर्णन में सन्देह अलङ्कार माना है । अधिकांश आचार्यों को उसके निश्चयगर्भ तथा निश्चयान्त भेद मान्य हैं । रुय्यक ने शुद्ध, निश्चयगर्भ तथा निश्चयान्त के साथ एक भिन्नाश्रय भेद भी माना है । साधारण धर्म के त्रिविध निर्देश के आधार पर भी सन्देह के तीन भेद माने जा सकते हैं ।
उल्लेख
रुय्यक के 'अलङ्कार-सूत्र' में उल्लेख अलङ्कार का प्रथम उल्लेख मिलता है । रुय्यक ने इसे परिभाषित करते हुए कहा था कि जहाँ एक वस्तु का निमित्त-भेद से अनेक रूप में ग्रहण होता है वहाँ उल्लेख अलङ्कार होता है । " अभिप्राय यह कि जहाँ कवि प्रमाता के द्वारा एक वस्तु का अनेक धर्मों के योग से, अनेक रूपों में ग्रहण किये जाने का वर्णन करता है, वहाँ उल्लेख अलङ्कार माना जाता है । इसमें एक वस्तु के बहुल रूपों का उल्लेख होता है । अतः, इसकी संज्ञा अन्वर्था है । रुचि भेद, तात्कालिक अपेक्षा के भेद, व्युत्पत्तिभेद आदि से एक वस्तु का अनेकधा उल्लेख सम्भव होता है । रुय्यक ने उल्लेख लक्षण में प्रमाता की अनेकता का उल्लेख नहीं किया था; पर 'अलङ्कारसर्वस्व' में उल्लेख का भ्रान्तिमान्, अभेद में भेद-रूप अतिशयोक्ति आदि से भेद - निरूपण के क्रम में यह कहा गया है कि उल्लेख में अनेक प्रमाता होते हैं, जो एक वस्तु को रुचि आदि के भेद से अनेक रूपों में ग्रहण किया करते हैं । एक वस्तु एक प्रमाता को उसकी रुचि आदि के अनुरूप एक रूप में गृहीत होती है; पर दूसरा प्रमाता उसी वस्तु को दूसरे रूप में ग्रहण करता है ।
विश्वनाथ ने 'साहित्यदर्पण' में उल्लेख के दो रूपों का सङ्केत दिया । उनके अनुसार एक वस्तु का अनेकधा उल्लेख कहीं प्रमाता के भेद से हो सकता है और कहीं विषय- भेद से । इस प्रकार विश्वनाथ के अनुसार एक वस्तु का अनेक प्रमाताओं के द्वारा अनेक रूपों में ग्रहण होने का वर्णन उल्लेख का एक रूप होगा और एक प्रमाता के द्वारा एक वस्तु का विषय-भेद से अनेक रूपों में ग्रहण होने का वर्णन उसका दूसरा रूप माना जायगा ।
१. एकस्यापि निमित्तवशादनेकधा ग्रहण उल्लेखः । —रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व सूत्र सं० १९
२. क्वचिद्भेदाद्ग्रहीतृणां विषयाणां तथा क्वचित् । एकस्यानेकधोल्लेखो यः स उल्लेख इष्यते ॥
— विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, ५३
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५१९
'अलङ्काररत्नाकार' में शोभाकर ने सामान्य रूप से 'एक वस्तु का भनेकधा कल्पन' उल्लेख का स्वरूप माना है।' वे विश्वनाथ के अनुयायी जान पड़ते हैं। जयदेव ने अनेक प्रमाताओं के द्वारा एक वस्तु के अनेकधा उल्लेख-मात्र को उल्लेख का लक्षण माना।२ अप्पय्य दीक्षित ने भी 'चित्रमीमांसा' में उल्लेख का यही लक्षण माना है; पर 'कुवलयानन्द' में उन्होंने इसके साथ उल्लेख के दूसरे रूप-एक प्रमाता के द्वारा एक वस्तु का विषय-भेद से अनेकधा उल्लेख-का भी उल्लेख किया है। दीक्षित के द्वारा किसी विषय में अपनी मान्यता के साथ उस विषय में पूर्व-प्रचलित अन्य मान्यताओं का उल्लेख किया जाना 'कुवलयानन्द' का वैशिष्ट्य है। सम्भव है, दीक्षित उल्लेख का एक ही रूप मानते हों। इतना स्पष्ट है कि उल्लेख के सम्बन्ध में उक्त दो प्रकार की मान्यताएं प्रचलित थीं। रुय्यक के उल्लेख-लक्षण में दोनों की सम्भावना थी। रुय्यक के उल्लेख-लक्षण-सूत्र का निमित्त-भेद से एक वस्तु का अनेक प्रमाताओं द्वारा अनेकधा ग्रहण तथा एक प्रमाता के द्वारा भी एक वस्तु का निमित्त-भेद से अनेकधा ग्रहण अर्थ निकाला जा सकता है। विद्याधर, विद्यानाथ, जगन्नाथ आदि आचार्यों ने उल्लेख में प्रमाता-भेद आवश्यक माना है। एक की अनेकधा कल्पना प्रमाता-भेद से भी सम्भव है और विषय-भेद से भी। विषय-भेद से एक वस्तु का भिन्न-भिन्न रूपों में उल्लेख भी उल्लेख अलङ्कार का एक रूप माना जाना चाहिए। भतः, उल्लेख के निम्नलिखित दो रूप स्वीकार्य हैं :
(क) जहाँ अनेक प्रमाता रुचि आदि के भेद से एक वस्तु को अनेक रूपों में ग्रहण करते हों तथा (ख) जहां विषय-भेद से एक वस्तु का अनेक रूपों में उल्लेख हो। ___ रुय्यक आदि आचार्यों ने उल्लेख-परिभाषा में 'ग्रहण' शब्द का प्रयोग किया था। विद्याधर, विद्यानाथ, विश्वनाथ, जयदेव आदि ने 'ग्रहण' के स्थान पर 'उल्लेख' शब्द तथा शोभाकर आदि ने 'कल्पन' शब्द का प्रयोग किया।
१. एकस्यानेकधा कल्पनमुल्लेखः ।
-शोभाकर, अलङ्कार रत्नाकर, सूत्र ३४ २. बहुभिर्बहुधोल्लेखादेकस्योल्लेखिता मता।-जयदेव, चन्द्रालोक, ५,२३ ३. द्रष्टव्य, अप्पय्य दी० चित्रमीमांसा, पृ० ६५ तथा कुवलयानन्द,
२२-२३
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५२० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उक्त शब्दों के प्रयोग से उल्लेख के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता। सबका तात्पर्य एक ही है। रुय्यक आदि के सामने प्रमाता थे। प्रमाता के माध्यम से जब कवि उल्लेख अलङ्कार की योजना करेगा तो प्रमाताओं के द्वारा वस्तु के विभिन्न रूपों का किस प्रकार ग्रहण किया जाता है, इसी का वर्णन वह करेगा। इसलिए 'ग्रहण' शब्द का प्रयोग सार्थक है। काव्य का समग्र वर्णन कवि के द्वारा कल्पित या वर्णित होता है; अतः 'कल्पन' तथा 'उल्लेख' शब्दों का प्रयोग भी समीचीन ही है । अतिशयोक्ति
अतिशयोक्ति को बहुत ही महत्त्वपूर्ण अलङ्कार माना गया है। भामह ने अतिशयोक्ति के स्वरूप-विवेचन-क्रम में वक्रोक्ति अर्थात् उक्तिगत वक्रता को इसका पर्याय मानकर अतिशयोक्ति को सभी अलङ्कारों का प्राण माना था।' दण्डी ने भी इसे अन्य अलङ्कारों का आश्रय माना है । २ अलङ्कार-शास्त्र में अनेक अलङ्कारों के मूल में अतिशयोक्ति का समान तत्त्व देखकर उन्हें अतिशयोक्तिमूलक अलङ्कार-वर्ग में वर्गीकृत किया गया है । रुद्रट को छोड़ प्रायः सभी आचार्यों ने अतिशयोक्ति को एक स्वतन्त्र अलङ्कार मानकर उसका स्वरूप-निरूपण किया है । रुद्रट ने अतिशयमूलक अनेक अलङ्कारों का मूल तत्त्व अतिशयोक्ति को माना था। इसीलिए, सम्भवतः, उन्होंने अतिशयोक्ति की अलङ्कार-विशेष के रूप में स्वतन्त्र सत्ता नहीं मानी। ___आरम्भ में अतिशयोक्ति नाम के अनुरूप सातिशय कथन को उक्त अलङ्कार का लक्षण माना जाता था। भामह ने उसकी परिभाषा में अतिलौकिक वर्णन (लोकातिक्रान्तगोचर वचन) तथा गुणातिशय का योग अपेक्षित माना था।' इस अलङ्कार-विशेष के स्वरूप-निरूपण के समय भी भामह इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं थे कि उक्ति की अतिलौकिकता, गुणातिशय-वर्णन आदि प्रायः समग्र काव्योक्तियों में वत्त मान रहते हैं । इसीलिए उन्होंने अतिशयोक्ति के पर्याय वक्रोक्ति को सम्पूर्ण काव्यार्थ का विभावक और सभी अलङ्कारों का १. सैषा सर्वव वक्रोक्तिरनयार्थी विभाव्यते । यत्नोऽस्यां कविना कार्यः कोऽलंकारोऽनया विना ॥
-भामह, काव्यालं० २, ८५ २. द्रष्टव्य, दण्डी, काव्यादर्श २, २२० ३. द्रष्टव्य, भामह, काव्यालं० २, ८१-८४
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[५२१ विधायक कहा था। स्पष्टतः, भामह को अतिशय-उक्ति दो रूप अभीष्ट थे—(१) समग्र काव्योक्तियों के मूल में निहित रह कर उनमें सौन्दर्य का आधान करने वाला रूप तथा (२) विशेष अलङ्कार के रूप में वर्ण्य में -गुणातिशय का आधान करने वाला तथा अतिलौकिक वर्णन करने वाला रूप। भामह अतिशयोक्ति के सामान्य और विशेष रूप का विभाग नहीं कर पाये। उद्योतकार ने भामह के उक्त कथन की व्याख्या करते हुए अपना यह मन्तव्य प्रकट किया है कि उसमें वक्रोक्ति का तात्पर्य अतिशयोक्ति अलङ्कार नहीं हो सकता, वहाँ काव्यगत चमत्कार विवक्षित है ।' आनन्दवर्धन ने भी लोकोत्तर चमत्कार वाली उक्ति को ही अतिशयोक्ति मानकर सर्वालङ्काररूपा कहा होगा, अलङ्कार-विशेष को नहीं ।२ सामान्य रूप से काव्योक्तियों में रहने वाले अतिशय या वक्रता के तत्त्व से अतिशयोक्ति नामक अलङ्कार-विशेष के भेद-निरूपण की अवश्यकता शेष थी। दण्डी, उद्भट, आदि की अतिशयोक्ति का स्वरूप भी सामान्य और व्यापक ही रहा। दण्डी ने विशेष का अर्थात् प्रस्तुत के उत्कर्ष का अतिलौकिक वर्णन अतिशयोक्ति का लक्षण माना है। स्पष्टतः दण्डी की अतिशयोक्ति-धारणा भामह की धारणा से मिलती-जुलती ही है । उद्भट ने भामह का अतिशयोक्ति-लक्षण ही किञ्चित् शब्दभेद से उद्धृत कर दिया है । किसी निमित्त से अतिलौकिक वचन के निबन्धन को अतिशयोक्ति का लक्षण मानकर उद्भट ने उसके चार भेदों का सोदाहरण निरूपण किया है। 3
वामन ने उद्भट के द्वारा कल्पित अतिशयोक्ति के चार भेदों में से एक भेद 'बहिरसतः सम्भावनायां निबद्धः' को ही अतिशयोक्ति का स्वरूप स्वीकार किया। उनके अनुसार सम्भाव्य अर्थ और उसके उत्कर्ष की कल्पना अतिशयोक्ति है।४ वामन की इस अतिशयोक्ति-परिभाषा की कल्पना के मूल में भी अतिशयोक्ति अभिधान का यौगिक अर्थ ही है । लोक में असिद्ध अतिलौकिक अर्थ का उत्कर्षपूर्ण वर्णन वामन को अतिशयोक्ति में अभीष्ट है। १. उद्योतकारास्तु 'वक्रोक्तिः वक्रतया गौणतया उक्तिः' इति व्याचख्युः ।
""सर्वालङ्कारबीजमेषेति भावः । अयं हि भामहाशयः ।-काव्यप्र०, बालबोधिनी टीका, पृ० ७४४ २. आनन्दवर्धन, ध्वन्यालोक, ३, ३७ तथा उसकी वृत्ति, पृ० २०७-८ ३. द्रष्टव्य, उद्भट, काव्यालं० सारसं० २, २३-२५ । ४. सम्भाव्यधर्मतदुत्कर्षकल्पनाऽतिशयोक्तिः । -वामन, काव्या० ४,३,१०
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५२२ ]
अलङ्कार- धारणा : विकास और विश्लेषण
कुन्तक ने दण्डी आदि की तरह वर्ण्य वस्तु के सहृदयाह्लादकारी धर्मं का चमत्कार के साथ अपूर्व अतिशय वर्णन अतिशयोक्ति का लक्षण माना । अग्निपुराणकार ने भी लोक-सीमा का अतिक्रमण करने वाले वस्तु-धर्म का वर्णन अतिशय का मुख्य लक्षण माना । सातिशय या अलौकिक वर्णन के भेदों का निर्देश करते हुए उन्होंने गुण, जाति, क्रिया आदि का वैकल्य( लोकप्रसिद्ध गुण, जाति, क्रिया आदि का विपर्यय) अतिशयोक्ति में अपेक्षित माना है और इसे विशेषोक्ति कहा है । यह विशेषोक्ति-लक्षण दण्डी के विशे-षोक्ति-लक्षण से अभिन्न है । २ भोज केवल गुण तथा क्रिया का ही अतिशय-पूर्ण वर्णन अतिशयोक्ति में अपेक्षित मानते हैं । उनकी मान्यता है कि जाति: और द्रव्य में अतिशय की कल्पना सम्भव ही नहीं । अतः अतिशयोक्ति गुण और क्रियागत ही होती है। भोज ने प्रभाव, अनुभव तथा अन्योन्य की अतिशयता को भी अतिशयोक्ति का क्षेत्र स्वीकार किया है । 3
मम्मट के समय अतिशयोक्ति के स्वरूप में विकास की एक निश्चित दिशा आयी । आचार्य मम्मट ने अतिशयोक्ति को विशिष्ट रूप दिया । इस तरह अतिशयोक्ति अलङ्कार को सामान्य अतिशय - पूर्ण वर्णन से भिन्न अपना स्वतन्त्र अस्तित्व मिला । मम्मट ने उद्भट के द्वारा कल्पित अतिशयोक्ति के सम्भाव्यमान अर्थ - निबन्धन तथा कार्य-कारण- पौर्वापर्य विपर्यय भेदों को स्वीकार किया है, जो अलौकिक वर्णन के दो रूप हैं, किन्तु परिभाषा में 'प्रस्तुत और अप्रस्तुत बीच अध्यवसान' ( आहार्याभेदनिश्चय ) का उल्लेख मम्मट की विशेषता है । उनके अनुसार उपमान के द्वारा उपमेय का निगरण कर ( उपमान से पृथक् उपमेय का निर्देश न कर ) उपमेय का अध्यवसान अर्थात् आहार्य अभेद - ज्ञान कराना अतिशयोक्ति का एक रूप है, प्रस्तुत का अन्यत्व रूप से वर्णन उसका दूसरा रूप है, 'यदि' अर्थ की कल्पना से सम्भाव्य अर्थ का निबन्धन तथा
१. यस्यामतिशयः कोऽपि विच्छित्त्या प्रतिपाद्यते । वर्णनीयस्य धर्माणां तद्विदाह्लाददायिनाम् ।
— कुन्तक, वक्रोक्तिजी० ३, २६. २. अग्निपुराण, ३४४, २५-२६, तुलनीय - दण्डी काव्यादर्श, २, ३२३
३. द्रष्टव्य, भोज, सरस्वतीकण्ठा० ४, ८१-८४
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५२३. कार्यकारण के पौर्वापर्य का विपर्यय उसके और दो रूप हैं।' उपमान से उपमेय के अध्यवसान की कल्पना मौलिक है। प्रस्तुत के अन्य प्रकारेण वर्णन की कल्पना का आधार उद्भट की 'भेद में अभेद तथा अभेद में भेद' की कल्पना है। 'काव्यप्रकाश' की 'नागेश्वरी' टीका में अतिशयोक्ति के प्रथम भेद-उपमान से उपमेय के अध्यवसानरूप-के उदाहरण-श्लोक में 'भेद में अभेद' का अध्यवसाय दिखा कर उक्त भेद को उद्भट के 'भेदेनान्यत्व' रूप अतिशयोक्ति से अभिन्न बताने का प्रयास किया गया है। पर इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि मम्मट का अतिशयोक्ति-लक्षण विकास की दृष्टि से पूर्ववर्ती आचार्यों के लक्षण से अग्रिम चरण है।
रुय्यक ने मम्मट के मत का अनुसरण करते हुए अध्यवसित के प्राधान्य के स्थल में अतिशयोक्ति की सत्ता स्वीकार की।२ उपमान के द्वारा उपमेय का निगरण होने से अध्यवसाय का स्वरूप बनता है। इस में उपमेय तो सदा गोण ही रहता है । अतः, प्रधानता या तो अध्यवसाय रूप क्रिया की हो सकती है या उपमान की। अध्यवसान साध्य हो तो क्रिया की प्रधानता होगी, जो उत्प्रेक्षा का विधान करेगी। अतिशयोक्ति में अध्यवसान सिद्ध होता है। अतः, प्रधानता उपमान की रहती है। अध्यवसित के प्राधान्य में अतिशयोक्ति मानने वाला यह मत मम्मट के 'परेण (उपमान से) प्रकृतस्य निगीर्याध्यवसान' के मत से अभिन्न है।
विश्वनाथ ने मम्मट, रुय्यक आदि की अतिशयोक्ति-धारणा का ही अनुगमन किया है। उन्होंने अतिशयोक्ति की परिभाषा में कहा है कि 'अध्यवसाय का सिद्ध होना' अतिशयोक्ति अलङ्कार है। शोभाकर, जयदेव, अप्पय्य, दीक्षित, विद्याधर, विद्यानाथ, जगन्नाथ आदि आचार्यों ने मम्मटरुय्यक-विश्वनाथ-सम्मत अतिशयोक्ति-लक्षण ही अपनाया है। जगन्नाथ के १. निगीर्याध्यवसानन्तु प्रकृतस्य परेण यत् ।
प्रस्तुतस्य यदन्यत्वं यद्यर्थोक्तौ च कल्पनम् । कार्यकारणयोर्यश्च पौर्वापर्यविपर्ययः ।
विज्ञेयातिशयोक्तिः सा-मम्मट, काव्यप्र० १०,१५३ २. अध्यवसितप्राधान्ये त्वतिशयोक्तिः ।
-रुय्यक, अलं० सर्वस्व सूत्र सं० २२. ३. सिद्धत्वेऽध्यवसायस्यातिशयोक्तिनिगद्यते ।
-विश्वनाथ, साहित्यद० १०,६४
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·५२४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अनुसार उपमान के द्वारा उपमेय का निगरण ( जो अध्यवसाय का स्वरूप है ) ही अतिशयोक्ति है । १ अप्पय्य दीक्षित ने निगीर्याध्यवासन - रूप अतिशयोक्ति को रूपकातिशयोक्ति संज्ञा दी है । उन्होंने सापह्नवातिशयोक्ति की भी कल्पना की है । कार्य-कारण- पौर्वापर्य के व्यत्यय को लेकर चपला, अत्यन्ता आदि अतिशयोक्ति विधाएँ उन्होंने मानी हैं | 3
अतिशयोक्ति-भेद
उद्भट के पूर्व प्रतिशयोक्ति के भेदोपभेदों का निरूपण सैद्धान्तिक रूप में तो नहीं हुआ था; पर दण्डी ने अतिशयोक्ति के संशय, निर्णय तथा आश्रयाधिक्य रूपों के उदाहरण दिये थे । ४ उद्भट ने उसके चार रूप माने हैं - (१) भेद में अभेद, (२) अभेद में भेद, (३) वस्तुतः असत् का सम्भावना में निबन्धन तथा · (४) कार्य और कारण के पौर्वापर्य का विपर्यय । ५ मम्मट ने भी अतिशयोक्ति के चार रूप स्वीकार किये - ( १ ) उपमान से उपमेय का निगरणपूर्वक अध्यवसान, (२) प्रस्तुत का अन्यत्व, (३) 'यदि' के अर्थ की कल्पना या सम्भावना से निबन्धन तथा ( ४ ) कार्यकारणपौर्वापर्यविपर्यय । ६ रुय्यक ने भेद में अभद अभेद में भेद सम्बन्ध में असम्बन्ध रूप भेद माना है । इसके विपरीत असम्बन्ध में सम्बन्ध भेद होता है । कार्यकारणपौर्वापर्य विपर्यय की जगह - रुय्यक ने 'कार्यकारणपौर्वापर्यविध्वंस' कहा है । कार्य और कारण के - स्वाभाविक क्रम का ध्वंस कार्य का कारण से पूर्व-भाव तथा सहभाव दिखाने से हो सकता है । इस प्रकार रुय्यक के अनुसार कार्यकारण पौर्वापर्यध्वंस के दो रूप हैं । जयरथ ने इस ध्वंस के पाँच रूप माने हैं । उनके अनुसार दो प्रकार से कार्यकारण का ध्वंस दिखाया जा सकता है और तीन प्रकार
१. विषयिणा विषयस्य निगरणमतिशयोक्तिः
....। जगन्नाथ, रसगंगा ० पृ० ४७६
२. रूपकाक्तिशयोक्तिः स्यान्निगीर्याध्यवसानतः । - अप्पय्यदी०, कुवलया ० ३६
३. वही, ३७-४३
४. द्रष्टव्य, दण्डी, काव्यादर्श, २, २१७ -१९
५. द्रष्टव्य, उद्भट, काव्यालं० सारसं० २,२३-२५
६. मम्मट, काव्यप्र० १०, १५३
७. रुय्यक, अलं० सर्वस्व पृ० ६६-६६
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ५२५. से कार्यकारण के पौर्वापर्य का ध्वंस। प्रसिद्ध कारण को कार्य तथा कार्य को कारण कहना कार्यकारण के ध्वंस के दो रूप हैं। कार्य का कारण से पूर्व-भाव, सह-भाव तथा प्रसिद्ध कार्यों में क्रमविपर्यय दिखाना उसके पौर्वापर्य के ध्वंस के तीन रूप हैं।' जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने उक्त भेदों को समीकृत कर स्वीकार किया है। इस प्रकार उनके अनुसार 'भेद में अभेद' या उपमान से उपमेय का निगरण कर अध्यवसान रूपकातिशयोक्ति है। भेद में अभेद, अभेद में भेद, सम्बन्ध में असम्बन्ध, असम्बन्ध में सम्बन्ध, कार्यकारण-पौर्वापर्य-विपर्यय के चञ्चलातिशयोक्ति, अत्यन्तातिशयोक्ति, चपलातिशयोक्ति आदि भेद अप्पय्य को मान्य हैं । प्रतीप
प्रतीप का उत्स उपमा है। उसे स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में स्वीकृति मिलने के पूर्व उपमा के ही एक प्रकार के रूप में उसके स्वरूप का विवेचन हो रहा था। प्रतीप संज्ञा की अन्वर्थता भी उपमा से उसके स्वरूप के विपर्यय की कल्पना में ही है। उपमा के स्वरूप में विपर्यय की निम्नलिखित प्रक्रियाएँ सम्भव हैं—(क) प्रसिद्ध उपमान को उपमेय के रूप में कल्पित कर उपमेय के साथ उसकी तुलना करना और (ख) उपमेय की तुलना में उपमान को उससे अधिक उत्कर्षवान् न पाकर उस पर अनुकम्पा या उसकी निन्दा करना । उपमान की उपमेय के साथ तुलना करते हुए उसका उपमानत्व अनिष्पन्न बताना तथा उपमान के प्रयोजन का अभाव बताना आदि भी इसके अन्य रूप हो सकते हैं। उपमा में उपमेय की उपमान के साथ तुलना करने का सीधा क्रम है। प्रतीप में उस क्रम का विपर्यय हो जाता है। उपमा-योजना के मूल में उपमेय को अपेक्षा उपमान के गुणाधिक्य की धारणा निहित रहती है। प्रतीप में उस धारणा का विपर्यय होता है। उपमान में गुणाधिक्य का अभाव मानकर या तो उस उत्कर्षाभाव के लिए उस पर दया प्रकट की जाती है या उसकी निन्दा की जाती है। कुछ आचार्यों ने उपमेय से उपमान की हीनता की कल्पना कर उसके समान होने के कारण उपमेय की दुरवस्था पर दया या निन्दा का भाव प्रकट करना प्रतीप का स्वरूप माना है। इसमें भी प्रसिद्ध उपमान के गुणोत्कर्ष की धारणा का विपर्यय स्वीकृत है। दण्डी ने
१. जयरथ, विमशिनी पृ० ८७ २. अप्पय्यदी०, कुवलया० ३६-४३
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'५२६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण उपमा के भेद-निरूपण-क्रम में उसके विपर्यय पर आधृत विपर्यासोपमा का सोदाहरण विवेचन किया था, जिसमें प्रसिद्ध उपमान की उपमेय के रूप में कल्पना दिखायी गयी थी।' वामन इसे कल्पिता उपमा से अभिन्न मानेंगे। उनके अनुसार लोक-प्रसिद्ध उपमान को उपमेय बना देना कवि की कल्पना का व्यापार है; अतः यह कल्पिता उपमा है। वामन के परवर्ती आचार्य रुद्रट ने प्रतीप को स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में स्वीकार किया। तब से उसका • स्वतन्त्र अस्तित्व माना जाता रहा है। जयदेव ने प्रतीप के एक रूप 'उपमान के उपमेयत्व-प्रकल्पन' को प्रतीपोपमा कहकर उपमा से उसके निकट सम्बन्ध का सङ्कत किया है । 3 अस्तु !
ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वप्रथम रुद्रट ने प्रतीप को स्वतन्त्र अलङ्कार मानकर उसका स्वरूप-निरूपण किया था। उन्होंने प्रतीप को परिभाषित करते हुए कहा कि जहां उपमेय की अतिशय स्तुति के लिए उसे उपमान के समान होने के कारण उसकी दुरवस्था पर अनुकम्पा या निन्दा प्रकट की जाय, वहाँ प्रतीप होता है। सामान्यतः, उपमेय को उपमान के सदृश कहने में उसका (उपमेय का) गुणोत्कर्ष व्यक्त होता है; पर प्रतीप में कवि यह मान लेता है कि उपमेय के उपमान के समान होने से उसके गुण का अपकर्ष हो गया। अतः वह उपमेय पर अनुकम्पा करता है या उसकी निन्दा करता है। परिणामतः, इस प्रकार की कल्पना में उपमेय की स्तुति ही व्यजित होती है। उपमेय इतना उत्कृष्ट है कि दूसरी कोई भी वस्तु ( उपमान ) उसकी समता कर ले, यह उसकी दुरवस्था का सूचक है। कवि की अनुकम्पा या निन्दा से उपमेय के उत्कर्ष की सिद्धि में ही अलङ्कारत्व है।
आचार्य मम्मट ने रुद्रट की प्रतीप-धारणा को अस्वीकार कर उसके दो रूपों को स्वतन्त्र रूप से परिभाषित किया। उनके अनुसार उपमान का आक्षेप (निन्दा या निषेध ) प्रतीप का एक रूप है तथा उसके (उपमान के)
१. द्रष्टव्य, दण्डी, काव्यादर्श २,१७ २. इयमेव ( विपर्यासोपमामेव ) कल्पिता' इत्याह वामनः ।
-काव्यादर्श, कुसुमप्रतिमा टीका पृ०७६ ३. द्रष्टव्य, जयदेव, चन्द्रालोक, ५, १४ ४. यत्रानुकम्प्यते सममुपमाने निन्द्यते वापि । उपमेयमतिस्तोतु दुरवस्थमिति प्रतीपं स्यात् ।।
-रुद्रट, काव्यालं० ८,७६
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५२७
अनादर के लिए उसे उपमेय के रूप में कल्पित कर लेना प्रतीप का दूसरा रूप है।' मम्मळ भी उपमान के अनादर तथा उपमान के उपमेयत्व की कल्पना का उद्देश्य उपमेय का उत्कर्ष-साधन ही मानते हैं। मम्मट के प्रतीप का दूसरा रूप ( उपमान का उपमेयत्व प्रकल्पन-रूप ) दण्डी की विपर्यासोपमा के रूप से अभिन्न है। उपमान का आक्षेप उनकी नवीन कल्पना है। रुद्रट ने उपमेय की स्तुति के लिए उसी की निन्दा या उस पर अनुकम्पा प्रतीप का लक्षण माना था। मम्मट ने उपमेय के उत्कर्ष के लिए उपमान का आक्षेप अपेक्षित माना। यही मत अधिक समीचीन जान पड़ता है। उपमेय की स्तुति के लिए उपमान से सादृश्य के कारण उस उपमेय की ही निन्दा व्याजस्तुति का क्षेत्र हो जायगी। रुय्यक ने मम्मट की प्रतीप-धारणा को ही सूत्रबद्ध किया है।२ विश्वनाथ, शोभाकर, जयदेव, अप्पय्यदीक्षित जगन्नाथ, आदि आचार्यों ने मम्मट-रुय्यक की प्रतीप-धारणा को ही स्वीकार कर परिभाषित किया है। निष्कर्षतः, प्रतीप के दो प्रमुख रूप स्वीकृत हैं"(क) उपमान की उपमेय के रूप में कल्पना तथा (ख) उपमेय को ही उपमान के कार्य का निष्पादक मानकर उपमान का आक्षेप । प्रतीप के भेद
प्रतीप के उपरिलिखित दो भेदों के और भी उपभेद कल्पित हुए हैं। मम्मट, रुय्यक आदि की उपमान के आक्षेप की धारणा के कई रूप सम्भव हैं—(क) 'यह उपमेय तो है ही, फिर उपमान का क्या काम ?' इस उक्ति से उपमान का न्यग्भाव या उसकी व्यर्थता; (ख) उपमेय के सामने उपमान की निन्दा; तथा (ग) वर्ण्य के साथ अन्य उपमान की अनिष्पत्ति का कथन । अप्पय्य दीक्षित ने 'अन्य उपमेय के प्राप्त होने पर वर्ण्य के अनादर' को भी प्रतीप का एकभेद माना है। अन्य का लाभ होने पर ही वर्ण्य का यह अनादर अलङ्कार बनता है। उक्त आधार पर पण्डितराज जगन्नाथ को भी प्रतीप के पांच भेद मान्य हैं। १. आक्षेप उपमानस्य प्रतीपमुपमेयता। तस्यैव यदि वा कल्प्या तिरस्कारनिबन्धनम् ॥
-मम्मट, काव्यप्र० १०,२०१ २, उपमानस्याक्षेप उपमेयताकल्पनं वा प्रतीपम् ।।
-रुय्यक, अलं० सर्वस्व, सूत्र सं० ६६ ३. द्रष्टव्य, अप्यय्य दीक्षित, कुवलया० १२-१६ ४. द्रष्टव्य, जगन्नाथ, रसगंगा० पृ० ७८४
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५२८ ]
विनोक्ति
हुई ।
विनोक्ति अलङ्कार की कल्पना अलङ्कार-शास्त्र में बहुत पीछे चलकर मम्मट के पूर्ववर्ती आलङ्कारिकों ने इसकी सत्ता की कल्पना नहीं की थी । मम्मट ने विनोक्ति का सर्वप्रथम विवेचनं किया । इसकी कल्पना सहोक्ति के वैपरीत्य के आधार पर की गयी है । सहोक्ति में एक के साथ दूसरे का कथन होता है; इसके विपरीत विनोक्ति में एक के बिना दूसरे में शोभा अथवा अशोभा का अभाव वर्णित होता है । इसीलिए 'अलङ्कार सर्वस्व' में विनोक्ति को सहोक्ति का प्रतिभट कहा गया है । "
मम्मट ने विनोक्ति की परिभाषा में यह धारणा प्रकट की है कि जहाँ अन्य के बिना अन्य का अशोभन होना या शोभन होना वर्णित हो, वहाँ विनोक्ति अलङ्कार होता है । २ विनोक्ति का स्वरूप निषेध-प्रधान है । परिभाषा में उसके विधि-रूप का निर्देश नहीं किया गया है । मम्मट की विनोक्ति - परिभाषा का सरलार्थ यह होगा कि विनोक्ति में एक के अभाव में दूसरी वस्तु ( वर्ण्य-वस्तु) का शोभन या अशोभन न होना कहा जाय । किन्तु, मम्मट ने विनोक्ति के दूसरे रूप का जो उदाहरण दिया है, उसमें अशोभन न होने का निषेध - मुखेन उल्लेख न कर विधिमुखेन शोभन होने का - ' सुन्दराशय' होने का उल्लेख किया गया है । मम्मट ने विनोक्ति की परिभाषा परक कारिका की व्याख्या करते हुए उसकी वृत्ति में स्वयं 'सत् न' का अर्थ अशोभन तथा 'न इतर' का अर्थ शोभन माना है । इस तरह किसी वस्तु के बिना किसी के शोभन न होने का निषेधमुखेन वर्णन हो या अशोभन होने का विधिमुखेन उल्लेख हो तथा इसके विपरीत किसी वस्तु के अभाव में किसी के अशोभन न होने का निषेधमुखेन वर्णन हो या शोभन होने का विधिमुखेन उल्लेख हो; इन सभी स्थितियों में विनोक्तिः अलङ्कार का सद्भाव माना जायगा । परिभाषा में शोभन न होने तथा अशोभन न होने — जैसे निषेधात्मक शब्दों का प्रयोग विचारणीय है । यह प्रश्न किया जा सकता है कि जब एक के अभाव में दूसरे की सुन्दरता या कुरूपता का विधिमुख से वर्णन भी विनोक्ति में हो सकता है तो, परिभाषा में निषेध -
-
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
१, सहोक्ति प्रतिभटभूतां विनोक्ति लक्षयति ।
— रुय्यक, अलं० सर्वस्व पृ० ८६
२. विनोक्तिः सा विनाऽन्येन यत्रान्यः सन्न नेतरः ।
- मम्मट, काव्यप्र० १०, १७१
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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ५२६
परक शब्दों के प्रयोग का क्या उद्देश्य था ? इस प्रश्न के उत्तर में अलङ्कार सर्वस्वकार ने कहा है कि विनोक्ति में एक के अभाव का दूसरे के अभाव से प्रयुक्त होने का भाव स्पष्ट करने के लिए परिभाषा में अभाव-वाची शब्दों का प्रयोग किया गया है। आचार्य रुय्यक ने मम्मट की विनोक्ति-धारणा को ही सूत्रबद्ध करते हुए कहा है कि किसी वस्तु के विना अन्य के शोभनत्व या अशोभनत्व का अभाव कहना विनोक्ति अलङ्कार है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि किसी वस्तु के अभाव में अन्य वस्तु के अशोभन या शोभन होने का वर्णन विनोक्ति है ।
विश्वनाथ ने मम्मट तथा रुय्यक की विनोक्ति-सम्बन्धी मान्यता को ही स्वीकार किया है । उन्होंने 'सत्' के स्थान पर शोभन के लिए 'साधु' शब्द का प्रयोग किया है । साधु तथा असाधु शब्दों के अर्थ का स्पष्टीकरण उन्होंने शोभन और अशोभन शब्दों से किया है । 3 मम्मट और रुम्यक ने भी वृत्ति में शोभन अशोभन शब्दों का ही प्रयोग किया था । स्पष्टतः, मम्मट से विश्वनाथ के समय तक विनोक्ति के स्वरूप में कोई विकास नहीं हुआ ।
जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने विनोक्ति का भावात्मक स्वरूप निरूपित किया । उनके अनुसार किसी वस्तु के विना प्रस्तुत को ( विधिमुख से ) हीन कहना विनोक्ति है । किसी के अभाव में प्रस्तुत को रम्य कहना भी विनोक्ति अलङ्कार माना जाता है । इस परिभाषा में प्राचीन आचार्यों के 'अन्य' शब्द की जगह 'प्रस्तुत' का उल्लेख इसका वैशिष्ट्य है । कवि किसी वस्तु के अभाव में वर्णनीय वस्तु की ही होनता या रमणीयता का वर्णन करता है । हीनता या रमणीयता के विधिमुख से वर्णन पर बल देना भी इस परिभाषा की विशेषता है । इससे मम्मट आदि की विनोक्ति धारणा से अप्पय्य की धारणा में कोई मौलिक अन्तर तो नहीं आया, पर जिस बात को मम्मट, १. अत्राशोभनशोभनत्वसत्तायामेव वक्तव्यायामसत्तामुखेनाभिधानमन्यनिवृत्तिप्रयुक्ता तन्निवृत्तिरिति ख्यापनार्थम् ।
— रुय्यक अलं० सर्वस्व पृ० ८६
२. विना किञ्चिदन्यस्य सदसत्त्वाभावो विनोक्तिः ।
- वही, सूत्र सं० ३० ३. द्रष्टव्य, विश्वनाथ, सहित्यद० १०, तथा उसकी वृत्ति पृ० ६६४
४. विनोक्तिश्चेविना किञ्चित्प्रस्तुतं हीनमुच्यते ।
तच्चेत् किञ्चिद्विना रम्यं विनोक्तिः सापि कथ्यते ।
३४
अप्पयदी० कुवलया० ५९, ६०
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५३० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण रुय्यक, विश्वनाथ आदि प्रकारान्तर से ( शोभनत्व-वर्णन को अशोभनत्वाभाव वर्णन तथा अशोभनत्व-वर्णन को शोभनत्वाभाव-वर्णन के रूप में ) कह रहे थे, उसे अप्पय्य ने सरल रूप में प्रस्तुत किया है। अप्पय्य दीक्षित के बाद विनोक्ति-धारणा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
निष्कर्षतः, विनोक्ति के निम्नलिखित दो रूप सामने आते हैं :
(१) किसी वस्तु के अभाव में दूसरी (वर्ण्य) वस्तु के अशोभन या हीन होने का कथन तथा (२) किसी वस्तु के अभाव में दूसरी ( वर्ण्य) वस्तु के शोभन या रम्य होने का वर्णन । ___एक के अभाव में दूसरी वस्तु की रमणीयता तथा अरमणीयता का उल्लेख भावात्मक तथा अभावात्मक; दोनों रूपों में हो सकता है। अन्योक्ति ___ अन्योक्ति को अलङ्कार के रूप में संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र में विशेष गौरव 'प्राप्त नहीं हो सका। हिन्दी रीति-शास्त्र में उसे अपेक्षाकृत अधिक महत्त्व प्राप्त हुआ है। काव्य के क्षेत्र में अन्योक्तियां बहुत लोकप्रिय हुई हैं । संस्कृत तथा हिन्दी में अन्योक्ति पर आधृत अनेक रचनाएँ उपलब्ध हैं । इस प्रकार अन्योक्ति काव्य की एक विशेष शैली ही बन गयी है। विशेष अलङ्कार के रूप में भन्योक्ति का स्वरूप-निरूपण सर्वप्रथम आचार्य रुद्रट ने किया था। उन्होंने अन्योक्ति की परिभाषा में कहा था कि इसमें उपमान का कथन होता है और उससे असमान विशेषण वाले (कहीं-कहीं समान विशेषण वाले भी), किन्तु समान इतिवृत्त वाले उपमान की प्रतीति हो जाती है।' उपमान के सम्पूर्ण व्यापार का वर्णन कवि कर देता है और उसके समान व्यापार वाले वर्ण्य की व्यञ्जना हो जाती है । कवि को जिस वस्तु का वर्णन अभिप्रेत रहता है, उसका प्रत्यक्षतः कथन न कर वह उसके समान इतिवृत्त वाले अप्रस्तुत का वर्णन करता है। इतिवृत्त की समता ही अप्रस्तुत से प्रस्तुत के बोध में कारण होती है। रुद्रट ने अप्रस्तुत के कयन से प्रस्तुत की प्रतीति को समासोक्ति का भी स्वरूप माना था; किन्तु उनकी समासोक्ति से अन्योक्ति का भेद यह है कि
१. असमानविशेषणमपि यत्र समानेतिवृत्तमुपमेयम् । उक्तेन गम्यते परमपमानेनेति साऽन्योक्तिः ।।
-रुदट, काव्यालं०८, ७४
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.. अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [५३१ समासोक्ति में जहाँ अप्रस्तुत से प्रस्तुत की प्रतीति का हेतु विशेषण-साम्य होता है, वहां अन्योक्ति में उसका हेतु इतिवृत्त का साम्य होता है।
रुद्रट के पूर्ववर्ती आचार्यों ने अप्रस्तुतप्रशंसा का स्वरूप-निरूपण किया था, जिसमें प्रस्तुत अर्थ का बोध कराने वाले अप्रस्तुत के कथन की धारणा व्यक्त की गयी थी। रुद्रट ने उस अप्रस्तुतप्रशंसा का उल्लेख न कर अन्योक्ति का विवेचन किया है। सम्भव है कि उन्होंने अप्रस्तुतप्रशंसा के पर्याय के रूप में अन्योक्ति शब्द का प्रयोग किया हो। संस्कृत के समर्थ आलङ्कारिक अन्योक्ति को अप्रस्तुतप्रशंसा का ही अपर पर्याय मानते रहे। इसीलिए रुद्रट के अन्योक्तिनिरूपण के उपरान्त भी किसी समर्थ आचार्य ने अन्योक्ति को स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं माना। हेमचन्द्र तथा वाग्भट ( द्वितीय )-जैसे कुछ गौण महत्त्व के आचार्यों ने ही संस्कृत में अन्योक्ति का स्वरूप-निरूपण किया है। इन आचार्यों ने अन्योक्ति के स्वरूप के सम्बन्ध में कोई नवीन कल्पना नहीं की। हेमचन्द्र ने मम्मट आदि के अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार को ही सभेद सूत्रबद्ध कर दिया है।' उन्होंने अन्योक्ति को अप्रस्तुतप्रशंसा का ही दूसरा नाम माना है । अतः, उन्होंने अन्योक्ति से पृथक् अप्रस्तुतप्रशंसा का विवेचन नहीं किया है।
हिन्दी रीति-साहित्य में केशव ने अन्योक्ति का स्वरूप-निरूपण किया है। उनकी अन्योक्ति प्राचीन आचार्यों की अप्रस्तुतप्रशंसा ही है ।२ भिखारीदास ने अन्योक्ति को अप्रस्तुतप्रशंसा का पर्याय तो नहीं माना; पर अप्रस्तुतप्रशंसा का विधायक मूलतत्त्व अवश्य माना। उन्होंने अन्योक्ति को विशेष अलङ्कार न मानकर अप्रस्तुतप्रशंसा, समासोक्ति, पर्यायोक्त आदि का समान मूलतत्त्व माना है। उनके अनुसार छह अलङ्कार अन्योक्तिमूलक हैं। हिन्दी के कुलपति. १. सामान्यविशेषे कार्य कारणे प्रस्तुते तदन्यस्य तुल्ये तुल्यस्य चोक्तिरन्योक्तिः।
-हेमचन्द्र, काव्यानु० ६ पृ० ३०७ तुलनीय-मम्मट का अप्रस्तुतप्रशंसा-लक्षण एवं भेद ।
-काव्यप्र० १०, १११-५२ २. औरहि प्रति जु बखानिये कछु और को बात । अन्य उक्ति तेहि कहत हैं, बरनत कवि न अघात ॥
-केशव, कविप्रिया पृ० २४२ ३. अप्रस्तुत परसंस औ प्रस्तुत अंकुर लेखि ।
समासोक्ति, व्याजस्तुन्यौ, आक्षेपं अबरेखि । परजाजोक्ति-सँमेत किय षट भूषन इक ठौर । जांनि सकल अन्योक्ति में, सुनों सुकबि सिर-मौर ॥
-भिखारीदास, काव्यनिर्णय, १२, १-२ पृ० २९७
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५३२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण सोमनाथ, आदि आचार्यों ने भी अन्योक्ति को अप्रस्तुतप्रशंसा से अभिन्न माना है।
निष्कर्षतः, अन्योक्ति सारूप्य-निबन्धन-रूप अप्रस्तुतप्रशंसा का ही पर्याय मानी गयी है। यह अन्योक्ति या अप्रस्तुतप्रशंसा के स्वरूप का चमत्कार है कि उसे काव्य की एक विशेष शैली का रूप प्राप्त हो गया है। अन्योक्ति के इस महत्त्व तथा उसकी लोकप्रियता को देखते हुए ही कुछ विद्वानों ने अन्योक्ति का अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार से स्वतन्त्र अस्तित्व मानने का सुझाव दिया है। पर, अन्योक्ति की प्रसिद्धि को देखते हुए उसे उसके अपने ही मूल रूप से पृथक् मान लेने में कोई युक्ति नहीं। साम्य
सर्वप्रथम आचार्य रुद्रट ने साम्य को स्वतन्त्र अलङ्कार मानकर उसके स्वरूप का निरूपण किया। उन्होंने इसे औपम्यमूलक अलङ्कार मानकर उपमा से इसके स्वरूप में कुछ वैशिष्ट्य का आधान करना चाहा। जैसा कि साम्य के नाम से स्पष्ट है, इसमें उपमान और उपमेय की समानता का उल्लेख होता है। दोनों का साम्य या साधर्म्य तो उपमा में भी प्रदर्शित होता है, फिर साम्य का उपमा से भेद क्या होगा ? रुद्रट ने दोनों के भेद-निरूपण के लिए साम्य की परिभाषा में कुछ व्यावर्तक तत्त्व जोड़े हैं। उनके अनुसार उपमान तथा उपमेय के बीच साधारण रूप से रहने वाले गुण, क्रिया, संस्थान आदि से प्रयोज्य अर्थ-क्रिया से जहां उपमेय उपमान की समता प्राप्त कर लेता है, वहाँ साम्य अलवार होता है।' उपमान के साथ उपमेय का ऐसा साम्य कि उपमेय उपमान का-सा कार्य सम्पादित कर दे, साम्य अलङ्कार का स्वरूप है। उसको दूसरे प्रकार की कल्पना करते हुए रुद्रट ने कहा है कि जहाँ उपमेय और उपमान में सर्वथा साम्य दिखा कर भी कवि उपमेय के उत्कर्ष-द्योतन के लिए उनमें वैशिष्ट्य बतावे, वहां भी साम्य अलङ्कार होता है। इस द्वितीय साम्य का स्वरूप भामह आदि के व्यतिरेक के समान है। परवर्ती आचार्यों ने भी ऐसे स्थल में व्यतिरेक ही माना है। १. अर्थक्रियया यस्मिन्नुपमानस्य तिसाम्यमुपमेयम् । तत्सामान्यगुणादिककारणया तद्भवेत्साम्यम् ॥
-रुद्रट, काव्यालं. ८,१०५ २. सर्वाकारं यस्मिन्नुभयोरभिधातुमन्यथा साम्यम्।
उपमेयोत्कर्षकरं कुर्वीत विशेषमन्यत्तत् ॥ वही, ८,१०७
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५३३ भोज ने साम्य को स्वतन्त्र अलङ्कार मान कर उसका विवेचन किया है। उन्होंने साम्य के सम्बन्ध में रुद्रट की धारणा को ही स्वीकार किया है; पर उसमें उन्होंने दृष्टान्तोक्ति, प्रतिवस्तूक्ति आदि अलङ्कारों को अन्तर्भुक्त मान लिया है।
___ संस्कृत-अलङ्कारशास्त्र के अन्य आचार्यों ने साम्य का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार नहीं किया है। प्रत्यनीक
प्रत्यनीक अलङ्कार का स्वरूप-निरूपण सर्वप्रथम रुद्रट ने किया था। उन्होंने इसे औपम्यगर्भ अलङ्कार माना था। उनकी मान्यता थी कि जहां कवि प्रस्तुत के उत्कर्ष-साधन के लिए उसके विजिगीषु के रूप में अप्रस्तुत की योजना करेगा, वहाँ प्रत्यनीक नामक अलङ्कार होगा। उपमान उपमेय से स्पर्धा करता हुआ उसे जीतने की इच्छा से उसका विरोधी बने; यह वर्णन परिणामतः उपमेय का उत्कर्ष ही प्रमाणित करेगा। सामान्यतः, उपमान उपमेय की अपेक्षा अधिक उत्कर्षशाली माना जाता है; पर जहां उपमेय के गुणोत्कर्ष को देख कर उपमान भी उसे गुणों से जीतने की कामना करने लगे और उसका विरोधी बन जाय, वहाँ विशेष भङ्गी से उपमेय के उत्कर्ष का प्रतिपादन होने से अलङ्कारस्व होगा ही। ऐसे अलङ्कार को रुद्रट प्रत्यनीक कहेंगे । रुद्रट ने प्रत्यनीक में तीन बातें आवश्यक मानी हैं—(क) इसमें उपमान को उपमेय का विरोधी कहा जाता है, (ख) उपमान अपने गुणों से उपमेय को जीतने की इच्छा से उसका विरोधी बना हुआ बताया जाता है तथा (ग) उपमान को उपमेय का विजिगीषु या विरोधी बताने में कवि का उद्देश्य उपमेय की उत्तमता का प्रतिपादन होता है ।२
मम्मट के समय प्रत्यनीक के लक्षण में थोड़ा विकास हुआ। मम्मट ने प्रस्तुत अलङ्कार के नाम का यौगिक अर्थ दृष्टि में रखते हुए उसके स्वरूप का व्याख्यान किया। उन्होंने प्रत्यनीक के सम्बन्ध में रुद्रट की मूल धारणा को स्वीकार करने पर भी उसे कुछ स्वतन्त्र रूप से परिभाषित किया है।
१. द्रष्टव्य, भोज, सरस्वतीकण्ठा० पृ० ३६६-७६ । २. वक्त मुपमेयमुत्तममुपमानं तज्जिगीषया यत्र । तस्य विरोधीत्युक्त्या कल्प्येत प्रत्यनीकं तत् ।।
-रुद्रट, काव्यालं०८,६२
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५३४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण रुद्रट की तरह मम्मट ने भी इस अलङ्कार का उद्देश्य वर्णनीय अर्थ की स्तुति या उसका उत्कर्ष-प्रतिपादन माना है। वर्ण्य से अन्य का हीनता-बोध, जो उसे वर्ण्य का विरोधी बनाता है, मम्मट को भी मान्य है। इस अंश में रुद्रट से सहमत होकर भी मम्मट ने यह कल्पना की है कि वर्ण्य से अपने में गुण की हीनता की अनुभूति से अपमान का प्रतिशोध तो विरोधी लेना चाहता है; पर वर्ण्य से प्रतिशोध लेने में असमर्थ होने पर वह उसके आश्रित का तिरस्कार करता है। ऐसे वर्णन के स्थल में प्रत्यनीक अलङ्कार होता है। प्रत्यनीक शब्द सैन्य-प्रतिनिधि का बोधक है। जैसे कोई अपने प्रतिद्वन्द्वी से प्रतिशोध लेने में असमर्थ होकर उसके आश्रित या प्रतिनिधि का तिरस्कार कर प्रतिशोध लेता हो, वैसे ही प्रत्यनीक अलङ्कार में वर्ण्य से प्रतिशोध लेने में अशक्त विरोधी के द्वारा उसके आश्रित का तिरस्कार वर्णित होता है। इस वर्णन से वर्ण्य की अप्रतिभटता व्यञ्जित होती है। मम्मट की प्रत्यनीक-परिभाषा इस प्रकार है :-प्रतिपक्ष के उत्कर्ष-साधन के लिए जहाँ किसी के द्वारा उसके प्रतिकार में असमर्थ होने पर उसके सम्बन्धी का तिरस्कार किया जाना वणित हो, वहां प्रत्यनीक अलङ्कार होता है।' रुय्यक ने प्रत्यनीक का यही स्वरूप सूत्रित किया है। मम्मट और रुय्यक ने प्रत्यनीक-परिभाषा में उपमानोपमेय. भाव का उल्लेख नहीं किया। प्रबल शत्र के प्रतिकार में असमर्थ होकर किसी के द्वारा उस शत्र के आश्रित या उसके सदृश अन्य का तिरस्कार किया जाना प्रत्यनीक-विधान के लिए पर्याप्त माना गया ।
विश्वनाथ, विद्यानाथ, अप्पय्य दीक्षित, नरसिंह कवि आदि ने मम्मट की प्रत्यनीक-धारणा को ही स्वीकार किया है। विद्यानाथ ने इसे लोकन्याय पर आधृत अलङ्कार कहा है। उन्होंने प्रतिपक्ष के सम्बन्धी' का अर्थ उसके 'सदृश' मानकर यह अर्थ किया है कि प्रत्यनीक में बलवान शत्र के प्रतिकार में असमर्थ होकर उसका विपक्षी उसके सदृश अन्य का तिरस्कार करता है।
पण्डितराज जगन्नाथ ने भी मम्मट आदि के मतानुसार ही प्रत्यनीक
१. प्रतिपक्षमशक्त न प्रतिकतु तिरस्क्रिया। ___या तदीयस्य तत्स्तुत्य प्रत्यनीकं तदुच्यते ।।-मम्मट, काव्यप्र० १०,१९६. २. प्रतिपक्षप्रतीकाराशक्तौ तदीयतिरस्कारः प्रत्यनीकम् ।
___-रुय्यक, अलं० सर्वस्व, सूत्र सं०६८ ३. अत्र सादृश्यहेतुकं तदीयत्वमित्यलंकारत्वम् ।
-विद्यानाथ, प्रतापरुद्रयशोभूषण पृ० ४६३
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अलङ्कारों का स्वरूप- विकास
[ ५३५
को परिभाषित किया है । वे प्रत्यनीक का अर्थ अनीक ( प्रतिपक्षी) के सदृश मानते हैं । उनके अनुसार प्रतिपक्षी के सम्बन्धी से तात्पर्य उसके उपजीव्य, उपजीवक, मित्र आदि का है । अतः, प्रतिपक्षी से प्रतिशोध लेने में असमर्थ विपक्षी के द्वारा उसके आश्रित, आश्रयदाता, मित्र तथा उसके सदृश अन्य का तिरस्कार किये जाने में जगन्नाथ के अनुसार प्रत्यनीक होगा । पण्डितराज जगन्नाथ ने प्रत्यनीक को गम्यमाना हेतुत्प्रेक्षा में गतार्थ बताया है । उन्होंने प्रत्यनीक के उदाहरणों को हेतूत्प्रक्षा के भी उदाहरण सिद्ध किये हैं । ' हेतुत्प्रेक्षा के गम्यमाना भेद में प्रत्यनीक का अन्तर्भाव मानने के पक्ष में प्रस्तुत पण्डितराज की युक्तियों के उत्तर में कहा जा सकता है कि प्रतिपक्षी के साक्षात् प्रतिकार का वर्णन तो हेतुत्प्र ेक्षा में गतार्थ हो जाता; पर प्रतिपक्षी के सम्बन्धी का प्रतिकार प्रत्यनीक का वैशिष्ट्य है । यही मत 'कुवलयानन्द' की अलङ्कारचन्द्रिका टीका में व्यक्त किया गया है ।
निष्कर्ष यह कि प्रत्यनीक एक स्वतन्त्र अलङ्कार है । इसमें वर्ण्य को अबल बताकर अन्य वस्तु का उसके प्रतिकार में असमर्थ होकर उसके सम्बन्धी ( आश्रय, मित्र आदि तथा उसके सदृश किसी वस्तु ) से प्रतिशोध लेना वर्णित होता है | स्पष्टतः इस वर्णन में वर्ण्य का उत्कर्ष - प्रतिपादन कवि का उद्देश्य होता है । प्रत्यनीक नाम की अन्वर्थता इस बात में है कि इसमें प्रतिकार किसी के प्रतिनिधि या उसके सदृश का किया जाता है । प्रत्यनीक शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है प्रतिनिधि या किसी वस्तु के सदृश वस्तु | 3
,
स्वभावोक्ति
वस्तु-स्वभाव के यथारूप वर्णन का काव्य में महत्त्व अनुपेक्षणीय है । इसके अभाव में काव्य में अर्थबोध या बिम्बग्रहण ही सन्दिग्ध पड़ जायगा । अतः, वस्तुस्वभाव का यथानुरूप वर्णन काव्य की सफलता की प्रथम आवश्यक शर्त है । वर्णन की दृष्टि से समग्र वर्णनीय पदार्थों के दो वर्ग माने जा सकते
१. प्रतिपक्षसम्बन्धिनस्तिरस्कृतिः प्रत्यनीकम् ।
सम्बन्धी च तदुपजीव्योपजीवक मित्रादिभेदादनेकविधः ।
जगन्नाथ, रसगंगा० पृ०७८२ । उत्प्र ेक्षा से प्रत्यनीक के सम्बन्ध-निरूपण के लिए देखें रसगंगा० पृ० ७८३-८४
२. द्रष्टव्य, अप्पय्य दी०, कुवलया०, अलं० चन्द्रिका टीका पृ० १३५
३. द्रष्टव्य - रुय्यक, अलं० सर्वस्व, पृ० २०५ तथा
जगन्नाथ, रसगङ्गा० पृ० ७८२
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५३६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
किसी वस्तु के
- यथारूप वर्णित तथा अतिश यया वक्रता के साथ वर्णित । स्वभाव, रूप, क्रिया आदि का यथारूप वर्णन स्वभावोक्ति है । इस प्रकार के वर्णन के सौन्दर्य को दृष्टि में रखते हुए आचार्यों ने अलङ्कार, गुण आदि के क्षेत्र में इसके स्वरूप पर विचार किया है । वामन आदि आचार्यों ने काव्य में 'वस्तु-स्वभाव के स्फुट वर्णन को काव्य का सौन्दर्याधायक गुण माना तो दण्डी आदि आचार्यों ने इसे काव्य का शोभावर्धक अलङ्कार स्वीकार किया । भामह को सम्भवतः स्वभावोक्ति की अलङ्कार के रूप में स्वीकृति अभिमत नहीं थी । कारण अज्ञात है । अनुमानतः वक्रोक्ति या अतिशयोक्ति को अलङ्कार मात्र का प्राण मानने के कारण भामह ने उसके अभाव में स्वभावोक्ति का अलङ्कारत्व अग्राह्य माना होगा । भामह ने स्वभावोक्ति के अलङ्कारत्व के सम्बन्ध में, एक प्रश्नचिह्न-सा लगा दिया था। आगे चलकर मक्रोक्तिवादी कुन्तक ने सबल युक्तियों से वस्तु स्वभाव - वर्णन को अलङ्कार मानने वाले मत का खण्डन किया । उस खण्डन में कुन्तक का आधार सर्वथा मौलिक है । उनकी मान्यता है कि काव्य में अलङ्कार और अलङ्कार्य का भेद स्पष्ट होना चाहिए । अलङ्कार का कार्य अलङ्कार्य को अलङकृत करना है । काव्य की वर्ण्य वस्तु, जिसके सौन्दर्य-संवर्धन के लिए अलङ्कार की योजना होती है, अलङ्कार्यं मानी जाती है । स्वभावोक्ति में वस्तु के स्वभाव का वर्णन अपेक्षित है । वह काव्य के वर्ण्य से - अलङ्कार्यं से – अभिन्न है । यदि उस अलङ्कार्य या काव्य की वर्णनीय वस्तु को भी अलङ्कार मान लिया गया तो फिर अलङ्कार्य क्या बच रहेगा? वह अलङ्कार किसे अलङ्कृत करेगा ? अत:, कुन्त का निष्कर्ष यह है कि वस्तु स्वभाव-वर्णन अलङ्कार से भिन्न अलङ्कार्यं है । इस प्रकार स्वभावोक्ति के सम्बन्ध में निम्नलिखित मत सामने आते हैं
(१) स्वभावोक्ति को काव्य का अलङ्कार मानने वाला मत, (२) उसे काव्य का गुण मानने वाला मत तथा ( ३ ) उसके अलङ्कारत्व का खण्डन कर उसे अलङ्कार्य मानने वाला मत । स्वभावोक्ति-विषयक इन मान्यताओं को दृष्टि में रखते हुए उसके स्वरूप विकास तथा उसके अलङ्कारत्व का परीक्षण वाञ्छनीय है ।
सर्वप्रथम आचार्य भामह ने स्वभावोक्ति के स्वरूप का उल्लेख करते हुए कहा कि कुछ लोग स्वभावोक्ति को अलङ्कार मानते हैं ।' स्पष्ट है कि भामह
१. स्वभावोक्तिरलङ्कार इति केचित् प्रचक्षते । - भामह, काव्यालं० २, ६३
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[५३७ के समय तक स्वभावोक्ति अलङ्कार के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी। उक्त 'कथन से यह भी स्पष्ट है कि भामह उसे अलङ्कार नहीं मानते थे; क्योंकि अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के उपमा, रूपक, दीपक आदि अलङ्कारों के लक्षणनिरूपण-क्रम में उन्होंने उन्हें कुछ लोगों के द्वारा मान्य नहीं कहा। आचार्यों की यह शैली रही है कि जो अलङ्कार उन्हें मान्य हैं, उनका लक्षण देने के क्रम में वे किसी पूर्ववर्ती आचार्य के मत का निर्देश करना आवश्यक नहीं मानते, पर जिस अलङ्कार का अलङ्कारत्व उन्हें सन्दिग्ध जान पड़ता है या जिसके अलङ्कारत्व के सम्बन्ध में आचार्यों में मतभेद रहता है उसके लक्षण का निरूपण भी आचार्य-धर्म का पालन करने के लिए कर देते हैं और ऐसे स्थल पर यह निर्देश कर देते हैं कि इसे भी कुछ लोग अलङ्कार मानते हैं। भामह के उक्त कथन से यह तो अनुमान होता ही है कि उन्हें स्वभावोक्ति का अलङ्कारत्व इष्ट नहीं था, यह भी अनुमान किया जा सकता है कि भामह के पूर्व भी उसे कुछ आचार्य अलङ्कार मानते होंगे और कुछ आचार्य उसके अलङ्कारत्व को अमान्य सिद्ध करते होंगे। इसीलिए "भामह ने इस तथ्य की ओर सङ्कत कर सन्तोष कर लिया होगा । यदि भामह के पूर्व स्वभावोक्ति सर्वसम्मत अलङ्कार हो गयी होती तो भामह अलङ्कार के रूप में उसकी सत्ता का युक्तियों से खण्डन करते या; यदि उन्हें भी उसका अलङ्कारत्व मान्य होता तो, 'केचित् प्रचक्षते' का उल्लेख किये बिना केवल उसका लक्षण-उदाहरण दे देते । अस्तु ! भामह ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा स्वीकृत स्वभावोक्ति का स्वरूप इस प्रकार दिया है :-'वस्तु की अवस्था का यथारूप वर्णन अर्थात् उसके स्वभाव का वर्णन स्वभावोक्ति है।''
भामह के उत्तरवर्ती आचार्य दण्डी ने न केवल स्वभावोक्ति का अलङ्कारत्व स्वीकार किया, वरन् उसे 'आद्यालङ कृति' कहकर अलङ्कारों में प्रधान माना। उन्होंने स्वभावोक्ति को ही अलङ्कार-प्रकरण में प्रथम विवेच्य समझा । स्वभावोक्ति का दूसरा नाम उनके अनुसार 'जाति' है। दण्डी ने स्वभावोक्ति के स्वरूप के सम्बन्ध में पूर्वप्रचलित मान्यता को ही स्वीकार किया है। उनके अनुसार विभिन्न अवस्थाओं में पदार्थों (जाति, गुण, क्रिया तथा द्रव्य) के स्वरूप के स्फुट वर्णन को स्वभावोक्ति कहते हैं । शास्त्र आदि में
१. अर्थस्य तदवस्थत्वं स्वभावोतभिहितो यथा ।-भामह, काव्यालं २, ६३ २. नानावस्थं पदार्थानां रूपं साक्षाद्विवृण्वती।
स्वभावोक्तिश्च जातिश्चेत्याद्या सालंकृतियथा॥-दण्डी, काव्यदर्श २,८
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५३८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
भी वस्तुस्वरूप का स्फुट वर्णन होता है । जहाँ ऐसे वर्णन कविप्रतिभा से किये जाते हैं, वहाँ स्वभावोक्ति अलङ्कार की सत्ता मानी जाती है । निष्कर्षतः, विभिन्न अवस्थाओं में वस्तुस्वभाव का विच्छित्तिपूर्ण वर्णन स्वभावोक्ति का लक्षण है ।
उद्भट ने स्वभावोक्ति के यौगिक अर्थ - मात्र के आधार पर उसकी परिभाषा नहीं दी और न उन्होंने पूर्वाचार्यों के मत का अविचारित अनुमोदन ही किया । उनके मतानुसार क्रिया में संलग्न मृगशावक आदि के हेवाक ( इच्छा आदि मानसिक चेष्टा ) का वर्णन स्वभावोक्ति अलङ्कार है ।' उद्भट के स्वभावोक्ति-लक्षण में अनुगमन नहीं, प्रस्थान है । पूर्ववर्ती आचार्यों के लक्षण से उद्भट के लक्षण में स्वभावोक्ति के सम्बन्ध में कई बातें नवीन हैं— एक तो यह कि उद्भट क्रिया प्रवृत्त अर्थात् साध्यावस्था में रहने वाले पदार्थ का वर्णन ही इसमें अपेक्षित मानते हैं, कि पूर्ववर्ती आचार्य वस्तु के सिद्ध और साध्य का विवेक स्वभावोक्ति में नहीं करते थे । दूसरी बात यह कि क्रिया में संलग्न पदार्थ की केवल शारीरिक चेष्टाओं का यथारूप या स्फुट वर्णन ही उद्भट के अनुसार स्वभावोक्ति के रूप-विधान के लिए पर्याप्त नहीं है, उसमें उस वर्ण्य की इच्छा, उत्कण्ठा आदि मानसिक क्रिया का वर्णन भी अपेक्षित है और इसी से सम्बद्ध तीसरी बात यह कि जहाँ पूर्ववर्ती आचार्य निर्जीव पदार्थों के स्वरूप के स्फुट वर्णन में भी स्वभावोक्ति का सद्भाव मानते थे, वहाँ उद्भट केवल सजीव पदार्थों के वर्णन में ही स्वभावोक्ति मानेंगे, क्योंकि सजीव के ही हेवाक का वर्णन सम्भव है । इस प्रकार स्वभावोक्ति का वस्तु-स्वरूप या बस्तु-स्वभाव के स्फुट वर्णन मात्र से विशिष्ट लक्षण उद्भट ने दिया है ।
वामन ने वस्तु स्वभाव के स्फुट वर्णन को काव्य के अर्थव्यक्ति नामक गुण से अभिन्न मानकर अलङ्कार रूप में उसका पृथक् विवेचन आवश्यक: नहीं समझा । रुद्रट ने जाति या स्वभावोक्ति के सम्बन्ध में उद्भट की मान्यता को छोड़ भामह और दण्डी के मत का अनुगमन किया है । उनके अनु-सार जिस वस्तु का संस्थान अर्थात् स्वाभाविक रूप, अवस्थान तथा व्यापार जैसा हो उसका वैसा ही वर्णन जाति है । उसमें बालक, मुग्ध युवती, कातर,
१. क्रियायां संप्रवृत्तस्य वाकानां निबन्धनम् । कस्यचिन्मृगडिम्भादेः स्वभावोक्तिरुदाहृता ॥
-- उद्भट, काव्यालं० सार सं ० ३,८०
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५३६ -
पक्षा, सम्भ्रान्त, हीन आदि पात्रों की काल- विशेष तथा अवस्था - विशेष में विशेष प्रकार की चेष्टा का वर्णन रमणीय होता है । ऐसा ही वर्णन रुद्रट के मत से स्वभावोक्ति अलङ्कार है । उद्भट के लक्षण से इस लक्षण की इतनी समता अवश्य है कि इसमें भी सजीव पदार्थों - मनुष्य, पशु, पक्षी - की ही चेष्टा का वर्णन अपेक्षित माना गया है, पर उद्भट की तरह रुद्रट ने मानसिक चेष्टा का वर्णन आवश्यक नहीं माना है । प्राणियों की केवल शारीरिक चेष्टाओं के सजीव वर्णन में भी रुद्रट स्वभावोक्ति मानेंगे | भामह - दण्डी की तरह जड़ वस्तु के वर्णन में रुद्रट अलङ्कार नहीं मानेंगे । भामह और दण्डी ने भी स्वभावोक्ति के उदाहरणों में प्राणियों के ही स्वभाव का वर्णन दिखाया था; पर उनकी स्वभावोक्ति - परिभाषा का क्षेत्र विस्तार जड़ वस्तु के स्वरूप - वर्णन तक भी था । सम्भव है, प्राणियों के चेष्टा- वर्णन का उदाहरण देखते हुए रुद्रट ने वहीं तक स्वभावोक्ति का क्षेत्र सीमित कर दिया हो ।
भोजने दण्डी की तरह जाति या स्वभावोक्ति को अर्थालङ्कारों में मुख्य माना है । दण्डी ने उपमा आदि से भी अधिक महत्त्व स्वभावोक्ति को दिया था । भोज उपमा आदि को उभयालङ्कार मानते हैं और जाति को मर्थालङ्कारों में मुख्य । अतः इस विषय में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि वे उपमा आदि से भी जाति को अधिक महत्त्व देते थे या नहीं । अर्थालङ्कारों में जाति को मुख्य मानने में भोज की युक्ति यह है कि सभी अर्थालङ्कार वस्तु के स्वरूप पर आश्रित रहते है और जाति में वस्तु के स्वरूप का स्फुट वर्णन होता है । जाति के लक्षण में भोज ने रुद्रट की तरह नाना अवस्थाओं में वस्तु के जायमान रूप का वर्णन अपेक्षित माना । वह जायमान रूप वस्तु के स्वभाव से ही उत्पन्न होना चाहिए । इस प्रकार १. संस्थानावस्थानक्रियादि यद्यस्य यादृशं भवति । लोके चिरप्रसिद्ध तत्कथनमनन्यथा जातिः ॥ शिशुमुग्धयुवतिकातरतिर्यक् संभ्रान्तहीनपात्राणाम् । सा कालावस्थोचितचेष्टासु विशेषतो रम्या |
२. नानावस्थासु जायन्ते यानि रूपाणि स्वेभ्यः स्वेभ्यो निसर्ग भ्यस्तानि जातिं
- रुद्रट, काव्यालं० ७, ३०-३१ : वस्तुनः । प्रचक्षते ॥
- भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण ३, ४
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“५४० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण जाति को परिभाषित कर भोज ने अर्थव्यक्ति गुण से उसका भेद-निरूपण किया है। उनके अनुसार दोनों का भेद यह है कि अर्थव्यक्ति में वस्तु के * सार्वकालिक स्वरूप का वर्णन होता है; पर जाति में वस्तु के अवस्था-विशेष में जायमान रूप का वर्णन किया जाता है ।
मम्मट ने उद्भट की तरह शिशु आदि की विशिष्ट क्रिया या रूप का वर्णन * स्वभावोक्ति का लक्षण माना।२ क्रिया-प्रवृत्त प्राणियों के स्वरूप-वर्णन में ही - स्वभावोक्ति अलङ्कार माना गया है। रुय्यक ने स्वभावोक्ति-लक्षण में 'सूक्ष्म'
शब्द जोड़ कर यह धारणा व्यक्त की कि वस्तु-स्वभाव का वर्णन-मात्र अलङ्कार • नहीं है, वह तो अलङ्कार्य है। वस्तु-स्वभाव का वर्णन काव्य का शरीर ही है, जिसे अलङ्कार अलङ कृत करते हैं । अतः, कवि-प्रतिभा से वस्तु-स्वभाव का सूक्ष्म तथा यथारूप वर्णन स्वभावोक्ति का लक्षण है।3 रुय्यक का यह लक्षण अर्थव्यक्ति गुण में भी अतिव्याप्त है । विश्वनाथ ने रुय्यक तथा मम्मट के स्वभावोक्ति- लक्षण के आधार पर स्वभावोक्ति की परिभाषा दी है। रुय्यक से सूक्ष्म की " धारणा लेकर उसके बदले उन्होंने 'दुरूहार्थ' ( कवि-प्रतिभा-वेद्य) का प्रयोग "किया। 'स्वक्रियारूपवर्णन' की धारणा और पदावली उन्होंने मम्मट से ली है।४ अप्पय्य दीक्षित ने जाति, क्रिया आदि में वस्तु-स्वभाव का वर्णन स्वभावोक्ति का लक्षण माना है।
इस विवेचन का निष्कर्ष यह है कि अवस्था-विशेष में वस्तु के जायमान रूप का, क्रिया-संलग्न अर्थ के स्वरूप का विच्छित्तिपूर्ण एवं यथार्थ वर्णन • स्वभावोक्ति अलङ्कार है। अतः, काव्य के सामान्यतः वर्ण्य से इसका स्वरूप
१. भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ३, ५ २. स्वभावोक्तिस्तु डिम्भादेः स्वक्रियारूपवर्णनम् ।
-मम्मट, काव्यप्र०, १०. १६८ ३. सूक्ष्मवस्तुस्वभावस्य यथावद् वर्णन स्वभावोक्तिः।-रुय्यक,अलं० सर्वस्व
सूत्र सं० ७८ । तथा-इह वस्तुस्वभाववर्णनमात्र नालङ्कारः । तत्त्वे सर्व काव्यमलङ्कारि स्यात् । नहि तत् काव्यमस्ति, यत्र वस्तुस्वभाववर्णन
मात्रौं न विद्यते । तदर्थ सूक्ष्मग्रहणम् ।-वही, वृत्ति पृ० २२० ४. स्वभावोक्तिर्दुरूहार्थस्वक्रियारूपवर्णनम् ।-विश्वनाथ, साहित्यद.
१०,१२१ तथा-दुरूहयोः कविमात्रवेद्ययोः। वही, वृत्ति पृ० ७७६ ५. स्वभावोक्तिः स्वभावस्य जात्यादिस्थस्य वर्णनम् ।
-अप्पय्य दी० कुवलया० १६०
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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ५४१* विशिष्ट है । यह अर्थव्यक्ति गुण से भी इस दृष्टि से स्वतन्त्र है कि जहाँ अर्थव्यक्ति में वस्तु के सिद्ध या सार्वकालिक स्वरूप का स्फुट वर्णन होता है, बहाँ स्वभावोक्ति में अवस्था - विशेष में जायमान वस्तु का स्फुट वर्णन होता है । अलङ्कार्य तथा गुण से किञ्चित् विशिष्ट स्वभाव का होने के कारण ही प्रस्तुत अलङ्कार कुन्तक के तर्क- कुठार से खण्डित नहीं हुआ । कुन्तक के बाद भी उसे अलङ्कार - शास्त्र की सुदीर्घ परम्परा में काव्य के अलङ्कार - विशेष के रूप में स्वीकृति मिलती रही। डॉ० नगेन्द्र की यह मान्यता तर्कपूर्ण है कि स्वभावोक्ति में भी विशिष्टता का सद्भाव रहता है । वक्रता या विशिष्टता के सद्भाव के कारण स्वभावोक्ति अलङ्कार है ।' स्वभावोक्ति प्रकृत कथन या लोक- वार्त्ता से निश्चय ही भिन्न है । अतः, उसे अलङ्कार मानने में कोई अनुपपत्ति नहीं ।
समुच्चय
रुद्रट ने सर्वप्रथम समुच्चय अलङ्कार की उद्भावना कर एकत्र अनेक बस्तुओं का एक साथ सद्भाव - कथन इसका लक्षण माना । उनके अनुसार एक माधार में अनेक सुखावह आदि वस्तुओं का वर्णन समुच्चय है । रुद्रट के ' टीकाकार नमिसाधु ने सुखावह के साथ प्रयुक्त 'आदि' शब्द से दु:खावह का
प्राय माना है । इस तरह एक आधार में अनेक सुखद अथवा अनेक दुःखद बस्तुओं का वर्णन समुच्चय अलङ्कार का सामान्य लक्षण होगा । अनेक सुखावह तथा दुःखावह वस्तुओं का भी एक साथ एकत्र वर्णन हो सकता है । इन तीनों स्थितियों के आधार पर समुच्चय के तीन प्रकार स्वीकार किये गये हैं(क) अनेक सुन्दर पदार्थों का एकत्र योग वर्णन, ( ख ) अनेक असुन्दर वस्तुओं का एकत्र योग वर्णन तथा ( ग ) अनेक सुन्दर और असुन्दर वस्तुओं के एकत्र योग का वर्णन । औपम्य गर्भ समुच्चय के सम्बन्ध में कहा गया है कि इसमें अनेक उपमानोपमेय-भूत अर्थ एक क्रिया आदि से सम्बद्ध रहते हैं ।
भोज ने समुच्चय की इस मूल धारणा को स्वीकार कर भी उसे कुछ. नवीन रूप से परिभाषित किया है । उनके अनुसार अनेक द्रव्य, क्रिया, गुण आदि का एकत्र क्रिया, द्रव्य, गुण आदि में निवेश समुच्चय है । 3 इस प्रकार
१. हिन्दी वक्रोक्ति जी० की भूमिका पृ० १३८
२. द्रष्टव्य - रुद्रट, काव्यालं० ७, १६, २७ तथा ८, १०३
३. द्रव्य क्रियागुणादीनां क्रियाद्रव्यगुणादिषु ।
निवेशनमनेकेषामेकतः स्यात्समुच्चयः ॥ - भोज, सरस्वतीकण्ठा० ४, ६०
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* ५४२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अनेक द्रव्यों का एक क्रिया से योग रूप समुच्चय, अनेक क्रियाओं का एक द्रव्य समुच्चय, अनेक गुणों का एक क्रियासमुच्चय आदि रूपों की कल्पना की जा सकती है । रुद्रट ने अनेक सत्-असत् पदार्थों के एकत्र योग की कल्पना समुच्चय में की थी। भोज ने अनेक द्रव्य, क्रिया, गुण आदि के एक क्रिया, द्रव्य आदि से योग की कल्पना समुच्चय में की।
आचार्य मम्मट की समुच्चय-धारणा नवीन है । उन्होंने समुच्चय अभिधान के यौगिक अर्थ को दृष्टि में रखते हुए एकत्र अनेक के योग की धारणा अवश्य प्रकट की है; किन्तु समुच्चय का यह स्वतन्त्र लक्षण दिया है कि जहाँ प्रस्तुत कार्य के एक साधक के रहते हुए अन्य साधक के भी होने का वर्णन हो, वहाँ समुच्चय अलङ्कार होता है ।' स्पष्ट है कि मम्मट समुच्चय का तात्पर्य एक कार्यविशेष के अनेक साधकों का समुच्चय मानते थे । कार्य का एक प्रधान साधक तो रहता ही है; उसके साथ अन्य साधकों का भी योग वर्णित होने पर समुच्चय अलङ्कार होता है । गुण-क्रिया के युगपत् सद्भाव को भी मम्मट ने समुच्चय का दूसरा रूप माना है । उनकी यह समुच्चय-धारणा भोज की धारणा से अशतः मिलती-जुलती है । उन्होंने इसके तीन भेद माने हैं— (क) गुणों का समुच्चय, (ख) क्रियाओं का समुच्चय और (ग) गुण एवं क्रिया का एक साथ समुच्चय । रुय्यक ने मम्मट की समुच्चय धारणा को ही स्वीकार किया है | 3
विश्वनाथ ने रुय्यक के मत का अनुसरण करते हुए समुच्चय के उक्त दोनों रूप स्वीकार किये हैं । उन्होंने एक कार्य के साधक के साथ अन्य साधक के योग का सत् असत् आदि के आधार पर भेद-निरूपण किया है । साधक सभी सुन्दर भी हो सकते हैं, असुन्दर भी और दोनों मिले-जुले भी । अप्पय्य दीक्षित भी अनेक वस्तुओं के युगपद्भाव तथा एक कार्य के साधन में अनेक साधकों के आ जुटने में समुच्चय मानते हैं । ७ जगन्नाथ को भी पदार्थों
१. तत्सिद्धिहेत वेकस्मिन् यत्रान्यत्तत्करं भवेत् । समुच्चयोऽसौ.
..... - मम्मट, काव्यप्र० १०, १७८ २. स त्वन्यो युगपत् या गुणक्रियाः । - वही, १०, १७६ ३. गुणक्रियायौगपद्य ं समुच्चयः । तथा एकस्य सिद्धिहेतुत्वेऽन्यस्य तत्करत्वं च । - रुय्यक अलं० सर्वस्व, सूत्र ६५, ६६
४. द्रष्टव्य - विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०, ११०
५. द्रष्टव्य - अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द ११५-१६
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५४३
का युगपद् अन्वय समुच्चय में अभीष्ट है। एक कार्य के सम्पादन में अनेक साधकों का आ जाना भी समुच्चय का लक्षण वे मानते हैं।' इस प्रकार मम्मट तथा रुय्यक के बाद उन्हीं की समुच्चय-विषयक मान्यता स्वीकृत हुई। निष्कर्षतः, समुच्चय के निम्नलिखित रूप स्वीकृत हैं
(१) अनेक गुण-क्रिया का युगपद्भाव या एक साथ कथन जिसके तीन रूप सम्भव हैं—अनेक गुणों का, अनेक क्रियाओं का तथा अनेक गुण-क्रियाओं का समन्वित रूप से एकत्र योग ।
(२) एक कार्य की सिद्धि के लिए अनेक साधकों का आ जाना। समुच्चय-भेद ___ गुण-क्रिया आदि के पृथक्-पृथक् तथा समन्वित योग के आधार पर तथा कार्य-साधक के सत्, असत् तथा सदसत् होने के आधार पर समुच्चय के अनेक भेद किये जा सकते हैं।
यथासंख्य
यथासंख्य शब्द-गुम्फ के विशेष क्रम की धारणा पर आधृत अलङ्कार है। एक क्रम से कथित अर्थों का उसी क्रम से अन्वय इसकी मूल धारणा रही है। आचार्य भामह ने इसे परिभाषित करते हुए कहा था कि जहाँ पूर्व-निर्दिष्ट अनेक असधर्म अर्थों का क्रमशः अनुनिर्देश किया जाय, वहाँ यथासंख्य अलङ्कार होता है। इसमें एक बार अनेक अर्थों का निर्देश तथा पुनः उन अर्थों का 'ऋमिक अनुनिर्देश होता है। पूर्व-निर्दिष्ट अर्थों में जो क्रम रहता है उसी क्रम से उनके पुनः निर्देश में जो चमत्कार रहता है, वही इसके अलङ्कारत्व का हेतु है। अर्थों का निर्देश तथा अनुनिर्देश अपने आप में अलङ्कार नहीं, अलङ्कारत्व है निर्दिष्ट तथा अनुनिर्दिष्ट अर्थों के समान क्रम में ! क्रम में सौन्दर्य होने के कारण इसे 'क्रम' संज्ञा से भी अभिहित किया गया है। दण्डी ने क्रम के साथ संख्यान अभिधान का भी प्रयोग प्रस्तुत अलङ्कार के लिए किया है। भामह ने यथासंख्य और उत्प्रेक्षा; इन दो अलङ्कारों का नाम्ना निर्देश कर उन्हें मेधावी के द्वारा निरूपित बताया है। उनका कथन है कि
१. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगंगाधर, पृ० ७७६-७७ २. भूयसामुपदिष्टानामर्थानामसधर्मणाम् ।
क्रमशो योऽनुनिर्देशो यथासंख्यं तदुच्यते ।-भामह, काव्यालं० २,८६
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५४४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
मेधावी ने उत्प्रेक्षा को संख्यान भी कहा है। यह कथन सदोष जान पड़ता है। भामह सम्भवतः यह कहना चाहते होगे कि यथासंख्य और उत्प्रेक्षा के लिए आचार्य मेधावी ने संख्यान और उत्प्रेक्षा अभिधान का प्रयोग किया है। हो सकता है कि अपपाठ के कारण भामह का वह अभीष्ट अर्थ स्पष्ट नहीं हो पा रहा हो। दण्डी की यह मान्यता उचित जान पड़ती है कि यथासंख्य का ही दूसरा नाम संख्यान है। दण्डी ने आचार्य भामह की यथासंख्य-धारणा को स्वीकार कर उसकी परिभाषा इस प्रकार दी है-उद्दिष्ट अर्थात् पूर्व-उक्त पदार्थों का उसी क्रम से पीछे कहे हुए अर्थों के साथ अन्वय यथासंख्य, संख्यान या क्रम अलङ्कार है।
उद्भट ने भामह के यथासंख्य लक्षण को अक्षरशः स्वीकार कर लिया है।२ वामन सभी अलङ्कारों को औपम्य-गर्भ या उपमा-प्रपञ्च मानते थे। अतः क्रम या यथासंख्य में भी उन्होंने उपमानोपमेय भाव की कल्पना की है । वामन को भी क्रम में भामह, दण्डी आदि की तरह निर्दिष्ट तथा अनुनिदिश्यमान अर्थों के क्रमबद्ध सम्बन्ध की धारणा मान्य है। इसके साथ उपमान और उपमेय की धारणा को मिलाकर वामन ने यह परिभाषा दी है कि उपमेयों तथा उपमानों का क्रम-सम्बन्ध क्रम अलङ्कार है। उनके अनुसार एक क्रम से अनेक उपमेयों का कथन कर उसी क्रम से अनेक उपमानों की सम्बन्ध-योजना क्रम अलङ्कार का लक्षण है । वामन के उत्तरवर्ती आचार्यों ने निर्दिष्ट और अनुनिर्देश्य अर्थों में उपमानोपमेय-सम्बन्ध की कल्पना भावश्यक नहीं मानी। उपमानोपमेय-भाव के अभाव में भी अर्थों का क्रम इस अलङ्कार का स्वरूप-विधान कर सकता है। ___ रुद्रट ने निर्दिष्ट तथा निर्दिश्यमान अर्थों के बीच उपमानोपमेय-भाव की जगह विशेषण-विशेष्य-भाव-सम्बन्ध की कल्पना की है। उनकी मान्यता मूलतः पूर्ववर्ती आचार्यों की क्रम-विषयक मान्यता से अभिन्न है। जिस परिपाटी या क्रम से विविध अर्थों का निर्देश किया गया हो उसी परिपाटी
१. उद्दिष्टानां पदार्थानामनूद्देशो यथाक्रमम् । यथासंख्यमिति प्रोक्त संख्यानं क्रम इत्यपि ।।
-दण्डी, काव्यादर्श २, २७३, २. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं ० सार सं० ३,२ ३. उपमेयोपमानानां क्रमसम्बन्धः क्रमः।-वामन, काव्यालं० सू० ४,३,१७
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५४५ से उन अर्थों से प्रतिबद्ध अर्थों का निर्देश (अर्थात् उन अर्थों के अनुयायी अर्थों का उसी क्रम से विशेषण-विशेष्य-भाव से कथन) यथासख्य अलङ्कार है।' ___आचार्य कुन्तक ने यथासंख्य के अलङ्कारत्व का खण्डन किया है। उनकी युक्ति है कि यथासख्य में उक्ति-वैचित्र्य का अभाव रहता है; अतः उसे अलङ्कार नहीं माना जाना चाहिए।
'अलङ्कारसूत्र' के टीकाकार जयरथ ने कुन्तक के मत का अनुसरण करते हुए यथासंख्य का अलङ्कारत्व अस्वीकार किया है। इसमें उक्ति-वैचित्र्य न होने पर भी शब्दों के निर्देश के क्रम में निहित सौन्दर्य के आधार पर ही इसे अलङ्कार माना जाता रहा है। ___ अग्निपुराणकार ने यथासंख्य या क्रम का स्वरूप तो पूर्ववर्ती आचार्यों के मतानुसार ही निरूपित किया; किन्तु उसे अलङ्कार के रूप में परिगणित नहीं कर, गुण के रूप में स्वीकार किया। परम्परा से अलङ्कार के रूप में स्वीकृत क्रम को गुण मानने में कोई सबल युक्ति नहीं ।
भोज ने क्रम को उभयालङ्कार मान कर शब्द, अर्थ तथा शब्दार्थ-युगल का परिपाटी से अर्थात् क्रम से निर्देश-क्रम का लक्षण माना ।५ परिपाटी या क्रम को इस अलङ्कार का मूल लक्षण मानने में पूर्ववर्ती आचार्यों के मत की स्वीकृति है। शब्द, अर्थ तथा शब्दार्थ विभाग की धारणा कुछ नवीन है। यह विभाग बड़ा ही स्थूल है। क्रम की मूल धारणा में कोई नवीनता भोज नहीं ला सके हैं। ___ मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि आचार्यों ने भामह की तरह क्रम से कथित वस्तुओं के साथ उसी क्रम से वस्तुओं का अन्वय दिखाया जाना यथासंख्य का लक्षण माना है। जयदेव ने यथासंख्य के लक्षण में कारक-पद तथा क्रिया-पद के क्रमिक निर्देश पर बल दिया है। इस प्रकार उनकी धारणा यह १. निदिश्यन्ते यस्मिन्नर्था विविधा ययव परिपाट्या। पुनरपि तत्प्रतिबद्धास्तयैव यत्स्याद्यथासंख्यम् ॥
-रुद्रट, काव्यालं०७,३४ २. द्रष्टव्य-कुन्तक, वक्रोक्तिजी० पृ० ४७८-८० ३. द्रष्टव्य-अलङ्कासूत्र पर जयरथ की अलङ्कारविमशिनी टीका, पृ० १४६ ४. द्रष्टव्य, अग्निपुराण, ३४६, २२ ५. शब्दस्य यदि वार्थस्य द्वयोरप्यनयोरथ । भणनं परिपाइया यत् क्रमः स परिकीर्तितः ।।
-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण ४,७९
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५४६ ]
अलङ्कार - धारणा : विकास और विश्लेषण
है कि एक निश्चित क्रम से कथित कारक- पदों या क्रिया-पदों का उसी क्रम कारक - पदों या क्रिया-पदों के साथ अन्वय दिखाना यथासंख्य अलङ्कार है ।'
१
अप्पय्य दीक्षित ने आचार्य मम्मट का यथासंख्य लक्षण 'कुवलयानन्द' में उद्धृत कर दिया है । जगन्नाथ भी निर्देश -क्रम से अर्थों का सम्बन्ध यथासंख्य का लक्षण मानते हैं ।
इस विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कुन्तक आदि के खण्डन के प्रयास के उपरान्त भी काव्य - शास्त्र में यथासंख्य अलङ्कार के रूप में स्वीकृत रहा है ।
प्रस्तुत अलङ्कार के स्वरूप के सम्बन्ध में सभी आचार्यों की मूल धारणा समान है । इसमें एक बार कुछ अर्थों का कथन होता है और उस कथन अर्थों का जो क्रम रहता है, उसी क्रम से पीछे कहे जाने वाले अर्थों के साथ उन अर्थों का अन्वय होता है । उदाहरणार्थ, पूर्व कथित अर्थों में से प्रथम का पीछे कहे जाने वाले अर्थों प्रथम के साथ, द्वितीय का द्वितीय के साथ और तृतीय का तृतीय के साथ अन्वय होगा । जिस अर्थ का अन्वय दिखाना हो तथा जिसके साथ अन्वय अभीष्ट हो, दोनों का समान क्रम ही क्रम या यथासंख्य का रूप-विधान करता है । पूर्व निर्दिष्ट तथा पश्चात् निर्दिष्ट पदार्थों में उपमानोपमेय-भाव, विशेषणविशेष्य-भाव आदि सम्बन्ध भी हो सकते हैं; किन्तु उन्हें यथासंख्य का आवश्यक लक्षण नहीं माना जा सकता । ऐसा करना उसके क्षेत्र को सीमित करना होगा ।
यथासंख्य के भेद
समास तथा असमास से पदों का समान क्रम से अन्वय दिखाने के आधार पर यथासंख्य के आर्थ और शाब्द भेद किये गये हैं । कारक - पदों तथा क्रियापदों के क्रमिक अन्वय के आधार पर भी दो भेद किये जा सकते हैं । दो या तीन निर्दिष्ट पदों का क्रमश: दो या तीन पदों के साथ अन्वय दिखाये जाने के आधार पर - अन्वित होने वाले पदार्थों की संख्या के आधार पर - भी यथासंख्य
१. यथासंख्य द्विधार्थाश्चेत् क्रमादेकैकमन्विता ।
— जयदेव, चन्द्रालोक, ५, ६२ ( द्विधार्थाः क्रियाकारकरूपाद्विविधा अर्थाः । ) वही रमा टी० पृ० ६७
२. उपदेशक्रमेणार्थानां सम्बन्धो यथासंख्यम् । - जगन्नाथ, रसगङ्गाधर,
पृ० ७५६
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५४७ के द्विपद, त्रिपद आदि भेद माने गये हैं। भोज ने शब्द, अर्थ तथा शब्दार्थ के अन्वय के आधार पर तीन भेद कर पुनः तीनों के दो-दो भेद किये हैं। उनके अनुसार क्रम के निम्नलिखित छह भेद हैं-(१) पद से शब्दपरिपाटी, (२) वाक्य से शब्द-परिपाटी, (३) काल से अर्थ-परिपाटी, (४) देश से अर्थ-परिपाटी, (५) शब्दप्रधाना शब्दार्थोभय-परिपाटी तथा (६) अर्थप्रधाना शब्दार्थोभय-परिपाटी।' पर्याय
आचार्य रुद्रट ने सर्वप्रथम पर्याय अलङ्कार की कल्पना की। उनके अनुसार पर्याय अलङ्कार का एक रूप वह है, जिसमें विवक्षित वस्तु के प्रतिपादन में समर्थ, किन्तु उसके असदृश तथा उसके साथ उत्पाद्य या उत्पादक सम्बन्ध नहीं रखने वाले पदार्थ का कथन होता है । २ अभिप्राय यह कि जहाँ विवक्षित वस्तु का सीधा कथन न हो; पर उसका बोध कराने के लिए किसी अन्य वस्तु का, जो न तो उस विवक्षित अर्थ के सदृश हो और न उसका उत्पाद्य या उत्पादक हो, कथन किया जाय, वहाँ पर्याय का एक रूप होता है। सदृश से सदृश का बोध समासोक्ति और अन्योक्ति में होता है। इसमें असदृश वस्तु से विवक्षित अर्थ का बोध कराया जाता है। स्पष्ट है कि पर्याय का यह प्रकार पूर्ववर्ती आचार्यों की पर्यायोक्ति-अलङ्कार धारणा पर आधृत है। भामह, दण्डी, उद्भट आदि आचार्य पर्यायोक्ति के स्वरूप का निरूपण कर चुके थे। रुद्रट ने उसे पर्याय कहा और पर्याय के एक स्वतन्त्र रूप की भी उद्भावना उन्होंने की। पीछे चलकर पर्याय के ये दो रूप अलग-अलग अलङ्कारों के रूप में स्वीकृत हुए। पर्याय के जिस स्वरूप की उद्भावना रुद्रट ने की थी, वही पर्याय अभिधान से पीछे के आचार्यों को मान्य हुआ। पूर्वाचार्यों की पर्यायोक्ति, जिसे रुद्रट ने पर्याय का एक प्रकार कहा था, पर्याय से स्वतन्त्र पर्यायोक्ति संज्ञा से ही स्वीकृत हुई। पर्याय के दूसरे भेद की परिभाषा में रुद्रट ने कहा है कि जहाँ अनेक आधारों में एक वस्तु का अथवा एक आधार में अनेक वस्तुओं का क्रम से होना वर्णित हो, वहाँ पर्याय का दूसरा प्रकार होता
१. द्रष्टव्य, भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, पृ० ४५३-५७ २. वस्तु विवक्षितवस्तुप्रतिपादनशक्तमसदृशं तस्य । यदजनकमजन्यं वा तत्कथन यत्स पर्यायः ॥
-बट, काव्यालं., ७.४२
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५४८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण है। वस्तु सुखद अथवा दुःखद प्रकृति की हो सकती है। भोज ने पर्यायः अभिधान से पर्यायोक्ति अलङ्कार का स्वरूप-निरूपण किया है। ___ आचार्य मम्मट ने पर्यायोक्ति तथा पर्याय का परस्पर स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार कर, दोनों का अलग-अलग विवेचन किया है। उन्होंने पर्याय के स्वरूप का निरूपण रुद्रट के पर्याय के द्वितीय प्रकार के आधार पर किया है। उनके अनुसार एक वस्तु का क्रम से अनेक आधारों में होना या किया जाना पर्याय है । अनेक वस्तुओं का भी क्रम से एक आधार में होना या किया जाना पर्याय का दूसरा प्रकार है। यह धारणा रुद्रट की पर्याय-धारणा से अभिन्न है। यही धारणा रुय्यक ने भी 'अलङ्कारसूत्र' में व्यक्त की है। ___ मम्मट तथा रुय्यक के उत्तरवर्ती विश्वनाथ, अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि आचार्यों ने उनकी मान्यता के अनुरूप ही पर्याय अलङ्कार को पर्यायोक्ति से स्वतन्त्र मान कर परिभाषित किया है। उनके पर्याय-लक्षण रुद्रट के पर्याय-लक्षण से अभिन्न हैं। रुद्रट ने पर्याय के जिस द्वितीय रूप की उद्भावना की थी उसके स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इतना अवश्य हुआ कि रुद्रट ने जहां पूर्ववर्ती आचार्यों की पर्यायोक्ति के एक अङ्ग के रूप में पर्याय के इस स्वरूप की कल्पना की थी वहाँ उत्तरवर्ती आचार्यों ने पर्याय को पर्यायोक्ति से स्वतन्त्र अस्तित्व दे दिया। रुद्रट ने पर्यायोक्ति या पर्यायोक्त के ही संक्षिप्त-रूप पर्याय व्यपदेश का प्रयोग किया था । उनकी दृष्टि में पर्यायोक्त और पर्याय अभिन्न थे, पर पीछे चलकर वे अलग-अलग अलङ्कार के अभिधान बने । पर्यायोक्ति की जगह पर्याय शब्द का प्रयोग कर रुद्रट ने अनजाने ही अलङ्कार-शास्त्र को अलङ्कार की एक नवीन संज्ञा दे दी और पर्याय के एक नवीन प्रकार की कल्पना कर उन्होंने एक स्वतन्त्र अलङ्कार की सृष्टि कर दी। कारणमाला
कारणमाला कारणों की शृङ्खला की धारणा पर आधृत अलङ्कार है। १. यत्र कमनेकस्मिन्नेकमेकत्र वा क्रमेण स्यात् ।
वस्तु सुखादिप्रकृति क्रियेत वान्यः स पर्यायः ॥-रुद्रट, काव्यालं०७,४४ २. द्रष्टव्य, भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण ४, ८० ३. एक वस्तु क्रमेणानेकस्मिन्भवति क्रियते वा स पर्यायः ।...... . अनेकमेकस्मिन् क्रमेण भवति क्रियते वा सोऽन्यः ।
-मम्मट, काव्यप्र० वृत्ति पृ० २७३-७४ . .४. द्रष्टव्य, रुय्यक, अलं० सर्वस्व सूत्र स ६०
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५४९ किसी कार्य के एक या अनेक हेतुओं का निर्देश अलङ्कार नहीं होता; किन्तु जहाँ एक हेतु से कोई कार्य उत्पन्न हो और पुनः वह कार्य ही अन्य कार्य का कारण बन जाय, उस कारण से उत्पन्न कार्य फिर अन्य कार्य का कारण बने और इस तरह जहाँ प्रत्येक पूर्ववर्ती के अपने उत्तरवर्ती के प्रति कारण बनने से उक्ति में कारणों की एक शृङ्खला बन जाय, वहाँ चमत्कार-विशेष के कारण अलङ्कार माना जाता है। इसकी प्रकृति के अनुरूप इसे कारणमाला कहा जाता है।
रुद्रट ने कारणमाला अलङ्कार की कल्पना कर उसके स्वरूप का निरूपण करते हुए कहा था कि जहाँ अर्थों में पूर्ववर्ती अर्य परवर्ती अर्थ का हेतु बन जाता है और यह क्रम समग्र रूप से चलता है, अर्थात् एक पूर्ववर्ती अर्थ अपने उत्तरवर्ती अर्थ का हेतु बनता है, फिर वह उत्तरवर्ती अर्थ भी अपने उत्तरवर्ती का हेतु बनता है और प्रत्येक पूर्ववर्ती का अपने उत्तरवर्ती के प्रति हेतु बनने का यह क्रम शृङ्खला के रूप में समग्र उक्ति तक चलता रहता है, वहां कारणमाला अलङ्कार माना जाता है।' ___ मम्मट, रुय्यक एवं विश्वनाथ ने कारणमाला का यही स्वरूप स्वीकार किया है। रुय्यक ने कहा है कि इसमें कार्य और कारण का जो क्रम रहता है, वही इसके सौन्दर्य का कारण है। इस प्रकार रुद्रट से विश्वनाथ तक कारणमाला के सम्बन्ध में यह समान धारणा प्रचलित रही कि इसमें हर पूर्ववर्ती अपने उत्तरवर्ती के प्रति कारण बनता चले और इस तरह कारणों की एक शृङ्खला बन जाय।
अप्पय्य दीक्षित ने कारणमाला के इस स्वरूप को देखते हुए उसके एक और रूप की कल्पना की। प्रत्येक उत्तरवर्ती का अपने पूर्ववर्ती के प्रति हेतु बनने का क्रमबद्ध वर्णन भी कारणमाला का एक रूप माना गया। इस प्रकार उनके अनुसार उत्तर-उत्तर के प्रति पूर्व-पूर्व का तथा पूर्व-पूर्व के प्रति उत्तरउत्तर का हेतु बनने का क्रमबद्ध वर्णन कारणमाला है। वस्तुतः कारणमाला १. कारणमाला सेयं यत्र यथापूर्वमेति कारणताम् । अर्थानां पूर्वार्थाद्भवतीदं सर्वमेवेति ॥
-रुद्रट, काव्यालं. ७, ८४ २. कार्यकारणक्रम एवात्र चारुत्वहेतुः।-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १७३ ३. उत्तरोत्तरकारणभूतपूर्वपूर्वैः पूर्वपूर्वकारणभूतोत्तरोत्तर वस्तुभिः कृतो
गुम्फः कारणमाला।-अप्पय्य दी० कुवलया० वृत्ति पृ० १२५
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५५० ]
अलङ्कार- धारणा : विकास और विश्लेषण
का अलङ्कारत्व कार्यकारण की शृङ्खला में निहित है । कार्य - वाक्य या कारणवाक्य का पूर्ववर्ती या परवर्ती होना विशेष महत्त्व नहीं रखता । यदि प्रत्येक पूर्ववर्ती का अपने से उत्तरवर्ती के प्रति हेतु बनने का क्रमबद्ध वर्णन कारणमाला अलङ्कार है तो प्रत्येक उत्तरवर्ती का पूर्ववर्ती के प्रति हेतुत्व वर्णन भी कारणमाला का ही उदाहरण माना जाना चाहिए। दोनों में कार्यकारण की माला समान रूप से रहती है, भेद केवल कार्य तथा कारण के पूर्व भाव तथा परभाव का है । पण्डितराज जगन्नाथ ने भी शृङ्खलामूलक इस अलङ्कार के दोनों भेद स्वीकार किये हैं । प्रत्येक पूर्ववर्ती कारण हो और प्रत्येक उत्तरवर्ती कार्य, यह एक प्रकार की कारणमाला है । प्रत्येक पूर्ववर्ती कार्य और प्रत्येक उत्तरवर्ती कारण हो, यह दूसरी कारणमाला है । ' अप्पय्य दीक्षित और जगन्नाथ के बाद कारणमाला के ये दोनों रूप स्वीकृत हुए हैं । निष्कर्षतः, कारणमाला अलङ्कार के निम्नलिखित दो रूप मान्य हैं
-
(१) जिस उक्ति में आरम्भ से अन्त तक प्रत्येक पूर्ववर्ती का अपने उत्तरवर्ती के प्रति हेतु बनने का क्रमबद्ध वर्णन हो और (२) जहाँ प्रत्येक उत्तरवर्ती का अपने-अपने पूर्ववर्ती के प्रति हेतु बनने का क्रमबद्ध वर्णन हो । कारणों का क्रमबद्ध वर्णन या उनकी शृङ्खला ही इस अलङ्कार का प्राण है ।
एकावली
करणमाला की तरह एकावली भी माला या शृङ्खला की धारणा पर आधृत अलङ्कार है । इसकी उद्भावना भी सर्वप्रथम रुद्रट के 'काव्यालङ्कार' में हुई है । रुद्र की धारणा है कि जहाँ उत्तरोत्तर उत्कर्षशाली अर्थों की परम्परा इस रूप में रखी जाती है कि प्रत्येक उत्तरवर्ती अर्थ पूर्ववर्ती अर्थ का विशेषण बन जाय, वहाँ एकावली मानी जाती है । इसमें कहीं विधि रूप से तथा कहीं अपोह अर्थात् अन्यव्यवच्छेद (या निषेध) रूप से वर्णन होता है । इसमें अर्थों के विशेषण - विशेष्य-भाव के क्रम का सौन्दर्य निहित रहता है । भोज ने इसे परिकर अलङ्कार अन्तर्भुक्त मान लिया है । इसीलिए उन्होंने इसका पृथक् निरूपण नहीं किया । 3 १. तत्र पूर्वं पूर्वं कारणं परं परं कार्यमित्येका ( कारणमाला)। पूर्वं पूर्वं कार्यं परं परं कारणमित्यपरा । - जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७३१
२. एकावलीति सेयं यत्रार्थपरम्परा यथालाभम् ।
आधीयते यथोत्तरविशेषणा स्थित्यपोहाभ्याम् ॥ — रुद्रट,
३. द्रष्टव्य, भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण ४, ७६
काव्यालं ० ७,
१०६
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५५१
मम्मट, रुय्यक आदि आचार्यों ने एकावली का यही स्वरूप स्वीकार किया है।' कारणमाला और एकावली के विकास-क्रम में पर्याप्त समता है। रुद्रट ने करणमाला तथा एकावली के जिस स्वरूप की कल्पना की, वही मम्मट, रुय्यक भौर विश्वनाथ के काल तक मान्य रहा, पर अप्पय्य दीक्षित ने दोनों ही मलङ्कारों की धारणा को समान रूप से विस्तार दिया। एकावली में केवल उत्तरवर्ती अर्थ के पूर्ववर्ती के प्रति विशेषणभाव की कल्पना रुद्रट ने की थी। मम्मट और रुय्यक को यही मान्य था। रुय्यक इसके विपरीत पूर्ववर्ती का उत्तरवर्ती अर्थ के प्रति विशेषण बनने की शृङ्खला में मालादीपक मानते थे, पर अप्पय्य दीक्षित ने पूर्व-पूर्व के प्रति उत्तर-उत्तर के विशेषण बनने के साथ उत्तर-उत्तर के प्रति पूर्व-पूर्व के विशेषण बनने में भी एकावली अलङ्कार ही माना है। उनके अनुसार 'गृहीतमुक्तरीति' से अर्थों की परम्परा का वर्णन एकावली का लक्षण है। गृहीत-मुक्तरीति का अर्थ है, उत्तर-उत्तर का पूर्वपूर्व के प्रति विशेषण-भाव तथा पूर्व-पूर्व का उत्तर-उत्तर के प्रति विशेषणभाव।' इस प्रकार उक्त दोनों ही स्थितियों में एकावली का सद्भाव अप्पय्यदीक्षित को मान्य है।
पण्डितराज जगन्नाथ ने एकावली और कारणमाला की मूल प्रकृति में अभेद बताते हुए कारणमाला की तरह इसके भी दो रूप स्वीकार किये हैं। उनकी मान्यता अप्पय्य दीक्षित की एकावली-धारणा से अभिन्न है। उन्होंने कहा है कि जहां पूर्व-पूर्व उत्तर-उत्तर के प्रति या तो विशेष्य बनता हो या विशेषण; दोनों स्थितियों में एकावली अलङ्कार होता है। १. स्थाप्यतेऽपोह्यते वापि यथापूर्वं परं परम् । विशेषणतया यत्र वस्तु सैकावली द्विधा ।
-मम्मट, काव्यप्र०, १० १९८ तथायथापूर्वं परस्य विशेषणतया स्थापनेऽपोहने वैकावलो।
--रुय्यक, अलं०सर्वस्व, सूत्र सं० ५४ २. गृहीतमुक्तरीत्यार्थश्रेणिरेकावलिर्मता। तथा
उत्तरोत्तरस्य पूर्वपूर्वविशेषणभावः पूर्वपूर्वस्योत्तरोत्तरविशेषणभावो वा गृहीतमुक्तरीतिः ।
-अप्पय्यदी०, कुवलया० १०५ तथा उसकी वृत्ति पृ० १२६ ३. सैव शृङ्खला संसर्गस्य विशेष्यविशेषणभावरूपत्वे एकावली।। सा च पूर्वस्योत्तरोत्तरं प्रति विशेष्यत्वे विशेषणत्वे चेति द्विधा ।।
-जगन्नाथ रसगंगा० पृ० ७३४
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५५२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
इस विवेचन का निष्कर्ष यह है कि एकावली की धारणा में कारणमाला की धारणा की तरह विकास की एक ही स्थिति आयी है । पहले केवल प्रत्येक उत्तरवर्ती अर्थ का अपने पूर्ववर्ती के प्रति विशेषण बनने की शृङ्खला की धारणा एकावली में थी, पर पीछे चल कर पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती; दोनों के एक दूसरे के प्रति विशेषण बनने की शृङ्खला के आधार पर उसके दो रूप स्वीकृत हुए। रुय्यक ने जिसे (पूर्व-पूर्व के उत्तर-उत्तर के प्रति विशेषणत्व को) मालादीपक का लक्षण माना था, वह अप्पय्य दीक्षित और जगन्नाथ के द्वारा एकावली का ही एक रूप स्वीकृत हुआ। कारणमाला से एकावली का भेद केवल इतना है कि कारणमाला में पूर्व-पूर्व तथा उत्तर-उत्तर में कार्यकारण की शृङ्खला दिखायी जाती है और इसमें उनके बीच विशेषण-विशेष्य की शृङ्खला रहती है।
एकावली-भेद
विधि तथा निषेध के आधार पर रुद्रट आदि ने एकावली के दो भेद माने थे। पूर्ववर्ती का परवर्ती के प्रति विशेष्यत्व तथा विशेषणत्व के आधार पर एकावली के दो भेद हो जाते हैं। ये दोनों विधि-निषेध भेद से चार प्रकार के हो जाते हैं। सार
सार अलङ्कार में अनेक पदार्थों में उत्तर-उत्तर में स्थित पदार्थ के अधिकाधिक उत्कर्ष की धारणा प्रकट की गयी है। एक वस्तु से उसके आगे आने वाली वस्तु में अधिक उत्कर्ष, उससे भी आगे आने वाली वस्तु में और अधिक उत्कर्ष; इस प्रकार प्रत्येक पूर्ववर्ती अर्थ से उत्तर-उत्तर में स्थित अर्थ के उत्कर्ष की शृङ्खला-सी इसमें बन जाती है ।
रुद्रट ने सर्वप्रथम सार को परिभाषित करते हुए कहा था कि जहाँ समुदाय में से एक देश को क्रम से अलग कर गुण-सम्पन्न होने से अन्त तक उसकी ( गुणोत्कर्ष की ) चरम सीमा निर्धारित की जाय, वहीं सार अलङ्कार होता है।' अभिप्राय यह कि इसमें अर्थों के समुदाय में से एक अङ्ग की अपेक्षा दूसरे में अधिक गुणोत्कर्ष, उससे भी तीसरे में अधिक गुणोत्कर्ष और इसी क्रम
१. यत्र यथासमुदायाद्यथैकदेशं क्रमेण गुणवदिति । निर्धार्यते परावधि निरतिशयं तद्भवेत्सारम् ।।-रुद्रट, काव्यालं. ७,६६
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५५३ से अन्त में आने वाले में सर्वाधिक गुणोत्कर्ष दिखाया जाता है। आरम्भ से अन्त तक गुण के उत्कर्ष का क्रम होना सार में आवश्यक है। ____ मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि ने भी सार का यही स्वरूप निरूपित किया है। मम्मट के अनुसार परावधि अर्थात् अन्त तक वस्तु के उत्तरोत्तर उत्कर्ष का वर्णन सार है।' रुय्यक ने पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तर-उत्तर की उत्कृष्टता का निबन्धन सार का लक्षण दिया है ।२ विश्वनाथ ने वस्तु के उत्तरोत्तर उत्कर्ष-वर्णन को सार कहा । स्पष्ट है कि इन आचार्यों की सार-धारणा अभिन्न है। इनके सार का स्वरूप रुद्रट के सार से भी मूलतः अभिन्न है; पर रुद्रट की अपेक्षा मम्मट आदि का सार-लक्षण अधिक सरल है। समुदाय और उसके एक-एक देश के उत्तरोत्तर उत्कर्ष की चर्चा न कर मम्मट-रुय्यक आदि ने आरम्भ से अन्त तक वस्तुओं में पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तर-उत्तर में अधिक गुणोत्कर्ष की धारणा पर बल दिया । इस तरह मम्मट, रुय्यक आदि की सार-परिभाषा अधिक सुबोध बन पायी। __ अप्पय्य दीक्षित ने सार की परिभाषा देने में तो पूर्ववर्ती आचार्यों के मत का ही अनुमोदन किया है; पर उन्होंने सार के तीन भेदों की कल्पना की है। उत्तरोत्तर उत्कर्ष सार का लक्षण है । वह उत्कर्ष श्लाध्य गुण का भी हो सकता और अश्लाघ्य गुण का भी। दोनों को मिलाकर उभय गुण का उत्तरोत्तर उत्कर्ष भी दिखाया जा सकता है। सार में गुणोत्कर्ष का अर्थ है गुण का आधिक्य । अतः, उत्तरोत्तर वस्तुओं में गुण का उत्कर्ष या आधिक्य दिखाना सार माना जायगा ।
पण्डितराज जगन्नाथ ने पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तर-उत्तर के उत्कर्ष के साथ पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर के अपकर्ष-वर्णन में भी सार का सद्भाव माना है। उत्तरोत्तर के अपकर्ष-वर्णन की धारणा अप्पय्य दीक्षित की उत्तरोत्तर में अश्लाघ्य गुणोत्कर्ष की धारणा से मिलती जुलती है। अश्लाघ्य गुण
१. उत्तरोत्तरमुत्कर्षो भवेत्सारः परावधिः।-मम्मट, काव्यप्र० १०,१६० २. उत्तरोत्तरमुत्कर्षः सारः।-रुय्यक, अलं०सर्वस्व, सूत्र सं० ५६ ३. उत्तरोत्तरमुत्कर्षो वस्तुनः सार उच्यते।।
-विश्वनाथ, साहित्यद० १०,१०२ ४. उत्तरोत्तरमुत्कर्षः सार इत्यभिधीयते।
-अप्पय्यदी० कुवलया० १०८ तथा उसकी वृत्ति द्रष्टव्य, पृ० १२७-२८
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५५४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
के उत्कर्ष को गुण का क्रमिक अपकर्ष भी कहा जा सकता है। जगन्नाथ ने एक विषय तथा अनेक विषय के आधार पर भी सार के दो-दो भेद माने हैं।'
निष्कर्षतः, उत्तरोत्तर क्रम से वस्तुओं के ( श्लाघ्य या अश्लाघ्य या दोनों प्रकार के ) गुणों का उत्कर्ष दिखाया जाना सार का एक रूप तथा वस्तुओं का उत्तरोत्तर गुणापकर्ष दिखाना उसका दूसरा रूप है।
सार-भेद
अप्पय्य ने गुणों के श्लाघ्य, अश्लाघ्य तथा उभय रूप के आधार पर सार के तीन भेद किये थे। पण्डितराज ने गुणोत्कर्ष तथा गुणापकर्ष-रूप-दो भेद मानकर एक विषय तथा अनेक विषय के आधार पर दोनों के दो-दो भेदः माने हैं। अन्योन्य
अन्योन्य अलङ्कार के मूल में दो पदार्थों के पारस्परिक उपस्कार या उपकार की धारणा रही है। दोनों एक दूसरे के लिए समान क्रिया करते हैं। इसलिए दोनों में परस्पर क्रिया का एक कारक-भाव रहता है। रुद्रट ने अन्योन्य की परिभाषा में कहा है कि जहाँ दो पदार्थों में परस्पर क्रिया से वैशिष्ट्य लाने वाला एक कारक-भाव हो, वहाँ अन्योन्य अलङ्कार होता है । २ अभिप्राय यह कि दो पदार्थ एक दूसरे के लिए यदि समान क्रिया करते हों और उस क्रिया से उनके वैशिष्ट्य की पुष्टि होती हो तो अन्योन्य अलङ्कार होगा। स्पष्टतः अन्योन्य अन्वर्था संज्ञा है।
भोज ने अन्योन्य का विस्तृत विवेचन किया। उन्होंने अन्योन्य की मूल धारणा में कोई परिवर्तन नहीं कर रुद्रट की धारणा को अपेक्षाकृत सरल रूप में प्रस्तुत किया। उनके अनुसार अन्योन्य का लक्षण है परस्पर एक दूसरे का उपकार । रुद्रट में भी समान क्रिया में दो पदार्थों के एक कारक-भाव का
१. सैव संसर्गस्य उत्कृष्टापकृष्टभावरूपत्वे सारः । तत्रापि पूर्वपूर्वापेक्षयोत्तरोत्तरस्योत्कर्षापकर्षाभ्यां व विध्यम् । "इमं चालङ्कारमेकानेकविषयत्वेन पुनद्विविधमामनन्ति ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७३७ २. यत्र परस्परमेक: कारकभावोऽभिधेययोः क्रियया।
संजायेत स्फारिततत्त्वविशेषस्तदन्योन्यम् ।।-रुद्रट, काव्यालं० ७,६१
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [५५३ उद्देश्य परस्पर विशेषार्पण (वैशिष्ट्य की वृद्धि) या पारस्परिक उपकार ही माना था। भोज ने अन्योन्य में परस्पर उपकार की धारणा प्रकट कर उसके वाच्य, प्रतीयमान तथा उभयात्मक; ये तीन भेद माने हैं। उन्होंने अन्योन्य के तीन और नवीन रूपों की कल्पना की है—(क) अन्योन्य चूलिका,. (ख) अन्योन्य भ्रान्ति तथा (ग) अन्योन्य एकता।' अन्योन्य चूलिका में दो पदार्थों का पारस्परिक उपकार दिखाकर समन्वित रूप से दोनों का अन्योपकार करना दिखाया जाता है। चन्द्रमा से रात्रि और रात्रि से चन्द्रमा का सुशोभित होना दो वस्तुओं-चन्द्रमा और रात्रि के पारस्परिक उपकार का उदाहरण है। अब यदि रात्रि और चन्द्रमा का परस्पर उपकार दिखाते हुए यह कहा जाय कि 'उन दोनों से गगन सुशोभित है' तो इसमें भोज अन्योन्य चूलिका मानेंगे । अन्योन्य भ्रान्ति में दो अलङ्कारों का चमत्कार हैअन्योन्य तथा भ्रान्तिमान का। काले भौंरे को जामुन का पका फल समझकर शुक का उसे खाने के लिए उन्मुख होना और फिर शुक के चञ्चु को किंशुक कुसुम समझ कर भौंरे का उस ओर आकृष्ट होना अन्योन्य भ्रान्ति का उदाहरण माना गया है। इस उदाहरण में अन्योन्य की अपेक्षा भ्रान्ति का चमत्कार अधिक है। अतः, इसे भ्रान्तिमान का ही एक भेद मानना अधिक युक्तिसङ्गत जान पड़ता है। अन्योन्य-एकता में दो पदार्थों की परस्पर एकता को स्थापना की धारणा व्यक्त की गयी है। __मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि प्रायः सभी आचार्यों ने एकमत से अन्योन्य में दो वस्तुओं के परस्पर उपकार की धारणा व्यक्त की है। मम्मट तथा रुय्यक ने एक क्रियामुखेन दो वस्तुओं के परस्पर कारण या जनक होने की बात अन्योन्य-लक्षण में कही है ।२ दो में सामान्यतः कार्यकारण या जन्यजनक-भाव रहता है। किन्तु इसमें चमत्कार यह है कि दो
१. अन्योन्यमुपकारो यस्तदन्योन्यं त्रिधा च तत् । वाच्यं प्रतीयमानं च तृतीयमुभयात्मकम् ॥ अन्योन्यचूलिकान्योन्यभ्रान्तिरन्योन्यमेकता। अन्योन्यालंकृतेरन्तस्त्रयमेतदिहेष्यते ॥
-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण ३, २७-२८ २. क्रियया तु परस्परम् । वस्तुनोर्जनोऽन्योन्यम्
-मम्मट, काव्यप्र० १०, १८७ तथा परस्परं क्रियाजननेऽन्योन्यम् । -रुय्यक, अलं० सू०, सं० ४६
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*५५६ ]
अलङ्कार- धारणा : विकास और विश्लेषण
पदार्थ परस्पर एक दूसरे के कारण बताये जाते हैं । पहले के सौन्दर्य का जनक दूसरा और दूसरे का पहला, यह अन्योन्य का सौन्दर्य है । कारण या - जनक शब्द का प्रयोग रुद्रट के विशेष तथा भोज आदि के उपकार के लिए हुआ है । विश्वनाथ का लक्षण रुद्रट के लक्षण से मिलता-जुलता है ।" इसे अप्पय्य दीक्षित ने अन्योन्य का उपकार तथा जगन्नाथ ने अन्योन्य का विशेषाधान कहा है । २ इस प्रकार अन्योन्य के सम्बन्ध में आचार्य प्राय: एकमत रहे हैं। सभी आचार्यों के मत का सार यह है कि जहाँ दो पदार्थ समान क्रिया से एक दूसरे का उपकार या उत्कर्षाधान करते हुए वर्णित हों, वहाँ अन्योन्य अलङ्कार होता है ।
:
- परिवृत्ति
परिवृत्ति भामह के समय ही अलङ्कार रूप में स्वीकृत हो चुकी थी । पीछे के आचार्यों ने भी उसका अलङ्कारत्व स्वीकार किया है । परिवृत्ति के - स्वरूप पर विचार करने से उसमें विशेष चमत्कार नहीं जान पड़ता । उसमें
.
• पदार्थों के विनिमय की धारणा प्रायः सभी आचार्यों ने व्यक्त की है । अर्थों के पारस्परिक विनिमय के आधार पर परिवृत्ति अन्वर्थ अभिधान है । भामह ने छोटी-सी चीज के बदले विशिष्ट वस्तु का आदान परिवृत्ति का लक्षण माना - था । उन्होंने उसे अर्थान्तरन्यासवती कहकर उसमें अर्थान्तरन्यास का तत्त्व - भी अपेक्षित माना था । दण्डी ने परिवृत्ति को परिभाषित करते हुए उसे कुछ व्यापक स्वरूप दिया । उन्होंने अन्य वस्तु देकर केवल विशिष्ट वस्तु के आदान तक ही उसका क्षेत्र सीमित नहीं रखा । सामान्य रूप से अर्थों के विनिमय को उन्होंने परिवृत्ति का लक्षण माना । विनिमय के तीन रूप सम्भव हैं - ( १ ) समान से समान का विनिमय, (२) न्यून से अधिक का विनिमय तथा (३) अधिक से न्यून का विनिमय । दण्डो की परिवृत्ति - परिभाषा की व्याप्तिविनिमय के उक्त तीनों रूपों में है, फिर भी उन्होंने परिवृत्ति का जो उदाहरण दिया है वह न्यून देकर अधिक के आदान का ही उदाहरण है । "
१. द्रष्टव्य - विश्वनाथ, साहित्यद० १०, ६५
२. द्रष्टव्य - अप्पय्य दी०, कुवलया० ६८ तथा जगन्नाथ, रसगङ्गा० पृ० ७२१ ३. विशिष्टस्य यदादानमन्यापोहेन वस्तुनः ।
अर्थान्तरन्यासवती परिवृत्तिरसौ यथा ॥ - भामह, काव्यालं० ३,४१
४. अर्थानां यो विनिमयः परिवृत्तिस्तु सा स्मृता ।
- दण्डी, काव्यादर्श २, ३५१ - परिवृत्ति का उदाहरण, काव्यादर्श २, ३५६
५. द्रष्टव्य-प
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५५७. दण्डी की दृष्टि में भामह की परिवृत्ति का उदाहरण रहा होगा। सम्भव है, इसीलिए उन्होंने न्यून देकर अधिक के ग्रहण का उदाहरण दे दिया हो। दण्डी के उस उदाहरण को देखकर यह नहीं माना जाना चाहिए कि दण्डी भी भामह की तरह केवल न्यून से अधिक के विनिमय में ही परिवृत्ति मानते थे। दण्डी ने स्वयं यह कहा है कि परिवृत्ति के किञ्चित् रूप का ही उदाहरण दिया जा रहा है। स्पष्टतः, उदाहृत रूप के अतिरिक्त अन्य रूपों की भी कल्पना दण्डी के मन में थी; पर उन्होंने सब को उदाहृत करना आवश्यक नहीं समझा।
उद्भट ने परिवृत्ति में अर्थों के विनिमय की मूल धारणा को ही स्वीकार किया; पर उन्होंने स्पष्टीकरण के लिए विनिमय के तीनों सम्भव रूपों का परिभाषा में उल्लेख करते हुए कहा कि सम, न्यून तथा विशिष्ट से किसी वस्तु का परिवर्तन, जो अर्थस्वभाव तथा अनर्थस्वभाव का होता है, परिवृत्ति है। न्यून देकर अधिक का आदान अर्थस्वभाव, अधिक देकर न्यून का ग्रहण अनर्थस्वभाव तथा सम से सम का विनिमय प्रसज्यप्रतिषेधरूप अर्थाभाव रूप है। इन तीनों स्थितियों में परिवृत्ति मानी जाती है । ' स्पष्ट है कि दण्डी की परिवत्ति-परिभाषा को ही कुछ परिष्कृत रूप में उद्भट ने प्रस्तुत किया है। __ आचार्य वामन का कहना है कि कुछ लोग उपमेयोपमा को ही परिवृत्ति मान लेते हैं, जो उचित नहीं । समान अथवा असमान अर्थ से अर्थ का परिवर्तन परिवृत्ति का लक्षण है।२ विसदृश के विनिमय में न्यून से अधिक तथा अधिक से न्यून; दोनों के परिवर्तन की धारणा निहित है। स्पष्ट है कि वामन ने दण्डी, उद्भट आदि की ही परिवृत्ति-धारणा को स्वीकार किया है। वामन सभी अलङ्कारों को उपमा-प्रपञ्च मानते हैं; पर परिवृत्ति में अर्थ-परिवर्तन में सार्वत्रिक रूप से उपमानोपमेय भाव नहीं दिखाया जा सकता। उनकी परिवृत्ति-धारणा अलङ्कार के सम्बन्ध में उनकी मूल धारणा पर ऐसा प्रश्न चिह्न छोड़ जाती है, जिसका कोई युक्तिसङ्गत उत्तर नहीं।
१. समन्यूनविशिष्टस्तु कस्यचित् परिवर्तनम् । अर्थानर्थस्वभावं यत् परिवृत्तिरभाणि सा॥ -उद्भट, काव्यालं. सारसं० ५,३१ । उसपर तिलक की विवृति भी
द्रष्टव्य, पृ० ४८ .. २. समविसदृशाभ्यां परिवर्तन परिवृत्तिः।
-वामन, काव्यालं० स० ४,३,१६.
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"५५८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
रुद्रट के अनुसार एक ही साथ वस्तु का आदान-प्रदान परिवृत्ति है। यह कभी-कभी तात्त्विक आदान-प्रदान के अभाव में भी उपचार से हो सकती है। उदाहरणार्थ; 'विरहोत्कण्ठा देकर चित्त का हरण', इस कथन में तात्त्विक प्रदान नहीं है, केवल उपचार से दान और ग्रहण की कल्पना है । वामन के उदाहरण में भी औपचारिक विनिमय की धारणा प्रकट की गयी थी। स्पष्ट है कि वामन, रुद्रट आदि सभी आचार्य तात्त्विक विनिमय या कुछ देकर कुछ लेने में तो परिवृत्ति मानते ही थे, उपचार से जहां वस्तुओं के विनिमय या पारस्परिक परिवर्तन का बोध होता हो, वहाँ भी वे परिवृत्ति का सद्भाव मानते थे।
भोज ने परिवत्ति के लक्षण में वस्तुओं के विनिमय तथा व्यत्यय की धारणा प्रकट की है। इस प्रकार उनके अनुसार वस्तुओं का विनिमय अर्थात् एक वस्तु.देकर दूसरी वस्तु का ग्रहण, परिवृत्ति अलङ्कार का एक रूप और वस्तुओं का व्यत्यय अर्थात् एक स्थान से अन्यत्र अपसरण, उसका दूसरा रूप होगा। व्यत्यय तथा विनिमय को मिलाकर उभयरूपात्मक परिवृत्ति बनती है। इन तीनों के मुख्य और अमुख्य (गोणी वृत्ति ) भेद से छह भेद हो जाते हैं ।२ अर्थ के व्यत्यय में प्रसिद्ध स्थान से अन्यत्र अपसरण में-परवर्ती किसी भी आचार्य ने परिवृत्ति नहीं मानी है। वैसी उक्ति के स्वरूप पर पर्याय आदि में विचार किया गया है। अर्थव्यत्यय तक परिवृत्ति के क्षेत्र को खींच कर ले जाना उचित नहीं जान पड़ता।
मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि आचार्यों ने एकमत से उद्भट की तरह सम, न्यून तथा विशिष्ट अर्थ से क्रमशः सम, विशिष्ट और न्यून अर्थ के विनिमय में परिवृत्ति अलङ्कार की सत्ता मानी है।
अप्पय्य दीक्षित ने न्यून और अधिक का परस्पर परिवर्तन परिवृत्ति का क्षेत्र माना है। उन्होंने उसके जो दो उदाहरण दिये हैं, उनमें न्यून देकर
१. युगपद्दामादाने अन्योन्यं वस्तुनोः क्रियेते यत् । क्वचिदुपचर्येते वा प्रसिद्धितः सेति परिवृत्तिः॥
-रुद्रट, काव्यालं. ७,७७ .२. व्यत्ययो वस्तुनो यस्तु यो वा विनिमयो मिथः ।। परिवृत्तिरिहोक्ता सा....."||-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण ३, २६
मरिवृत्ति भेद के लिए द्रष्टव्य वही ३,३.
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५५६ 'विशिष्ट का ग्रहण ही दिखाया गया है।' इससे जान पड़ता है कि भामह की तरह अप्पय्य दीक्षित भी केवल न्यून देकर अधिक के ग्रहण में ही चमत्कार मानकर वहीं तक परिवृत्ति का क्षेत्र मानते होंगे। इस प्रकार सम्भवतः उनके 'विनिमयः न्यूनाभ्यधिकयोमिथः' कथन का तात्पर्य न्यून से अधिक के विनिमय (न्यून देकर अधिक ग्रहण) का रहा होगा।
पण्डितराज जगन्नाथ ने सम और विषम; दोनों प्रकार के विनिमय में 'परिवृत्ति मानी है। परिवृत्ति के लिए जगन्नाथ ने यह आवश्यक माना है कि एक वस्तु का समर्पण कर अन्य वस्तु के ग्रहण में ही परिवृत्ति होगी, दूसरे के ग्रहण के लिए एक का त्याग मात्र ही परिवृत्ति में पर्याप्त नहीं। इसी आधार पर जगन्नाथ ने 'अलङ्कारसर्वस्व' के परिवृत्ति-लक्षण में दोष निकालना चाहा है, जिसमें यह कहा गया है कि एक वस्तु का त्याग कर दूसरी का ग्रहण 'परिवृत्ति है। विनिमय में कुछ लेने के लिए कुछ का केवल त्याग ही नहीं, उसका अर्पण अपेक्षित होता है ।। _ निष्कर्षतः, परिवृत्ति के सम्बन्ध में दो प्रधान धारणाएँ प्रचलित रही हैं(क) न्यून वस्तु देकर विशिष्ट वस्तु का ग्रहण और (ख) सम, न्यून तथा अधिक वस्तुओं का क्रमशः सम, अधिक एवं न्यून के साथ परिवर्तन । सम का सम से न्यून का अधिक से तथा अधिक का न्यून से परिवर्तन दिखाने में परिवृत्ति मानने के पक्ष में ही अधिकांश आचार्य रहे हैं। वस्तुतः विनिमय की विवक्षा 'परिवृत्ति का प्राण है। उसके सम्भव तीनों रूपों में परिवृत्ति मानी जानी चाहिए। ___ आचार्य केशव ने भ्रमवश विषादन के स्वरूप को परिवृत्ति का लक्षण बना दिया है। उनके अनुसार जहाँ प्रयत्न कुछ और के लिए हो और फल कुछ और ही हो जाय, वहां परिवृत्ति होती है। चिन्तामणि, कुलपति आदि ने १. परिवृत्तिविनिमयो न्यूनाभ्यधिकयोमिथः । जग्राहैकं शरं मुक्त्वा कटाक्षात्स रिपुश्रियम् ॥
- अप्पय्य दी०, कुवलया० ११२ २. परकीययत्किञ्चिद्वस्त्वादानविशिष्टं परस्मै स्वकीययत्किञ्चिद्वस्तुसमर्पणं
परिवृत्तिः।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७६३ रुय्यक की परिवृत्ति-परिभाषा की समीक्षा के लिए द्रष्टव्य वही
पृ० ७६५ ३. जहाँ करत कछु और ही, उपजि परति कछु और ।
तासों परिवृत्ति जानियो"....केशव, कविप्रिया १३-२६
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५६० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
मम्मट आदि की तरह सम तथा असम के विनिमय में परिवृत्ति मानी है । मतिराम, कुमारमणि, आदि ने अप्पय्य दीक्षित की तरह न्यून और अधिक के विनिमय में ही परिवृत्ति का सद्भाव माना है । न्यून तथा अधिक के विनिमय का अर्थ कुछ आचार्य केवल न्यून देकर अधिक का आदान मानते हैं और कुछ लोग न्यून से अधिक का तथा अधिक से न्यून का परिवर्तन |
परिवृत्ति-भेद
तथा दोनों असुन्दर का विनिमय । भेद असम विनिमय के स्वीकृत हैं । पर प्रत्येक के दो-दो भेद सम्भव हैं ।
जगन्नाथ ने सम से सम के विनिमय के दो भेद माने हैं—दोनों सुन्दर न्यून से अधिक तथा अधिक से न्यून; ये दो मुख्य या उपचार से विनिमय के आधार
परिसंख्या
१
अलङ्कार के रूप में परिसंख्या का निरूपण सर्वप्रथम रुद्रट ने किया है । वैशेषिक दर्शन में परिसंख्या के स्वरूप का विस्तृत विवेचन हो चुका था । गुण, क्रिया तथा जाति-रूप वस्तु की एकत्र स्थापना तथा अपर मुख्य या वृत्ति से उसका निषेध परिसंख्या का स्वरूप है । वैयाकरण परिसंख्या का अर्थ नियम मानते हैं । ध्यातव्य है कि निषेध प्राप्त का ही होता है । अतः, जिस गुण, जाति, क्रिया आदि की अनेकत्र प्राप्ति हो, उसे किसी एक नियत आधार में ही विद्यमान कहा जाय, जिससे अपरत्र उसका अभाव प्रतीत हो तो यह परिसंख्या का स्वरूप होगा । वस्तु की एकत्र स्थापना कर अपरत्र उसका अभाव, वाच्य या प्रतीयमान किसी भी रूप में बताया जा सकता है । वस्तु की एकत्र स्थापना तथा अपरत्र उसका निषेध, प्रश्न किये जाने पर भी किया जा सकता है और प्रश्ननिरपेक्ष रूप में भी । रुद्रट ने विधि-निषेध की इस उक्तिभङ्गी को किञ्चित् परिष्कार के साथ अलङ्कार के रूप में स्वीकर किया है । जहाँ अनेकत्र प्राप्त किसी वस्तु की एकत्र स्थापना की जाय और अपरत्र उसका अभाव प्रतीत हो, वहाँ रुद्रट परिसंख्या अलङ्कार मानेंगे । अभाव का वाच्य होना इसमें उन्हें अभीष्ट नहीं । परिसंख्या को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि जहाँ प्रश्नपूर्वक अथवा बिना प्रश्न के अनेकत्र समान रूप से रहने वाली
१. 'ऋग्वेद भाष्य' की भूमिका में सायण ने उसके स्वरूप का विस्तृत: विवेचन किया है ।
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५६१ गुण, क्रिया या जाति-रूप वस्तु का ऋहीं सद्भाव कहा जाय और अन्यत्र उसका मभाव प्रतीत हो, वहां परिसंख्या होती है। सारांश यह कि-(१) परिसंख्या प्रश्नपूर्वक भी होती है और अप्रश्नपूर्वक भी (२) इसमें एक आधार में वस्तु की स्थापना वाच्य होती है; पर दूसरे आधारों में उसका निषेध प्रतीयमान और (३) जिन आधारों में साधारण रूप से जो वस्तु रहा करती है उन्हीं आधारों में से एकत्र उस वस्तु का सद्भाव तथा अपरत्र उसका अभाव शब्दतः दिखाया जाता है।
भोज ने परिसंख्या को उक्ति नामक शब्दालङ्कार का एक भेद परिसंख्योक्ति मान लिया है। उन्होंने विधि-निषेध से शेष का ज्ञान परिसंख्या का लक्षण माना है। २ स्पष्ट है कि परिसंख्या के सम्बन्ध में उनकी धारणा रुद्रट की धारणा से अभिन्न है। इसे शब्दालङ्कार मानना उचित नहीं: क्योंकि विधि-निषेध से अन्य का परिज्ञान अर्थसापेक्ष होता है। __ मम्मट ने रुद्रट की परिसंख्या-विषयक मान्यता को स्वीकार कर उसके क्षेत्र को थोड़ा और विस्तृत कर दिया। उन्होंने निषेध के वाच्य होने में भी परिसंख्या का सद्भाव माना। परिसंख्या की परिभाषा में उन्होंने अन्यत्र वस्तु के अभाव को 'प्रतीति' का उल्लेख नहीं कर 'तादृगन्य-व्यपोह' का उल्लेख किया। अभाव की प्रतीति की अपेक्षा व्यपोह का अर्थ व्यापक है । व्यपोह या निषेध प्रतीयमान भी हो सकता है और वाच्य भी। मम्मट ने परिसंख्या की परिभाषा में कहा है कि जहाँ पूछे जाने पर या बिना पूछे कोई वस्तु शब्दतः कथित होकर अपने समान अन्य वस्तु के निषेध में पर्यवसित होती है, वहीं परिसंख्या होती है। वृत्ति में उन्होंने अपोह्यमान वस्तु के प्रतीयमान तथा वाच्य होने के आधार पर परिसंख्या के दो भेद किये हैं। पृष्ट तथा अपृष्ट भेद के उक्त दो-दो भेद होने से परिसंख्या के चार भेद उन्हें मान्य हैं।
१. पृष्टमपृष्टं वा सद्गुणादि यत्कथ्यते क्वचित्त ल्यम् । अन्यत्र तु तदभावः प्रतीयते सेति परिसंख्या ।।
-रुद्रट, काव्यालं० ७, ७६ २. द्रष्टव्य-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, पृ० १४८ ३. किञ्चित् पृष्टमपृष्टं वा कथितं यत्प्रकल्प्यते ।
तादृगन्यव्यपोहाय परिसंख्या तु सा स्मृता ॥ तथा-अत्र च कथनं प्रश्नपूर्वकं तदन्यथा च परिदृष्टम, तथोभयत्र व्यपोह्यमानस्य प्रतीयमानता वाच्यं चेति चत्वारो भेदाः ।
-मम्मट, काव्यप्र० १०, १८५ तथा उसकी वृत्ति पृ० २७७
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५६२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
रुय्यक ने मम्मट के चारो परिसंख्या-भेदों को स्वीकार किया है। उनकी 'परिसंख्या-परिभाषा अपेक्षाकृत अधिक सरल है। उन्होंने कहा है कि एक वस्तु की अनेकत्र प्राप्ति होने पर उसका एकत्र नियमन परिसंख्या है।' एकत्र नियमन से ही अपरत्र उसका निषेध प्रतीत होता है; कहीं-कहीं निषेध वाच्य भी होता है। स्पष्ट है कि मम्मट और रुय्यक की परिसंख्या-धारणा समान है। विश्वनाथ ने भी इसी मान्यता को स्वीकार किया है।
अप्पय्य दीक्षित ने निषेध के शाब्द और आर्थ होने के आधार पर परिसंख्या के दो भेद माने हैं। पृष्ट-अपृष्ट का उल्लेख उनकी परिभाषा में नहीं है। दोनों उदाहरण अपृष्ट के ही दिये गये हैं। परिसंख्या के सम्बन्ध में उनकी मूल धारणा पूर्ववर्ती आचार्यों की धारणा से अभिन्न है। एक वस्तु का निषेध कर दूसरे ( आधार ) में वस्तु के नियमन को वे भी परिसंख्या का लक्षण मानते हैं।
पण्डितराज जगन्नाथ ने मम्मट, रुय्यक आदि की तरह परिसंख्या के चार भेद स्वीकार किये हैं—प्रश्नपूर्वक, तथा अप्रश्नपूर्वक परिसंख्या-भेदों के शाब्द निषेध और आर्थ निषेध-भेद । परिसंख्या का सामान्य स्वरूप भी उन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों के मतानुसार ही दिया है। निष्कर्ष यह कि परिसंख्या के उक्त चार भेद बहुमान्य हैं। उसके इस सामान्य रूप को मानने में सभी आचार्य एकमत हैं कि अनेकत्र समान रूप से प्राप्त वस्तु का एकत्र स्थापन तथा अन्यत्र शाब्द या प्रतीयमान निषेध परिसंख्या है। मालादीपक
मालादीपक के स्वरूप पर दीपक से स्वतन्त्र रूप में विचार होता रहा है। उपमा, रूपक आदि अनेक अलङ्कारों के माला-रूप की कल्पना उसके भेद के रूप में होती रही है; पर मालादीपक ने दीपक से अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बना लिया है। इसका मूल तत्त्व दीपक से निश्चय ही अभिन्न है।
१. एकस्यानेकत्रप्राप्तावेकत्र नियमनं परिसंख्या ।
-रुय्यक, अलङ्कार सू० ६२ २. परिसंख्या निषिध्यकमेकस्मिन्वस्तुयन्त्रणम् ।
-अप्पय्यदी० कुवलया० ११३ ३. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर पृ० ७६५-६६
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५६३ एक क्रिया आदि से अनेक का अन्वय इसमें भी दीपक की तरह ही अपेक्षित माना गया है: पर इसमें एकावली की तरह उत्तर-उत्तर का पूर्व-पूर्व से गुणोत्कर्ष पाने की धारणा भी व्यक्त की गयी है। यही कारण है कि कुछ आचार्यों ने इसकी स्वतन्त्र परिभाषा नहीं देकर इसे दीपक और एकावली का योग-मात्र कहा है। दो अलङ्कारों के योग से नवीन अलङ्कार की कल्पना होने लगे तो अलङ्कार की संख्या अनन्त हो जाय । इसलिए कुछ आचार्य इसे स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं मानकर दीपक में ही इसका अन्तर्भाव मानते हैं। यही उचित भी है। यहाँ मालादीपक के स्वरूप तथा उसे स्वतन्त्र अलङ्कार मानने के सम्बन्ध में आचार्यों की धारणा का ऐतिहासिक अध्ययन वाञ्छनीय है।
आचार्य दण्डी ने मालादीपक को दीपक का एक भेद मानकर पूर्व-पूर्व वाक्य की अपेक्षा रखने वाले उत्तर-उत्तर वाक्य की माला की कल्पना की। इसमें सभी वाक्यों का एक पद से अन्वय होता है। अतः, मूलतः यह दीपक ही है।' पूर्व-पूर्व की अपेक्षा रखने वाले उत्तर-उत्तर वाक्य की माला की कल्पना के कारण इसे मालादीपक कहते हैं। भोज ने भी दण्डी की तरह मालादीपक को दीपक का ही भेद माना है।
मम्मट ने दीपक से पृथक् मालादीपक की परिभाषा दी। उन्होंने मालादीपक को दीपक-सापेक्ष मानकर ही दीपक की परिभाषा के ठीक बाद उसे परिभाषित किया। उनके अनुसार जहां पूर्व-पूर्व वस्तु उत्तर-उत्तर वस्तु का उपकार करे अर्थात् उसका उत्कर्ष-साधन करे, वहाँ मालादीपक अलङ्कार होता है। ध्यातव्य है कि मम्मट स्वयं भी इसे अपने-आप में पूर्ण परिभाषा नहीं मानते थे। उन्होंने मालादीपक का जो उदाहरण दिया है, उसमें वाक्यों की माला में एक क्रिया का सर्वत्र सम्बन्ध दिखाया गया है। यह मालादीपक को दीपक का ही एक रूप प्रमाणित करता है। दीपक-निरूपण के सन्दर्भ में मालादीपक का विवेचन भी यही सिद्ध करता है कि मम्मट के समय तक दीपकधारणा से मालादीपक की धारणा अलग नहीं हुई थी। १. इत्यादि दीपकत्वेऽपि पूर्वपूर्वव्यपेक्षिणी। वाक्यमाला प्रयुक्त ति तन्मालादीपकं मतम् ।।
-दण्डी, काव्यादर्श २, १०८ २. द्रष्टव्य-सरस्वतीकण्ठाभरण पृ० ४५२ ३, मालादीपकमा चेद्यथोसरगुणावहम् ।
-मम्मट, काव्यप्र० १०,१५७
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५६४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
रुय्यक ने मालादीपक को सर्वथा स्वतन्त्र अस्तित्व देकर उसमें एक पद से अन्वय के चमत्कार की अपेक्षा माला का चमत्कार प्रधान माना। इसीलिए माला या शृङ्खला के सौन्दर्य पर आधृत एकावली, कारणमाला आदि के विवेचन-क्रम में उन्होंने मालादीपक का निरूपण किया। एकावली में पूर्व-पूर्व के प्रति उत्तर-उत्तर का उत्कर्ष-हेतु होना माला के रूप में दिखाकर रुय्यक ने उसके विपरीत उत्तर-उत्तर के प्रति पूर्व-पूर्व का गुणाधायक होना और इस प्रकार उसकी माला की कल्पना मालादीपक का स्वरूप माना।' स्पष्ट है कि रुय्यक ने मालादीपक की परिभाषा पूर्ववर्ती आचार्यों के मतानुसार ही दी है।
अप्पय्यदीक्षित ने मालादीक का स्वतन्त्र रूप से विवेचन करते हुए उसके लक्षण में दीपक और एकावली का योग माना है ।२ एक पद से अनेक वाक्य का अन्वय होने के कारण इसमें दीपक का तथा 'गृहीतमुक्तरीति' अर्थात् पूर्व-पूर्व का उत्तर-उत्तर के प्रति और उत्तर-उत्तर का पूर्व-पूर्व के प्रति विशेषणभाव के कारण एकावली का योग रहता है । अप्पय्य ने जिस प्रकार मम्मट, रुय्यक आदि की एकावली के स्वरूप को विस्तार दिया था, उसी प्रकार मालादीपक का क्षेत्र भी उन्होंने विस्तृत किया। मम्मट, रुय्यक आदि केवल उत्तर-उत्तर के प्रति पूर्व-पूर्व का विशेषणभाव या गुणाधायक होना मालादीपक में अपेक्षित मानते थे; पर अप्पय्य दीक्षित गृहीतमुक्तरीति से इस रूप के साथ पर्व-पूर्व के प्रति उत्तर-उत्तर का विशेषणभाव भी मालादीपक का दूसरा रूप मानते हैं। इन दोनों प्रकार के विशेषणभाव की माला में एक पद से अनेक वाक्य का अन्वय होने पर मालादीपक का रूप-विधान होता है।
पण्डितराज जगन्नाथ ने मालादीपक को स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं मानकर एकावली का एक भेद माना है। इसमें रुय्यक की तरह जगन्नाथ को भी
१. पूर्वपूर्वस्योत्तरोत्तरगुणावहत्वे मालादीपकम् ।
-रुप्यक, अलङ्कारसूत्र, ५५ २. दीपककावलीयोगान्मालादीपकमिष्यते ।
-अप्पय्यदीक्षित, कुवलयानन्द, १०७ ३. अस्मिंश्चकावल्या द्वितीये भेदे पूर्व-पूर्वः परस्परस्योपकारः क्रियमाणो यद्य करूपः स्यात्तदाऽयमेव मालादीपकशब्देन व्यवह्रियते प्राचीनः ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७३६
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास मालागत चमत्कार का आधिक्य मान्य है। जगन्नाथ दीपक को सादृश्यगर्भ मानते हैं । मालादीपक में सादृश्यमूलकता आवश्यक नहीं। अतः, वे इसे दीपक का भेद मानने के पक्ष में नहीं हैं। यह जगन्नाथ का अपना दृष्टिकोण है। हम देख चुके हैं कि दीपक में सभी आचार्य सादृश्यमूलकता आवश्यक नहीं मानते। अतः, मालादीपक को दीपक-भेद मानने में कोई अनुपपत्ति नहीं। वस्तुतः, मालादीपक को दीपक और एकावली से स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं माना जाना चाहिए । यह दोनों का समन्वित रूप है । हेतु, सूक्ष्म और लेश
हेतु, सूक्ष्म तथा लेश पृथक्-पृथक् स्वरूप वाले परस्पर स्वतन्त्र अलङ्कार हैं, फिर भी इनके अलङ्कारत्व के विधि-निषेध का प्रतिपादन कुछ आचार्यों ने एक साथ किया है। अतः, इन तीनों के सम्बन्ध में आचार्यों की धारणा के विकास-क्रम का एकत्र अध्ययन अपेक्षित होगा। भामह ने हेतु, सूक्ष्म तथा लेश के अलङ्कारत्व का निषेध किया है। उनकी युक्ति है कि इनमें वक्रोक्ति का अभाव है और वक्रोक्ति के बिना काव्य या काव्यालङ्कार की कल्पना ही नहीं की जा सकती। वक्रता के अभाव में उक्ति केवल वार्ता हो सकती है, काव्य नहीं। भामह के इस निषेध-प्रयत्न से यह प्रमाणित है कि उनके पूर्व कुछ आचार्य हेतु, सूक्ष्म और लेश को काव्य के अलङ्कार मान चुके थे। इसीलिए भामह को उस मत का खण्डन आवश्यक जान पड़ा होगा। भामह ने हेतु, सूक्ष्म तथा लेश को परिभाषित करना भी आवश्यक नहीं समझा ।
भामह के उत्तरवर्ती आचार्य दण्डी ने हेतु, सूक्ष्म और लेश को न केवल काव्य के अलङ्कार के रूप में स्वीकार किया, अपितु उन्हें वाणी के उत्तम भूषण भी कहा। एक आचार्य जिसे अलङ्कार भी न माने उसे दूसरा
१. एवं च दीपकालंकारप्रकरणे प्राचीनरस्य लक्षणाद्दीपकविशेषोऽयमिति न भ्रमितव्यं, तस्य सादृश्यगर्भतायाः सकलालङ्कारिकसिद्धान्तात् ।
-वही, पृ० ७३६ २. हेतुश्च सूक्ष्मो लेशोऽथ नालङ्कारतया मतः । . समुदायाऽभिधानस्य वक्रोक्त्यनभिधानतः ॥
-भामह, काव्यालङ्कार, २,८६ ३. हेतुश्च सूक्ष्मलेशौ च वाचामुत्तमभूषणम् ।।
-दण्डी, काव्यादर्श, २,२३५
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५६६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
ર
आचार्य उत्तम अलङ्कार माने, यह साहित्य के सम्बन्ध में दो आचार्यों के मौलिक दृष्टि-भेद का परिणाम है । दण्डी ने तीनों अलङ्कारों का पृथक्-पृथक् निरूपण किया है । उन्होंने कारक तथा ज्ञापक — दो हेतुओं की चर्चा कर दोनों के अनेक भेदों का सोदाहरण विवेचन किया है। सूक्ष्म की परिभाषा में उन्होंने कहा है कि इङ्गित तथा आकार से जहाँ अर्थ का अनुमान किया जा सके, वहाँ सूक्ष्म अलङ्कार होता है । २ इङ्गित से तथा आकृति के विकार से आन्तरिक या बाह्य अर्थ का अनुमान केवल चतुर व्यक्ति ही कर पाते हैं । अतः, वह सूक्ष्म कहलाता है । कमल-दल को सङ कुचित कर इङ्गित से सन्ध्या के समय मिलन की सूचना देना तथा कपोल पर छायी हुई लाली से हृदय के राग का अनुमान करना क्रमशः इङ्गित और आकार से अर्थ के अनुमान के उदाहरण माने जा सकते हैं । लेश की परिभाषा में दण्डी ने कहा है कि अल्प रूप से प्रकट वस्तु के स्वरूप को छिपाना लेश है । 3 पीछे चलकर रुय्यक आदि ने लेश के इस स्वरूप को व्याजोक्ति अलङ्कार कहा । अप्पय्य दीक्षित की छेकापह नुति के स्वरूप की कल्पना का आधार भी दण्डी का यह लेश अलङ्कार ही है । दण्डी ने लेश के सम्बन्ध में कुछ आचार्यों के मत का निर्देश करते हुए कहा था कि कुछ लोग व्याज से की जाने वाली निन्दा और स्तुति को भी लेश कहते हैं । " परवर्ती काल में लेश का यह स्वरूप व्याजस्तुति के रूप में स्वीकृत हुआ है ।
आचार्य उद्भट ने भामह के मत का अनुसरण करते हुए इन तीनों का अलङ्कारत्व अस्वीकार कर दिया । उन्होंने उन अलङ्कारों की चर्चा ही नहीं की ।
रुद्रट ने हेतु की परिभाषा देते हुए कार्य के साथ कारण के अभेद से कथन
१. कारकज्ञापको हेतू तो चानेकविधो यथा ।
— वही २,२३५ । हेतु-भेद के लिए द्रष्टव्य वही २, २३६-५९. २. इङ्गिताकारलक्ष्योऽर्थः सौक्ष्म्यात् सूक्ष्म इति स्मृतः । वही २,२६० ३. लेशो लेशेन निभिन्न वस्तुरूप निगूहनम् । - वही, २,२६५ ४. उद्भिन्नवस्तुनिगूहनं व्याजोक्तिः । - रुय्यक, अलङ्कार सू० ७६ ५. लेशमेके विदुनिन्दां स्तुतिं वा लेशतः कृताम् ।
दण्डी, काव्यादर्श २,२६८
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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ५६७
पर बल दिया । उनकी हेतु धारणा अंशतः पूर्ववर्ती आचार्यों की धारणा के समान है; पर हेतु तथा हेतुमान के अभेद की धारणा नवीन है । दण्डी आदि के अनुसार हेतुमान के तुल्य हेतु का कथन - मात्र हेतु का लक्षण था । रुद्र सूक्ष्म को नवीन रूप से परिभाषित किया है। उनका कथन है कि जहाँ शब्द प्रतिपाद्य अर्थ को बताने में युक्तिविहीन हो जाता है; पर अपने उस अर्थ से सम्बद्ध युक्तियुक्त अन्य अर्थ का बोध करा देता है, वहाँ सूक्ष्म अलङ्कार माना जाता है । २ लेश की रुद्रट - कृत परिभाषा भी नवीन है । उन्होंने गुण में दोषत्व तथा दोष में गुणत्व की कल्पना को लेश का लक्षण माना । 3 दण्डी के द्वारा निर्दिष्ट लेश के एक रूप पर - व्याज से निन्दा या स्तुति पर यह दोष में गुण तथा गुण में दोष की कल्पना आधृत है ।
वक्रोक्तिवादी कुन्तक ने हेतु, सूक्ष्म और लेश में वक्रोक्ति का अभाव होने के कारण उनके अलङ्कारत्व का खण्डन किया है । किन्तु, भामह और कुन्तक के खण्डन के आयास के बाद भी हेतु, सूक्ष्म और लेश को अधिकांश आलङ्कारिकों ने अलङ्कार के रूप में स्वीकार किया है ।
भोज ने हेतु ( विभावनान्तर्गत ) एवं सूक्ष्म को अर्थगत तथा लेश को शब्दार्थोभयगत अलङ्कार मानकर अलग-अलग सन्दर्भ में उनका निरूपण किया है । उनकी सूक्ष्म धारणा दण्डी की सूक्ष्म धारणा से अभिन्न है । वे भी इङ्गित और आकार से अर्थ के अनुमेय होने में सूक्ष्म का सद्भाव मानते हैं । उन्होंने वाच्य तथा प्रतीयमान के आधार पर सूक्ष्म के दो भेद किये हैं । लेश को भोज ने रुद्रट के मतानुसार दोष में गुणी-भाव तथा गुण में दोषी -भाव की कल्पना पर अवलम्बित माना । ५ निन्दा के व्याज से की जाने वाली स्तुति को भोज ने लेश में ही अन्तर्भुक्त माना है । उनके अनुसार गुण में दोषभाव बताना और
१. हेतुमता सह हेतोरभिधानमभेदकृद्भवेद्यत्र ।
सोऽलङ्कारो हेतु "
— रुद्रट, काव्यालङ्कार ७,८२ २. यत्रायुक्तिमदर्थों गमयति शब्दो निजार्थसम्बद्धम् । अर्थान्तरमुपपत्तिमदिति तत्संजायते सूक्ष्मम् । वही, ७, ६८ ३. दोषीभावो यस्मिन् गुणस्य दोषस्य वा गुणीभावः ।
अभिधीयते तथा-विधकर्मनिमित्तः स लेशः स्यात् । - वही, ७,१००
४. द्रष्टव्य — कुन्तक, वक्रोक्तिजीवित, पृ० ४८१
५. द्रष्टव्य, भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण पृ०, २७३, २८५ तथा ४०७
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५६८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण निन्दा के व्याज से (अर्थात् दोष दिखाते हुए) स्तुति करना या गुण बताना एक ही है। किन्तु, व्याजस्तुति और लेश का उक्त स्वरूप अभिन्न नहीं। दोनों की उक्तिभङ्गी में भेद होता है और उस अलग-अलग उक्तिभङ्गियों में अलगअलग चमत्कार है। अतः, दोनों को एक नहीं माना जा सकता। अप्पय्य दीक्षित ने लेश के गुण में दोषत्व तथा दोष में गुणत्व-प्रकल्पन-रूप को स्वीकार करने पर भी व्याजस्तुति तथा उसके दूसरे रूप-व्याज निन्दा को लेश से स्वतन्त्र अलङ्कार माना है।
मम्मट ने रुद्रट के हेतु का अलङ्कारस्व अस्वीकार कर काव्यलिङ्ग में ही हेतु का चमत्कार स्वीकार किया है। उन्होंने सूक्ष्म के सम्बन्ध में दण्डी आदि की ही धारणा को स्वीकार किया है। लेश अलङ्कार की सत्ता उन्हें मान्य नहीं। प्रकट हो गये रूप को व्याज से छिपाने में व्याजोक्ति का लक्षण मान लेने के कारण ही सम्भवतः उन्हें लेश के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना की आवश्यकता नहीं जान पड़ी होगी। लेश के सम्बन्ध में जो दूसरी धारणा प्रचलित थी और जिसकी ओर दण्डी ने निर्देश किया था, वह धारणा व्याजस्तुति के रूप में मम्मट के समय तक स्वीकृत हो गयी थी। इस प्रकार मम्मट के काल तक लेश-विषयक दो प्रकार की प्राचीन मान्यताएं क्रमशः व्याजोक्ति तथा व्याजस्तुति को जन्म देकर स्वयं लुप्तप्राय हो गयी थीं। प्रस्तुत मलङ्कारों के सम्बन्ध में रुय्यक की धारणा मम्मट से मिलती-जुलती ही है। ___ विश्वनाथ ने हेतु अलङ्कार की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार कर उसे रुद्रट की मान्यता के अनुसार परिभाषित किया है। उनकी सूक्ष्म-धारणा दण्डी आदि की धारणा से अभिन्न है । ___ अप्पय्य दीक्षित ने फिर से लेश का अलङ्कार के रूप में अस्तित्व स्वीकार किया। दण्डी-कृत लेश-परिभाषा के आधार पर व्याजोक्ति कल्पित हुई, उनके द्वारा निर्दिष्ट लेश-लक्षण व्याजस्तुति के लक्षण के रूप में गृहीत हुआ। भब रुद्रट की लेश-परिभाषा 'गुण में दोषत्व तथा दोष में गुणत्व की कल्पना' ही बच रही थी। अप्पय्य दीक्षित ने लेश की यही परिभाषा स्वीकार की।
१. द्रष्टव्य-मम्मट, काव्यप्रकाश १०, १८६ २. अभेदेनाभिधा हेतुहे तो तुमता सह ।-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण,१०,८३ ३. वही, १०, ११६ ४. लेशः स्याद्दोषगुणयोर्गुणदोषत्वकल्पनम् । - अप्पय्यदी• कुवलया० १३८
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ५६६ सूक्ष्म का प्राचीन रूप ही 'कुवलयानन्द' में परिभाषित हुआ है।' हेतु के सम्बन्ध में प्राचीन आचार्यों की यह धारणा अप्पय्य को मान्य है कि 'कार्य के ‘साथ कारण का कथन हेतु है।' उन्होंने रुद्रट के मत का उल्लेख करते हुए कहा है कि 'कुछ लोग कार्य-कारण के ऐक्य में हेतु मानते हैं।'२
पण्डितराज ने रुद्रट के लेश को स्वीकार कर गुण के अनिष्ट-साधन होने तथा दोष के इष्ट-साधन होने के वर्णन में लेश अलङ्कार माना है।3 परवर्ती आचार्यों ने उक्त आचार्यों के मतों का ही किसी-न-किसी रूप में अनुमोदन किया है।
निष्कर्षतः, हेतु के दो रूप कल्पित हुए हैं—हेतुमान के साथ हेतु का "कथन तथा हेतुमान और हेतु का अभेदेन कथन ।
सूक्ष्म के स्वरूप के सम्बन्ध में प्रायः आचार्य एकमत रहे हैं। सूक्ष्म का यह लक्षण बहुमान्य रहा है-आकृति या इङ्गित से अर्थ के अनुमेय होने का वर्णन सूक्ष्म है। रुद्रट ने कुछ नवीन रूप से उसे परिभाषित किया; पर उनकी • यह मान्यता कि 'प्रतिपाद्य अर्थ में युक्तिविहीन शब्द जहां अपने अर्थ से सम्बद्ध युक्तियुक्त अन्य अर्थ का बोध कराता हो, वहाँ सूक्ष्म अलङ्कार होता है', अन्य आचार्यों का समर्थन नहीं पा सकी।
लेश के सम्बन्ध में तीन धारणाएँ प्रकट की गयीं
(१) प्रकट हो गई वस्तु को व्याज से छिपाना, (२) व्याज से स्तुति या निन्दा किया जाना तथा (३) गुण में दोषत्व या अनिष्ट-साधकत्व तथा दोष में गुणत्व या इष्ट-साधकत्व की कल्पना। इन तीन रूपों में से प्रथम व्याजोक्ति अलङ्कार तथा द्वितीय व्याजस्तुति अलङ्कार के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। अतः, तीसरा रूप ही लेश का रूप माना जाना चाहिए। परिकर ____ रुद्रट ने परिकर को स्वतन्त्र अलङ्कार मान कर उसके स्वरूप का सर्वप्रथम 'निरूपण किया। उनके परवर्ती प्रायः सभी मान्य आचार्यों ने परिकर का
१. सूक्ष्म पराशयाभिशेतरसाकृतचेष्टितम् ।-अप्पय्य, कुवलया० १५१ २. हेतोह तुमता साधं वर्णनं हेतुरुच्यते। वही, १६७ तथा
हेतुहेतुमतोरक्यं हेतु केचित्प्रचक्षते ।-वही, १६८ । ३. गुणस्यानिष्टसाधनतया दोषत्वेन दोषस्येष्टसाधनतया गुणत्वेन च वर्णनं लेशः।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ८१०।
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५७० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अलङ्कारत्व स्वीकार कर उसे परिभाषित किया है। रुद्रट ने परिकर को परिभाषित करते हुए कहा था कि जहां वस्तु को विशेष अभिप्राय से युक्त विशेषणों से विशेषित किया जाय, वहाँ परिकर अलङ्कार होता है। वस्तु के चार भेद-द्रव्य, गुण, क्रिया तथा जाति के आधार पर परिकर के चार भेद होते हैं।' अभिप्राय यह कि द्रव्य-रूप वस्तु के साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग परिकर का एक भेद, गुण-रूप वस्तु के साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग उसका दूसरा भेद, क्रिया-रूप वस्तु के साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग उसका तीसरा तथा क्रिया-रूप वस्तु के साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग उसका चौथा भेद है। द्रव्य आदि के आधार पर परिकर का निरूपण बाह्य और स्थूल है। रुद्रट की परिभाषा का निष्कर्षार्थ है-वस्तु के साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग परिकर का लक्षण है।
कुन्तक ने परिकर को स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में तो स्वीकार नहीं किया पर विशेषण-वक्रता पर विस्तार से विचार किया है। उनके अनुसार जहाँ विशेषण के माहात्म्य से क्रिया या कारक का लावण्य प्रस्फुटित हो, वहाँ विशेषण की वक्रता मानी जाती है। उन्होंने प्रस्तुतौचित्य के अनुसार इस विशेषणवक्रता को समग्र उत्तम काव्य का प्राण कहा है। परिकर में साभिप्राय विशेषण के प्रयोग पर रुद्रट तथा परवर्ती आचार्यों ने जो विचार किया है, उससे कुन्तक की विशेषण-वक्रता की धारणा बहुत कुछ मिलती-जुलती है। हाँ,, कुन्तक उसे एक अलङ्कार नहीं मान कर उत्तम काव्य का प्राणभूत तत्त्व मानेंगे, क्योंकि विशेषणों का वक्रतापूर्ण प्रयोग क्रिया तथा कारक का लावण्य प्रकट करता है।
भोज ने विस्तार के साथ परिकर का सभेद निरूपण किया है। इस
१. साभिप्रायः सम्यग्विशेषणर्वस्तु यद्विशिष्येत । द्रव्यादिभेदभिन्नं चतुर्विधः परिकरः स इति ॥
–रुद्रट, काव्यालङ्कार ७, ७२' २. विशेषणस्य माहात्म्यात् क्रियायाः कारकस्य वा। यत्रोल्लसति लावण्यं सा विशेषणवक्रता ॥
-कुन्तक, वक्रोक्तिजीवित, २, १५ ३. एतदेव विशेषणवक्रत्वं नाम प्रस्तुतौचित्यानुसारि सकलसत्काव्यजीवितत्वेन लक्ष्यते।
-वही, वृत्ति, पृ० २३६:
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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ५७१ अलङ्कार के सम्बन्ध में उनकी मूल धारणा रुद्रट को धारणा के सामान ही है । परिभाषा में उन्होंने कहा है कि जहाँ क्रिया तथा कारक - सम्बन्धी साध्य या दृष्टान्त-भूत वस्तु का क्रिया-पद आदि से उपस्कार हो, वहाँ परिकर होता है ।' निष्कर्ष के रूप में टीकाकार जगद्धर ने साभिप्राय विशेषण के साथ विशेष्य के कथन को भोज - सम्मत परिकर - लक्षण माना है ।२ परिकर के सम्बन्ध में अन्य आचार्यों के मत का उल्लेख करते हुए भोज ने लिखा है कि उपमा, रूपक आदि अलङ्कारों का शब्द, अर्थ तथा शब्दार्थोभय भङ्गी से साधर्म्य दिखाना कुछ लोगों के अनुसार परिकर है । ऐसा परिकर - लक्षण किसी मान्य आलङ्कारिक द्वारा नहीं दिया गया है । सम्भव है कि भोज ने अपने समय के किसी गौण आचार्य का मत उद्धत कर दिया हो, जिसका मत अलङ्कारशास्त्र में महत्त्व ही नहीं पा सका है । भोज एकावली का भी परिकर में अन्तर्भाव मानते हैं । यह मान्यता उचित नहीं । एकावली में परिकर की तरह केवल विशेषण - विशेष्य-भाव का चमत्कार नहीं रहता, उसमें विशेषण - विशेष्य की माला का — उसकी निश्चित क्रम बद्ध योजना का सौन्दर्य रहता है । अतः, - दोनों अलग- अलग अलङ्कार हैं ।
मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि सभी परवर्ती आचार्य साभिप्राय विशेषण के साथ विशेष्य के कथन को परिकर का लक्षण मानने में एकमत हैं । स्पष्ट है कि परिकर के स्वरूप में विकास की स्थितियाँनहीं आयी हैं । उसका स्वरूप रुद्रट से लेकर मौलिक अलङ्कारशास्त्रीय चिन्तन के उत्तर काल तक एक-सा ही रहा है ।
परिकर-भेद
वस्तुओं के द्रव्य, गुण, जाति तथा क्रिया रूपों के आधार पर परिकर के चार भेद रुद्रट ने किये थे । भोज ने विशेषित होने वाली वस्तु तथा विशेषण
१. क्रियाकारकसम्बन्धिसाध्यदृष्टान्तवस्तुषु । क्रियापदाद्य पस्कारमाहुः परिकरं बुधाः ॥
— भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ४, ७२
२. साभिप्रायविशेषणेन विशेष्योक्तिः परिकर इति लक्षणम् ।
३. द्रष्टव्य - वही ४, ७५ ४. द्रष्टव्य - वही, पृ० ४४६
वही, जगद्धर की टीका, पृ० ४३३
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५७२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण के अनेक रूपों के आधार पर परिकर के निम्नलिखित भेदों की कल्पना की है-क्रियापरिकर, कारकपरिकर, सम्बन्धिपरिकर, साध्यपरिकर, दृष्टान्त* परिकर, वस्तुपरिकर, कृत्तद्धित आदि से क्रियापरिकर, अव्ययपरिकर, कृत्
या कृदर्थरूप क्रिया-विशेषणपरिकर, सम्बोधनपरिकर, लक्षणपरिकर, हेतु'परिकर, सहार्थपरिकर, तादर्थ्यपरिकर, तथा उपपदपरिकर । यदि शब्दादिभङ्गी से अलङ्कारों के साधर्म्य-प्रतिपादन में भी परिकर मानें तो उसके असंख्य भेद हो जाते हैं। एकावली को परिकर में अन्तभुक्त मान कर भोज ने शब्द• एकावली, अर्थ-एकावली तथा उभय-एकावली भेद किये हैं।' एकावली के इन रूपों को परिकर-भेद नहीं माना जाना चाहिए । परिकराङ कुर
परिकर के स्वरूप के आधार पर ही परिकराङ कुर अलङ्कार के स्वरूप • की कल्पना की गयी है। परिकर में विशेषण का साभिप्राय होना अपेक्षित माना गया था। रुद्रट, भोज आदि आचार्यों ने साभिप्राय विशेषण वाले परिकर के अनेक रूपों की कल्पना करने पर भी विशेष्य के साभिप्राय प्रयोग के चमत्कार पर विचार नहीं किया था। सर्वप्रथम जयदेव ने 'चन्द्रालोक' में • परिकराङ कुर अलङ्कार की कल्पना की और साभिप्राय विशेष्य के प्रयोग को इसका लक्षण माना ।
अप्पय्य दीक्षित ने साभिप्राय विशेषण-रूप परिकर का निरूपण कर परिकराङकुर का निरूपण किया और उसमें जयदेव के अनुसार साभिप्राय विशेष्य का प्रयोग अपेक्षित माना। अप्पय्य दीक्षित के परवर्ती जगन्नाथ आदि ने परिकराङ कुर का निरूपण नहीं किया है। सम्भवतः, उन्हें परिकराङकुर का अलङ्कारत्व मान्य नहीं था। परिकराङ कुर में विशेष्य के साभिप्रायत्व का चमत्कार रहता है। अतः, यदि विशेषणों के साभिप्रायत्व के चमत्कार के आधार सर परिकर को अलङ्कार माना जाता है तो विशेष्य के
१. द्रष्टव्य-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, पृ० ४३३-४८ २. साभिप्राये विशेष्ये तु भवेत् परिकराङ कुरः ।
-जयदेव, चन्द्रालोक, ५,४० ३. साभिप्राये विशेष्ये तु भवेत् परिकराङ कुरः ।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, ६३
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अलङ्कारों का स्वरूप- विकास
[ ५७३ साभिप्राय प्रयोग के चमत्कार के आधार पर परिकराङ कुर को भी अलङ्कार माना ही जाना चाहिए ।
हिन्दी रीति-शास्त्र में जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित की अलङ्कार- विषयक मान्यता का अनुसरण करने वाले अनेक आचार्यों ने परिकराङकुर का लक्षणनिरूपण किया है । महाराज जसवन्त सिंह, मतिराम, भूषण, रघुनाथ, दूलह, भिखारीदास आदि आचार्यों ने परिकराङ कुर का विवेचन किया है; किन्तु. किसी आचार्य ने परिकराङ कुर के स्वरूप के सम्बन्ध में कोई नवीन धारणा प्रकट नहीं की । 'चन्द्रालोक' तथा 'कुवलयानन्द' में दिये गये परिकराङ, कुर-लक्षण का ही भावानुवाद हिन्दी में होता रहा । परिकराङंकुर के स्वरूप में एकरूपता बनी रही । साभिप्राय विशेष्य का प्रयोग उसका सर्वमान्य लक्षण स्थापित हुआ ।
उत्तर
उत्तर अलङ्कार के दो रूपों की कल्पना रुद्रट ने की । उनके अनुसार जहाँ उत्तर सुनकर पूर्ववचन का अर्थात् प्रश्न का निश्चय हो, वहाँ उत्तर अलङ्कार का एक रूप और जहाँ प्रश्नपूर्वक उत्तर का उल्लेख हो, वहाँ उत्तर का दूसरा रूप होगा । ' उत्तर सुनकर प्रश्न के उन्नयन में हेतुहेतुमद्भाव का निबन्धन उत्तर में नहीं होता; अतः इसे अनुमान से अभिन्न मानने की भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए । अनुमान अलङ्कार में हेतुहेतुमद्भाव का निबन्धन आवश्यक होता है । अब प्रश्न यह है कि उत्तर सुनकर प्रश्न के उन्नयन में तो उक्ति की विशेष भङ्गा होने से अलङ्कारत्व माना जा सकता है; पर प्रश्न और उसके उत्तर के - उल्लेख में अलङ्कारत्व मानने में क्या युक्ति होगी ? रुद्रट की उत्तर - परिभाषा - को देखते हुए इस प्रश्न का उत्तर यह दिया जा सकता है कि कवि-प्रतिभा से निबद्ध प्रश्न तथा उसका उत्तर चमत्कारपूर्ण होने के कारण अलङ्कार माना जाता है । एक ही साथ प्रश्न और उत्तर के निबन्धन की विशेष भङ्गी में रुद्रट ने उत्तर अलङ्कार का एक रूप माना है । औपम्यगर्भ - उत्तर के लक्षण में " कहा गया है कि जहाँ वक्ता उपमेयभूत वस्तु के सम्बन्ध में पूछे जाने पर उसके सदृश उपमानभूत वस्तु बतावे, वहाँ उत्तर होता है | २
१. उत्तरवचनश्रवणादुन्नयनं यत्र पूर्ववचनानाम् ।
क्रियते तदुत्तरं स्यात्प्रश्नादप्युत्तरं यत्र ॥ - रुद्रट, काव्यालं ० ७,६३
२. यत्र ज्ञातादन्यत्पृष्टस्तत्त्वेन वक्ति तत्त ल्यम् ।
सख्यार्तेन तदुत्तरं ज्ञेयम् ॥-वहीं, ८,७२
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' ५७४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
भोज ने उत्तर के सम्बन्ध में विलक्षण धारणा प्रकट की है। उनके अनुसार • पदार्थों का सार-निर्धारण अर्थात् प्रसिद्ध वस्तुओं में से किसीका सर्वोत्कृष्ट रूप में निर्धारण 'उत्तर' है।' प्रश्न-निरपेक्ष उत्तर का यह स्वरूप उत्तर अलङ्कार नहीं माना जा सकता। प्रश्न के साथ यदि वस्तु का सार-निर्धारण हो अथवा कम-से-कम उस निर्धारण से उसके मूल में किसी प्रश्न का निश्चय भी हो तो वह सार-निर्धारण उत्तर का स्वरूप माना जा सकता है । शब्दालङ्कार प्रश्नोत्तर के स्वरूप के सम्बन्ध में भोज ने यह धारणा प्रकट की है कि जहाँ पद से वक्ता के कथन में पर्यनुयोग का उद्घाटन किया जाय अर्थात् उसके कथन में 'प्रयुक्त पदों से ही दोष दिखाने की चेष्टा की जाय, वहाँ प्रश्नोत्तर अलङ्कार होता है। ___ मम्मट ने रुद्रट की उत्तर-धारणा को ही किञ्चित् परिष्कार के साथ स्वीकार किया। उत्तर से प्रश्न के उन्नयन की धारणा तो उसी रूप में स्वीकार कर ली गयी; पर प्रश्न के साथ उत्तर के निबन्धन में थोड़ा परिष्कार किया गया। मम्मट की मान्यता है कि एक तो उत्तर में प्रश्न और उत्तर का असकृत् अर्थात् अनेक बार निबन्धन होना चाहिए; दूसरे, प्रश्न के साथ उसका दिया जाने वाला उत्तर भी असम्भाव्य अर्थात् विदग्ध जनोचित होना चाहिए। कहीं एक प्रश्न तथा उसके एक उत्तर का निबन्धन हो जाय, वह बहुत चमत्कारजनक नहीं होता; पर यदि एक स्थल पर अनेक प्रश्न क्रमश: आते जाते हैं और उनके उत्तर भी निवन्धित होते चलते हैं तो उक्ति में विशेष चमत्कार आ जाता है। ऐसे ही स्थल में मम्मट को उत्तर अलङ्कार अभीष्ट है। किसी प्रश्न को सुनकर सर्व-साधारण के मन में जो उत्तर आ जाता है, यदि वही उत्तर कवि के द्वारा निबद्ध हो तो पाठक के मन में कोई चमत्कार उत्पन्न नहीं होगा। अतः, उत्तर का असम्भाव्य होना भी वाञ्छनीय है । रुय्यक, विश्वनाथ आदि की उत्तर अलङ्कार के सम्बन्ध में यही मान्यता है।४
जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने उत्तर के स्वरूप में नये तत्त्व जोड़े हैं।
१. पदार्थानां तु यः सारस्तदुत्तरमिहोच्यते ।-भोज, सरस्वतीकण्ठा० ३,३३ २. यस्तु पर्यनुयोगस्य निभेदः क्रियते पदैः।
"तं हि प्रश्नोत्तरं विदुः ।। वही, २,१४८ ३. उत्तरश्रु तिमात्रतः । प्रश्नस्योन्नयनं यत्र क्रियते तत्र वा सति ।
असकृद्यदसंभाव्यमुत्तरं स्यात्तदुत्तरम् ।।-मम्मट, काव्यप्र० १०,१८८ .४. द्रष्टव्य-रुय्यक, अलङ्कार सू०७४ तथा विश्वनाथ, साहित्यक. १०,१..
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[५७५
उनके मतानुसार किसी अभिप्राय से गूढ़ उत्तर दिया जाना उत्तर का एक रूप है। 'पथिक के द्वारा नदी पार करने के लिए उचित स्थान पूछे जाने पर नायिका का वेतस-कुञ्ज की ओर सङ्केत करना' इसका उदाहरण दिया गया है। अभिसार के उपयुक्त स्थान का उत्तर में निर्देश साभिप्राय है। इस तरह उत्तर का साभिप्राय तथा गूढ़ होना अपेक्षित माना गया है। चित्रोत्तर को उत्तर का दूसरा भेद माना गया है, जिसमें प्रश्न तथा उत्तरान्तर से अभिन्न उत्तर का निबन्धन होता है। इसके स्वरूप पर पूर्ववर्ती आचार्य चित्र नामक शब्दगत अलङ्कार के प्रसङ्ग में विचार कर चुके थे। इसमें शब्द-प्रयोग के चमत्कार की प्रधानता के कारण इसे शब्दालङ्कार माना जाता रहा है।
पण्डितराज जगन्नाथ ने रुद्रट आदि की तरह उन्नीत तथा निबद्ध प्रश्न वाले उत्तर को उत्तर अलङ्कार के दो भेद माने हैं। ये दो प्रकार के उत्तर प्रश्न तथा उत्तर में से दोनों के अथवा एक के साभिप्राय तथा निरभिप्राय होने के आधार पर चार-चार प्रकार के होते हैं। इस तरह इसके आठ मुख्य भेद हैं। इन भेदों के और भी उपभेद कल्पित हैं।' स्पष्ट है कि जगन्नाथ ने पूर्ववर्ती सभी आचार्यों की उत्तर-धारणा को समन्वित कर स्वीकार किया है। निष्कर्षतः, उत्तर के ये रूप मान्य हैं-(१) उत्तर सुनकर प्रश्न का उन्नयन, (२) अनेक प्रश्नों तथा उनके वैदग्ध्यपूर्ण उत्तरों का एकत्र निबन्धन तथा (३) साभिप्राय गूढ़ उत्तर । एक ही पद में समस्त-रूप से प्रश्न तथा उत्तर का संग्रथन भी हो सकता है, जिसे चित्रोत्तर कहते हैं। अनुमान
ज्ञान के प्रमाण के रूप में अनुमान के स्वरूप पर दर्शन में विचार चल रहा था। न्याय की अनुमान-मीमांसा मानव मनीषा के विस्मयजनक उत्कर्ष का निदर्शन है। दर्शन में तर्क-वितर्क की पद्धति से अनुमान का जो स्वरूप स्थापित हुआ, उसकी काव्यात्मक परिणति उसी नाम से काव्य के एक अलङ्कार के रूप में हुई। अनुमान का रमणीय वर्णन काव्य का एक अलङ्कार स्वीकृत हुआ।
१. किञ्चिदाकूतसहितं स्याद्गूढोत्तरमुत्तरम् । तथाप्रश्नोत्तरान्तराभिन्नमुत्तरं चित्रमुच्यते ॥
-अप्पय्यदीक्षित, कुवलयानन्द १४६-५. २. द्रष्टव्य-जान्याथ, रसगङ्गाधर, पृ० १२०-२४
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५७६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
रुद्रट ने सर्वप्रथम काव्यालङ्कार के क्षेत्र में अनुमान की अवतारणा की। अनुमान अलङ्कार के स्वरूप का निरूपण करते हुए उन्होंने कहा कि जहां कवि पहले परोक्ष साध्य वस्तु अर्थात् कार्य को बताकर पुनः उसके साधक अर्थात् कारण का उल्लेख करे तथा इसके विपरीत जहाँ पहले साधक या कारण का उल्लेख कर पीछे कार्य का उल्लेख करे, वहाँ अनुमान अलङ्कार होता है।' कार्य को देखकर उसके कारण का तथा कारण से उसके कार्य का अनुमान होता है। कवि जब उक्त रीति से साध्य-साधक का उपन्यास करता है तो वह अनुमान अलङ्कार का विधान करता है । रुद्रट ने अनुमान के एक और रूप की कल्पना कर कहा है कि जहां बलवान कारण को देखकर अनुत्पन्न कार्य को भी उत्पन्न अथवा भावी ( उत्पद्यमान ) कह दिया जाय, वहाँ भी अनुमान अलङ्कार होता है ।२ इसमें भी कार्य-कारण की रीति पूर्ववत् ही रहती है अर्थात् पहले कार्य का फिर कारण का उपन्यास; तथा पहले कारण का फिर कार्य का उपन्यास किया जाता है।
भोज ने अनुमान के अनेक भेदोपभेदों का निरूपण किया है। उन्होंने अनुमान की मूल धारणा में कोई परिवर्तन नहीं किया।
मम्मट तथा रुय्यक ने साध्य तथा साधन का कथन अनुमान का मूल लक्षण माना है। प्रश्न यह हो सकता है कि अनुमान के पक्ष, साध्य, हेतु तथा दृष्टान्त; ये चार आवश्यक अङ्ग हैं, फिर केवल साध्य-साधन-कथन में अनुमान कैसे होगा ? मम्मट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पक्ष-सत्त्व, अन्वय तथा व्यतिरेक से हेतु तीन प्रकार के होते हैं। हेतु के ये तीनों रूप साधन कहे जाते हैं। पक्ष-सत्त्व, सपक्ष-सत्त्व तथा विपक्षासत्व; इन तीन रूपों से अनुमान कराया जाता है। वह पक्ष कहलाता है। इस प्रकार पक्ष में हेतु की वृत्ति, सपक्ष में हेतु की अन्वय-वृत्ति तथा विपक्ष में उसकी व्यतिरेक-वृत्ति रहती है। दूसरे शब्दों में, पक्ष में हेतु की वृत्ति को पक्ष-धर्मत्त्व, सपक्ष में हेतु की वृत्ति को सपक्ष-सत्त्व तथा विपक्ष में हेतु की अवृत्ति को विपक्षासत्त्व कहा.
१. वस्तु परोक्षं यस्मिन्साध्यमुपन्यस्य साधकं तस्य ।
पुनरन्यदुपन्यस्येद्विपरीतं च तदनुमानम् ।।-रुद्रट, काव्यालं. ७,५६ २. यत्र बलीयः कारणमालोक्याभूतमेव भूतमिति ।
भावीति वा तथान्यत्कथ्येत तदन्यदनुमानम् ॥-वही, ७,५९ ३. द्रष्टव्य-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, पृ०, ३२५-२८ .
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५७७ जाता है। अतः, साध्य-साधन कहने से अनुमान के चारो अङ्गों का ग्रहण हो जाता है। मम्मट की मान्यता है कि साध्य-साधन के पौर्वापर्य-कथन में कोई वैशिष्ट्य नहीं है। अतः, परिभाषा में उसका उल्लेख अनावश्यक है। रुय्यक की मान्यता मम्मट की उक्त मान्यता से अभिन्न है। रुय्यक ने इस बात पर बल दिया है कि काव्य में उक्ति की विच्छित्ति अनुमान को अलङ्कारत्व प्रदान करती है; अन्यथा काव्य और दर्शन के अनुमान में कोई भेद ही नहीं रह जाय।
विश्वनाथ ने अनुमान की परिभाषा में भी विच्छित्ति पद का उल्लेख किया। उनके अनुसार साध्य-साधन का विच्छित्तिपूर्ण ज्ञान अनुमान अलङ्कार है।२ अनुमान की धारणा को सर्वविदित मानकर अप्पय्य दीक्षित ने उसे परिभाषित न कर केवल उदाहृत किया है। पण्डितराज जगन्नाथ के अनुसार अनुमितिकरण अनुमान है। __ स्पष्ट है कि अनुमान के स्वरूप के सम्बन्ध में कोई नवीन उद्भावना अलङ्कार-शास्त्र में नहीं की गयी है। दर्शन की अनुमान-धारणा को ही सभी आचार्यों ने स्वीकार किया है। उस अनुमान की प्रक्रिया का-साध्य-साधन के ज्ञान का-विच्छित्तिपूर्ण वर्णन अनुमान अलङ्कार माना जाता है। मीलित
मीलित में एक वस्तु के रूप का उसीके सदृश अन्य वस्तु के रूप में तिरोहित हो जाने के वर्णन पर बल दिया गया है। एक के अन्य में तिरोभाव या मीलन के आधार पर इस अलङ्कार का अन्वर्थ अभिधान किया गया है। रुद्रट की वस्तुरूप मीलन की कल्पना भाव-सापेक्ष थी। उन्होंने हर्ष, कोप, भय आदि की भाव-दशा में व्यक्ति के स्वाभाविक आङ्गिक चिह्नों का उसके समान नित्य या आगमापायी चिह्नों से तिरस्कार मीलित का लक्षण माना था। प्रत्येक मनोभाव की कुछ आङ्गिक प्रतिक्रिया हुआ करती है। यदि उस १. द्रष्टव्य-मम्मट, काव्यप्र० १० पृ० २७५-७६ तथा रुय्यक, अलङ्कार
___ सर्वस्व, पृ० १७६-८२ २. द्रष्टव्य-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, ८२ ३. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७५३ ४. तन्मीलितमिनि यस्मिन् समानचिह्नन हर्षकोपादि ।
अपरेण तिरस्क्रियते नित्येनागन्तुकेनापि ॥-रुद्रट, काव्यालं० ७,१०६
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५७८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण प्रतिक्रिया या भाव-विशेष के बाह्य चिह्न का व्यक्ति के स्वभावसिद्ध या अवस्था-विशेष में जायमान चिह्न से तिरस्कृत होने का वर्णन हो तो वहाँ मीलित अलङ्कार होगा। भाव-विशेष के बाह्य चिह्न का तिरस्कार उसके सदृश अन्य चिह्न से ही होता है । अपने समान चिह्न में वह भावजन्य चिह्न इस तरह मिल जाता है कि उसका अस्तित्व ही नहीं जान पड़ता । अनुराग से उत्पन्न नेत्र की चञ्चलता नायिका की आँखों की चञ्चलता में इस तरह खो जाती है कि उस अनुराग-चिह्न ( नेत्र-चाञ्चल्य ) का पता ही नहीं चलता। कोप की लाली मदिरा के नशे से उत्पन्न मुख की लाली में तिरोहित हो जाती है। ऐसे वर्णन में रुद्रट क्रमशः नित्य तथा आगन्तुक धर्म से भावचिह्न के तिरस्कार-रूप मीलित का सद्भाव मानेंगे।
भोज ने वस्तुविशेष से वस्त्वन्तर का तिरस्कार मीलित का लक्षण माना। इस तरह रुद्रट के मीलित के विशिष्ट स्वरूप को छोड़कर भोज ने उसका सामान्य और व्यापक स्वरूप प्रतिपादित कर दिया। परिणामस्वरूप, अलङ्कार-शास्त्र में स्वतन्त्र रूप से प्रतिष्ठित तद्गुण, अतद्गुण, पिहित आदि अलङ्कार भी मीलित के क्षेत्र में समाविष्ट हो गये । ' अभिधीयमान तथा प्रतीयमान गुण वाली वस्तु से मीलित होने के आधार पर पूर्वोक्त चार मीलितरूपों के दो-दो भेद हो सकते हैं। __ मम्मट ने रुद्रट की मीलित-धारणा को ही बहुलांशतः स्वीकार किया है। उन्होंने रुद्रट की तरह मीलित-परिभाषा में हर्ष, कोप आदि भाव का उल्लेख नहीं किया। इतने भेद को छोड़कर मम्मट की परिभाषा रुद्रट की मीलितपरिभाषा से मिलती-जुलती है। मम्मट की मान्यता है कि जहाँ किसी वस्तु के सहज या आगन्तुक चिह्न से सादृश्य के कारण किसी वस्तु के रूप का उस चिह्न में तिरोधान वर्णित हो, वहाँ मीलित अलङ्कार होता है ।२ परिभाषा में भाव-चिह्न का उल्लेख नहीं करने पर भी मम्मट ने दोनों उदाहरणों में अनुराग तथा भय के चिह्न का तिरोभाव ही दिखाया है। एक में अपाङ्ग
१. वस्त्वन्तरतिरस्कारो वस्तुना मीलितं स्मृतम् । पिहितापिहिते चैव तद्गुणातद्गुणौ च तत् ।।
-भोज, सरस्वतीभण्ठाभरण ३,४१ २. समेन लक्ष्मणा वस्तु वस्तुना यन्निगृह्यते । निजेनागन्तुना वापि तन्मीलितमिति स्मृतम् ॥
-मम्मट, काव्यप्रकाश १०,१६७
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अलङ्कारों का स्वरूप विकास
[ ५७९ की स्वभावसिद्ध तरलता से अनुराग जन्य चिह्न का तथा दूसरे में हिम के कारण आगन्तुक कम्प से भयजन्य कम्प का तिरस्कार दिखाया गया है । "
ears ने मीलित को निमीलित कहा है। उन्होंने वस्तु से वस्त्वन्तर का निगूहन निमीलित का लक्षण देकर उसके स्पष्टीकरण में सहज या आगन्तुक समान चिह्न से वस्तु का निगूहन अपेक्षित माना । इसी आधार पर उन्होंने सामान्य से इसका भेद-निरूपण किया है। उनकी धारणा मम्मट की धारणा के समान ही है । दोनों के उदाहरण भी समान हैं । रुय्यक ने इसमें उत्कृष्ट गुण से निकृष्ट गुण का तिरस्कार अपेक्षित माना है । विश्वनाथ ने भी तुल्य चिह्न वाली वस्तु से वस्तु का निगूहन मीलित का लक्षण माना है ।
अप्पय्य दीक्षित ने मीलित में भाव, तथा सहज, आगन्तुक आदि धर्म की चर्चा नहीं की । जहाँ सादृश्य के कारण दो वस्तुओं में भेद ही लक्षित नहीं हो, वहाँ उनके अनुसार मीलित अलङ्कार होता है । उन्होंने सामान्य से इसका भेद केवल इस आधार पर किया है कि सामान्य में विशेष परिलक्षित नहीं होता; पर इसमें दो वस्तुओं में अभेद की प्रतीति होती है । मीलित, सामान्य, तद्गुण आदि के रूप में इतना साम्य है कि सबके बीच विभाजक तत्त्व का उल्लेख परिभाषा में आवश्यक है । समान चिह्न वाली वस्तु में, चाहे वह चिह्न आगन्तुक हो या सहज, अन्य वस्तु के स्वरूप के तिरोहित हो जाने का वर्णन ही मीलित का उपयुक्त लक्षण जान पड़ता है ।
सामान्य
सामान्य अलङ्कार के स्वरूप की कल्पना सर्वप्रथम आचार्य मम्मट ने की । इसमें प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत में समान गुण के प्रतिपादन के लिए दोनों का ऐक्यनिबन्धन अपेक्षित माना गया है । मम्मट की परिभाषा है— दो वस्तुओं में गुणसाम्य की विवक्षा से प्रस्तुत का अप्रस्तुत के साथ ऐकात्म्य - निबन्धन अर्थात् अभेद
१. द्रष्टव्य - मम्मट, काव्यप्रकाश, पृ० २८८-८९
२. वस्तुना वस्त्वन्तरनिगूहनं निमीलितम् ।
तथा- - सहजेनागन्तुकेन वा लक्ष्मणा यद् वस्त्वन्तरेण वस्त्वन्तरं निगृह्यते, तदन्वर्थाभिधानं निमीलितम् ।
—रुय्यक, अलङ्कार सूत्र ७० तथा वृत्ति पृ० २०९ ३. मीलितं यदि सादृश्याद्भेद एव न लक्ष्यते ।
- अप्पय्य दीक्षित कुवलयानन्द १४६
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५० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण प्रतिपादन सामान्य है।' बस्तुओं का अलग-अलग धर्म दोनों में वैशिष्ट्य का आधान करता है। इसके विपरीत सामान्य में दोनों वस्तुओं के बीच वैशिष्ट्य के अभाव की विवक्षा से—गुण के साम्य की विवक्षा से दोनों की एक रूप में प्रतीति का वर्णन किया जाता है। रुद्रट ने इसे तद्गुण का एक रूप माना था।२ मम्मट ने रुद्रट के तद्गुण के प्रथम रूप को सामान्य के रूप में स्वीकार किया और द्वितीय रूप को तद्गुण माना।
रुय्यक ने सामान्य के सम्बन्ध में ऐसी ही धारणा प्रकट की है। उन्होंने सूत्र में प्रस्तुत का अन्य अर्थात् अप्रस्तुत के साथ गुण-साम्य के कारण ऐकात्म्यप्रतीति का प्रतिपादन सामान्य का लक्षण माना है। विश्वनाथ की सामान्यधारणा मम्मट, रुय्यक आदि की धारणा से अभिन्न है।' .. जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित विशेष के परिलक्षित नहीं होने के वर्णन में सामान्य अलङ्कार मानते हैं।५ वस्तुओं के व्यावर्त्तक विशेष का अभाव ही सामान्य की मूल धारणा रही है। इस दृष्टि से अप्पय्य दीक्षित की उक्त परिभाषा मम्मट तथा रुय्यक की परिभाषा से अभिन्न सिद्ध होती है।
पण्डितराज जगन्नाथ ने सामान्य-विषयक इस मान्यता को स्वीकार करने पर भी उसकी परिभाषा के परिष्कार का प्रयत्न किया है। उनके अनुसार जहाँ वस्तु के प्रत्यक्ष रहने पर भी अन्य वस्तु के साथ उसके गुणसाम्य के कारण उससे भिन्न रूप में उसकी (वर्ण्य वस्तु की) प्रतीति नहीं होती, वहां सामान्य अलङ्कार होता है। सामान्य में दो वस्तु प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत
१. प्रस्तुतस्य यदन्येन गुणसाम्यविवक्षया । ऐकात्म्यं बध्यते योगात्तत्सामान्यमिति स्मृतम् ।।-मम्मट, काव्यप्र.
१०,२०२ २. द्रष्टव्य-रुद्रट, काव्यालङ्कार, ६,२२ ३. प्रस्तुतस्यान्येन गुणसाम्यादैकात्म्यं सामान्यम् ।
–रुय्यक, अलङ्कार सू० ७१ ४. द्रष्टव्य-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०,११६ ।। ५. सामान्यं यदि सादृश्याद्विशेषो नोपलक्ष्यते ।
-अप्पय दीक्षित, कुवलयानन्द, १४७ ६. प्रत्यक्षविषयस्यापि वस्तुनो बलवत्सजातीयग्रहणकृतं तद्भिन्नत्वेनाग्रहणं सामान्यम् ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ. ८१५
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [५५१ प्रत्यक्ष रहते हैं; पर उनके बीच व्यावर्तक धर्म के अभाव के कारण-गुण-साम्य के कारण दोनों का अलग-अलग ग्रहण नहीं होता। मीलित से इसका यह भेद है कि मीलित में एक से दूसरे का तिरोभाव हो जाने के कारण उसका प्रत्यक्ष ही नहीं हो पाता; पर सामान्य में दोनों का प्रत्यक्ष होता है। हाँ, दोनों में गुण-साम्य के कारण दोनों का एक दूसरे से भिन्न रूप में ग्रहण नहीं हो पाता। निष्कर्ष यह कि
(क) सामान्य में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत; दोनों का प्रत्यक्ष होता है।
(ख) दोनों के बीच व्यावर्तक विशेष का अभाव रहता है अर्थात् गुणसाम्य रहता है। फलतः
(ग) दोनों की एक संप में प्रतीति होती है। दोनों का परस्पर भिन्न रूप में ग्रहण नहीं होता। सामान्य अलङ्कार के स्वरूप में विकास की स्थिति नहीं आयी है। सामान्य के स्वरूप का विशद विवेचन दार्शनिकों में किया था । प्रस्तुत अलङ्कार की धारणा सामान्य-विषयक दार्शनिक चिन्तन पर ही आधृत है। तद्गुण और अतद्गुण
तद्गुण स्वरूप-विधान का दृष्टि से मीलित, सामान्य आदि का सजातीय है। इसमें एक वस्तु का दूसरी वस्तु के गुण-ग्रहण की धारणा व्यक्त की गयी है। मीलित में एक वस्तु दूसरी में तिरोहित हो जाती है, सामान्य में वस्तु परिलक्षित होने पर भी अपना वैशिष्ट्य खोकर दूसरी वस्तु से एक-रूप प्रतीत होने लगती है और तद्गुण में वस्तु अपने गुण का त्याग कर अन्य वस्तु के गुण को ग्रहण कर लेती है। तद्गुण के वैपरीत्य के आधार पर पीछे चल कर अतद्गुण अलङ्कार की कल्पना की गयी है। ___रुद्रट ने तद्गुण के दो रूपों की कल्पना की । एक में उन्होंने कहा कि जहाँ समान गुण वाले ऐसे पदार्थों का, जिनका योग होने पर पृथक्पृथक् रूप लक्षित हो सके, संसर्ग होने पर अनेकत्व लक्षित न हो, वहाँ तद्गुण होता है ।' मम्मट ने इस रूप को सामान्य संज्ञा से स्वतन्त्र अलङ्कार मान लिया। तबसे तद्गुण का यह रूप सामान्य अलङ्कार का रूप माना जाता रहा है । तद्गुण के १. यस्मिन्नेकगुणानामर्थानां योगलक्ष्यरूपाणाम् । संसर्ग नानात्वं न लक्ष्यते तद्गुणः स इति ॥
. रुद्रट, काव्यालङ्कार, ६,२२
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२५२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण दूसरे रूप को परिभाषित करते हुए रुद्रट ने कहा है कि जहाँ कोई वस्तु अपने से असमान गुण वाली तथा अधिक गुण वाली वस्तु के संसर्ग में आकर उसके गुण को ही ग्रहण कर ले, वहाँ तद्गुण होता है।' तद्गुण अन्वर्था संज्ञा है ।
भोज ने तद्गुण को स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं माना है। उन्होंने मीलित अलङ्कार के स्वरूप-निरूपण के क्रम में तद्गुण-मीलित, अतद्गुण-मीलित आदि भेदों का विवेचन किया है।२ स्पष्ट है कि भोज तद्गुण आदि को मीलित में ही समाविष्ट मानते होंगे। तद्गुण मीलित का सजातीय अवश्य है; पर उसे मीलित से अभिन्न या उसका अङ्ग मानना उचित नहीं। ___ मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि आचार्यों ने एक मत से तद्गुण का एक ही रूप स्वीकार किया है—'जहाँ कोई न्यून गुण वाली वस्तु (प्रस्तुत) अधिक गुण वाली (अप्रस्तुत) वस्तु के सम्पर्क में आने पर अपने गुण का त्याग कर दूसरी वस्तु के गुण को ग्रहण करती है, वहाँ तद्गुण होता है ।3 मम्मट, रुय्यक तथा विश्वनाथ ने उपमेय तथा उपमान में अन्य के उत्कृष्ट-गुण-ग्रहण की कल्पना की है; पर अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि ने दो वस्तुओं में उपमानोपमेय-भाव आवश्यक नहीं माना है। रुद्रट भी तद्गुण में उपमानोपमेय की आवश्यकता नहीं मानते थे। हिन्दी के रीतिकालीन आचार्यों को भी तद्गुण का यही स्वरूप मान्य रहा है। रुद्रटकल्पित तद्गुण का प्रथम रूप, जिसे मम्मट ने सामान्य कहा था, पीछे चल कर सामान्य के रूप में ही स्वीकृत हुआ।
अतद्गुण के स्वरूप की कल्पना तद्गुण की कल्पना के उपरान्त हुई है। भोज ने मीलित के तद्गुण भेद के साथ अतद्गुण भेद का भी उल्लेख किया. था।४ तद्गुण के विपर्यय-रूप की कल्पना भोज के मन में थी, यद्यपि वे सद्गुण तथा अतद्गुण में से किसीको भी स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं मानते थे।
१. असमानगुणं यस्मिन्नतिबहलगुणेन वस्तुना वस्तु ।
संसृष्टं तद्गुणतां धत्तेऽन्यस्तद्गुणः स इति ।-रुद्रट, काव्यालं० ९,२४ २. द्रष्टव्य-सरस्वतीकण्ठाभरण, ३,४१ ३. स्वमुत्सृज्य गुणं योगादत्युज्ज्वलगुणस्य यत् । वस्तु तद्गुणतामेति भण्यते स तु तद्गुणः ॥ -मम्मट, काव्यप्रकाश १०,२०४, द्रष्टव्य-रुय्यक, अलङ्कार सू० ७२
तथा अप्पय्यदीक्षित, कुवलयानन्द, १४१ .. ४, द्रष्टव्य-सरस्वतीकण्ठाभरण ३,४१
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अलङ्कारों का स्वरूप- विकास
[ ५८३
आचार्य मम्मट ने तद्गुण के विपरीतधर्मा अतद्गुण की स्वतन्त्र सत्ता की कल्पना कर उसे परिभाषित किया । उनके अनुसार तद्गुण में न्यून गुण वाली प्रस्तुत वस्तु बहुल गुण वाली अप्रस्तुत वस्तु के सम्पर्क में आने पर अपने न्यून गुण का त्याग कर दूसरी के बहुल गुण को ग्रहण कर लेती है; पर इसके विपरीत जहाँ न्यून गुण वाली वस्तु बहुल गुण वाली वस्तु के सम्पर्क में आने पर भी अपने गुण का त्याग तथा दूसरे के गुण का ग्रहण न करे, वहाँ अतद्गुण अलङ्कार होता है । उनकी अतद्गुण- परिभाषा का यह भी तात्पर्य है कि जहाँ अप्रस्तुत वस्तु प्रस्तुत वस्तु के सम्र्पक में आने पर भी उसका गुण ग्रहण न करे वहाँ अतद्गुण होता है । रुय्यक, विश्वनाथ, आदि को यही मत मान्य है ।
१
अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि ने प्रस्तुत - अप्रस्तुत का विचार छोड़कर संसर्ग में आने वाली वस्तु के बहुल गुण का अग्रहण अतद्गुण का लक्षण माना है । वस्तुतः, औपम्य के अतिरिक्त स्थल में भी एक वस्तु के द्वारा अन्य वस्तु के गुण-ग्रहण-रूप तद्गुण तथा इसके विपरीत गुण ग्रहण की स्थिति होने पर भी उसके अग्रहण - रूप अतद्गुण का चमत्कार देखा जा सकता है । अतः, वस्तुओं में उपमानोपमेय-भाव रहने पर भी तद्गुण आदि की कल्पना की जा सकती है और उसके अभाव में भी । रुद्रट ने तद्गुण को ओपम्यमूलक नहीं मानकर अतिशयमूलक माना है । यह उचित ही है ।
अनुगुण
जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि आचार्यों ने तद्गुण के सजातीय अनुगुण अलङ्कार की कल्पना की है । उनके अनुसार जहाँ कोई वस्तु दूसरी वस्तु के सम्पर्क में आकर उत्कृष्ट गुण से अपने पूर्व सिद्ध गुण का उत्कर्ष करे, वही अनुगुण अलङ्कार होता है । 3 तद्गुण में वस्तु अपने गुण का त्याग कर अन्य वस्तु का बहुल गुण ग्रहण करती है, अनुगुण में वह अपने गुण का त्याग नहीं कर दूसरे के गुणाधिक्य से अपने गुण का उत्कर्ष करती है । अन्य वस्तु के गुण
१. तद्र पाननुहारश्चेदस्य तत्स्यादतद्गुणः ।
— मम्मट, काव्यप्र० १०, २०५ । उस पर वृत्ति भी द्रष्टव्य पृ० २९७ २. द्रष्टव्य – कुवलयानंद, १४४ तथा - रसगङ्गाधर, पृ० ८१३
३. प्राक्सिद्धस्वगुणोत्कर्षोऽनुगुणः परसंनिधेः ।
- अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १४५
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५८४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण का आदान तद्गुण की तरह अनुगुण में भी होता है; पर इसमें अपने पूर्व-सिद्ध गुण के उत्कर्ष के लिए ही अन्य वस्तु के उत्कृष्ट गुण का ग्रहण होता है । ___अप्पय्य दीक्षित के परवर्ती आचार्य जगन्नाथ ने अनुगुण का निरूपण नहीं किया है। ___ हिन्दी रीति-साहित्य में जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित की अलङ्कार-विषयक मान्यता का अनुगमन करने वाले आचार्यों की एक लम्बी परम्परा रही है। अतः, हिन्दी में अनुगुण के स्वरूप का निरूपण अनेक आचार्यों ने किया है । अनुगुण के सम्बन्ध में जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित के मत का ही समर्थन होता रहा। उसके किसी नवीन स्वभाव की कल्पना नहीं हुई। पूर्वरूप
पूर्वरूप के दो रूपों की प्रथम-कल्पना जयदेव ने की। एक में वस्तु के पुनः अपने गुण को प्राप्त करने की धारणा व्यक्त की गयी तथा दूसरे रूप में वस्तु के नष्ट रूप की पुनः प्राप्ति पर बल दिया गया। तद्गुण में वस्तु अपने गुण का त्याग कर अन्य वस्तु का गुण ग्रहण करती है । इस स्थिति के उपरान्त यदि वस्तु के पुनः अपने गुण को प्राप्त करने का वर्णन होता है तो पूर्वरूप का एक रूप माना जाता है । उदाहरण में एक वस्तु का किसी वस्तु के सम्पर्क में आने पर उसके गुण को ग्रहण कर लेने के उपरान्त अपने सदृश उत्कृष्ट गुण वाली अन्य वस्तु के सम्पर्क के कारण पुनः अपने गुण को प्राप्त करने का वर्णन आया है। उदाहरणार्थ, सूर्य के कृष्ण वर्ण के घोड़े अरुण के सम्पर्क से लाल होकर पुनः पर्वत की नीलमणियों की कान्ति से अपना पूर्व गुण ( नील वर्ण) प्राप्त कर रहा है। यह वस्तुतः तद्गुण का ही विशिष्ट रूप है, जहां वस्तु एक बार एक वस्तु का और फिर दूसरी बार दूसरी वस्तु का गुण ग्रहण करती है। पूर्वरूप के दूसरे रूप को परिभाषित करते हुए अप्पय्य दीक्षित ने कहा है कि वस्तु के विकृत या नष्ट होने पर भी पूर्वावस्था की अनुवृत्ति अर्थात् पुनः प्राप्ति पूर्वरूप है। उदाहरणार्थ, दीपक के बुझ जाने पर भी नायिका के आभूषणों के रत्न से प्रकाश फैलने का वर्णन पूर्वरूप का दूसरा रूप होगा।'
१. पुनः स्वगुणसंप्राप्तिः पूर्वरूपमुदाहृतम् ।
X X X X पूर्वावस्थानुवृत्तिश्च विकृते सति वस्तुनि ।
-अप्पय्य दी०, कुवलयानन्द, १४२-४३
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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ५६५
जगन्नाथ आदि परवर्ती आचार्यों ने पूर्वरूप का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार नहीं किया है । कारण स्पष्ट है । पूर्वरूप का प्रथम रूप तो तद्गुण का ही विशिष्ट रूप है । इस तथ्य का सङ्क ेत स्वयं अप्पय्य दीक्षित ने भी दिया है । दूसरे रूप में वस्तु के विकृत या नष्ट होने पर अन्य वस्तु के सद्भाव से पुनः पूर्व अवस्था की अनुवृत्ति के वर्णन में ऐसा चमत्कार नहीं कि उसे स्वतन्त्र अलङ्कार माना जा सके । अन्य हेतु से पूर्वावस्था की अनुवृत्ति स्वतन्त्र - अलङ्कार नहीं । हिन्दी के अनेक रीति-आचार्यों ने अप्पय्य दीक्षित के मत का अनुसरण करते हुए पूर्वरूप का निरूपण किया है ।
उन्मीलित तथा विशेषक
मीलित और सामान्य के प्रतिपक्षी रूप में उन्मीलित तथा विशेषक अलङ्कार की कल्पना की गयी है । यह ध्यातव्य है कि सामान्य - प्रतिपक्षी विशेष अलङ्कार उस विशेष अलङ्कार से भिन्न है, जिसमें प्रसिद्ध आधार के अभाव में आधेय का वर्णन आदि होता है । एक ही अभिधान के दो अलङ्कारों की सत्ता मानने से अस्पष्टता की सम्भावना हो सक्ती है । अतः, कुछ आचार्यों ने सामान्य के विपरीत धर्मा अलङ्कार को विशेषक कहा है । सामान्य का प्रतिशब्द विशेष ही अधिक प्रसिद्ध है; पर उक्त कठिनाई से बचने के लिए विशेष के साथ स्वार्थिक 'क' लगा कर विशेषक अभिधान का प्रयोग अनुचित नहीं ।
जयदेव के पूर्व मीलित तथा सामान्य की कल्पना तो हो चुकी थी; पर उन्मीलित और विशेष या विशेषक की कल्पना नहीं हुई थी । जयदेव के अनुसार उन्मीलित वहाँ होता है, जहाँ दो वस्तुओं का भेद प्रकट हो जाता है । इसका •लक्षण मीलित- लक्षण - सापेक्ष है । मीलित की दशा के बाद उन्मीलित की दशा आती है । दो वस्तुओं के बीच भेद दिखाना अपने आपमें अलङ्कार नहीं । उन्मीलित का अलङ्कारत्व इस बात में है कि दो वस्तुओं में मीलित की दशाभेद परिलक्षित न होने की दशा —के बाद भेद प्रकट किया जाता है । इस वर्णन में कि 'तुम्हारे शुभ्र यश में डूबे हुए हिमालय को देवता उसकी शीतलता से ही समझ पाते हैं, पहले उज्ज्वल कीर्ति तथा उज्ज्वल हिमालय में भेद-प्रतीति · का अभाव दिखा कर पुनः शीतलता के कारण उनका भेद दिखाया गया है । ऐसे वर्णन में जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि उन्मीलित अलङ्कार मानेंगे ।
१. भेदवैशिष्ट्ययोः स्फूर्तावुन्मीलितविशेषको ।
- अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १४८
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५८६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण उद्योतकार का मत है कि उन्मीलित का उक्त स्वरूप मीलित का ही विशिष्ट रूप है । वस्तुतः, उसका चमत्कार मुख्यतः दो वस्तुओं की अभेद-प्रतीति में ही है। ___पण्डितराज जगन्नाथ ने एक अलङ्कार के स्वभाव के प्रतिपक्षी अनेक अलङ्कारों की कल्पना अनावश्यक मानी है । अतः, उन्हें उन्मीलित का स्वतन्त्र अलङ्कार माना जाना अभीष्ट नहीं ।२
विशेषक सामान्य का प्रतिपक्षी है । उसका स्वरूप सामान्य के स्वरूप की अपेक्षा रखता है। जब तक दो वस्तुओं में ऐसी स्थिति की कल्पना नहीं की जाय कि दोनों के व्यावर्त्तक वैशिष्ट्य का ज्ञान न रहे, तब तक दो वस्तुओं के वैशिष्ट्य का उद्घाटन चमत्कारजनक नहीं होगा। सामान्य की स्थिति की कल्पना कर किसी कारण से उनके वैशिष्ट्य का उद्घाटन विशेषक माना जायगा। 'कुवलयानन्द' में कमल-वन में कमलमुखी के प्रविष्ट होने पर कमल
और मुख के वैशिष्ट्य का परिलक्षित न होना सामान्य का उदाहरण दिया गया है। उसी उदाहरण के स्थिति-विशेष की कल्पना कर 'चन्द्रमा के उदितः होने पर (कमल के मलिन हो जाने से) मुख और कमल का वैशिष्ट्य दिखाई पड़ना' विशेषक का उदाहरण माना गया है। 3 उद्योतकार ने जिस युक्ति से उन्मीलित को मीलित का अवस्था विशेष सिद्ध किया है, उसी युक्ति से विशेष को भी सामान्य का ही एक विशिष्ट रूप माना जा सकता है। सामान्यप्रतिपक्षी होने के कारण जगन्नाथ इसे स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं मानते ।।
अप्पय्य दीक्षित के मतानुयायी हिन्दी के आचार्यों ने उन्मीलित तथा विशष का लक्षण-निरूपण 'कुवलयानन्द' के अनुसार किया है। उन्मीलित तथा विशेष का जो रूप जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित के द्वारा कल्पित हुआ, उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। पिहित
मीलित, तद्गुण आदि की तरह पिहित की धारणा भी वस्तुओं के गुण के पारस्परिक प्रभाव के विचार से आरम्भ हुई थी। रुद्रट ने वस्तुओं के
१. द्रष्टव्य-काव्यप्रकाश, उद्योत, उद्ध त, बालबोधिनी, पृ० ७२८ २. द्रष्टव्य-रसगङ्गाधर, पृ० ८१७ ३. द्रष्टव्य-अप्पय्यदीक्षित, कुवलयानन्द, १४८ ४. द्रष्टव्य-रसगङ्गाधर पृ० ८१७
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५८७ गुणों पर आधृत इस अलङ्कार की कल्पना कर इसके लक्षण में कहा है कि जहाँ एक वस्तु का प्रबल गुण अपने समान अधिकरण में उत्पन्न, किन्तु उससे भसदृश अन्य गुण को तिरोहित कर लेता है, वहाँ पिहित अलङ्कार होता है । " पिहित अन्वर्थं अभिधान है । एक के गुण से दूसरे का आच्छादन इसकी मुख्य प्रकृति है । इसमें रुद्रट के अनुसार निम्नलिखित बातें अपेक्षित हैं :
:
(क) गुण से अन्य का आच्छादन, (ख) समान आधार में रहने वाली वस्तुओं में से ही एक के प्रबल गुण से अन्य का आच्छादन, (ग) असमान गुण का आच्छादन तथा (घ) प्रकट या आविर्भूत गुण का आच्छादन । मीलित से इसका भेद यह है कि इसमें असमान चिह्न वाली वस्तु का पिधान दिखाया जाता है, जब कि मीलित में समान चिह्न वाली वस्तु से वस्त्वन्तर का आच्छा होता है । समान गुण में तद्गुण सम्भव होता है । पिहित की प्रकृति तद्गुण से भिन्न है । रुद्रट के तद्गुण का एक रूप असमान गुण वाली वस्तु के गुण-ग्रहण में भी होता है; पर पिहित इस दृष्टि से उससे भिन्न है कि इसमें गुण ग्रहण नहीं दिखाया जाता, गुण का पिधान दिखाया जाता है ।
भोज ने पिहितको स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं मानकर मीलित का एक भेद माना है । उन्होंने पिहित के विपरीत उसका अपिहित भेद भी माना है । मीलित, तद्गुण, अतद्गुण, सामान्य, विशेषक, अनुगुण, पूर्वरूप, उन्मीलित, पिहित आदि एक ही मूलतत्त्व पर अवलम्बित अलङ्कार है । गुण की समता,. संसर्ग होने पर एक वस्तु के गुण का दूसरे पर प्रभाव आदि इन अलङ्कारों का स्वरूप-विधान करते हैं । अतः, इनके बीच बहुत सूक्ष्म भेद ही देखा जा सकता है । हम अपरत्र इस तथ्य पर विचार कर चुके हैं कि प्राचीन आचार्य ' अलङ्कारों की मूल प्रकृति पर समन्वित रूप से विचार करते थे, पीछे थोड़े-थोड़े भेद से अनेक अलङ्कारों की कल्पना की प्रवृत्ति आयी । 3 समान तत्त्व पर आधृत मीलित आदि उक्त अनेक अलङ्कारों की कल्पना इसी प्रवृत्ति का परिणाम है ।
१. यत्रातिप्रबलतया गुणः समानाधिकरणमसमानम् । अर्थान्तरं पिदध्यादाविभूतमपि तत्पिहितम् ॥
— रुद्रट, काव्यालङ्कार, ६, ५०
२. द्रष्टव्य - भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण ३, ४१
३. द्रष्टव्य - प्रस्तुत ग्रन्थ अध्याय २
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५८८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि ने पिहित अलङ्कार का निरूपण नहीं किया है। कारण स्पष्ट है। मीलित, तद्गुण आदि से रुद्रट के पिहित का स्वरूप इतना मिलता-जुलता था कि उसके स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना उन्हें अनावश्यक जान पड़ी होगी।
जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने पिहित को स्वतन्त्र अलङ्कार माना; पर उसके सम्बन्ध में उन्होंने रुद्रट की धारणा को सर्वथा अस्वीकार कर उसके नवीन रूप की कल्पना की। इसका सम्बन्ध वस्तु के गुण से नहीं मानकर "उन्होंने व्यक्ति की साभिप्राय चेष्टा से माना है । दूसरे के वृत्तान्त को जानने वाला जहाँ साभिप्राय चेष्टा करे, वहाँ उनके अनुसार पिहित अलङ्कार होगा।' 'खण्डिता नायिका प्रातःकाल प्रिय को घर आया देख उसके लिए विस्तर ठीक करने लगी।' इस वर्णन में नायिका की यह चेष्टा साभिप्राय मानी गयी है । वह नायक का वृत्तान्त समझ चुकी है कि वह परकीया के साथ रङ्गरभस में " रात बिताकर आ रहा है। अतः, उसके विश्राम के लिए वह बिछावन बिछा
देती है । उसकी इस चेष्टा में नायक के लिए जो मौन उपालम्भ छिपा है, उसीमें अलङ्कारत्व है । वह अभिप्राय छिपा रहने के कारण पिहित कहा गया है। "जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने साकूत चेष्टा में सूक्ष्म तथा पिहित—दो अलङ्कार माने हैं । सूक्ष्म में दूसरे का आशय समझ कर साकूत चेष्टा का वर्णन होता है और पिहित में दूसरे के वृत्तान्त को समझ कर साकूत चेष्टा करने का वर्णन होता है। उद्योतकार ने इसीलिए इस पिहित को सूक्ष्म में अन्तर्भूत माना है। यह उचित ही है। दोनों में सौन्दर्य साकूत अर्थात् साभिप्राय चेष्टा का ही है। अत:, प्राशय और वृत्तान्त के जानने के आधार पर साकूत चेष्टा में अलग-अलग अलङ्कार मानना युक्तिसङ्गत नहीं। इस तरह पिहित के दो रूप ‘कल्पित हुए-(१) प्रबल गुण से समान अधिकरण वाले असमान आविर्भूत गुण
का आच्छादन और (२) दूसरे का वृत्तान्त जानने वाले की साभिप्राय चेष्टा । पीछे चल कर प्रथम मीलित आदि में तथा द्वितीय सूक्ष्म में अन्तर्भूत मान लिया गया। विशेष
रुद्रट ने विशेष अलङ्कार के तीन रूपों की कल्पना की। उसके प्रथम रूप १. पिहितं परवृत्तान्तज्ञातुः साकूतचेष्टितम् ।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १५२ २. द्रष्टव्य-काव्यप्रकाश, उद्योत, उद्धृत, बालबोधिनी, पृ० ७१३
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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ५८६. के सम्बन्ध में उन्होंने कहा कि जहाँ किसी आधेयभूत वस्तु का उसके नियत आधार के विना अर्थात् निराधार वर्णन हो और वह निराधार वस्तु-वर्णन उपपन्न हो, वहाँ विशेष अलङ्कार होता है । रुद्रट के अनुसार, जहाँ एक ही वस्तु का एक साथ (पर्याय से नहीं) अनेक आधारों में सद्भाव वर्णित हो, विशेष का अन्य रूप माना जाता है । २ विशेष के एक और रूप के सम्बन्ध में रुद्र ने कहा है कि जहाँ कर्त्ता कोई कार्य करता हुआ उसके साथ ही कोई ऐसा अन्य कार्य भी अनायास कर देता है, जिस कार्य को करने में वह असमर्थ रहता है, तो ऐसे वर्णन में विशेष अलङ्कार माना जाता है । 3
वहाँ
परवर्ती काल में रुद्रट के ये तीनों विशेष प्रकार स्वीकृत हुए हैं । मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि सभी मान्य आचार्यों ने विशेष के तीनों रूपों के रुद्रट - कृत लक्षण को ही अपनाया है । ४ प्रथम रूप की परिभाषा में केवल इतना कहा गया है कि प्रसिद्ध आधार के विना आधेय का वर्णन विशेष है । रुद्रट ने अपनी परिभाषा में निराधार वस्तु-वर्णन के उपपन्न होने का भी उल्लेख किया था । मम्मट आदि ने इसका उल्लेख अपेक्षातिरिक्त समझ कर छोड़ दिया होगा । वर्णन के अनुपपन्न होने में तो अलङ्कार की कल्पना ही नहीं की जा सकती । अलङ्कार की मूल धारणा में वर्णन के उपपन्न होने की धारणा के अन्तर्निहित होने के कारण विशेष की परिभाषा में उसका उल्लेख आवश्यक नहीं । विशेष के तीन रूप मान्य रहे हैं । उन तीनों की प्रकृति के सम्बन्ध में भी आचार्यों में मतैक्य रहा है । वे तीन रूप हैं(१) प्रसिद्ध आधार के विना किसी आधेय का वर्णन,
(२) एक वस्तु का एक साथ अनेक आधारों में सद्भाव-वर्णन तथा
(३) अन्य कार्य करने के क्रम में कर्त्ता का दैवयोग से अन्य अशक्य कार्य सम्पादित कर देने का वर्णन ।
१. किञ्चिदवश्याधेयं यस्मिन्नभिधीयते निराधारम् । तादृगुपलभ्यमानं विज्ञेयोऽसौ विशेष इति ॥ २. यत्र कमनेकस्मिन्नाधारे वस्तु विद्यमानतया । युगपदभिधीयतेऽसावत्रान्यः स्याद्विशेष इति ॥ - वही, ६,७ ३. यत्रान्यत्कुर्वाणो युगपत्कार्यान्तरं च कुर्वीत ।
तुमशक्यं कर्त्ता विज्ञ योऽसौ विशेषोऽन्यः ॥ - वही ९,९
रुद्रट, काव्यालङ्कार ९,५
४. द्रष्टव्य — मम्मट, काव्यप्रकाश, १०, २०३, रुय्यक, अलं० सू० ५०,. विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, ९६, जगन्नाथ, रसगाङ्गधर पृ० ७२४,. अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द ९९-१०१
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५६० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
___ रुद्रट ने पूर्व अलङ्कार के दो रूपों की कल्पना की थी। एक रूप को उन्होंने औपम्यमूलक अलङ्कार तथा दूसरे को अतिशयमूलक अलङ्कार माना था। उन्होंने दो वस्तुओं के पौर्वापर्य-क्रम के व्यत्यय के रूप में इस अलङ्कार की कल्पना की थी। साथ-साथ होने वाली वस्तुओं में से एक को पूर्वभावी कहा “जाना तथा पश्चाद् भावी वस्तु को पूर्व भावी कहा जाना पूर्व का मूल लक्षण
है। औपम्यमूलक पूर्व की परिभाषा में रुद्रट ने कहा था कि जहां समान • कार्य वाली दो वस्तुओं-उपमान तथा उपमेय—में से उपमेय को, जो वस्तुतः
उपमान से पहले उत्पन्न नहीं हुआ हो, उपमान से पूर्व-भावी कहा जाय, वहाँ “पूर्व अलङ्कार होता है।' अतिशयमूलक पूर्व के सम्बन्ध में रुद्रट की धारणा थी कि जहां कार्य और कारण में से कारण के पूर्व कार्य का होना कहा जाय, वहाँ पूर्व होता है। पहले कारण तब कार्य के होने का सामान्य क्रम है। उस क्रम का त्याग अतिशय है। पश्चाद्भावी कार्य का पूर्व होना कथित होने से रुद्रट ने इसे अन्वर्थ पूर्व व्यपदेश दिया। पूर्व को स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में स्वीकृति नहीं मिली। सम्भवतः, आचार्यों ने अतिशयोक्ति से स्वतन्त्र उसका अस्तित्व नहीं माना। कार्यकारणपौर्वापर्य-विपर्यय को अतिशयोक्ति का ही एक भेद माना गया है । पश्चाद्भावी या सहभावी उपमेय का उपमान से पूर्व होने का वर्णन भी अतिशयोक्ति में अन्तर्भूत माना जा सकता है। इसीलिए पूर्व-विषयक रुद्रट की मान्यता को किसीका समर्थन नही मिला । उस अलङ्कार का स्वतन्त्र अस्तित्व-मात्र अस्वीकृत हुआ, उसके स्वरूप को अन्य अलङ्कार (अतिशयोक्ति) के रूप में स्वीकृति मिली।
विभावना
विभावना अलङ्कार में हेतु के अभाव में भी फल की उत्पत्ति दिखाने का चमत्कार रहता है । भामह ने सर्वप्रथम विभावना को परिभाषित करते हुए कहा था कि जहां क्रिया का प्रतिषेध होने पर भी उस क्रिया के फल का प्रकट
१. यत्र कविधावौँ जायेते यो तयोरपूर्वस्य । ___ अभिधानं प्राग्भवतः सतोऽभिधीयेत तत्पूर्वम् ।।-रुद्रट,काव्यालं०८,९७ २. यत्रातिप्रबलतया विवक्ष्यते पूर्वमेव जन्यस्य । 'प्रादुर्भावः पश्चाज्जनकस्य तु तद्भवेत्पूर्वम् ॥-वही, ९,३
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५६१ होना वर्णित हो, वहां विभावना अलङ्कार होता है। क्रियाप्रतिषेध में फलोत्पत्ति की असङ्गति का परिहार अपेक्षित है। जिस फल का उत्पत्ति में जो क्रिया हेतुभूत होती है उस क्रिया का प्रतिषेध होने पर भी फलोत्पत्ति का वर्णन और ऐसे वर्णन में असङ्गति का परिहार विभावना का भामह-सम्मत स्वरूप है।
दण्डी के अनुसार जहां प्रसिद्ध कारण का अभाव दिखाकर किसी अन्य कारण या स्वभावसिद्धत्व का भावन किया जाता हो, वहीं विभावना मानी जाती है। अभिप्राय यह कि किसी उत्पन्न कार्य के प्रसिद्ध हेतु का निषेध करते हुए उसके अन्य गूढ कारण का अथवा अन्य कारण की उपलब्धि नहीं होने पर उस कार्य के स्वभाव-जन्यत्व का निश्चय करना विभावना है। दण्डी की विभावना की प्रकृति मूलतः भामह की विभावना की प्रकृति से मिलतीजुलती है। दोनों को किसी कार्य के प्रसिद्ध हेतु का निषेध विभावना में अभीष्ट है। प्रसिद्ध हेतु का निषेध होने पर कार्योत्पत्ति की सङ्गति दिखाने के लिए या तो कारणान्तर की कल्पना की जा सकती है या उस कार्य के स्वभावसिद्ध होने की कल्पना की जा सकती है । भामह की परिभाषा में 'समाधी सुलभे सति' के उल्लेख से फलोत्पत्ति की सङ्गति के लिए अन्य हेतु या स्वभाव-जन्यत्व आदि की कल्पना की ओर सङ्कत किया गया था। दण्डी ने उस तथ्य को स्पष्ट करते हुए परिभाषा में प्रसिद्ध हेतु का व्यावर्तन कर उत्पन्न कार्य के अन्य हेतु या स्वभावजन्यत्व की कल्पना पर बल दिया। भामह ने जहाँ फल की प्रसिद्ध कारणभूत क्रिया का निषेध कहा था, वहाँ दण्डी ने कारण-मात्र का निषेध कहा। भामह ने क्रिया का निषेध किये जाने पर फलोत्पत्ति का वर्णन अपेक्षित माना था; पर दण्डी ने उत्पन्न फल के हेतु का व्यावर्त्तन तथा अन्य हेतु या स्वभावसिद्धत्व की कल्पना पर बल दिया। यह भेद शब्द-मात्र का है। फलोत्पत्ति के प्रसिद्ध हेतु का निषेध, फिर भी किसी अन्य गूढ हेतु से या स्वाभाविक रूप से फलोत्पत्ति का वर्णन विभावना का मुख्य स्वभाव है और यह दोनों आचार्यों को मान्य है।
१. क्रियायाः प्रतिषेधे या तत्फलस्य विभावना। ज्ञेया विभावनवासी समाधी सुलभे सति ॥
–भामह, काव्यालङ्कार २, ७७ २. प्रसिद्धहेतुव्यावृत्त्या यत् किञ्चित् कारणान्तरम् । यत्र स्वाभाविकत्वं वा विभाव्यं सा विभावना ॥
-दण्डी, काव्यादर्श २, १९९
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५६२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उद्भट ने भामह-कृत विभावना-लक्षण को ही शब्दतः उद्धृत कर दिया है।3 वामन ने भी भामह के द्वारा कल्पित तथा उद्भट के द्वारा स्वीकृत परिभाषा को सूत्रबद्ध किया है। उन्होंने विभावना के परिभाषा-सूत्र में केवल इतना कहा है कि क्रिया का प्रतिषेध होने पर भी उस क्रिया के प्रसिद्ध फल की उत्पत्ति का वर्णन विभावना है। समाधि अर्थात् परिहार के सुलभ होने की चर्चा अपेक्षा तिरिक्त मानकर छोड़ दी गयी है। वह तो अलङ्कार का अनिवार्य तत्त्व ही है। एक हेतु का निषेध होने पर फलोत्पत्ति की असङ्गत कल्पना तो अलङ्कार में की नहीं जाती; उसकी सङ्गति के लिए अन्य हेतु की या फल की स्वभावजन्यता आदि की कल्पना उसमें अन्तर्निहित रहती है। अतः, विभावना का इतना ही लक्षण पर्याप्त है कि प्रसिद्ध हेतु का निषेध तथा उसके फल की उत्पत्ति का वर्णन (सङ्गत वर्णन) विभावना है। ___ रुद्रट ने विभावना के तीन रूप स्वीकार किये। जहां उपलभ्यमान अर्थ का उसके वास्तविक कारण के विना होना कहा जाय, वहाँ विभावना का एक रूप; जहाँ जिस कारण से वस्तु में विकार हो उस कारण के विना ही विकार का होना कहा जाय, वहाँ उसका दूसरा रूप और जहाँ वस्तु-विशेष का जो धर्म लोकप्रसिद्ध है, उस धर्म को उस वस्तु से भिन्न वस्तु का भी धर्म बताया जाय, वहाँ उसका तीसरा भेद माना गया है। अन्य वस्तु का धर्म अन्य में बताकर उसके द्वारा अन्य के कार्य का सम्पादन विभावना के इस भेद का रहस्य है। प्रथम तथा द्वितीय भेद का स्वरूप मिलता-जुलता ही है। प्रसिद्ध हेत के व्यावर्तन से कार्य की उत्पत्ति तथा प्रसिद्ध विकार-हेतु के व्यावर्तन से विकारोत्पत्ति की पृथक्-पृथक् कल्पना आवश्यक नहीं। विभावना के तृतीय भेद की कल्पना कुछ नवीन है। इसमें भी मूलतः वास्तविक कारण का निषेध कर उस कारण के धर्म को अन्यत्र दिखाकर उस अन्य कारण से कार्योत्पत्ति (प्रसिद्ध कारण के विना कार्योत्पत्ति) दिखाये जाने पर बल दिया गया है। अतः, इसका भी समावेश 'कारण के अभाव में कार्योत्पत्ति' इस परिभाषा में हो जाता है। इसे विभावना की प्राचीन परिभाषा के आधार पर कल्पित उसका एक विशिष्ट भेद माना जा सकता है।
३. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह २, १६ ४. क्रियाप्रतिषेधे प्रसिद्धतत्फलव्यक्तिविभावना।
-वामन, काव्यालङ्कार सूत्र ४, ३,१३ ५. द्रष्टव्य-रुद्रट, काव्यालङ्कार ६,१६-१८-२०
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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ५६३
कुन्तक ने विभावना के विषय में भामह आदि प्राचीन आचार्यों की धारणा का ही अनुमोदन किया है। उनके अनुसार जहाँ किसी विशेषता के कारण, सौन्दर्य की सिद्धि के लिए वर्णनीय कार्य रूप वस्तु का अपने कारण के विना ही होना वर्णित हो, वहाँ विभावना होती है । '
भोज ने आचार्य दण्डी के विभावना-लक्षण को ही उद्धृत कर दिया है । उन्होंने विभावना के शुद्धा, चित्रा, विचित्रा तथा विविधा भेदों का सोदाहरण विवेचन किया है । उन्होंने इसी सन्दर्भ में हेतु का भी निरूपण किया है । उनकी विभावना विषयक मूल धारणा प्राचीन आचार्यों की धारणा से अभिन्न है ।
मम्मट ने भामह, उद्भट आदि की तरह कारणभूत क्रिया का प्रतिषेध होने पर भी फल के प्रकट होने का वर्णन विभावना का लक्षण माना है । ३ रुय्यक ने 'अलङ्कार-सूत्र' में कारण के अभाव में कार्य की उत्पत्ति का वर्णन विभावना का लक्षण माना है । उन्होंने यह स्पष्टीकरण दिया है कि कारणरहित कार्य की कल्पना तो की ही नहीं जा सकती; पर प्रसिद्ध कारण का निषेध कर अन्य (अप्रसिद्ध) कारण आदि से कार्योत्पत्ति दिखाना चमत्कारजनक होने के कारण विभावना अलङ्कार का स्वरूप-विधान करता है । इस प्रकार रुय्यक की विभावना धारणा दण्डी की धारणा से अभिन्न है । विश्वनाथ की विभावना - परिभाषा रुय्यक की परिभाषा से मिलती-जुलती ही है |
जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने विभावना के छह रूपों की कल्पना की है । उनके अनुसार विना कारण के कार्य की उत्पत्ति दिखाना विभावना का प्रथम रूप; अपूर्ण हेतु से कार्योत्पत्ति दिखाना उसका दूसरा रूप; प्रतिबन्धक के रहने पर कार्योत्पत्ति दिखाना उसका तीसरा रूप; जो कार्य विशेष का कारण नहीं हो, उस अकारण से कार्य विशेष की उत्पत्ति दिखाना उसका चौथा रूप; विरुद्ध कारण से कार्य की उत्पत्ति उसका पाँचवाँ रूप और कार्य से
१. वर्णनीयस्य केनापि विशेषेण विभावना ।
स्वकारणपरित्यागपूर्वकं कान्तिसिद्धये ॥ - कुन्तक, वक्रोक्तिजी० ३,४१ २. द्रष्टव्य - भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण पृ० २७१-७५
३. क्रियायाः प्रतिषेधेऽपि फलव्यक्तिविभावना । - मम्मट, काव्यप्र० - १०,१६२ ४. कारणाभावे कार्य स्योत्पत्तिविभावना । - रुय्यक, अलं० सू० ४९ तथा उसकी वृत्ति भी द्रष्टव्य पृ० १५२
५. द्रष्टव्य- विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०,८७
३८
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५६४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
कारण का जन्म उसका छठा रूप है।' इन रूपों पर समग्रता से विचार करने से सबमें मूल रूप से प्रसिद्ध हेतु का व्यतिरेक दीख पड़ता है। अतः, कारण के अभाव में कार्योत्पत्ति को विभावना का लक्षण मानकर उसके अवान्तर-भेदों की कल्पना की जा सकती है ।
पण्डितराज जगन्नाथ ने कारण के व्यतिरेक के होने पर भी कार्योत्पत्ति का वर्णन विभावना का लक्षण माना है। भामह, उद्भट आदि के विभावनालक्षण की ओर सङ्केत करते हुए पण्डितराज ने कहा है कि उन्होंने क्रिया के प्रतिषेध के साथ फलोत्पत्ति को जो विभावना का लक्षण कहा है, उसमें क्रियाप्रतिषेध से तात्पर्य कारण (प्रसिद्ध कारण) के प्रतिषेध का है ।२ परवर्ती आचार्यों ने कारण-व्यतिरेक से कार्योत्पत्ति का वर्णन ही विभावना का लक्षण माना है।
निष्कर्ष यह कि प्रसिद्ध कारण के विना कार्य की उत्पत्ति के वर्णन में विभावना अलङ्कार मानने में प्रायः सभी आचार्य एक मत रहे हैं। इस परिभाषा के आधार पर विभावना के निम्नलिखित रूप कल्पित हुए हैं
(क) कारण के विना कार्योत्पत्ति-वर्णन, (ख) असमग्र कारण से कार्योत्पत्ति-वर्णन, (ग) कार्योत्पत्ति के बाधक के होने पर भी कार्योत्पत्ति-वर्णन, (घ) अकारण से कार्योत्पत्ति-वर्णन, (ङ) विरुद्ध कारण से कार्योत्पत्ति-वर्णन, (च) कार्य से कारणोत्पत्ति-वर्णन तथा (छ) वस्तुविशेष के धर्म को अन्य वस्तु का भी धर्म कहा जाना (रुद्रट)।
इस तरह प्रसिद्ध कारण के विना भी वैसे धर्म वाले अन्य कारण
से कार्योत्पत्ति का वर्णन । 'कुवलयानन्द' में निरूपित प्रथम छह विभावना-रूपों को हिन्दी के भी अनेक आचार्यों ने स्वीकार किया है।
१. द्रष्टव्यं-अप्पय्यदीक्षित, कुवलयानन्द, ७७-८२ २. कारणव्यतिरेकसामानाधिकरण्येन प्रतिपाद्यमाना कार्योत्पत्तिविभावना। यदुक्तम् । क्रियायाः प्रतिषेधे...."। क्रियाशब्देनात्र कारण विवक्षितम् ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ०६८५
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[५६५
विभावना-भेद
भोज के द्वारा निर्दिष्ट विभावना-भेदों का उल्लेख किया जा चुका है। प्रसिद्ध हेतु का व्यावर्तन होने पर अन्य हेतु से या स्वभावसिद्ध रूप में कार्य दिखाया जा सकता है। इस आधार पर विभावना के दो भेद माने जा सकते हैं। (अन्य) हेतु के उक्त तथा अनुक्त होने के बाधार पर भी विभावना के दो भेद किये गये हैं। विशेषोक्ति
विशेषोक्ति विभावना का विपर्यय-रूप मानी गयी है। विभावना में कारण के विना भी कार्य की उत्पत्ति दिखायी जाती है, तो विशेषोक्ति में कार्योत्पत्ति के सम्पूर्ण कारण के रहने पर भी कार्य की उत्पत्ति नहीं होने का वर्णन होता है।
भामह ने विशेषोक्ति की परिभाषा में कहा था कि जहां वैशिष्ट्य दिखाने के लिए वस्तु के एक देश के विगत होने पर उसमें दूसरे गुण का सद्भाव 'दिखाया जाय, वहाँ विशेषोक्ति होती है। भामह का यह विशेषोक्ति-लक्षण तो परवर्ती आचार्यों के द्वारा स्वीकृत नहीं हुआ; पर उक्त रूप में विशेषोक्ति को परिभाषित कर भामह ने जो उसका उदाहरण दिया था, उसे परवर्ती भाचार्यों ने भी विशेषोक्ति का उदाहरण माना है। इसका कारण यह है कि जब समग्र हेतु के रहने पर भी कार्य की अनुत्पत्ति की धारणा विशेषोक्ति में स्वीकृत हुई तो उस धारणा से भामह की विशेषोक्ति-परिभाषा का यह आंशिक साम्य था कि फल के कारण के रहने पर भी फलाभाव में वस्तु के गुणान्तर का सद्भाव भामह को मान्य था।
दण्डी ने विशेषोक्ति के सम्बन्ध में कहा कि जहां विशेष-दर्शन के लिए अर्थात् उत्कर्ष-साधन के लिए जाति, गुण, क्रिया आदि का वैकल्य दिखाया जाय (अर्थात् गुण, जाति आदि का अनपेक्षित होना दिखाया जाय ), वहाँ १. उक्तानुक्तनिमित्तत्वात् द्विधा सा पंरिकीर्तिता।
-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, ८७ २. एकदेशस्य विगमे या गुणान्तरसंस्थितिः । विशेषप्रथनायासी विशेषोक्तिर्मता यथा ॥
-भामह, काव्यालङ्कार ३,२३
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५६६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
विशेषोक्ति होती है।' परवर्ती आचार्यों ने असमग्र या विकल हेतु से कार्योत्पत्ति दिखाना विभावना का ही एक रूप माना है। दण्डी का यह विशेषोक्ति-लक्षण भी बहुमान्य नहीं हुआ है। ___ आचार्य उद्भट ने सर्वप्रथम विभावना के विपर्यय-रूप में विशेषोक्ति की कल्पना कर उसकी परिभाषा में विशेष का बोध कराने के लिए अविकल अर्थात् पूर्ण कारण के रहने पर भी कार्य की अनुत्पत्ति दिखाना' विशेषोक्ति का स्वरूप माना।२ यही मत अधिकांश आचार्यों को मान्य है।
वामन ने सभी अलङ्कारों को औपम्यमूलक माना है। अतः, विशषोक्ति में भी प्रस्तुत-अप्रस्तुत की समता की कल्पना करते हुए उन्होंने उसे इस रूप में परिभाषित किया है-'एक गुण की हानि की कल्पना करने पर शेष गुणों से प्रस्तुत-अप्रस्तुत की समता का निर्धारण विशेषोक्ति है।' उन्होंने इसे प्रायशः 'रूपक' कहा है। स्पष्ट है कि रूपक से विशेषोक्ति का विशिष्ट स्वरूप वामन की दृष्टि में नहीं था। पीछे चलकर रुय्यक, पण्डितराज जगन्नाथ आदि ने वामन की विशेषोक्ति को रूपक में ही अन्तर्भुक्त सिद्ध किया है। वस्तुतः, दो भलङ्कारों के विशिष्ट स्वरूप का पृथक्-पृथक् अस्तित्व निर्धारित नहीं होने पर अलग-अलग अलङ्कारों की कल्पना का कोई अर्थ नहीं। रुद्रट, कुन्तक आदि ने विभावना का तो अलङ्कारत्व स्वीकार किया; पर विशेषोक्ति अलङ्कार का उल्लेख नहीं किया। कुन्तक का तर्क है कि भामह-निरूपित विशेषोक्ति कहींकहीं अन्य अलङ्कार में अन्तर्भूत हो जाती है और कहीं वह अलङ्कार्य ही हो जाती है; अतः वह स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं। भामह के 'काव्यालङ्कार' में उद्धृत विशेषोक्ति-उदाहरण को उन्होंने कामदेव का स्वभाव-वर्णन होने के कारण अलङ्कार्य का उदाहरण माना है। रुद्रट ने व्याघात का स्वरूप-निरूपण करते हुए उसे उद्भट की विशेषोक्ति के समान स्वभाव का बना दिया। अतः, उन्हें व्याघात से स्वतन्त्र विशेषोक्ति की कल्पना आवश्यक नहीं जान पड़ी।
१. गुणजातिक्रियादीनां यत्त वैकल्यदर्शनम् ।
विशेषदर्शनायव सा विशेषोक्तिरिष्यते ॥-दण्डी, काव्यादर्श, २,३२३ २. यत्सामग्र येऽपि शक्तीनां फलानुत्पत्तिबन्धनम् । विशेषस्याभिधित्सातस्तद्विशेषोक्तिरिष्यते ॥
-उद्भट, काव्यालङ्कार-सार सं०५,५, ३. एकगुणहानिकल्पनायां साम्यदार्ट यं विशेषोक्तिः । "रूपकं चेदं प्रायेण ।
-वामन, काव्यालङ्कार सू० ४,३,२३ तथा वृत्ति, पृ० २६४
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[५६७ भोज ने दण्डी की विशेषोक्ति-परिभाषा को ही अक्षरशः उद्धृत कर दिया है।' मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित, जंगन्नाथ आदि समर्थ आचार्यों ने उद्भट की विशेषोक्ति-धारणा को ही स्वीकार किया है । प्रसिद्ध कारण के समग्रत: या पुष्कल-रूप में रहने पर भी कार्य की अनुत्पत्ति के वर्णन में विशेषोक्ति मानने में ये आचार्य एकमत हैं ।२ पुष्कल, समग्र आदि विशेषणों का प्रयोग कारण के साथ इसलिए किया गया है कि कारण की न्यूनता, अपूर्णता आदि होने पर कार्य की अनुत्पत्ति स्वाभाविक ही है। वैसे वर्णन में विशेष चमत्कार नहीं। समग्र हेतु के रहने पर कार्य की अनुत्पत्ति का वर्णन विशेष का बोध कराता है। अत: वह अलङ्कार है। ___ नरेन्द्रप्रभ सूरि ने 'असङ्कार-महोदधि' में उद्धृट के विशेषोक्ति-लक्षण के आधार पर उसका एक रूप तथा वामन की विशेषोक्ति-परिभाषा के आधार पर उसका दूसरा रूप माना है। इस प्रकार विशेषोक्ति के सम्बन्ध में चार मत आये-(१) भामह का मत-एक देश के विगत होने पर गुणान्तर का सद्भाव, (२) दण्डी आदिका मत-गुण आदि का वैकल्य दिखाना, (३) वामन आदि का मत-एक गुण की हानि से अन्य गुणों के आधार पर साम्य-प्रदर्शन तथा (४) उद्भट आदि का मत-कारण की समग्रता रहने पर भी कार्य-उत्पत्ति का अभाव-वर्णन। दण्डी की धारणा, विशेषोक्ति का विभावना से व्यावर्त्तन नहीं कर पाती। अतः, वह विभावना-भेद के रूप में ही स्वीकृत हुई। वामन की विशेषोक्ति-धारणा रूपक-धारणा से अभिन्न सिद्ध हुई। उद्भट आदि का यह मत ही मान्य है-पूर्ण कारण के रहने पर भी कार्योत्पत्ति का अभाव-वर्णन विशेषोक्ति है। इस मान्यता में भामह के मत का भी समाहार हो जाता है। विशेषोक्ति-भेद
मम्मट ने विशेषोक्ति के इस स्वीकृत रूप के तीन भेद माने हैं। वे हैं-(१) उक्त निमिता (१) अनुक्त-निमित्ता (३) अचिन्त्य-निमित्ता।' रुय्यक ने उक्त
१. द्रष्टव्य-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण ,४,७० २. द्रष्टव्य-मम्मट, काव्यप्रकाश १०,१६३ रुय्यक, अलङ्कारसू. ४२; विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०,८८ । अप्पय्यदीक्षित; कुवलयानन्द; ८३,
जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ६६४, ३. द्रष्टव्य-जरेन्द्रप्रभसूरि, अलङ्कार महोदधि ८,५२-५३
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५९८] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण निमित्ता तथा अनुक्तनिमित्ता भेद कर अनुक्तनिमित्ता के चिन्त्य तथा अचिन्त्या निमित्ता भेद किये हैं। अधिक तथा अल्प ___ अधिक तथा अल्प अलङ्कार आधाराधेय-भाव-सम्बन्ध पर आधृत है। सामान्यतः, आधेय की अपेक्षा आधार अधिक विस्तृत होता है; पर जहां इसके विपरीत आधार से आधेय की दीर्घता का चमत्कारपूर्ण वर्णन होता है, वहाँ भधिक नामक अलङ्कार माना जाता है। वर्ण्य आधेय की अतिशय दीर्घता को विवक्षा से उसे बड़े आधार से भी बड़ा कहा जाता है। आधेय के महत्त्व की स्थापना के लिए आधार की भी दीर्घता का निरूपण किया जाता है। छोटे आधार से बड़ा कहने से आधेय की गुरुता की व्यञ्जना नहीं हो सकती। मतः, अधिक अलङ्कार में आधार की दीर्घता का निर्देश करते हुए आधेय का उससे भी अधिक बताया जाना अपेक्षित माना गया है। इसके साथ ही पृथुल माधेय का वर्णन करते हुए उससे भी आधार का आधिक्य-वर्णन अधिक का दूसरा रूप माना गया है। यों तो आधेय से आधार में आधिक्य की धारणा निहित ही रहती है; पर आधेय की अतिदीर्घता के निर्देश के साथ उसकी अपेक्षा भी आधार की अधिक दीर्घता के वर्णन में अतिशय का तत्त्व रहता है। अतः, उसे भी अलङ्कार माना जाता है।
आचार्य दण्डी ने अधिक अलङ्कार की स्वतन्त्र सत्ता नहीं मानी थी, फिर भी उन्होंने अतिशयोक्ति के एक भेद के रूप में आश्रयाधिक्य के स्वरूप का निरूपण किया था। उसमें आधेय के महत्त्व की विवक्षा से आधार की विपुलता का वर्णन अपेक्षित माना गया था।
रुद्रट ने अधिक को अतिशयोक्तिमूलक स्वतन्त्र अलङ्कार माना और उसके स्वरूप का निरूपण स्वतन्त्र रूप से किया। उन्होने अधिक के दो रूपों की कल्पना की--(१) जहाँ एक कारण से परस्पर विरुद्ध दो वस्तुएं उत्पन्न हों तथा जहाँ एक कारण से परस्पर विरुद्ध बल वाली क्रियाओं से युक्त दो वस्तुएँ उत्पन्न हों, वहाँ अधिक अलङ्कार होता है। (२) जहाँ विशाल आधार
१. मम्मट, काव्यप्रकाश, पृ० २६. २. रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १५६ ३. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्यादर्श, २,२१६
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५६६ में अवस्थित छोटी वस्तु के भी किसी कारण उसमें समा न सकने का वर्णन हो, वहां अधिक अलङ्कार होता है। भोज ने अतिशयोक्ति के महत्त्वातिशय आदि भेद में अधिक को अन्तर्भूत मानकर उसका पृथक् निरूपण नहीं किया है। ___ रुय्यक ने अधिक की परिभाषा में कहा है कि आश्रय तथा आश्रयी अर्थात् माधार और आधेय की अननुरूपता अधिक है !२ यह अननुरूपता दो रूपों में हो सकती है—(क) आश्रय के विपुल होने पर भी आश्रयी के परिमित होने से तथा (ख) आश्रित के विपुल होने पर भी आश्रय के परिमित होने से। विश्वनाथ ने भी आश्रय तथा आश्रयी में से एक का दूसरे की अपेक्षा अधिक होना अधिक का लक्षण माना है। जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित भी पृथुल आधार की अपेक्षा आधेय की अधिक पृथुलता का तथा पृथुल आधेय की अपेक्षा आधार की अधिक पृथुलता का वर्णन; ये दो रूप अधिक के मानते हैं। जगन्नाथ का कथन है कि आधार या आधेय में से किसी एक को अत्यन्त वृहत् बताने के लिए उसकी तुलना में दूसरे को बहुत छोटा बताना अधिक है। जो वस्तुतः छोटा नहीं हो उसे भी किसी की अपेक्षा बहुत छोटा बताने से अन्य वस्तु की अतिशय गुरुता का बोध होता है। किसी छोटी वस्तु को अन्य की तुलना में छोटी कहने से अन्य का महत्त्व नहीं बढ़ता। अतः, जगन्नाथ की मान्यता का भी सार यह है कि जहाँ आश्रय का अतिशय माधिक्य बताने के लिए आश्रित गुरु वस्तु को भी आश्रय की तुलना में बहुत
१. यत्रान्योन्यविरुद्ध विरुद्धबलवक्रियाप्रसिद्ध वा।
वस्तुद्वयमेकस्माज्जायत इति तद्भवेदधिकम् ॥ तथायत्राधारे सुमहत्याधेयमवस्थितं तनीयोऽपि । अतिरिच्येत कथंचित्तदधिकमपरं परिज्ञयम् ॥
-रुद्रट, काव्यालङ्कार ६,२६-२८ २. आश्रयायिणोरनानुरूप्यमधिकम् ।-रुय्यक, अलङ्कार सू० ४८ ३. आश्रयाश्रयिणोरेकस्याधिक्येऽधिकमुच्यते ।
-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०,६४ ४. अधिकं पृथुलाधारादाधेयाधिक्येवर्णनम् । तथापृथ्वाधेयाद्यदाधाराधिक्यं तदपि तन्मतम् ।
___-अप्पय्यदीक्षित, कुवलयानन्द ६५-६६ ५. आधाराधेययोरन्यतरस्यातिविस्तृतत्वसिद्धिफलकमितरस्यातिन्यूनत्वकल्प
नमधिकम् ।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर पृ० ७१६
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६..]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
लघु कहा कहा जाय और इसी तरह आश्रयी अर्थात् आधेय की अतिशय गुरुता की विवक्षा से वस्तुतः गुरु आधार को भी उसकी तुलना में बहुत लघु बताया जाय, वहाँ अधिक अलङ्कार होता है। निष्कर्ष यह कि आधार और आधेय में से किसी एक को दूसरे की अपेक्षा अधिक कहना अधिक अलङ्कार है। गुरु आधार की अपेक्षा आधेय को अधिक बड़ा कहना तथा गुरु आधेय से आधार को बड़ा कहना अधिक के दो रूप हैं। इस वर्णन की दो पद्धतियां सम्भव हैं-गुरु आधार से आधेय को अधिक गुरु कहने की सीधी पद्धति तथा आधेय की अधिकता के बोध के लिए उसकी तुलना में गुरु आधार को भी बहुत छोटा कहने की पद्धति । इसी प्रकार आधार के आधिक्य-वर्णन की भी उक्त दो पद्धतियां हो सकती हैं। फलतः अधिक अलङ्कार की योजना के ये चार रूप सम्भव हैं
(१) पृथुल आधार से आधेय का आधिक्य-वर्णन, (२) गुरु आधेय से आधार को बहुत.छोटा कहना, (३) पृथुल आधेय से आधार को अधिक कहना तथा
(४) आधार की पृथुलता के सामने आधेय की तुच्छता का वर्णन । अधिक अलङ्कार के विपर्यय के रूप में जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने अल्प अलङ्कार की कल्पना की है और सूक्ष्म आधेय से भी आधार की सूक्ष्मता का वर्णन इसका स्वरूप माना है।' विषम तथा सम ___ रुद्रट ने वास्तवमूलक तथा अतिशयमूलक विषम अलङ्कारों की कल्पना की। वास्तव-वर्गगत विषम के अनेक रूपों की कल्पना उन्होंने की। जहाँ वस्तुओं के बीच सम्बन्ध के न रहने पर भी वक्ता दूसरों के द्वारा उनके बीच सम्बन्ध-कल्पना की सम्भावना कर उसका (उस सम्भावित असत् सम्बन्ध का) खण्डन करता हो, वहाँ वास्तवमूलक विषम का एक रूप; जहाँ अर्थों के बीच विद्यमान सम्बन्ध का अनौचित्य दिखाया जाय अथवा जहाँ असम्भाव्य वस्तु की सत्ता का वर्णन हो, वहां विषम का अन्य रूप होता है। विषम के चार और भेद माने गये है-(क) जहाँ किसी कारण कर्ता छोटा-सा भी कार्य न करे, (ख) जहाँ वह कारणवश बड़ा काम भी कर दे, (ग) जहाँ वह हीन या अशक्त
१. भल्पं तु सूक्ष्मादाधेयाद्यदाधारस्य सूक्ष्मता।-अप्पय्यदी• कुवलया० ६७
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ६०१ होने पर भी कार्य सम्पादन कर दे तथा (घ) जहाँ वह कारणवश सशक्त होने पर भी कार्य नहीं करे। एक और रूप की कल्पना कर कहा गया है कि जहाँ कार्य का नाश हो जाने से न केवल कर्त्ता को कर्म-फल ही न मिले वरन् अनर्थ भी हो जाय, वहाँ भी विषम होता है । रुद्रट के द्वारा कल्पित वास्तव-वर्ग के विषम के उक्त रूपों पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस अलङ्कार की स्वरूप - कल्पना के मूल में पदार्थों के पारस्परिक सम्बन्ध की विरूपता की धारणा निहित है । अतिशयमूलक विषम की परिभाषा में रुद्रट ने कहा है कि जहाँ कार्य-कारण-सम्बन्ध वाले पदार्थों के गुणों या क्रियाओं में परस्पर विरोध दिखाया जाय, वहाँ विषम अलङ्कार होता है । अभिप्राय यह कि कारण के गुण से उसके कार्य के गुण का तथा कारण की क्रिया से उसके कार्य की क्रिया में विरोध की स्थिति में विषम अलङ्कार होगा । विषम के उक्त सभी रूपों में वस्तुओं के सम्बन्ध की अननुकूलता या विषमता की धारणा व्यक्त की गयी है । वस्तु सम्बन्ध के विरोध को दृष्टि में रखते हुए भोज ने विषम को विरोध का ही एक भेद माना है ।
मम्मट ने विषम के चार प्रकार स्वीकार किये हैं- (१) जहाँ सम्बन्धियों के वैधर्म्य के कारण उनका सम्बन्ध अनुपपन्न प्रतीत हो, (२) कर्त्ता को अपनी क्रिया का फल तो नहीं ही मिले, अनर्थ की भी प्राप्ति हो जाय, (३) कार्य के गुण से कारण के गुण का विरोध हो तथा (४) कार्य की क्रिया का कारण की "क्रिया से विरोध हो । 3 इन सभी रूपों में समता का विपर्यय रहने से सभी विषम के रूप हैं । स्पष्ट है कि रुद्रट की विषम-धारणा को ही मम्मट ने प्रायशः स्वीकार किया है । रुद्रट के द्वारा कल्पित असत् सम्बन्ध का भी खण्डन तथा वस्तुओं के सम्बन्ध का अनौचित्य मम्मट के विषम के प्रथम रूप से अभिन्न है । - अन्य के द्वारा वस्तुओं के सम्बन्ध की कल्पना की सम्भावना कर असत् वस्तु
१. द्रष्टव्य - रुद्रट, काव्यालङ्कार ७, ४७-५४
२. कार्यस्य कारणस्य च यत्र विरोधः परस्परं गुणयोः ।
तद्वत्क्रिययोरथवा सञ्जायेतेति तद्विषमम् ॥ - वही, ६, ४५
३. क्वचिद्यदति वैधर्म्यान्न श्लेषो घटनामियात् । कत्त: क्रियाफलावाप्तिर्नैवानर्थश्च यद्भवेत् ॥ गुणक्रियाभ्यां कार्यस्य कारणस्य गुणक्रिये क्रमेण च विरुद्धे यत्स एष विषमो मतः ॥
- मम्मट, काव्यप्रकाश १०, १९४
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६०२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण सम्बन्ध के खण्डन तथा वस्तुओं के सम्भव-सम्बन्ध के खण्डन में तात्त्विक भेद नहीं है, भेद केवल कथन के ढंग का है। अतः, दोनों को एक साथ इस रूप में परिभाषित करना ही अधिक समीचीन है कि 'वस्तुओं के सम्बन्ध की अनुपपत्ति का वर्णन विषम का एक रूप है।' मम्मट के विषम का दूसरा रूपा भी रुद्रट के वास्तव विषम के एक रूप से अभिन्न है। रुद्रट के अतिशयमूलक विषम की अवतारणा मम्मट ने अपने विषम के तीसरे और चौथे रूप में की है। अशक्त कर्ता का बड़ा काम भी कर देने, सशक्त कर्ता का छोटा काम भी न कर पाने आदि के वर्णन में रुद्रट ने जो विषम माना था, उसे मम्मट ने अलङ्कार के स्वतन्त्र प्रकार के रूप में स्वीकार नहीं किया। ____ रुय्यक ने विषम के तीन प्रकार स्वीकार किये-(१) कारण से विरूप कार्य की उत्पत्ति, (२) किसी कार्य के साधन में उद्यत कर्ता के कार्य से उद्दिष्ट फल की जगह अनर्थ की प्राप्ति तथा अननुरूप या विरूप वस्तुओं की सङ्घटना। अननुरूप वस्तुओं का संसर्ग विषम का प्रधान लक्षण माना गया है।' स्पष्टतः रुय्यक की धारणा मम्मट की विषम-धारणा से अभिन्न है ।। रुय्यक के विरूप कार्योत्पत्ति-रूप विषम-भेद में मम्मट के गुण-विरोध तथा क्रिया-विरोध भेदों का समाहार है। विश्वनाथ, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि. ने मम्मट, रुय्यक की विषम-धारणा को ही स्वीकार किया है। जगन्नाथ ने रुय्यक की तरह अननुरूप वस्तुओं के संसर्ग को विषम का प्रधान लक्षण मानः कर मम्मट, रुय्यक आदि के द्वारा कल्पित विषम के सभी रूपों को उसका भेद माना है। निष्कर्ष यह कि विरूप या अननुरूप वस्तुओं का सम्बन्ध विषम अलङ्कार है। इसके सम्भव रूप हैं—(क) विरूप वस्तुओं की सङ्घटना अथवा सङ्घटित वस्तुओं के सम्बन्ध का अनुचित या अनुपपन्न होना (ख) कारण से विपरीत धर्म वाले कार्य की उत्पत्ति तथा (ग) आरब्ध कार्य से इष्ट फलः की प्राप्ति न होकर उलटे अनर्थ की प्राप्ति ।
सम के विपर्यय-रूप को रुय्यक आदि ने विषम कहा है। अतः, विषम के
१. विरूपकार्यानर्थयोरुत्पत्तिविरूपसङ्घटना च विषमम् ।-रुय्यक, अलं० सू० ___४५-भेद के लिए सूत्र ४५ की वृत्ति द्रष्टव्य-पृ० १६१ २. द्रष्टव्य-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०-६१ तथा
___ अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द ८८, ६०. ३. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर पृ०७०४-५
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[६०३ विपरीतधर्मा सम अलङ्कार के स्वरूप की कल्पना में अननुरूप वस्तु-संसर्ग-रूप' विषम के विपरीत अनुरूप वस्तुओं का संसर्ग-वर्णन अपेक्षित माना गया है। सम का स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में निरूपण सर्वप्रथम मम्मट ने किया। उनके पूर्व विषम के स्वरूप की स्थापना हो चुकी थी। मम्मट ने अनुकूल वस्तुओं का योग सम का प्रधान स्वरूप माना। अनेक सत् का तथा अनेक असत् का परस्पर योग इसमें दिखाया जा सकता है।' सम-सम्बन्धी इस मूल धारणा को सभी परवर्ती आचार्यों ने स्वीकार किया है । जयदेव तथा अप्पय्य ने विषम के उपरिलिखित तीन स्वीकृत रूपों के विपर्यय-रूप में सम के भी तीन रूप माने हैं—(क) अनुरूप वस्तुओं की सङ्घटना, (ख) कारण से कार्य की अनुरूपता तथा (ग) आरब्ध कार्य के अनुकूल, विना किसी अनिष्ट के फल-प्राप्ति ।२ जिस प्रकार विषम के उक्त तीन रूप स्वीकार्य हैं, उसी प्रकार उनके विपर्यय-रूप सम के भी ये तोन भेद मान्य हैं। विरोध
विरोधाभास अलङ्कार के विवेचन-क्रम में हम यह देख चुके हैं कि कुछ आचार्यों ने उसे भी विरोध संज्ञा से अभिहित किया है; किन्तु विरोधाभास से स्वतन्त्र विरोध अलङ्कार की भी कल्पना की गयी है। विरोधाभास में वस्तुओं के विरोध का केवल आभास रहता है। आपाततः, विरुद्ध जान पड़ने वाली बातों में तात्त्विक अविरोध की धारणा निहित रहती है। विरोध में परस्पर' विरोधी पदार्थों के संसर्ग-वर्णन की धारणा व्यक्त की गयी है । सादृश्य की तरह विरोध भी अनेक अलङ्कारों का मूलभूत तत्त्व है। अतः, कुछ आचार्य विरोध-नामक स्वतन्त्र अलङ्कार की कल्पना उचित नहीं मानते । वे विरोध को अनेक अलङ्कारों को अनुप्राणित करने वाला तत्त्व ही मानते हैं। इस प्रकार कुछ आचार्यों ने विरोध का विरोधाभास के पर्याय के रूप में प्रयोग कर दिया है । विरोधाभास के पर्याय के रूप में प्रयुक्त विरोध प्रस्तुत सन्दर्भ में विवेच्य नहीं। विरुद्ध पदार्थों की घटना के रूप में जिस विरोध को स्वीकृति मिली है तथा जिसे कुछ आचार्य सभी विरोधमूलक अलङ्कार का समान
१. समं योग्यतया योगो यदि सम्भावितः क्वचित् । तथातत्सद्योगे, असद्योगे च । -मम्मट, काव्यप्रकाश १०, १६३ तथा वृत्ति
पृ० २८४० २. द्रष्टव्य-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द ६१, ६३
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६०४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
तत्त्व मानकर उसके स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में स्वीकार किये जाने का .विरोध करते हैं, उसीका ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन यहाँ अभीष्ट है।
रुद्रट के पूर्ववर्ती आचार्य भामह, दण्डी तथा उद्भट ने विरोध व्यपदेश से जिस अलङ्कार का निरूपण किया था उसके लिए विरोधाभास संज्ञा अधिक . अन्वर्थ होती। भामह ने विशेष चमत्कार उत्पन्न करने के लिए गुण, क्रिया आदि का विरुद्ध क्रिया से वर्णन विरोध का लक्षण माना था । वे विरोध को अतात्त्विक मानकर केवल उसका आभास ही अपेक्षित मानते थे। उद्भट ने इसी मत को स्वीकार किया था। दण्डी ने विरोध-लक्षण में विरुद्ध पदार्थों का • संसर्ग प्रदर्शन अपेक्षित माना था। इसी धारणा ने पीछे चलकर विरोधाभास से -स्वतन्त्र विरोध अलङ्कार को जन्म दिया। दण्डी ने विरुद्ध पदार्थों की सङ्घटना
केवल विशेष चमत्कार की सृष्टि के लिए विरोध में मानी थी। टीकाकारों ने 'विशेष-दर्शनार्यव' के आधार पर दण्डी के विरोध-लक्षण का अर्थ यह माना है कि वास्तव विरोध के न होने पर भी केवल विशेष दिखाने के लिए विरुद्धसे लगने वाले पदार्थों की सङ्घटना विरोध ( वस्तुतः विरोधाभास ) है। वामन ने भी विरोधाभास को ही विरोध कहा है।
रुद्रट ने सर्वप्रथम विरोधाभास या विरोधाभास-श्लेष से स्वतन्त्र विरोध अलङ्कार की कल्पना की और उसे अतिशयमूलक अलङ्कार माना । उनके अनुसार जहाँ परस्पर सर्वथा विरुद्ध पदार्थों की, एक ही समय एकत्र अवस्थिति दिखायी जाय, वहां विरोध अलङ्कार होता है।' दण्डी के विरोध से इसकी तुलना करने पर विरुद्ध पदार्थों के संसर्ग की धारणा दोनों में समान रूप से दीख पड़ती है। भेद इतना ही है कि दण्डी ने केवल विशेष-दर्शन के लिए विरुद्ध पदार्थों के संसर्ग की कल्पना अपेक्षित मानी थी। इस कथन में इस व्याख्या के लिए अवकाश था कि वे पदार्थगत विरोध को अतात्त्विक या विरोध का आभास मात्र मानते थे; पर रुद्रट ने विरोध में संसर्ग में आने वाले पदार्थों में तात्त्विक विरोध अपेक्षित माना है ।
भोज ने रुद्रट की विरोध-धारणा को स्वीकार कर अन्य आचार्यों के द्वारा स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में स्वीकृत असङ्गति, प्रत्यनीक, अधिक तथा
१. यस्मिन् द्रव्यादीनां परस्परं सर्वथा विरुद्धामाम् । एकत्रावस्थानं समकालं भवति स विरोधः ॥
-रुद्रट, काव्यालङ्कार ६, ३०
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[६०५.
विषम को विरोध का ही भेद मान लिया है।' मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि ने विरोध नाम से विरोधाभास का ही अस्तित्व स्वीकार किया है। वे विषम आदि में विरुद्ध पदार्थों की सङ्घटना का समावेश मानते हैं । अतः, विरोध-नामक स्वतन्त्र अलङ्कार उन्हें इष्ट नहीं। जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने भी विरोध का निरूपण नहीं किया है । पण्डितराज जगन्नाथ ने विरोध को अनेक अलङ्कारों को अनुप्राणित करने वाला तत्त्व मानकर स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में उसके अस्तित्व की कल्पना को असङ्गत बताया है। वस्तुतः विषम, असङ्गति आदि अनेक अलङ्कारों में विरोध का तत्त्व निहित रहता है। अतः, विरोध के पृथक् अस्तित्व की कल्पना आवश्यक नहीं। केवल रुद्रट, भोज तथा उनके कुछ अनुयायियों को विरोध का स्वतन्त्र अलङ्कारत्व मान्य है। परस्पर विरुद्ध पदार्थों की युगपत् एकत्र सङ्घटन विरोध का. लक्षण है।
असङ्गति
असङ्गति विरोधमूलक अलङ्कार है। यह कार्य-कारण-सम्बन्ध की असङ्गति पर अवलम्बित है । सामान्यतः, जहाँ कारण रहता है, वहीं उसके कार्य का जन्म होता है। दूसरे शब्दों में, कारण तथा उसका कार्य, दोनों समान-देशीय होते हैं; पर काव्य में जहाँ कारण से भिन्न देश में उसके कार्य की उत्पत्ति का चमत्कारपूर्ण वर्णन होता है, वहाँ असङ्गति अलङ्कार माना गया है। __ रुद्रट ने सर्वप्रथम असङ्गति अलङ्कार के स्वरूप का निरूपण किया। उन्होंने इसे अतिशयमूलक अलङ्कार माना है। असङ्गति को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा है कि जहां एक ही समय कारण के अन्यत्र तथा उसके कार्य के अन्यत्र होने का स्पष्ट वर्णन हो, वहाँ असङ्गति अलङ्कार होता है।'
१. विरोधस्तु पदार्थानां परस्परमसङ्गतिः । असङ्गतिः प्रत्यनीकमधिकं विषमश्च सः ॥
-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण ३, २४ २. विस्पष्टे समकालं कारणमन्यत्र कार्यमन्यत्र ।
यस्यामुपलभ्येते विज्ञ यासङ्गतिः सेयम् ॥-रुद्रट, काव्यालङ्कार ;४८
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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
असङ्गतिको स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं मानकर विरोध का एक : भेद मात्र स्वीकार किया है । हम इस पर तथ्य पर विचार कर चुके हैं कि . विरोध को स्वतन्त्र अलङ्कार मानकर विषम, असङ्गति आदि को उसका भेद मानना युक्तिसङ्गत नहीं । विरोध को विषम, असङ्गति आदि का समान • रूप से व्यावर्त्तक धर्म ही माना जाना चाहिए । अतः असङ्गति को स्वतन्त्र अलङ्कार मानने वाले रुद्रट आदि की धारणा ही अधिक समीचीन जान पड़ती है । रुद्रट ने विरोध को अनेक अलङ्कारों का प्राणाधायक तत्त्व मानकर अलङ्कारों का वर्गीकरण नहीं किया था । इसलिए वे असङ्गति, विरोध आदि को अतिशयमूलक अलङ्कार मानते थे । पीछे चलकर जब विरोधमूलक अलङ्कारों का एक स्वतन्त्र वर्ग कल्पित हुआ तब असङ्गति को विरोध मूलक - अलङ्कार वर्ग में परिगणित किया गया ।
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६०६ ]
मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि आचार्यों ने रुद्रट की तरह कारण और • कार्य का भिन्न देशत्व ही असङ्गति का लक्षण माना है ।'
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जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने असङ्गति को थोड़े परिष्कार के साथ परि“भाषित किया। उनके अनुसार जहाँ हेतु तथा कार्य का भिन्नदेशत्व विरुद्ध हो, वहाँ यदि उनके भिन्नदेशत्व का निबन्धन हो तो असङ्गति अलङ्कार होगा । यदि कार्यकारण का भिन्न देशगतत्व विरुद्ध न हो तो असङ्गति नहीं होगी । मेघ सजल हुए ( मेघ ने विष अर्थात् जल का पान किया ) और वियोगिनियाँ मूच्छित 'हुई' इस कथन में तो असङ्गति है, चूंकि विष पीने तथा मूच्छित होने; इस - कारण- कार्य का भिन्न देशत्व विरुद्ध है और उसका निबन्धन हुआ है; पर इस कथन में कि 'वह अपनी भ्र ूवल्ली को जितना वक्र बनाती है, उतना अधिक उसके कटाक्ष-वाण से मेरा हृदय घायल होता है' असङ्गति नहीं; क्योंकि धनुष को खींच कर टेढ़ा करने तथा हृदय के बिद्ध होने का ( कारण- कार्य का ) भिन्नदेशत्व विरुद्ध नहीं है, वही प्रसिद्ध है । निष्कर्ष यह कि जो कार्य-कारण एक देश में सामान्यतः रहते हैं, उनके भिन्न-देशस्व का रमणीय वर्णन असङ्गति अलङ्कार है । इसके अतिरिक्त असङ्गति के दो और रूपों की कल्पना जयदेव * तथा अप्पय्यदीक्षित ने की है - ( १ ) अन्यत्र करणीय कार्य को अन्यत्र कर देना
१. द्रष्टव्य, मम्मट, काव्यप्रकाश १०, १६१; रुय्यक, अलङ्कार सू० ४४; विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०,६०
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[६०७
तथा (२) अन्य कार्य को करने में संलग्न व्यक्ति का अन्य कार्य कर बैठना ।' इस प्रकार असङ्गति के उक्त तीन प्रकार जयदेव आदि ने माने हैं।
पण्डितराज जगन्नाथ ने पूर्ववर्ती आचार्यों की असङ्गति-धारणा को स्वीकार करने पर भी उसकी परिभाषा में परिष्कार किया है। उनके अनुसार 'हेतु और कार्य का ऐसा भिन्न-देशत्व-वर्णन जो आपाततः विरुद्ध जान पड़े, असङ्गति है ।२ वस्तुतः, भिन्न देश में कार्य-कारण के होने में जो विरोध असङ्गति में जान पड़ता है, वह प्रातिभासिक ही होता है। यदि यथार्थ विरोध हो तो वह काव्योक्ति नहीं, उन्मत्तोक्ति ही होगी। जगन्नाथ ने अप्पय्य दीक्षित की असङ्गति के द्वितीय रूप 'अन्यत्र करणीय का अन्यत्र कर देना' का इसी लक्षण में अन्तर्भाव माना है। यह उचित ही है। अन्य कार्य में संलग्न कर्ता के द्वारा अन्य कार्य कर देने को जगन्नाथ विभावना का एक भेद मानते हैं, असङ्गति नहीं।3 इस असङ्गति में तथा 'विरुद्ध कार्य-उत्पत्ति-रूप विभावना में थोड़ा भेद अवश्य है। कारण से विरुद्ध प्रकृति वाले कार्य की उत्पत्ति 'विभावना है किन्तु अन्य कार्य में संलग्न व्यक्ति के द्वारा इष्ट कार्य से भिन्न कार्य कर दिया जाना असङ्गति है। फिर भी दोनों के बीच भेद इतना कम है कि अप्पय्य की असङ्गति के इस रूप को विभावना का एक प्रकार मानने में कोई असङ्गति नहीं जान पड़ती। निष्कर्ष यह कि असङ्गति में कार्य और कारण का युगपत् भिन्न-भिन्न अधिकरण में सद्भाव दिखाया जाता है। यह 'भिन्न-देशत्व या वैयधिकरण्य विरुद्ध जान पड़ता है; पर वस्तुतः कारण-कार्य के भिन्न देशगत होने में जान पड़ने वाला वह विरोध प्रातिभासिक होता है, तात्त्विक नहीं। व्याधात
सर्वप्रथम रुद्रट ने व्याघात अलङ्कार की कल्पना की। इस अलङ्कार के नवीन नाम-मात्र की कल्पना रुद्रट ने की। उन्होंने उद्भट की विशेषोक्ति के
१. विरुद्ध भिन्नदेशत्वं कार्यहेत्वोरसङ्गतिः । तथा
अन्यत्र करणीयस्य ततोऽन्यत्र कृतिश्च सा। अन्यत्कतु प्रवृत्तस्य तद्विरुद्धकृतिस्तथा ॥
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयान्द ८५-८६ २. विरुद्धत्वेनापाततो भासमान हेतुकार्ययोवयधिकरण्यमसङ्गतिः ।
-जगन्नाथ, रसङ्गाधर, पृ० ६९८ ३. द्रष्टव्य-वही, पृ० ६६८-७०४
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६०८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
आधार पर ही व्याघात को परिभाषित कर दिया । सम्भवत: इसीलिए उन्होने विशेषोक्ति का निरूपण नहीं किया । रुद्रट के अनुसार जहाँ अन्य कारण से किसी तरह की बाधा के न होने पर कोई कारण कार्य का उत्पादन नहीं कर सके, वहाँ व्याघात अलङ्कार माना जाता है ।' कारण का यदि बाधक तत्त्व नहीं रहे तो उससे कार्य की उत्पत्ति अवश्य होनी चाहिए । लेकिन बाधक के नहीं रहने पर भी कारण से कार्य की उत्पत्ति नहीं होने के वर्णन में अलङ्कारत्व रहता है । रुद्रट इसे व्याघात कहेंगे, पर अन्य आचार्यों ने उसे विशेषोक्ति कहा है ।
मम्मट ने अबाधित कारण से भी कार्य की अनुत्पत्ति में विशेषोक्ति का सद्भाव मानकर उससे स्वतन्त्र व्याघात के स्वरूप की कल्पना की है । उनकी मान्यता है कि जहाँ किसी कर्त्ता के द्वारा जिस उपाय से कार्यसाधन किये जाने का निर्देश हो, उसी उपाय से ( उस कर्त्ता के विजिगीषु) अन्य व्यक्ति के द्वारा उस कार्य को अन्यथा करने का वर्णन व्याघात है । २ जिस उपाय से कोई कार्य - साधन करे, उसी उपाय से दूसरा उस कार्य को अन्यथा कर दे, इस वर्णन में अवश्य ही चमत्कार रहता है । अतः ऐसे स्थल में व्याघात अलङ्कार का सद्भाव माना जाता है। इसमें कर्त्ता की अभीष्ट सिद्धि के साधन से ही दूसरे के द्वारा उसके इष्ट का व्याघात या हनन होने से इसे व्याघात का जाता है ।
मम्मट के उत्तरवर्ती प्रायः सभी आचार्यों ने उनकी व्याघात-विषयकः मूल धारणा को स्वीकार किया है । रुय्यक ने मम्मट - कल्पित व्याघात- लक्षण को स्वीकार कर उसके एक रूप की कल्पना की । उन्होंने मम्मट के मतानुसार किसी उपाय से साधित कार्य का अन्य के द्वारा उसी उपाय से अन्यथाकरण व्याघात का लक्षण माना । व्याघात के दूसरे रूप की कल्पना करते हुए उन्होंने कहा कि किसी कार्य के सम्पादन के लिए सम्भावित कारण को जहाँ दूसरा ब्यक्ति उस कार्य के विरुद्ध कार्य का निष्पादक बता दे, वहाँ भी व्याघात होता है । 3
3.
१. अन्यरप्रतिहतमपि कारणमुत्पादनं न कार्यस्य ।
यस्मिन्नभिधीयेत व्याघातः स इति विज्ञेयः ॥ - रुद्रट, काव्यालं ० ६, ५२ २. यद्यथा साधितं केनाप्यपरेण तदन्यथा ।
तथैव यद्विधीयेत सव्याघात इति स्मृतः ॥ - मम्मट, काव्यप्र० १०,२०६ ३. यथासाधितस्य तथैवान्येनान्यथाकरणं व्याघातः । तथा
सौकर्येण कार्यविरुद्ध क्रिया च ॥ रुय्यक, अलं० सू० ५१-५२०
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ६०६ अभिप्राय यह है कि कर्ता जिस उपाय से कार्य-विशेष का साधन कर सकता हो, उस उपाय की सम्भावना कर कर्ता के अभिमत से विरुद्ध कार्यसाधन में उसी उपाय को सहायक बना लेने की कल्पना व्याघात का दूसरा रूप है। विश्वनाथ, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने व्याघात के इन दोनों रूपों को स्वीकार किया है।'
उक्त दोनों रूपों पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्याघात के दोनों रूपों में कोई महत्त्वपूर्ण व्यावर्त्तक धर्म नहीं। एक में किसी उपाय स साधित कार्य का उसी उपाय से अन्यथाकरण तथा दूसरे में अभीष्ट कार्यसाधन के लिए प्रयोग में लाये जाने वाले उपाय को उस कार्य से विरुद्ध कार्य का साधन प्रमाणित कर उस अभीष्ट कार्य का अन्यथाकरण वाञ्छनीय माना गया है। कर्ता के ही उपाय का (चाहे वह प्रयुक्त हो या उसके प्रयोग की सम्भावना हो) उसके अभीष्ट-हनन में उपयोग व्याघात की प्रधान प्रकृति है। सम्पादित या सम्पाद्यमान कार्य के उपाय का कार्य-हनन में उपयोग के आधार पर व्याघात के दो रूपों की कल्पना आवश्यक नहीं थी। उन्हें व्याघात के एक लक्षण में समाविष्ट कर उसके दो भेद मानना समीचीन होता। पण्डितराज जगन्नाथ ने इसीलिए एक व्यापक परिभाषा बनाकर व्याघात के दोनों रूपों का समाहार उसी में कर दिया। उनके अनुसार "जहाँ एक कर्ता जिस कारण से कोई कार्य निष्पन्न कर ले या किसी कार्य का निष्पादन करना चाहे; पर अन्य कर्ता उसी कारण से उसके विरुद्ध कार्य का सम्पादन कर अथवा सम्पादन करने की इच्छा से पूर्व कर्ता के कार्य का हनन कर दे वहाँ व्याघात अलङ्कार होता है ।"२
निष्कर्षतः, कर्ता जिस उपाय से कार्य-साधन कर ले उसी उपाय से दूसरे कर्ता के द्वारा उस कार्य का अन्यथाकरण व्याघात का एक भेद तथा जिस उपाय से वह अभीष्ट कार्य का सम्पादन करना चाहे, उस उपाय को उसके अभीष्ट कार्य के विरुद्ध कार्य का साधक बनाकर उसके उद्दिष्ट कार्य का अन्यथाकरण व्याघात का दूसरा भेद है। "शिव की दृष्टि से जले हुए काम १. द्रष्टव्य-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०,६७-६८ तथा
. -अप्पय्य दीक्षित कुवलयानन्द १०२-३ २. यत्र ह्य केन की येन कारणेन कार्य किञ्चिन्निष्पादितं निष्पिपादयिषतं
वा तदन्येन क; तेनैव कारणेन तद्विरुद्धकार्यस्य निष्पादनेन निष्पिपादयिषया वा व्याहन्यते स व्याघातः।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७२८
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६१० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
को युवती अपनी दृष्टि से ही जीवित कर रही है' यह कथन साधित कार्य ( काम के वध ) का उसी साधन ( दृष्टि ) से अन्यथाकरण का उदाहरण है । 'नायक परदेश जाने के समय नायिका को कोमलाङ्गी बताकर साथ जाने से रोकता है; पर उसीकी युक्ति से अपनी कोमलाङ्गिता के कारण वियोग का दुःख सहने में अपने को असमर्थ बताकर वह नायक के उद्देश्य के विरुद्ध कार्य का साधक उसके साधन को बता देती है ।' ऐसे स्थल में व्याघात का दूसरा भेद माना जायगा ।
विचित्र
मम्मट के समय तक विचित्र को स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में मान्यता नहीं मिली थी । रुय्यक ने सर्वप्रथम विचित्र के स्वरूप की कल्पना की और उसे स्वतन्त्र अलङ्कार माना। उनके अनुसार जहाँ कर्त्ता अपने अभीष्ट फल के विपरीत फल के लिए प्रयत्न करता हो, वहाँ विचित्र अलङ्कार होता है । ' उन्नति के लिए प्रभु के सामने झुकना आदि इसके उदाहरण दिये गये हैं । नमन किया उन्नति के विपरीत है; फिर भी उस विपरीत का उत्साह आश्चर्यजनक होने के कारण विचित्र अलङ्कार का उदाहरण है । ऐसे उदाहरणों पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्त्ता वस्तुतः अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिए ही यत्न करता है, पर वह यत्न आपाततः उसके उद्दिष्ट फल के विपरीत फल का यत्न-सा लगता है । उद्दिष्ट फल के विपरीतधर्मा कार्य का आरम्भ कर कर्त्ता उद्दिष्ट फल को प्राप्त करना चाहता है । वह विपरीत फल का यत्न इष्ट-सिद्धि में सहायक ही होता है । अतः उसके प्रयत्न में जान पड़ने वाला विरोध अतात्त्विक ही होता है । इष्ट फल के विपरीत प्रयास की विचित्रता के आधार पर इसका अन्वर्थ अभिधान कल्पित है ।
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विश्वनाथ, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने रुय्यक की धारणा के अनुरूप ही विचित्र को परिभाषित किया है। उन्होंने इष्ट फल के लिए विरुद्ध कार्य करना विचित्र का लक्षण माना है । अप्पय्य दीक्षित के विचित्र लक्षण के दो पाठ
१. स्वविपरीतफलनिष्पत्तये प्रयत्नो विचित्रम् । – रुय्यक, अलङ्कारसू० ४७ २. विचित्र यद्विरुद्धस्य कृतिरिष्टफलाय चेत् ।
- विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०,९३ तथा - विचित्र तत्प्रयत्नश्चेद्विपरीतफलेच्छाया ।
- अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द ९४
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[६११
उपलब्ध हैं। एक में फल ( इष्ट फल ) की इच्छा से विपरीत प्रयत्न अपेक्षित माना गया है तो दूसरे में विपरीत फल की इच्छा से कार्य करने पर बल दिया गया है। दोनों में शब्द-मात्र का भेद है; दोनों का तात्पर्य एक ही है। कर्ता जो फल चाहता है, उसके विपरीत कार्य में संलग्न दिखाया जाता है, यही विचित्र की प्रकृति है। विचित्र का यही लक्षण पण्डितराज जगन्नाथ को भी मान्य है।' इष्ट-सिद्धि के लिए इष्ट-विपरीत अर्थात् प्रतिकूल आचरण को विचित्र का लक्षण मानकर जगन्नाथ ने उसके शुद्ध तथा अन्यालङ्कार-सङ्कीर्ण भेदों के उदाहरण दिये हैं। उन्होंने इष्ट फल के अननुकूल आचरण में तो विचित्र माना ही है, अपनी इस परिभाषा की व्याख्या के क्रम में यह भी स्पष्ट किया है कि इष्ट फल तथा आचरण में अनुकूलाभास के स्थल में भी विचित्र अलङ्कार होता है।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि रुय्यक के उत्तरवर्ती प्रायः सभी समर्थ आचार्यों ने रुय्यक की विचित्र-विषयक उद्भावना का स्वागत किया । रुय्यक ने विचित्र के जिस स्वरूप की कल्पना की थी, वही स्वरूप सबको मान्य हुआ। इसलिए विचित्र की प्रकृति में एकरूपता बनी रही। कर्ता के इष्ट फल के प्रतिकूल कार्य करने के वर्णन में विचित्र अलङ्कार की सत्ता स्वीकार की गयी। अत्युक्ति
अत्युक्ति को स्वतन्त्र अलङ्कार मानने के सम्बन्ध में दो मत हैं। जयदेव के पूर्व अत्युक्ति अलङ्कार की कल्पना नहीं हुई थी। अति-उक्ति अतिशय-उक्ति का पर्याय है । प्राचीन आचार्यों की अतिशयोक्ति के व्यापक स्वरूप को दृष्टि में रखते हुए उससे स्वतन्त्र अत्युक्ति की कल्पना आवश्यक नहीं जान पड़ती । जयदेव तथा उनके अनुयायी अप्पय्य दीक्षित ने अद्भत तथा अतथ्य शूरता, उदारता आदि के वर्गन में अत्युक्ति अलङ्कार माना है। जगन्नाथ ने अतिशयोक्ति से स्वतन्त्र अत्युक्ति की सत्ता नहीं मानी। हिन्दी के कुछ रीति आचार्यों ने १. इष्टसिद्ध्यर्थमिष्टषिणा क्रियमाणमिष्टविपरीताचरणं विचित्रम् ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर पृ०७१८ २. द्रष्टव्य-वही, पृ० ७१८-१९ ३. अत्युक्तिरद्भुतातथ्यशौर्यौदार्यादिवर्णनम् ।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १६३
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६१२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
'कुवलयानन्द' के आधार पर अत्युक्ति का निरूपण किया है। हिन्दी के समर्थ समीक्षक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अत्युक्ति को अतिशयोक्ति का पर्याय मानकर उससे अभिन्न माना है। हम अत्युक्ति की स्वतन्त्र सत्ता की कल्पना के औचित्य की परीक्षा अपरत्र कर चुके हैं।
विकास की दृष्टि से अत्युक्ति के स्वरूप में एकरूपता बनी रही। अप्पय्य दीक्षित के परवर्ती किसी आचार्य ने उसके किसी नवीन रूप की कल्पना नहीं की। व्याजोक्ति
व्याजोक्ति की स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में कल्पना होने के पूर्व उसके स्वरूप पर अन्य अलङ्कार के सन्दर्भ में विचार हो चुका था। दण्डी ने लेश अलङ्कार की परिभाषा में कहा था कि जहाँ किसी तरह प्रकट हो गयी वस्तु को छिपाने का आयास किया जाता है, वहाँ लेश अलङ्कार होता है।' प्रकाशित वस्तु को किसी बहाने छिपाने के कौशल को दृष्टि में रखकर ही दण्डी ने हेतु तथा सूक्ष्म के साथ इस लेश को भी उत्तम भूषण कहा होगा। दण्डी का लेश ही पीछे चलकर व्याजोक्ति अभिधान से अभिहित हुआ। प्रकाशित वस्तु को छिपाने के लिए व्याज-कथन का सहारा लिया जाता है, बहाना बनाकर तथ्य को छिपाया जाता है; अतः दण्डी के लेश का अन्वर्थ अभिधान व्याजोक्ति माना गया। ____ वामन ने व्याजोक्ति संज्ञा का प्रयोग कर प्रस्तुत अलङ्कार की परिभाषा में कहा कि व्याज अर्थात् बहाने से कही हुई बात का सत्य के साथ सारूप्य व्याजोक्ति है ।२ अभिप्राय यह कि बहाना बनाकर सत्य को छिपा लेने तथा बहाने से कही हुई बात को सत्य-सी बताने का प्रयास व्याजोक्ति है। स्पष्टतः, दण्डी के लेश-लक्षण की ही तरह वामन के व्याजोक्ति-लक्षण में व्याज से तथ्य का निगहन अपेक्षित माना गया है। वामन ने व्याजोक्ति के दूसरे नाम मायोक्ति का भी निर्देश किया था; पर वह नाम बहुत प्रसिद्धि नहीं पा सका। व्याज, छल, माया आदि पर्यायवाची शब्द हैं। अत:, व्याजोक्ति की जगह मायोक्ति आदि संज्ञा का प्रयोग भी किया जा सकता है।
१. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्यादर्श, २,२६५ २. व्याजस्य सत्यसारूप्यं व्याजोक्तिः।-वामन, काव्यालङ्कार-सूत्र ४,३,२५
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[ ६१३
अलङ्कारों का स्वरूप-विकास मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि ने दण्डी-सम्मत लेश-लक्षण को ही ब्याजोक्ति-लक्षण स्वीकार किया है। प्रकट वस्तु का बहाने से गोपन उनके अनुसार व्याजोक्ति का लक्षण है ।'
जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि की व्याजोक्ति-धारणा मम्मट, रुय्यक आदि की धारणा से मूलतः अभिन्न है; किन्तु जयदेव आदि ने व्याजोक्ति का क्षेत्र कुछ सीमित कर दिया है। उन्हें व्याज से केवल आकार का गोपन व्याजोक्ति में इष्ट है ।२ पूर्ववर्ती आचार्यों के व्याजोक्ति-लक्षण में आकार का भी व्याज से गोपन लक्षित था। आकार-गोपन के भी उदाहरण मम्मट आदि ने दिये थे। सम्भव है, ऐसे उदाहरणों को देखकर ही जयदेव आदि ने केवल आकारगोपन तक व्याजोक्ति का लक्षण सीमित कर दिया हो। व्याजोक्ति के लक्षण में आकार-गोपन की जगह, प्रकट वस्तु-रूप के निगूहन का उल्लेख ही अधिक समीचीन जान पड़ता है ।
निष्कर्षतः, किसी प्रकार प्रकट हो गई वस्तु को किसी बहाने छिपाने का वर्णन व्याजोक्ति अलङ्कार माना जाता है । व्याजस्तुति तथा व्याजनिन्दा
स्तुति-पर्यवसायिनी निन्दा तथा निन्दा-पर्यवसायिनी स्तुति की सुन्दर उक्तिभङ्गी में व्याजस्तुति अलङ्कार की कल्पना की गयी है। किसी की प्रशंसा के लिए सीधे प्रशंसात्मक शब्दों का प्रयोग न कर ऐसे शब्दों का प्रयोग, जिनसे आपाततः उसकी निन्दा-सी लगे; पर परिणामतः उसकी प्रशंसा का बोध हो और इसके विपरीत किसी की निन्दा के अभीष्ट होने पर उसके लिए ऐसी शब्दावली का प्रयोग जिससे आपाततः तो उसकी प्रशंसा जान पड़े; पर परिणामतः उसकी निन्दा का बोध हो-व्याजस्तुति के ये दो रूप हैं। इस अलङ्कार में स्तुति के व्याज से निन्दा तथा निन्दा के व्याज से स्तुति की जाती है । अतः, व्याजस्तुति अन्वर्था संज्ञा है। १. व्याजोक्तिश्छद्मनोद्भिन्नवस्तुरूपनिगृहनम् ।
. -मम्मट, काव्यप्रकाश १०,१८४, उद्भिन्नवस्तुनिगृहनं व्याजोक्तिः।-रुय्यक, अलङ्कार-सूत्र ७६ तथाव्याजोक्तिर्गोपनं व्याजादुद्भिन्नस्यापि वस्तुनः।
-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०,१२०, २. व्याजोक्तिरन्यहेतूक्त्या यदाकारस्य गोपनम् ।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द १५३,
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६१४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
भामह ने व्याजस्तुति की परिभाषा में कहा था कि जहाँ बहुत महनीय गुण वाली वस्तु के साथ तुलना करते हुए अपेक्षाकृत कम गुणवान् होने के कारण वर्ण्य वस्तु की निन्दा की जाय, वहाँ व्याजस्तुति होती है। इस प्रकार वर्ण्य की निन्दा भी उसकी प्रशंसा ही व्यजित करती है क्योंकि उसकी निन्दा महनीय गुणवान् के साथ उसकी तुल्यता दिखाने के उद्देश्य से की जाती है । वामन ने भामह की व्याजस्तुति-धारणा को सूत्रबद्ध कर उसके स्पष्टीकरण में कहा है कि विशिष्ट व्यक्ति के समान कर्म न कर सकने के कारण प्रस्तुत की निन्दा तो की जाती है; पर विशिष्ट के साथ उसके साम्य-सम्पादन की इच्छा से निन्दा होने के कारण वह निन्दा वस्तुतः उसकी स्तुति के लिए ही की जाती है। स्पष्ट है कि भामह तथा वामन निन्दामुखेन की जाने वाली स्तुति में व्याजस्तुति अलङ्कार मानते थे।
आचार्य दण्डी ने भी निन्दामुखेन की जाने वाली स्तुति को ही व्याजस्तुति की प्रकृति माना है। उनके टीकाकार नसिंहदेव का मत है कि दण्डी के लक्षण-श्लोक में 'निन्दन्निव स्तौति' (निन्दा-सी करता हुआ जहाँ स्तुति करता है) का अर्थ प्रत्यय के व्यत्यय से 'स्तुवन्निव निन्दति' ( स्तुति-सी करता हुआ निन्दा करता है) भी माना जाना चाहिए। इस प्रकार मम्मट आदि के द्वारा स्वीकृत व्याजस्तुति के दो रूपों-निन्दामुखेन स्तुति तथा स्तुतिमुखेन निन्दा-को दृष्टि में रखकर दण्डी की परिभाषा में अव्याप्ति के मार्जन का
आयास किया गया है। वस्तुतः, भामह, दण्डी, उद्भट, वामन आदि व्याजस्तुति का एक ही रूप-निन्दामुखेन स्तुति—मानते थे। अतः, उनके लक्षण में अर्थ की खींच-तान उचित नहीं। दण्डी ने जितने उदाहरण दिये हैं, उन सब
१. दूराधिकगुणस्तोत्रव्यपदेशेन तुल्यताम् । किञ्चिद्विधित्सोर्या निन्दा व्याजस्तुतिरसौ यथा॥
-भामह, काव्यालङ्कार, ३,३१, २. सम्भाव्यविशिष्टकर्माकरणानिन्दा स्तोत्रार्था व्याजस्तुतिः । ___-वामन, काव्यालङ्कार-सूत्र ४,३,२४ द्रष्टव्य, उसकी वृत्ति पृ० २६६ ३. यदि निन्दनिव स्तौति व्याजस्तुतिरसौ स्मृता।।
-दण्डी, काव्यादर्श, २,३४३ ४. अत्र 'निन्दन्निवस्तीतीति कथनात् प्रत्ययादि व्यत्ययेन स्तुवन्निन्दतीति इत्यप्यर्थो बोध्यः तेन स्तुतिच्छलेन निन्दोक्तिरपि व्याजस्तुतिः।।
-वही, कृसुमप्रतिमा-टीका पृ० २५६,
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
में आपाततः निन्दा तथा तत्त्वतः स्तुति का बोध होता है। उद्भट भी शब्दतः निन्दा तथा अर्थतः स्तुति की प्रतीति में व्याजस्तुति मानते थे ।'
रुद्रट ने व्याजस्तुति को श्लेष का एक भेद माना है और उसे व्याजश्लेष कहा है। उन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों की निन्दामुखेन स्तुति की धारणा तो स्वीकार की ही, साथ ही स्तुतिमुखेन निन्दा को भी व्याज-श्लेष का एक रूप माना।२ निन्दा से स्तुति तथा स्तुति से निन्दा का बोध श्लिष्ट पद-प्रयोग से भी हो सकता है तथा अन्य शब्दशक्तियों द्वारा अश्लिष्ट पद-प्रयोग से भी। अतः, व्याजस्तुति के इन रूपों को श्लेष का भेद न मान कर व्याजस्तुति नामक स्वतन्त्र अलङ्कार मानना ही समीचीन होता।
भोज ने व्याजस्तुति को लेश में अन्तर्भूत मान लिया है। यह युक्तिसङ्गत नहीं। उनके लेश में दोष का गुणीभाव तथा गुण का दोषीभाव अपेक्षित माना गया है। व्याजस्तुति में दोष को गुण या गुण को दोष नहीं बताया जाता; ऊपर से निन्दा तथा स्तुति करने से क्रमशः स्तुति तथा निन्दा की व्यञ्जना करायी जाती है। अतः दोनों की प्रकृति परस्पर भिन्न है।। ___ मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि सभी भाचार्य स्तुतिपर्यवसायिनी निन्दा तथा निन्दापर्यवसायिनी स्तुति को व्याजस्तुति मानते हैं। ऊपर से जिसकी निन्दा या स्तुति की जाय, परिणामतः उसीकी स्तुति या निन्दा में क्रमशः उनका पर्यवसान हो, वहीं व्याजस्तुति मानी जानी चाहिए । जगन्नाथ ने वैयधिकरण्य में एक की निन्दा से दूसरे की स्तुति तथा एक की स्तुति से दूसरे की निन्दा के प्रतीत होने में व्याजस्तुति मानने वाने मत का खण्डन किया है।
व्याजस्तुति की प्रकृति के आधार पर ही जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने व्याजनिन्दा के स्वरूप की कल्पना की है। व्याजस्तुति में निन्दा से स्तुति तथा स्तुति से निन्दा की प्रतीति होती है, व्याजनिन्दा में निन्दा से निन्दा की
१. शब्दशक्तिस्वभावेन यत्र निन्दैव गम्यते । वस्तुतस्तु स्तुतिश्चेष्टा व्याजस्तुतिरसौ मता ॥
-उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह ५,२६ २. यस्मिन्निन्दा स्तुतितो निन्दाया वा स्तुतिः प्रतीयेत । अन्या विवक्षिताया व्याजश्लेषः स विज्ञेयः।
-रुद्रट, काव्यालङ्कार, १०,११ ३. द्रष्टव्य-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण ४,५६
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६१६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
ही प्रतीति होती है। एक निन्दा से दूसरी निन्दा के गम्य होने में व्याजनिन्दा मानी गयी है।' व्याजनिन्दा की सत्ता को बहुत कम आचार्यों की मान्यता प्राप्त हो सकी है।
गूढोक्ति, विवृतोक्ति तथा युक्ति ___ जयदेव के पूर्व गूढोक्ति की स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में कल्पना, नहीं हुई थी; पर यह निर्विवाद है कि उसके स्वरूप पर पहले से ही अन्य अलङ्कार के सन्दर्भ में विचार हो रहा था। जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि के अनुसार अन्य के उद्देश्य से अन्य को कहना गूढोक्ति है ।२ किसीको जो कुछ कहना हो, वह सीधे उसे नहीं कहकर अन्य को कहना तथा अन्य के कथन के माध्यम से जिसके प्रति विवक्षा हो, उसे सूचित करना गूढोक्ति है । अन्य को सूचित करने के लिए अन्य के प्रति कथन में आशय गूढ रहा करता है। इसलिए इस प्रकार की उक्ति को गूढ-उक्ति कहा गया है । रुद्रट ने अन्य के उद्देश्य से अन्य के प्रति कही हुई बात में अन्योक्ति अलङ्कार माना था। अन्योक्ति के स्वतन्त्र अस्तित्व की मान्यता के औचित्य पर विचार करते हुए हम यह देख चुके हैं कि उसका स्वरूप अप्रस्तुतप्रशंसा से कितना मिलता-जुलता है। गूढोक्ति के स्वरूप का भी समावेश अप्रस्तुतप्रशंसा में सम्भव है। अप्पय्य दीक्षित ने अप्रस्तुतप्रशंसा से गूढोक्ति का थोड़ा भेद निरूपित किया है। अप्रस्तुतप्रशंसा में कार्य, कारण, सामान्य, विशेष तथा तुल्य वस्तु में से एक के कथन से दूसरे की प्रतीति करायी जाती है। कार्य से कारण, कारण से कार्य आदि की प्रतीति गूढोक्ति में आवश्यक नहीं। यहां वक्ता किसी गूढ उद्देश्य से किसी को छलने के लिए अन्य को लक्ष्य कर अन्य व्यक्ति से कुछ कहता है। स्पष्टतः, अन्योक्ति तथा अप्रस्तुतप्रशंसा से गूढोक्ति का वैषम्य की अपेक्षा साम्य ही अधिक है। यदि सूक्ष्म भेद के आधार पर नवीन-नवीन अलङ्कारों की कल्पना के लोभ का संवरण किया जाय, तो गूढोक्ति के उदाहरण
१. निन्दाया निन्दया व्यक्तिर्व्याजनिन्देति गीयते।
-अप्यय्य दीक्षित, कुवलयानन्द,७२ २. गूढोक्तिरन्योद्देश्यं चेद्यदन्यं प्रति कथ्यते।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १५४ ३. नेयमप्रस्तुतप्रशंसा। कार्यकारणादिव्यङ ग्यत्वाभावात् ।
-वही, वृत्ति, पृ० १७०
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ६१७
के रूप में प्रस्तुत उक्ति का समावेश प्राचीन आचार्यों की अप्रस्तुतप्रशंसा के क्षेत्र में ही माना जा सकता है।
विवृतोक्ति भी जयदेव की प्रथम कल्पना थी। इसमें गूढोक्ति की ही एक विशेष स्थिति की कल्पना की गयी है। गूढोक्ति में वक्ता किसी गूढ अभिप्राय से अन्य को लक्ष्य कर अन्य के प्रति कुछ कहता है। यदि वक्ता के उस कथन के पीछे छिपे हुए उद्देश्य को कवि प्रकट कर देता है तो वहाँ विवृतोक्ति अलङ्कार होता है । इसमें एक तो गूढोक्ति की तरह वक्ता के अन्य के उद्देश्य से अन्य के प्रति कथन का निबन्धन होता है; दूसरे, कवि वक्ता के उस कथन के गूढ आशय का भी उद्घाटन कर देता है। अप्पय्य दीक्षित ने एक ही कथन की दो स्थितियों का उदाहरण उपरिलिखित दो अलङ्कारों के लिए प्रस्तुत किया है । परकीया के साथ रङ्गरभस में लीन नायक का मित्र नायिका के पति को आता देख, उसे सूचित करने के उद्देश्य से वृषभ को सम्बोधित कर कहता है कि 'ऐ वृषभ ! क्षेत्र-रक्षक आ रहा है, अब तू दूर भाग जा।' यह कथन गूढोक्ति का उदाहरण है । जब कवि यह स्पष्ट कर देता है कि नायक को सूचना देने के लिए वक्ता यह कह रहा है कि 'ऐ वृषभ ! दूसरे के क्षेत्र से भाग जाओ, तब यह कथन विवृतोक्ति का उदाहरण बन जाता है।' अतः विवृतोक्ति को गूढोक्ति ( अन्योक्ति या अप्रस्तुतप्रशंसा ) की ही एक स्थिति मानकर उसका विशिष्ट भेद माना जा सकता है।
युक्ति के स्वरूप की कल्पना जयदेव ने प्राचीन आचार्यों की व्याजोक्ति के आधार पर की है। व्याजोक्ति में किसी बहाने प्रकट हो गये वस्तु-रूप को 'छिपाने का वर्णन प्राचीन आचार्यों को अभीष्ट था। जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने व्याजोक्ति का क्षेत्र केवल आकार-गोपन तक सीमित कर दिया तथा आकार के अतिरिक्त अन्य वस्तु के स्वरूप को छल से छिपाने के वर्णन में युक्ति अलङ्कार का सद्भाव माना । इस प्रकार काम-जन्य लोमहर्ष आदि के प्रकट हो जाने पर 'शीतल वायु के स्पर्श' आदि का बहाना बनाकर उसे छिपाने के प्रयास में तो वे व्याजोक्ति मानेगे; पर अन्य वस्तु-रूप को छिपाने के आयास का वर्णन उनके अनुसार युक्ति अलङ्कार होगा । नायिका अपने प्रिय का चित्र बना रही थी, किसी को आते देख उसने उस चित्र में पुष्प-चाप बना दिया। अपने प्रिय के
१. विवृतोक्तिः श्लिष्टगुप्तं कविनाविष्कृतं यदि ।
वृषापेहि परक्षेत्रादिति वक्ति ससूचनम् । -कुवलयानन्द, १५५
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६१८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
स्वरूप को छिपाने के लिए काम का चित्र बनाने का बहाना युक्ति का उदाहरण हुआ।' वस्तुतः, युक्ति व्याजोक्ति की ही विशेष स्थिति है। भेद केवल यह है कि व्याजोक्ति में बहाना वाणी से कहा जाता है, युक्ति में चेष्टा, कार्य आदि. से भी व्यक्त किया जा सकता है। पर्यायोक्ति या पर्यायोक्त
पर्याय अलङ्कार के विकास-क्रम के परीक्षण-क्रम में हम यह देख चुके हैं कि पर्यायोक्ति तथा पर्याय संज्ञाओं का प्रयोग कुछ आचार्यों ने एक ही अलङ्कार के लिए किया था; पर धीरे-धीरे पर्याय तथा पर्यायोक्ति या पर्यायोक्त का अलगअलग अस्तित्व मान लिया गया। दोनों के स्वरूप भी एक दूसरे से सर्वथा अलग हो गये। पर्याय क्रम का वाचक स्वीकृत हुआ और क्रम से एक का अनेक आश्रय में सद्भाव अथवा अनेक का एक आश्रय में सद्भाव दिखाना उसका स्वरूप माना गया। पर्यायोक्ति का सम्बन्ध उक्ति की विशेष भङ्गी से माना गया।
भामह ने पर्यायोक्त को परिभाषित करते हुए कहा था कि जहाँ अन्य प्रकार से (कथन के सीधे ढंग को छोड़कर प्रकारान्तर से) अभिधान अर्थात् वस्तु का कथन हो, वहां पर्यायोक्त अलङ्कार होता है ।२ वस्तु का अभिधा से कथन न होकर अन्य प्रकार से कथन, उनके अनुसार पर्याय है। दण्डी की पर्यायोक्त-धारणा भामह की धारणा से मिलती-जुलती ही है। उन्होंने कहा है कि अभीष्ट अर्थ को न कहकर साक्षात् उसी अर्थ की सिद्धि के लिए प्रकारान्तर से कथन पर्यायोक्त है। उद्भट ने भामह तथा दण्डी की पर्यायोक्तधारणा को अधिक स्पष्टता के साथ परिभाषित किया। उनके अनुसार वाक्यवृत्ति (योग्यता, आकांक्षा, सन्निधि आदि से वस्तुओं के संसर्ग-बोध की वृत्ति) तथा वाचक-वृत्ति ( अर्थात् अभिधा शक्ति ) के विना जहाँ अवगम व्यापार से अर्थात् व्यञ्जना-व्यापार से वस्तु का अभिधान किया जाय, उस प्रकारान्तर से कथन में पर्यायोक्त अलङ्कार होता है । १. युक्तिः परातिसन्धानं क्रियया मर्मगुप्तये ।
त्वामालिखन्ती दृष्ट्वान्यं धनुः पौष्पं करेऽलिखत् ।-कुवलयानन्द, १५६ २. पर्यायोक्त यदन्येन प्रकारेणाभिधीयते ।-भामह, काव्यालङ्कार ३,८ ३. अर्थमिष्टमनाख्याय साक्षात् तस्यैव सिद्धये । __ यत् प्रकारान्तराख्यानं पर्यायोक्त तदिष्यते ।।-दण्डी,काव्यादर्श,२,२६५ ४. पर्यायोक्त यदन्येन प्रकारेणाभिधीयते।।
वाच्यवाचकवृत्तिभ्यां शून्येनावगमात्मना ।।-काव्यालं. सारसंग्रह ४,११
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ६१६.
रुद्रट ने पर्याय के दो रूपों की कल्पना की। एक रूप तो पीछे चल कर पर्याय का रूप स्वीकृत हुआ तथा दूसरे रूप को परवर्ती आचार्यों ने एर्यायोक्त के रूप में स्वीकार किया। रुद्रट के पर्याय का जो रूप परवर्ती आचार्यों के द्वारा पर्यायोक्त के रूप में स्वीकृत हुआ, उसकी कल्पना भामह, दण्डी तथा उद्भट की पर्यायोक्त-धारणा के आधार पर की गयी है। रुद्रट की मान्यता है कि जो वस्तु विवक्षित वस्तु के प्रतिपादन में समर्थ हो उसका कथन पर्याय अलङ्कार है; पर उस कथित या वाच्य वस्तु से प्रतिपाद्य वस्तु को असदृश तथा जन्यजनक-सम्बन्ध से रहित होना चाहिए।' समासोक्ति, अप्रस्तुतप्रशंसा ( रुद्रट की अन्योक्ति ) आदि में कथित तथा उससे प्रतीयमान अर्थ सदृश होते हैं, पर्याय या पर्यायोक्त में जिस अर्थ का बोध कराना हो, उसके बोध कराने में समर्थ; किन्तु उसके असदृश अर्थ का कथन होता है। भाव, सूक्ष्म आदि में बोध कराने वाले अर्थ तथा बोधगम्य होने वाले अर्थ में जन्यजनक-भाव-सम्बन्ध रहता है, पर्याय में कथित तथा प्रतीयमान अर्थ में ऐसा सम्बन्ध नहीं रहता। विवक्षित अर्थ को अभिधा से न कहकर प्रकारान्तर से उसका अभिधान रुद्रट के अनुसार भी पर्याय-लक्षण का सार है।
मम्मट ने उद्भट की तरह वाच्य-वाचक के विना व्यञ्जना-व्यापार से वस्तु-प्रतिपादन पर्यायोक्त का लक्षण माना।२ इसमें व्यङ्ग्य एवं वाच्य अर्थ अभिन्न होता है । वाच्य तथा व्यङग्य अन्ततः एक ही अर्थ में पर्यवसित होते हैं, भेद केवल उक्ति और प्रतीति के प्रकार में रहता है। इस तथ्य को निर्विकल्पक तथा सविकल्पक ज्ञान के उदाहरण से स्पष्ट किया गया है । जिस प्रकार दोनों का विषय एक होने पर भी उनकी प्रतीति के प्रकार में भेद होने से दोनों को भिन्न माना जाता है, उसी प्रकार यहाँ वाच्य एवं व्यङग्य अर्थ के एक होने पर भी उसकी प्रतीति के प्रकार में वृत्ति-भेद के कारण भेद होता है । रुय्यक के अनुसार गम्य अर्थात् व्यङग्य का विशेष भङ्गी से अभिधान (शब्दतः कथन) पर्यायोक्त है। इसमें जो अर्थ गम्य होता है, उसी का अभिधान भी होता है। विश्वनाथ ने रुय्यक के पर्यायोक्त-लक्षण को ही स्वीकार किया
१. द्रष्टव्य-रुद्रट, काव्यालङ्कार ७,४२ २. पर्यायोक्त विना वाच्यवाचकत्वेन यद्वचः ।
-मम्मट, काव्यप्रकाश १०,१७५. ३. गम्यस्यापि भङ ग्यन्तेरणाभिधानं पर्यायोक्तम् ।
-रुय्यक, अलङ्कार-सूत्र ३६.
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.६२० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
है। जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने रुय्यक की तरह गम्य अर्थ का भङ ग्यन्तर से अभिधान पर्यायोक्त का लक्षण माना है।'
पण्डितराज जगन्नाथ ने भामह, दण्डी आदि की तरह विवक्षित अर्थ का भङ ग्यन्तर से प्रतिपादन पर्यायोक्त का लक्षण माना है ।२ निष्कर्षतः, विवक्षित 'अर्थ का अभिधा से कथन न कर भङ ग्यन्तर से अभिधान या व्यङग्य अर्थ का अभिधा से प्रतिपादन पर्यायोक्त का लक्षण माना गया । अभिधा वृत्ति को छोड़ भङ ग्यन्तर से कथन तथा व्यङग्य के अभिधान की धारणा मिलती-जुलती ही है। भामह से लेकर जगन्नाथ तक प्रायः एक-सी ही मान्यता पर्यायोक्त के सम्बन्ध में व्यक्त की गयी है।
प्रश्न यह है कि व्यङग्य का अभिधान या शब्दतः कथन सम्भव कैसे होगा? व्यङ ग्य-अर्थ की प्रतीति तो वाच्य-अर्थ के बोध के बाद ( वच्यार्थ के अतिरिक्त) होती है। जगन्नाथ ने इसके उत्तर में कहा है कि एक ही अर्थ 'प्रकार-भेद से वाच्य भी हो सकता है और व्यङ,ग्य भी। पर्यायोक्त में यह कथन की भङ्गी का वैशिष्ट्य है कि जो अर्थ व्यङग्य हो, उसी का प्रकारान्तर से अभिधान कर दिया जाय । अतः, पर्यायोक्त का लक्षण है अभिधा-व्यापार को छोड़ अवगम-व्यापार से अभीष्ट अर्थ का प्रतिपादन अथवा व्यङ ग्य-अर्थ का अभिधान या शब्दतः कथन । प्रस्तुताङ कुर
प्रस्तुताङ्क र अलङ्कार की कल्पना जयदेव के पूर्व नहीं हुई थी। जयदेव तथा उनके मतानुयायी अप्पय्य दीक्षित को छोड़ अन्य आचार्यों ने इस अलङ्कार का अस्तित्व स्वीकार भी नहीं किया है। इसके स्वरूप की कल्पना के बाद जगन्नाथ आदि आचार्यों ने अलङ्कार-निरूपण किया है; पर, उन्होंने प्रस्तुताङ कुर का निरूपण नहीं किया। अप्पय्य दीक्षित के अनुयायी हिन्दी के रीति-आचार्यों ने उन्हीं के मतानुसार प्रस्तुताङ कुर को परिभाषित किया है। फलतः, प्रस्तुताङ कुर के स्वरूप में एकरूपता ही रही है। - अप्पय्य दीक्षित ने प्रस्तुत से अन्य प्रस्तुत के गम्य होने में प्रस्तुताङ कुर अलङ्कार माना है। 3 पीछे इसी लक्षण का हिन्दी में रूपान्तर होता रहा। १. पर्यायोक्त तु गम्यस्य वचो भङ ग्यन्तराश्रयम् । कुवलयानन्द, ६८ २. विवक्षितस्यार्थस्य भङ ग्यन्तरेण प्रतिपादनं पर्यायोक्तम् ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर पृ० ६४९-५० ३. प्रस्तुतेन प्रस्तुतस्य द्योतने प्रस्तुताङ कुरः।-अप्पय्य दी० कुवलयानन्द,६७
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ६२१: प्रस्तुताङकुर की स्थिति अप्रस्तुतप्रशंसा तथा समासोक्ति के बीच की है । अप्रस्तुतप्रशंसा में अप्रस्तुत के कथन से प्रस्तुत की प्रतीति होती है । समासोक्ति में प्रस्तुत के वर्णन से अप्रस्तुत की व्यञ्जना होती है । प्रस्तुताङ कुर में प्रस्तुत के वर्णन से दूसरे प्रस्तुत की ही प्रतीति होती है । इसमें कथित तथा उससे गम्य; दोनों अर्थ प्रस्तुत ही होते हैं । स्पष्ट है कि इसकी प्रकृति अप्रस्तुतप्रशंसा तथा समासोक्ति से बहुत कुछ मिलती-जुलती है । एक अर्थ के वर्णन से अन्य अर्थ की प्रतीति, उक्त तीनों की प्रकृति है ।
काव्य में एक वर्णित वस्तु तथा उससे व्यञ्जित अन्य वस्तु में से कौन प्रस्तुत है तथा कौन अप्रस्तुत, यह निर्णय भी आसान नहीं । काव्य में कोई अर्थ न तो सार्वत्रिक रूप से प्रस्तुत कहा जा सकता है न अप्रस्तुत । यहाँ तक कि कवि - परम्परा में जो वस्तुएँ अप्रस्तुत के रूप में रूढ हो गयी हैं वे भी प्रस्तुत हो सकती हैं । कमल बहुधा आँख, हाथ, पाँव, मुख आदि प्रस्तुत वस्तुओं के वर्णन क्रम में अप्रस्तुत के रूप में वर्णित होता है; पर जहाँ कमल: के ही सौन्दर्य पर मुग्ध होकर कवि उसका वर्णन करने लगे, वहाँ वह कमल प्रस्तुत हो जायगा । कवि चाहे तो कमल के तरल सौन्दर्य की तुलना रमणी की सुन्दर आँखों से भी कर सकता है । ऐसी स्थिति में आँख ही अप्रस्तुत हो जायगी । अतः, वस्तु के प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत होने का निर्णय प्रसङ्ग आदि को देखते हुए कवि की विवक्षा के अनुमान के आधार पर ही किया जा सकता है । अस्तु ! यदि शब्दतः वर्णित तथा उससे गम्यमान; दोनों अर्थ कवि- विक्ष प्रस्तुत हों तो अप्पय्य दीक्षित आदि के अनुसार प्रस्तुताङ कुर अलङ्कार होगा । ललित
ललित अलङ्कार की कल्पना भी जयदेव के पूर्व नहीं हुई थी । इसकी रूप-कल्पना का आधार निदर्शना आदि अलङ्कार का स्वरूप रहा है । अप्पय्य दीक्षित के अनुसार जहाँ प्रस्तुत धर्मी का जो वृत्तान्त वर्णनीय हो, उसका वर्णन न कर कवि उसके प्रतिबिम्ब-रूप किसी अप्रस्तुत वृत्तान्त का वर्णन करे, वहाँ ललित अलङ्कार होता है । अभिप्राय यह कि प्रस्तुत के प्रतिबिम्ब का वर्णन कर उस प्रस्तुत का बोध कराना ललित अलङ्कार है । यह निदर्शना से बहुत मिलता-जुलता अलङ्कार है ।
१. वर्ण्य स्याद्वयं वृत्तान्तप्रतिबिम्बस्य वर्णनम् । ललितम्"
***Il
- अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द १२८
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६२२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
पण्डितराज जगन्नाथ ने ललित अलङ्कार का निरूपण करते हुए कुछ परिष्कृत रूप से उसे परिभाषित किया है। उनके अनुसार प्रकृत धर्मी के प्रकृत व्यवहार का उल्लेख न कर निरूप्यमाण अप्रकृत के व्यवहार से उसका सम्बन्ध निरूपित करना ललित है।' स्पष्टतः, जगन्नाथ की ललित-धारणा अप्पय्य दीक्षित की धारणा से तत्त्वतः अभिन्न है। उन्होंने अप्पय्य की परिभाषा में शब्द-मात्र का संशोधन किया है। वे ललित के निदर्शना के साथ निकट सम्बन्ध के तथ्य से परिचित थे।२ निष्कर्ष यह कि प्रस्तुत के प्रतिबिम्ब अर्थात् उसके समान व्यवहार वाले अन्य का वर्णन कर प्रस्तुत का बोध कराना ललित का लक्षण माना गया है।
रसवत् आदि
भामह के समय से ही रसवत् आदि अलङ्कारों का विवेचन होता रहा है। रस-सम्प्रदाय के आचार्यों ने भी रस आदि को काव्य की आत्मा मान कर रस आदि के गौण हो जाने के स्थल पर रसवदादि अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार किया है। रसादि ध्वनि को काव्य की आत्मा मानने वालों ने रस के 'साथ भाव, रसाभास, भावाभास, भावशान्ति, भावोदय, भावसन्धि तथा भावशबलता को रसादि कहकर प्रतिपादित किया है । इस प्रकार रसादि से तात्पर्य रस, भाव, रस-भाव के आभास, भावोदय, भावसन्धि, भावशबलता आदि का माना जाता है । अलङ्कार के क्षेत्र में भी रसवदादि अलङ्कार में रसवत् के साथ भाव, रस एवं भाव के आभास, भावोदय, भावसन्धि, भावशबलता पर आश्रित अलङ्कार परिगणित हैं । अनेक आचार्यों ने रसाश्रित अलङ्कार को रसवत्, भावाश्रित अलङ्कार को प्रेय, रसाभास तथा भावाभास पर अवलम्बित अलङ्कार को ऊर्जस्वी, रस तथा भाव के प्रशम (रस-भाव-शान्ति) पर आधृत अलङ्कार को समाहित माना है। प्रेय, ऊर्जस्वी तथा समाहित की धारणा भावादि से निरपेक्ष रूप में भी विकसित हुई है; पर अनेक आचार्यों के द्वारा रसवदादि अलङ्कार के प्रसङ्ग में उन अलङ्कारों का निरूपण होने के कारण हम रसवत् के साथ ही प्रेय, ऊर्जस्वी तथा समाहित के भी ऐतिहासिक विकास का अध्ययन करेंगे।
१. प्रकृतमिणि प्रकृतव्यवहारानुल्लेखेन निरूप्यमाणोऽप्रकृतव्यवहारसम्बन्धी ललितालङ्कारः।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७६२ २. द्रष्टव्य-वही, पृ. ७६२-६३,
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ६२३ रसवत् अलङ्कार में भामह ने शृङ्गार आदि रसों का स्पष्ट दर्शन अपेक्षित माना था।' अभिप्राय यह कि रसमय वाक्य को वे रसवत् अलङ्कार का उदाहरण मानेंगे। दण्डी ने भी भामह के मत को स्वीकार कर रसपेशल वाक्य को रसवत् अलङ्कार माना।२ उद्भट ने भामह के रसवत्-लक्षण को ही अधिक स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया। उन्होंने रसोत्पत्ति की प्रक्रिया का भी निरूपण रसवत् अलङ्कार के सन्दर्भ में कर दिया है । इस प्रकार भामह, दण्डी तथा उद्भट रसवत् शब्द की व्युत्पत्ति रस शब्द से मतुप् प्रत्यय के योग से मानते थे। उनके अनुसार रसवत् अलङ्कार का अर्थ था रसयुक्त या रसमय अलङ्कार ।
जब रस या रसध्वनि की प्रतिष्ठा काव्य की आत्मा के रूप में हुई, तब रस-मात्र को अलङ्कार मानने में अनुपपत्ति जान पड़ी। काव्य का वह प्रधान तत्त्व अलङ्कार-विशेष के रूप में सीमित नहीं किया जा सकता था। अतः, आनन्दवर्धन ने रसवत् अलङ्कार के क्षेत्र की व्यवस्था करते हुए कहा कि जहाँ किसी अन्य अर्थ की प्रधानता हो और रस उसका अङ्ग हो, वहाँ रसवत् अलङ्कार होता है।४ अभिप्राय यह कि रस अप्रधान हो जाने पर अलङ्कारमात्र में पर्यवसित हो जाता है और रसवत् अलङ्कार कहलाता है।
कुन्तक ने रसमय वाक्य में रसवत् अलङ्कार मानने वाले मत का खण्डन किया। वे भामह आदि के रसवत् अलङ्कार को (रसमय कथन को) अलङ्कार नहीं मानते। ऐसे वाक्य उनके अनुसार अलङ्कार्य होते हैं, अलङ्कार नहीं। उनकी युक्ति है कि रस अलङ्कार्य है; अतः अलङ्कार उससे भिन्न होना चाहिए। यदि भामह आदि रस को ही अलङ्कार मानते थे तो उदाहरण में रस से भिन्न कुछ अलङ्कार्य दिखाया जाना चाहिए था, जिसे रस अलङ कृत करे, पर भामह, उद्भट आदि के रसवत्-उदाहरण में रस से भिन्न कुछ और अलङ्कार्य नहीं दिखाई पड़ता । अतः, भामह आदि का रसवत्-लक्षण अमान्य है। रसपेशल या रससंश्रय को भी अलङ्कार मानना उचित नहीं (जैसा कि
१. रसवद् दर्शितस्पष्टशृङ्गारादिरसं यथा ।—भामह, काव्यालङ्कार ३,६ २. .........."रसवद्रसपेशलम् ।।-दण्डी, काव्यादर्श, २,२७५ ३. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह, ४,४-५ ४. रसादिरूपव्यङ ग्यस्य गुणीभावे रसवदलङ्कारविषयः ..........! -आनन्दवर्धन, ध्वन्यालोक, पृ० ४६७ उसके द्वितीय उद्योत की
२७वीं कारिका भी द्रष्टव्य
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६२४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
दण्डी आदि ने माना है । कुन्तक ने आनन्दवर्धन के रसवत् - लक्षण का भी खण्डन करने का प्रयास किया है। उनका तर्क 'रसवत् अलङ्कार' शब्द के व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ पर आधृत है । उनकी मान्यता है कि षष्ठी समास से रसवान का अलङ्कार रसवत् को मान सकते हैं । विशेषण या कर्मधारय समास से रसवत् अलङ्कार का अर्थ होता है रसयुक्त अलङ्कार । अतः, रसवत् काव्य में प्रयुक्त सभी अलङ्कार रसवत् अलङ्कार कहे जा सकते हैं । उन्होंने रसवत्
सभी अलङ्कारों का प्राण माना है और उसके सम्बन्ध में यह मान्यता प्रकट की है कि जो अलङ्कार रस-तत्त्व के विधान से रस के समान ही आह्लादकारी हो, वह रस के तुल्य अलङ्कार रसवत् होता है ।' स्पष्ट है कि कुन्तक रसवत् अलङ्कार को विशिष्ट स्वरूप नहीं दे पाये । उनके मतानुसार किसी भी अलङ्कार को रसतुल्य आनन्ददायक मानकर रसवत् कहा जा सकता है । मम्मट ने रसवत् - नामक विशिष्ट अलङ्कार की सत्ता स्वीकार नहीं कर, ध्वनि-निरूपण के प्रसङ्ग में, वस्तु तथा अलङ्कार की प्रधानता के स्थल में वस्तु, ध्वनि तथा अलङ्कार ध्वनि का सद्भाव स्वीकार किया है । कोई भी अलङ्कार प्रधान होकर ध्वनित हो सकता है । कुन्तक ऐसे ही सरस अलङ्कार को रसवत् मानते थे ।
यक ने रस के निबन्धन में रसवत् अलङ्कार माना है । इस प्रकार वे भामह आदि की तरह सरस वाक्य में रसवत् अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार करते हैं । अलङ्कारवादी होने के कारण रस जैसे तत्त्व को भी विशेष अलङ्कार के रूप में स्वीकार कर लेना रुय्यक के लिए अस्वाभाविक नहीं था ।
विश्वनाथ ने रस के गौण हो जाने में रसवत् अलङ्कार माना । उनकी धारणा आनन्दवर्धन की रसवत्-धारणा से अभिन्न है । अप्पय्य दीक्षित ने विश्वनाथ की ही तरह रस का अन्य वस्तु का अङ्ग हो जाना रसवत् का लक्षण माना है । मम्मट की तरह जगन्नाथ ने रसवत् का अलङ्कारत्व ही
*
१. द्रष्टव्य – कुन्तक, वक्रोक्तिजीवित, पृ० ३३८-६५
२. रस...........निबन्धे रसवत्" ...। – रुय्यक, अलङ्कार सूत्र, ८२
३. रसभावौ तदाभासौ भावस्य प्रशमस्तथा । गुणीभूतत्वमायान्ति यदालङ, कृतयस्तदा ॥ रसवत् प्रय ऊर्जस्वि समाहितमिति क्रमात् ॥
— विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, १२४
४. द्रष्टव्य – अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, पृ० १८३, ८४
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ६२५ स्वीकार नहीं किया है। वे रसवत् को विशिष्ट अलङ्कार मानना आवश्यक नहीं समझते। जहाँ रस की प्रधानता होगी, वहाँ रसध्वनि होगी। जहाँ रस अप्रधान हो जायगा, वहाँ वस्तु या किसी भी अलङ्कार की ध्वनि हो सकती है।
अलङ्कारवादी आचार्यों ने रसमय वाक्य को रसवत् अलङ्कार मानकर रस को विशेष अलङ्कार में सीमित कर दिया है। आनन्दवर्धन, विश्वनाथ मादि आचार्यों ने रस की अप्रधानता में रसवत् अलङ्कार माना है। यही लक्षण अप्पय्य दीक्षित को भी मान्य है। रस-मात्र को अलङ्कार मानना उचित नहीं। अत:, भामह, दण्डी, उद्भट तथा रुय्यक की रसवत्-परिभाषाओं की अपेक्षा आनन्दवर्धन, विश्वनाथ तथा अप्पय्य दीक्षित की परिभाषाएँ ही ग्राह्य हैं। रस के गौण हो जाने पर रसवत् अलङ्कार होता है।
प्रेय
__ प्रेय अलङ्कार को परिभाषित नहीं कर भामह ने उसका केवल उदाहरण दिया था।' दण्डी ने प्रिय कथन में प्रेय अलङ्कार माना।२ भामह के प्रेय के उदाहरण में भी प्रियोक्ति ही दिखलायी गयी थी। अतः, प्रिय उक्ति को भामहसम्मत प्रेय-लक्षण माना जा सकता है।
उद्भट ने प्रेय का सम्बन्ध भाव (रति आदि स्थायी, सञ्चारी तथा अनुभाव आदि) मे जोड़ा। भामह तथा दण्डी रस-निबन्धन में रसवत् अलङ्कार मान चुके थे। भाव आदि के निबन्धन में अलङ्कार के स्वरूप का स्पष्ट प्रतिपादन नहीं हुआ था। उद्भट ने भाव के निबन्धन में प्रेय अलङ्कार माना। आनन्दवर्धन के अनुसार भाव का गौण होना प्रेय है। चाटूक्तियों में राजा आदि विषयक रति की प्रधानता रहने से आनन्दवर्धन प्रेय नहीं मानते ।
कुन्तक ने प्रियतर कथन-रूप प्रेय को अलङ्कार्य मानकर उसके अलङ्कारत्व का खण्डन किया है। रसवत् की तरह भाव-निबन्धन-रूप प्रेय को भी वे
१. द्रष्टव्य-भामह, काव्यालङ्कार, ३,५ २. प्रेयः प्रियतराख्यानम्"।-दण्डी, काव्यादर्श, २,२७५ ३. रत्यादिकानां भावानामनुभावादिसूचने । ___यत्काव्यं बध्यते सद्भिस्तत्प्रेयस्वदुदाहृतम् ॥
-उद्भट, काव्यालङ्कारसारसं० ४,२ ४. द्रष्टव्य-आनन्दवर्धन, ध्वन्यालोक, २,२७
४०
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६२६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अलङ्कार नहीं मानते । मम्मट ने रसवत् की तरह प्रोय का भी स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में अस्तित्व स्वीकार नहीं किया ।
रुय्यक ने रस - निबन्धन में रसवत् मानकर भाव- निबन्धन में प्रेय अलङ्कार माना । विश्वनाथ ने आनन्दवर्धन के मत का अनुसरण करते हुए भाव के गौण होने में प्रेय अलङ्कार माना है । २ प्रदेय का यही लक्षण अप्पय्य दीक्षित को भी मान्य है । उन्होंने कहा है कि इसे ही भाव ( रुद्रट) अलङ्कार भी कहा जाता है । 3 निष्कर्षतः, प्रदेय के दो रूप सामने आते हैं - ( क ) प्रियतर कथन - यह चाटूक्ति भी हो सकती है तथा प्रियजन के प्रति हार्दिक उद्गार भी तथा (ख) भाव - देवता, गुरु आदि विषयक रति, जो भाव में परिणत होती है तथा अन्य स्थायी, सञ्चारी आदि भाव -का अन्य अर्थ के प्रति गौण हो जाना ।
ऊर्जस्वी
कर्जस्वी की भी भामह ने कोई परिभाषा नहीं दी थी। उन्होंने उसके उदाहरण में ओजस्वी वाणी का निबन्धन दिखाया था । दण्डी ने ऐसे कथन में, जिसमें अहङ्कार प्रकट हो, ऊर्जस्वी अलङ्कार माना । ५ उद्भट ने ऊर्जस्वी का सम्बन्ध अनौचित्य प्रवर्तित रस-भाव से अर्थात् रसाभास एवं भावाभास से जोड़ा। उनके अनुसार रस तथा भाव के आभास का निबन्धन ऊर्जस्वी का -लक्षण है ।
ऊर्जस्वी अलङ्कार में आनन्दवर्धन को रसाभास तथा भावाभास का अङ्ग हो जाना अभीष्ट है । अलङ्कारवादी रुय्यक ने उद्भट की तरह रसाभास तथा भावाभास के निबन्धन में ऊर्जस्वी अलङ्कार माना है । विश्वनाथ
19
१. 'भाव'''' निबन्धे प्रयः । रुय्यक, अलङ्कार-सूत्र, ८२ २. द्रष्टव्य - विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०,१२४
३. द्रष्टव्य - अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, पृ० १८४
४. द्रष्टव्य - भामह, काव्यालङ्कार, ३,७ ५. ऊर्जस्वि रूढाहङ्कारम् । – दण्डी, काव्यादर्श, ६. अनौचित्यप्रवृत्तानां कामक्रोधादिकारणात् । भावानां च रसानां च बन्ध ऊर्जस्वि कथ्यते ॥
२,२७५
—उद्भट, काव्यालङ्कारसारसं० ४,६
७. द्रष्टव्य — रुय्यक, अलङ्कार-सू० २
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ६२७
तथा अप्पय्य दीक्षित को आनन्दवर्धन का ही मत मान्य है। रस, भाव, रसाभास आदि के स्वतन्त्र काव्य-तत्त्व के रूप में स्वीकृत हो जाने पर रसादि के गौण होने पर ही अलङ्कारत्व माना जा सकता है। अतः, रसाभास-निबन्धन तथा भावाभास-निबन्धन को ऊर्जस्वी अलङ्कार नहीं मानकर रसाभास तथा भावाभास की अप्रधानता में ही ऊर्जस्वी अलङ्कार माना जाना चाहिए। इस प्रकार ऊर्जस्वी के दो रूप बच रहते हैं-(१) रूढाहङ्कारत्व अर्थात् अहङ्कारपूर्ण उक्ति तथा (२) रसाभास तथा भावाभास का अन्य के प्रति अङ्ग हो जाना। रूढाहङ्कारत्व को कुछ आचार्यों ने काव्य का गुण (औजित्य) भी माना है। समाहित
भामह ने अपने अपरिभाषित समाहित का जो उदाहरण दिया है, उसमें अभीष्ट-सिद्धि के सहायक की अनायास उपलब्धि दिखलायी गयी है। दण्डी ने इसी आशय को परिभाषित करते हुए कहा है कि जहां किसी कार्य को आरम्भ करने वाले को दैवयोग से उस कार्य के साधन में सहायक आ जाते हैं, वहीं समाहित अलङ्कार होता है । वाग्भट ने समाहित के सम्बन्ध में दण्डी के इसी मत को स्वीकार किया है। जयदेव ने दण्डी-सम्मत इस समाहित को समाधि अलङ्कार कहा है। अप्पय्य दीक्षित ने समाधि तथा समाहित को पृथक्-पृथक् अलङ्कार स्वीकार किया है। उन्होंने भामह, दण्डी तथा वाग्भट आदि के समाहित-लक्षण का कार्यारम्भ करने वाले को सहायक की प्राप्ति से कार्य की सुगमता होने का उपयोग समाधि की परिभाषा में किया है तथा उद्भट एवं उनके मत को कुछ परिष्कार के साथ स्वीकार करने वाले आनन्दवर्धन आदि के मतानुसार समाहित को परिभाषित किया है।
उद्भट तथा रुय्यक ने रस-भाव के प्रशम या शान्ति के निबन्धन में समाहित अलङ्कार माना है।५ आनन्दवर्धन ने रस-भाव के प्रशम के गौण होने . १. द्रष्टव्य-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, १२४ तथा
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, पृ० १८५ २. द्रष्टव्य-भामह, काव्यालङ्कार, ३,१० ३. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्यादर्श, २,२६८ ४. द्रष्टव्य-वाग्भटालङ्कार, ४,११० ५. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालङ्कारसारसं० ४,१४ तथा
रुय्यक, अलं० सू० ८२
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६२८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
में समाहित माना । विश्वनाथ, अप्पय्य दीक्षित आदि ने इसी मत को स्वीकार किया । इस प्रकार समाहित के सम्बन्ध में तीन मत आये - ( १ ) कार्य की सिद्धि में सहायक का अनायास उपस्थित हो जाना, (२) रस-भाव के प्रशम का निबन्धन तथा ( ३ ) रस भाव के प्रथम का गौण होना । द्वितीय मत रस- सिद्धान्त के अनुयायियों को मान्य नहीं । समाहित विषयक प्रथम मत समाधि नामक अलङ्कार के रूप में स्वीकृत हुआ है। प्रशम का अङ्गत्व – समाहित के सम्बन्ध में मान्य है स्पष्ट है कि समाहित के विषय में जो दो मत प्रचलित थे, उन्हीं में से एक ने समाधि को जन्म दिया । एक समाहित के विषय में दो मत के आधार पर दो अलङ्कार कल्पित हुए ।
तृतीय मत - रस-भाव
।
भावोदय, भावसन्धि तथा भावशबलता की धारणा पर इन्हीं नाम के तीन रसवदादि अलङ्कार भी स्वीकृत हैं । भावोदय के गौण हो जाने पर भावोदय अलङ्कार, भाव- सन्धि के अन्य के अङ्ग हो जाने पर भावसन्धि अलङ्कार तथा भावशबलता के अपराङ्गत्व में भावशबलता अलङ्कार स्वीकृत हैं ।
भाविक
भाविक या भाविकत्व को भामह ने प्रबन्ध का गुण कहा था । उनके अनुसार प्रबन्ध का वह गुण, जिसमें कवि के वर्णन - कौशल से भूत और भावी अर्थ प्रत्यक्ष से हो उठते हैं, भाविकत्व कहलाता है ।२ काव्य के जिस अंश में भूत तथा भावी अर्थ का ऐसा वर्णन हो कि वे प्रत्यक्ष से हो उठे, उस अंश में भाविकत्व, माना जायगा । इसी तथ्य को दृष्टि में रखकर 'भट्टिकाव्य' की 'जयमङ्गला' टीका में उस काव्य के एक अध्याय को भाविकत्व का उदाहरण माना गया है । विचार कर देखें तो वर्णित अर्थ का प्रत्यक्षायमाणत्व किसी काव्य की सफलता की आवश्यक शर्त है । कवि अतीत अर्थ का वर्णन करे या अनागत अर्थ की कल्पना करे, उसकी कल्पना में इतनी शक्ति तो होनी ही
१. भावस्य चोदये सन्धौ मिश्रत्वे च तदाख्यकाः । - विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, १२५
२. भाविकत्वमिति प्राहुः प्रबन्धविषयं गुणम् । प्रत्यक्षा इव दृश्यन्ते यत्रार्था भूतभाविनः ॥
- भामह, काव्यालङ्कार, ३,५२
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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ६२९ चाहिए कि वर्णित अर्थ पाठक की कल्पना - दृष्टि के सामने प्रत्यक्ष हो उठें । जैसे योगी काल की सीमा तोड़कर भूत और भावी अर्थ का साक्षात्कार कर लेते हैं, उसी प्रकार क्रान्तदर्शी कवि भी भूत और भावी अर्थ का साक्षात्कार कर पाठक की कल्पना -दृष्टि के सामने उसे प्रत्यक्ष कर देते हैं । ' भामह ने भाविकत्व या वर्णित भूत-भावी अर्थ के प्रत्यक्षायमाणत्व के तीन साधकों का उल्लेख किया है । वे हैं -- (१) अर्थ का विचित्र, उदात्त तथा अद्भुत होना, (२) कथा में स्वविनीतता या सुबोधता का होना तथा (३) शब्द का अनाकुल होना । २ स्वविनीतता का अर्थ 'जयमङ्गला' में सुबोधता माना गया है । 3 शब्द की अनाकुलता का अर्थ शब्द को स्पष्टार्थता है । इस प्रकार अर्थ की उदात्तता, अद्भ ुतता, कथा की सुबोधता तथा शब्द की अनाकुलता से भूत और भावी अर्थ का प्रत्यक्षवत् वर्णन भाविक माना गया है। भामह ने यद्यपि भाविक को प्रबन्ध का गुण कहा है तथापि इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि वे भाविक को अलङ्कार मानते थे । अलङ्कार-विवेचन के सन्दर्भ में भाविक का स्वरूप - निरूपण इसका प्रमाण है । यही नहीं, उन्होंने स्वयं कहा है कि भाविक को काव्य का अलङ्कार माना जाता है 14
आचार्य दण्डी ने भी भाविक को प्रबन्धगत गुण ही माना है; पर भाविक के स्वरूप के सम्बन्ध में उनकी धारणा भामह की धारणा से भिन्न है । दण्डी ने भाविक का सम्बन्ध कवि के भाव अर्थात् अभिप्राय से जोड़कर सम्पूर्ण काव्य में कवि के अभिप्राय की स्पष्ट अभिव्यञ्जना के गुण को भाविक कहा
१. अविद्याबीज विध्वंसादयमार्षेण चक्षुषा ।
कालो भूतभविष्यन्तौ वर्त्तमानमवीविशत् ॥ - अनर्घराघव, २,३४ २. चित्रोदात्ताद्भुतार्थत्वं कथायाः स्वविनीतता ( स्वभिनीतता ? ) । शब्दानाकुलता चेति तस्य हेतु ं प्रचक्षते ॥
- भामह, काव्यालङ्कार, ३, ५३ ३. स्वविनीतता सुबोधता शब्दानाकुलता चेत्येतदुभयं कथायामेव मन्त्र निर्णयाख्यायां द्रष्टव्यम् । — भट्टिकाव्य, जयमङ्गला, पृ० ३०७ ४. तत्र वाचामनाकुलता व्यस्तसम्बन्धरहितलोकप्रसिद्धशब्दोपनिबन्धनात् झगित्यर्थप्रतीतिकारिता ।
—उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह, प्रतिहारेन्दुराज कृत टीका, पृ० ७६ ५. भाविकत्वं च निजगुरलङ्कारं सुमेधसः ।
- भामह, काव्यालङ्कार, ३,४
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६३० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
है। रचना की समाप्ति तक कवि का भाव-विशेष व्यञ्जित होता रहता है । कथावस्तु आदि सभी काव्याङ्ग कवि के उस विशेष अभिप्राय को व्यक्त करने में सहायक होते हैं। इसीलिए सम्पूर्ण रचना के गुण-भूत भाविक के लिए दण्डी ने यह अपेक्षित माना है कि रचना में आने वाली आधिकारिक तथा प्रासङ्गिक कथा-वस्तुएँ अङ्गाङ्गिभाव से एक दूसरे का उपकार करती हों, व्यर्थ विशेषणों का प्रयोग न हो, विषयों का अस्थान-वर्णन नहीं हो अर्थात् प्रकृत में उपयोगी वस्तुओं का ही वर्णन हो, अर्थप्रतिपादन-समर्थ पद-विन्यास से गम्भीर अर्थ की भी सरल अभिव्यक्ति होती हो। ये सब कवि के अभिप्राय को प्रेषणीय बनाते हैं; अतः कवि के भावायत्त हैं।' दण्डी ने भी भामह की पद्धति पर भाविक का स्वरूप-निरूपण अलङ्कार-विवेचन के प्रसङ्ग में ही किया है। भाव की प्रेषणीयता के इस गुण को अलङ्कार-विशेष तो नहीं माना जा सकता; पर सम्पूर्ण रचना के इस धर्म का सभी अलङ्कारों के साथ सङ्कर अवश्य स्वीकार किया जा सकता है। इस सन्दर्भ में साभिप्राय विशेषण के ही प्रयोग को वाञ्छनीय मानकर दण्डी ने एक नवीन अलङ्कार की सम्भावना को जन्म दिया था, जो पीछे चलकर परिकर नामक स्वतन्त्र अलङ्कार बना । गम्भीर भाव की सरल व्यञ्जना में सहायक उक्ति-क्रम पर बल देकर दण्डी ने सभी उक्तिभङ्गियों का समावेश इसमें कर लिया है। नाटक की कथा-वस्तु की योजना में आधिकारिक तथा अवान्तर कथा-वस्तुओं के परस्पर उपकार्योपकारक-भाव की आवश्यकता पर विचार किया गया था। प्रबन्ध काव्य आदि में भी कथावस्तुओं की सङ्गति आवश्यक होती है। इन सब को समन्वित रूप से दण्डी ने प्रबन्ध-गुण कहकर उसे भाविक व्यपदेश दिया। स्पष्टतः, दण्डी की यह भाविक धारणा भूत और भावी अर्थ के प्रत्यक्षायमाणत्व की धारणा से भिन्न है। भोज ने दण्डी की तरह भाविक का सम्बन्ध भाव या अभिप्राय से माना है; पर कवि के अपने अभिप्राय-वर्णन के साथ अन्य की १. तद् भाविकमिति प्राहुः प्रबन्धविषयं गुणम् ।
भावः कवेरभिप्रायः काव्येष्वासिद्धि संस्थितः ॥ परस्परोपकारित्वं सर्वेषां वस्तुपर्वणाम् । विशेषणानां व्यर्थानामक्रियास्थानवर्णना ॥ उक्तिक्रमबलाद् व्यक्तिर्गम्भीरस्यापि वस्तुनः। भावायत्तमिदं सर्वमिति तद्भाविकं विदुः ।।
-दण्डी, काव्यादर्श २,३६४-६६,
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ६३१ भावना के वर्णन को और यहाँ तक कि अन्यापदेश ( अन्य के उद्देश्य से अन्य के प्रति कथन ) को भी भाविक का एक भेद मान लिया है।' __ परवर्ती काल में भामह का भाविक-लक्षण ही स्वीकृत हुआ। उनकी धारणा में थोड़ा परिष्कार यह किया गया कि वाक्यालङ्कार के वर्ग में भाविक की गणना की गयी। सम्पूर्ण रचना या रचना के एकदेश के गुण की जगह भाविक को वाक्यगत अलङ्कार के रूप में मान्यता मिली। इस प्रकार यदि एक ही पद में कवि सद्यःस्नाता के धुले हुए अञ्जन (भूत अर्थ ) की पूर्व स्थिति की कल्पना करता है और स्नानोपरान्त विभिन्न आभूषणों के साथ उसके स्वरूप की कल्पना करता हुआ अपनी प्रतिभा से उस नायिका के भूत और भावी स्वरूप का बिम्ब पाठक की मानस-दृष्टि के सामने खड़ा कर देता है तो उसमें भाविक अलङ्कार माना जायगा। __उद्भट ने भाविकत्व की जगह भाविक शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने भाविक का लक्षण तो भामह से ही लिया; पर उन्होंने उसे प्रबन्ध-गुण नहीं कहा । अन्य शब्दार्थगत अलङ्कारों की ही तरह उन्होंने भाविक का भी स्वरूपनिरूपण अलङ्कार के ही सन्दर्भ में किया। भाविक के साधक तत्त्वों के सम्बन्ध में भी भामह की धारणा को उन्होंने थोड़े परिष्कार के साथ स्वीकार किया। अर्थ का चित्र, उदात्त तथा अद्भुत होना भामह को अभिप्रेत था; पर उद्भट ने उसकी जगह केवल अर्थ का 'अत्यद्भुत' होना आवश्यक माना। कथा की सुबोधता को भामह भाविक का एक साधक मानते थे; पर उद्भट ने उसका उल्लेख नहीं किया ।२ सम्भव है कि प्रबन्ध के धर्म से मुक्त कर भाविक को वाक्यालङ्कार के रूप में प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से ही उद्भट ने कथा की स्वविनीतता विशेषण को उसके लक्षण से बहिष्कृत कर दिया हो। वाक्यालङ्कार के रूप में भाविक को कथा की सुबोधता की अपेक्षा नहीं। शब्द की अनाकुलता की धारणा को उद्भट ने भी स्वीकार किया है।
१. स्वाभिप्रायस्य कथनं यदि वाप्यन्यभावना। अन्यापदेशो वा यस्तु त्रिविधं भाविकं विदुः ॥
-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ४, ८६ २. प्रत्यक्षा इव यत्रार्था दृश्यन्ते भूतभाविनः । अत्यद्भुताः स्यात्तद्वाचामनाकुल्येन भाविकम् ॥
-उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह, ६, १२
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६३२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उद्भट के टीकाकार प्रतिहारेन्दुराज ने वाणी की अनाकुलता का अर्थ 'झगित्यर्थप्रतीतिकारिता' अर्थात् तुरत अर्थबोध करा देने की शक्ति मान कर प्रसाद तथा अर्थव्यक्ति गुणों को भी भाविक में समाविष्ट कर लिया है। उन्होंने भामह तथा दण्डी की भाविक-धारणा की व्याख्या के क्रम में रस के साथ भाविक का सम्बन्ध निरूपित किया है। अर्थ की तुरत प्रतीति रसानुभूति में सहायक होती है। इस गुण के कारण भाविक कवि के अभिप्राय को भावक के हृदय में प्रतिबिम्बित कराने में समर्थ होता है।'
मम्मट, रुय्यक आदि परवर्ती आचार्यों ने भामह, उद्भट आदि की तरह भूत और भावी अर्थ का प्रत्यक्षायमाणत्व भाविक का लक्षण माना है; पर उन्होंने अर्थ में चित्र, उदात्त तथा अद्भुत तत्त्व, कथा की सुबोधता का तत्त्व तथा शब्द में अनाकुलता या झट अर्थ प्रकट कर देने का तत्त्व भाविक-लक्षण में उल्लिखित नहीं किया ।२ मम्मट ने दण्डी की तरह भाविक की व्युत्पत्ति भाव या कवि के अभिप्राय से ही मानी है। स्पष्टतः, मम्मट ने भामह तथा दण्डी के मत को समन्वयात्मक दृष्टि से देखा है, फिर भी उन्होंने भामह के भाविक-लक्षण को ही स्वीकार किया है-यह असन्दिग्ध है। अप्पय्य दीक्षित आदि ने भी यही धारणा स्वीकार की है। विश्वनाथ ने अद्भुतार्थता का भी उल्लेख किया है।
स्पष्ट है कि भामह के समय से ही भाविक का लक्षण प्रायः समान ही रहा है। भूत तथा भावी अर्थ का कवि-कौशल से ऐसा वर्णन कि वह प्रत्यक्षसा हो उठे; भाविक का यह लक्षण दण्डी को छोड़ प्रायः सभी आचार्यों ने स्वीकार किया है। फिर भी भाविक-धारणा में विकास का एक क्रम रहा है।
१. द्रष्टव्य-काव्यालं० सार सं०, प्रतिहारेन्दुकृत टीका पृ० ७९-८० । २. मम्मट, काव्यप्र०, १०, १७३ । तथा-रुय्यक, अलं० सर्वस्व सू० ७६ ३. भावः कवेरभिप्रायोऽत्रास्तीति भाविकम् ।
-मम्मट, काव्यप्रकाश, वृत्ति, पृ० २६८ ४. भाविक भूतभाव्यर्थसाक्षात्कारस्य वर्णनम् ।।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १६१ ५. अद्भुतस्य पदार्थस्य भूतस्याथ भविष्यतः । यत् प्रत्यक्षायमाणत्वं तद्भाविकमुदाहृतम् ॥
-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, १२२
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अलङ्कारों का स्वरूप- विकास
[ ६३३
भामह तथा दण्डी ने उसे प्रबन्ध - गुण कहा तथा उसके लक्षण में अनेक विशेषणों का प्रयोग किया । उद्भट ने उससे एक विशेषण 'कथा की सुबोधता' को हटाया और उसका वाक्यालङ्कार के रूप में निरूपण किया । मम्मट ने अर्थ की अद्भुतता तथा शब्द की अनाकुलता आदि विशेषणों को भी हटाकर केवल भूत-भावी अर्थ का प्रत्यक्षायमाणत्व भाविक का लक्षण माना । यही परवर्ती आचार्यों को भी मान्य हुआ ।
उदात्त तथा अवसर
उदात्त अलङ्कार का सम्बन्ध समृद्धि युक्त वस्तु के वर्णन तथा चारित्रिक दात्यके वर्णन से माना गया है । वस्तु तथा चरित्र के औदात्त्य वर्णन से 'सम्बद्ध होने के कारण उदात्त नाम अन्वर्थ है ।
भामह ने उदात्त के उदाहरण में राम का चारित्रिक औदाय दिखाया था । उन्होंने उदात्त के सम्बन्ध में अन्य मत का निर्देश करते हुए कहा था S कि नाना प्रकार के रत्न आदि से युक्त वस्तु का वर्णन - वस्तुगत समृद्धि का वर्णन भी— उदात्त माना जाता है । ' इस तरह चरित्रगत तथा वस्तुगत वैभव के वर्णन के आधार पर उदात्त के दो रूप मान्य हुए ।
दण्डी ने उदात्त के उक्त दोनों रूपों को स्वीकार कर एक को आशय के महत्त्व का वर्णन तथा दूसरे को विभूति ( ऐश्वर्य ) का वर्णन कहा । उद्भट की उदात्त धारणा भामह तथा दण्डी की धारणा से अभिन्न है । उद्भट ने यह स्पष्ट किया है कि चरित्रगत औदात्त्य का वर्णन अलङ्कार तभी माना जायगा जब वह उपलक्षण के रूप में प्रस्तुत किया जाय । 3 महाकाव्य आदि में जहाँ प्रधान रूप से चरित्र का क्रमबद्ध वर्णन किया जाता है, वहाँ सम्पूर्ण काव्य में वर्णित चरित्र को उदात्त अलङ्कार नहीं कहा जा सकता। ऐसे स्थल में उद्भट के अनुसार रसवत् अलङ्कार होगा, उदात्त नहीं । यह मान्यता तो उचित ही है कि प्रधानतया काव्य में किये जाने वाले चरित्र के अङ्कन को उदात्त अलङ्कार
१. द्रष्टव्य - भामह, काव्यालं० ३,११-१२
२. आशयस्य विभूतेर्वा यन्महत्त्वमनुत्तमम् ।
उदात्त ं नाम तं प्राहुरलङ्कारं मनीषिणः ॥ - दण्डी, काव्यादर्श २,३००
३. उदात्तमृद्धिमद्वस्तु चरितं च महात्मनाम् । उपलक्षणतां प्राप्तं नेतिवृत्तत्वमागतम् ॥
—उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह ४,१७
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६३४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
नहीं माना जा सकता । जहाँ अवान्तर रूप से किसी उदात्त चरित्र को उपलक्षण रूप में प्रस्तुत किया जाय, वहीं उदात्त माना जाना चाहिए; पर उद्भट की यह मान्यता कि प्रधानतया क्रमबद्ध चरित्र वर्णन में रसवत् अलङ्कार होगा उचित नहीं । हम देख चुके हैं कि उद्भट काव्य में रस-परिपाक को रसवृत् अलङ्कार मानते थे । अतः, उनके अनुसार उदात्त चरित्र वर्णन से निष्पन्न रस में रसवत् अलङ्कार होगा । हम उनकी रसवत् अलङ्कार-धारणा के क्रम में उनकी इस मान्यता की असमीचीनता प्रमाणित कर चुके हैं । अस्तु, उद्भट की उदात्त धारणा का निष्कर्ष यह है कि ( १ ) जहाँ समृद्धियुक्त वस्तु का वर्णन हो तथा (२) जहाँ महान व्यक्ति का चरित्र उपलक्षण (अङ्ग) के रूप में प्रस्तुत किया जाय, वहाँ उदात्त अलङ्कार होता है ।
रुद्रट ने उदात्त अलङ्कार का निरूपण नहीं कर उससे मिलते-जुलते स्वभाव वाले अवसर अलङ्कार का निरूपण किया है। उनके अनुसार किसी वस्तु की उत्कृष्टता के प्रतिपादन के लिए किसी उत्कृष्ट अथवा सरस (शृङ्गारादि रसयुक्त) वस्तु को उसका उपलक्षण बनाना अवसर अलङ्कार है । एक उदाहरण में वन की उत्कृष्टता के प्रतिपादन के लिए यह कहा गया है कि यह वही वन है, जहाँ उदात्तचेता राम ने निवास किया था । राम का उदात्त चरित्र उपलक्षण बन कर उस वन की उत्कृष्टता प्रतिपादित करता है । इसी प्रकार शिप्रा में सुन्दरी मालव तरुणियों के स्नान के सरस प्रसङ्ग को उपलक्षण बना कर शिप्रा का उत्कर्ष प्रतिपादित करने का उदाहरण दिया गया है । ' स्पष्ट है कि रुद्रट को भी अवसर में चरित्र तथा वस्तु की उदात्तता एवं सरसता का वर्णन अभीष्ट है; पर वे उस वर्णन से अन्य का उत्कर्ष - प्रतिपादन आवश्यक मानते हैं । यह कहा जा सकता है कि रुद्रट का अवसर उद्भट के उदात्त का ही कुछ परिवर्तित स्वरूप है । चारित्रिक औदात्य के उपलक्षण बनाये जाने की चर्चा उदात्त लक्षण में उद्भट ने भी की थी ।
कुन्तक ने भामह, उद्भट आदि के उदात्त के उक्त दोनों रूपों – समृद्धिमद्-वस्तु-वर्णन तथा उदात्त चरित्र वर्णन को अलङ्कार्य मानकर उदात्त के अलङ्कारत्व का खण्डन किया है । २
मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि ने उद्भट की उदात्त धारणा को ही
१. द्रष्टव्य — रुद्रट, काव्यालं ० ७,१०३-५
२. द्रष्टव्य – कुन्तक, वक्रोक्तिजीवित, पृ० ३७८-८०
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [६३५: स्वीकार किया है । वे वस्तु की समृद्धि का वर्णन तथा महान व्यक्ति के चरित्र का उपलक्षण या अन्य वस्तु (प्रस्तुत वस्तु) का अङ्ग होना; ये दो रूप उदात्त के मानते हैं। जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने भी इसी मत को स्वीकार किया है ।२ निष्कर्ष यह कि भामह से लेकर अप्पय्य दीक्षित तक उदात्त के दो रूप समान रूप से मान्य रहे हैं। हिन्दी-रीति-आचार्यों ने भी उदात्त के उन्हीं दो रूपों को स्वीकार किया है। रुद्रट के अवसर को भी उदात्त के दो रूपों का ही किञ्चित् परिष्कृत स्वरूप माना जा सकता है । अतः, अवसर भी उदात्त का ही अङ्ग है। उदात्त के सर्वमान्य दो रूप निम्नलिखित है(१) समृद्धिमय वस्तु का वर्णन तथा (२) महान चरित्र का उपलक्षण रूप
में अर्थात् अन्य वस्तु के अङ्ग के रूप में वर्णन । काव्यलिङ्ग
काव्यलिङ्ग कार्य-कारण-सम्बन्ध पर आश्रित अलङ्कार है। सर्वप्रथम उद्भट ने काव्यलिङ्ग अलङ्कार के अस्तित्व की कल्पना कर उसके स्वरूप का निरूपण किया। दर्शन में हेतु या लिङ्ग के स्वरूप का निरूपण हो चुका था; पर काव्यालङ्कार के रूप में उसकी स्वीकृति तथा स्वरूप-मीमांसा उद्भट के 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' में ही प्रथम बार की गयी। उद्भट ने एक वस्तु से अन्य के स्मरण या अनुभव उत्पन्न कराये जाने में काव्यलिङ्ग अलङ्कार माना था ।3 काव्यलिङ्ग का अर्थ है काव्य-हेतु । इस अलङ्कार में एक वस्तु (वर्णित वस्तु) अन्य वस्तु की स्मृति या अनुभूति का हेतु बनायी जाती है। अतः काव्यलिङ्ग इसका अन्वर्थ अभिधान है। स्मृति पूर्वानुभूत वस्तु की ही होती है। अनुभव से तात्पर्य अननुभूतपूर्व वस्तु के प्रथम ज्ञान का है। अतः, उद्भट की काव्यलिङ्ग-परिभाषा का सार यह है कि जहाँ एक वस्तु का वर्णन सुनकर या पढ़कर श्रोता या पाठक के मन में अन्य वस्तु का ज्ञान-यदि वह वस्तु पूर्वानुभूत हो तो उसका स्मृति-रूप ज्ञान और यदि अननुभूतपूर्व हो तो
१. द्रष्टव्य-मम्मट, काव्यप्र० १०,१७६-७७, रुय्यक, अलं० सू० ८०-८१. __ तथा विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०,१२३ ।। २. द्रष्टव्य-अप्पय्यदीक्षित, कुवलयानन्द, १६२ ३. श्र तमेकं यदन्यत्र स्मृतेरनुभवस्य वा । हेतुतां प्रतिपद्य त काव्यलिङ्ग तदुच्यते ॥
-उद्भट, काव्यालङ्कारसारस० ६,१४
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‘६३६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उसका अनुभव-रूप ज्ञान-उत्पन्न हो ( अर्थात् वह वर्णित वस्तु अन्य वस्तु की स्मृति या अनुभव का हेतु हो), वहाँ काव्यलिङ्ग अलङ्कार होता है। यह काव्यलिङ्ग दर्शन में निरूपित व्याप्ति आदि पर अवलम्बित लिङ्ग से विलक्षण होता है। ध्यातव्य है कि उद्भट रस, भाव आदि के अनुभव में रसवत्, प्रेय आदि अलङ्कार मानते थे। इसलिए अन्य वस्तु के अनुभव से उद्भट का तात्पर्य यह रस, भाव आदि के अनुभव का नहीं माना जाना चाहिए। रस भावादि को छोड़ (जो रसवदादि का विषय है) अन्य वस्तु के अनुभव का हेतु बनने पर ही उद्भट काव्यलिङ्ग मानेंगे । ___ मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि आचार्यों ने काव्यलिङ्ग के लक्षण में सामान्य रूप से यह धारणा प्रकट की है कि जहाँ हेतु का (किसी अर्थ के कारण का) सम्पूर्ण वाक्यार्थ से अथवा पद के अर्थ से बोध कराया जाय, वहाँ काव्यलिङ्ग अलङ्कार होता है । ' तात्पर्य यह कि विशेष अर्थ के प्रति जहाँ वाक्य का अर्थ अथवा पद का अर्थ हेतु बनता हो, वहाँ मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि के अनुसार काव्यलिङ्ग अलङ्कार होगा। मम्मट ने सम्भवतः वाक्यार्थों या पदार्थों के कार्य-कारण सम्बन्ध में काव्यलिङ्ग अलङ्कार मानने के कारण ही अर्थान्तरन्यास अलङ्कार का केवल सामान्य-विशेष-भेद ही स्वीकार किया है। रुय्यक ने अर्थान्तरन्यास में कार्य-कारण के समर्थ्य-समर्थक रूप को भी स्वीकार किया और उससे काव्यलिङ्ग के स्वरूप को पृथक् करने के लिए उन्होंने यह युक्ति दी कि काव्यलिङ्ग में वाक्यार्थ-रीति से निबध्यमान अर्थ का हेतु-रूप में उपन्यास होता है, उपनिबद्ध अर्थ को हेतु नहीं बनाया जाता; पर अर्थान्तरन्यास में उपनिबद्ध अर्थ का हेतु रूप में उपन्यास होता है ।२ अभिप्राय यह कि रुय्यक के मतानुसार काव्यलिङ्ग में हेतु का उपन्यास हेतु रूप में ही वाक्यार्थ में होता है । रुय्यक के टीकाकार जयरथ की मान्यता है कि जहाँ दो अर्थों में कार्यकारणसम्बन्ध हो, वहाँ काव्यलिङ्ग ही माना जाना चाहिए, अर्थान्तरन्यास नहीं।
१. काव्यलिङ्ग हेतोर्वाक्यपदार्थता । -मम्मट, काव्यप्रकाश १०,१७४
हेतोर्वाक्यपदार्थत्वे काव्यलिङ्गम् । -रुय्यक, अलङ्कारसूत्र ५७ तथा हेतोर्वाक्यपदार्थत्वे काव्यलिङ्ग निगद्यते ।
-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०, ८१ २. द्रष्टव्य-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १७६-७७ ३. द्रष्टव्य-अलङ्कार सूत्र पर विमशिनी, पृ० १३६
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ६३७.
श्री विद्या चक्रवर्ती ने यह मत प्रकट किया है कि काव्यलिङ्ग में कार्य-कारण का समर्थन शब्दतः होता है, जबकि अर्थान्तरन्यास में अर्थतः । यही दोनों का भेद है।' अस्तु ! अर्थान्तरन्यास में भी कारण-कार्य-भाव का उपन्यास स्वीकार्य रहा है और उससे स्वतन्त्र काव्यलिङ्ग में वाक्यार्थ या पदार्थ का अन्य अर्थ के हेतु रूप में उपन्यास भी स्वीकृत हुआ है। मम्मट के अनुसार हेतु और काव्यलिङ्ग अभिन्न है। वस्तुतः हेतु तथा काव्यलिङ्ग की पृथक्-. पृथक् कल्पना आवश्यक नहीं। दोनों में अर्थ के हेतु का उल्लेख ही अपेक्षित माना गया है।
अप्पय्य दीक्षित ने सामान्य-विशेष-भाव में अर्थान्तरन्यास मानकर काव्यलिङ्ग का क्षेत्र समग्रतः कार्य-कारण भाव से समर्थन तक विस्तृत कर दिया। स्पष्टतः, वे मम्मट की काव्यलिङ्ग-धारणा से सहमत हैं। उनके अनुसार वाक्यार्थ को या पदार्थ को हेतु बना कर समर्थनीय अर्थ का समर्थन काव्यलिङ्ग का लक्षण है । जगन्नाथ ने प्रकृतार्थ के उपपादक-रूप में सामान्य-- विशेषभाव को छोड़ शेष अर्थ का निबन्धन काव्यलिङ्ग का लक्षण मानकर मम्मट आदि के मत का ही समर्थन किया है।४ निष्कर्षतः, मान्य आचार्यों के द्वारा स्वीकृत काव्यलिङ्ग-लक्षण है :-सम्पूर्ण वाक्यार्थ को अथवा पदार्थ को हेतु बनाकर किसी अर्थ का उपपादन अर्थात् किसी अर्थ के प्रति सम्पूर्ण वाक्यार्थ या पदार्थ का हेतु-रूप में उपन्यास काव्यलिङ्ग अलङ्कार है। प्रमाणालङ्कार
अनुमान अलङ्कार के स्वरूप का विकास-क्रम हम देख चुके हैं। उस सन्दर्भ में हम इस तथ्य पर भी विचार कर चुके है कि प्रमा के साधक तत्त्वों का जिस रूप में प्रतिपादन दर्शन-शास्त्र में हुआ था, उसी रूप में उसकी अवतारणा
१. अर्थान्तरन्यासे हि अर्थात् प्रकृतसमर्थनम् । इह (काव्यलिङ्ग) तु शब्दत __इति विभागः ।-संजीवनी पृ० १६६ २. द्रष्टव्य-मम्मट, काव्यप्रकाश, पृ० २६६ ३. समर्थनीयस्यार्थस्य काव्यलिङ्ग समर्थनम् ।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द १२१ ४. अनुमितिकरणत्वेन सामान्यविशेषभावाभ्यां चानालिङ्गितः प्रकृतार्थोप-- पादकत्वेन विवक्षितोऽर्थः काव्यलिङ्गम् ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७३६.
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६३८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
काव्यालङ्कार के क्षेत्र में भी की गयी । दर्शन के विभिन्न सम्प्रदायों में प्रमाण की संख्या के सम्बन्ध में अलग-अलग मान्यताएँ रही हैं । उन मान्यताओं में छह प्रमाण ( प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द या आप्तवचन, अर्थापत्ति तथा अभाव ) की मान्यता अधिक लोकप्रिय हुई और उसी के आधार पर काव्य के छह प्रमाणालङ्कारों की कल्पना हुई । शास्त्रीय प्रमाण से काव्य के प्रमाण या प्रमाणालङ्कार का व्यावर्तक है— काव्योक्तिमात्र में अनिवार्यतः रहने वाला सौन्दर्य-तत्त्व । दूसरे शब्दों में, शुष्क तर्क पर अवलम्बित तत्तत् प्रमाण जब * काव्य की उक्तियों में रमणीय रूप में अवतरित होते हैं तो अपने-अपने स्वीकृत नाम से ही काव्य के अलङ्कार के रूप में परिगणित होने लगते हैं ।
छह प्रमाणों में से अनुमान का अलङ्कार के रूप में विशिष्ट स्थान रहा है । उसका अलङ्कारत्व रुद्रट तथा उनके परवर्ती प्रायः सभी समर्थ समीक्षकों के द्वारा स्वीकृत हुआ, जबकि प्रत्यक्ष, उपमान आदि को अलङ्कार के रूप में भोज, अप्पय्य दीक्षित जैसे कुछ आचार्यों ने ही स्वीकार किया है । कारण स्पष्ट है । अनुमान की प्रक्रिया की काव्यात्मक अभिव्यञ्जना में प्रत्यक्ष आदि प्रमाण के उल्लेख की अपेक्षा अधिक चारुता रहती है । उपमान को विशिष्ट अलङ्कार नहीं मानने पर भी आचार्यों ने सादृश्य-निरूपण के सन्दर्भ में उपमान का महत्त्व स्वीकार किया ही है । अस्तु !
भोज ने छह प्रमाणों को अलङ्कार के रूप में स्वीकार कर उनका सभेद विवेचन किया है । प्रमाणों का कोई विशिष्ट लक्षण न देकर भोज ने दर्शन के तत्तत् प्रमाण- लक्षण को ही स्वीकार किया है ।' अप्पय्य दीक्षित ने भोज के द्वारा निरूपित छह प्रमाणालङ्कारों का निरूपण तो किया ही, आप्तवचन के अतिरिक्त श्रुति, स्मृति आदि प्रमाणालङ्कारों की भी स्वतःत्र सत्ता की कल्पना उन्होंने कर ली । २ श्रुति, स्मृति आदि को आप्तवचन प्रमाण या शब्दप्रमाण से स्वतन्त्र मान लेने पर आप्तवचन बच ही क्या रहता है ? श्रुति, स्मृति आदि को स्वतन्त्र अलङ्कार मानने में कोई युक्ति नहीं है । इन अलङ्कारों की कल्पना अलङ्कारों की संख्या बढ़ाने के मोह मात्र को सूचित करती है । कवि जहाँ किसी उक्ति की पुष्टि के लिए श्र ुति, स्मृति आदि की उक्ति का सहारा लेता है, वहाँ अलङ्कार - विशेष की सत्ता मानने में ही दो मत हो सकते हैं;
१. द्रष्टव्य – भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, पृ० ३२५-३ε
२. द्रष्टव्य - अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, पृ० १८७-६०
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[६३६ शब्द प्रमाण के विभिन्न भेदों को अलग-अलग अलङ्कार के रूप में गिनने की व्यर्थता तो अनुभवसिद्ध ही है।
निष्कर्ष यह कि छह प्रमाण को काव्य के अलङ्कार मानने में आचार्यों में मतैक्य नहीं है। भोज, अप्पय्य दीक्षित आदि जिन आचार्यों ने प्रमाणों को अलङ्कार माना है, उन्होंने दर्शन की तत्तत् प्रमाण-विषयक धारणा को ही स्वीकार किया है। अतः उनके स्वरूप में एकरूपता ही रही है । अनुमान को अलङ्कार के रूप में विशेष महत्त्व मिला है। अतः उसके विकास-क्रम का अध्ययन हमने पृथक् किया है। दर्शन में प्रतिपादित तथा अलङ्कारशास्त्र में कुछ आचार्यों के द्वारा अलङ्कार के रूप में स्वीकृत प्रत्यक्ष, उपमान, आप्तवचन अर्थापत्ति तथा अभाव के स्वरूप से भारतीय पाठकों का इतना घना परिचय है कि उनके स्वरूप की परिभाषा प्रस्तुत करना अनावश्यक जान पड़ता है। विकस्वर
विकस्वर का स्वरूप सामान्यविशेष-भाव की एक विशेष स्थिति के आधार पर कल्पित है। जयदेव के पूर्व विकस्वर अलवार के अस्तित्व की कल्पना नहीं की गयी थी। अर्थान्तरन्यास अलङ्कार में सामान्यविशेष-सम्बन्ध का प्रतिपादन हुआ था। जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने सामान्य कथन के समर्थन के लिए विशेष का तथा विशेष के समर्थन के लिए सामान्य का उपन्यास अर्थान्तरन्यास का स्वरूप माना और सामान्यविशेष-भाव की एक विशेष स्थिति की कल्पना करते हुए कहा कि जहाँ बिशेष अर्थ को प्रस्तुत कर उसके समर्थन के लिए सामान्य अर्थ का उपन्यास किया जाय और पुनः उस उपन्यस्त सामान्य के के समर्थन के लिए किसी विशेष अर्थ का उपन्यास किया जाय, वहाँ विकस्वर अलङ्कार होता है।' पण्डितराज जगन्नाथ ने विकस्वर को स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं माना है। विशेष का सामान्य से समर्थन दिखाकर अप्पय्य दीक्षित ने एकत्र उपमा-रीति से तथा अपरत्र अर्थान्तरन्यास-रीति से उस समर्थक सामान्य का पुनः विशेष से समर्थन विकस्वर के उदाहरणों में दिखाया था। पण्डितराज का मत है कि विशेष-सामान्य-भाव तो अर्थान्तरन्यास ही है और पुनः यदि 'उपमा आदि की रीति से समर्थक विशेष का प्रस्तुतीकरण होता है तो वहाँ अलङ्कारान्तर के साथ अर्थान्तरन्यास की संसृष्टि ही मानी मानी जानी चाहिए, १. यस्मिन्विशेषसामान्यविशेषाः स विकस्वरः ।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १२४
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६४० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
स्वतन्त्र अलङ्कार की सत्ता नहीं । अलङ्कारों के योग से यदि नवीन-नवीन अलङ्कारों की कल्पना की जाने लगे तो अनन्त अलङ्कार हो जायेंगे ।' अस्तु ! स्वरूपविकास की दृष्टि से विकस्वर में परिवर्तन की कोई स्थिति नहीं आयी. है । उसका एक ही रूप कल्पित हुआ – 'विशेष का सामान्य से समर्थन तथा पुनः किसी विशेष से उस सामान्य का समर्थन ।'
श्रर्थापत्ति
प्रमाणालङ्कारों के स्वरूप - विकास के परीक्षण क्रम में हम अर्थापत्ति की धारणा पर भी विचार कर चुके हैं। ध्यातव्य है कि प्रत्यक्ष, शब्द आदि प्रमाणों की अपेक्षा अर्थापत्ति को अधिक महत्त्व प्राप्त हुआ है । अनुमान को अलङ्कार मानने वाले आचार्यों की संख्या किसी भी अन्य प्रमाण को अलङ्कार मानने वाले आचार्यों से अधिक है; पर अलङ्कार के रूप में अनुमान के बाद अर्थापत्ति
ही महत्त्व प्राप्त है । उसके स्वरूप के सम्बन्ध में आचार्यों में मतैक्य रहा है । दर्शन में प्रतिपादित अर्थापत्ति का स्वरूप ही अलङ्कार के रूप में स्वीकृत हुआ है । रुय्यक, विश्वनाथ, अप्पय्य दीक्षित आदि ने 'दण्डापूप न्याय' से अर्थ की सिद्धि में अर्थापत्ति अलङ्कार माना है । २ दण्डापूप न्याय का तात्पर्य यह है कि चूहे के द्वारा दण्ड के हरण का कथन होने से दण्ड में लगे अपूप ( आ ) का हरण स्वतः प्रमाणित हो जाता है । इसी प्रकार एक अर्थ का कथन जहाँ अन्य अर्थ को सिद्ध या प्रमाणित कर दे, वहाँ अर्थापत्ति अलङ्कार माना जायगा । में पण्डितराज जगन्नाथ ने दण्डापूप- न्याय का उल्लेख नहीं कर अर्थापत्ति अलङ्कार उसी आशय को परिभाषित किया है। उनका कथन है कि किसी अर्थ के कथन से तुल्यन्याय से अन्य अर्थ की प्राप्ति अर्थापत्ति है । 3 स्पष्ट है कि दर्शन की अर्थापत्ति-विषयक मान्यता को ही स्वीकार कर आचार्यों ने उसी नाम से काव्यालङ्कार की कल्पना की है । स्वभावतः ही अर्थापत्ति के स्वरूप में एकरूपता ही रही है । एक अर्थ से अन्य अर्थ का साधन - दण्डापूपन्याय या तुल्यन्याय से एक के कथन से अन्य अर्थ की सिद्धि - अर्थापत्ति अलङ्कार है ।
१. द्रष्टव्य — जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७५२-५३
२. दण्डापूपिकयार्थान्तरापतनमर्थापत्तिः । - रुय्यक, अलङ्कार सूत्र, ६३ दण्डापूपिकयान्यार्थागमोऽर्थापत्तिरिष्यते ।
- विश्वनाथ, साहित्यदर्पण पृ० १०,७६०३. केनचिदर्थेन तुल्यन्यायत्वादर्थान्तरस्यापत्तिरर्थापत्तिः ।
—जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७६६
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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
विकल्प
रुय्यक ने विकल्प की कल्पना अलङ्कार के रूप में की। दो विरोधी विचार जब एक साथ समान बल के साथ मन में उठते हैं तो उस मनःस्थिति को विकल्प की स्थिति कहते हैं । रुय्यक की विकल्प अलङ्कार-धारणा ऐसी ही मनोदशा — विकल्प की मनोदशा — पर आधृत है । इस अलङ्कार की परिभाषा में रुय्यक ने कहा है कि समान बल वाले विरोधी अर्थों की (विचारों की ) योजना में विकल्प अलङ्कार होता है । ' अभिप्राय यह कि समान प्रमाण से युक्त होने के कारण तुल्यबल वाले दो पदार्थों का एक ही समय एकत्र संयोजन जिनमें से एक का चयन करना हो, विकल्प अलङ्कार है । रुय्यक ने औपम्यगर्भ होने में विकल्प की चारुता मानी है । उन्होंने विकल्प को समुच्चय का प्रतिपक्षी कहा है ।
विश्वनाथ ने रुय्यक की विकल्प धारणा को स्वीकार करते हुए उसमें कविचातुरी का उल्लेख किया है । इस प्रकार उनके अनुसार जहाँ कवि तुल्यबल वाले विरोधी पदार्थों का चातुरीपूर्ण निबन्धन करता हो, वहाँ विकल्प अलङ्कार होगा । *
अप्पय्य दीक्षित ने भी रुय्यक, विश्वनाथ आदि की विकल्प- धारणा को ही स्वीकार किया है । उन्होंने विकल्प की परिभाषा में कवि चातुरी आदि का उल्लेख आवश्यक नहीं समझ कर केवल तुल्यबल वाले पदार्थों के विरोध में विकल्प अलङ्कार माना है । 3
पण्डितराज जगन्नाथ ने भी विकल्प-विषयक प्राचीन मान्यता को ही स्वीकार किया, किन्तु उसकी परिभाषा में थोड़ा परिष्कार किया । उनके अनुसार तुल्यबल वाले पदार्थों की एक ही समय एकत्र प्राप्ति तो सम्भव नहीं, पर विरोधी पदार्थों की पाक्षिकी प्राप्ति सम्भव है । अतः उन्होंने विकल्प की परिभाषा में कहा कि तुल्यबल वाले पदार्थों की पाक्षिकी प्राप्ति विकल्प है । रुय्यक की तरह
१. तुल्यबलविरोधो विकल्पः । -- रुय्यक, अलंकारसूत्र, ६४ २. विकल्पस्तुल्यबलयोर्विरोधश्चातुरीयुतः ।
[ ६४१
३. विरोधे तुल्यबलयोर्विकल्पालंकृतिर्मता ।
४१
- विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०,
१०६ - अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, ११४
—जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७७३
४. विरुद्धयो: पाक्षिकी प्राप्तिर्विकल्पः ।
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६४२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उन्होंने भी विकल्प को समुच्चय का प्रतिपक्षी या विपरीतधर्मा कहा और उसका सौन्दर्य औपम्यगर्भ होने में माना ।
froकर्ष यह कि ऐसी स्थिति की कल्पना, जिसमें समान बल वाले दो पदार्थों के एक साथ एकत्र प्राप्त होने पर एक पक्ष के ग्रहण का निर्णय करना हो, विकल्प का उदाहरण मानी जायगी। दो विरोधी पक्षों में एक का बल अधिक तथा दूसरे का बल कम होने पर पक्ष-ग्रहण के निर्णय में विकल्प की स्थिति ही नहीं आयेगी । समान बल वाले पदार्थों में से एक के चयन में मन अनिर्णय की स्थिति में पड़ता है, उसमें विकल्प की स्थिति आती है । व्यक्ति के सामने दो पदार्थ रहते हैं, दोनों में समान आकर्षण या विकर्षण रहता है तथा दोनों में से एक पक्ष के ग्रहण का विकल्प उसके सामने रहता है । ऐसी ही स्थिति की कल्पना में विकल्प अलङ्कार की सत्ता मानी गयी है । विकास की दृष्टि से विकल्प के स्वरूप में एकरूपता रही है ।
श्रसम्भव
असम्भव अलङ्कार के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना जयदेव के पूर्व नहीं हुई थी । जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने इसके अस्तित्व को स्वीकार कर "अर्थ निष्पत्ति का असम्भाव्यत्व - वर्णन' इसका लक्षण माना । जगन्नाथ आदि आचार्यों ने असम्भव का अलङ्कारत्व स्वीकार नहीं किया है । कारण यह है कि असम्भव का स्वरूप विरोधाभास से इतना मिलता-जुलता है कि विरोधाभास में ही असम्भव का अन्तर्भाव सम्भव है । 'कुवलयानन्द' के टीकाकार ने टिप्पणी में इस तथ्य का निर्देश किया है कि असम्भव का दिया हुआ उदाहरण विरोधाभास का भी उदाहरण है । अतः, असम्भव का विरोधाभास से स्वतन्त्र अस्तित्व मानना कुछ लोग उचित नहीं समझते । अस्तु, एक आचार्य के द्वारा कल्पित होने तथा उनके कुछ अनुयायियों के द्वारा उसी रूप में स्वीकृत होने के कारण असम्भव का एक ही रूप मान्य रहा – 'अर्थ निष्पत्ति के असम्भव होने का वर्णन ।'
१. असम्भवोऽर्थनिष्पत्तरसम्भाव्यत्ववर्णनम् ।
- अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, ८४ २. नेदमलंकारान्तरम्; किन्तु विरोधाभासः 'अयं वारामेको निलय' इत्यत्रोदाहृतपद्य पानक्रियाया अगस्त्येन कर्त्रा समुद्र ेण कर्मणा च द्रव्येण विरोधः ; अगस्त्यमुनेर्नाम मनुजविशेषस्य समुद्रपानक्रियाऽसंभवात् ; सोऽयं विरोधो हि मुनेस्तपःप्रभावातिरेकेण परास्त इति विरोधाभास एवेत्यन्ये । - - कुवलयानन्द, टिप्पणी, पृ० १०८
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ६४३
सम्भावना
सम्भावना अलङ्कार के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना पहली बार जयदेव के समय में हुई। अप्पय्य दीक्षित ने जयदेव की सम्भावना-विषयक मान्यता को स्वीकार किया। इन आचार्यों ने यह धारणा प्रकट की कि जहाँ 'यदि ऐसा हो' की उक्ति होती है, वहाँ सम्भावना अलङ्कार होता है। यदि ऐसा हो' इस प्रकार की ऊहा अन्य अर्थ की सिद्धि के लिए की जाती है। अतः, सम्भावना अलङ्कार का यह लक्षण माना गया कि जहाँ अन्य अर्थ की सिद्धि . के लिए यह ऊहा की जाती हो कि 'यदि ऐसा होता तो यह होना सम्भव था, वहाँ सम्भावना अलङ्कार होता है।' जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित के पूर्ववर्ती मम्मट आदि आचार्यों ने 'यद्यर्थ' की उक्ति को-'यदि ऐसा हो तो यह हो सकता है' की उक्ति की कल्पना को–अतिशयोक्ति का एक भेद माना था। अतिशयोक्ति के उस भेद को जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने एक स्वतन्त्र अलङ्कार मान लिया और उसकी प्रकृति के अनुरूप उसे सम्भावना अभिधान दिया। पण्डितराज जगन्नाथ आदि परवर्ती आचार्यों ने भी सम्भावना का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं माना है। सम्भावना के उदाहरण को पण्डितराज अतिशयोक्ति का ही उदाहरण मानते हैं। अस्तु, अतिशयोक्ति के एक भेद के रूप में कल्पित स्वरूप ही जयदेव आदि के द्वारा सम्भावना संज्ञा से स्वतन्त्र अलङ्कार मान लिया गया। उसका एक-सा ही रूप रहा-अन्य अर्थ की सिद्धि के लिए 'यदि ऐसा हो' की उक्ति की कल्पना। मिथ्याध्यवसिति
मिथ्याध्यवसिति अलङ्कार की भी प्रथम कल्पना जयदेव के समय ही हुई। जयदेव के मतानुयायी अप्प-य दीक्षित ने भी मिथ्याध्यवसिति का सोदाहरण लक्षण-निरूपण किया। इसके स्वरूप के सम्बन्ध में कहा गया है कि जहाँ किसी अर्थ का मिथ्यात्व या असम्भाव्यत्व सिद्ध करने के लिए अन्य मिथ्या या असम्भव अर्थ की कल्पना की जाती है, वहाँ मिथ्याध्यवसिति अलङ्कार होता है । २ अप्पय्य दीक्षित ने इसका जो उदाहरण दिया है इसका आशय इस प्रकार
१. सम्भावना यदीत्थं स्यादित्यूहोऽन्यस्य सिद्धये ।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १२६ २. किंचिन्मिथ्यात्वसिद्ध यथं मिथ्यार्थान्तरकल्पनम् ।
मिथ्याध्यवसिति :....................||-वही, १२७
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६४४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
है-'आकाश-कुसुम की माला धारण कर वह वाराङ्गना को वश में कर रहा है।' इसमें वारवनिता को वश में करने के असम्भाव्यत्व की सिद्धि के लिए अन्य मिथ्या अर्थ-आकाश-कुसुम की माला धारण करने के अर्थ-की कल्पना की गयी है। अतः, यहाँ मिथ्याध्यवसिति की सत्ता मानी गयी है। परवर्ती आचार्यों ने मिथ्याध्यवसिति का स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में अस्तित्व स्वीकार नहीं किया है। सम्भव है, वे असम्बन्ध में सम्बन्ध-रूप अतिशयोक्ति से अलग मिथ्याध्यवसिति के अस्तित्व की कल्पना आवश्यक नहीं मानते हों । अप्पय्य दीक्षित ने अतिशयोक्ति के उक्त भेद से 'किञ्चित् मिथ्यात्व की सिद्धि के लिए मिथ्या अर्थान्तर की कल्पना' में कुछ अलग विच्छित्ति मानी है। अस्तु ! विकास की दृष्टि से मिथ्याध्यवसिति के स्वरूप में एकरूपता ही रही है । समाधि
समाहित अलङ्कार के स्वरूप के विकास-क्रम का अध्ययन करने के क्रम में हम देख चुके हैं कि उसके सम्बन्ध में दो प्रकार की धारणाएँ व्यक्त हुई थीं और पीछे चलकर उन दो प्रकार की धारणाओं के आधार पर दो अलङ्कारों की कल्पना सम्भव हुई। समाहित का एक रूप, जो रसभाव की शान्ति के साथ सम्बद्ध माना गया; वह तो परवर्ती काल में भी समाहित संज्ञा से ही स्वीकृत हुआ; पर भामह, दण्डी आदि ने कारणान्तर की अनायास उपलब्धि से आरब्ध कार्य के सौकर्य की जो धारणा समाहित में व्यक्त की थी, वह समाहित से स्वतन्त्र समाधि के नाम से स्वीकृत हुई । इस प्रकार अप्पय्य दीक्षित आदि की समाधि भामह तथा दण्डी के समाहित से अभिन्न है; पर उद्भट के रस-भावप्रशम रूप समाहित से भिन्न है। समाधि का लक्षण इस प्रकार दिया गया है 'कारणान्तर के योग से प्रारब्ध कार्य का सुकर होना समाधि है।'' जगन्नाथ को भी समाधि का यही स्वरूप मान्य है। इस प्रकार विकास-क्रम की दृष्टि से भामह के 'काव्यालङ्कार' में ही समाधि-धारणा का आरम्भ हुआ। दण्डी ने उस धारणा को परिभाषित तथा स्वीकृत किया। भामह एवं दण्डी ने उसे समाहित ही कहा था । उद्भट के समय से समाहित के सम्बन्ध में भामह, १. समाधिः कार्यसौकर्य कारणान्तरसन्निधेः ।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, ११८ २. एककारणजन्यस्य कार्यस्याकस्मिककारणान्तरसमवधानाहितसौकर्य
समाधिः । -जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७८० ३. द्रष्टव्य-भामह, काव्यालङ्कार, ३,१० तथा दण्डी, काव्यादर्श, २,२६८
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ६४५
दण्डी आदि की धारणा से भिन्न धारणा चल पड़ी। अब समाहित के दो रूप हो गये-भामह, दण्डी आदि के द्वारा स्वीकृत रूप तथा उद्भट आदि के द्वारा कल्पित रूप । पीछे चलकर जयदेव, अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि ने भामह, दण्डी आदि के समाहित को-कारणान्तर के योग से कार्य के सौकर्य-वर्णनरूप को-समाधि के नाम से तथा उद्भट आदि के समाहित को-रस-भाव के प्रशम रूप को-समाहित के नाम से स्वीकार किया। समाधि को अभिधान तो दो मिले—समाहित तथा समाधि; पर उसका रूप एक-सा ही कल्पित है। उसका सर्वसम्मत रूप है—'अन्य कारण की अनायास उपलब्धि से आरब्ध कार्य के सुकर होने का वर्णन ।' प्रौढोक्ति
प्रौढोक्ति अलङ्कार की कल्पना जयदेव के पूर्व नहीं हुई थी। जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने प्रौढोक्ति को परिभाषित करते हुए कहा है कि जो वस्तुतः किसी अर्थ के उत्कर्ष का हेतु न हो, उसे उस अर्थ के उत्कर्ष-हेतु के रूप में कल्पित करना प्रौढोक्ति है।' पण्डितराज जगन्नाथ ने कुछ स्वतन्त्र रूप से प्रौढोक्ति की परिभाषा दी है। उनका कहना है कि किसी वस्तु में किसी धर्म के अतिशय के प्रतिपादन के उद्देश्य से उस धर्म वाले प्रसिद्ध पदार्थ के साथ उस ( वर्ण्य ) वस्तु का संसर्ग दिखाना प्रौढोक्ति अलङ्कार है।
जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने प्रौढोक्ति के जिस स्वरूप की कल्पना की है, वह अतिशयोक्ति का ही एक रूप-असम्बन्ध में सम्बन्ध प्रकल्पन-माना जा सकता है। जगन्नाथ के द्वारा कल्पित प्रौढोक्ति का स्वरूप अपना स्वतन्त्र सौन्दर्य रखता है। किसी के गुणातिशय का निरूपण करने के लिए अन्य वस्तुओं के साथ, जिनमें वैसे गुण प्रसिद्ध हों, उसका संसर्ग दिखाना कविपरम्परा में प्रसिद्ध है। महाभारत में भीष्म कर्ण की भर्त्सना करते हुए उसे अधर्मी प्रमाणित करने के लिए कुमारी-पुत्र बताते हैं। कुमारी-पुत्र का कुमारी माता के संसर्ग से अधर्मी होना स्वाभाविक ही है। चन्द्रमा को अमृत के साथ समुद्र से उत्पन्न होने के कारण अमृतमय कहकर अमृत-संसर्ग से उसकी
१. प्रौढोक्तिरुत्कर्षाहेतौ तद्धेतृत्वप्रकल्पनम् ।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १२५ २. कस्मिंश्चिदर्थे किंचिद्धर्मकृतातिशयप्रतिपिपादयिषया प्रसिद्धतद्धर्मवत्ता
संसर्गस्योद्भावनं प्रौढोक्तिः।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७८८
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६४६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण मधुरता प्रमाणित की जाती है। जगन्नाथ के मतानुसार ऐसे स्थल में प्रौढोक्ति मानी जानी चाहिए । निष्कर्षतः, प्रौढोक्ति के दो रूप निरूपित हुए :
(क) जो किसी वस्तु के गुणोत्कर्ष का हेतु न हो उसे उसके उत्कर्ष का हेतु बताना तथा
(ख) किसी के गुणोत्कर्ष-प्रतिपादन के लिए वैसे गुण वाले प्रसिद्ध पदार्थों के साथ उस संसर्ग-वर्णन । प्रथम रूप को अतिशयोक्ति में अन्तभुक्त माना जा सकता है । ta ., रूप ही उसे स्वतन्त्र अस्तित्व प्रदान करता है। प्रहर्षण
जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित के द्वारा प्रहर्षण का स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में निरूपण किया गया। प्रहर्षण के तीन रूप कल्पित हुए। जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने प्रहर्षण के तीनों रूपों को अलग-अलग परिभाषित किया। उनके अनुसार, विना प्रयत्न के ही उद्दिष्ट फल की प्राप्ति प्रहर्षण का एक रूप; वाञ्छित अर्थ से अधिक की सिद्धि उसका दूसरा रूप तथा फल-प्राप्ति के लिए किये जाने वाले यत्न से बीच में ही, सम्पूर्ण यत्न की अपेक्षा के विना ही, साक्षात् फल का लाभ उसका तीसरा रूप है।'
पण्डितराज जगन्नाथ को प्रहर्षण के उक्त तीनों रूप मान्य हैं; पर उन्होंने तीनों को पृथक्-पृथक् परिभाषित नहीं कर प्रहर्षण की एक व्यापक परिभाषा दी और उन तीनों रूपों को प्रहर्षण के तत्तद् भेद स्वीकार किये । उनके अनुसार, उद्देश्य-सिद्धि के यत्न के विना भी उद्दिष्ट अर्थ की साक्षात् प्राप्ति प्रहर्षण का सामान्य लक्षण है। इस प्रहर्षण के उक्त तीन रूप सम्भव है। तीनों रूपों में यह लक्षण सामान्य रूप से घटित होता है। प्रयत्न के विना अर्थ-लाभ तो इस लक्षण में कहा ही गया है ; उद्दिष्ट से अधिक अर्थ का लाभ भी अधिकार्थ लाभ के लिए यत्न के विना ही होता है। अतः इस रूप का भी समावेश उस सामान्य प्रहर्षण-लक्षण में हो जाता है। यत्न के बीच ही अर्थ-लाभ भी यत्न की अपेक्षा-पूर्ण यत्न की अपेक्षा नहीं रखता; अतः इस
१. उत्कण्ठितार्थसंसिद्धिविना यत्नं प्रहर्षणम् ।
वाञ्छितादधिकार्थस्य संसिद्धिश्च प्रहर्षणम् । तथायत्नादुपायसिद्ध यर्थात्साक्षाल्लाभः फलस्य च ।
.-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १२६, १३०, १३१,
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ६४७
रूप में भी उस लक्षण की व्याप्ति है।' निष्कर्षतः, जगन्नाथ की यह प्रहर्षण-परिभाषा ही समीचीन है। उद्देश्य-सिद्धि के लिए अपेक्षित यत्न के विना भी अभीष्ट अर्थ का साक्षात् लाभ प्रहर्षण का सामान्य लक्षण है। इसके तीन रूप हैं
(१) विना यत्न के अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति, (२) वाञ्छित अर्थ से अधिक की प्राप्ति तथा (३) फल-प्राप्ति के यत्न के बीच ही फल का साक्षात् लाभ ।
विषादन
विषादन की भी कल्पना जयदेव के समय ही हुई। जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने अभीष्ट अर्थ के विरुद्ध अर्थ की प्राप्ति में विषादन अलङ्कार माना था।२ पण्डितराज जगन्नाथ ने भी विषादन का यही स्वरूप स्वीकार किया है । अभीष्ट अर्थ के विरुद्ध अर्थ की प्राप्ति विषाद का हेतु होती है। इसलिए विषादन इस अलङ्कार की प्रकृति के अनुकूल संज्ञा है। विषादन के स्वरूप में विकास की कोई स्थिति नहीं आयी है।
'कुवलयानन्द' की टिप्पणी में इस तथ्य का सङकेत दिया गया है कि विषादन को स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं मानकर कुछ आचार्य उसे काव्यलिङ्ग में ही अन्तभुक्त मानते हैं। हमने इसके औचित्य पर अपरत्र विचार किया है।
उल्लास
उल्लास अलङ्कार भी जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित की कल्पना है । एक के गुण तथा दोष से दूसरे के गुण-दोष के होने का वर्णन उनके अनुसार उल्लास का लक्षण है। किसी के गुण से दूसरे का गुण-वर्णन, किसी के गुण से दूसरे का
१. साक्षादुद्देश्यकयत्नमन्तरेणाप्यभीष्टार्थस्य लाभः प्रहर्षणम् । इदं च
सामान्यलक्षणं त्रिविधप्रहर्षणसाधारणम्।-जगन्नाथ, रसगङ्गा०, पृ०७६८ २. इष्यमाणविरुद्धार्थसम्प्राप्तिस्तु विषादनम् ।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १३२ ३. अभीष्टार्थविरुद्धलाभो विषादनम् । -जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ८०१ ४. द्रष्टव्य-प्रस्तुत ग्रन्थ अध्याय २ ५. एकस्य गुणदोषाभ्यामुल्लासोऽन्यस्य तौ यदि ।
—अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १३३
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६४८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
दोष-वर्णन, किसी के दोष से दूसरे का गुण-वर्णन तथा किसी के दोष से दूसरे का दोष-वर्णन उल्लास के चार सम्भव रूप हैं। जगन्नाथ को भी दूसरे के गुण-दोष से दूसरे में गुण-दोष का आधान अर्थात् अन्य के गुण-दोष से अन्य के गुण-दोषत्व का बोध उल्लास का लक्षण मान्य है। उन्होंने भी उल्लास के उक्त चार भेद स्वीकार किये है।' स्पष्ट है कि उल्लास के जिस स्वरूप की कल्पना जयदेव के समय हुई, वही पीछे भी स्वीकृत हुई। अतः, उल्लास-धारणा में एकरूपता रही है।
अवज्ञा
अवज्ञा अलङ्कार उल्लास का विपरीतधर्मा है। उल्लास में एक के गुणदोष से अन्य के गुण-दोष का वर्णन होता है। इसके विपरीत जहाँ एक के गुण-दोष से अन्य के गुण-दोष का लाभ नहीं करना वर्णित हो, वहाँ अवज्ञा अलङ्कार माना जाता है। 'छोटा पात्र समुद्र में जाकर भी थोड़ा ही जल ले पाता है' ऐसे कथन में समुद्र की विशालता का क्षुद्र जलपात्र के द्वारा प्राप्त न किये जा सकने का वर्णन अवज्ञा का उदाहरण होगा।
अवज्ञा अलङ्कार की कल्पना जयदेव के पूर्व नहीं हुई थी। जयदेव एवं अप्पय्य दीक्षित ने अवज्ञा की परिभाषा में कहा है कि जहाँ एक के गुण-दोष से दूसरे के गुण-दोष के अलाभ का वर्णन हो, वहाँ अवज्ञा अलङ्कार होता है। पण्डितराज जगन्नाथ ने अवज्ञा की स्वतन्त्र परिभाषा नहीं देकर उल्लास को परिभाषित करने के उपरान्त कहा है कि उल्लास का विपर्यय अवज्ञा है । 3 स्पष्ट है कि जगन्नाथ की अवज्ञा-धारणा जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित की धारणा से अभिन्न है। इस प्रकार अवज्ञा की धारणा में एकरूपता ही रही है।
१. अन्यदीयगुणदोषप्रयुक्तमन्यस्य गुणदोषयोराधानमुल्लासः । तच्च गुणे गुणस्य दोषस्य वा दोषेण गुणस्य दोषस्य वेति चतुर्धा ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ८०३ २. ताभ्यां तौ यदि न स्यातामवज्ञालंकृतिस्तु सा।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १३६ ३. तद्विपर्ययोऽवज्ञा । तस्योल्लासस्य विपर्ययोऽभावः .......।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ८०५
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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ६४६
जगन्नाथ ने अवज्ञा के विशेषोक्ति में अन्तर्भाव की सम्भावना का सङ्क ेत दिया है । कुछ आचार्य विशेषोक्ति से पृथक् अवज्ञा की सत्ता की कल्पना आवश्यक नहीं मानते ।
अनुज्ञा
जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने अनुज्ञा अलङ्कार की कल्पना कर उसके स्वरूप के सम्बन्ध में यह धारणा प्रकट की है कि जहाँ दोष में ही गुण देखकर उस दोष की प्राप्ति की इच्छा प्रकट की जाय, वहाँ अनुज्ञा होती है । " किसी भक्त का यह उद्गार कि, मैं सदा दीन ही बना रहना चाहता हूँ, जिस अवस्था में दीनबन्धु-जैसे मित्र प्राप्त होते हैं' अनुज्ञा का उदाहरण माना जायगा, चूँकि इसमें दीनता - जैसे दोष में गुण ( ईश्वर के अनुराग - रूप - गुण ) की कल्पना कर उस दोष की ही अभ्यर्थना की गयी है ।
पण्डितराज को भी अनुज्ञा का यही रूप मान्य है । उनके अनुसार किसी उत्कृष्ट वैशिष्ट्य के लाभ की लालसा से दोष के रूप में प्रसिद्ध वस्तु की प्रार्थना अनुज्ञा है । लेश के एक रूप - दोष में गुण तथा गुग में दोष प्रकल्पन-रूप- - से अनुज्ञा का बहुत सूक्ष्म भेद यह है कि लेश में दोष को केवल गुण बताया जाता है; पर अनुज्ञा में दोष के रूप में प्रसिद्ध वस्तु को गुण मान कर उसी की प्राप्ति की इच्छा की जाती है । ऐतिहासिक दृष्टि से अनुज्ञा का एक ही रूप रहा है - उत्कृष्ट - विशेष की लालसा से लोक-प्रसिद्ध दोष को गुण मानकर उसे प्राप्त करने की इच्छा का वर्णन ।
तिरस्कार
तिरस्कार पण्डितराज जगन्नाथ की उद्भावना है। उन्होंने अनुज्ञा के आधार पर ही तिरस्कार अलङ्कार के स्वरूप की कल्पना की है । अनुज्ञा के स्वरूप की स्थापना पण्डितराज के पूर्व हो चुकी थी, जिसमें लोक-प्रसिद्ध दोष में
गुण की कल्पना कर दोष की प्राप्ति की इच्छा अपेक्षित मानी गयी है । जगन्नाथ ने लोक - प्रसिद्ध गुण में दोष की कल्पना कर उस गुण की प्राप्ति की अनिच्छा
१. दोषस्याभ्यर्थनानुज्ञा तत्रैव गुणदर्शनात् । - अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १३७ २. उत्कृष्टविशेषलालसया दोषत्वेन प्रसिद्धस्यापि वस्तुनः प्रार्थनमनुज्ञा । —जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ८०७
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६५० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अर्थात् गुण के तिरस्कार में तिरस्कार अलङ्कार माना है।' दैन्य को भगवद्भक्ति के अनुकूल मानकर दोष-रूप में प्रसिद्ध दैन्य की अभ्यर्थना अनुज्ञा का उदाहरण है तो समृद्धि को ईशभक्ति में बाधक समझ कर गुण-रूप में प्रसिद्ध समृद्धि की प्राप्ति की अनिच्छा तिरस्कार अलङ्कार का उदाहरण है। तिरस्कार अन्वर्था संज्ञा है। स्वरूप-विकास की दृष्टि से पण्डितराज की तिरस्कार-धारणा में परिवर्तन की कोई स्थिति नहीं आयी है। मुद्रा ____ भोज ने मुद्रा को शब्दालङ्कार मानकर उसके स्वरूप का निरूपण किया था। उनके अनुसार वक्ता के साभिप्राय वचन का वाक्य में विनिवेश मुद्रा है। अभिप्राय यह कि जहाँ कोई पद, पदांश तथा वाक्य अपने अर्थ का बोध कराने के साथ वक्ता के विशेष अभिप्रेत अर्थ की भी सूचना देते हों, वहाँ मुद्रा अलङ्कार होगा।
जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने मुद्रा के इसी रूप को स्वीकार कर उसे अर्थालङ्कार माना है। उनके अनुसार प्रकृत अर्थ का बोध कराने वाले पदों से सूच्य अर्थ को सूचित करना मुद्रा है।
नाटकों में प्रकृतार्थपरक पद से किसी विशेष अर्थ की सूचना देने की परिपाटी रही है। उस पद्धति को मुद्रा नाम से ही अभिहित किया जाता रहा है। उस नाट्य-तत्त्व को भोज ने शब्दालङ्कार के रूप में तथा अप्पय्य दीक्षित आदि ने अर्थालङ्कार के रूप में स्वीकार किया है । मुद्रा के स्वरूप की धारणा में एकरूपता ही रही है। रत्नावली
रत्नावली की स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में सत्ता, केवल जयदेव तथा उनके मतानुयायी अप्पय्य दीक्षित को मान्य है। इस अलङ्कार की परिभाषा में १. एवं दोषविशेषानुबन्धाद्गुणत्वेन प्रसिद्धस्यापि द्वषस्तिरस्कारः ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ८०७. २. साभिप्रायस्य वाक्ये यद्वचसो विनिवेशनम्।। ____ मुद्रां तां मुत्प्रदायित्वात्काव्यमुद्राविदो विदुः ॥
-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, २, ४०. ३. सूच्यार्थसूचनं मुद्रा प्रकृतार्थपरैः पदैः ।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १३६.
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ६५१
कहा गया है कि प्रकृत अर्थों का क्रमिक विन्यास रत्नावली है।' अर्थात्, प्रसिद्ध सहपाठ वाले पदार्थों का क्रम से विनिवेश रत्नावली का लक्षण है । अप्पय्य दीक्षित ने एक जगह यह कहा है कि प्रसिद्ध सहपाठ वाले पदार्थों का प्रसिद्ध क्रम से विनिवेश भी रत्नावली है। इससे स्पष्ट है कि प्रसिद्ध सहपाठ के प्रसिद्ध क्रम से विनिवेश के अतिरिक्त स्थल में भी रत्नावली हो सकती है। अतः, 'कुवलयानन्द' के टीकाकार का यह निष्कर्ष उचित ही है कि प्रसिद्ध सहपाठ वाले पदार्थों का न्यास ही रत्नावली का लक्षण है। ऐसे पदार्थों के क्रम से विन्यास तथा अक्रम-विन्यास के आधार पर रत्नावली के दो भेद माने जा सकते हैं। उदाहरण के लिए ईश्वर के दश अवतार का सहपाठ प्रसिद्ध है। पुराणों में वर्णित अवतार-क्रम से सभी अवतारों का एकत्र विन्यास भी हो सकता है औ: क्रम के भी। दोनों को रत्नवली का उदाहरण माना जायगा।
उद्योतकार ने रत्नावली के स्वतन्त्र अस्तित्व का खण्डन करते हुए कहा है कि उसके उदाहरण में वर्ण्य का उपस्कार प्रसिद्ध सहपाठ का क्रम-विन्यास नहीं करता, वह उपस्कार रूपक आदि अन्य अलङ्कारों से होता है। अतः, ऐसे उदाहरण में रत्नावली नामक स्वतन्त्र अलङ्कार की कल्पना आवश्यक नहीं है। पण्डितराज जगन्नाथ आदि को भी रत्नावली का स्वतन्त्र अस्तित्व मान्य नहीं है । अस्तु, स्वरूप-विकास की दृष्टि से उसका एक ही रूप कल्पित हुआ है, जिसकी परीक्षा ऊपर की जा चुकी है। लोकोक्ति
जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने लोकोक्ति को भी एक स्वतन्त्र अलङ्कार माना है। इस अलङ्कार के लक्षण में कहा गया है कि जहाँ लोकवाद अर्थात् ' लोक-प्रचलित उक्ति का अनुकरण काव्य में हो, वहाँ लोकोक्ति अलङ्कार होता
१. क्रमिकं प्रकृतार्थानां न्यासं रत्नावली विदुः । —कुवलयानन्द, १४० २. प्रसिद्धसहपाठानां प्रसिद्धक्रमानुसरणेऽप्येवमेवालङ्कारः ।
-वही, वृत्ति, पृ० १५६ ३. प्रसिद्धसहपाठानामर्थानां न्यसनं रत्नावलीति सामान्यलक्षणम् ।
-वही, टीका, पृ० १५६.. ४. उद्योतकार का यह मत काव्यप्रकाश की बालबोधिनी टीका में
-उद्धृत, पृ० ७४१
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६५२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण है।' यह सर्वविदित तथ्य है कि लोक-जीवन में ऐसी असंख्य उक्तियाँ प्रचलित रहती हैं , जो अपनी अकृत्रिमता में ही प्रभावोत्पादक हुआ करती है। कवि लोक-जीवन का चित्रण करने के क्रम में ऐसी बहुत-सी उक्तियों का उपयोग करते है। जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि लोक-प्रवाद की अनुकृति में लोकोक्ति अलङ्कार मानते हैं।
पण्डितराज जगन्नाथ आदि ने लोकोक्ति का अलङ्कारत्व स्वीकार नहीं किया है। लोकोक्ति अलङ्कार की सत्ता स्वीकार करने में एक कठिनाई यह है कि लोक-उक्ति तथा कवि की उक्ति में भेद करना सरल नहीं । कवि लोक-प्रवाद का अनुकरण करता है, लोक-प्रचलित मार्मिक उक्तियों का काव्य में उपयोग करता है, तो असंख्य कवि-कल्पित उक्तियाँ भी सूक्तियों के रूप में लोक में "चल पड़ती है। यह आदान-प्रदान सनातन रूप से चलता रहता है । अतः काव्योक्ति तथा लोकोक्ति का विभाग कठिन है। काव्य में प्रयुक्त प्रत्येक उक्ति ( भले ही वह कभी लोकोक्ति रही हो ) काव्योक्ति होती है। उसे अलङ्कारविशेष मानना युक्तिसङ्गत नहीं जान पड़ता। ऐसी उक्तियाँ अलङ्कार्य ही होंगी। अस्तु, एक ही सम्प्रदाय के आचार्यों के द्वारा स्वीकृत होने के कारण लाकोक्ति की धारणा एक-सी ही रही है। छेकोक्ति
छेकोक्ति का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता है विदग्ध उक्ति; परन्तु अलङ्कारविशेष के रूप में उसका स्वरूप लोकोक्ति के सन्दर्भ में निरूपित हुआ है। लोक-प्रचलित उक्ति की अनुकृति (जो लोकोक्ति है ) यदि अर्थान्तरगर्भ हो, अर्थात् ऐसी उक्तियों से यदि अर्थान्तर की भी व्यञ्जना होती हो तो जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि के अनुसार छेकोक्ति अलङ्कार होगा।
जगन्नाथ आदि परवर्ती आचार्यों ने लोकोक्ति की तरह छेकोक्ति को भी स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में स्वीकार नहीं किया है। विकास की दृष्टि से छेकोक्ति का एक ही रूप कल्पित हुआ है। निरुक्ति
जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने निरुक्ति को स्वतन्त्र अलङ्कार माना है। उनकी धारणा है कि जहाँ व्युत्पत्ति से विशिष्ट अर्य का प्रतिपादन करने वाले संज्ञा-पद १. लोकप्रवादानुकृतिर्लोकोक्तिरिति भण्यते ।।
___-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १५७ २. छेकोक्तिर्य त्र लोकोक्तेः स्यादर्थान्तरगभिता ।—वही, १५८
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ६५३ आदि का अन्य अर्थ भी प्रकाशित कराया जाता है, वहाँ निरुक्ति अलङ्कार होता है।' निरुक्ति का अर्थ है शब्द का निर्वचन या उसके व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ का निर्देश । इस अलङ्कार में नाम की व्युत्पत्ति के आधार पर उसके प्रसिद्ध अर्थ के साथ अन्यार्थ प्रकाशन की धारणा व्यक्त की गयी है। उदाहरण के लिए कनिष्ठिका के ठीक बाद रहने वाली अनामिका उँगली के यौगिक अर्थ ( जिस पर कोई नाम नहीं आ सके ) को दृष्टि में रखकर जहाँ यह कल्पना की गयी कि कवि-गणना के प्रसङ्ग में कभी कनिष्ठिका पर कालिदास का नाम गिना गया; पर आज तक भी उनके समकक्ष गिने जाने वाले दूसरे कवि का नाम नहीं मिलने से कनिष्ठिका के आगे की उँगली अनामिका का नाम सार्थक है, वहाँ अप्पय्य दीक्षित आदि निरुक्ति मानेंगे; क्योंकि उसमें अनामिका अपने प्रसिद्ध नाम के साथ अन्य योगार्थ का भी प्रकाशन करती है। जगन्नाथ आदि ने इसका स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार नहीं किया है। निरुक्ति-धारणा में एकरूपता ही रही है। निरुक्ति के उदाहरणों में अन्यार्थ प्रकाशन श्लेष-महिमा से माना जा सकता है। अतः निरुक्ति को श्लेष का ही एक रूप माना जा सकता है। प्रतिषेध
प्रतिषेध अलङ्कार में प्रसिद्ध अर्थात् सर्वविदित निषेध का अनुकीर्तन अपेक्षित" माना गया है ।२ ज्ञात निषेध का प्रतिपादन अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता, उसकी सार्थकता इस बात में होती है कि विदित निषेध का प्रदर्शन करने में वक्ता का कोई गूढ आशय छिपा रहता है। महाभारत युद्ध में शकुनी के प्रति यह उक्ति कि 'यह युद्ध । त-क्रीड़ा नहीं है' प्रतिषेध अलङ्कार का एक उदाहरण है। युद्ध में चूत का निषेध अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता। युद्ध य त नहीं है, यह तथ्य तो विदित ही है । निषेध प्राप्त का होता है। युद्ध में घ तत्व की प्राप्ति ही नहीं होती। अतः, अप्राप्त का निषेध होने के कारण उक्त कथन व्यर्थ पड़कर वक्ता के एक विशेष आशय को प्रकट करता है। वक्ता का आशय यह है कि तुम्हारा कौशल घ् त-क्रीड़ा तक ही है; युद्धक्षेत्र में तुम्हारा कौशल नहीं चलेगा। अतः प्रतिषेध लक्षण का सार यह है कि १. निरुक्तिर्योगतो नान्मामन्यार्थत्वप्रकल्पनम् ।
-अप्पय्यदीक्षित कुवलयानन्द १६४ २. प्रतिषेधः प्रसिद्धस्य निषेधस्यानुकीर्तनम् ।-वही, १६५
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६५४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
किसी गूढ आशय से ज्ञात निषेध का प्रतिपादन अर्थात् अप्राप्त का निषेध प्रतिषेध अलङ्कार है। इस अलङ्कार का चमत्कार निषेध में नहीं, निषेध से प्रकट होने वाले गूढ आशय में है । जगन्नाथ आदि परवर्ती आचार्यों ने प्रतिषेध का अलङ्कारत्व स्वीकार नहीं किया है । जयदेव तथा अप्पय्य के द्वारा प्रतिषेध • के उक्त एक ही रूप की कल्पना की गयी है |
विधि
विधि को शोभाकर, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने स्वतन्त्र अलङ्कार माना है । विधि निषेध का विपरीतधर्मा है । ज्ञात का ही विधान विधि का स्वरूप माना गया है । ' ज्ञात का विधान किसी विशेष आशय को प्रकट करता है; अन्यथा वह व्यर्थ ही होगा । राम का यह कथन कि 'मैं राम हूँ' सिद्ध अर्थ का विधान है । यह कथन राम के व्यक्तित्व के विशिष्ट गुणों के निर्देश में सार्थक है, अन्यथा वे राम हैं; इस सिद्ध अर्थ के विधान का क्या प्रयोजन होता ? निष्कर्ष यह कि जहाँ सिद्ध अर्थ का विधान वक्ता के किसी विशेष आशय को उद्घाटित करे, वहाँ जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि के अनुसार विधि अलङ्कार होगा । विधि का भी एक ही रूप कल्पित हुआ । आदि परवर्ती आचार्यों ने इस अलङ्कार का निरूपण नहीं किया ।
जगन्नाथ
असम
असम शोभाकर मित्र के द्वारा कल्पित अलङ्कार है । वर्ण्य विषय को अद्वितीय बताने के लिए जहाँ कवि यह कल्पना करता है कि उसके समान कोई अन्य अर्थ नहीं है, वहाँ शोभाकर, जगन्नाथ आदि असम अलङ्कार मानते हैं। वर्ण्य का उत्कर्ष साधन अलङ्कार - योजना का एक प्रमुख उद्देश्य है । वर्ण्य को सर्वोत्कृष्ट प्रमाणित करने के लिए अनन्वय आदि की उक्तिभङ्गी पर प्राचीन आचार्यों ने भी विचार किया था । असम में भी वर्ण्य की सर्वोत्कृष्टता - का प्रतिपादन कवि का लक्ष्य रहता है; पर अनन्वय आदि से उसकी उक्ति - भङ्गी थोड़ी भिन्न होती है । असम में कवि वर्ण्य की अन्य वस्तु से उपमा का सर्वथा : निषेध करता है । निष्कर्षतः, जहाँ वर्ण्य के समान किसी अन्य वस्तु को न
१. सिद्धस्यैव विधानं यत्तमाहुर्विध्यलंकृतिम् । - अप्पय्य० कुवलया० १६६,
२. सर्वथैवोपमानिषेधे असमाख्योऽलङ्कारः ।
--जगन्नाथ, रसगङ्गावर, पृ० ३३२,
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[६५५
पाकर कवि किसी भी अन्य वस्तु के साथ वर्ण्य की तुलना का निषेध करता है, वहाँ जगन्नाथ के अनुसार असम अलङ्कार होता है। वर्ण्य के समान किसी अन्य के न होने का वर्णन होने असम से अन्वर्थ अभिधान है। असम के स्वरूप में, पीछे चल कर भी कोई विकास नहीं हुआ। संसृष्टि और सङ्कर
संसृष्टि एवं सङ्कर में एकाधिक अलङ्कारों के एकत्र सन्निवेश की विभिन्न प्रक्रियाओं पर विचार किया गया है। यद्यपि इनकी गणना भी स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में होती रही है; पर वस्तुतः ये स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं, तत्तद् अलङ्कारों का एकत्र विनिवेश होने पर उनके पारस्परिक सम्बन्ध के दो अलग-अलग रूप हैं। दो या अधिक अलङ्कार एकत्र परस्पर सापेक्ष रूप में-अङ्गाङ्गिभाव आदि से भी रह सकते हैं और परस्पर निरपेक्ष रूप में भी। दूसरे शब्दों में, वे दूध और पानी की तरह भी मिले हुए रह सकते हैं और तिल तथा चावल की तरह भी। इन दो प्रक्रियाओं पर क्रमशः सङ्कर और संसृष्टि अलङ्कारों में विचार किया गया है। दूध और पानी की तरह एक दूसरे से मिलकर या अङ्गाङ्गिभाव से परस्पर सापेक्ष होकर जहां दो या अधिक अलङ्कार रहें, वहाँ सामान्यतः सङ्कर तथा तिल और चावल की तरह एक दूसरे से मिले रहने पर भी परस्पर स्वतन्त्र रूप में परिलक्षित होने वाले दो या अधिक अलङ्कार जहाँ रहें, वहां सामान्यतः संसृष्टि मानी जाती है। किन्तु, यह अर्वाचीन धारणा है। संसृष्टि और सङ्कर का यह भेद आरम्भ से नहीं था। दण्डी आदि आचार्यों ने अलङ्कारों के पारस्परिक सम्बन्ध के उक्त दोनों रूपों को सङ्कीर्ण या संसृष्टि ही कहा है तथा दो रूपों के आधार 'पर संसृष्टि के दो भेद स्वीकार किये हैं। अस्तु, ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर सर्वप्रथम भामह के 'काव्यालङ्कार' में संसृष्टि की सूचना मिलती है। भामह ने सङ्कर का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं माना था। उनके परवर्ती दण्डी ने संसृष्टि के दो रूप स्वीकार किये, जिनमें से एक रूप पीछे चलकर सङ्कर के रूप में स्वीकृत हुआ। दण्डी की संसृष्टि के व्यापक स्वरूप में ही परवर्ती आचार्यों के द्वारा कल्पित सङ्कर की सम्भावना निहित थी। अनेक अलङ्कारों की संसृष्टि को दण्डी ने सङ्कीर्ण भी कहा है । उनके अनुसार सङ्कीर्ण या संसृष्टि के दो रूप हैं-(१) परस्पर अङ्गाङ्गिभाव से अवस्थिति तथा (२) सभी अलङ्कारों की समकक्षता । प्रथम में अनेक अलङ्कारों में से एक अलङ्कार प्रधान या अङ्गी
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६५६ ]
अलङ्कार- धारणा : विकास और विश्लेषण
के रूप में रहता है और अन्य अलङ्कार उसके अङ्ग हो जाते हैं । दूसरे में न कोई अङ्गी रहता है न कोई अङ्ग; न कोई प्रधान रहता है न कोई अप्रधान, सभी समकक्ष रहते हैं । '
उद्भट ने दण्डी के सङ्कीर्ण के उक्त दो भेदों को अलग-अलग कर संसृष्टि तथा सङ्कर नामक दो अलङ्कार माने । सङ्कर की संसृष्टि से स्वतन्त्र सत्ता की उद्भावना उद्भट ने की । उनके पूर्व सङ्कर का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकृत नहीं हुआ था, यद्यपि सङ्कर के स्वरूप की कल्पना पहले ही हो चुकी थी । उद्भट ने केवल सङ्कर के नाम तथा उनके पृथक् अस्तित्व की कल्पना की । उसके स्वरूप की धारणा उन्होंने दण्डी की सङ्कीर्ण या संसृष्टि धारणा से ही ली । सङ्कर के चार भेदों की कल्पना भी उद्भट ने ही प्रथम बार की। उद्भट के अनुसार सङ्कर तथा संसृष्टि के पृथक्-पृथक् रूप इस प्रकार हैं :
——
अनेक अलङ्कारों का ऐसा उल्लेख कि उनका एक होने का ज्ञान न हो, सङ्कर है । जहाँ दो अलङ्कार मिलकर एक बन जाते हैं, वहाँ सङ्कर नहीं माना जाता ( श्लेषोपमा, उपमारूपक आदि को सङ्कर नहीं माना जा सकता ) ।उद्भट ने सन्देह-सङ्कर (जहाँ दो अलङ्कारों के निर्णय में सन्देह की स्थिति हो ), शब्दार्थालङ्कार-सङ्कर (दो भेद, शब्द तथा अर्थ के अलङ्कारों का सङ्कर तथा केवल अर्थालङ्कारों का सङ्कर) और अङ्गाङ्गिभाव सङ्कर के उदाहरण दिये हैं ।. अङ्गाङ्गिभाव-सङ्कर में सभी अलङ्कार एक दूसरे का उपकार करते हैं ।
अनेक शब्दार्थालङ्कारों का परस्पर निरपेक्ष भाव से एकत्र सन्निवेश संसृष्टि है । 3 सङ्कर में अलङ्कारों का परस्पर सापेक्ष होना तथा संसृष्टि में परस्पर निरपेक्ष होना- दोनों का व्यावर्तक है ।
रुद्रट ने वास्तव, औपम्य, अतिशय तथा श्लेष वर्ग के सभी अलङ्कारों के सङ्कीर्ण रूप को सामान्य रूप से सङ्कर संज्ञा से अभिहित कर उसके तिल - तण्डुल - न्याय से ( परस्पर निरपेक्ष भाव से ) तथा नीर-क्षीर - न्याय से (परस्पर सापेक्ष भाव से) अवस्थान के आधार पर दो भेद किये हैं । ये दो भेद उद्भट के सृष्टि तथा सङ्कर से अभिन्न हैं । रुद्रट ने दण्डी की पद्धति पर सङ्कीर्णालङ्कार
१. द्रष्टव्य दण्डी, काव्यादर्श, २, ३५६-६०
२° द्रष्टव्य – उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह, ५, २०, २६ ३. वही ६, ९, ११
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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ६५७ को एक ही मानकर उसके दो भेद स्वीकार किये हैं, पर ध्यातव्य है कि जहाँ दण्डी ने सङ्कीर्ण के लिए 'नानालङ्कारसंसृष्टि' पद का प्रयोग किया था, वहाँ रुद्रट ने 'सङ्कर' शब्द का प्रयोग किया।' दण्डी के द्वारा प्रयुक्त संसृष्टि तथा रुद्रट के द्वारा प्रयुक्त सङ्कर पर्यायवाची है। दण्डी तथा रुद्रट के बीच उद्भट के द्वारा सङ्कीर्णालङ्कार के लिए संसृष्टि और सङ्कर, इन दो संज्ञाओं की कल्पना हो चुकी थी, पर रुद्रट ने सम्भवतः उसे अनावश्यक माना । __ भोज ने दण्डी की तरह संसृष्टि का व्यापक स्वरूप मानकर उसीमें सङ्कर को अन्तर्भुक्त मान लिया। अलङ्कारों की परस्पर निरपेक्षता तथा सापेक्षता पर उसके भेद के रूप में विचार किया गया ।
मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि आचार्यों ने उद्भट की तरह संसृष्टि तथा सङ्कर का परस्पर स्वतन्त्र रूप में निरूपण किया। उन्होंने उद्भट की संसृष्टि-सङ्कर-परिभाषा को ही स्वीकार भी किया। स्पष्ट है कि संसृष्टि और सङ्कर के स्वरूप के सम्बन्ध में आचार्यों की मान्यता में एकरूपता रही है। अलङ्कारों का परस्पर निरपेक्ष भाव से एकत्र अवस्थान संसृष्टि का तथा उनका परस्पर सापेक्ष भाव से एकत्र अवस्थान सङ्कर का सर्वमान्य लक्षण है।
सङ्कर और संसृष्टि के नाम तथा उनके अस्तित्व के सम्बन्ध में निम्नलिखित तीन मत व्यक्त हुए हैं :
(१) अलङ्कारों का सङ्कीर्ण रूप संसृष्टि कहलाता है तथा संसृष्टि के दो रूप हैं-अनेक अलङ्कारों का परस्पर सापेक्ष तथा निरपेक्ष रूप से एकत्र संयोजन होना।
(२) अलङ्कार के सङ्कीर्ण रूप को सङ्कर कहते हैं और उसके उपरिलिखित दो रूप हैं । और
(३) संसृष्टि तथा सङ्कर अलग-अलग हैं। अलङ्कारों की परस्पर निरपेक्ष भाव से एकत्र योजना संसृष्टि है तथा उनकी परस्पर सापेक्ष योजना सङ्कर है। १. योगवशादेतेषां तिलतण्डुलवच्च दुग्धजलवच्च । व्यक्ताव्यक्तांशत्वात्सङ्कर उत्पद्यते द्वधा ॥
-रुद्रट, काव्यालङ्कार, १०, २५ २. द्रष्टव्य,-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ४, ८८-६० ३. द्रष्टव्य-मम्मट, काव्यप्रकाश, १०, २०७-८, रुय्यक, अलङ्कार
सूत्र, ८४-८५, विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, १२६-२८ ४२
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६५८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
वस्तुतः, संसृष्टि एवं सङ्कर को स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं मानकर अलङ्कारों की सङ्कीर्णता के दो अलग-अलग रूप माना जाना चाहिए। अतः, उनके पृथक्-पृथक् अस्तित्व का प्रश्न विशेष महत्त्व नहीं रखता। सुविधा के लिए अलङ्कारों की परस्पर निरपेक्ष तथा सापेक्ष स्थिति को संसृष्टि और सङ्कर संज्ञा से पृथक्-पृथक् अभिहित किया जा सकता है। सङ्कीर्ण-भेद
सङ्कीर्ण का एक भेद संसृष्टि है तथा दूसरा सङ्कर । सङ्कर के सन्देह-सङ्कर तथा अङ्गाङ्गिभाव-सङ्कर; इन दो भेदों के साथ उद्भट ने शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार के सङ्कर के आधार पर दो और भेद (शब्दालङ्कार+अर्थालङ्कार तथा अर्थालङ्कार+अर्थालङ्कार) माने थे। पीछे चलकर समप्रधान एकवचनानुप्रवेश तथा सङ्कर-सङ्कर भेदों की भी कल्पना हुई। इस प्रकार सङ्कर के निम्नलिखित भेदों की कल्पना की गयी :-(१) सन्देहसङ्कर, (२) अङ्गाङ्गिभाव सङ्कर, (३) समप्रधान सङ्कर, (४) एकवचनानुप्रवेश सङ्कर तथा (५) सङ्कर-सङ्कर । इनके अतिरिक्त शब्दालङ्कार का अर्थालङ्कार के साथ तथा अर्थालङ्कार का अर्थालङ्कार के साथ सङ्कर के आधार पर भी उसके दो भेद मान्य हुए हैं। अन्य अलङ्कार
दो अलङ्कारों के मिश्रित रूप से भी कुछ आचार्यों ने नवीन अलङ्कार का सद्भाव माना है। उपमा-रूपक आदि ऐसे ही अलङ्कार है, पर अलङ्कारों के मिश्रण से नवीन अलङ्कार की कल्पना से उसकी संख्या अनन्त हो जायगी। इसीलिए साहित्यशास्त्र में ऐसी कल्पना का स्वागत नहीं हुआ। ऐसे अलङ्कारों के विकास-क्रम का अध्ययन आवश्यक नहीं जान पड़ता।
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षष्ठ अध्याय
अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
हम देख चुके हैं कि भारतीय अलङ्कार - शास्त्र में एक अलङ्कार से धीरेधीरे अनेक अलङ्कार उत्पन्न हुए हैं। एक अलङ्कार के व्यापक स्वरूप के आधार पर एकाधिक अलङ्कारों के स्वरूप की कल्पना के लिए उन अलङ्कारों में कुछ व्यावर्तक धर्म की कल्पना कर ली गयी है । कुछ अलङ्कारों का रूपगत भेद तो इतना सूक्ष्म है कि अपाततः वे अभिन्न ही जान पड़ते हैं । दो या दो से अधिक समान दीखने वाले अलङ्कारों का पारस्परिक भेद-निरूपण किसी अलङ्कार के विशिष्ट स्वरूप के स्पष्टीकरण की दृष्टि से आवश्यक है । मिलतेजुलते स्वरूप वाले अन्य अलङ्कार से एक अलङ्कार के अभिन्न होने या उसमें अन्तर्भूत होने के सम्भावित भ्रम का निराकरण करने के लिए कुछ आचार्यों ने तत्तद् अलङ्कारों के बीच भेदक तत्त्व का विवेचन किया है। ध्यातव्य है कि सभी आचार्य सभी अलङ्कारों के स्वरूप के सम्बन्ध में एक-मत नहीं हैं । कुछ अलङ्कारों के सम्बन्ध में तो एक आचार्य की धारणा दूसरे आचार्य की धारणा के ठीक विपरीत है | ૨ एक आचार्य के किसी एक अलङ्कार का स्वरूप अन्य आचार्य के द्वारा निरूपित किसी अन्य अलङ्कार के स्वरूप से अभिन्न है ।
१. वामन, रुद्रट आदि आचार्यों ने अप्रस्तुत के कथन से प्रस्तुत की व्यञ्जना को समासोक्ति का लक्षण माना था; पर इसके विपरीत आधुनिक आचार्य - मम्मट, रुय्यक आदि - प्रस्तुत कथन में अप्रस्तुत की व्यञ्जना को समासोक्ति मानते हैं ।
२. लेश से उद्भिन्न वस्तु के छिपाने में दण्डी लेश अलङ्कार मानते थे पर रुक आदि ने उसे व्याजोक्ति माना है । ऐसे अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं ।
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६६० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
ऐसी स्थिति में किसी आचार्य के द्वारा निरूपित अलङ्कार - विशेष का उसी आचार्य के द्वारा स्वीकृत तथा निरूपित अन्य अलङ्कार से भेद की परीक्षा करने से स्वस्थ निष्कर्ष प्राप्त हो सकता है । एक आचार्य के विशेष अलङ्कार के स्वरूप का अन्य आचार्य के किसी अन्य अलङ्कार से अभेद उस अलङ्कारविशेष की स्वतन्त्र सत्ता का अपलाप नहीं कर सकता । परीक्षणीय यह है कि किसी आचार्य ने अपने एक अलङ्कार से अन्य अलङ्कार का भेद कितनी स्पष्टता से प्रतिपादित किया है । प्रस्तुत अध्याय में मिलते-जुलते स्वभाव वाले अलङ्कारों का पारस्परिक भेद-निरूपण अभीष्ट है ।
उपमा तथा रूपक
उपमा तथा रूपक दो प्राचीनतम उपलब्ध सादृश्यमूलक अलङ्कार हैं । आचार्य भरत ने दोनों के स्वरूप को परिभाषित तथा उदाहृत किया था । तब से इन दोनों अलङ्कारों के प्रायः वैसे ही स्वरूप स्वीकृत होते रहे । दो वस्तुओं में - प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत में - सादृश्य दिखाकर प्रस्तुत की प्रभाव - वृद्धि उपमा तथा रूपक; दोनों में कवि का उद्द ेश्य रहता है । उद्द ेश्य की इस समता के होने पर भी उपमा और रूपक की स्वरूप - योजना में भेद है । उपमा में उपमेय तथा उपमान का परस्पर भेद दिखाते हुए - दोनों की पृथक्-पृथक् सत्ता का प्रतिपादन करते हुए - दोनों के बीच धर्म की समता दिखायी जाती है; पर रूपक में धर्म - साम्य के कारण उपमेय पर ही उपमान का आरोप कर दिया जाता है; जिससे दोनों का भेद मिट-सा जाता है । आचार्यों ने उपमा तथा रूपक के रूपगत-भेद का निर्देश स्थल-स्थल पर किया है। हम यहाँ उनकी मान्यताओं का आलोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करेंगे ।
आचार्य दण्डी ने रूपक की परिभाषा में उपमा से रूपक के साम्य-वैषम्य का स्पष्ट सङ्केत दिया है । उनके अनुसार उपमा से रूपक का केवल इतना भेद है कि जहाँ उपमा में उपमान और उपमेय का भेद स्पष्ट रहता है, वहाँ रूपक में दोनों के बीच का भेद तिरोहित रहता है ।' भामह आदि ने भी रूपक में उपमान के साथ उपमेय के 'तत्त्व' अर्थात् 'ताद्र प्यरूपण' की चर्चा कर प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत के बीच भेद के तिरोधान का ही सङ्क ेत दिया था।
१
-
१. उपमैव तिरोभूतभेदा रूपकमुच्यते । दण्डी, काव्यदर्श, २. द्रष्टव्य - भामह, काव्यालङ्कार, २, २१
२,६६
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[६६१
उद्भट ने रूपक-लक्षण में गौणी वृत्ति (लक्षणा शक्ति) की चर्चा कर रूपक तथा उपमा के लक्षणा तथा अभिधा के आधार पर भेद-निरूपण की सम्भावना को जन्म दिया।' रूपक में दो भिन्न वस्तुओं-उपमेय तथा उपमान-का अभेद-प्रतिपादन लक्षणा शक्ति से सम्भव होता है। सादृश्यमूलक होने के कारण रूपक में गोणी लक्षणा रहती है । निष्कर्षतः, रूपक गौणी लक्षणा पर आधृत अलङ्कार है। उपमा में दो वस्तुओं के बीच साधर्म्य वाच्य रहता है। अतः, उपमा अभिधा शक्ति पर आश्रित अलङ्कार है। उपमा में साधर्म्य वाच्य तथा रूपक में व्यङ्गय होता है । ____ रुद्रट ने समासरूपक तथा समासोपमा का भेद इस आधार पर निरूपित किया है कि समासरूपक में उपमेय अप्रधान होता है; पर इसके विपरीत समासोपमा में उपमान अप्रधान होता है । २ 'मुख-चन्द्र' समास रूपक तथा समासोपमा, दोनों का उदाहरण हो सकता है । 'मुखं चन्द्र इव' ऐसा विग्रह होने पर उपमित समास होगा और वह उपमा का उदाहरण होगा; पर 'मुखं चन्द्र एव' विग्रह में रूपक अलङ्कार होगा। उक्त दो विग्रहों में समास के लिए व्याकरण-शास्त्र में पृथक्-पृथक् व्यवस्था है-(क) उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे तथा (ख) मयूरव्यंसकादयश्च । उपमित समास उपमा अलङ्कार का तथा मयूरव्यंसकादि समास रूपक का निर्णायक है । प्रयोग के अर्थ के आधार पर उपमा तथा रूपक का निर्णय किया जाता है । 'मुखचन्द्र प्रकाशित हो रहा है' ऐसे प्रयोग में प्रकाशित होना चन्द्रमा का धर्म होने से चन्द्रमा प्रधान होगा; अतः वहाँ रूपक माना जायगा। उस स्थल में विग्रह होगा'मुखं चन्द्र एव' । 'मुखचन्द्र का चुम्बन' ऐसे प्रयोग में मुख का ही चुम्बन सम्भव होने से मुख की प्रधानता होगी; अतः वहाँ उपमा अलङ्कार माना जायगा। वहाँ विग्रह होगा-'मुखं चन्द्र इव' । स्पष्ट है कि उपमान के प्रधान तथा उपमेय के उपसर्जन होने के स्थल में समास-रूपक तथा उपमेय के प्रधान और उपमान के उपसर्जन होने के स्थल में समासोपमा अलङ्कार माना जाता है। वामन ने 'मुखचन्द्र' आदि में सार्वत्रिक रूप से उपमा ही १. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालङ्कार सारसंग्रह, १,२१ तथा उसकी विवृति
पृ० ७,८ २. समासोपमाया रूपकत्वनिवृत्यर्थमाह-उपसर्जनमप्रधानमुपमेयं यत्र । ......"समासोपमायां तूपमानमुपसर्जनम् ।
–रुद्रट, काव्यालङ्कार, पृ० २६२
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६६२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
१
मानी है; पर यह उचित नहीं । ऐसे प्रयोग में उपमेय तथा उपमान में से एक के प्रधान तथा दूसरे के गौण होने के आधार पर क्रमश: उपमा तथा रूपक का सद्भाव माना ही जाना चाहिए ।
आचार्य रुय्यक ने उपमा - लक्षण में 'भेदाभेदतुल्यत्व' का तथा रूपक - लक्षण में 'अभेदप्राधान्य' का उल्लेख कर दोनों का भेद-निरूपण इस आधार पर किया है कि जहाँ उपमा में भेदाभेद का तुल्य रूप से प्राधान्य रहता है, वहाँ रूपक में अभेद का प्राधान्य रहता है । इस भेद को छोड़ उपमा और रूपक में कोई अन्य भेद नहीं । उन्होंने स्पष्टतः दण्डी के मत का अनुसरण किया है । दो वस्तुओं में कुछ सामान्य तथा कुछ विशेष रहने पर ही सादृश्य सम्भव होता है । उपमा में उपमेय तथा उपमान के बीच भेद तथा अभेद की प्रतीति समान रूप से होती है; पर रूपक में उपमेय पर उपमान का अभेदारोप हो जाने के कारण अभेद का प्राधान्य हो जाता है । रूपक में भी भेद तो रहता ही है; पर अभेद - प्रतीति का प्राधान्य हो जाता है । इस तरह उपमा में प्रस्तुत अप्रस्तुत के बीच भेद तथा अभेद की समान रूप से प्रधानता तथा रूपक में अभेद की प्रधानता रहती है ।
रुय्यक के टीकाकार जयरथ की मान्यता है कि रुय्यक ने अपने ग्रन्थ 'अलङ्कारानुसारिणी' 3 में सादृश्येतर सम्बन्ध से होने वाले आरोप में भी रूपक का सद्भाव माना है । उपमा सादृश्य पर अवलम्बित है । यदि सादृश्येतर सम्बन्ध में भी रूपक माना जाय तो यह भी उपमा तथा रूपक के बीच एक भेदक तत्त्व माना जायगा । रुय्यक ने 'अलङ्कारसर्वस्व' में स्पष्ट शब्दों में ‘साधर्म्यं त्वनुगतमेव' कहकर रूपक को सादृश्य-सम्बन्ध तक ही सीमित माना है । उनके अनुपलब्ध ग्रन्थ में जिस मान्यता की चर्चा की गयी है वह 'अलङ्कार सर्वस्व' की इस मान्यता के विरोध में पड़ती है । प्रमाण के उपलब्ध नहीं होने के कारण इस सम्बन्ध में कुछ निर्णय देना उचित नहीं
१. मुखचन्द्रादीनान्तूपमासमासान्न चन्द्रादीनां रूपकत्वं युक्तमिति । -- वामन, काव्यालङ्कार- सूत्र - वृत्ति, पृ० २३०
२. ''''अभेदप्राधान्यं रूपकवत् । द्वयोस्तुल्यत्वं यथास्याम् ।
- अलङ्कारसर्वस्व, पृ० २३ तुलनीय उपमालक्षण, अलङ्कारसूत्र, ११ तथा रूपक - लक्षण सूत्र १५
३. यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं ।
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद होगा। 'अलङ्कार-भाष्य' तथा 'अलङ्काररत्नाकर' में रूपक को सादृश्य सम्बन्ध तथा सादृश्येतर सम्बन्ध—दोनों पर आधृत माना गया है। स्पष्ट है कि इन ग्रन्थों में उपमा की अपेक्षा रूपक का क्षेत्र अधिक विस्तृत माना गया है। पण्डितराज जगन्नाथ ने 'रसगङ्गाधर' में इस मत का खण्डन किया और यह सिद्धान्त स्थापित किया कि सादृश्य के आधार पर होने वाला आरोप ही रूपक अलङ्कार का विषय है। उनके अनुसार केवल गौणी सारोपा लक्षणा ही आरोप का आधार होगी। शुद्धा लक्षणा तक रूपक की व्याप्ति नहीं मानी जा सकती।
विश्वनाथ ने उपमा तथा रूपक का भेद दिखाते हुए कहा है कि उपमा में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत का साम्य वाच्य होता है; पर रूपक में वह साम्य व्यङ ग्य होता है ।२ उपमा में सादृश्य-वाचक शब्दों से, क्यङ आदि प्रत्ययों से तथा समासोपमा में उपमित आदि समास से सादृश्य का स्पष्ट प्रतिपादन होता है। रूपक में उपमान का उपमेय पर आरोप होने से उपमेय के उपमान से अभेद की प्रतीति-सारोपा लक्षणा से होती है और दोनों के बीच का साधर्म्य व्यङग्य होता है। अप्पय्य दीक्षित ने भी सादृश्य के वाच्य तथा व्यङग्य होने के आधार पर उपमा और रूपक के विभाग का मत स्वीकार किया है। अतः, उपमा की परिभाषा की व्याख्या में उन्होंने उपमा में सादृश्य का स्पष्ट या निर्व्यङग्य होना अपेक्षित बताया है।'
पण्डिराज जगन्नाथ ने व्यङग्या उपमा का उदाहरण देकर अप्पय्य दीक्षित आदि की इस मान्यता का खण्डन किया है कि उपमा में साम्य केवल वाच्य होता है।४ पण्डितराज को उपमा के भेदाभेद-तुल्यप्रधान होने के आधार
१. सादृश्यमूलकमेव च तादात्म्यं रूपकमामनन्ति ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ३५५ २. साम्यं वाच्यमवैधर्म्य वाक्यैक्य उपमा द्वयोः । तथा-रूपकादिषु साम्यस्य व्यङग्यत्वम् । ""इत्यस्या भेदः ।
-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०,१७ तथा उसकी वृत्ति पृ० ५६६-६७ ३. यत्रोपमानोपमेययोः सहृदयहृदयाह्लादकत्वेन चारुसादृश्यमुद्भ ततयोल्लसति व्यङ ग्यमर्यादां विना स्पष्ट प्रकाशते तत्रोपमालङ्कारः ।
—अप्पय्यदीक्षित कुवलयानन्द, वृत्ति पृ० ३ ४. क्वचिद्व्यङ ग्यापि चेयमुपमालङ्कारः । एतेनाप्पय्यदीक्षितरुपमालक्षणे
दत्तमव्यङ ग्यत्वविशेषणमयुक्तमेव ।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ०२८३,
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६६४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण पर अभेदप्रधान रूपक आदि से तथा भेदप्रधान प्रतिवस्तूपमा आदि से भेदनिरूपण मान्य है।' निष्कर्ष यह कि उपमा और रूपक; दोनों में समान रूप से प्रस्तुत और अप्रस्तुत के बीच सादृश्य-निरूपण से प्रस्तुत का उपस्कार होता है। दोनों में भेद यह है कि
(क) उपमा में दो भिन्न वस्तुओं का सादृश्य-निरूपण होने के कारण दोनों के भेद और अभेद की तुल्यरूप से प्रधानता रहती है; पर रूपक में प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का अभेदारोप होने के कारण अभेद की प्रधानता रहती है।
(ख) उपमा मुख्यतः अभिधा शक्ति पर आश्रित है; पर रूपक गौणीवृत्ति अर्थात् लक्षणा पर।
(ग) समासोपमा और समासरूपक में प्रयोग की समता होने पर अलङ्कारविशेष का निर्णय इस आधार पर होता है कि उपमेय की प्रधानता रहने पर उपमा और उपमान की प्रधानता रहने पर रूपक होता है। उपमित समास में उपमेय की प्रधानता रहने से उपमा तथा मयूरव्यंसकादि समास में उपमान की प्रधानता रहने से रूपक अलङ्कार होता है ।
(घ) सादृश्य के वाच्य होने पर उपमा और व्यङग्य होने पर रूपक मानकर भी दोनों का भेद-निरूपण हुआ है; पर व्यङ ग्या उपमा के उदाहरण देकर जगन्नाथ ने इस विभाजक आधार को अशक्त सिद्ध कर दिया है । उपमा और उत्प्रेक्षा
आचार्थ दण्डी ने सर्वप्रथम उत्प्रेक्षा और उपमा के पारस्परिक भेद का विशद निरूपण किया। इसकी आवश्यकता उन्हें इसलिए जान पड़ी होगी कि कुछ शब्द समान रूप से उपमा तथा उत्प्रेक्षा; दोनों के वाचक हैं। मन्ये, शङ्क, मानो आदि तो केवल उत्प्रेक्षा के वाचक हैं; किन्तु, इव, सा, आदि सादृश्यवाचक शब्द उत्प्रेक्षा और उपमा दोनों के वाचक हैं । क्रिया के साथ इव आदि सादृश्यवाचक पदों का प्रयोग सम्भावना का सूचक होता है। अतः, क्रिया-पद के साथ इव आदि का प्रयोग उत्प्रेक्षा का तथा क्रियातिरिक्त संज्ञा विशेषण आदि पदों के साथ इव आदि सादृश्यवाचक पदों का प्रयोग उपमा का स्वरूप-विधान करता है।
१. एवमभेप्रधानेष्वपि रूपकापह्नतिपरिणामभ्रान्तिमदुल्लेखादिषु........
नास्त्युपमालङ कृतित्वम् । —जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० २४८-४६ २. वही, पृ० २८३ ३. दण्डी, काव्यादर्श, २, २२६-३४
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ६६५
उपमा में उपमान सिद्ध तथा उत्प्रेक्षा में उपमान असिद्ध होता है । सिद्ध होने का तात्पर्य है उसका लिङ्ग, संख्या और कारक से युक्त होना । जो पद लिङ्ग, संख्या तथा कारक से अन्वित नहीं हो, उसका अर्थ साध्य माना जाता है । अतः क्रिया सार्वत्रिक रूप से साध्य मानी गयी है । क्रिया में आकांक्षा अन्तर्निहित (अपूर्ण) रहती है । अतः वह पदार्थ की साध्यावस्था का बोध कराती है । 'वाक्यपदीय' में यह मान्यता प्रकट की गयी है कि क्रिया सिद्ध या असिद्ध वस्तु का साध्यरूप में अभिधान करती है ।२ क्रिया के साध्य होने के कारण उसके साथ आदि का प्रयोग कर उपमा अलङ्कार का विधान नहीं हो सकता । वैसे स्थल में उत्प्रेक्षा की ही योजना होगी, चूँकि साध्य क्रिया के साथ प्रयुक्त इव आदि पद सम्भावना - मात्र के वाचक होंगे । इसी तथ्य को ध्यान में रखकर महाभाष्यकार ने कहा था कि तिङन्त अर्थात् क्रियापद के अर्थ का उपमान होना ( सिद्ध उपमान होना) सम्भव नहीं । 3 आचार्य कैयट ने उक्त कथन की व्याख्या करते हुए कहा है कि क्रिया साध्य स्वभाव की होती है । उसका स्वरूप अनिष्पन्न रहता है । उपमान सिद्ध पदार्थ ही हो सकता है । क्रिया-पद का अर्थ साध्य होने से वह उपमान नहीं हो सकता । ४
विद्या चक्रवर्ती का मत है कि उपमा में उपमान लोक - प्रसिद्ध या तात्त्विक होता है और उत्प्रेक्षा में कविकल्पित तथा लोक में असिद्ध । इस आधार पर उपमा और उत्प्रेक्षा का भेद-निरूपण करने में दो प्रकार की आपत्तियाँ उठायी जा सकती हैं । एक तो यह कि उपमा में भी कविकल्पित उपमान की योजना हो सकती है । उपमा का कल्पितोपमा भेद लोक में असिद्ध कवि - कल्पना से प्रसूत उपमान पर ही आधृत है । दूसरे, लोक - सिद्ध उपमान से
१. यावत् सिद्धमसिद्ध वा साध्यत्वेनाभिधीयते । आश्रितक्रमरूपत्वात् सा क्रियेत्यभिधीयते ।
— भर्तृहरि, वाक्यपदीय, ३, ८, १
२. न वै तिङन्तेनोपमानमस्ति ।
- पतञ्जलि, महाभाष्य, पाणिनि सूत्र, ३, १, ७ ३. उक्तञ्चाभियुक्त :- सिद्धमेव समानार्थमुपमानं विधीयते । तिङन्तार्थस्तु साध्यत्वादुपमानं न जायते ।
४. ''''उपमानांशश्चेल्लोकतः सिद्धस्तदोपमैव द्वयोस्सिद्धत्वादिवशब्दः साधर्म्यद्योतकः । यदा तु कविकल्पितः तदोत्प्रेक्षैव ।
- अलङ्कारसर्वस्व पर विद्याचक्रवर्ती की संजीवनी टीका पृ० ७२
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६६६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण उत्प्रेक्षा का रूप-विधान भी हो सकता है। उदाहणार्थ 'यह मुख ऐसा सुन्दर लगता है मानो चन्द्रमा हो' इस प्रकार के कथन में उपमान चन्द्रमा के सिद्ध होने पर भी उत्प्रेक्षा की योजना सम्भव है। अत: उपमान का लोकसिद्ध होना उपमा का और उपमान का लोक में असिद्ध तथा केवल कवि-प्रतिभा-प्रसूत होना उत्प्रेक्षा का व्यवर्तक नहीं कहा जा सकता। यह कथन विशेष सन्दर्भ में ही समीचीन है। इव आदि वाचक शब्दों का क्रियापद के साथ प्रयोग होने पर, क्रिया-पदार्थ का साध्य होने के कारण, सार्वत्रिक रूप से उत्प्रेक्षा तथा क्रिया से भिन्न पदों के साथ इव आदि का प्रयोग होने पर, उन पदों के अर्थ का सिद्ध होने के कारण उपमा होती है। यह नियम वाचक पदों के प्रयोग के सन्दर्भ में ही उक्त अलङ्कारों के पारस्परिक भेद का स्पष्टीकरण करता है।
उपमा उपमान का कथन सिद्ध रूप में-लिङ्ग-संख्या-कारक-युक्त पद से होता है। उपमान लोक-सिद्ध न होकर कविकल्पित भी हो तो उपमा हो सकती है, यदि उपमान सिद्ध रूप में कथित हो। उत्प्रेक्षा में उपमान साध्य या सम्भावना के रूप में आता है। लोक-सिद्ध उपमान में भी उत्प्रेक्षा हो सकती है, यदि उपमान साध्य रूप में या सम्भावना के रूप में लाया जाय । उपमा और अनन्वय
उपमा से अनन्वय की स्वतन्त्र सत्ता मानने में आचार्यों में मतभेद रहा है। अनेक आचार्यों ने अनन्वय को उपमा का ही एक भेद माना है। आचार्य भरत ने सदृशी उपमा में अनन्वय के स्वरूप की कल्पना की थी । दण्डी ने इसे ही असाधारणोपमा नामक उपमा-भेद स्वीकार किया। कुछ आचार्यों ने अनन्वयोपमा नाम से भी अनन्वय को उपमा का ही एक प्रकार स्वीकार किया है; पर भामह आदि अनेक आचार्यों ने अनन्वय को स्वतन्त्र अलङ्कार मानकर उसके स्वरूप का निरूपण किया है। अस्तु, अनन्वय को उपमा-भेद मानने वाले तथा उसे उपमा से स्वतन्त्र अलङ्कार मानने वाले सभी आचार्य उसके स्वरूप के सम्बन्ध में एक-मत हैं। उपमा से अनन्वय के भेद-अभेद के प्रश्न पर दो मत होने का कारण दोनों के स्वरूप का अतिशय साम्य है। उपमा में दो वस्तुओं का-उपमेय तथा उपमान का-सादृश्य-निरूपण होता है। उसमें दो अलग-अलग वस्तुओं का साधर्म्य विवक्षित होता है। अनन्वय में भी सादृश्य का निरूपण होता है; पर वह सादृश्य उपमेय का उपमेय के साथ ही
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ६६७
दिखाया जाता है । जब कवि को वर्ण्य वस्तु के समान अन्य कोई वस्तु नहीं मिल पाती, जिसे वह वर्ण्य का उपमान बना सके तब वह वर्ण्य वस्तु को ही — उपमेय को ही — उसका उपमान भी कल्पित कर लेता है । अनन्वय में जो उपमेय होता है, वही अपना उपमान भी होता है । इस प्रकार उपमा और अनन्वय में सादृश्य - निरूपण की प्रक्रिया की समानता होने पर भी दोनों में कवि का उद्देश्य अलग-अलग रहता है । उपमा में वर्ण्य वस्तु का अन्य वस्तु ( उपमान) के साथ सादृश्य विवक्षित रहता है पर अनन्वय में वर्ण्य वस्तु के अन्य किसी भी वस्तु के साथ सादृश्य के अभाव की प्रतीति विवक्षित रहती है । वर्ण्य का अन्य वस्तु के साथ सादृश्य-व्यवच्छेद दिखाने के लिए ही कवि उपमेय को ही एक मात्र उसके (उपमेय के ) समान बताता है । पण्डितराजजगन्नाथ की मान्यता है कि कल्पितोपमा में भी असत् उपमान की कल्पना से प्रकारान्तर से सत् उपमान का निषेध सूचित होता है । इस प्रकार अन्य सादृश्य-व्यवच्छेद –— सत् उपमान- व्यवच्छेद - कल्पितोपमा और अनन्वय में समान रूप से विवक्षित रहता है । अतः, कल्पितोपमा से अनन्वय का व्यवच्छेदक उसमें उपमान तथा उपमेय की एकता ही है । '
प्रश्न यह है कि सादृश्य दो या अनेक वस्तुओं के बीच ही सम्भव होता है । वह दो या दो से अधिक वस्तुओं के बीच रहने वाला धर्म है; फिर एक ही वस्तु में सादृश्य-निरूपण की क्या युक्ति होगी ? अप्पय्य दीक्षित आदि कुछ आचार्यों ने अनन्वय संज्ञा की सार्थकता अन्यसादृश्य-व्यवच्छेद के अतिरिक्त अपने में अपने सादृश्य के अन्वय के अभाव में भी मानी है । किसी वस्तु का अन्य वस्तु के साथ सादृश्य ही अन्वित होता । उस वस्तु का उसी के साथ सादृश्य दिखाने में अन्वय का अभाव रहता है । अतः, उन आचार्यों के अनुसार अनन्वय अन्वर्थ अभिधान है । लेकिन अनन्वित कल्पना को काव्यालङ्कार का स्वरूप मानना समस्या का सन्तोषजनक समाधान नहीं है । समुद्रबन्ध ने उक्त
१. कल्पितोपमायामतिप्रसङ्गवा रणायैकोपमानोपमेयकमिति । अत्रासत उपमानस्य कल्पनया सदुपमानं नास्तीति द्वितीय सदृशव्यवच्छेदस्य । स्ति प्रतीतिः । - जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ३२३
२. धर्मैक्ये हि स्वस्य स्वेनोपमा नान्वेतीत्यनन्वय इत्यन्वर्थं नाम । - अप्पय्यदीक्षित, चित्रमीमांसा पृ० ४६ । तथा — एकस्यैव सिद्धसाध्यरूपेणोपमानोपमेयत्वेना विद्यमानोऽन्वयः सम्बन्धो यत्र स तथोक्तः । -विमर्शनी, पृ० ३८
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६६८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
प्रश्न के उत्तर में कहा है कि यद्यपि अनन्वय में उपमेय और उपमान एक ही वस्तु होती है, पर उसका शब्दतः दो बार उल्लेख होता है। एक ही वस्तु का शब्दतः दो बार उल्लेख हो तो वस्तु के भिन्न-भिन्न होने का आभास मिलता है। तात्त्विक अभिन्नता होने पर भी वस्तु की विभिन्नता की प्रतीति हो जाती है तथा भिन्न प्रतीत होती हुई वस्तु दूसरी वस्तु ( वस्तुतः उसी वस्तु) के सदृश समझ ली जाती है। अतः 'अर्जुन अर्जुन के ही समान थे' यह कहने में अर्जुन का दूसरे शब्द से अभिहित, अतः भिन्न प्रतीत अर्जुन के साथ सादृश्य अन्वित हो जाता है। विद्याचक्रवर्ती ने इस तथ्य को और भी स्पष्ट शब्दों में प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार अनन्वय में उपमेय के लिए प्रयुक्त शब्द का वाच्य अर्थ ग्रहण होता है और उपमान के रूप में प्रयुक्त उसी शब्द का व्यङ ग्य अर्थ ग्रहण होता है। एक अर्थ वाच्य तथा दूसरा व्यङ ग्य होने से परस्पर भिन्न होता है और इस प्रकार दोनों में (तत्त्वतः एक में ही) सादृश्य-निरूपण सम्भव होता है ।२ निष्कर्ष यह कि उपमा और अनन्वय में सादृश्य निरूपण की बहुत कुछ समता होने पर भी दोनों में निम्नलिखित "भेद है
(क) उपमा में भिन्न-भिन्न वस्तुओं में उपमानोपमेय-भाव की कल्पना कर उपमेय का उपमान से सादृश्य-निरूपण होता है ।
अनन्वय में एक ही वस्तु में-वस्तु का दो बार शब्दतः उल्लेख करउपमानोपमेय-भाव की कल्पना कर उस वस्तु का उसी से सादृश्य-निरूपण होता है।
(ख) उपमा में प्रस्तुत वस्तु का अन्य वस्तु से सादृश्य विवक्षित होता है; पर अनन्वय में प्रस्तुत वस्तु का अन्य सादृश्य-व्यवच्छेद दिखाना अभीष्ट होता है। किसी वस्तु को केवल अपने सदृश कहने का तात्पर्यार्थ उसके समान किसी अन्य वस्तु के नहीं होने का होता है। कल्पितोपमा में भी अन्य-सादृश्य
१. एक एवार्थः शब्देन द्विरभिहितो भिन्नवदवभासते। तस्मादर्जुनोऽर्जुन
इवेत्यादौ एकस्यैवार्जुनशब्दस्य शब्द-वाच्याकारपर्यालोचनेन भेदावभासात् पूर्वनिर्दिष्टस्य साधादिरूपस्यानुगमः सम्बन्धो वेदितव्यः ।
—समुद्रबन्ध, पृ० २६ २. पूर्वरूपमुपमेयत्वम् । तदनुगमो वाच्याभिप्रायेण यत् पुनरपूर्वरूपमुपमानत्वं
तदनुगमो व्यङ ग्यभिप्रायेण। -अलङ्कार सूत्र, संजीवनी, पृ० ४३
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ६६६ व्यवच्छेद इष्ट होता है; पर उससे अनन्वय का भेद यह है कि अनन्वय में उपमान तथा उपमेय एक ही होता है जबकि कल्पितोमा में अलग-अलग ।
(ग) रशनोपमा में एक वाक्य का उपमेय उत्तरवर्ती वाक्य में उपमान बनता चलता है। एक ही उपमेय का उपमानत्व वाक्य-भेद से होने के कारण रशनोपमा अनन्वय से भिन्न है। अनन्वय में एक ही वाक्य में जो उपमेय रहता है, उसे अपना ही उपमान कल्पित किया जाता है। रशनोपमा में उपमेय उपमान तो बनता है; पर वाक्य-भेद से अपना नहीं; अन्य का। यही अनन्वय और रशनोपमा का भेद है ।
उपमा और उपमेयोपमा
उपमेयोपमा को भी कुछ आचार्यों ने उपमा का एक भेद माना है तो अन्य आचार्यों ने उसकी गणना स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में की है। उपमा में प्रसिद्ध उपमान के साथ वर्ण्य वस्तु की उपमा दी जाती है। उपमेयोपमा में भी प्रसिद्ध उपमान के साथ वर्ण्य अर्थात् उपमेय की उपमा दी जाती है; पर इसके साथ ही उसमें वर्ण्य वस्तु के साथ उपमान की भी उपमा दी जाती है। इस प्रकार उपमेयोपमा की रूप-योजना की प्रथम प्रक्रिया-उपमान के साथ उपमेय का सादृश्य-निरूपण-उपमा के समान है; पर उसकी दूसरी प्रक्रिया इसके प्रतीप रूप में-उपमेय के साथ उपमान के सादृश्य-निरूपण के रूप में होती है। वर्ण्य का उपमान के साथ तथा उपमान का वर्ण्य के साथ सादृश्य-निरूपण होने के कारण उपमेयोपमा को अन्योन्योपमा अभिधान से भी अभिहित कर कुछ आचार्यों ने उपमा का ही एक भेद स्वीकार किया है।' ___ उपमा में वर्ण्य का किसी उपमान से सादृश्य-प्रतिपादन अन्य उपमान से उसके सादृश्य की सम्भावना का निषेध नहीं करता; पर उपमेयोपमा में दो वस्तुओं-उपमेय तथा उपमान-के बीच पारस्परिक सादृश्य का नियमन उन दोनों के तृतीय-वस्तु-सादृश्य-व्यवच्छेद में परिणत होता है। यह वर्ण्य वस्तु अमुक उपमान के सदृश है तथा वह उपमान इस उपमेय के सदृश है' इस कथन का तात्यर्य यह होता है कि वर्ण्य के सदृश उस उपमान के अतिरिक्त
१. आचार्य दण्डी की अन्योन्योपमा परवर्ती आचार्यों की उपमेयोपमा से
अभिन्न है।
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६७० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अन्य कोई वस्तु नहीं। उद्भट, रुद्रट तथा पण्डितराज जगन्नाथ ने उपमेयोपमा की परिभाषा में 'तृतीयसादृश्य-व्यवच्छेद' का उल्लेख भी किया है।' जहाँ 'तृतीय-सादृश्य-व्यवच्छेद' विवक्षित नहीं हो, वहाँ तो उपमा मानी जायगी, जिसे ' परस्परोपमा आदि संज्ञा दी जा सकती है; पर 'तृतीय सादृश्य-व्यवच्छेद' विवक्षित होने पर उपमेयोपमा मानी जायगी। अतः, उद्भट, रुद्रट, जगन्नाथ आदि के मतानुसार 'तृतीय-सादृश्य-व्यवच्छेद' को उपमेयोपमा का व्यवच्छेदक धर्म माना जाना चाहिए। निष्कर्षतः, उपमा और उपमेयोपमा में भेद यह है कि :
(क) उपमा में उपमेय का उपमान के साथ सादृश्य बताया जाता है। उपमेयोपमा में उपमेय और उपमान का परस्पर सादृश्य दिखाया जाता है । उपमेय को उपमान के सदृश कह देना उपमा के रूप-विधान के लिए पर्याप्त है; पर उपमेय को उपमान के सदृश कहकर पुनः उपमान को उपमेय के सदृश कहना उपमेयोपमा के विधान के लिए अपेक्षित है।
(ख) उपमेयोपमा में उपमेय तथा उपमान का परस्पर सादृश्य दिखाने के लिए दो वाक्यों का प्रयोग आवश्यक होता है। एक वाक्य में उपमेय को उपमान के सदृश तथा दूसरे वाक्य में उपमान को उपमेय के सदृश बताया जाता है। उपमा में उपमेय का उपमान के साथ सादृश्य-निरूपण एक ही वाक्य में हो सकता है।
(ग) उपमेयोपमा में दो वस्तुओं-उपमेय और उपमान-का परस्पर ‘सादृश्य-निरूपण तृतीय वस्तु के सादृश्य के निषेध में परिणत होता है; पर उपमा में एक वस्तु का दूसरी वस्तु के साथ-उपमेय का उपमान के साथसादृश्य-निरूपण अन्य वस्तु के सादृश्य की सम्भावना का निषेध नहीं करता। उपमा और प्रतिवस्तूपमा
प्रतिवस्तूपमा को भामह, दण्डी आदि आचार्यों ने उपमा का ही एक भेद माना है; पर अधिकांश आलङ्कारिकों ने उसे स्वतन्त्र अलङ्कार माना है। प्रतिवस्तूपमा औपम्य-गर्भ अलङ्कार तो है; पर उपमा से अभिन्न नहीं। उसके
१. द्रष्टव्य - उद्भट, काव्यालङ्कार, ५,२७, रुद्रट, काव्यालङ्कार, ८,६
(उभयोपमा) तथा जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ३०६ २. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ३०९-१०
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ६७१ विशेषाधायक अनेक तत्त्वों का निर्देश उपलब्ध है । उद्भट ने दो वाक्यार्थों में - सादृश्य-निरूपण की दृष्टि से प्रतिवस्तूपमा को उपमा के समान मानकर दोनों के दो भेदक तत्त्वों का सङ्केत दिया है - ( १ ) प्रतिवस्तूपमा में उपमेय और उपमान; दोनों के साथ — उपमेय वाक्य तथा उपमान वाक्य; दोनों में साधारण धर्म का उपादान होता है, जब कि उपमा में साधारण धर्म का एक ही बार निर्देश पर्याप्त माना जाता है । ( २ ) प्रतिवस्तूपमा में उपमावाची शब्द का प्रयोग नहीं होता, उपमा में 'इव' आदि वाचक शब्दों का प्रयोग होता है ( लुप्तोपमा में भले समास आदि के कारण वह वाचक शब्द लुप्त रहे ) । ' वामन ने भी वाक्यार्थोपमा से प्रतिवस्तूपमा का भेदनिरूपण उद्भट की पद्धति पर ही किया है । उनकी मान्यता है कि प्रतिवस्तूपमा में दो वाक्यार्थ रहते हैं, जिनमें से एक उपमेय होता है और दूसरा उपमान; पर वाक्यार्थोपमा में उपमेय और उपमान -उपमेय वाक्य और उपमान वाक्य – अर्थ की दृष्टि से एक ही वाक्य बनते हैं । अतः, वाक्यार्थोपमा में एक वाक्यार्थ में उपमानोपमेय-भाव की कल्पना होती है; पर प्रतिवस्तूपमा में दो वाक्यार्थों में उपमानोपमेय-भाव कल्पित होता है, यह दोनों का पारस्परिक भेद हैं । उद्योतकार ने इस तथ्य को ही स्पष्ट शब्दों में कहा है कि उपमा में वाक्यार्थों के बीच साधारण धर्म इव आदि वाचक शब्द से कथित होता है; पर प्रतिवस्तूपमा में वस्तु प्रतिवस्तु भावापन्न वाक्यार्थों में औपम्य सदा गम्य ही होता है । यह दोनों का भेद है । 3 मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि उपमा और प्रतिवस्तूपमा के स्वरूप के सम्बन्ध में एकमत हैं । जगन्नाथ ने प्रतिवस्तूपमा के भेदप्रधान तथा उपमा के भेदाभेद - तुल्यप्रधान होने के आधार पर भी दोनों का भेद निरूपण किया है । उपमा तथा प्रति
१. द्रष्टव्य – उद्भट, काव्यालङ्कार सारसंग्रह, १, ५१-५२ तथा उसकी विवृति पृ० १६ २. अत्र ( प्रतिवस्तूपमायां ) द्वौ वाक्यार्थी, एको वाक्यार्थ उपमायामिति भेदः । - वामन, काव्यालङ्कार सूत्रवृत्ति, पृ० २२३
३. न च "वाक्यार्थोपमायामतिव्याप्तिरिति वाच्यम् वस्तुप्रतिवस्तुभावापन्नसाधारणधर्मकं वाक्यार्थयोर्गम्यमौपम्यमित्यस्य विवक्षितत्वात् तत्र तु इवशब्देन वाच्यमेवेत्यदोषात् । — काव्यप्रकाश की उद्योतटीका, बालबोधिनी टीका में उद्धृत, पृ० ६३४
४. द्रव्य – जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० २४८-४९
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६७२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
वस्तूपमा के सर्वसम्मत स्वरूप पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर दोनों के बीच निम्नलिखित भेदक तत्त्व उपलब्ध होते हैं :
( १ ) उपमा में औपम्य पदार्थगत होता है; पर प्रतिवस्तूपमा में वाक्यार्थगत । प्रतिवस्तूपमा में दो वाक्यार्थों के बीच ही सादृश्य- निरूपण होता है । उपमा में औपम्य की विश्रान्ति पद के अर्थ में ही होती है ।
(२) उपमा में एक वाक्य होता है, पर प्रतिवस्तूपमा में दो वाक्योंउपमेय वाक्य तथा उपमान वाक्य – का रहना आवश्यक है । वाक्यार्थोपमा में भी दो वाक्य रहते अवश्य हैं; पर वे अन्योन्याश्रित होने के कारण एक ही वाक्य माने जाते हैं । प्रतिवस्तूपमा के दोनों वाक्य स्वतन्त्र रहते हैं ।
(३) उपमा में साधारण धर्म का सकृत् उपादान होता है पर प्रतिवस्तूपमा में उसका असकृत् उपादान होता है । प्रतिवस्तूपमा में उपमेय तथा उपमान वाक्यों में समान धर्म का शब्दभेद से पृथक्-पृथक् निर्देश आवश्यक है, पर उपमा में एक ही बार साधारण धर्म का निर्देश होता है ।
(४) उपमा में 'इव' आदि उपमावाची शब्दों का उपादान होता है । प्रतिवस्तूपमा में वाचक शब्द का उपादान नहीं होता ।
(५) उपमा में भेदाभेद की तुल्य रूप से प्रधानता रहती है । प्रतिवस्तूपमा भेद-प्रधान अलङ्कार है ।
उपमा और व्यतिरेक
उपमान की अपेक्षा उपमेय का गुणोत्कर्ष - वर्णन सभी आचार्य व्यतिरेक का लक्षण मानते हैं । कुछ आचार्यों ने व्यतिरेक के इस स्वरूप के साथ-साथ उपमेय की अपेक्षा उपमान के गुणोत्कर्ष - वर्णन को भी व्यतिरेक का एक रूप माना है । एक की अपेक्षा दूसरे का अपकर्ष - वर्णन भी व्यतिरेक का एक रूप माना गया है, क्योंकि परिणामतः ऐसे वर्णन में भी एक का दूसरी वस्तु की अपेक्षा उत्कर्ष सिद्ध होता है । उपमान में गुणोत्कर्ष की धारणा निहित ही रहती है । इसीलिए तो उसके साथ तुलना कर उपमेय का उत्कर्ष - साधन किया जाता है । इस युक्ति पर कुछ आचार्य उपमानोत्कर्ष - वर्णन में व्यतिरेक अलङ्कार नहीं मानते । उपमा के साथ व्यतिरेक के तुलनात्मक अध्ययन से यह तथ्य स्पष्ट है कि उपमा में प्रस्तुत का अप्रस्तुत से सादृश्य बताया जाता है, पर व्यतिरेक में प्रस्तुतका अप्रस्तुत से आधिक्य बताया जाता है । उपमानाधिक्य वर्णन-रूप
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ६७३
व्यतिरेक का उपमा से यह भेद है कि उपमा में अलङ्कार-योजना के मूल में उपमान के गुणाधिक्य की धारणा निहित रहने पर भी उसका उपमेय की अपेक्षा आधिक्य वर्णित नहीं होता, अपितु उपमान समान ही उपमेय को भी गुणवान बताया जाता है, पर व्यतिरेक में उपमान का आधिक्य भी स्पष्टतः प्रतिपादित होता है । एक का दूसरे की अपेक्षा अपकर्ष-वर्णन कर के भी व्यतिरेक की रूप-योजना होती है, क्योंकि उससे एक का दूसरे से आधिक्य - व्यतिरेकसूचित होता है । अतः, व्यतिरेक में प्रत्यक्ष रूप से या प्रकारान्तर से एक वस्तु की अपेक्षा दूसरी वस्तु का ( उपमान तथा उपमेय में से किसी एक की अपेक्षा दूसरे का) आधिक्य - वर्णन होता है; पर उपमा में उपमान, तथा उपमेय का सादृश्य निरूपित होता है । विश्वनाथ ने दोनों का एक भेदक तत्त्व यह माना है कि व्यतिरेक वैधर्म्य से भी होता है; पर उपमा में विरुद्ध धर्म का अभाव आवश्यक है ।' अप्पय्य दीक्षित के अनुसार उपमान और उपमेय का विशेष या वैलक्षण्य-वर्णन व्यतिरेक का लक्षण है । २ इस दृष्टि से उपमा से व्यतिरेक का यह भेद स्पष्ट है कि जहाँ उपमा में उपमान और उपमेय का सादृश्य दिखाया जाता है, वहाँ व्यतिरेक में दोनों का वैलक्षण्य निरूपित होता है । उपमा श्रर प्रतीप
प्रतीप उपमा का विपरीतधर्मा अलङ्कार है । इसीमें प्रतीप नाम की सार्थकता है । दण्डी ने उपमानोपमेय-भाव की प्रसिद्धि के वैपरीत्य को प्रतीप नामकरण का हेतु माना है । उपमा में प्रस्तुत वस्तु की अप्रस्तुत वस्तु से उपमा देने का जो प्रसिद्ध क्रम है, उसके विपरीत प्रतीप में प्रस्तुत के साथ ही अप्रस्तुत की उपमा दी जाती है; अर्थात् इसमें प्रसिद्ध उपमान को उपमेय के रूप में कल्पित कर लिया जाता है । इस वैपरीत्य की प्रकृति को दृष्टि में रखकर ही दण्डी ने प्रतीप को विपर्यासोपमा नाम से उपमा का एक भेद माना है । 3
प्रतीप में उपमेय की उपमान के रूप में कल्पना का उद्देश्य वर्ण्य वस्तु का अप्रस्तुत की अपेक्षा आधिक्य निरूपण होता है । हम इस तथ्य पर विचार कर
१. साम्यं वाच्यमवैधर्म्य वाक्यैक्य उपमा द्वयोः । तथा...व्यतिरेके च वैधर्म्यस्याप्युक्तिः । इत्यस्या ( उपमाया ) भेद: ।
- विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, १७ तथा उसकी वृत्ति, पृ० ५९७ २. व्यतिरेको विशेषश्चेदुपमानोपमेययोः ।- - अप्पय्य दी० कुवलया०, ५७ ३. द्रष्टव्य - दण्डी, काव्यादर्श, २,१७
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६७४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
चुके हैं कि सामान्यतः उपमान में उपमेय की अपेक्षा अधिक गुण की धारणा निहित रहती है। प्रतीप में जब वर्ण्य वस्तु को ही उपमान बना कर उसके साथ अप्रस्तुत की उपमा दी जाती है, तब पाठक को उपमान की अपेक्षा उपमेय में गुणोत्कर्ष का बोध हो जाता है। अतः, उपमा से प्रतीप का एक भेदक तत्त्व यह भी माना जा सकता है कि जहां उपमा में कवि का उद्देश्य उपमेय का उपमान के साथ सादृश्य-निरूपण कर उपमेय का उपस्कार करना होता है, वहां प्रतीप में उपमान का उपमेय के साथ सादृश्य-निरूपण कर उपमान की अपेक्षा उपमेय के गुणाधिक्य का बोध कराना इष्ट होता है । मम्मट, रुय्यक आदि आचार्यों ने प्रतीप की परिभाषा में ही उसके उक्त व्यावर्तक धर्म का उल्लेख कर दिया है। उपमान का आक्षेप-निन्दा या निषेध-तथा उसके तिरस्कार के लिए उपमेय के रूप में उसकी कल्पना, उनके अनुसार प्रतीप के दो रूप हैं। इन दोनों रूपों में परिणामतः उपमान की अपेक्षा उपमेय के आधिक्य का बोध होता है।' अप्पय्य दीक्षित के पांचो प्रतीप-भेदों में उपमेय के उत्कर्ष पर बल दिया गया है। निष्कर्ष यह कि :
(क) प्रतीप रूप-विधान की दृष्टि से उपमा का विपरीतधर्मा है; क्योंकि इसमें प्रसिद्ध उपमान को उपमेय के रूप में कल्पित किया जाता है।
(ख) दोनों अलङ्कारों की योजना में कवि के उद्देश्य में यह भेद होता है कि उपमा में कवि दो वस्तुओं-उपमेय और उपमान--में सादृश्य दिखाकर प्रस्तुत का उपस्कार करना चाहता है; पर प्रतीप में वह उपमान की अपेक्षा वर्ण्य वस्तु को अधिक उत्कृष्ट प्रमाणित करना चाहता है ।
उपमा और परिणाम
परिणाम में रूपक की तरह प्रकृत पर अप्रकृत का आरोप होने से दोनों की अभेदप्रतीति होती है। अतः, रूपक की तरह परिणाम भी अभेदप्रधान अलङ्कार है । उपमा में प्रकृत का अप्रकृत के साथ सादृश्य-निरूपण होने से दोनों
१. ""उपमानतया प्रसिद्धस्य उसमानान्तरविवक्षयाऽनादरार्थमुपमेयभावः
कल्प्यते"-मम्मट, काव्यप्रकाश, १०,१३३ की वृत्ति तथा उपमा
नस्याक्षेप उपमेयताकल्पनं वा प्रतीपम् । -रुय्यक, अलङ्कार सूत्र, ६९ २. द्रष्टव्य-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १२-१६
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ६७५
के बीच भेद और अभेद की तुल्यप्रधानता रहती है। इस प्रकार उपमा भेदाभेदतुल्यप्रधान और परिणाम अभेदप्रधान अलङ्कार है। उपमा और उभयन्यास
आचार्य रुद्रट ने उभयन्यास अलङ्कार का निरूपण करते हुए उपमा से उसके साम्य-वैषम्य का सङ्केत दिया है। यह ध्यातव्य है कि उभयन्यास का नाम-मात्र नवीन है; उसका स्वरूप अन्य आचार्यों के प्रतिवस्तूपमा अलङ्कार से अभिन्न है। अतः, उपमा से उभयन्यास को व्यावर्तित करने वाले वे ही तत्त्व हैं, जिन तत्त्वों पर प्रतिवस्तूपमा के व्यावर्तक के रूप में विचार किया जा चुका है। नमिसाधु ने उपमा तथा उभयन्यास के प्रधान भेद का निर्देश करते हुए कहा है कि उपमा में उपमान तथा उपमेय के बीच साधारण धर्म का तथा 'इव' आदि सादृश्यवाचक शब्दों का निर्देश होता है; पर उभयन्यास में उनका उल्लेख नहीं होता। इस सन्दर्भ में उपमा और प्रतिवस्तूपमा का 'भेद द्रष्टव्य है। उपमा और साम्य
रुद्रट, भोज आदि ने उपमा से पृथक् साम्य अलङ्कार का अस्तित्व स्वीकार किया है। उपमा में दो वस्तुओं में सादृश्य निरूपित होता है; पर साम्य में दो वस्तुओं के बीच साधारण रूप से रहने वाले गुण-क्रिया-संस्थान आदि के कारण उपमेय का उपमान के साथ अर्थक्रिया से सर्वात्मना साम्य दिखाया जाता है। समान गुण आदि के कारण जहाँ उपमेय के द्वारा ही उपमान का कार्य किये जाने का वर्णन हो, वहाँ साम्य होगा। इस प्रकार रूप-विधान की दृष्टि से उपमा और साम्य के प्रथम रूप में यह भेद है कि उपमा में कवि उपमेय और उपमान के बीच केवल सादृश्य दिखाता है; पर साम्य में दोनों के बीच सादृश्य के कारण उपमेय के द्वारा उपमान का कार्य किये जाने का वर्णन करता है। 'मुख चन्द्रमा-सा कान्तिमान है' यह कथन तो उपमा का उदाहरण होगा; पर अपनी कान्ति से मुख ही चन्द्रमा का काम (प्रकाश) कर रहा है',
१. एवमभेदप्रधानेष्वपि रूपकापह्न तिपरिणामभ्रान्तिमदुल्लेखादिषु....... ____नास्त्युपमालङ कृतित्वम् ।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० २४८,४६ २. उपयायां हि सामान्यस्येवादेश्च प्रयोगः इह (उभयन्यासे) तु नैवेत्यर्थः ।
-रुद्रट, काव्यालङ्कार, ८,८५ पर नमिसाधु की वृत्ति, पृ० २८२
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६७६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
यह साम्य का उदाहरण होगा; क्योंकि इसमें अर्थ-क्रिया से उपमेय का उपमान से सर्वात्मना साम्य दिखाया गया है । साम्य का एक रूप वह भी है, जिसमें उपमेय के उत्कर्ष के सूचक विशेष को छोड़ शेष बातों में उपमेय और उपमान का सर्वात्मना साम्य दिखाया जाता हो । भोज ने उपमा और साम्य में केवल रूप-विधान का भेद माना है ।' दो वस्तुओं का सादृश्य उपमा और दोनों में विवक्षित होता है । साम्य में दो वस्तुओं का सर्वात्मना साम्य दिखाने के लिए एक के द्वारा दूसरे के कार्य सम्पादन की कल्पना की जाती है । परवर्ती आचार्यों ने साम्य का स्वतन्त्र अस्तित्व ही स्वीकार नहीं किया है । सम्भव है कि उपमा, रूपक आदि से पृथक साम्य के स्वरूप की कल्पना उन्हें अनावश्यक जान पड़ी हो ।
साम्य;
उपमा और समुच्चय
रुद्रट ने औपम्य गर्भ - समुच्चय में उपमानोपमेय-भूत अनेक अर्थों का एक धर्माभिसम्बन्ध अपेक्षित माना था । अनेक अर्थों का एक साधारण धर्म से युक्त होना समुच्चय का व्यावर्तक लक्षण है । समुच्चय में जिन अनेक अर्थों का एक सामान्य-सम्बन्ध दिखलाया जाता हो, उनमें उपमानोपमेय भाव होना आवश्यक माना गया है । अनेक अर्थों में उपमानोपमेय-भाव की कल्पना होने से समुच्चय के उपमा से भेदक तत्त्व का निर्देश आवश्यक जान पड़ा। इस लिए रुद्रट ने समुच्चय की परिभाषा में 'अनिवादि' पद का उल्लेख किया है । उपमा में सादृश्य के वाचक 'इव' आदि का प्रयोग होता है; पर समुच्चय में 'इव' आदि वाचक का प्रयोग नहीं होता । निष्कर्षतः, उपमा और औपम्य वर्गगत समुच्चय में मुख्य दो भेद हैं
(१) समुच्चय में अनेक अर्थों (दो से अधिक) का एक साधारण धर्म से सम्बन्ध दिखाना आवश्यक है, जब कि उपमा में दो वस्तुओं — उपमेय
१. द्रष्टव्य - भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ४- ३४ तथा उसपर जगद्धर की टीका- 'यद्यपि त्रिषु ( साम्योपमारूपकेषु) सादृश्यमस्ति तथापि प्रकारकृतो भेद इति भावः । - सरस्वती कण्ठाभरण, पृ० ३६७
२. सोऽयं समुच्च्चयः स्याद्यत्रानेकोऽर्थ एकसामान्यः ।
अनिवादिद्रव्यादिः सत्युपमानोपमेयत्वे ॥ - उपमायाः समुच्चयत्वनिवृत्यर्थमाह-अनिवादिः । उपमायामिवादि - शब्द प्रयोग इत्यर्थः । - रुद्रटः काव्यालङ्कार, ८,१०३ तथा उसकी नमिसाधुकृत, टिप्पणी पृ० २६८
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ६७७ और उपमान के बीच किसी साधारण धर्म का निर्देश पर्याप्त
होता है। (२) उपमा में 'इव' आदि वाचक शब्द का प्रयोग होता है ( वाचकलुप्ता
उपमा में भले वह लुप्त हो ); पर समुच्चय में 'इव' आदि वाचक
शब्द का प्रयोग नहीं होता। रूपक और साम्य
साम्य में उपमेय का उपमान से सर्वात्मना साम्य दिखाने के लिए उपमे य के द्वारा ही उपमान का कार्य सम्पादित किये जाने का वर्णन होता है। अतः, रूपक से साम्य की समता इस बात में है कि साम्य में उपमान के कार्य का उपमेय पर आरोप हो जाता है। भोज ने उपमा और रूपक से साम्य की स्वरूपगत समता को दृष्टि में रखते हुए साम्य-लक्षण में 'उपमारूपकान्यत्वे' का उल्लेख किया है। टीकाकार जगद्धर ने उक्त पद के व्याख्यान-क्रम में कहा है क यद्यपि तीनों में (उपमा, रूपक और साम्य में) सादृश्य है, फिर भी उनमें रचना-प्रकार का भेद है।' रूपक में एक वस्तु पर अन्य वस्तु काप्रस्तुत पर अप्रस्तुत का आरोप किया जाता है, साम्प में उपमेय और उपमान के बीच समान गुण आदि के कारण उपमेय का उपमान से अर्थ-क्रिया से समता दिखायी जाती है । रूपक और समुच्चय
औपम्य-वर्गगत समुच्चय में रूपक की सम्भावना का निवारण करने के लिए रुद्रट ने उपमानोपमेय-भाव की आवश्यकता पर बल दिया है। रूपक में अभेद की प्रधानता होती है, पर औपम्यगर्भ समुच्चय उपमा आदि की तरह 'भेदाभेद-तुल्य-प्रधान अलङ्कार है। रूपक और अतिशयोक्ति ___ रूपक के भेद में अपह्नव-रहित अभेद का निरूपण होता है, अर्थात् परस्पर भिन्न उपमेय और उपमान में से उपमेय पर उपमान का आरोप कर
१. यद्यपि त्रिषु सादृश्यमस्ति तथापि प्रकारकृतो भेद इति भावः ।
-सरस्वतीकण्ठाभरण, ४-३४ की टीका पृ० ३६७ २. द्रष्टव्य-रुद्रट, काव्यालङ्कार, ८, १०३ तथा उसपर नमिसाधुकृत
टिप्पणी-एवमपि रूपकत्वं स्यादित्यत आह-सत्युपमानोपमेयत्व इति । रूपके ह्यभेद एव हेतुभेदः । नमिसाधु-टिप्पणी, पृ० २८८
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६७८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
दोनों को अभिन्न रूप में प्रस्तुत किया जाता है। अतिशयोक्ति (रूपकातिशयोक्ति) में वर्ण्य वस्तु का निगरण कर अन्य वस्तु के साथ उसका आहार्य अभेद दिखाया जाता है। विषय का निमरण-पूर्वक अध्यवसान-विषय का उल्लेख न कर या उसे गौण बनाकर विषयी के साथ अभेद-प्रतिपादनअतिशयोक्ति का स्वरूप है। अतः उसमें उपमेय का उपमेयगत धर्म के रूप में उल्लेख नहीं होता । उपमान के उत्लेख से ही उपमेय के धर्म का तथा उपमान और उपमेय के अभेद का निश्चय कराया जाता है। इस प्रकार रूपक से अतिशयोक्ति का मुख्य भेद यह है कि रूपक में उपमेय और उपमान; दोनों का उल्लेख ( उपमेय पर उपमान का आरोप करने के लिए) होता है। पर, अतिशयोक्ति में दोनों के अभेदाध्यवसान के लिए उपमेय का निगरण अर्थात् केवल उपमान का उल्लेख होता है। जगन्नाथ ने रूपक में उपमेय का 'पुरस्कार' आवश्यक मानकर उन्होंने अतिशयोक्ति से यह भेद किया है कि अध्यवसाना लक्षणामूलक अतिशयोक्ति में उपमेय का पुरस्कार नहीं होता।' रूपक और परिणाम
रूपक में प्रस्तुत वस्तु पर अप्रस्तुत का आरोप कर अप्रस्तुत के धर्म की प्रस्तुत में अभेदेन सादृश्यप्रतीति करायी जाती है। इस अभेदेन सादृश्यप्रतीति या ताद्र प्यप्रतीति से प्रस्तुत वस्तु का उपस्कार होता है। परिणाम अलङ्कार में आरोप्यमाण अर्थात् अप्रस्तुत वस्तु ताद्र प्यप्रतीति से प्रस्तुत वस्तु का उपस्कार तो करती ही है। साथ ही इस अलङ्कार में उसकी (अप्रस्तुत की) प्रकृत अर्थ में उपयोगिता भी दिखायी जाती है । इस प्रकार प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का आरोप रूपक और परिणाम-दोनों में समान रूप से होता है; पर दोनों का भेद यह है कि जहाँ रूपक में प्रस्तुत पर अप्रस्तुत के आरोप का उद्देश्य केवल प्रस्तुत अर्थ का उपरञ्जन होता है, वहाँ परिणाम में अप्रस्तुत के आरोप से प्रस्तुत अर्थ का उपरञ्जन करने के साथ प्रस्तुत का अप्रस्तुत के व्यवहार से युक्त होना भी दिखाया जाता है। 'अलङ्कार-सर्वस्व' के टीकाकार श्री चक्रवर्ती
१. उपमेयतावच्छेदकपुरस्कारेणोपमेये शब्दान्निश्चीयमानमुपमानतादात्म्यं
रूपकम् । ""उपमेयतावच्छेदकपुरस्कारेणेति विशेषणादपह नुतिभ्रान्तिमदतिशयोक्तिनिदर्शनानां निरासः ।...."अतिशयोक्ति निदर्शनयोश्च साध्यवसानलक्षणामूलकत्वादुपमेयतावच्छेदकस्य नास्ति पुरस्कारः ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ३५४-५५
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद [ ६७६ ने परिणाम को 'व्यवहारान्त आरोप' कहा है।' इसी तथ्य को दृष्टि में रख कर दूसरे टीकाकार जयरथ ने प्रकृत अर्थ का अप्रकृत अर्थ के व्यवहार से विशिष्ट होना परिणाम का स्वभाव माना है ।२ रूपक में प्रस्तुत वस्तु के रूप पर अप्रस्तुत के रूप का आरोप-मात्र होता है। यह रूप-समारोप परिणाम में भी होता है, साथ ही इसमें प्रकृत पर अप्रकृत के व्यवहार का भी समारोप होता है। रूपक में अप्रस्तुत प्रस्तुत को अपने रूप से सर्वथा रूपित कर लेता है । अतः उसमें प्रस्तुत गौण होकर अप्रस्तुत के रूप में खो जाता; है पर परिणाम में प्रस्तुत की भी उपयोगिता शेष रहती है। अप्पय्य दीक्षित तथा पण्डितराज जगन्नाथ के शब्दों में परिणाम में विषयी विषयात्मतया ही प्रकृत कार्य में उपयोगी होता है । अतः, आरोप्यमाण की ही विषय के साथ ताद्प्य-प्रतीति होती है।3 नागेश भट्ट के अनुसार रूपक में उपमानप्रतियोगिक अभेद तथा परिणाम में उपमेय-प्रतियोगिक अभेद दिखाया जाता है। फलतः, प्रस्तुत अपना स्वरूप नहीं खोता। नेत्रकमल रूपक का उदाहरण है। इसमें उपमान कमल उपमेय नेत्र को अपने रूप से रूपित कर लेता है। नेत्र-कमल के रूप में अपना अस्तित्व मिला देता है; पर परिणाम की इस उक्ति में-'नयन-कमल से देख रही है'-देखना क्रिया में नयन की उपयोगिता शेष रहती है। अतः, कमल से रूपित होने पर भी नयन (अपनी उपयोगिता के कारण) कमल में खो नहीं जाता। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए उद्योतकार ने कहा है कि परिणाम में आरोप्यमाण विषयी विषयात्मतया ही प्रकृत कार्य में उपयोगी होता है, स्वतन्त्र रूप से नहीं। पर, रूपक में ऐसी बात नहीं होती। १. अतो व्यवहारान्तमारोपः, न तु रूपकन्यायेन रूपसमारोपमात्रम्।
-चक्रवर्ती, सञ्जीवनी-टीको, पृ० ५८ २. प्रकृतमप्रकृतव्यवारविशिष्टतयावतिष्ठते ।-जयरथ, विमशिनी पृ० ५१ ३. परिणाम: क्रियार्थश्चेद्विषयी विषयात्मना।-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द,
२१ तथा-उपरञ्जकतामाहार्यताद्र प्यनिश्चयगोचरतामेतीत्यनेन सन्देहोत्प्रेक्षासमासोक्तिपरिणामभ्रान्तिमत्स्वतिव्याप्तिनिरासः। 'समासोक्तिपरिणामयोविषयताद्र प्यस्यागोचरत्वात् .. इत्याहुः।
-जगन्नाथ, रसँगङ्गाधर, पृ० ३५७-५८ ४. उपमानप्रतियोगिकाभेदो रूपकम् । उपमेयप्रतियोगिकाभेदः :परिणामः
प्रतीपवत् ।-रसगङ्गाधर, नागेश की टीका, पृ० ३६२ ५. यत्त आरोप्यमाणो यत्र विषयात्मतयैव प्रकृतकार्योपयोगी न स्वातन्त्र्येण स परिणामः । अत्र च विषयाभेदः आरोप्यमाणे उपयुज्यते, रूपके तु 'वमिति विशेषः।-काव्यप्र० उद्योत से बालबोधिनी में उद्ध त,पृ० ५६४
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६८० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उक्त दोनों अलङ्कारों में रूप-समारोप की समता को दृष्टि में रखते हुए 'काव्यप्रकाश' के कुछ टीकाकारों ने यह मन्तव्य प्रकट किया है कि मम्मट को रूपक में ही परिणाम का अन्तर्भाव अभीष्ट था;' पर मम्मट ने स्पष्टतः ऐसा कहीं नहीं कहा है। मम्मट के पूर्ववर्ती आचार्यों ने परिणाम के अस्तित्व की कल्पना नहीं की थी। सम्भव है, वे रूपक के व्यापक स्वरूप में परिणाम की उक्तिभङ्गी को भी समाविष्ट मानते रहे हों। पर, मम्मट के समकालीन तथा परवर्ती रुय्यक, जगन्नाथ आदि ने रूपक और परिणाम की पृथक्-पृथक् सत्ता प्रमाणित करने के लिए दोनों के भेदक तत्त्वों का निर्देश किया है। उन आचार्यों के भेदनिरूपण का निष्कर्ष निम्नलिखित है
(१) रूपक में प्रकृत पर अप्रकृत का केवल रूप-समारोप होता है; पर परिणाम में रूप-समारोप के साथ व्यवहार-समारोप भी आवश्यक है। प्रस्तुत के ऊपर अप्रस्तुत के रूप का आरोप कर प्रस्तुत को अप्रस्तुत के कार्य से युक्त दिखाना अथवा अप्रस्तुत को प्रस्तुत-कार्य-विशिष्ट बताना परिणाम का स्वरूप है। 'मुख-चन्द्र से ताप शमन' में मुख को चन्द्र के कार्य से युक्त तथा 'नयन-कमल से देखना' में कमल को नयन के कार्य से युक्त कहा जाता है। दोनों परिणाम के उदाहरण हैं। एक में प्रकृत का अप्रकृत-व्यवहारविशिष्ट होना कहा गया है । इसे ही जयरथ ने परिणाम का लक्षण माना था। दूसरे में, अप्रकृत का प्रकृतात्मतया उपयोग दिखाया गया है। अप्पय्य दीक्षित तथा जगन्नाथ के अनुसार परिणाम का यही लक्षण है।
(२) रूपक में प्रस्तुत अप्रस्तुत के रूप से रूपित होकर गौण हो जाता है और अपना स्वरूप खो देता है; पर परिणाम में उसका उपयोग शेष रहता हैं । अतः, वह अपना स्वरूप नहीं खोता ।
(३) रूपक में विषय का आरोप्यमाण के साथ ताप्य दिखाया जाता है; पर परिणाम में आरोप्यमाण का ही विषय से ताद्र प्य-रूपण होता है। रूपक और अपह नुति
रूपक में प्रकृत वस्तु पर अप्रकृत का आरोप किया जाता है। अपह्न ति में प्रकृत का निषेध कर उसकी जगह अप्रकृत की स्थापना की जाती है। अन्य अर्थात् अप्रकृत वस्तु का आरोप या स्थापन दोनों अलङ्कारों में होता है।
१. परिणामालङ्कारस्तु रूपके एवान्तर्भवतीति दिक् ।
-काव्यप्रकाश, नागेश्वरी टीका, पृ० २४०
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ६८१
दोनों का मुख्य भेद यह है कि रूपक में प्रकृत तथा अप्रकृत; दोनों का उपस्थापन होता है; पर अपह्न ुति में प्रकृत का निषेध होने के कारण उसका उपस्थापन नहीं होता । पण्डितराज जगन्नाथ ने रूपक की परिभाषा में प्रकृत के 'पुरस्कार' का उल्लेख कर अपह्न ुति, अतिशयोक्ति तथा भ्रान्तिमान् अलङ्कारों से रूपक का भेद स्पष्ट कर दिया है । अपह्न ुति में उपमेय का स्वेच्छा से निषेध किये जाने के कारण उसका पुरस्कार नहीं किया जाता; अतिशयोक्ति में उपमेय का निगरण होने से ( अभेदाध्यवसान - प्रधान होने के कारण ) पुरस्कार नहीं होता; निदर्शना में भी अध्यवसानमूलकता के कारण उपमेय का पुरस्कार नहीं होता और भ्रान्तिमान् में उपमेय का ज्ञान नहीं होने से उसका पुरस्कार नहीं होता । रूपक में उपमेय और उपमान; दोनों को प्रस्तुत कर कवि उपमेय पर उपमान का आरोप करता है । रूपक का अपह्न ुति आदि से यही भेद है । इस तथ्य को 'प्रदीप' में इस रूप में व्यक्त किया गया है - रूपक में अनपह्न त वस्तुओं का अभेद विवक्षित होता है, अतः वह अपह्नति से भिन्न है; क्योंकि अपह्नति में अपह्नवपूर्वक अभेद विवक्षित रहता है ।
रूपक और भ्रान्तिमान
हम देख चुके हैं कि पण्डितराज जगन्नाथ ने उपमेय के पुरस्कार तथा उसके पुरस्काराभाव के आधार पर रूपक और भ्रान्तिमान् का भेद-निरूपण किया है । रूपक में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत; दोनों का उल्लेख होता है और प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का रूप - समारोप होता है, पर भ्रान्तिमान् में उपमेय में उपमान की ही प्रतीति होती है । जब तक भ्रान्तिज्ञान रहता है तब तक प्रस्तुत में उससे भिन्न अप्रस्तुत का ही निश्चयात्मक ज्ञान रहता है । उस समय प्रस्तुत के अपने स्वरूप का ज्ञान ज्ञाता को नहीं
१. उपमेयतावच्छेदकपुरस्कारेणेति विशेषणादपह्न ुतिभ्रान्तिमदतिशयोक्तिनिदर्शनानां निरासः । अपह्न ुतौ स्वेच्छया निषिध्यमानत्वाद् भ्रान्तिमति च तज्जनकदोषणैव प्रतिबध्यमानत्वात् उपमेयतावच्छेदकस्य नास्ति पुरस्कारः ॥ —जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ३५४-५५ २. अभेदश्वात्र ( रूपके ) अनपह्न तभेदयोर्विवक्षित इति नापह्न तावतिव्याप्तिः ।
- काव्यप्रकाश प्रदीप टीका, बालबोधिनी
उद्धृत, पृ० ५९, ३
+
....
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६८२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण रहता। भ्रान्तिदशा में प्रस्तुत के ज्ञान के अभाव को दृष्टि में रखकर ही जगन्नाथ ने भ्रान्तिमान् में उपमेय के पुरस्कार का अभाव कहा है। मम्मट ने भी दोनों का भेद इस आधार पर किया था कि रूपक में वास्तविक भ्रम नहीं रहता। उसमें एक वस्तु पर अन्य का स्वेच्छा से आरोप किया जाता है; पर भ्रान्तिमान में प्रमाता को केवल अयथार्थ । न ही रहता है ।'
रूपक और अभेद
रूपक तथा अभेद अलङ्कारों का पारस्परिक भेद बताते हुए शोभाकर ने कहा है कि रूपक में आरोप-विषय तथा आरोप्यमाण का अभेद-मात्र प्रतीत होता है; पर अभेद अलङ्कार में विषयी के नियत धर्म की हानि बताकर विषय के साथ उसके सर्वथा अभेद की प्रतीति करायी जाती है। अतः, रूपक में अभेदमात्र की प्रतीति और अभेद में सर्वथा अभेद-प्रतीति; दोनों का व्यावर्तक है ।२ रूपक में प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का आरोप-मात्र होता है, जिससे प्रस्तुत और अप्रस्तुत को अभेद प्रतीत होता है; पर अभेद में अप्रस्तुत के उन गुणों की, जो प्रस्तुत से उसका भेद करते हैं, हानि की कल्पना कर प्रस्तुत के साथ अप्रस्तुत के सर्वथा अभेद की प्रतीति करायी जाती है । रूपक और उल्लेख ___ आचार्य दण्डी ने हेतु-रूपक के जिस स्वरूप का निरूपण किया था, उसे परवर्ती आचार्यों ने उल्लेख नाम दिया है। 3 विषय-भेद से हेतु-भेद सेएक वस्तु पर अनेक का आरोप दण्डी के अनुसार हेतुरूपक है। विश्वनाथ, अप्पय्य दीक्षित आदि अर्वाचीन आचार्य विषय-भेद से एक वस्तु के अनेकधा उल्लेख अर्थात् ग्रहण ( एक वस्तु पर अनेक के आरोप ) में उल्लेख अलङ्कार
१. नचैष ( भ्रान्तिमान् ) रूपकं......"तत्र वस्तुतो भ्रमस्याभावात् इह च अर्थानुगमनेन संज्ञायाः प्रवृत्तेः तस्य स्पष्टमेव प्रतिपन्नत्वात् ।
-मम्मट, काव्यप्रकाश, १०,१३२; की वृत्ति पृ० २६१ २. नियतधर्महानावारोप्यमाणस्यातिसाम्यमभेदः ।
-शोभाकर, अलङ्कार-रत्नाकर सूत्र, २७ तथा उसकी वृत्ति, द्रष्टव्य ३. द्रष्टव्य –दण्डीकृत हेतुरूपकलक्षण, काव्यादर्श, २,८५-८६ तथा उस
पर कुसुमप्रतिमा-टीका-विश्वनाथप्रभृतयस्तु एतादृशस्थले उल्लेखालङ्कारमाहुः । - वही, पृ० ११८
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद [६८३ मानते हैं। स्पष्ट है कि दण्डी के हेतु रूपक से परवर्ती आचार्यों का वह उल्लेखभेद, जिसमें विषय-भेद से एक वस्तु का अनेकधा उल्लेख होता है, आविर्भूत है। 'काव्यप्रकाश' की उद्योत टीका में उल्लेख के स्वतन्त्र अलङ्कारत्व का खण्डन कर रूपक, भ्रान्तिमान्, अतिशयोक्ति तथा श्लेष आदि में ही उसे अन्तभुक्त बताया गया है ।' एक वस्तु का अनेक ज्ञाता के द्वारा अनेकधा ग्रहण-रूप उल्लेख तो दण्डी के उक्त रूपक-भेद हेतु रूपक से भिन्न है; पर जिस उल्लेख-प्रकार में एक ही ज्ञाता एक वस्तु को अनेक हेतुओं से अनेक रूप में ग्रहण करता है, उसका स्वरूप हेतुरूपक से मिलता-जुलता ही है । पण्डितराज जगन्नाथ की मान्यता है कि मालारूपक से उल्लेख का भेदक उसमें प्रमाता की अनेकता है । उल्लेख में अनेक ज्ञाता को एक वस्तु का अनेक रूप में ग्रहण होता है; पर मालारूपक में एक ही प्रमाता किसी एक वस्तु पर अनेक विषयी का आरोप करता है। रूपक और उत्प्रक्षा __उत्प्रेक्षा में उत्कट कोटि का संशय होता है अर्थात् किसी वस्तु में असत् की सम्भावना की जाती है; पर रूपक में किसी वस्तु पर अन्य के रूप का समारोप होता है। इस प्रकार रूपक में तत्त्व का अवधारण होता है; पर उत्प्रेक्षा में उत्कटकोटिक संशय होने के कारण तत्त्व के अवधारण का अभाव रहता है। वामन ने उत्प्रक्षा के लक्षण में रूपक से उसके व्यावर्तक धर्म का स्पष्ट उल्लेख किया है। उनके अनुसार उत्प्रेक्षा में वस्तु का जो रूप नहीं है, उस ( अन्यथा ) रूप की सम्भावना की जाती है। पारिभाषिक शब्दावली में उत्प्रेक्षा में अतद्रप वस्तु का अपने स्वाभाविक रूप से भिन्न रूप में अध्यवसान होता है, पर रूपक में एक वस्तु के रूप पर अन्य वस्तु के रूप का आरोप होता है। निष्कर्षतः, वामन के अनुसार किसी वस्तु के वास्तविक
१. काव्यप्रकाश की उद्योत टीका में व्यक्त यह मत वामन झलकीकर
कृत बालबोधिनी-टीका में उद्धत है।—द्रष्टव्य पृ० ६३१ २. 'धर्मस्यात्मा भागधेयं क्षमाया' इत्यादि मालारूपकेऽतिप्रसङ्गवारणायाने कैर्ग्रहातृभिरित्यविवक्षितबहुत्वकं ग्रहण-विशेषणम् ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ४२८ ३. अतद्र पस्यातत्स्वभावस्य, अन्यथाऽतत्स्वभावतया, अध्यवसानमध्यव-- सायः । न पुनरध्यारोपो लक्षणा वा ।-वामन, काव्यालङ्कार सूत्र
__ ४-३-६ की वृत्ति पृ० २३६
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.६८४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
स्वरूप से भिन्न स्वरूप की सम्भावना उत्प्रेक्षा है तथा अन्य वस्तु पर अन्य का रूप-समारोप रूपक । रुद्रट ने सामान्य के विवक्षित होने तथा अविवक्षित होने के आधार पर उत्प्रेक्षा तथा रूपक का भेद किया है। उत्प्रक्षा में छल, व्याज, छद्म आदि साधारण धर्म के वाचक पदों का उल्लेख होता है; पर रूपक में साधारण धर्म के रहने पर भी वह विवक्षित नहीं रहता।' पण्डितराज जगन्नाथ ने रूपक की परिभाषा में 'शब्दान्निश्चीयमानमुपमानतादात्म्यम्' का उल्लेख कर उत्प्रेक्षा से रूपक का यह भेद किया है कि रूपक में उपमेय में उपमान का आरोप करता हुआ कवि उसमें उपमान का निश्चयात्मक रूप से तादात्म्य दिखाता है, जब कि उत्प्रेक्षा में वस्तु के यथार्थ स्वरूप से भिन्न का केवल सम्भावना या अनिश्चयात्मक प्रतीति करायी जाती है।२ निष्कर्ष रूप में उत्प्रेक्षा और रूपक के भेदक तत्त्व निम्तलिखित हैं :
(क) रूपक में अन्य वस्तु पर अन्य वस्तु के रूप का अध्यारोप होता है; पर उत्प्रेक्षा में किसी वस्तु के यथार्थ रूप या स्वभाव से भिन्न रूप या स्वभाव का अध्यवसान होता है।
(ख) रूपक में एक वस्तु पर अन्य की निश्चयात्मक प्रतीति करायी जाती है; पर उत्प्रेक्षा में अध्यवसान अनिश्चयात्मक या सम्भावना के रूप में होता है।
(ग) रूपक में सामान्य के रहने पर भी वह विवक्षित नहीं रहता; पर उत्प्रेक्षा में ( सम्भावना के वाचक मानो, जानो आदि पदों से ) सामान्य विवक्षित रहता है। दीपक और प्रतिवस्तूपमा
दीपक के पदावृत्ति-भेद में धर्म की एक ही शब्द से आवृत्ति होती है। अतः, उसका स्वरूप प्रतिवस्तूपमा से स्पष्टतः भिन्न है। अर्थावृत्ति दीपक में
१. उत्प्रेक्षायामप्यभेदो विद्यते, ततस्तन्निरासार्थमाह-अविवक्षितसामा
न्येति । सदप्यत्र सामान्यं न विवक्ष्यते। 'सिंहो देवदत्त इति । उत्प्रेक्षायां तु छलछद्मव्याजव्यपदेशादिभिः शब्दै रुपमानोपमेययोरभेदो भेदश्च विवक्षित इति। परमार्थतस्तूभयत्राभेद एवेति ।-रुद्रट,
-काव्यालङ्कार ८-३८ की वृत्ति पृ० २६१ द्रष्टव्य-जगन्नाथकृत रूपकपरिभाषा पृ० ३५४ तथा—निश्चीयमानमिति विशेषणात्सम्भावनात्मनो नूनं मुखं चन्द्र इत्याद्य त्प्रेक्षाया व्यावृत्तिः ।-रसगङ्गाधर, पृ० ३५५
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ६८५. भिन्न-भिन्न शब्दों से एक ही धर्म की आवृत्ति होती है। इस प्रकार इसका स्वरूप प्रतिवस्तूपमा से कुछ मिलता-जुलता है। अतः अर्थावृत्ति दीपक से प्रतिवस्तूपमा का भेद-निरूपण आवश्यक है। प्रतिवस्तूपमा में भिन्न-भिन्न शब्दों से एक ही धर्म की आवृत्ति होती है और इस प्रकार प्रस्तुत वाक्यार्थ एवं अप्रस्तुत वाक्यार्थ में सादृश्य की प्रतीति करायी जाती है। अर्थावृत्ति दीपक में दोनों ही वाक्यार्थ या तो प्रस्तुत रहते हैं या अप्रस्तुत । अप्पय्य दीक्षित ने इस तथ्य को दृष्टि में रखकर अर्थावृत्ति दीपक तथा प्रतिवस्तूपमा का एक व्यावर्तक लक्षण यह माना था कि अर्थावृत्ति केवल प्रस्तुत वाक्यार्थों में हो सकती है अथवा केवल अप्रस्तुत वाक्यार्थों में; पर प्रतिवस्तूपमा प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत वाक्यार्थों में होती है। दूसरे शब्दों में प्रतिवस्तूपमा में एक वाक्यार्थ प्रस्तुत रहता है, दूसरा अप्रस्तुत; पर प्रतिवस्तूपमा में या तो दोनों वाक्यार्थ प्रस्तुत रहते हैं या दोनों ही अप्रस्तुत रहते हैं। अप्पय्य दीक्षित के अनुसार उक्त अलङ्कारों में दूसरा भेदक धर्म यह है कि आवृत्ति दीपक केवल साधर्म्य-. मूलक ही होता है। वैधर्म्य से आवृत्तिदीपक की कल्पना नहीं की जा सकती; पर प्रतिवस्तूपमा साधर्म्यमूलक भी हो सकती है और वैधर्म्यमूलक भी। 'काव्यप्रकाश' के टीकाकार वामन झलकीकर ने कहा है कि विवरणकार केअनुसार एक धर्म की दो बार आवृत्ति प्रतिवस्तूपमा का व्यार्वतक धर्म है। दीपक में एक धर्म की दो बार आवृत्ति नहीं होती। इस प्रकार अर्थावत्ति दीपक तथा प्रतिवस्तूपमा में निम्नलिखित दो भेद हैं
(क) अर्थावृत्ति दीपक अनेक प्रस्तुत वाक्यार्थों में अथवा अनेक अप्रस्तुत वावयार्थों में ही सम्भव है, प्रतिवस्तूपमा प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत वाक्यार्थों में सम्भव होती है। अभिप्राय यह कि अर्थावृत्ति में या तो सभी वाक्यार्थ प्रस्तुत रहते हैं या सभी अप्रस्तुत; पर प्रतिवस्तूपमा में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत दोनों ही वाक्यार्थों का रहना आवश्यक है।
१. अर्थावृत्तिदीपकं प्रस्तुतानामप्रस्तुतानां वा; प्रतिवस्तूपमा तु प्रस्तुता
प्रस्तुतानामिति विशेषः । अयं चापरो विशेषः । आवृत्तिदीपक वैधर्येण न सम्भवति, प्रतिवस्तूपमा तु वैधयेणापि दृश्यते।
-अप्पय्य, कुवलयानन्द वृत्ति, पृ० ५५-५६, २. उक्त च विवरणकरैरपि ।... एकस्यापि धर्मस्य द्विरवृत्तेः वाक्यद्वयस्याभावेन च न प्रतिवस्तूपमादृष्टान्तौ ।-काव्यप्रकाश की वामन
झलकीकरकृत टीका में उद्धृत, पृ० ६३९
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६८६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
(ख) अर्थावृत्ति दीपक केवल साधर्म्य से सम्भव है, वैधर्म्य से नहीं; पर प्रतिवस्तूपमा साधर्म्य तथा वैधर्म्य-दोनों से सम्भव है।
(ग) दीपक में धर्म का सकृत् उपादान होता है, पर प्रतिवस्तूपमा में समान धर्म का वस्तुप्रतिवस्तुभाव से दो बार उपादान होता है। दीपक और उपमा
दीपक में भी प्रकृत तथा अप्रकृत के सजातीय धर्म-सम्बन्ध का पर्यवसान उपमा में होता है; पर उपमा से दीपक का यह भेद है कि दीपक में सादृश्यवाचक शब्द का प्रयोग नहीं होता । अतः, उसमें उपमा सदा व्यङग्य ही होती है। उद्योतकार का मत है कि दीपक में जो उपमा व्यङग्य होती है वह वाच्य का उपकारक होती है । अतः, वह गुणीभूत व्यङग्य ही होती है, ध्वनि नहीं।' इस प्रकार उपमा से दीपक का स्पष्ट भेद है। विवरण में भी इसी आधार “पर उपमा और दीपक का भेद-निरूपण किया गया है ।२ उत्प्रेक्षा और अपह नुति
रुद्रट ने उत्प्रेक्षा और अपह्नति अलङ्कारों में इस आधार पर भेद किया है कि उत्प्रेक्षा में व्याज, छल, आदि शब्दों से उपमेय की सत्ता भी स्वीकार की जाती है; पर अपह्न ति में उपमेय का सर्वथा अपह्नव अर्थात् उसकी सत्ता का सर्वथा निषेध होता है। उत्प्रेक्षा में प्रकृत में अप्रकृत की सम्भावना के लिए प्रकृत का सर्वथा निषेध आवश्यक नहीं, पर अपह्न ति में अनिवार्यतः प्रकृत का निषेध कर अप्रकृत का स्थापन होता है । ३ रुय्यक के अनुसार अपह्न ति आरोपगर्भ अलङ्कार है और उत्प्रेक्षा अध्यवसाय-गर्भ ।४ इस आधार पर भी उत्प्रेक्षा १. ..."सा चोपमा व्यङ ग्यैव, वाचक (इवादिशब्द) विरहात् । व्यङ्ग याया
अप्यस्याः वाच्योपकारकत्वात् गुणीभूतव्यङ ग्यत्वमेव न तु ध्वनित्वम् । अतोऽत्र नोपमाशङ्कत्युद्योते स्पष्टम् ।।
-उद्योत से बालबोधिनी में उद्धृत, पृ० ६३६ २. प्रथमप्रभेदस्थले उपमाप्रतीति विना वाक्यार्थस्य पर्यवसानात् नोपमा प्रथमं बोध्यते किं तु व्यज्यते इति नात्रोपमा।-काव्यप्रकाश, विवरण
से उद्धृत, वही, पृ० ६३६ ३. उत्प्रेक्षायां व्याजादिशब्दैरुपमेयस्य सत्त्वमप्युच्यते, इह (अपह्न तौ) तु सर्वथैवापह्नव इति विशेष ।-रुद्रट, काव्यालङ्कार, ८, ५७ की
___टीका पृ० २७१ ४. आरोपप्रस्तावादारोपविषयापह्न तावारोप्यमाणप्रतीतावपह्न त्याख्योऽलङ्कारः । तथा अध्यवसाये व्यापारप्राधान्ये उत्प्रेक्षा।
-रुय्यक, अलङ्कार सूत्र, २० की वृत्ति तथा सूत्र २१
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[६८७ और अपह्नति का भेद-निरूपण किया जा सकता है । अपह्न ति में प्रकृत का निषेध कर उसपर अप्रकृत का आरोप किया जाता है। अतः वह आरोपगर्भ अलङ्कार है। उत्प्रेक्षा में विषय का निगरण कर विषयी से उसके अभेद की प्रतीति–साध्याध्यवसाय के रूप में करायी जाती है। अतः उत्प्रेक्षा अध्यवसायगर्भ अलङ्कार है। उत्प्रक्षा और अतिशयोक्ति ___ उत्प्रेक्षा और अतिशयोक्ति दोनों ही अध्यवसायगर्भ अलङ्कार हैं। दोनों में विषय का निगरण कर विषयी के साथ उसकी अभेद-प्रतीति करायी जाती है। दोनों में मुख्य भेद अध्यवसाय (अर्थात् विषय का निगरण कर विषयी के साथ अभेद प्रतीति) के सिद्ध तथा साध्य होने का है। अतिशयोक्ति में अध्यवसाय सिद्ध होता है, पर उत्प्रेक्षा में वह साध्य या सम्भावना के रूप में रहता है। उत्प्रेक्षा और भ्रान्तिमान
उत्प्रेक्षा में भी किसी वस्तु में उससे भिन्न किसी वस्तु की सम्भावना की जाती है और भ्रान्तिमान में भी किसी वस्तु में उससे भिन्न वस्तु का ज्ञान होता है, पर दोनों में भेद यह है कि उत्प्रेक्षा में एक वस्तु में अन्य वस्तु की सम्भावना आहार्य होती है, जबकि भ्रान्तिमान में किसी वस्तु में अन्य वस्तु की प्रतीति अनाहार्य होती है। वामन ने भ्रान्तिमान् से उत्प्रेक्षा के भेदनिरूपण के लिए उत्प्रेक्षा के लक्षण में 'अतिशयार्थ' पद का उल्लेख किया है। उत्प्रेक्षा में विशेष चमत्कार उत्पन्न करने के लिए किसी वस्तु में अन्य की सम्भावना की जाती है । वक्ता वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानता हुआ चमत्कार के लिए उसमें अन्य वस्तु की सम्भावना करता है। भ्रान्तिमान में वस्तु के यथार्थ रूप का ज्ञान नहीं होता। उसमें अन्य वस्तु की एककोटिक निश्चयात्मक प्रतीति होती है । उत्प्रेक्षा में एक वस्तु में अन्य की सम्भावना (उत्कट कोटि का संशय) होती है । अतः इसमें सम्भावना की आधारभूत वस्तु १. अध्यवसाये व्यापारप्राधान्ये उत्प्रेक्षा। तथाअध्यवसितप्राधान्ये त्वतिशयोक्तिः ।
-रुय्यक, अलङ्कारसूत्र २१ और २२ २. अतद्र पस्यान्यथाध्यवसानमतिशयार्थमुत्प्रेक्षा।।
-वामन, काव्यालङ्कार, सूत्र ४, ३, ६
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६८८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
तथा साम्भव्यमान वस्तु; इन दोनों का ज्ञान वक्ता को रहता है । विश्वनाथ ने भी इसी आधार पर उत्प्रेक्षा और भ्रान्तिमान् का भेद किया है कि उत्प्रेक्षा में सम्भावना करने वाले को विषय तथा विषयी; दोनों का ज्ञान रहता है, पर भ्रान्तिमान् में भ्रान्त व्यक्ति को विषय का ज्ञान नहीं रह जाता ।
उत्प्र ेक्षा सादृश्यमूलक अलङ्कार है । अतः उपमा की तरह (वाच्या) उत्प्रेक्षा को भी 'इव' आदि सादृश्यवाचक शब्द द्योतित करते हैं । दण्डी ने 'मन्ये" 'शङ्क' आदि उत्प्र ेक्षा वाचक शब्दों का स्पष्ट उल्लेख किया था । कुन्तक ने भी इवादि को उत्प्रेक्षा का प्रकाशक कहा है । २ भ्रान्तिमान् का भी आधार सादृश्यातिशय पर आश्रित भ्रमात्मक ज्ञान ही है, पर उसमें अन्य वस्तु में अन्य वस्तु का एककोटिक निश्चयात्मक ज्ञान वर्णित होता है, दो वस्तुओं के बीच सादृश्य-ज्ञान नहीं । अतः भ्रान्तिमान् में 'इव' आदि वाचक पदो का प्रयोग: नहीं होता । इस विवेचन के निष्कर्ष के रूप में उत्प्रेक्षा और भ्रान्तिमान् के निम्नलिखित दो भेदक तत्त्व उपलब्ध होते हैं ।
(क) उत्प्रेक्षा में सम्भावना करने वाले को प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत दोनों का ज्ञान रहता है, फिर भी वह अतिशयार्थ उपमेय में उपमान की सम्भावना करता है, पर भ्रान्तिमान् में वक्ता भ्रमवश उपमेय को ही निश्चयात्मक रूप से उपमान समझ लेता है । उसे उपमेय का ज्ञान नहीं होता ।
(ख) वाच्योत्प्रेक्षा में 'इव' 'मन्ये' 'शङ्क' आदि वाचक पक्षों का प्रयोग होता है, पर भ्रान्तिमान में अन्य वस्तु में अन्य का निश्चयात्मक या एककोटिक ज्ञान होने के कारण सादृश्य आदि के वाचक का प्रयोग नहीं होता ।
उत्प्रेक्षा और (वामन कल्पित ) वक्रोक्ति
आचार्य वामन ने सादृश्य के आधार पर की जाने वाली लक्षणा में
१. भ्रान्तिमदलङ्कारे 'मुग्धा दुग्धधिया' – इत्यादौ भ्रान्तानां वल्लवादीनां विषयस्य चन्द्रिकादेर्ज्ञानमेव नास्ति, तदुपनिबन्धनस्य कविनैव कृतत्वात् । इह (उत्प्रेक्षायां ) तु संभावनाकत्तु विषयस्यापि ज्ञानमिति द्वयोर्भेदः । - विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, वृत्ति पृ० ६६४
२. द्रष्टव्य - दण्डी, काव्याद०२, २३४ तथा कुन्तक, वक्रोक्तिजी ०. कैर्वाक्यै रुत्प्रेक्षा प्रकाश्यते इत्याह- इवादिभिः । पृ० ४२५
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद [६८९ वक्रोक्ति अलङ्कार माना है। इसका स्वरूप उत्प्रेक्षा से कुछ मिलता-जुलता है । अतः इस वक्रोक्ति से उत्प्रेक्षा का भेद-निरूपण अपेक्षित है। अन्य आचार्यों की वक्रोक्ति का स्वरूप वामन की वक्रोक्ति से सर्वथा भिन्न है। वे अन्य व्यक्ति के अन्य अर्थ में कथित वाक्य का श्रोता के द्वारा अन्य अर्थ लगाकर उत्तर देने की वक्र शैली में वक्रोक्ति मानते हैं। इस वक्रोक्ति का उत्प्रेक्षा से कुछ भी स्वरूप-साम्य नहीं। अतः वामन की वक्रोक्ति-परिभाषा को ही दृष्टि में रख कर हम उत्प्रेक्षा से उसका भेद-विवेचन करेंगे। ___ सादृश्य से लाक्षणिक प्रयोग में, अर्थात् वक्रोक्ति में, एक वस्तु के लिए अन्य वस्तु का निश्चयात्मक प्रयोग होता है। मनुष्य को जब सिंह या गदहा कहा जाता है तो यह कथन निश्चयात्मक ही हुआ करता है। ध्यातव्य है कि ऐसी उक्ति में वक्ता मनुष्य तथा सिंह या गदहा आदि के भेद से भी अवगत रहता है। दोनों के भेद का ज्ञान रहने पर भी गुण-सादृश्य से अन्य (मनुष्य) के लिए अन्य (सिंह, गदहा आदि) का प्रयोग किया जाता है। इसी तरह उत्प्रेक्षा में भी अतिशयार्थ किसी वस्तु में उसके अपने यथार्थ रूप से भिन्न रूप का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार किञ्चित् रूपगत साम्य होने पर भी उत्प्रेक्षा और सादृश्य-लक्षणा-रूपा वक्रोक्ति में भेद यह है कि उत्प्रेक्षा में अन्य वस्तु-रूप में अन्य का प्रयोग सम्भावना के रूप में ( उत्कटककोटिक सन्देह अतः अनिश्चय के रूप में ) होता है पर वामन की वक्रोक्ति में (लाक्षणिक प्रयोग में) निश्चयात्मक रूप में। उत्प्रेक्षा और सन्देह
उत्प्रेक्षा में अन्य वस्तु में अन्य वस्तु की सम्भावना की जाती है अर्थात् उपमेय में उपमान की सम्भावना की जाती है। सन्देह में किसी वस्तु में अनिश्चयात्मक द्वकोटिक ज्ञान होता है। इसमें दोनों ही वस्तुओं के ज्ञान में समान बल रहता है। वर्ण्य मुख में 'मुख है या कमल' इस प्रकार का द्वै कोटिक ज्ञान रहता है और दोनों में से किसी ज्ञान में दूसरे की अपेक्षा कम या अधिक बल नहीं रहता। उत्प्रेक्षा और सन्देह का मुख्य भेद यह है कि उत्प्रेक्षा में उपमेय में उपमान का ज्ञान उत्कट कोटि का होता है, जब कि सन्देह में उपमेय और उपमान का ज्ञान समान कोटि का
१. सादृश्याल्लक्षणा वक्रोक्तिः।-वामन, काव्यालङ्कार, सूत्र ४, ३, ८
४४
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६९० ]
अलङ्कार- धारणा : विकास और विश्लेषण
रहता है । उत्प्रेक्षा को इसीलिए उत्कट ककोटिक संशय कहा गया है । जब उपमेय के स्वरूप में उपमान के स्वरूप की सम्भावना की जाती है तो उपमेय और उपमान; दोनों का ज्ञान रहता है पर उपमान का ज्ञान उत्कट कोटि का होता है । उसमें उपमेय के ज्ञान की अपेक्षा अधिक बल रहता है । विश्वनाथ ने इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख किया है । १ कुन्तक ने सन्देह के सभी भेदों को अनिवार्यतः उत्प्रेक्षामूलक ही माना है । २ पण्डितराज जगन्नाथ ने सन्देह के लक्षण में उसके व्यावर्तक धर्म 'समबल' का उल्लेख किया है । 3 दो विषयों के समबल ज्ञान में सन्देह अलङ्कार होता है | अतः, सन्देह उत्कटैककोटिक ज्ञान वाली उत्प्रेक्षा से भिन्न है । उत्प्रेक्षा और सन्देह का यही भेद सर्वमान्य है ।
समासोक्ति और अप्रस्तुतप्रशंसा
समासोक्ति एवं अप्रस्तुतप्रशंसा; दोनों में एक अर्थ के कथन से अन्य अर्थ व्यञ्जित होता है । प्रस्तुत अर्थ के वर्णन से अप्रस्तुत अर्थ के व्यञ्जित होने में समासोक्ति अलङ्कार माना जाता है । हम देख चुके हैं कि वामन, रुद्रट, भोज आदि आचार्यों ने अप्रस्तुत के कथन से प्रस्तुत के गम्य होने में समासोक्ति अलङ्कार माना था; पर पीछे चलकर समासोक्ति और अप्रस्तुतप्रशंसा का क्षेत्र निर्धारित कर दिया गया। प्रस्तुत के कथन से अप्रस्तुत के व्यञ्जित होने में समासोक्ति तथा इसके विपरीत अप्रस्तुत के कथन से प्रस्तुत के व्यञ्जित होने में अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार माना गया । अप्रस्तुतप्रशंसा का कुछ आचार्यों के द्वारा सुझाया गया लक्षण - अप्रस्तुत की प्रशंसा अर्थात् गुणगान - भी मान्य नहीं हुआ । इस प्रकार काव्यशास्त्र में समासोक्ति और अप्रस्तुतप्रशंसा का जो स्वीकृत स्वरूप है, उसमें मुख्य भेद यह है कि समासोक्ति में प्रस्तुत अर्थ का
१. सन्देहे तु समकक्षतया कोटिद्वयस्य प्रतीतिः, इह ( उत्पक्षायां ) तु उत्कटा सम्भाव्यभूतैका कोटिः ।
- विश्वनाथ, साहत्यिदर्पण वृत्ति, पृ० ६६४
२. यस्मिन्नुत्प्रेक्षितं रूपं सन्देह मेति वस्तुनः । उत्प्रेक्षान्तरसद्भावात् विच्छित्त्यै सन्देहो मतः ॥
३,४२
—— कुन्तक, वक्रोक्तिजी, ३. उत्प्रेक्षाव्यावृत्तये समबलेति । —जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ४०६
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[६६१
वर्णन होता है और उससे (विशेषण आदि के वैशिष्ट्य से ) अप्रस्तुत अर्थ की व्यञ्जना होती है; पर इसके विपरीत अप्रस्तुतप्रशंसा में अप्रस्तुत अर्थ का वर्णन किया जाता है और उससे प्रस्तुत अर्थ व्यजित होता है। रुय्यक, मम्मट, विश्वनाथ आदि अर्वाचीन आचार्यों की यही मान्यता है और आधुनिक काल में यही सर्वमान्य है।
समासोक्ति और प्रस्तुताङ कुर
समासोक्ति में प्रस्तुत अर्थ के वर्णन से किसी अप्रस्तुत अर्थ की व्यञ्जना होती है; पर प्रस्तुताङ कुर में प्रस्तुत अर्थ के वर्णन से दूसरे प्रस्तुत अर्य की ही व्यञ्जना होती है। समासोक्ति की तरह प्रस्तुताङ कुर में भी दो अर्थ होते हैं-एक वाच्य तथा दूसरा व्यङ ग्य, पर दोनों का मुख्य भेद यह है कि जहाँ समासोक्ति में वाच्य अर्थ प्रस्तुत और व्यङ ग्य अर्थ अप्रस्तुत होता है, वहाँ प्रस्तुताङ कुर में वाच्य और व्यङग्य; दोनों अर्थ प्रस्तुत ही होते हैं । प्रस्तुत के वर्णन से अन्य प्रस्तुत की व्यञ्जना कराने वाले प्रस्तुताङ कुर का अप्रस्तुतप्रशंसा से भी भेद स्पष्ट है।
समासोक्ति और परिणाम
परिणाम व्यवहारान्त आरोप है। इसमें प्रस्तुत अर्थ को अप्रस्तुत अर्थ के व्यवहार से विशिष्ट बताया जाता है। इस तरह इसमें प्रस्तुत पर अप्रस्तुत के रूप का आरोप तो होता ही है, उसके व्यवहार का भी आरोप होता है। समासोक्ति अलङ्कार में भी प्रस्तुत पर अप्रस्तुत के व्यवहार का आरोप होता है। विश्वनाथ ने समासोक्ति-लक्षण में प्रस्तुत पर अन्य वस्तु के व्यवहार-समारोप पर बल दिया है;' पर परिणाम से समासोक्ति का यह भेद है कि जहाँ परिणाम में प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों का उपादान कर अप्रस्तुत को प्रस्तुत अर्थ में उपयोगी बताया जाता है, वहाँ समासोक्ति में अप्रस्तुत का उपादान नहीं होता है। उसमें केवल प्रस्तुत का.उपादान होता है और अप्रस्तुत व्यङ ग्य
१. समासोक्तिः समैयंत्र कार्य-लिङ्ग-विशेषणः । व्यवहारसमारोपः प्रस्तुतेऽन्यस्य वस्तुनः ।।
-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०,७४
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६६२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण होता है। अलङ्कारसर्वस्वकार ने इसी आधार पर समासोक्ति और परिणाम का भेद किया है। समासोक्ति और प्रतिवस्तूपमा । __ वामन ने समासोक्ति तथा प्रतिवस्तूपमा का भेद-निरूपण करते हुए कहा था कि उपमेय का कथन न कर समान वस्तु का न्यास समासोक्ति है और उपमेय के कथन के साथ समान वस्तु का न्यास प्रतिवस्तूपमा ।२ वामन का यह समासोक्ति-लक्षण पीछे चलकर अप्रस्तुतप्रशंसा के लक्षण के रूप में स्वीकृत हुआ है । अतः, उक्त आधार पर प्रतिवस्तूपमा और अप्रस्तुतप्रशंसा या अन्योक्ति का भेद-निरूपण तो सम्भव है; पर समासोक्ति और प्रतिवस्तूपमा का नहीं । पीछे चलकर समासोक्ति का जो स्वरूप स्वीकृत हुआ, उसमें उपमेय का कथन तो होता ही है, उपमान प्रतीयमान होता है। इस स्वीकृत समासोक्ति से प्रतिवस्तूपमा के भेदक तत्त्व निम्नलिखित हैं
(क) प्रतिवस्तूपमा में परस्पर निरपेक्ष दो वाक्य विवक्षित रहते हैं-एक उपमेयस्थानीय तथा दूसरा उपमान स्थानीय; पर समासोक्ति में केवल उपमेय वाक्य ही कथित होता है और उससे विशेषण-साम्य के कारण उपमानभूत अर्थ व्यजित होता है।
(ख) प्रतिवस्तूपमा में दोनों वाक्यों में साधारण धर्म का अलग-अलग उल्लेख होता है, जो साधारण धर्म वस्तुप्रतिवस्तु भाव से—अर्थदृष्ट्या अनेक किन्तु वस्तुदृष्टया एक- रहते हैं; पर समासोक्ति में एक ही अर्थ का प्रस्तुत अर्थ मात्र का-कथन होने से साधारण धर्म के पृथक्-पृथक् निर्देश की आवश्यकता नहीं होती। उसमें विशेषण के विशिष्ट प्रयोग के कारण प्रस्तुत अर्थ के वर्णन से अप्रस्तुत अर्थ की व्यञ्जना होती है। .
१. अत एव तत्र ( समासोक्तौ ) व्यवहारसमारोपः, न तु रूपसमारोपः ।
एवमिहापि ( परिणामेऽपि ) ज्ञेयम् । केवलं तत्र विषयस्यैव प्रयोगः । विषयिणो गम्यमानत्वात् । इह तु द्वयोरप्यभिधानं, तादात्म्यात् तु तयोः
परिणामित्वम् ।-अलङ्कारसर्वस्व, पृ० ४० २. उपमेयस्य उक्तौ समानवस्तुन्यासः प्रतिवस्तु । -वामन, काव्यालङ्कार
सूत्र ४,३,२ तुलनीय-अनुक्तौ समासोक्तिः। तथा-उपमेयस्यानुक्तौ समानवस्तुन्यासः समासोक्तिः।-वही, सूत्र ४,३-३ तथा उसकी वृत्ति।
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ६९३
समासोक्ति और आक्षेप
समासोक्ति तथा आक्षेप का जो स्वरूप अर्वाचीन आचार्यों को मान्य है, उनका पारस्परिक भेद अत्यन्त स्फुट है । अतः, उनके बीच भेद-निरूपण की आवश्यकता नहीं। वामन ने उपमान की उक्ति से उपमेय की व्यञ्जना को समासोक्ति कहा था और इसके विपरीत आक्षेप से उपमान के ज्ञान में आक्ष ेप का एक रूप माना था । ' आक्षेप का यह रूप अर्वाचीन आचार्यों के द्वारा समासोक्ति के रूप ' तथा वामन की समासोक्ति का रूप अप्रस्तुतप्रशंसा
।
-
के रूप में स्वीकृत हुआ है अस्तु ! वामन की समासोक्ति (आधुनिक अप्रस्तुतप्रशंसा तथा उनके आक्ष ेप के एक रूप — उपमानस्याक्षेपतः प्रत्तिपत्तिः ( आधुनिक समासोक्ति ) – में वही भेद है, जो अर्वाचीन आचार्यों की समासोक्ति और अप्रस्तुतप्रशंसा में है । इन दो अलङ्कारों के भेदक तत्त्व पर विचार किया जा चुका है ।
समासोक्ति और भाव
रुद्रट ने भाव अलङ्कार का जो स्वरूप निरूपित किया था वह परवर्ती काल में अलङ्कार के रूप में स्वीकृत नहीं हुआ। उसे मम्मट आदि आचार्यों ने ध्वनि के क्ष ेत्र में समाविष्ट कर लिया है । यह समीचीन ही है । भाव के एक रूप के सम्बन्ध में रुद्रट की मान्यता थी कि इसमें वक्ता का वाक्य अभिधेय अर्थ को बताकर इससे भिन्न गुण-दोष अर्थात् विधि-निषेध-युक्त अभिप्राय का बोध कराता है। तात्पर्य यह कि यदि विधि अभिधेय हो तो उससे निषेध की प्रतीति होगी और निषेध अभिधेय हो तो विधि गम्य होगी । भाव के इस स्वरूप के साथ समासोक्ति के स्वरूप की तुलना करने से दोनों का यह भेद स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि एक वाच्य से दूसरे प्रतीयमान अर्थ की प्रतीति दोनों में होती है; पर भाव में जहाँ वक्ता के वाच्य अर्थ से विपरीत
१. उपमेयस्यानुक्तौ समानवस्तुन्यासः समासोक्तिः । वामन, काव्यालं • सू० ४,३, ३ की वृत्ति तथा 'उपमाक्षेपश्चाक्ष ेप' उपमानस्याक्षेपतः प्रतिपत्तिरित्यपि सूत्रार्थ: । - वही सू० ४,३, २७ तथा उसकी वृत्ति । २. अभिधेयमभिदधानं तदेव तदसदृशसकलगुणदोषम् ।
अर्थान्तरमवगमयति यद्वाक्यं सोऽपरो भावः ॥
- रुद्रट, काव्यालङ्कार ७-४०
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६६४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
तात्पर्यार्थ प्रतीत होता है, वहां समासोक्ति में वाच्य से, समान विशेषण आदि से, उसके सदृश ही अन्य अर्थ ( उपमेय वाच्य से उपमानभूत व्यङग्य अर्थ, रुद्रट के अनुसार इसके विपरीत उपमानभूत वाच्य अर्थ से उपमेयभूत व्यङ ग्य अर्थ) प्रतीत होता है। समासोक्ति और पर्यायोक्ति
समासोक्ति में दो अर्थ होते हैं—एक वाच्य तथा दूसरा व्यङग्य । प्रस्तुत अर्थ वाच्य होता है और उससे अन्य अप्रस्तुत अर्थ की व्यञ्जना होती है; पर पर्यायोक्त में एक हा अर्थ रहता है। उसमें व्यङग्य अर्थ का ही भङ ग्यन्तर से कथन होता है। अभीष्ट अर्थको साक्षात् अभिधा शक्ति से न कह कर प्रकारान्तर से कहना पर्यायोक्त का स्वरूप है। इस प्रकार पर्यायोक्त में एक ही अर्थ गम्य भी होता है और विशेष भङ्गी से कथित भी। समासोक्ति और सहोक्ति
समासोक्ति में एक अर्थ वाच्य होता है और दूसरा व्यङ ग्य, पर सहोक्ति में दोनों अर्थ वाच्य ही होते है। समासोक्ति में वाच्य अर्थ उपमेय होता है और व्यङग्य अर्थ उपमान; पर सहोक्ति में वर्णित दोनों अर्थ प्रस्तुत या अप्रस्तुत हो सकते हैं। समासोक्ति और श्लेष
समासोक्ति में विशेषण-साम्य से प्रस्तुत वाच्य अर्थ से अप्रस्तुत अर्थ व्यजित होता है। श्लेष अलङ्कार में जहाँ केवल प्रकृत अर्थों का अथवा केवल अप्रकृत अर्थों का वर्णन अभीष्ट हो, वहाँ श्लिष्ट विशेषण तथा श्लिष्ट विशेष्य से दो वाच्य-अर्थों का बोध कराया जाता है। जहाँ प्रकृत तथा अप्रकृत दोनों का बोध अभिप्रेत हो, वहाँ विशेषण तो श्लिष्ट होते हैं; पर विशेष्य अश्लिष्ट । कारण यह है कि ऐसी स्थिति में विशेष्य के श्लिष्ट होने पर अप्रकृत अर्थ व्यङग्य हो जायगा, पर श्लेष में दोनों अर्थों का वाच्य होना आवश्यक है। निष्कर्ष यह कि श्लेष अलङ्कार में या तो विशेषण और विशेष्य दोनों श्लिष्ट होते हैं या कम-से-कम विशेषण श्लिष्ट अवश्य रहता है, जब कि समासोक्ति में श्लिष्ट विशेष्य का प्रयोग तो नहीं ही होता है विशेषण भी सदा श्लिष्ट नहीं रहता है। उद्भट ने समासोक्ति की परिभाषा में 'तत्समानविशेषणैः' पद
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[६६५
का प्रयोग कर श्लेष से उसका भेद बताते हुए कहा है कि समासोक्ति में विशेष्य कभी श्लिष्ट नहीं होता वह केवल प्रस्तुत अथ का ही अभिधान करता है।' रुय्यक ने भी केवल विशेषण-साम्य में समासोक्ति तथा विशेष्य और विशेषण दोनों के साम्य में श्लेष मानकर दोनों का विषय-विभाग किया है। यह धारणा विश्वनाथ आदि परवर्ती आचार्यों को भी मान्य हुई। जगन्नाथ की मान्यता है कि यदि विशेषण-मात्र का ही श्लेष दोनों में रहे तो दोनों का भेद यह होगा कि श्लेष में प्रकृत-अप्रकृत दोनों का उपादान होगा ; पर समासोक्ति में केवल प्रकृत का उपदान होगा, अप्रकृत व्यङग्य होगा। समासोक्ति में विशेषण का दो अर्थों का उपपादक होना अपेक्षित है। वह साधारण शब्द से भी दो अर्थों का उपपादन कर सकता है, उपमागर्भ समास से भी और श्लेष से भी। इस प्रकार श्लेष और समासोक्ति में मुख्य रूप से दो भेदक धर्म है
(क) श्लेष में दोनों अर्थ वाच्य होते है, पर समासोक्ति में एक वाच्य और दूसरा व्यङ्ग्य ।
(ख) श्लेष में यदि दोनों प्रकृत या दोनों अप्रकृत अर्थों का वर्णन अभीष्ट हो तो विशेषण और विशेष्य; दोनों का श्लिष्ट प्रयोग होता है। जहाँ एक प्रकृत तथा दूसरा अप्रकृत अर्थ विवक्षित हो, वहाँ विशेष्य तो श्लिष्ट नहीं होता; पर विशेषण आवश्यक रूप से श्लिष्ट होता है। समासोक्ति में श्लिष्ट विशेष्य का प्रयोग कभी नहीं होता। श्लिष्ट विशेषण का प्रयोग भी आवश्यक नहीं। उसमें श्लिष्ट विशेषण का भी प्रयोग हो सकता और उसके विना समान
१. प्रकृतार्थेन वाक्येन तत्समानविशेषणः ।
अप्रस्तुतार्थकथनं समासोक्तिरुदाहता॥ तथा-नन्वेव श्लेषता प्राप्तेत्याह -तत्समानविशेषणः, विशेष्यपदं तु प्रस्तुतार्थाभिधाय्येव ।-उद्भट, काव्यालं० सारसं० २-२१ तथा उसकी विवृति पृ० २७ २. केवल विशेषणसाम्यं समासोक्तावुक्तम् । तत्र द्वयोः प्राकरणिकयोः अप्राकरणिकयोः प्राकरणिकाप्राकरणिकयो श्लिष्टपदोपनिबन्धे श्लेषः ।
-अलङ्कारसर्वस्व, पृ० ११० ३. विशेषणमात्रश्लिष्टतायामपि प्रकृताप्रकृतधर्मिणोरुपादान एव श्लेषः । प्रकृतर्मिमात्रस्योपादाने तु समासोक्तिरेव विषयः ।
-जगन्नाथ, रसगङ गाधर, पृ० ६२०
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६६६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
विशेषण, उपमितसमासान्त पद आदि से भी वणित अर्थ से अप्रस्तुत अर्थ की व्यञ्जना करायी जा सकती है।'
दृष्टान्त और प्रतिवस्तूपमा
दृष्टान्त अलङ्कार में समान धर्म वाली वस्तुओं की बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव से योजना होती है; पर प्रतिवस्तूपमा में वस्तुधर्मों की वस्तुप्रतिवस्तु-भाव से योजना की जाती है। इस प्रकार इन दो अलङ्कारों में एक भेद तो यह है कि जहाँ दृष्टान्त में धर्म तथा धर्मी; दोनों का बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव दिखाया जाता है, वहाँ प्रतिवस्तूपमा में केवल धर्मों का ही सम्बन्ध (वस्तुप्रतिवस्तुसम्बन्ध) दिखाया जाता है। दूसरा भेद बिम्बप्रतिबिम्बभाव तथा वस्तुप्रतिवस्तु भाव सम्बन्ध का है । प्रसङ्गात् दोनों पदों के अर्थ का स्पष्टीकरण अपेक्षित है। वस्तुतः, भिन्न जिन दो धर्मों (या धर्मियों) में सादृश्य के कारण अभिन्नता जान पड़ती हो, उनका दो बार उपादान बिम्बप्रतिबिम्बभाव कहलाता है, इसके विपरीत एक ही धर्म का सम्बन्धी के भेद से शब्दभेद से दो बार उपादान वस्तुप्रतिवस्तुभाव माना जाता है। दूसरे शब्दों में, तत्त्वतः भिन्न; पर सादृश्य के कारण अभिन्न प्रतीत होने वाले धर्मों का दो बार उल्लेख बिम्बप्रतिबिम्बभाव है पर; तत्त्वतः अभिन्न (एक ही) धर्म का शब्द भेद से दो बार उपादान वस्तुप्रतिवस्तुभाव।
दोनों अलङ्कारों की योजना में कवि के उद्देश्य को दृष्टि में रख कर जयरथ ने कहा है कि प्रतिवस्तूपमा में प्रस्तुत अर्थ का सादृश्य बताने के लिए अप्रस्तुत अर्थान्तर का उपादान होता है। फलतः, दोनों में उपमानोपमेयभाव सम्बन्ध घटित हो जाता है; पर दृष्टान्त में अप्रस्तुत-योजना का उद्देश्य प्रस्तुत अर्थ की स्पष्ट प्रतीति करना होता है। अतः, जयरथ के अनुसार प्रतिवस्तूपमा में कवि का उद्देश्य उपमानोपमेय-भाव-मात्र दिखाना रहता है और दृष्टान्त में प्रकृत अर्थ की प्रतीति को विशद करना। इसीलिए रुय्यक ने प्रतिवस्तूपमा को औपम्याश्रय कहा है। यह विवेचन बहुत सारपूर्ण नहीं है। बिम्बप्रतिबिम्बभाव में भी सादृश्य की प्रतीति होती ही है और इस तरह
१. विश्वनाथ ने तीन प्रकार से विशेषण-साम्य के प्रयोग का उल्लेख
किया है-"विशेषणसाम्यन्तु श्लिष्टतया, साधारण्येन, औपम्यगर्भत्वेन च त्रिधा।"-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, पृ० ६६७
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद [६६७ उपमानोपमेयभाव की किसी-न-किसी रूप में प्रतीति हो जाती है। वस्तुप्रतिवस्तुभाव में भी औपम्य का जो बोध होता है, उसकी सफलता प्रतिपत्ता की प्रतीति को विशद बनाने में ही होगी। अतः, प्रतीति के विशदाकरण को दृष्टान्त का व्यावर्तक तथा उपमानोपमेयभाव को प्रतिवस्तूपमा का व्यावर्तक मानना युक्तिपूर्ण नहीं जान पड़ता। प्रतिवस्तूपमा तथा दृष्टान्त-दोनों में औपम्य गम्य होता है।' पण्डितराज जगन्नाथ ने विमशिनीकार के उक्त मत का खण्डन इसी आधार पर किया है। पण्डितराज की मान्यता है कि दृष्टान्त में धर्म भी प्रतिबिम्बित होता है जब कि प्रतिवस्तूपमा में वह धर्म शुद्ध सामान्य रूप में रहता है।
उद्भट के काव्यालङ्कारसार की विवृति में दृष्टान्त और प्रतिवस्तूपमा का भेद-निरूपण करते हुए कहा गया है कि दृष्टान्त में इष्ट अर्थ का प्रतिबिम्ब 'दिखाया जाता है, जो सादृश्य-वाचक इवादि पद से रहित होता है; पर प्रति वस्तूपमा में साधारण धर्म का उपमेय वाक्य तथा उपमान वाक्य; दोनों में उल्लेख होता है। विश्वनाथ ने प्रतिस्तूपमा से दृष्टान्त का भेद स्पष्ट करने के लिए दृष्टान्त-लक्षण में प्रयुक्त 'सधर्म' विशेषण का औचित्य प्रतिपादित किया है।' उस विशेषण की व्याख्या में उन्होंने कहा है कि सधर्म से वस्तु-धर्म का सादृश्य
१. विशिनीकारस्तु प्रतिवस्तूपमायामप्रकृतार्थोपादानं तेन सह प्रकृतार्थस्य
सादृश्यप्रतिपत्त्यर्थ, दृष्टान्ते तु तदुपादानमेतादृशोऽर्थोऽन्यत्रापि स्थित इति प्रकृतार्थप्रतीतेविशदीकरणमात्रार्थं न तु सादृश्यप्रतिपत्त्यर्थमतः सादृश्यप्रतीत्यप्रतीतिभ्यामनयोरलङ्कारयोभद इत्याह। तन्न प्रकृताप्रकृतवाक्यार्थयोरुपादानस्यालङ्कारद्वय ऽप्यविशिष्टत्वादेकत्र सादृश्यप्रत्ययोऽन्यत्र नेत्यस्याज्ञामात्रत्वात् । वैपरीत्यस्यापि सुवचत्वाच्च । एतदृशोयोऽन्यत्रापि स्थित इति प्रकृतार्थप्रतीतिविशदीकरणस्य त्वदभिहितस्य सादृश्यापरपर्यायत्वाच्च ।-जगन्नाथ, रसगं०, पृ० ५३३ २. अस्य (दृष्टान्त) चालङ्कारस्य प्रतिवस्तूपमया सह भेदकमेतदेव यत्तस्यां धर्मो न प्रतिबिम्बितः। किन्तु शुद्धसामान्यात्मनैव स्थितः, इह तु प्रतिबिम्बितः। वही, पृ० ५३२-३३ ३. ....."प्रतिवस्तूपमायां च साधारणधर्म उपमानोपमेययोरुभयोरपि निगदो भवति ।....."इह तु सर्वात्मना प्रतिबिम्बोपन्यासः ।
-काव्यालङ्कारसारसंग्रह, विवृति, पृ० ५२ २४. सधर्मस्येति प्रतिवस्तूपमाव्यच्छेदः ।
-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, ६६ की वृत्ति वही पृ०६८०
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६९८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
विवक्षित है। सादृश्य में भेद का अर्थ अन्तनिहित रहता है। अतः प्रतिवस्तूपमा से दृष्टान्त का यह भेद स्पष्ट हो जाता है कि दृष्टान्त में तत्त्वतः भिन्न धर्म वाली (सदृश धर्म वाली) वस्तुएँ रहती हैं, जब कि प्रतिवस्तूपमा में अभिन्न अर्थात् एक ही धर्म का दो बार उपादान होता है। 'काव्यप्रकाश' के टीकाकार झलकीकर ने भी प्रतिवस्तुपमा परिभाषा में एक साधारण धर्म के उल्लेख का उद्देश्य दृष्टान्त से उसके भेद का स्पष्टीकरण ही माना है । प्रतिवस्तूपमा में एक ही साधारण धर्म वस्तुप्रतिवस्तुभाव से दो बार कथित होता है पर दृष्टान्त में वस्तुतः दो धर्मों में बिम्बप्रतिबिम्बभाव रहता है। निष्कर्षतः, दृष्टान्त और प्रतिवस्तूपमा का व्यावर्तक क्रमशः बिम्बप्रतिबिम्बभाव तथा वस्तुप्रतिवस्तुभाव ही है। बिम्ब-प्रतिबिम्ब-भाव धर्म तथा धर्मी; दोनों का सम्भव है । अतः, दृष्टान्त में धर्मों या धर्मियों का बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव वर्णित होता है, पर वस्तुप्रतिवस्तु-भाव केवल धर्मों में ही सम्भव होता है, धर्मियों में नहीं। अतः, प्रतिवस्तूपमा में धर्मों का ही वस्तु-प्रतिवस्तुभाव (एक धर्म का शब्दभेद से दो बार उपादान) दिखाया जाता है । __ दृष्टान्त और प्रतिवस्तूपमा के विषय-विभाग के सम्बन्ध में कुछ आचार्यों के मत का निर्देश करते हुए डॉ० रामचन्द्र द्विवेदी ने कहा है कि "कुछ आचार्य दृष्टान्त में प्रकृत और अप्रकृत में समर्थ्य और समर्थक-भाव होता है इस आधार पर इसका प्रतिवस्तूपमा से भेद करते हैं।" डॉ० द्विवेदी की आपत्ति है कि यदि दृष्टान्त में भी प्रकृत-अप्रकृत में समर्थ्य-समर्थक भाव मान लिया जाय तो, अर्थान्तरन्यास से उसका भेद नहीं रह जायगा ।२ यह तर्क सबल नहीं है। दृष्टान्त में समर्थ्य-समर्थक-भाव मानने पर भी अर्थान्तरन्यास से उसका यह भेद रह जाता है कि उसमें सामान्य का सामान्य से और विशेष का विशेष से ही समर्थन होता है । जबकि अर्थान्तरन्यास में समर्थन सामान्य का विशेष से और विशेष का सामान्य से होता है। बिम्बप्रतिबिम्बभाव से अन्य अर्थ के उपन्यास में उद्देश्य मूलतः प्रकृत का समर्थन ही तो होता है !
१. ....."एकस्येत्यनेन दृष्टान्तव्युदासः तत्र साधारणधर्मस्य बिम्बप्रतिबिम्बभावेन निदेशेनैकत्वविरहात् ।
-काव्यप्रकाश झलकीकरकृत टीका पृ० ६३० २. द्रष्टव्य-डॉ० रामचन्द्र द्वि०, अलं० मी०, पृ० ३३२
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ६६६ : दृष्टान्त और अर्थान्तरन्यास
दृष्टान्त में दो वस्तुओं में बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव रहता है और अर्थान्तरन्यास में समर्थ्य-समर्थक-भाव। उद्भट ने दृष्टान्त से अर्थान्तरन्यास का भेद बताते हुए कहा था कि अर्थान्तरन्यास में प्रकृत अर्थ का अन्य अर्थ से समर्थन होता है। अतः, यह दृष्टान्त से भिन्न है। दृष्टान्त में बिम्बप्रतिबिम्ब रूप में । ही एक वस्तु के समीप अन्य वस्तु का उपन्यास होता है ।' रुद्रट की मान्यता है कि अर्थान्तरन्यास में प्रकृत अर्थ (सामान्य या विशेष) उपमेय होता है और उसके समर्थन के लिए उपन्यस्त अप्रकृत अर्थ ( प्रकृत सामान्य के समर्थन के लिए उपन्यस्त विशेष अथवा प्रकृत विशेष के समर्थन के लिए उपन्यस्त सामान्य) उपमान होता है। इन दोनों में से एक आवश्यक रूप से सामान्य और दूसरा विशेष रहता है। यदि समर्थ्य प्रकृत विशेष हो तो समर्थक अप्रकृत सामान्य ही हो सकता है, और इसके विपरीत यदि समर्थ्य प्रकृत सामान्य हो, तो समर्थक अप्रकृत विशेष ही हो सकता है, पर दृष्टान्त अलङ्कार में बिम्बप्रतिबिम्बभाव से दोनों विशेष अर्थों का ही उपस्थापन । होता है । इसलिए दृष्टान्त की परिभाषा में रुद्रट ने 'अर्थ विशेष:' पद का उल्लेख किया है। संक्षेपतः, रुद्रट के अनुसार उक्त दो अलङ्कारों का भेद यह है कि अर्थान्तरन्यास में समर्थ्य-समर्थक रूप में सदा एक विशेष तथा दूसरे सामान्य अर्थ का उपन्यास होता है, पर दृष्टान्त में बिम्बप्रतिबिम्ब रूप में सदा दो विशेष अर्थों का ही उपन्यास होता है, सामान्य अर्थ का नहीं।२ मम्मट आदि परवर्ती आचार्यों ने सामान्य अर्थों के बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव में भी दृष्टान्त माना है। इस मत को दृष्टि में रखते हुए 'काव्यप्रकाश' की 'नागेश्वरी' टीका में यह मन्तव्य प्रकट किया गया है कि समान्य का विशेष से तथा विशेष का सामान्य से समर्थन अर्थान्तरन्यास का क्षेत्र है और विशेष का विशेष से समर्थन तथा सामान्य का सामान्य से समर्थन दृष्टान्त का । उद्योतकार ने भी इसी आधार पर दोनों का भेद-निरूपण किया है।४
१. उद्भट-काव्यालं० सार सं०, २,७ तथा उसकी विवृति प० २४ २. द्रष्टव्य-रुद्रट, काव्यालं० ८, ६४ तथा उसकी नमिसाधुकृत टीका
पृ० २५५.. ३. द्रष्टव्य-काव्य प्र० नागेश्वरी टीका पृ० २६१ ।। ४. काव्य प्र० उद्योत से झलकीकर द्वारा बालबोधिनी में उद्धृत प० ६६१
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· ७०० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
निष्कर्षतः, दृष्टान्त में दो वस्तुओं का बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव तथा अर्थान्तरन्यास में समर्थ्य - समर्थक भाव दोनों का मुख्य व्यावर्तक है ।
दृष्टान्त में विशेष की पुष्टि विशेष से तथा सामान्य की सामान्य से ही होती है, पर अर्थान्तरन्यास में विशेष का समर्थन सामान्य से तथा सामान्य का समर्थन विशेष से होता है ।
टान्त और निदर्शना
आचार्य रुय्यक ने सर्वप्रथम दृष्टान्त और वाक्यार्थवृत्ति निदर्शना का - विषय - विभाग व्यवस्थित किया। उनके अनुसार वस्तुओं का वाच्य बिम्बप्रतिबिम्बभाव दृष्टान्त का विषय है, किन्तु गम्यमान बिम्बप्रतिबिम्बभाव निदर्शना का क्षेत्र है । निदर्शना में वस्तु सम्बन्ध के सम्भव होने पर भी वस्तु सम्बन्ध के वैशिष्ट्य से बिम्बप्रतिबिम्बभाव का बोध हो सकता है और वस्तु-सम्बन्ध के बाधित हो जाने पर भी वस्तु सम्बन्ध से बिम्बप्रतिबिम्बभाव - का आक्षेप हो सकता है । इन दोनों ही स्थितियों में वस्तुओं का बिम्बप्रतिबिम्बभाव गम्य ही होता है । इस तथ्य को उद्भट, मम्मट आदि ने वस्तुसम्बन्ध का औपम्य में पर्यवसित होना कहा था । प्रकृत अप्रकृत के बीच उपमानोपमेय-भाव के पर्यवसित होने को ही रुय्यक ने गम्य बिम्बप्रतिबिम्बभाव कहा है । दृष्टान्त के वाच्य बिम्बप्रतिबिम्बभाव तथा निदर्शना के गम्य बिम्बप्रतिबिम्बभाव के स्वरूप पर विचार करने से दोनों अलङ्कारों का स्वरूपगत भेद स्पष्ट हो जाता है । दृष्टान्त में ( वाच्य बिम्बप्रतिबिम्बभाव में ) दो परस्पर निरपेक्ष वाक्य रहते हैं। दोनों वाक्यार्थों में बिम्बप्रतिबिम्बभाव सम्बन्ध दिखाया जाता है अर्थात् दोनों के तत्त्वत: भिन्न होने पर भी सादृश्य के कारण दोनों में अभेद की प्रतीति करायी जाती है । निदर्शना में एक ही वाक्य से प्रकृत अर्थ का उपन्यास होता है और ( समान विभक्ति से, समान अधिकरण से ) वस्तुसम्बन्ध से अन्य वाक्यार्थ का उस पर अध्यारोप कर लिया जाता है । यदि वाक्य दो भी हों तो दोनों वाक्यार्थ परस्पर सापेक्ष होते हैं ।
९. तस्यापि बिम्बप्रतिबिम्बतया निर्देशे दृष्टान्तः । तुलनीय - सम्भवतासम्भावता वा वस्तुसम्बन्धेन गम्यमानं प्रतिबिम्बकरणं निदर्शना । - रुय्यक, अलङ्कारसूत्र, २६ तथा २७ २. द्रष्टव्य — उद्भट, काव्यालङ्कारसारसं ०, ५,१८ तथा
- मम्मट, काव्यप्रकाश, १०,६७
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ७०१ वस्तु-सम्बन्ध के सम्भव या असम्भव होने पर सादृश्य की प्रतीति में पर्यवसान " होने के कारण बिम्बप्रतिबिम्बभाव का गम्य होना कहा गया है। ध्यातव्य है । कि मम्मट आदि वस्तुसम्बन्ध के बाधित होने पर ही उपमा में उस सम्बन्ध । का पर्यवसान निदर्शना का लक्षण मानते है, पर रुय्यक वस्तुसम्बन्ध के सम्भव होने तथा असम्भव होने पर; दोनों ही स्थितियों में सादृश्य का आक्षेप होना निदर्शना का लक्षण मानते हैं। मम्मट आदि के अनुसार 'अभवन्वस्तु- . सम्बन्ध' अर्थात् सम्बन्ध-प्रतीति का अभाव निदर्शना का एक व्यावर्तक होगा। उद्योतकार ने परस्पर निरपेक्ष वाक्यार्थों में बिम्बप्रतिबिम्बभाव को दृष्टान्त का - तथा परस्पर सापेक्ष वाक्यार्थों में बिम्बप्रतिबिम्बभाव को निदर्शना का व्यवच्छेदक मान कर दोनों के भेद निरूपण के सिद्धान्त का विवेचन किया है।'
विश्वनाथ की मान्यता है कि असम्भवद्वस्तुसम्बन्धा निदर्शना में बिम्ब- . प्रतिबिम्बभाव की कल्पना किये विना वाक्यार्थ की विश्रान्ति ही नहीं हो सकती; पर दृष्टान्त में पूर्ण वाक्यार्थ से अन्य वाक्यार्थ के साथ बिम्बप्रतिबिम्बभाव दिखाया जाता है। दूसरे शब्दों में, निदर्शना में वाक्यार्थ अपनी पूर्णता के लिए सादृश्य-कल्पना की अपेक्षा रखता है, पर दृष्टान्त में वाक्यार्थ - अन्य-निरपेक्ष और अपने आप में पूर्ण रहता है।
निष्कर्ष यह कि दृष्टान्त और वाक्यार्थवृत्ति निदर्शना में मुख्य भेद बिम्बप्रतिबिम्बभाव के वाच्य और गम्य होने की दृष्टि से है। दृष्टान्त में परस्पर निरपेक्ष वाक्यों में बिम्बप्रतिबिम्बभाव की कल्पना की जाती है, पर निदर्शना में एक ही वाक्यार्थ में अन्य वाक्यार्थ का आक्षेप से अध्यारोप होता है या परस्पर सापेक्ष वाक्यार्थ में बिम्बप्रतिबिम्बभाव लक्षित होता है। अभवन्वस्तुसम्बन्धा वाक्यवृत्तिगता निदर्शना में तो वस्तु-सम्बन्ध के बाधित रहने के कारण तब . तक वाक्यार्थ का पर्यवसान ही नहीं होता जब तक उस वाक्यार्थ के लिए
१. 'अभवन्वस्तुसम्बन्धः' इत्युक्तत्वादेव प्रतीतिपर्यवसानाभावादस्य दृष्टान्ततो.
भेदः । परस्परनिरपेक्षयोर्वाक्यार्थयोदृष्टान्तालङ्कारः, इयं (निदर्शना) पुनः सापेक्षयोरिति भेद इत्यन्ये इत्युद्योते स्पष्टम् ।
-काव्यप्रकाश, झलकीकर की टीका, पृ. ६१४ २. इह (निदर्शनायां) बिम्बप्रतिबिम्बताक्षेपं विना वाक्यार्थपर्यवसानम्, दृष्टान्ते पर्य्यवसितेन वाक्यार्थेन सामाबिम्बप्रतिबिम्बताप्रत्यायनम् ।
-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, पृ० ६८६.
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.. ७०२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
बिम्बप्रतिबिम्बभाव की कल्पना न कर ली जाय, पर दृष्टान्त में वाक्यार्थ · पर्यवसित ही रहता है। अर्थान्तरन्यास और अप्रस्तुतप्रशंसा
आचार्य उद्भट के टीकाकार तिलक ने एक उदाहरण को दृष्टि में रखते हुए यह प्रश्न उठाया है कि अप्रस्तुतप्रशंसा में भी वाच्य विशेष से गम्य सामान्य समर्थित होता है, और विशेष से सामान्य का समर्थन अर्थान्तरन्यास का भी लक्षण है, फिर अर्थान्तरन्यास और अप्रस्तुतप्रशंसा में क्या अन्तर है ? हम इस प्रश्न का स्पष्टीकरण कर लें। अप्रस्तुतप्रशंसा में केवल अप्रकृत का कथन होता है और प्रकृत उससे गम्य होता है। यदि किसी विशेष अप्रकृत के वर्णन -से किसी सामान्य प्रकृत अर्थ की प्रतीति होती हो-जैसा कि एक उदाहरण में विवृतिकार ने दिखाया है तो उस वाच्य विशेष अर्थ में और गम्य सामान्य अर्थ में समर्थ्य-समर्थक भाव माना ही जायगा, क्योंकि अप्रकृत विशेष के कथन की सार्थकता उससे गम्यमान प्रकृत सामान्य अर्थ के समर्थन में ही होगी। इस प्रकार अप्रस्तुतप्रशंसा में भी सामान्य और विशेष में समर्थ्य-समर्थक सम्बन्ध होने से सामान्य-विशेष के समर्थ्य-समर्थक सम्बन्ध पर आश्रित अर्थान्तरन्यास से अप्रस्तुतप्रशंसा का भेद ही क्या रह जायगा? इस सम्भावित प्रश्न का उत्तर उद्भट ने यह कह कर दे दिया था कि अर्थान्तरन्यास में प्रकृत अर्थ का अन्य अर्थ से समर्थन होता है। अतः यह अप्रस्तुतप्रशंसा से भिन्न है ।' तात्पर्य यह कि अर्थान्तरन्यास में चूकि अर्य के अनुपपन्न होने की सम्भावना से उसके समर्थन के लिए अन्य अर्थ का न्यास किया जाता है, इसलिए उसमें समर्थ्य वाक्यार्थ-विशेष या सामान्य-अन्य वाक्यार्थ की अपेक्षा रखता है। उसमें समर्थ्य तथा समर्थक दोनों अर्थों का उपादान होता है, पर अप्रस्तुतप्रशंसा में एक ही अर्थ (केवल अप्रस्तुत अर्य) का उपादान होता है। निष्कर्षतः, समर्थ्यसमर्थक सामान्य-विशेष अर्यों का उपादान अर्थान्तरन्यास का तथा उनमें से केवल अप्रस्तुत सामान्य या विशेष अर्य का उपादान कर उससे गम्य विशेष या सामान्य अर्थ का समर्थन अप्रस्तुतप्रशंसा का व्यावर्तक है।
१. x x x प्रकृतार्थसमर्थनात् । अप्रस्तुतप्रशंसाया दृष्टान्ताच्च पृथक् स्थितः ।।
-उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह, २,७
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बलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[७०३
रुय्यक को भी उद्भट का मत मान्य है। उन्होंने अप्रस्तुतप्रशंसा के पांच भेदों में से चार के सम्बन्ध में कहा है कि यदि सामान्य-विशेष और कार्य-कारण वाच्य हों, तो अर्थान्तरन्यास अलङ्कार होता है और सामान्य-विशेष तथा कार्यकारण के युग्मों में से जहाँ एक ( अप्रस्तुत ) वाच्य और अन्य ( प्रस्तुत ) गम्य हो, वहाँ अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार माना जाता है ।' अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि की भी यही मान्यता है कि अर्थान्तरन्यास में सामान्य-विशेष दोनों ही समर्थ्य-समर्थक के रूप में वाच्य होते हैं । इसी प्रकार कार्य-कारण में भी समर्थ्य-समर्थकभाव रहने पर दोनों वाच्य रहते हैं, पर अप्रस्तुतप्रशंसा में केवल अप्रस्तुत ही (चाहे वह विशेष हो, सामान्य हो, कार्य हो या कारण हो) वाच्य होता है अन्य गम्य ।२ समर्थ्य-समर्थक-सामान्य-विशेष या कार्यकारणमें से दोनों अङ्गों का वाच्य होना तथा एक अङ्ग का-अप्रस्तुत का-वाच्य और दूसरे प्रस्तुत का-गम्य होना अर्थान्तरन्यास तथा अप्रस्तुतप्रशंसा का मुख्य भेदक धर्म है।
'अर्थान्तरन्यास और काव्यलिङ्ग
आचार्य दण्डी आदि प्राचीन आचार्य सामान्य का विशेष से अथवा विशेष का सामान्य से समर्थन अर्थान्तरन्यास का विषय मानते थे। कारण का कार्य से समर्थन अथवा कार्य का कारण से समर्थन उनके अनुसार अर्थान्तरन्यास के क्षेत्र में समाविष्ट नहीं था। इसी आधार पर 'काव्यादर्श' के टीकाकार नृसिंहदेव ने काव्यलिङ्ग और अर्थान्तरन्यास का विषय-विभाग किया है कि कार्य का कारण से समर्थन तथा कारण का कार्य से समर्थन काव्यलिङ्ग का विषय है और सामान्य का विशेष से समर्थन तथा विशेष का सामान्य से
१. तदत्र सामान्यविशेषत्वेन कार्यकारणत्वेन सारूप्येण च यद् भेदपञ्चक
मुद्दिष्ट, तत्रो द्वयोः सामान्य विशेषयोः कार्यकारणयोश्च यदा वाच्यत्वं भवति, तदा अर्थान्तरन्यासाविर्भावः। 'अप्रस्तुतस्य वाच्यत्वे प्रस्तुतस्य गम्यत्वे सर्वत्राप्रस्तुतप्रशंसेति निर्णयः ।
-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १२६-३० २. द्रष्टव्य-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १२२-२२ की वृत्ति पृ० १४०
४१ तथा जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ६४८
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७०४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण समर्थन अर्थान्तरन्यास का विषय है।' मम्मट भी सामान्य-विशेष के समर्थ्यसमर्थक भाव में ही अर्थान्तरन्यास मानते हैं ।२ उद्योतकार ने इस तथ्य के स्पष्टीकरण के क्रम में कहा है कि समर्थ्य-समर्थक में सामान्य-विशेष-सम्बन्ध रहने पर अर्थान्तरन्यास होता है। कारण से कार्य अथवा कार्य से कारण का समर्थन काव्यलिङ्ग का विषय है। 3 रुय्यक ने कार्यकारण में समर्थ्य-समर्थक भाव को भी अर्थान्तरन्यास में समाविष्ट कर काव्यलिङ्ग और अर्थान्तरन्यास का भेद-निरूपण किया है। काव्यलिङ्ग में कारण का वाक्यार्थ की रीति से, या विशेषण के रूप में पदार्थ रीति से, लिङ्गरूप में निबन्धन होता है। इनमें से वाक्यार्थरूप में निबद्ध हेतु का अर्थान्तरन्यास से रूप-साम्य प्राप्त होता है। अतः दोनों का भेद-निरूपण अपेक्षित है । काव्यलिङ्ग में वाक्यार्थ का निबन्धन हेतु रूप में ही किया जाता है, पर अर्थान्तरन्यास में उपनिबद्ध वाक्यार्थ को हेतु बनाया जाता है; यही दोनों का मुख्य भेद है।।
अप्पय्य दीक्षित ने रुय्यक की उक्त मान्यता को अस्वीकार करते हुए केवल सामान्य विशेष के समर्थ्य-समर्थक भाव में ही अर्थान्तरन्यास माना है। कारणकार्य आदि के समर्थ्य-समर्थक सम्बन्ध को उन्होंने काव्यलिङ्ग का विषय माना है। उनकी मान्यता है कि कारण-कार्य में भी समर्थ्य-समर्थक भाव को अर्थान्तरन्यास मानने से काव्यलिङ्ग से उसका भेद ही नहीं रह जायगा । दोनों के विषय-विभाग के लिए जो यह युक्ति दी गयी है कि समर्थन सापेक्ष अर्थ
१. कारणेन कार्यस्य कार्येण वा कारणस्य समर्थ नन्तु का व्यलिङ्गस्य
विषयः, समर्थ्यसमर्थकयोः सामान्य विशेषभावसम्बन्धेऽर्थान्तरन्यासः तदितरसम्बन्धे काव्यलिङ्गमिति स्वीकारात् एतयोरपि विशेषः ।
-काव्यादर्श, कुसुमप्र० टीका, पृ० १५२ २. सामान्यं वा विशेषो वा यदन्येन समर्थ्यते । यत्त सोऽर्थान्तरन्यास: साधयेणेतरेण वा ॥
-मम्मट, काव्यप्रकाश, १०,१०६ ३. कारणेन कार्यस्य कार्येण कारणस्य वा समर्थनं तु काव्यलिङ्गस्य विषयः । समर्थ्यसमर्थकयोः सामान्यविशेषसम्बन्धेऽयम्, तदितरसम्बन्धे काव्य लिङ्गमित्यभ्युपगमात् ।।
-काव्यप्र० उद्योत, बालबोधिनी में उद्ध त, पृ० ६६१ ४. यत्र तु वाक्यार्थस्य हेतुत्वं, तत्र हेतुत्वप्रतिपादकमन्तरेण हेतुत्वेनोपन्यासे काव्यलिङ्गमेव । तटस्थत्वेनोपन्यस्तस्य तु हेतुत्वेऽर्थान्तरन्यासः ।
-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १८१
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[७०५
का समर्थन होने पर काव्यलिङ्ग और निरपेक्ष का भी प्रतीतिवैशिष्ट्य से समर्थन होने पर अर्थान्तरन्यास माना जायगा, वह सबल नहीं है; क्योंकि इस नियम के विपरीत निरपेक्ष के समर्थन में भी काव्यलिङ्ग तथा सापेक्ष के समर्थन में भी अर्थान्तरन्यास के उदाहरण उपलब्ध हैं। अतः दोनों के विषय-विभाग के लिए यह आवश्यक है कि कारण-कार्य में समर्थ्य-समर्थक भाव के स्थल में काव्यलिङ्ग और सामान्य-विशेष में समय-समर्थक भाव के स्थल में अर्थान्तर• न्यास माना जाय ।
पण्डितराज जगन्नाथ ने भी अर्थान्तरन्यास का क्षेत्र केवल सामान्यविशेष के समर्थन को स्वीकार किया है। उनके अनुसार काव्यलिङ्ग और अर्थान्तरन्यास का मुख्य भेद यह है कि काव्यलिङ्ग में हेतु सदा गम्यमान ही होता है, पर अर्थान्तरन्यास में यह नियम नहीं। काव्यलिङ्ग में हेतु-हेतुमद्भाव सदा अर्थगत होता है, पर अर्थान्तरन्यास में समय-समर्थक-भाव शाब्द तथा आर्थ; दोनों हो सकता है। इस विवेचन के निष्कर्ष रूप में रुय्यक की मान्यता के अनुसार सामन्य विशेष के साथ कारण-कार्य के समर्थ्य-समर्थक भाव को भी अर्थान्तरन्यास मानने में कोई अनुपपत्ति नहीं जान पड़ती। ऐसा मानने पर भी काव्यलिङ्ग से अर्थान्तरन्यास का भेद रह ही जायगा-उपनिबद्ध वाक्यार्थ से समर्थन अर्थान्तरन्यास का तथा हेतु रूप में वाक्याथ-निबन्धन काव्यलिङ्ग का व्यावर्तक होगा। दूसरे, काव्यलिङ्ग में हेतु का सार्वत्रिक रूप से आर्थ होना तथा अर्थान्तरन्यास में उसका शाब्द तथा आर्थ होना भी दोनों का व्यवच्छेदक धर्म माना जा सकता है।
१. ..."तस्मादुभयतो व्यभिचारात्समर्थनापेक्षसमर्थ ने काव्यलिङ्ग
तन्निरपेक्षसमर्थ नेऽर्थान्तरन्यास इति न विभागः, किन्तु समर्थ्यसमर्थकयोः सामान्यविशेषसम्बन्धेऽर्थान्तरन्यासः । तदितरसम्बन्ध काव्यलिङ्गमित्येव व्यवस्थावधारणीया।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द वृत्ति, पृ० १४२-३ २. यत्र कारणेन कार्यस्य कार्येण वा कारणस्य समर्थनमित्यपिभेद
द्वयमर्थान्तरन्यासस्याललारसर्वस्वकारो न्यरूपयत. तन्न । तस्य काव्यलिङ्गविषयत्वात् ।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७५१ । तथाअस्मिन्नलङ्कारे (अर्थान्तरन्यासालङ्कारे ) समर्थ्यसमर्थकभाव आर्थः शाब्दश्चालङ्कारताप्रयोजकः । न तु काव्यलिङ्गं हेतुहेतुमद्भाव इवार्थ एव। -वही, पृ० ७४८, पृष्ठ ७५१-५२ भी द्रष्टव्य ४५
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७०६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
विभावना और विशेषोक्ति
विभावना और विशेषोक्ति एक दूसरे का विपरीतधर्मा है। विभावना में कारण के विना ही कार्य की उत्पत्ति का वर्णन होता है; पर इसके विपरीत विशेषोक्ति में समग्र या अबाधित कारण के रहने पर भी फल की उत्पत्ति न होने का वर्णन होता है। अलङ्कारसर्वस्वकार ने दोनों के स्वभाव का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि विभावना में हेतु का प्रत्यक्षतः निषेध रहता है; पर वस्तुतः वह हेतु का अभाव फलोत्पत्ति की बाधा में ही परिणत होता है, यद्यपि प्रत्यक्षतः हेतु के विना फलोत्पत्ति कथित रहती है। इसके विपरीत विशेषोक्ति में प्रत्यक्षतः तो समग्र हेतु का सद्भाव, फिर भी फलोत्पत्ति का अभाव वर्णित होता है; पर तत्त्वतः वह फलाभाव कारण-समग्रता की बाधा के रूप में ही प्रतीत होता है।' विभावना और विशेषोक्ति का परस्पर विपरीत स्वभाव सर्वसम्मत है। अप्रस्तुतप्रशंसा और अपह नुति
अप्रस्तुतप्रशंसा में प्रस्तुत का उपादान नहीं होता। अप्रस्तुत के कथन से ही प्रस्तुत की प्रतीति करायी जाती है; पर अपह्न ति में प्रस्तुत का निषेध और उसकी जगह अप्रस्तुत की स्थापना की जाती है । अप्रस्तुतप्रशंसा और पर्यायोक्त
'अलङ्कारसर्वस्व' में यह प्रश्न उठाया गया है कि यदि कार्य के वर्णन से कारण की प्रतीति में भी अप्रस्तुतप्रशंसा मानी जाती है (जैसा कि रुय्यक आदि ने माना है) तो पर्यायोक्त में जहाँ किसी व्यक्ति के कार्य का वर्णन कर कारणभूत अर्थ की प्रतीति करायी जाती है, उसमें भी अप्रस्तुतप्रशंसा ही मानी जाने लगेगी। दोनों का भेदक क्या रह जायगा? इस शङ्का का समाधान यह कह कर किया गया है कि कार्य से कारण की प्रतीति तो उक्त दोनों अलङ्कारों में होती है, पर दोनों का भेद यह है कि पर्यायो क में कार्य मुखेन कारणभूत अर्थ
१. कारणाभावेन चेह (विभावनायां ) उपक्रान्तत्वाद् बलवता कार्यमेव
बाध्यमानत्वेन प्रतीयते, न तु तेन तत्र कारणाभावः । विशेषोक्तौ कार्याभावेन कारणसत्ताया एव बाध्यमानत्वमुन्नेयम् । -रुय्यक, अलं० सर्वस्व पृ० १५२ तथा—विभावनां लक्षयित्वा तद्विपर्ययस्वरूपां
विशेषोक्तिं लक्षयति ।-वही, पृ० १५५
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[७०७
का ही भङ ग्यन्तर से कथन होता है, इसलिए उसमें कार्य भी कारण की तरह वर्ण्य होने से प्रस्तुत ही रहता है, जब कि अप्रस्तुतप्रशंसा में वर्णित कार्य अप्रस्तुत होता है और उससे प्रतीत होने वाला कारणभूत अर्थ ही प्रस्तुत होता है।' पण्डितराज जगन्नाथ ने उक्त विभाग को अस्वीकार कर दोनों में इस आधार पर भेद-निरूपण किया है कि अप्रस्तुतप्रशंसा में वाच्यार्य व्यङ ग्यार्थ की प्रतिपत्ति में सहायक होता है; पर पर्यायोक्त में इसके विपरीत व्यङ ग्यार्थ ही वाच्यार्थ की प्रतिपत्ति में सहायक होता है। यही मत अधिक स्पष्ट तथा युक्तिपुष्ट जान पड़ता है। अप्रस्तुतप्रशंसा और अतिशयोक्ति
अतिशयोक्ति में विषय का निगरण होने से उसका उपादान नहीं होता और अप्रस्तुत से ही प्रस्तुत का बोध कराया जाता है । रूपकातिशयोक्ति में केवल विषयी का ही उपादान होता है। अप्रस्तुतप्रशंसा में भी अप्रस्तुत का ही वर्णन होता है और उससे प्रस्तुत अर्थ की प्रतीति होती है; पर दोनों में मुख्य भेद यह है कि अतिशयोक्ति में अप्रस्तुत का कथन होने पर लक्षणा शक्ति से अन्य प्रस्तुत अर्थ का बोध होता है, जब कि अप्रस्तुतप्रशंसा में अप्रस्तुत अर्थ के कयन से व्यञ्जना-वृत्ति से प्रस्तुत अर्थ की प्रतीति होती है। अतिशयोक्ति में अप्रस्तुत वाच्य और प्रस्तुत लक्ष्य होता है; पर अर्थान्तरन्यास में अप्रस्तुत वाच्य और प्रस्तुत व्यङग्य । 'धरती पर यह चन्द्रमा है' अतिशयोक्ति के इस उदाहरण में चन्द्रमा का धरती पर होना अर्थ अनुपपन्न होकर सादृश्यमूला गौणी लक्षणा से 'मुख' अर्थ का बोध कराता है। अप्रस्तुतप्रशंसा में कथित अप्रस्तुत अर्थ अपने आप में पूर्ण तथा उपपन्न रहता है और उससे व्यञ्जनावृत्या अन्य (प्रस्तुत) अर्थ की भी प्रतीति होती है। पण्डितराज जगन्नाथ ने इसी आधार पर उक्त अलङ्कारों का भेद-निरूपण किया है। १. एवञ्च यत्र वाच्योऽर्थोऽर्थान्तरं तादृशमेव स्वोपस्कारकत्वेनागूरयति, तत्र पर्यायोक्तम् । यत्र पुनः स्वात्मानमेवारस्तुतत्वात् प्रस्तुतमर्थान्तरं प्रति
समर्पयति तत्राप्रस्तुतप्रशसेति निर्णयः ।-रुय्यक, अलं० सर्व० पृ० १२६ २. अस्मिंश्चालङ्कारे ( पर्यायोक्तालङ्कारे ) व्यङ ग्यं वाच्यपरम्, अप्रस्तुत
प्रशंसायां तु वाच्यं व्यङ ग्यपरम्"।-जगन्नाथ, रसगङ्गा० पृ० ६५७ ३. तत्र (अतिशयोक्तौ) हि वाच्यतावच्छेदकरूपेण लक्ष्यस्य प्रतीतिरिह
( अप्रस्तुतप्रशंसायां) तु वाच्यताटस्थ्येनार्थान्तरस्येति विशेषात् ।....... किंचाप्रस्तुतप्रशंसायां प्रस्तुतं व्यङ ग्यमिति निर्विवादम् । निगीर्याध्यवसाने तु लक्ष्यं स्यात् ।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ६४८-४६
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७०८]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अन्योक्ति और भाव
रुगट ने अप्रस्तुतप्रशंसा की जगह अन्योक्ति का निरूपण किया है। दोनों तत्त्वतः एक ही हैं। इस अन्योक्ति या अप्रस्तुतप्रशंसा से रुद्रट के द्वितीय भाव का भेद-निरूपण वाञ्छनीय है। भाव के द्वितीय रूप में रुद्रट के अनुसार कोई वाक्य वाच्यार्थ का बोध कराने के साथ उस वाच्यार्थ के असदृश मुण-दोष रूप अन्य अर्थ की प्रतीति कराता है।' तात्पर्य यह कि यदि वाक्य का वाच्य अर्थ विधि रूप हो तो उससे निषेध की व्यञ्जना होगी और इसके विपरीत निषेध वाच्य होने पर विधि की व्यञ्जना होगी। अन्योक्ति या अप्रस्तुतप्रशंसा रुद्रट के अनुसार औपम्यगर्भ अलङ्कार है। उसमें कथित वाक्यार्थ से उसके सदृश ही अन्य वाक्यार्थ-उपमेयभूत समान इतिवृत्त-व्यजित होता है ।२ इस प्रकार भाव में असदृश अर्थ की प्रतीति (गुण से दोष तथा दोष से गुण; विधि से निषेध तथा निषेध से विधि की प्रतीति) तथा अन्योक्ति में कथित अर्थ से समान इतिवृत्त की प्रतीति दोनों का भेदक है। परवर्ती आचार्यों ने. भाव को व्यञ्जना आदि में समाविष्ट माना है, अलङ्कार नहीं। अन्योक्ति और पर्याय
पर्याय में विवक्षित वस्तु की व्यञ्जना के लिए उसके असदृश तथा उससे कार्यकारण-सम्बन्ध से रहित वस्तु का कथन होता है। इस प्रकार अन्योक्ति या अप्रस्तुतप्रशंसा से रुद्रट के इस पर्याय का भेद यह है कि अन्योक्ति में कथित अप्रस्तुत अर्थ से उसके सदृश अन्य अर्थ की प्रतीति होती है और पर्याय में कथित अर्थ से उसके असदृश अर्थ का बोध होता है। 3
१. अभिधेयमभिदधानं तदेव तदसदृशसकलगुणदोषम् ।
अर्थान्तरमवगमयति यद्वाक्यं सोऽपरो भावः ।।-रुद्रट, काव्यालं०, ७,४० २. द्रष्टव्य-वही, ८,७४; नमिसाधु ने दोनों के भेदक तत्त्व के सम्बन्ध में
कहा है कि असदृश अर्थ की प्रतीति भाव को अन्योक्ति से पथक करती है-'एतेन चान्योक्तिसमासोक्त्योर्भावत्वं निषिद्धम् । तत्र (अन्योक्ती ) हीतिवृत्तसादृश्यं वर्तते । औपम्यभेदात्तयोरिति ।
-वही, नमिसाधुकृत टीका, पृ० २१४ ३. समासोक्त्यन्योक्त्योः पर्यायत्वनिवृत्त्यर्थमाह-असदृशं तस्य। तस्य वाच्यस्य वस्तुनोऽसदृशमतुल्यम् ।
-वही, ७,४२ पर नमिसाधुकृत टीका, पृ० २१५
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
|७०
'पर्याय और भाव
पर्याय और भाव के स्वरूपगत भेद के सम्बन्ध में रुद्रट की मान्यता है कि भाव में वस्तुओं में कथित तथा व्यजित अर्थों में-जन्य-जनक-सम्बन्ध रहता है; पर पर्याय में दोनों में जन्य-जनक सम्बन्ध का अभाव रहता है। प्रथम भाव में व्यक्ति के शरीर का विकार उसके विशेष अभिप्राय की प्रतीति कराता है । ऐसी स्थिति में विकार कार्य होता है और भाव उस विकार का कारण । कार्य से कारणभूत अर्थ की प्रतीति होती है। इस प्रकार गम्य अर्थ-भाव विशेष जो विकार रूप कार्य का कारण है-का गमक अर्थ (विकार) के साथ जन्य-जनक सम्बन्ध रहता है। द्वितीय भाव में एक वस्तु का बोध अन्य वस्तु की प्रतीति का जनक होता है। पर्याय में एक अर्थ का अर्थान्तर के साथ जन्य-जमक सम्बन्ध नहीं रहता। इसमें वही अर्थ पर्याय से (भङ ग्यन्तर से ) कथित होता है। अभिप्राय-रूप अर्थान्तर की प्रतीति इसमें नहीं होती। जो प्रतीत होता है वही भङ ग्यन्तर से कथित भी।' पर्याय और सूक्ष्म __ सूक्ष्म में एक वस्तु का ज्ञान वस्त्वन्तर की प्रतीति का कारण होता है । इसमें प्रतिपाद्य अर्थ में युक्तिहीन अर्थ वाला शब्द अपने अर्थ से सम्बद्ध युक्तियुक्त अन्य अर्थ का बोध कराता है, पर पर्याय में एक ही अर्थ रहता है, जो प्रतीत भी होता है और पर्याय से कथित भी। अतः उसमें दो अर्थों में जन्य-जनके सम्बन्ध नहीं रहता। परिकर और परिकराङ कुर
इन दोनों अलङ्कारों का स्वरूप साभिप्राय पद-प्रयोग की धारणा पर आधृत है। दोनों का मुख्य भेद यह है कि परिकर में साभिप्राय विशेषण का प्रयोग १. भावसूक्ष्मयोः पर्यायोक्तनिवृत्यर्थमाह-अजनकमजन्यं वेति । अयमर्थः
प्रथमभावे विकारलक्षणेन कार्येण विकारवतोऽभिप्रायो यथा गम्यते तथा स्वजनकेन सह प्रतिबन्धश्चेति गमकस्य जन्यतास्ति । "इह ( पर्याये ) तु विवक्षितवस्तुप्रतिपादक वस्तु न तथाभूतम् । वाच्यवाचकभावशून्यमित्यर्थः। द्वितीयभावे हि वक्त रभिप्रायरूपमर्थान्तरं वाक्येन गम्यते ।... इह तु स एवार्थः पर्यायेणोच्यते । न त्वभिप्रायरूपमर्थान्तरप्रतीतिरिति ।
-रुद्रट, काव्यालङ्कार, ७,४२ पर नमिसाधु की टीका, पृ० २१५, २. .."सूक्ष्मे तु युक्तिमदर्थोऽपि शब्दोऽर्यान्तरमुपत्तिमद् गमयति । इह तु स एवार्थः पर्यायेणोच्यते।
-वही, पृ० २१५
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७१० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
होता है और परिकराङ कुर में साभिप्राय विशेष्य का । साभिप्राय पद - प्रयोग को दोनों की समान प्रकृति मानने के कारण ही मम्मट आदि ने दोनों को अलग-अलग नहीं मान कर एक ही अलङ्कार माना होगा | उद्योतकार ने मम्मट के परिकर - लक्षण में प्रयुक्त विशेषण शब्द को उपलक्षण मान कर साभिप्राय विशेष्य में भी परिकर ही स्वीकार किया है और परिकराङकुर नामक अलङ्कार की कल्पना को युक्तिहीन बताया है ।' पर, सूक्ष्म भेद के आधार पर स्वतन्त्र अलङ्कार की कल्पना होती रही है और विशेषण तथा विशेष्य के साभिप्राय प्रयोग के आधार पर उक्त अलङ्कारों का भी भेद-निरूपण: असङ्गत नहीं ।
मोलित और सामान्य
मीति में एक वस्तु समान लक्षण वाली अन्य वस्तु को अपने में तिरोहित कर लेती है । अतः, उसमें एक ही वस्तु की प्रतीति होती है । सामान्य में प्रकृत वस्तु का अप्रकृत वस्तु के साथ तादात्म्य दिखाया जाता है । अतः, उसमें दोनों वस्तुओं की एकरूपतया प्रतीति रहती है । उसमें दोनों वस्तुएँ प्रत्यक्ष विषय होती हैं; पर एक का दूसरे से अभिन्न रूप में बोध होता है । अलङ्कार-सर्वस्वकार तथा उद्योतकार ने मीलित और सामान्य का भेद-निरूपण इसी आधार पर किया है । अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि ने भी इसी आधार पर उक्त अलङ्कारों का भेद-निरूपण किया है । २
१. अत्र (परिकरे ) विशेषणैरित्युपलक्षणं विशेष्यस्यापि । तेन साभिप्राये विशेष्येऽप्ययम् ।....... "एतेन साभिप्राये विशेष्ये परिकराङ, कुरनामा भिन्नोऽ लङ्कार इत्यपास्त मित्युद्योते स्पष्टम् । - काव्यप्रकाश, झलकीकरकृत टीका पृ० ६६६ । झलकीकर ने सुधासागरकार का भी मत उद्धृत किया है, जो उद्योतकार के मत से अभिन्न है । - द्रष्टव्य, वही, पृ० ६६६. २. न चायं ( निमीलितम् ) सामान्यालङ्कारः । तस्य ( सामान्यस्य ) हि साधारणगुणयोगाद् भेदानुपलक्षणं रूपम् । अस्य ( मीलितस्य ) तुत्कृष्टगुन निकृष्ट गुणस्य तिरोधानमिति महान्मयोर्विशेषः । - रुय्यक, अलङ्कार सर्वस्व, पृ० २०६, ऐकात्म्यमित्यनेन मीलिताद्भ ेद:, तत्र ( मीलिते ) बलवत्सजातीयग्रहण कृताग्रहणम् अत्र तु पृथक्त्वेनाग्रहणमिति विशेषात् । - काव्यप्र०, १०,१३४ पर उद्योत टीका । अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १४७ की वृत्ति, पृ० १६४ तथा जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ८१५-१६ भी द्रष्टव्य ।
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ७११
मोलित और व्याजोक्ति
मीलित में किसी वस्तु के समान चिह्न वाली अन्य वस्तु से वस्तु के तिरोधान का वर्णन होता है; पर व्याजोक्ति में वस्तु के प्रकट स्वरूप को किसी बहाने छिपाने का वर्णन होता है । अतः, दोनों अलङ्कारों की प्रकृति परस्पर भिन्न है । विवरणकार ने दोनों के भेदक तत्त्व के सम्बन्ध में कहा है कि व्याजोक्ति में वस्तु का तिरोधान वस्तुस्वभाव से नहीं होता, बल्कि उद्भिन्न वस्तु को वक्ता किसी बहाने छिपाने का प्रयास करता है; पर मीलित में वस्तु का तिरोधान वास्तविक रूप में विवक्षित होता है। उसमें वस्तु का रूप उद्भिन्न ही नहीं होता। वह स्वभावतः ही अन्य वस्तु के रूप में तिरोहित हो जाता है।' मीलित और अपह नुति
मीलित में दो वस्तुओं की रूपगत समता के कारण एक वस्तु के दूसरी वस्तु में तिरोहित हो जाने का वर्णन होता है; पर अपह्नति में प्रकृत का अपह्नव (निषेध) कर अप्रकृत की स्थापना की जाती है। दोनों का एक भेद यह भी है कि अपह्न ति में उपमानोपमेयभाव रहता है; पर मीलित में उपमानोपमेय भाव आवश्यक नहीं। अपह्नति में निषेधपूर्वक स्थापन होता है, पर मीलित में ऐसा नहीं होता। मीलित और उन्मीलित __ अप्पय्य दीक्षित ने दोनों को स्वतन्त्र अलङ्कार माना है। समान चिह्न के कारण एक वस्तु अन्य वस्तु में तिरोहित हो जाती है, फिर अन्य चिह्न की उपलब्धि से दोनों वस्तुओं का भेद स्पष्ट हो जाता है। पहली (तिरोधान को) स्थिति मीलित की स्थिति है और दूसरी ( अन्य चिह्न के लाभ से भेद स्पष्ट होने की ) स्थिति उन्मीलित की। उन्मीलित के रूप-विधान के लिए पहले
१. व्याजोक्ती तिरोधानं न वस्तुस्वभावजनितं किंतु कथञ्चिदुद्भिन्न वस्तु
कश्चित् तिरोधातु यतते इति विवक्षितम् । इह ( मीलिते ) तु वस्तु नोद्भिन्नम् तस्यापि च तिरोधानं वास्तविकतया विवक्षितमिति भेद इति विवरणे स्पष्टम् ।
-काव्यप्रकाश झलकीकरकृत टी०. पृ० ७२७-२८ २. न चापह्न त्यतिव्याप्तिः उपमानोपमेयभावाभावादिति विस्तारिकाया
मुक्तम् । वस्तुतस्तु अपह्न तौ निषेधसहितं व्यवस्थापनम्, अत्र (मीलिते) तु न तथेति ततो भेदः ।
-वही पृ० ७२८
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७१२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
मीलित की स्थिति की कल्पना आवश्यक है । इस आधार पर दोनों में बहुत थोड़ा भेद मानकर उद्योतकार ने दोनों को एक ही अलङ्कार माना है । " यह ठीक है कि उन्मीलित की कल्पना का आधार मीलित का स्वरूप है और उसकी पूर्वदशा भी मीलित की ही दशा है; पर उन्मीलित में मीलित से एक आगे की दशा की कल्पना की जाती है । जब थोड़े-थोड़े भेद से स्वतन्त्र अलङ्कारों की सत्ता स्वीकार की गयी है, तब मीलित और उन्मीलित के स्वभावगत कथित भेद के आधार पर दोनों की परस्पर स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करना उचित ही जान पड़ता है ।
मीलित और तद्गुण
अलङ्कारसर्वस्वकार के अनुसार मीलित और तद्गुण का भेद यह है कि मीलित में वस्तु का रूप समान चिह्न वाली अन्य वस्तु के रूप में तिरोहित हो जाता है और तद्गुण में हीन गुण वाली वस्तु अपने गुण का त्याग कर अन्य वस्तु के गुण को 'ग्रहण करती है । दोनों की प्रकृति पर दृष्टि रखते हुए प्रदीपकार ने उनके पारस्परिक भेद के सम्बन्ध में कहा है कि मीलित में अन्य वस्तु से आच्छादित वस्तु का बोध होता है; पर तद्गुण में वस्तु अन्य वस्तु में तिरोहित नहीं होती, उससे अनाच्छादित रहकर ही उसके गुण को ग्रहण कर लेती है । 3
१. अत्राहुरुद्योतकाराः " स्फुटमुपलभ्यमानस्य कस्यचिद्वस्तुनो लिङ्ग रतिसाम्यात् भिन्नत्वेनागृह्यमाणानां वस्त्वन्तरलिङ्गानां स्वकारणानुमापकत्वं मीलितम् । एवं च 'हिमाद्रि त्वद्यशोमन्नं सुराः शीतेन जानते' इत्यादावपि इदमेव ( मीलितमेव ), शीतेन तज्ज्ञानेऽपि यशः साधारणलिङ्गः श्वत्यादिभिस्तदनुमानाभावात् शीतेन जानते इत्यनेनापि मीलनस्यैव दार्यं न त्वन्येनेति प्रतीतेः । एतेनात्रोन्मीलितं पृथगलङ्कार इति अपास्तम् ।"
- काव्यप्रकाश, बालबोधिनी टीका, पृ० ७२८ २. न चेदं मीलितम् । तत्र हि प्रकृतं वस्तु वस्त्वन्तरेणाच्छादितत्वेन प्रतीयते । इह ( तद्गुणे) त्वनपह्न तस्वरूपमेव प्रकृतं वस्तु वस्त्वन्तरगुणोपरत्ततया प्रतीयत इत्यस्त्यनयोर्भेदः ।
—रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० २११ ३. मीलिते वस्त्वन्तरेणाच्छादितस्य तस्यैव वस्तुनः प्रतीति:, अत्र ( तद्गुणे ) त्वनाच्छादित स्वरूपस्यैव वस्त्वन्तरगुणापत्तिरिति ततो भेद इति प्रदीपः । - काव्यप्रकाश, बालबोधिनी, पृ० ७४६
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ७१३
'पण्डितराज जगन्नाथ की भी यही मान्यता है।' उद्योतकार के अनुसार दोनों का एक भेद यह भी है कि मीलित में धर्मी भी तिरोहित हो जाता है; पर तद्गुण में केवल गुण (धर्म) का ही तिरस्कार होता है। धर्मी अपने गुण-मात्र का त्याग कर अन्य के गुण को ग्रहण करता है। अतः, धर्मी का तिरस्कार नहीं होता। उसकी स्वतन्त्र सत्ता अवभासित ही रहती है ।
सामान्य और तद्गुण
सामान्य में वस्तु अपने गुण का त्याग नहीं करती। उसके गुण की अन्य वस्तु के गुण से केवल एकात्मतया प्रतीति होती है। वैशिष्ट्याधायक गुण के अभाव में उसके गुण की पृथक् प्रतीति नहीं होती, अन्य वस्तु के गुण के साथ सामान्यतया प्रतीति होती है; पर तद्गुण में वस्तु अपने गुण का त्याग कर अन्य वस्तु के गुण को ग्रहण करती है, यही 'काव्यप्रकाश' के टीकाकार वामन 'झलकीकर के अनुसार उक्त दो अलङ्कारों का भेद है।
सामान्य और भ्रान्तिमान्
भ्रान्तिमान में स्मर्यमाण वस्तु का आरोप होता है; पर सामान्य में अनुभूयमान वस्तु का-यह दोनों का भेद है। भ्रान्ति में किसी वस्तु को देखकर संस्कार-रूप में मन में स्थित वस्तु की स्मृति जाग्रत होकर उस वस्तु पर आरोपित हो जाती है; पर सामान्य में वस्तु का गुण अन्य वस्तु के गुण से अविशिष्टतया अनुभूत होता है। मम्मट ने भ्रान्ति में किसी वस्तु में अप्राकरणिक
१. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ८१४, २. मीलिते धर्मिणोऽपितिस्कारः .."इह (तद्गुणे ) तु गुणमात्रस्य व तिरस्कारः धर्मिणश्च पृथगवभास इति भेदः ।
-काव्यप्रकाश, उद्योत टीका; बालबोधिनी में उद्धृत, पृ० ७४६ ३. सूत्र (मम्मटकृतसामान्यालङ्कारलक्षणसूत्र) प्रस्तुतस्येत्यस्य 'अपरि
त्यक्तनिजगुणस्य' इत्यपि .विशेषणं विवक्षितमित्यत आह अपरित्यक्तनिजगुणमेवेति । तेन वक्ष्यमाणात्तद्गुणालङ्काराद्भेदः तत्र निजगुण
परित्यागात् । -काव्यप्रकाश, झलकीकरकृत टीका, पृ० ७३६ ४. न च भ्रान्तिमता सङ्करः, तत्र स्मर्यमाणस्य आरोपोऽत्र ( सामान्ये ) अनुभूयमानस्येति विशेषात् । -काव्यप्रकाश, झलकीकर की टीका
पृ० ७३६
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७१४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
का ज्ञान अपेक्षित माना है। यह सामान्य से इसका भेद स्पष्ट कर देता है। पण्डितराज जगन्नाथ ने सामान्य से भ्रान्तिमान् का भेद स्पष्ट करने के लिए भ्रान्तिमान् की परिभाषा में सदृश धर्मी में अन्य धर्मी के ज्ञान पर बल दिया है ।२ भ्रान्तिमान में किसी धर्मी में उससे भिन्न धर्मी का निश्चयात्मक ज्ञान होता है; पर सामान्य में दो धर्मियों का धर्म निर्विशिष्ट रूप में ग्रहण होता है।
सामान्य और रूपक
उद्योतकार के अनुसार रूपक में उपमेय में उपमान के तादात्म्य की शब्दतः प्रतीति होती है; पर सामान्य में प्रस्तुत के धर्म का अप्रकृत के धर्म से तादात्म्य-निबन्धन शब्दतः प्रतीत नहीं होता । रूपक में उपमेय की उपमानतया प्रतीति होती है; पर सामान्य में प्रस्तुत और अप्रस्तुत की एकरूपतया प्रतीति होती है, इस आधार पर भी कुछ विद्वानों ने सामान्य और रूपक का भेदनिरूपण किया है। सामान्य और अतिशयोक्ति
रूपकातिशयोक्ति में उपमान के ही कथन से उपमेय की भी प्रतीति होती है; पर सामान्य में दोनों वस्तुओं का कथन होता है । अतिशयोक्ति में उपमेय की उपमान-रूप में प्रतीति होती है; पर सामान्य में दो वस्तुओं की एकरूपतया प्रतीति होती है। उद्योतकार ने इसी आधार पर दोनों का भेद-निरूपण' किया है।
१. "तस्य तथाविधस्य दृष्टौ सन्यां यत् अप्राकरणिकतया संवेदनम् स
भ्रान्तिमान् । -मम्मट, काव्यप्रकाश, १०, १३२ की वृत्ति तथा उसपर
बालबोधिनी टीका, पृ० ७३३ .. लक्षणे (भ्रान्तिलक्षणे) मीलितसामान्यतद्गुणवारणाय धर्मिग्रहणद्वयम् ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ४२१ ३. ..."नापि रूपकप्रथमा तिशयोक्तिभ्यां ( सामान्यस्य सङ्करः) उपमेये
उपमानतादात्म्यस्य शब्दादप्रतीतेः रूपकाभावात् उपमानतावच्छेदकरूपेणाप्रतीयमानत्वान्नातिशयोक्ति: ""इति उद्योते स्पष्टम् । रूपक-- प्रथमातिशयोक्त्योश्च उपमेयस्य उपमानतया प्रतीतिः अत्र (सामान्य), तु एकरूपतया प्रतीतिरिति ततो भेद इत्यपि केचिद्वदन्ति ।
-काव्यप्रकाश, झलकीकरकृत टीका, पृ० ७३६ ४. वही
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[७१५.
तद्गुण और भ्रान्तिमान् ___तद्गुण में कोई वस्तु अपने गुण का त्याग कर अन्य वस्तु के उत्कृष्ट गुण का ग्रहण करती है। दूसरे शब्दों में, एक वस्तु पर अन्य वस्तु के गृह्यमाण गुण का आरोप होता है, जब कि भ्रान्तिमान में प्रकृत वस्तु पर स्मर्यमाण अन्य वस्तु का आरोप होता है। इस आधार पर उद्योतकार ने तद्गुण और भ्रान्तिमान् का भेद-निरूपण किया है।' जगन्नाथ ने भी भ्रातिमान् की परिभाषा में , धर्मी में धर्म्यन्तर के ज्ञान का उल्लेख कर तद्गुण से उसका भेद इसी आधार पर निरूपित किया है।
विषम और असङ्गति
विषम के एक भेद में कार्य के गुण से कारण के विरुद्ध गुण का तथा दूसरे में कार्य की क्रिया से कारण की विरुद्ध क्रिया का योग दिखाया जाता है। कार्य और कारण में विरुद्ध गुण और क्रिया का योग ही उसका सौन्दर्य है; पर असङ्गति में कार्य और कारण की भिन्नदेशता के वर्णन का चमत्कार रहता है। सामान्यतः, कार्य और कारण में समान गुण-क्रिया ही देखी जाती है; पर इस सामान्य नियम के विरुद्ध कार्य और कारण में विरोधी गुण-क्रिया का वर्णन विषम है। सामान्यतः, जहाँ कारण हो वहीं कार्य की भी उत्पत्ति देखी जाती है; पर कारण का एकत्र और कार्य का अपरत्र दिखाया जाना—दोनों का भिन्नदेशत्व-वर्णन-असङ्गति है। झलकीकर ने इसी तथ्य को स्वीकार कर कहा है कि विषम का चमत्कार कार्य और कारण की विरोधी गुण-क्रिया के योग में रहता है, जब कि असङ्गति का चमत्कार एकदेशतया प्रसिद्ध कार्यकारण की भिन्नदेशता के वर्णन में रहता है। 3
१. अप्राकरणिकतादात्म्येनेत्युक्तेर्मीलितसामान्यतद्गुणवारणम् ।
वही, पृ० ७३३ तथा-भ्रान्तिमति स्मर्यमाणस्यारोपः अत्र (तद्गुणे) गृह्यमाणस्येति भेदः भ्रान्तेनिबद्धत्वाभावाच्च ।-काव्यप्रकाश उद्योत
से बालबोधिनी में उद्धृत, पृ० ७४६ २. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ४२१ ३. द्वितीयभेदद्वये (विषमस्य भेदद्वये) च कार्यकारणयोविरुद्धगुणक्रियायोग
एव चमत्कारी..."असङ्गत्यलङ्कारे एकदेशकयोभिन्नदेशकत्वमेव चमत्कारीति भेदः ।-काव्यप्रकाश, झलकीकरकृत टीका पृ० ७१६
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७१६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण विषम और विरोध
विरोध में विरोधी पदार्थों की एकत्र सङ्घटना होती है । जो विरोधी पदार्थ स्वभावतः भिन्नदेश में रहते हैं उनका एकदेशत्व दिखाना विरोध है। विषम में कार्य और कारण के परस्पर विरोधी गुण और क्रिया का वर्णन होता है। यह दोनों अलङ्कारों का पारस्परिक भेद है। कारण और कार्य की परस्पर विरोधी गुण-क्रिया के योग-रूप विषम से विरोध का भेद स्पष्ट करते हुए वामन झलकीकर ने भी कहा है कि उक्त विषम भेद में कार्य तथा कारण की . विरोधी गुण-क्रिया का योग दिखाने में ही चमत्कार रहता है, जब कि विरोध
में भिन्नदेशतया प्रसिद्ध वस्तुओं की एकदेश में घटना का चमत्कार रहता है।' विरोध और असङ्गति
विरोध में भिन्न देश में रहने वाले पदार्थों का एकदेशत्व वणित होता है; " पर असङ्गति में साधारणतः एकदेश में रहने वाले पदार्थों (कारण और कार्य)
की भिन्नदेशता दिखायी जाती है । आचार्य मम्मट ने दोनों के इस भेद का निर्देश किया है। वामन झलकीकर ने इस तथ्य का स्पष्टीकरण किया है कि विरोधाभास का विषय समान्य रूप में विरोध है;3 पर, असङ्गति का विषय कार्य-कारण की भिन्नदेशता-रूप विशेष प्रकार का विरोध ही। विमर्शिनीकार
१. द्वितीयभेदद्वये च कार्यकारणयोविरुद्धगुणक्रियायोग एव चमत्कारी विरोधालङ्कारे तु भिन्नदेशकयोरेकदेशकत्वम् ।
-काव्यप्रकाश, बालबोधिनी टीका, पृ० ७१६ २. एषा च विरोधवाधिनी न विरोधः भिन्नाधारतयैव द्वयोरिह विरोधितायाः प्रतिभासात् विरोधे तु विरोधित्वं एकाश्रयनिष्ठमनुक्तमपि
पर्यवसितम्.....""। मम्मट, काव्यप्रकाश १०,१२४ की वृत्ति । ३. द्रष्टव्य-काव्यप्रकाश, झलकीकरकृत टीका, पृ० ७१६ ।। ४. यत्तु विरोधालङ्कारे ह्य कस्मिन्नधिकरण द्वयोः सम्बन्धाद्विरोधप्रतिभानमसङ्गतौ त्वधिकरणद्वयम् इति तस्मादस्य वैलक्षण्यमिति विमर्शिनीकार आह । तदसत् । इहापि तत्तत्कार्यतावच्छेदकधर्मतत्तत्कारणवैयधिकरण्यरूपयोधर्मयोरेकस्मिन्कार्यरूपेऽधिकरणे सम्बन्धादेव विरोधप्रतिभानोत्पत्तः। तस्माद्विरोधालङ्कारे उत्पत्तिविमर्श विनैव विरोधप्रतिभानमिह तूत्पत्तिविमर्शपूविकैव विरोधप्रतिभोत्पत्तिरिति वैलक्षण्य मिति । वस्तुतस्तु व्यधिकरणत्वेन प्रसिद्धयोः समानाधिकरणत्वेनोपनिबन्धने विरोधालङ्कारः। समानाधिकरणत्वेन प्रसिद्धयोर्वैयधिकरण्येनोपनिबन्धनेऽसङ्गतिः ।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७००-१
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[७१७ .
ने इसी आधार पर दोनों का विषय-विभाग किया था। पण्डितराज जगन्नाथ ने विमशिनीकार के मत के खण्डन में यह युक्ति दी है कि विरोध में एक अधिकरण में दो का सम्बन्ध तथा असङ्गति में भिन्नाधिकरणत्व के आधार पर जो भेदनिरूपण किया गया है, वह युक्तिसङ्गत नहीं है; क्योंकि असङ्गति में भी विरोधी कार्य-कारण का एक ही कार्यरूप अधिकरण होता है। एक ही कार्य के कारण का वैयधिकार्य असङ्गति का अलङ्कारत्व है । यह युक्ति केवल युक्ति के लिए है। जगन्नाथ ने भी निष्कर्ष-रूप में यही स्वीकार किया है कि जिन पदार्थों का अलग-अलग अधिकरण में रहना प्रसिद्ध है उनका एक अधिकरण में होना विरोध है और इसके विपरीत जिनका समान अधिकरण में रहना प्रसिद्ध है, उनका - भिन्नाधिकरणत्व-निबन्धन असङ्गति है।
विरोध और विरोधाभास
इन दो अलङ्कारों के नाम में ही दोनों का भेद निर्दिष्ट है। विरोध में तत्त्वतः विरोधी पदार्थों की एकत्र घटना होती है; पर विरोधाभास में विरोध तात्त्विक नहीं होता, उसका आभास-मात्र रहता है । आपाततः जान पड़ने वाले विरोध का जहाँ विचार करने पर परिहार हो जाता है, वहीं विरोधाभास अलङ्कार होता है।
विषम और विषादन
विषम के एक भेद में कर्ता के अभीष्ट फल की प्राप्ति की जगह अनिष्ट की प्राप्ति का वर्णन होता है। अर्थात् कर्ता इष्ट फल तो नहीं हो पाता, उलटे . उसे अनिष्ट की प्राप्ति हो जाती है। अप्पय्य दीक्षित आदि के विषादन का विषम से थोड़ा-सा भेद यह है कि कर्ता के अभीष्ट फल के ठीक विरुद्ध फल की प्राप्ति विषादन में दिखायी जाती है। विषम में अनिष्ट की प्राप्ति तथा विषादन में इष्ट-विरुद्ध फल की प्राप्ति-दोनों का भेदक है। इन दोनों में । इतना कम भेद है कि कुछ विद्वान दोनों की अलग-अलग सत्ता की कल्पना . अनावश्यक मानते हैं। पण्डितराज जगन्नाथ ने उपरिनिर्दिष्ट आधार पर ही : दोनों में भेद माना है।'
१. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ८०१-३
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५.७१८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
कारणामाला और सार
कारणमाला में पदों का ग्रथन इस रूप में होता है कि प्रत्येक पूर्ववर्ती • पद अपने उत्तरवर्ती का कारण बनता जाता है। इस प्रकार कारणों की एक शृङ्खला बन जाती है; पर सार में पदों की सङ्घटना इस रूप में की जाती है कि प्रत्येक उत्तरवर्ती पद पदार्थ के अधिकाधिक उत्कर्ष का बोध कराता चलता है। जगन्नाथ के अनुसार कारणमाला का अलङ्कारत्व शृङ्खला-मात्र में है; • पर सार का क्रमशः एक से दूसरे अर्थ के वैशिष्ट्य प्रतिपादन में ।' कारणमाला और मालादीपक
मालादीपक में प्रत्येक पूर्ववर्ती अर्थ को अपने-अपने उत्तरवर्ती अर्थ का उपकारक बताया जाता है; जबकि कारणमाला में पूर्व-पूर्व उत्तर-उत्तर के प्रति हेतु रूप में प्रस्तुत किया जाता है। कारणमाला से उसका भेद यह भी है कि उसमें सभी पदों का एक क्रिया से अन्वय दिखाया जाता है (जैसा कि अप्पय्य दीक्षित आदि ने स्वीकार किया है) पर कारणमाला में एक क्रिया का अन्वय • नहीं होता। मम्मट के टीकाकार वामन झलकीकर का कथन है कि मालादीपक का व्यवच्छेदक उसका एक क्रियान्वय ही है। कारणमाला और एकावली
कारणमाला में उत्तर-उत्तर के प्रति पूर्व-पूर्व का कारणत्व रहता है; पर एकावली में उत्तर-उत्तर के प्रति पूर्व-पूर्व का अथवा पूर्व-पूर्व के प्रति उत्तरउत्तर का विशेषणत्व रहता है। एकावली और मालादीपक
रुय्यक, मम्मट आदि आचार्यों ने मालादीपक में प्रत्येक पूर्ववर्ती पदार्थ का अपने उत्तरवर्ती पदार्थ के प्रति गुणावह होना अपेक्षित माना है। इस प्रकार उनके मतानुसार एकावली से मालादीपक का भेद यह होगा कि एकावली में
१. ..."तस्मात्कारणमालादिर्यथा शृङ्खलैकविषयो न तथा सारः शक्यो
वक्त म् । गुणस्वरूपाभ्यां पूर्व-पूर्व-वैशिष्ट्यं-सार इति तु लक्षणं सारस्य युक्तम् ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७३८ -२. मालादीपके उत्तरोत्तरं प्रति पूर्वपूर्वस्यार्यस्य हेतुत्वेऽपि सर्वेषामेकक्रियान्वयः अत्र (कारणमालायां) तु न तथेति ततो भेदः ।
-काव्यप्रकाश, झलकीकरकृत टीका, पृ०७०६
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ७१६ पूर्व-पूर्व के प्रति उत्तर-उत्तर विशेषण बनता जाता है और मालादीपक में पूर्वपूर्व उत्तर- उत्तर के प्रति गुणावह होता जाता है । गुणावह होना विशेषण होने से तत्त्वतः भिन्न नहीं है । अतः दोनों का व्यावर्तक धर्म यह है कि एकावली में पूर्व - पूर्व पदार्थ के प्रति उत्तर-उत्तर पदार्थ विशेषण बनता चलता है, जबकि मालादीपक में पूर्व - पूर्व पदार्थ उत्तर-उत्तर पदार्थ का उपकारक बताया जाता है । जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने एकावली में 'गृहीतमुक्तरीति' से उत्तर-उत्तर के प्रति पूर्व-पूर्व के विशेषणभाव तथा पूर्व -पूर्व के प्रति उत्तर- उत्तर के विशेषणभाव; दोनों को स्वीकार किया है । उनके अनुसार पूर्व-पूर्व के प्रति उत्तर-उत्तर का · तथा उत्तर-उत्तर के प्रति पूर्व- पूर्व का विशेषणभाव मालादीपक और एकावली की समान प्रकृति है । उन्होंने एकावली से मालादीपक का भेद करने के लिए मालादीपक में दीपक की प्रकृति का योग कर दिया है। मालादीपक में पदों का एक क्रिया से अन्वय आवश्यक माना गया है, जबकि एकावली में एक क्रियान्वय आवश्यक नहीं । मालादीपक में पूर्व - पूर्व का उत्तर-उत्तर के प्रति तथा उत्तर-उत्तर का पूर्व - पूर्व के प्रति विशेषणभाव एकावली की प्रकृति के समान है और पदों का एक क्रियान्वय दीपक की प्रकृति के समान । इस तथ्य को दृष्टि में रखते हुए अप्पय्य दीक्षित ने मालादीपक की परिभाषा ही इन शब्दों में की है— दीपक और एकावली के योग से मालादीपक बनता है । पण्डितराज जगन्नाथ की मान्यता है कि मालादीपक में सौन्दर्य एकावली की तरह पूर्व-पूर्व के प्रति उत्तर-उत्तर के अथवा इसके विपरीत उत्तर उत्तर के प्रति पूर्व-पूर्व के विशेषणविशेष्य-भाव में ही रहता है, दीपक की तरह एकपदान्वय में नहीं । अतः, मालदीपक एकावली से अभिन्न है । इसी आधार पर उन्होंने अप्पय्य की - मालादीपक - परिभाषा को अस्वीकार किया है। हम मालादीपक तथा एकावली के भेदक तत्त्व का निर्देश कर चुके हैं । उस भेद की उपेक्षा कर दोनों को अभिन्न मानना दुराग्रहपूर्ण जान पड़ता है ।
हेतु और काव्यलिङ्ग
हेतु की अलङ्कार के रूप में सत्ता विवादास्पद रही है । मम्मट आदि ने १. दीपक कावलीयोगात् माला दीपकमिष्यते । - अप्पय्य, कुवलया० १०७ उत्तरोत्तरस्मिन्पूर्वपूर्वस्योपकारकतायां मालादीपकम् । वस्तुतस्त्वेतद्दीपकमेव शक्यं वक्त ुम् । सादृश्यसम्पर्काभावात् किं त्वेकावलीप्रभेद इति वक्ष्यते । - जगन्नाथ, रसग०, पृ० ५१८, पृ० ७३६ भी द्रष्टव्य
२.
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७२० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण काव्यलिङ्ग में ही हेतु को अन्तभुक्त मान लिया था; किन्तु जयदेव-अप्पय्य दीक्षित आदि के अनुसार दोनों एक दूसरे से अपना-अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं। दोनों में भेद यह है कि जहाँ काव्यलिङ्ग में हेतु का उपस्थापन वाक्यार्थ या पदार्थ के रूप में होता है, वहां हेतु में हेतुमान् के साथ हेतु का वर्णन आवश्यक माना जाता है। हेतुमान् और हेतु का साथ-साथ कथन हेतु. अलङ्कार का तथा हेतु का वाक्यार्थ अथवा पदार्थ-रूप में उपस्थापन, काव्यलिङ्ग का व्यावर्तक धर्म है। सन्देह और भ्रान्तिमान् ___ इन दोनों अलङ्कारों का स्वरूप दो प्रकार के ज्ञान की धारणा पर आधृत है। सन्देह में किसी वस्तु में अन्य वस्तु का अनिश्चयात्मक ज्ञान होता है। यह ज्ञान _कोटिक होता है; क्योंकि प्रमाता के मन में उस प्रकृत का तथा सादृश्य के कारण अप्रकृत का अनिश्चयात्मक ज्ञान होता रहता है। उसका मन दो वस्तुओं के ज्ञान में दोलाचल स्थिति में रहता है। भ्रम में किसी वस्तु में उससे भिन्न; किन्तु उसके सदृश अन्य वस्तु का निश्चयात्मक ज्ञान होता है। अतः, भ्रम-दशा में असत्य; किन्तु एककोटिक ज्ञान होता है। इस प्रकार ज्ञान का एककोटिक या निश्चयात्मक होना भ्रान्तिमान् का तथा ज्ञान का _कोटिक या अनिश्चयात्मक होना सन्देह का व्यावर्तक है । पण्डितराज ने अपने भ्रान्तिमान्लक्षण में 'निश्चय' शब्द के उल्लेख की सार्थकता अनिश्चयात्मक ज्ञान पर आश्रित सन्देह से उसके भेद-निरूपण में ही मानी है ।२ सन्देह और वितर्क
अनेक आचार्यों ने तो वितर्क का सन्देह के ही स्वरूप में अन्तर्भाव मानकर केवल सन्देह का ही निरूपण किया था; पर पीछे चलकर कुछ आचार्यों ने वितर्क को सन्देह से स्वतन्त्र अलङ्कार मान लिया । वस्तुतः, सन्देह और वितर्क में थोड़ा अन्तर है। सन्देह अनिश्चयात्मक ज्ञान है तो वितर्क यथार्थ ज्ञान का साधन । सन्देह के स्थल में वितर्क से निश्चयात्मक यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। अतः, जहाँ प्रमाता सन्देह होने पर वितर्क से बस्तु के यथार्थ
१. अयं काव्यलिङ्गालङ्कार एव हेत्वलङ्कार इत्युच्यते ।
-काव्यप्रकाश, झलकीकर की र्टीका, पृ० ६७७) २. .."संशयवारणाय निश्चय इति ।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ०. ४२१.
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ७२१
स्वरूप का निश्चय करना चाहता है या कर लेता है, वहाँ निश्चयगर्भ या निश्चयान्त सन्देह मानने की अपेक्षा वितर्क मानना ही युक्तिसङ्गत जान पड़ता है। शुद्ध सन्देह तो किसी वस्तु में दो वस्तुओं के ज्ञान की अनिश्चयात्मक दशा को ही कहा जा सकता है। सन्देह की दशा में ही वितर्क से तत्त्व-निर्णय किया जाता है। अतः, सन्देह वितर्क का अनुप्राणक है। इसीलिए कुछ आचार्यों ने वितर्क का सौन्दर्य भी सन्देह में ही मानकर वितर्क को सन्देह में अन्तर्भुक्त माना है। थोड़े-थोड़े भेद के आधार पर नवीन-नवीन अलङ्कारों की कल्पना यदि ग्राह्य हो तो वितर्क को भी सन्देह से स्वतन्त्र अलङ्कार माना जा सकता है। डॉ० राघवन ने वितर्क को सन्देह से अभिन्न माना है।' यह युक्तिसङ्गत नहीं। अनन्वय और असम
वर्ण्य विषय को अद्वितीय प्रतिपादित करने के लिए उसके अन्य उपमान का अभाव अनन्वय और असम; दोनों में दिखाया जाता है। दोनों अलङ्कारों में कवि का उद्देश्य समान है; पर रूप-विधान की दृष्टि से दोनों में भेद यह है कि अनन्वय में अन्य उपमान का अभाव बताने के लिए उपमेय को ही उसका उपमान बता दिया जाता है; अर्थात् उसमें जो वस्तु उपमेय होती है, वही अपना उपमेय भी होती है । इस तरह अन्य उपमान का व्यवच्छेद प्रतीत होता है; पर असम में वर्ण्य के अन्य सम्भावित उपमान का निषेध किया जाता है। इस प्रकार उपमानान्तर का अभाव सूचित करने के लिए उपमेय को ही उसका —अपना ही–उपमान (एक ही वस्तु को उपमेय तथा उपमान) कल्पित करना अनन्वय का तथा उपमेय की अन्य वस्तु के साथ उपमा का सर्वथा निषेध करना असम का व्यवच्छेदक है । अनन्वय में अन्य सादृश्य का व्यवच्छेद व्यङ म्य होता है, असम में वाच्य। श्लेष और वक्रोक्ति ___श्लेष में एक पद के अनेक अर्थ निकलते हैं। वक्रोक्ति में ( श्लेष-वक्रोक्ति में ) भी वक्ता के एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त वाक्य का श्लेष के सहारे उसके विवक्षित अर्थ से भिन्न अर्थ लगा लिया जाता है। इसमें वाक्य का एक
१. Vitarka is the old Samsaya or Sasandeha.
-Dr. Raghavan, Bhoja's Sringara Prakash, पृ० ३८७
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७२२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अर्थ वक्ता को विवक्षित होता है और श्लेष से श्रोता दूसरे अर्थ की योजना कर लेता है। अतः, इस वक्रोक्ति में वाक्य के अनेक अर्थ की योजना के लिए श्लेष का सहारा आवश्यक है। इस अंश में श्लेष से श्लेष-वक्रोक्ति की समता है; पर दोनों का भेद यह है कि जहाँ श्लेष में वक्ता को सभी अर्थ विवक्षित रहते हैं, वहाँ वक्रोक्ति में उसे कुछ और अर्थ विवक्षित रहता है और उसके अभिमत अर्थ से भिन्न अर्थ की योजना श्रोता कर लेता है। स्मरण और भ्रान्तिमान् ।
भ्रान्ति में भी यथार्थ वस्तु पर उसके सदृश स्मर्यमाण अन्य वस्तु का आरोप हो जाता है। स्मृति में एक वस्तु को देखकर सादृश्य आदि के कारण अन्य वस्तु की स्मृति हो आती है। दोनों में भेद यह है कि भ्रान्ति में केवल स्मर्यमाण का एककोटिक ज्ञान रहता है; पर स्मरण में प्रकृत वस्तु का भी यथार्थ ज्ञान रहता है और स्मर्यमाण वस्तु का भी। दूसरा भेद यह है कि स्मरम सादृश्येतर सम्बन्ध से भी हो सकता है पर भ्रम केवल सादृश्य से ही सम्भव होता है। ( ध्यातव्य है कि कुछ आचार्यों ने केवल सादृश्यमूला स्मृति को ही स्मरणालङ्कार माना है; पर अन्य आचार्य सादृश्येतर सम्बन्ध में भी स्मरण मानते हैं )। तुल्ययोगिता और दीपक ___ तुल्ययोगिता तथा दीपक; दोनों में अनेक पदार्थों का एक धर्म से अन्वय दिखाया जाता है; पर दोनों में अन्तर यह है कि तुल्ययोगिता में या तो अनेक वर्ण्य पदार्थों का एक धर्माभिसम्बन्ध दिखाया जाता है या अनेक अप्रस्तुत पदार्थों का; जबकि दीपक में प्रस्तुत और अप्रस्तुत पदार्थों का परस्पर एक धर्माभिसम्बन्ध दिखाया जाता है। तुल्ययोगिता में या तो सभी पदार्थ प्रस्तुत रहते हैं या सभी अप्रस्तुत; पर दीपक में कुछ प्रस्तुत और कुछ अप्रस्तुत पदार्थ रहते हैं। तुल्ययोगिता से दीपक का भेद स्पष्ट करने के लिए उद्भट ने दीपकलाग में 'अन्तर्गतोपमाधर्मा' का उल्लेख किया है ।' तिलक ने विवृति में यह स्पष्ट किया है कि तल्ययोगिता में या तो सभी प्राकरणिक रहते हैं या सभी
१. आदिमध्यान्तविषया: प्राधान्येतरयोगिनः । __अन्तर्गतोपमाधर्मा यत्र तद्दीपकं विदुः।-उद्भट, काव्यालं. सार सं० १,२८
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ७२३
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अप्राकरणिक; पर दीपक में प्रकारणिक और अप्राकरणिक दोनों रहते हैं । " दण्डी आदि आचार्यों की दीपक - परिभाषा तथा तुल्ययोगिता - परिभाषा को दृष्टि में रखकर विचार करने से इन दोनों के भेद के सम्बन्ध में उनका अभिमत यह जान पड़ता है कि दीपक में वाक्यान्तर में स्थित पद अनुषङ्ग आदि से वाक्यान्तर के अर्थ का भी प्रकाशन करता है; पर तुल्ययोगिता में स्तुतिनिन्दा के लिए — केवल प्रकृत अथवा केवल अप्रकृत का - एक धर्म से अन्वय दिखाया जाता है । अप्पय्य दीक्षित आदि परवर्ती आचार्यों को उद्भट का ही मत मान्य है 1 य्यक, मम्मट आदि ने भी केवल प्रस्तुतों अथवा केवल अप्रस्तुतों के एकधर्माभिसम्बन्ध में तुल्ययोगिता तथा प्रस्तुत और अप्रस्तुत के एकधर्माभिसम्बन्ध में दीपक मानकर दोनों का भेद स्पष्ट किया है ।२ पण्डितराज जगन्नाथ ने भी दोनों अलङ्कारों के लक्षण में दोनों के इसी भेदक धर्म पर बल दिया है। उन्होंने इस तथ्य का भी उल्लेख किया है कि दोनों में विशेष तात्त्विक भेद नहीं । दोनों का सौन्दर्य अनेक पदार्थों के एकधर्मान्वय में ही है । यह होने पर भा प्रकृत तथा अप्रकृत अर्थों के एकान्वय तथा केवल प्रकृत या केवल अप्रकृत अर्थों के एकान्वय के थोड़े-से भेद के आधार पर दो स्वतन्त्र अलङ्कारों की सत्ता स्वीकार की गयी है । 3
तुल्ययोगिता और सहोक्ति
वामन ने तुल्ययोगिता और सहोक्ति का भेद बताते हुए कहा है कि तुल्ययोगिता में भी दो पदार्थों का एक क्रिया से अन्वय रहता है; पर उसमें अर्थों में न्यूनाधिक भाव वित्रक्षित रहता है । सहोक्ति में अर्थों का न्यूनाधिक भाव
१. द्रष्टव्य — उद्भट, काव्यालङ्कार सारसं ० १,२५ पर तिलक की विवृति पृ० ११ २. द्रष्टव्य — रुय्यक, अलं० सर्वस्व, सू० सं० २३ तथा २४ और मम्मट, काव्यप्रकश, १०, १०३ तथा १०४ ३. तुल्ययोगितातो दीपकं न पृथग्भावमर्हति । धर्मसकृद्वृत्तिमूलाया विच्छित्त े रविशेषात् । एवं च प्राचीनानां तुल्ययोगितातो दीपकस्य पृथगलङ्कारतामाचक्षणानां दुराग्रहमात्रमिति तु नव्या: । - जगन्नाथ, रसगङ्गा० पृ० ५१५-१६ । कस्यचित्प्रकृतत्वे दीपकमन्यथा तुल्ययोगितैव । वही पृ० ५१०
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७२४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण विवक्षित नहीं रहता। यह सहोक्ति और तुल्ययोगिता का भेद है।' मम्मट, रुय्यक आदि ने तुल्ययोगिता के सम्बन्ध में वामन आदि से भिन्न धारणा व्यक्त की है। उनके अनुसार प्राकरणिकों अथवा अप्राकरणिकों का एक गुण, क्रिया आदि से अन्वय तुल्ययोगिता है। इस तुल्ययोगिता से सहोक्ति का स्पष्ट भेद यह है कि सहोक्ति में सहार्थ-वाचक सह, सार्ध आदि का जिससे एक वस्तु का दूसरी वस्तु के साथ होना कथित हो-उल्लेख रहता है। इस प्रकार एक वस्तु प्रधान और दूसरी गौण होती है। जिस वस्तु के साथ अन्य वस्तु का होना कथित हो वह वस्तु प्रधान और उसके साथ जो वस्तु कथित हो वह गौण होगी। पर, तुल्ययोगिता में सहाथ का कथन नहीं होने से प्रधान और मोण सम्बन्ध नहीं रहता। गौण-प्रधान सम्बन्ध होने से सहोक्ति में एक ही समय दोनों वस्तुओं के साथ एक क्रिया का अन्वय होता है; पर तुल्ययोगिता में सभी वस्तुओं के प्रधान होने के कारण एक क्रिया का सभी पदों के साथ अलग-अलग अन्वय होता है। एक पद के अर्थ से विश्रान्त होकर क्रिया दूसरे पद का अर्थ-बोध करती है। सहोक्ति और समुच्चय
सहोक्ति में वर्णित दो वस्तुओं में से एक प्रधान और दूसरी गौण होती है। जिसके साथ तृतीया विभक्ति के प्रयोग से अन्य का होना कहा जाय वह प्रधान और अन्य गौण होता है। समुच्चय में सभी वस्तुएँ प्रधान ही रहती हैं। सहोक्ति शाब्द और आर्थ; दोनों हो सकती है; पर समुच्चय केवल शाब्द ही होता है। यही दोनों का भेद है। एकपदान्वय दोनों में समान रूप से होता है; पर सहोक्ति में सहार्य पद के प्रयोग से शब्दतः और अर्थतः (प्रथमा विभक्ति का प्रयोग होने पर सहार्य शाब्द तथा तृतीयान्त पद-प्रयोग होने पर आर्थ होता है) प्रधान एवं गौण पदार्थों का एकान्वय होता है और समुच्चय में शब्दतः समान रूप से प्रधान पदों का ही एकान्वय होता है। 'प्रदीप' तथा 'उद्योत'में सहोक्ति और समुच्चय के इस भेदक तत्त्व की मीमांसा की गयी है। १. तुल्ययोगितायाः सहोक्त भदमाह अत्रार्थयोन्यूनत्वविशिष्टत्वे न स्तः । इति नेयं तुल्ययोगिता।
-वामन, काव्यालङ्कार सू० ४, ३, २८ की वृत्ति प० २७४ २. एवं च यत्र गुणप्रधानभावावच्छिन्नयोः शाब्दार्थमर्यादया एकधर्मसम्बन्ध
स्तत्रायमलङ्कारः ( सहोक्ति अलङ्कारः)। वक्ष्यमारणे समुच्चये तूभयत्र प्राधान्यं शाब्द एव चैकान्वय इति ततो भेदः । इति प्रदीपोद्योतयोः स्पष्टम् ।
-काव्यप्रकाश, झलकीकरकृत टीका पृष्ठ ६७२
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[७२५ पिहित और मीलित ___ रुद्रट के पिहित में एक वस्तु के गुण से समान अधिकरण वाली किन्तु उस वस्तु से असमान वस्तु के गुण को आच्छादित कर लिये जाने का वर्णन अपेक्षित माना गया है । इस पिहित का मीलित से थोड़ा-सा भेद यह है कि मीलित में समान चिह्न वाली वस्तु से अन्य वस्तु का आच्छादन वर्णित होता है और पिहित में वस्तु असमान चिह्न वाली वस्तु का अपने गुण से पिधान करती है ।' पिहित और तद्गुण ___ रुद्रट के पिहित का उनके प्रथम तद्गुण (परवर्ती आचार्यों का सामान्य) से भेद यह है कि तद्गुण में समान गुण वाली वस्तु का संसर्ग होने पर नानात्व के लक्षित न होने का वर्णन होता है। पिहित में असमान गुण वाली वस्तु से अन्य का पिधान वर्णित होता है। दूसरे, तद्गुण में एक वस्तु का दूसरी वस्तु से गुण-ग्रहण दिखाया जाता है; पर पिहित में एक वस्तु का दूसरी वस्तु को अपने रूप में मिला लेना। अतः, रुद्रट के दोनों तद्गुण-रूपों से उनके पिहित का भेद स्पष्ट है ।२ पिहित और सूक्ष्म
जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने पिहित का सम्बन्ध गूढ चेष्टा से जोड़कर उसे सर्वथा नवीन रूप दिया है। सूक्ष्म से उनके पिहित का स्वरूप बहुत कुछ मिलता-जुलता है । भेद केवल इतना है कि सूक्ष्म में किसी के आशय को समझ कर किसी व्यक्ति के साभिप्राय चेष्टा करने का वर्णन रहता है तो पिहित में किसी के वृत्तान्त को समझ कर किसी के द्वारा साभिप्राय चेष्टा किये जाने का वर्णन होता है।
१. मीलितातहि कोऽस्य (पिहितस्य) भेदः । उच्यते-असमानचिह्नत्वमेव । तत्र हि समानचिह्नन वस्तुना हर्ष कोपादि तिरस्क्रियत इति ।
-रुद्रट, काव्यालङ्कार, ६,५० पर नमिसाधु की टीका, पृ० ३०७ २. असमानग्रहणेन प्रथमात्तद्गुणालङ्काराद्विशेषः ख्याप्यते, तत्रह्य कगुणा
नामर्थानां संसर्गे नानात्वं न लक्ष्यत इत्युक्तम् । द्वितीयात्तहि कोऽस्य विशेषः । उच्यते-त्रासमानगुणं वस्तु वस्त्वन्तरेण प्रबलगुणेन संसृष्टं
तद्गुणतां प्राप्यते न तद्विधी यत इति ।-वही, पृ० ३०७ ३. सूक्ष्म पराशयाभिशेतरसाकूतचेष्टितम् । तुलनीय–पिहितं परवृत्ता
न्तज्ञातुः साकूतचेष्टितम् ।-अप्पय्य, कुवलयानन्द, १५१-१५२
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७२६ ]
शब्दश्लेष और अर्थश्लेष
श्लेष शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार; दोनों रूपों में स्वीकृत है । प्राचीन आचार्यों ने श्लेष का शब्दार्थगत भेद स्पष्ट नहीं किया था । दण्डी ने अभङ्गपद श्लेष तथा सभङ्गपद श्लेष का उल्लेख किया था। एक प्रयत्न से उच्चरित होने वाले पद कहीं अभङ्ग रह कर ही अनेक अर्थ का बोध करा सकते हैं और कहीं पदभङ्ग कर अनेक अर्थ निकाले जा सकते हैं । उद्भट के काव्यालङ्कार की विवृति में अभङ्ग श्लेष को अर्थश्लेष तथा परस्पर छायानुकारी सभङ्गपद श्लेष को शब्दश्लेष माना गया है । विवृतिकार का मत है कि अभङ्गपद श्लेष में पद के एक होने पर भी अनेक अर्थ के कारण उन्हें श्लिष्ट; किन्तु अनेक पद माना जाता है । अर्थ भेद शब्दभेद का हेतु होता है । अतः ऐसी दशा में अर्थ श्लेष होता है । सभङ्ग श्लेष में शब्द के भङ्ग के कारण अनेक अर्थों का बोध होता है । अतः सभङ्ग श्लेष को शब्दश्लेष माना जाना चाहिए। सभङ्ग श्लेष में भिन्न प्रयत्न से उच्चरित होने वाले शब्दों का यतु- काष्ठ-न्याय से श्लेष होता है और अभङ्ग श्लेष में 'एकवृन्तगत फलद्वय-न्याय' से एक शब्द में दो अर्थ जुड़े रहते हैं । इस आधार पर प्राचीन आचार्य सभङ्ग श्लेष को शब्दश्लेष तथा अभङ्ग श्लेष को अर्थश्लेष मानते थे ।
1
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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
आधुनिक आचार्यों को शब्दश्लेष तथा अर्थश्लेष के विषय विभाग का यह आधार समीचीन नहीं जान पड़ता । मम्मट ने शब्दश्लेष के भी सभङ्ग श्लेष और अभङ्ग श्लेष भेद स्वीकार किये हैं । अर्थश्लेष के भी उक्त दोनों भेद सम्भव हैं । अतः, मम्मट ने अन्वयव्यतिरेक के आधार पर शब्दगत श्लेष तथा अर्थगत श्लेष का विषय विभाग स्वीकार किया है । अन्वयव्यतिरेक के आधार पर जहाँ शब्दविशेष का उसके पर्यायवाची शब्द से परिवर्तन सम्भव नहीं हो, अर्थात् किसी शब्द की जगह उसके पर्यायवाची शब्द को रख देने से श्लेष अलङ्कार की सत्ता ही समाप्त हो जाय, वहाँ शब्दश्लेष अलङ्कार और जहाँ शब्द का पर्यायपरिवर्तन सम्भव हो, वहाँ अर्थश्लेष माना जायगा । मम्मट आदि आचार्यों के इसी सिद्धान्त को परवर्ती आचार्यों ने स्वीकार किया है । निष्कर्षतः, जहाँ पर्यायपरिवर्तन होने पर भी श्लेष अलङ्कार की सत्ता रहे, वहाँ
१. द्रष्टव्य — उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह, ४, २३-२४ पर विवृति पृ० ३७-३८.
२. द्रष्टव्य - मम्मट, काव्यप्रकाश, ६, ८४ की वृत्ति, पृ० २११-१२
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ७२७ अर्थश्लेष तथा जहाँ पर्यायपरिवर्तन सम्भव न हो, वहाँ शब्दश्लेष माना जायगा । 'पर्यायपरिवर्तनासहत्त्व' शब्दश्लेष का तथा 'पर्यायपरिवर्तन सहत्त्व' अर्थश्लेष का व्यावर्तक है ।
संसृष्टि और सङ्कर
एकाधिक अलङ्कारों की एकत्र अवस्थिति दो रूपों में सम्भव है— परस्पर निरपेक्ष रूप में तथा परस्पर सापेक्ष या अङ्गाङ्गिभाव रूप में । प्रथम अवस्थिति को तिलतण्डुलन्याय से अवस्थिति कहते हैं और द्वितीय को नीरक्षीरन्याय से । परस्पर निरपेक्ष रूप से अर्थात् तिलतण्डुलन्याय से अलङ्कारों की एकत्र स्थिति को अलङ्कार-संसृष्टि तथा अङ्गाङ्गिभाव से अर्थात् नीरक्षीरन्याय से अलङ्कारों की स्थिति को अलङ्कार - सङ्कर कहा जाता है । इस प्रकार संसृष्टि और सङ्कर का भेद स्पष्ट है ।
आक्षेप और अपह्न ुति
आक्षेप में अभीष्ट अर्थ का ही प्रतिषेध-सा किया जाता है । वह निषेध तात्त्विक नहीं होता । निषेधमुखेन अभीष्ट अर्थ का विधान किया जाता है । उसमें एक ही अर्थ होता है, जिसका आपाततः प्रतिषेध किया जाता है और तत्त्वतः उसीका स्थापन किया जाता है । अपह्न ुति में दो अर्थ रहते हैंएक प्रस्तुत और दूसरा अप्रस्तुत । इसमें प्रस्तुत का निषेध और अप्रस्तुत का स्थापन होता है । इसमें प्रस्तुत अर्थ का निषेध तात्त्विक होता है । संक्षेप में दोनों का भेद निम्नलिखित है
'—
( १ ) आक्षेप में एक ही अर्थ का आपाततः निषेध और तत्त्वतः स्थापन होता है; पर अपह्नति में दो अर्थों में से प्रस्तुत अर्थ का निषेध और अप्रस्तुत का स्थापन होता है !
(२) आक्षेप में प्रतिषेध प्रातिभासिक होता है; पर अपह्न ुति में प्रकृत का प्रतिषेध तात्त्विक ।
समासोक्ति और रूपक
समासोक्ति में प्रकृत अर्थ के कथन से विशेषण के महात्म्य से अप्रकृत अर्थ की प्रतीति करायी जाती है । इस प्रकार उसमें प्रकृत के व्यवहार पर अप्रकृत
१. सेष्टा संसृष्टिरेतेषां भेदेन यदिह स्थितिः । तथाअविश्रान्तिजुषामात्मन्यङ्गाङ्गित्वं तु सङ्करः ।
- मम्मट, काव्यप्रकाश, १०, १३६ -४०
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७२८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
के व्यवहार का आरोप कर दिया जाता है; पर रूपक में प्रकृत के स्वरूप परजो प्रकृत विशेष्य होता है-अप्रकृत से स्वरूप का आरोप किया जाता है। पण्डितराज जगन्नाथ के अनुसार दोनों का मुख्य भेद यह है कि समासोक्ति में व्यवहारमात्र का समारोप होता है, विषय पर विषयी के तार प्य की प्रतीति नहीं होती; पर रूपक में विषय पर विषयी का आहार्य ताद्र प्य दिखाया जाता है।' रुय्यक ने भी इसी आधार पर दोनों का विषय-विभाग किया था। निदर्शना और गम्या उपमा
निदर्शना में दो सम्भव या असम्भव सम्बन्ध वाले वाक्यार्थों का औपम्य में पर्यवसान होता है। प्रश्न किया जा सकता है कि निदर्शना को गम्या उपमा ही क्यों न माना जाय ? उत्तर यह है कि दोनों में औपम्य के गम्य होने की समता होने पर भी दोनों में अलग-अलग चमत्कार है। अतः दोनों को अभिन्न नहीं माना जा सकता। निदर्शना का चमत्कार दो वाक्याओं के बीच अभेदप्रतीति में-कल्पित औपम्य में दो वाक्यार्थों के पर्यवसान में है। उपमा का चमत्कार सादृश्य-प्रत्यायन-मात्र में रहता है । अतः, उपमा से-गम्यौपमा सेनिदर्शना स्वतन्त्र अलङ्कार है। चमत्कार के अलग-अलग होने के आधार पर ही उद्योतकार ने दोनों को परस्पर स्वतन्त्र अलङ्कार स्वीकार किया है। 3 श्लेष और अप्रस्तुतप्रशंसा ___ अप्रस्तुतप्रसा में अप्रकृत अर्थ के कथन से प्रकृत अर्थ का भी बोध हो जाता है। श्लेष में विशेषण तथा विशेष्य; सभी के वाचक शब्द दो अर्थों के वाचक होते हैं। इस प्रकार विशेषण तथा विशेष्य के श्लिष्ट प्रयोग से दो या अधिक अर्थों का बोध श्लेष का तथा अप्रकृत के कथन से प्रकृत का आक्षेप १. उपरञ्जकतामाहार्यताद्र प्यनिश्चयगोचरतामित्यनेन सन्देहोत्प्रेक्षा
समासोक्ति......."भ्रान्तिमत्स्वतिव्याप्तिनिरासः ।..........."समासोक्तिपरिणामयोविषयिताद्र प्यस्यागोचरत्वात्, समासोक्तो व्यवहारमात्रसमारोपात्""तस्यानाहार्यत्वादित्याहुः ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ३५७-५८ २. द्रष्टव्य-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० ६२ ३. न च निदर्शनाविषये व्यङ ग्योपमयैवास्तु चमत्कार इति वाच्यम् अत्राभेदप्रतीतिकृतचमत्कारस्यैव सत्त्वात् कल्पितौपम्यमूलिकया पर्यवसन्नया तयैव चमत्कार इत्याशयात् । तदुक्तम् 'उपजीव्यत्वेन भेदात्' इति । इत्युद्योतः । -काव्यप्रकाश, बालबोधिनी, पृ० ६१५
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ७२६
अप्रस्तुतप्रशंसा का व्यवच्छेदक है । विद्याचक्रवर्ती के अनुसार श्लेष और अप्रस्तुतप्रशंसा का भेद यह है कि श्लेष में कथित दोनों अर्थ या तो प्रकृत होते हैं या दोनों ही अप्रकृत, पर अप्रस्तुतप्रशंसा में कथित अर्थ अप्रकृत और उससे आक्षिप्त अर्थ प्रकृत- - इस प्रकार एक अप्रकृत और एक प्रकृत — होता है । ' अतिशयोक्ति और उल्लेख
१
-
उल्लेख में एक वस्तु का अनेक व्यक्तियों के द्वारा अनेक रूप में ग्रहण वर्णित होता है । तात्त्विक अभेद में भेद - कथन - रूप अतिशयोक्ति से इस उल्लेख का स्वरूप कुछ मिलता-जुलता अवश्य है; पर दोनों को अभिन्न मानने का भ्रम नहीं होना चाहिए। दोनों में भेद यह है कि उल्लेख में एक वस्तु के अनेकधा ग्रहण के लिए प्रमाता की अनेकता अथवा विषय आदि की अनेकता आवश्यक होती है; पर अतिशयोक्ति में यह भेद आवश्यक नहीं है । अभेद में भेद की कल्पना मात्र अतिशयोक्ति के स्वरूप-विधान के लिए पर्याप्त है । इसी आधार पर अलङ्कार- सर्वस्वकार ने प्रमाता तथा विषय आदि की अनेकता को उल्लेख का अतिशयोक्ति से भेदक धर्म माना है ।
अतिशयोक्ति और भ्रान्तिमान्
अतिशयोक्ति में विषय का निगरण - पूर्वक अध्यवसान होता है । अध्यवसान का तात्पर्य है प्रकृत में अप्रकृत के तादात्म्य का आरोप । प्रकृत में अप्रकृत के अभेद का यह निश्चय सदा आहार्य होता है । अतः, भ्रान्तिमान् से निगीर्याध्यवसान - रूप अतिशयोक्ति का स्पष्ट भेद है । भ्रान्तिमान् में माता को अन्य वस्तु में अन्य का ज्ञान आहार्य नहीं, तात्त्विक होता है ।
१. श्लेषसमासोक्ती तदाभासरूपे अप्रकृतात्प्रकृताक्षेपे ( अप्रस्तुतप्रशंसायां ) तयोरविषयत्वात् अप्रकृतयोः प्रकृतयोर्वार्थयोः श्लेष विषयत्वात् इति । - काव्यप्रकाश, बालबोधिनी टीका में उद्धृत, पृ० ६२२ २. यद्य ेवमभेदे भेद इत्येवंरूपातिशयोक्तिरत्रास्तु । नैष दोषः । ग्रहीतृभेदाख्येन विषयविभागेनानेकधात्वोदृङ्कनात्, तस्य च विच्छित्यन्तररूपत्वात् सर्वथा नास्यान्तर्भावः शक्यक्रिय इति निश्चयः । ... इयांस्तु विशेषः - पूर्वत्र ग्रहीतृभेदेनानेकधात्वोल्लेखः इह तु विषयभेदेन । —रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० ४६,४७
३. न च रूपके निगीर्याध्यवसानरूपायामतिशयोक्ती चातिव्याप्तिः तत्र ( अतिशयोक्तौ ) वस्तुतो भ्रमाभावेऽप्यध्यवसानमात्र स्वीकारात् । इह (भ्रान्तिमति) स्वर्थानुगमेन संज्ञाप्रवृत्त े भ्रं मोपगमस्य स्पष्टमेवोपगमात् । - गोविन्द ठक्कुर, काव्यप्रदीप, पृ० ३८२
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७३० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अतिशयोक्ति और सन्देह
अतिशयोक्ति में प्रकृत में अप्रकृत के तादात्म्य का आहार्य निश्चय होता है, जबकि सन्देह में ज्ञान अनिश्चयात्मक तथा द्व'कोटिक रहता है।' एक वस्तु में अन्य वस्तु के तादात्म्य का आहार्य निश्चय अतिशयोक्ति का तथा दो वस्तुओं में संशयात्मक ज्ञान सन्देह का व्यवच्छेदक है। अतिशयोक्ति और असङ्गति
कार्यकारणपौर्वापर्य-विपर्यय-रूप अतिशयोक्ति और असङ्गति में भेद यह है कि अतिशयोक्ति में कार्य और कारण के पौर्वापर्य-विपर्यय (अर्थात् कारण के पूर्व कार्य की स्थिति) का वर्णन होता है और असङ्गति में कार्य और कारण का वैयधिकरण्य दिखाया जाता है । कारण और कार्य की भिन्नदेशता असङ्गति का तथा कार्य और कारण के स्वाभाविक क्रम का विपर्यय अतिशयोक्ति का वैशिष्ट्याधायक है। प्रतिवस्तूपमा और निदर्शना
प्रतिवस्तूपमा में दो वाक्यार्थ वस्तु-प्रतिवस्तु-भाव से प्रस्तुत किये जाते हैं ।। निदर्शना में भी दो वाक्यार्थ प्रस्तुत किये जाते हैं. जिनके बीच औपम्य का पर्यवसान होता है। दोनों में एक भेद यह है कि निदर्शना में साधारण धर्म का उपन्यास नहीं होता; पर प्रतिवस्तूपमा में वस्तुप्रतिवस्तु-भाव से-वस्तुतः,. अभिन्न साधारण धर्म का शब्द-भेद से अलग-अलग वाक्यों में उल्लेख करसाधारण धर्म का उपन्यास किया जाता है। दूसरा भेद यह है कि निदर्शना में दोनों वाक्यार्थ परस्पर सापेक्ष रहते हैं; पर प्रतिवस्तूपमा में दोनों अपने-आप में पूर्ण; अतः परस्पर निरपेक्ष रहते हैं ।
१. अध्यवसानम् अप्रकृततादात्म्यारोपः स च भेदप्रतिपत्त्यसहकृताहार्य-. निश्चयरूपः। तेन रूपकस्य सन्देहोत्प्रेक्षयोश्च व्यवच्छेदः........ अन्ययोश्च संशयत्वात्......।-काव्यप्रकाश, सारबोधिनी, से
बालबोधिनी टीका में उद्ध त, पृ० ६२६ २. निदर्शनायां साधारणधर्मस्यानुपन्यासः वाक्यार्थयोः स्वस्वार्थे सापेक्षत्वं
च अत्र (प्रतिवस्तूपमायां) तु साधारणधर्मस्य वस्तुप्रतिवस्तुभावेन निर्देशः वाक्यार्थयोः स्वस्वार्थे निरपेक्षत्वं चेत्यनयोः परस्परं भेदः ।..."
-काव्यप्रकाश, झलकीकरकृत टीका पृ० ६३४:
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ७३१
प्रतिवस्तूपमा और अर्थान्तरन्यास __ प्रस्तुत अलङ्कारों में मुख्य भेद यह है कि प्रतिवस्तूपमा में दो वाक्यार्थों में उपमानोपमेयभाव रहता है, जबकि अर्थान्तरन्यास में दो वाक्यार्थों में समर्थ्य-समर्थक-सम्बन्ध रहता है।' पण्डितराज जगन्नाथ ने इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा है कि प्रतिवस्तूपमा में भी सामान्य-विशेष-भाव-युक्त वाक्यार्थ रहते हैं और अर्थान्तरन्यास में भी, पर प्रतिवस्तूपमा में सामान्य-विशेष-भावापन्न वाक्यार्थों में औपम्य गम्य होता है, जबकि अर्थान्तरन्यास में सामान्य-विशेषभावापन्न वाक्यार्थों में समर्थ्य-समर्थक-भाव रहता है। दृष्टान्त और उपमा
उपमा से दृष्टान्त का मुख्य भेद यह है कि दृष्टान्त में बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव से दो वाक्यार्थ प्रस्तुत किये जाते हैं। दृष्टान्त में उपमा की तरह सादृश्यवाचक 'इव' आदि पदों का प्रयोग नहीं किया जाता । 'अलङ्कारसर्वस्व' में इस तथ्य का स्पष्टीकरण इस रूप में किया गया है कि उपमा में 'इव' आदि का प्रयोग तथा साधारण धर्म का सकृत् निर्देश होता है; पर दृष्टान्त में इवादि के प्रयोग के विना ही बिम्बप्रतिबिम्ब भाव से साधारण धर्म का असकृत् निर्देश होता है। दृष्टान्त और दीपक
दृष्टान्त में धर्म का बिम्बप्रतिबिम्बभाव से वाक्यों में दो बार उपादान होता है ; पर दीपक में धर्म का सकृत् उपादान होता है। दृष्टान्त में दो वाक्यार्थ आवश्यक रूप से रहते हैं; पर दीपक एक वाक्यगत भी हो सकता है। दीपक में अनेक पदों का एकपदान्वय-मात्र अपेक्षित है ।
१. अर्थान्तरन्यासे तु समर्थ्यसमर्थकभावो विवक्षितः अत्र (प्रतिवस्तूपमायां) पुनरुपमानोपमेय भाव इति ततोऽस्या भेदः ।
-काव्यप्रकाश, झलकीकरकृत टीका पृ० ६३४ २. इयं (प्रतिवस्तूपमा) च वाक्यार्थयोः सामान्य विशेषभावापन्नयोर्भवति । तत्रं वौपम्यस्य गम्यत्वात् । सामान्यविशेषयोस्त्वौपम्याप्रतीतेः समर्थ्यसमर्थकयोरारन्तरन्यासो वक्ष्यते ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ५२५ ३. तत्र सामान्यधर्मस्येवाद्य पादाने सकृन्निर्देशे उपमा । असकृन्निर्देशे तु
शुद्धसामान्यरूपत्वं बिम्बप्रतिबिम्बभावो वा । ......."द्वितीयप्रकाराश्रयेण दृष्टान्तो वक्ष्यते ।-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० ७७
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•७३२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
विभावना और विरोधाभास
विभावना में विना कारण के ही कार्योत्पत्ति का वर्णन किया जाता है और विरोधाभास में आपाततः दीख पड़ने वाले विरोध का परिहार हो जाने • के कारण विरोध का आमास-मात्र वर्णित होता है। यह प्रश्न किया जा
सकता है कि विभावना में भी कारण के अभाव में कार्योत्पत्ति के वर्णन से 'प्रातिभासिक विरोध प्रतीत होता है और प्रसिद्ध कारण से भिन्न किसी अन्य कारण से उस कार्य की उत्पत्ति की कल्पना से विरोध का परिहार हो जाता है, फिर विभावना को विरोधाभास से अभिन्न क्यों नहीं मान लिया जाय ? — इस प्रश्न की सम्भावना कर अलङ्कारसर्वस्वकार ने कहा है कि विरोधाभास में
परस्पर विरोधी जान पड़ने वाली वस्तुओं में परस्पर बाधकता रहती है; पर विभावना में कारणाभाव के वर्णन से कार्य ही बाधित-सा प्रतीत होता है, कारण नहीं। अतः अन्योन्यबाधकता विरोधाभास को विभावना से पृथक् करती है।' उद्योतकार ने दोनों अलङ्कारों के पारस्परिक भेद का निर्देश करते हुए कहा है कि विरोधाभास में समान बल वाली दो वस्तुओं का पारस्परिक विरोध दिखाया जाना आवश्यक होता है, जबकि विभावना में कारण के अभाव में केवल कार्य ही बाध्यतया प्रतीत होता है; कारणाभाव की बाध्यतया प्रतीति नहीं होती। तात्पर्य यह कि विरोधाभास में दोनों ही पदार्थ-परस्पर विरोधी जान पड़ने के कारण-परस्पर बाध्यतया प्रतीत होते हैं ; पर, विभावना में केवल कार्य ही बाध्यतया प्रतीत होता है । कारण का अभाव तो कहीं नत्र समास से तथा कहीं कारण-विरोधी उक्ति से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रतिपादित ही रहता है । अतः, विभावना का विरोधाभास से स्वतन्त्र अस्तित्व माना ही जाना चाहिए।
१. कारणाभावेन चेहोपक्रान्तत्वाद् बलवता कार्यमेव बाध्यमानत्वेन
प्रतीयते, न तु तेन तत्र कारणाभावः। इत्यन्योन्यबाधकत्वानुप्राणि
ताद् विरोधालङ्काराभेदः । -रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १५२ २. ननु कारणाभावे कार्योत्पत्तो स्फुरितस्य विरोधस्य प्रसिद्धातिरिक्त न
कारणेन परिहाराद्विरोधाभास एवायमिति चेन्न । समबलयोः परस्परविरोधे तत्स्वीकरात् इह तु (विभावनायां तु) कारणविरहेण कार्यमेव बाध्यत्वेन गम्यते न तु तेन कारणविरह इति विशेषात् ।-काव्यप्रकाश उद्योत, बालबोधिनी में उद्धृत पृ० ६५६
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद [ ७३३ अर्थान्तरन्यास और अनुमान
अनुमान में कविनिबद्ध प्रमाता के अनुमान का वर्णन होता है। उसमें साध्य, हेतु आदि अनुमान के अङ्गों का भी उल्लेख होता है; पर अर्थान्तरन्यास में अनुमान के अङ्गभूत हेतु आदि का उल्लेख न कर केवल सामान्य-विशेष आदि में से किसी एक का कथन कर उसका अन्य विशेष-सामान्य आदि, उक्ति से समर्थन किया जाता है।' इस प्रकार दोनों का भेद स्पष्ट है। अर्थान्तरन्यास और विकस्वर
अर्थान्तरन्यास में सामान्य का विशेष से अथवा विशेष का सामान्य से समर्थन होता है, विकस्वर में विशेष का सामान्य से समर्थन कर पुनः उस समर्थक सामान्य का विशेष से समर्थन किया जाता है। विशेष का सामान्य से समर्थन करने की स्थिति तो अर्थान्तरन्यास के ही समान है; पर पुनः समर्थक का समर्थन विकस्वर का वैशिष्ट्य है। अर्थान्तरन्यास की-सी पूर्व-स्थिति को देखते हुए उद्योतकार ने विकस्वर को अर्थान्तरन्यास का ही एक रूप मान कर उसके स्वतन्त्र अस्तित्व का खण्डन किया है । यह समीचीन नहीं जान पड़ता। जब थोड़े-थोड़े भेद से पृथक्-पृथक् अलङ्कारों की कल्पना स्वीकृत हुई तो अर्थान्तरन्यास से विकस्वर के उक्त वैशिष्ट्य को ध्यान में रखते हुए दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व भी स्वीकार किया ही जाना चाहिए। मम्मट के परवर्ती जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने विकस्वर का स्वतन्त्र अस्तित्व माना है, पर पण्डितराज जगन्नाथ को विकस्वर का अर्थान्तरन्यास, उदाहरण आदि से पृथक् अस्तित्व अमान्य है। प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक को अप्पय्य दीक्षित का मत ही समीचीन जान पड़ता है। व्याजस्तुति और अप्रस्तुतप्रशंसा ___ व्याजस्तुति में निन्दामुखेन स्तुति या स्तुतिमुखेन निन्दा की जाती है। अप्रस्तुतप्रशंसा में अप्रस्तुत के वर्णन से प्रस्तुत की व्यञ्जना होती है। दोनों में १. (अर्थान्तरन्यासस्य) साक्षाद्व्याप्त्यादेरनभिधानादनुमानतो भेदः । कविनिबद्धप्रमात्रान्त रनिष्ठानुमितेरेवानुमानालंकारविषयत्वाच्च ।
-काव्यप्रकाश, बालबोधिनी, पृ० ६६१ २. एतेन "यस्मिन् विशेषसामान्यविशेषाः स विकस्वरः" यथा अनन्तेति इति विकस्वरालङ्कारोऽयं पृथगित्यपास्तमिति उद्योते स्पष्टम् ।
-काव्यप्रकाश, झलकीकरकृत टीका, पृ० ६६३. ३. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७५२-५३
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"७३४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण एक भेद यह है कि अप्रस्तुतप्रशंसा में अप्रस्तुत अर्थ वाच्य तथा प्रस्तुत व्यङ ग्य होता है; पर व्याजस्तुति में स्तुतिमुखेन की जाने वाली निन्दा अथवा निन्दामुखेन की जाने वाली स्तुति का शुद्ध व्यङ्ग्य होना आवश्यक नहीं। दूसरा भेद यह है कि अप्रस्तुतप्रशसा में कार्य प्रस्तुत रहने पर कारण का, कारण “प्रस्तुत रहने पर कार्य आदि का कथन होता है; पर व्याजस्तुति में कार्य-कारणभाव-सम्बन्ध का अभाव रहता है। तीसरे, स्तुति से निन्दा तथा निन्दा से स्तुति का सौन्दर्य भी व्याजस्तुति का व्यवच्छेदक है । उद्योतकार ने व्याजस्तुति के एक उदाहरण का विवेचन करते हुए कहा है कि उसमें अप्रस्तुतप्रशंसा मानने की भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए; क्योंकि उन दोनों अलङ्कारों का सौन्दर्य अलग-अलग है। काव्यलिङ्ग और अनुमान
मम्मट आदि आचार्यों ने काव्यलिङ्ग तथा हेतु को अभिन्न माना है। टीकाकारों ने उनके काव्यलिङ्ग या हेतु से अनुमान का भेद-निरूपण किया है। उद्योतकार के अनुसार व्याप्ति आदि का निर्देश अनुमान अलङ्कार का काव्यलिङ्ग से भेदक है ।२ काव्यलिङ्ग में व्याप्ति आदि अनुमान के अङ्गों का निर्देश नहीं होता। कमलाकर भट्ट ने इस आधार पर भी दोनों अलङ्कारों का भेद किया है कि अनुमान अलङ्कार में ज्ञापक-हेतु रहता है और काव्यलिङ्ग में कारक-हेतु । पण्डितराज जगन्नाथ का मत उद्योतकार के मत से मिलताजुलता ही है। काव्यलिङ्ग और परिकर
काव्यलिङ्ग में पदार्थ या वाक्यार्थ ही हेतु के रूप में उपन्यस्त होता है; पर परिकर में पदार्थ के बल से अथवा वाक्यार्थ के बल से प्रतीयमान अर्थ हेत
१. ..."न चात्राप्रस्तुतप्रशंसवास्त्विति वाच्यम् स्तुतिनिन्दात्मकतया विच्छित्तिविशेषात् कार्यकारणभावादिसम्बन्धाभावाच्च शुद्धव्यञ्जनाविषयत्वा
__भावाच्च ।-काव्यप्रकाश, उद्योत, उद्धृत, बालबोधनी पृ० ६७२ २. व्याप्त्याद्यनिर्देशान्नानुमानसङ्करः।-वही, पृ० ६७८ ३. अत्र (काव्यलिङ्ग) कारकहेतोरुक्तिः अनुमानालङ्कारे तु ज्ञापकहेतोरुक्तिरिति भेद इति कमलाकरभट्टाः।-काव्यप्रकाश, झलकीकरकृत टीका,
पृ० ६७८ ४. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७४२-४३
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[७३५
बनता है, यह दोनों का पारस्परिक भेद है। परिकर में पदार्थ या वाक्यार्थ से प्रतीत होने वाला अर्थ वाच्य का उपकारक होता है, पर काव्यलिङ्ग में पदार्थ या वावयार्थ ही हेतु बन जाते हैं।' कुवलयानन्दकार ने इसी आधार पर दोनों का भेद-निरूपण किया है ।२ पण्डितराज जगन्नाथ ने भी परिकर और काव्यहेतु का भेद दिखाते हुए कहा है कि परिकर में प्रकृत अर्थ का उपपादक व्यङग्य अर्थ होता है; पर हेतु में व्यङग्य अर्थ का रहना आवश्यक नहीं। उदात्त और अत्युक्ति
उदात्त में समृद्धिशाली वस्तु का वर्णन होता है तथा रसादि का अङ्गभाव कल्पित होता है और अत्युक्ति में अद्भुत तथा अतथ्य शौर्य, औदार्य आदि का वर्णन होता है। अत्युक्ति परवर्ती काल के आचार्यों की कल्पना है। उदात्त तथा अत्युक्ति; सब के मूल में अतिशय की धारणा निहित है। यों तो दोनों का सम्बन्ध वर्ण्य विषय से है; अतः दोनों का अलङ्कारत्व सन्दिग्ध है, पर यदि दोनों को अलङ्कार माना जाय तो दोनों का भेद यह माना जायगा कि उदात्त का सम्बन्ध वस्तु की समृद्धि से है और अत्युक्ति का शूरता, उदारता आदि गुण से । मम्मट के कुछ टीकाकारों ने वस्तु-समृद्धि का अर्थ धन तथा शौर्य आदि की समृद्धि मान कर उदात्त में ही अत्युक्ति का अन्तर्भाव माना है;४ पर अप्पय्य आदि की इस मान्यता को कि 'सम्पत्ति की अति-उक्ति उदात्त का तथा शौर्य की अति-उक्ति अत्युक्ति का व्यावर्तक है';५ अस्वीकार करने में १. ननु साभिप्रायपदार्थविन्यसनरूपात्परिकरात्काव्यलिङ्गस्य किं भेदक
मिति चेत् उच्यते । परिकरे पदार्थवावयार्थबलात् प्रतीयमानोऽर्थो वाच्योपकारकतां भजते काव्यलिङ्ग तु पदार्थवाक्यार्थावेव हेतुभावं भजत इतीति सुधासागरे स्पष्टम् । -काव्यप्रकाश, झलकीकरकृत टीका
पृ० ६७८ २. द्रष्टव्य-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, पृष्ठ १३६ ३. विशेषणानां साभिप्रायत्वं परिकरः। तच्च प्रकृतार्थोपपादकचमत्कारि
व्यङ ग्यकत्वम् । अत एवास्य हेत्वलंकाराद्वलक्षण्यम् । तत्र व्यङ ग्यस्या
नावश्यकत्वात् । -जगन्नाथ',रसगङ्गाधर पृ० ६११ ४. वस्तुनः धनशौर्यादेः । एतेन शौर्यादेस्तदुक्तौ अत्युक्तिनामा पृथगलङ्कार
इत्यपास्तम् ।-काव्यप्र०, झलकीकरकृत टीका, पृ० ६८४ ५. संपदत्युक्तावुदात्तालङ्कारः । शौर्यात्युक्तावत्युक्ति अलङ्कार इति
भेदमाहुः । -अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, पृ० १७८
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७३६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
विशेष औचित्य नहीं जान पड़ता । अतथ्य - वर्णन को भी अत्युक्ति का एक व्यवच्छेदक धर्म माना जा सकता है ।
समुच्चय और समाधि
रुय्यक, मम्मट आदि आचार्यों ने गुण क्रिया की युगपत् स्थिति के वर्णन के अतिरिक्त समुच्चय का एक और स्वरूप स्वीकार किया है, जिसमें प्रस्तुत कार्य के एक साधक के रहते उसके अन्य साधक का भी अस्तित्व वर्णित होता है । समाधि में किसी कार्य के एक कारण के साथ कारणान्तर का योग हो जाने से कार्य की सुकरता का वर्णन होता है। दोनों अलङ्कारों का पारस्परिक भद बताते हुए उद्योतकार ने कहा है कि समाधि में एक कारण से कार्य के निष्पाद्यमान होने पर अकस्मात् उपस्थित अन्य कारण से कार्य की सुकरता विवक्षित होती है ।' 'अलङ्कारसर्वस्व' में समाधि में अन्य साधक का काकतालीयन्याय से अकस्मात् योग तथा समुच्चय में खलेकपोतन्याय से अनेक साधकों: का एकत्र अवतार अपेक्षित माना गया है । २ कार्य - सौकर्य - वर्णन में ही समाधि का अलङ्कारत्व है; पर समुच्चय का अलङ्कारत्व एक कार्य के सम्पादन में अनेक कारणों के खलेक-पोतन्याय से उपस्थित होने में है । जगन्नाथ की भी यही मान्यता है । 3 तास यह कि एक हेतु से निष्पाद्यमान कार्य के, कारणान्तर के योग से सौकर्य की विवक्षा समाधि का तथा कार्य सम्पादन में समर्थ अनेक कारणों का सहभाव समुच्चय का विशेषाधायक धर्म है । दूसरी बात यह कि समाधि में एक हेतु प्रधान और अन्य सहकारी - मात्र होते है; पर समुच्चय में सभी कारण प्रधान ही होते हैं ।
१. समाधौ हि एकेन कार्ये निष्पाद्यमानेऽन्येनाकस्मादापतता सौकर्यादिरूपातिशयसम्पादनम् । ( अत्रतु) एककार्यसम्पत्तौ सर्वेषां खलेकपोतन्यायेन पातः कार्यस्य च न कोऽप्यतिशयः । — काव्यप्रकाश, उद्योत उद्धृत, बालबोधिनी, पृ० ६८६ : २. यत्र ह, येकस्य कार्य प्रति पूर्ण साधकत्वम्, अन्यस्तु सौकर्याय काकता-लायन्यायेनापति, तत्र समाधिवक्ष्यते । यत्रतु खलेकपोतिकया बहूनामवतारस्तत्र समुच्चयः । अतश्चानयोः सुमहान् भेदः ।
—रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० २०१ :
३. द्रष्टव्य – जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७७७
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ७३७
समुच्चय और काव्यलिङ्ग
समुच्चय में (कारण समुच्चय में) कार्य-विशेष के साधक अनेक कारणों का सह-भाव विवक्षित होता है; पर काव्यलिङ्ग में हेतु-मात्र का कथन अपेक्षित होता है। हेतु का वाक्यार्थ या पदार्थ के रूप में जहाँ उपन्यास होता है, वहां काव्यलिङ्ग का स्वरूप सम्पन्न हो जाता है। उसमें हेतु के एक या अनेक होने का विचार नहीं किया जाता; पर समुच्चय में कारण की अनेकता आवश्यक है ।' अनेक कारणों का एकत्र सद्भाव होने पर ही समुच्चय का रूपविधान सम्भव है। समुच्चय और दीपक
क्रिया के समुच्चय और क्रिया-दीपक में मुख्य भेद यह है कि समुच्चय में अनेक क्रियाओं की युगपत् स्थिति विवक्षित होती है, जबकि क्रिया-दीपक में अनेक क्रियाएँ युगपत् नहीं, क्रम से अर्थात् कालभेद से विवक्षित रहती हैं ।२ समुच्चय और पर्याय ___ 'अलङ्कारसर्वस्व' में प्रस्तुत अलङ्कारों के भेदक तत्त्व के विषय में कहा गया है कि समुच्चय में गुण, क्रिया आदि अनेक पदार्थों की युगपत् स्थिति का वर्णन होता है; पर पर्याय में क्रमेण अनेक के एकत्र सद्भाव का वर्णन होता है। पदार्थों का योगपद्य समुच्चय का तथा अयोगपद्य अर्थात् ऋमिक सद्भाव पर्याय का
१. काव्यलिङ्ग हेतुत्वमात्र विवक्षितम् न तु हेतूनां गुणप्रधानभावस्यै
कत्वानेकत्वस्य वा चिन्ता। अत्र (समुच्चये) तु एकस्यैव तत्कार्यकारित्वेऽन्येषां साहाय्यमात्रमिति ततो विशेषः।
-काव्यप्रकाश उद्योत से बालबोधिनी में उद्ध त पृ० ६८६ २. स त्वन्यो ( समुच्चयः ) युगपद् या गुणक्रियाः ।-मम्मट, काव्यप्र०:
१०,११६ तथा-युगपदिति क्रमव्यावृत्त्यर्थम् तेन दीपके नातिव्याप्तिः दीपके सतीष्वपि बह्वीषु क्रियासु योगपद्य न विवक्षितं किं तु क्रम
कालभेद एवेति बोध्यम् । —वही, झलकीकरकृत टीका, पृ० ६८६ ३. तथा एकस्मिन्नाधारेऽनेकमाधेयं यत् तिष्ठति, स द्वितीयः पर्यायः ।
नन्वत्र समुच्चयालङ्कारो वक्ष्यत इत्येतदर्थमपि क्रमेणेति योज्यम् । अत एव 'गुणक्रियायोगपद्य समुच्चय' इति समुच्चयलक्षणे योगपद्यब्रहणम् । अत एव क्रमाश्रयणात् पर्याय इत्यन्वर्थमभिधानम् ।।
-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १८५-८६
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७३८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
पारस्परिक भेदक है । जगन्नाथ ने अपने पर्याय अलङ्कार के द्वितीय लक्षण में – एकत्र क्रम से अनेक वस्तुओं के वर्णन में— क्रम के उल्लेख का उद्देश्य समुच्चय से उसके भेद का स्पष्टीकरण ही माना है । "
पर्याय तथा विशेष
य्यक के अनुसार पर्याय में क्रम से एक वस्तु की अनेकत्र या अनेक वस्तु की एकत्र स्थिति दिखायी जाती है; पर विशेष के द्वितीय भेद में एक वस्तु की युगपत् अनेकत्र स्थिति का वर्णन होता है । अतः, वस्तु की स्थिति का क्रम पर्याय का और यौगपद्य विशेष का विशेषाधायक है । पण्डितराज ने भी पर्यायपरिभाषा में 'क्रम' शब्द के उल्लेख की सार्थकता विशेष से उसके विशेषाधान ही मानी है । पर्याय और परिवृत्ति
पर्याय के एक भेद में एक आधार में अनेक वस्तुओं के होने अथवा रखने का वर्णन होता है; पर परिवृत्ति में किसी वस्तु का त्याग कर उसके बदले अन्य वस्तु के ग्रहण का वर्णन होता है । अतः, दोनों में स्वरूप का स्पष्ट भेद है । 'अलङ्कारसर्वस्व' में विनिमय को परिवृत्ति का व्यावर्तक माना गया है ।
व्याजोक्ति और अपहनुति
व्याजोक्ति में किसी प्रकार प्रकट हो गये वस्तु रूप को किसी बहाने छिपाने का वर्णन होता है । अपह्नति में प्रकृत वस्तु का अपह्नव कर उसकी जगह अन्य (अप्रकृत) की स्थापना की जाती है । इस प्रकार दोनों में ही एक का निषेध कर अन्य वस्तु की स्थापना का प्रयास होता है । व्याजोक्ति में
(पर्यायस्य) द्वितीयलक्षणे वक्ष्यमाणसमुच्चयालङ्कारातिव्याप्तिवारणाय तदिति ( क्रमेणेति) विवेक: । - जगन्नाथ, रसगङ्गाधर पृ० ७५६ २. इह (पर्याये) चक्रमप्रतिपादनाद् अर्थात् तत्र ( विशेषालङ्कारे) यौगपद्यप्रतीतिः । - रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १८५
३. अत्राद्यलक्षणे
क्रमेणेति ।
प्रागुक्तविशेषालङ्क रद्वितीयभेदेऽतिप्रसङ्गवारणाय
- जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७५६
४. विनिमयाभावात् (पर्यायस्य) परिवृत्तिवैलक्षण्यम् ।
—रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १८६
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ७३६
वस्तु के प्रकट रूप को छिपाकर बहाने से उसकी जगह वस्तु के किसी अयथार्थ रूप का कथन कर दिया जाता है और अपह्न ुति में प्रकृत का निषेध कर उसकी जगह अप्रकृत की स्थापना की जाती है । आचार्य मम्मट ने व्याजोक्ति की अपह्नति से स्वतन्त्र सत्ता प्रमाणित करने के लिए यह युक्ति दी है कि अपह्नति में प्रकृत और अप्रकृत के बीच साम्य विवक्षित रहता है । दोनों की साम्य-विवक्षा से ही प्रकृत का निषेध और अप्रकृत का स्थापन किया जाता है; पर व्याजोक्ति में साम्य की विवक्षा नहीं रहती । किसी बहाने प्रकट वस्तु रूप को छिपा लेने में ही व्याजोक्ति का अलङ्कारत्व है । वस्तुतः अपह्नति में जिस प्रकार उपमेय का निषेध और उपमान का स्थापन होता है, उस प्रकार व्याजोक्ति में किसी वस्तु का निषेध नहीं किया जाता । उसमें विना वस्तु रूप का निषेध किये ही प्रकट वस्तु के यथार्थ हेतु से भिन्न हेतु का निर्देश कर वास्तविक स्थिति को छिपाया जाता है । अतः, दोनों का पारस्परिक भेद स्पष्ट है । 'अलङ्कारसर्वस्व' में इसी तथ्य को इस रूप में प्रतिपादित किया गया है कि अपह्न ुति में सादृश्य- प्रतिपादन के उद्देश्य से अपह्नव ( प्रकृत का निषेध) होता है; पर व्याजोक्ति में अपह्नव के उद्द ेश्य से - वस्तुस्थिति को छिपाने के उद्देश्य से - सादृश्य-निरूपण होता है । निष्कर्षतः, दोनों अलङ्कारों में वक्ता का उद्देश्य भिन्न-भिन्न रहता है । अपह्न ुति में निषेधपूर्वक सादृश्यप्रतिपादन उसका उद्देश्य रहता है तो व्याजोक्ति में वस्तुस्थिति का निषेध ही उसका उद्देश्य रहता है । उद्भट ने सादृश्य के लिए अपह्नव तथा अपह्नव के लिए सादृश्य; दोनों को अपह्न ुति ही माना था । अत: उन्होंने व्याजोक्ति नामक स्वतन्त्र अलङ्कार की कल्पना नहीं की थी । २
१. निगूढमपि वस्तुनो रूपं कथमपि प्रभिन्नं केनापि व्यपदेशेन यदपह्नय • यते सा व्याजोक्तिः । न चैषापह्नतिः प्रकृताप्रकृतोभयनिष्ठस्य साम्यस्येहासम्भवात् I
- मम्मट, काव्यप्रकाश, १०, ११८ की वृत्ति पृ० २७६-७७ २. नन्वपह्न ुतिग्रन्थे सादृश्याय योऽपह्नवः, सापह्न तिः । तथा अपह्नवाय यत् सादृश्यं साप्यपह्न तिरिति स्थापितम् । व्याजोक्तौ चोत्तरः प्रकारो ( अपह्नवाय सादृश्यं) विद्यते । तत्कथमियमलङ्कारान्तरत्वेन कथ्यते । सत्यम् । उद्भटसिद्धान्ताश्रयणेन तत्रोक्तम् । नहि तन्मते व्याजोक्त्याख्यमलङ्करणमस्ति । इह तु तस्य सद्भावाद् व्यतिरिक्तापह्न ुतिरिति पृथगमलंकारो निर्दिष्टः । —रुय्यक, अलं० सर्वस्व, पृ० २१७
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७४० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उत्तर और काव्यलिङ्ग
मम्मट ने उत्तर और काव्यलिङ्ग का भेद स्पष्ट करते हुए कहा है कि यह शङ्का नहीं होनी चाहिए कि किसी उत्तर को सुन कर उसके पीछे निहित प्रश्न का जो बोध होता है उसमें उत्तर प्रश्न का हेतु होता है और इस प्रकार हेतु-रूप में उत्तर वाक्य के उपन्यास के कारण उत्तर काव्यलिङ्ग से अभिन्न है। उत्तर अलङ्कार में विशेष उत्तर प्रश्न-विशेष का ज्ञापक हेतु-मात्र होता है। उत्तर प्रश्न का कारक हेत नहीं माना जा सकता। काव्यलिङ्ग में कारक (जनक) हेतु का उपस्थापन होने से प्रश्न का ज्ञापन-मात्र करने वाले उत्तर पर आद्धृत उत्तर अलङ्कार का उससे स्वतन्त्र अस्तित्व है।'
उत्तर और अनुमान
उत्तर में प्रश्न साध्य और उत्तर उसका साधन है। यह शङ्का की जा सकती है कि उत्तर अलङ्कार में उत्तर सुनकर प्रश्न का अनुमान होता है, फिर उसे अनुमान में ही अन्तभुक्त क्यों न मान लिया जाय ? रुय्यक तथा मम्मट ने इस सम्भावित शङ्का का समाधान करते हुए कहा है कि अनुमान में एक-धर्मीगत (पक्षनिष्ठ) साध्य और साधन का निर्देश अपेक्षित है; पर उत्तर में साध्य प्रश्न का निर्देश नहीं होता है, केवल साधन उत्तर का ही निर्देश होता है । अतः, उत्तर का स्वरूप अनुमान से स्वतन्त्र है। प्रश्नपूर्वक उत्तर में भी असकृत् असम्भाव्य उत्तर होने से वह उत्तर अनुमान से स्वतन्त्र है।
१. न चैतत् (उत्तरम्) काव्यलिङ्गम् उत्तरस्य ताद्र प्यानुपपत्तः। नहि प्रश्नस्य प्रतिवचनं जनको हेतुः ।।
-मम्मट, काव्यप्रकाश, १०, १२१ की वृत्ति पृ० २८१ २. नापीदमनुमानम् एकमि निष्ठतया साध्यसाधनयोरनिर्देशादित्य
लङ्कारान्तरमेवोत्तरं साधीयः । -वही, पृ० २८१ तथान चेदमनुमानं, पक्षधर्मत्वादेरनिर्देशात् । यत्र च प्रश्नपूर्वकमसम्भावनीयमूत्तरं तच्च न सकृत. तावन्मात्रण चारुत्वाप्रतीतेः । अतश्चासकृदुपनिबन्धे द्वितीयमुत्तरम् ।
-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० २१३-१४
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ७४१
उत्तर र परिसंख्या
प्रश्नपूर्वक उत्तर में पहले प्रश्न का उपन्यास कर उसके लोकोत्तर चमत्कारशाली उत्तर का उल्लेख किया जाता है। प्रश्नपूर्विका परिसंख्या में प्रश्न किये जाने पर उसके उत्तर में किसी वस्तु का निषेध और किसी की स्थापना की जाती है । मम्मट ने प्रश्नोत्तर और प्रश्न - परिसंख्या का भेद बताते हुए कहा है कि प्रश्नपूर्वक उत्तर की 'विश्रान्ति वाच्यार्थ में ही होती है; पर प्रश्नपूर्विका परिसंख्या में अन्य वस्तु के निषेध ( एक की स्थापना ) का तात्पर्य
हा करता है । प्रश्न के उत्तर में किसी वस्तु की वर्जना परिसंख्या का रूपविधान करती है । उत्तर में वाच्य का ही अतिशय प्रतिपादन कवि का उद्देश्य होता है । रुय्यक के मतानुसार भी अन्य वस्तु की वर्जना का तात्पर्य परिसंख्या का तथा वाच्यमात्र का उत्कर्ष - साधन उत्तर का विशेषाधायक धर्म है
सूक्ष्म और अनुमान
सूक्ष्म में भी इङ्गित आदि से आशय का बोध होता है और अनुमान में भी लिङ्ग से साध्य का अनुमान होता है । यह शङ्का की जा सकती है कि इङ्गित आदि (लिङ्ग) भाव के अनुमापक होते हैं; अतः सूक्ष्म को भी अनुमान का ही अङ्ग क्यों न मान लिया जाय ? विद्या चक्रवर्ती तथा उद्योतकार आदि ने इसका समाधान इस युक्ति से किया है कि सूक्ष्म में कविनिबद्ध पात्र अपनी विदग्धता मे अपना आशय इङ्गित आदि से सूचित करता है । इसका चमत्कार अर्थ को लक्षित करने की विदग्धता में है । अतः यह अनुमान से स्वतन्त्र सौन्दर्य रखता है । 3
,
१ प्रश्नपरिसंख्यायामन्यव्यपोहे एव तात्पर्यम् । इह तु ( उत्तरालङ्कारे तु) वाच्ये एव विश्रान्तिरित्यनयोर्विवेकः । मम्मट, काव्य प्र०, १०, १२१ की वृत्ति पृ० २८१
२. न चेदं (उत्तरं ) परिसंख्या, व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदकपरत्वाभावात् । —रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० २१४ ६. अत्र (सूक्ष्मोदाहरणे ) विद्यमानमप्यनुमानं सूक्ष्माङ्गम् स्ववैदग्ध्यप्रकाशनद्वारा सूक्ष्मस्यैव चमत्कारित्वात् । काव्यप्रकाश, उद्योत उद्धृत, बालबोधिनी पृ० ७१२ और — तथाचाहुश्चक्रवर्ति भट्टाचार्या अपि यद्यप्यत्र स्वेदविशेषपुरुषायतयोः साध्यसाधनयोरेकधमिगतत्वेनोपादानादनुमानमेवालङ्कारो भवितुमहति तथापि स्ववैदग्ध्यप्रतिपिपाद - विषयान्यस्मै सूक्ष्मार्थप्रकाशनमुखेनैव चमत्कार इति स एवालङ्कारः अनुमानं तु तदनुग्राहकमित्यन्यदेतत् । - वही पृ० ७१२
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७४२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
समाधि और प्रहर्षण
समाधि में प्रसिद्ध कारण के साथ अन्य कारणों के योग से कार्य की सुकरता दिखायी जाती है; पर प्रहर्षण में बिना यत्न के अकस्मात् कार्य की सिद्धि का वर्णन होता है; यह दोनों का पारस्परिक भेद है। मम्मट के टीकाकार वामन झलकीकर की युक्ति है कि समाधि-लक्षण में 'कारणान्तरयोग से' यह कथन उपलक्षण है। अकस्मात् कार्य-सिद्धि में भी मम्मट आदि को समाधि की सत्ता ही मान्य थी। अतः, उन्होंने प्रहर्षण की स्वतन्त्र सत्ता नहीं मानी। हम देख चुके हैं कि थोड़े-थोड़े भेद से एक अलङ्कार से अनेक अलङ्कारों का जन्म हुआ है। उक्त अलङ्कारों के बीच भी कारणान्तर के योग से कार्य-सौनयं तथा अकस्मात् कार्य-सिद्धि का ही भेद है। सम और समुच्चय ___समुच्चय में सत् कारणों या असत् कारणों का एक साथ होना वर्णित होता है; पर सम में कारणातिरिक्त वस्तुओं का भी योग रह सकता है, यह दोनों का पारस्परिक भेद है। कार्यकारण-भाव के अनुरूप संसर्ग में भी सम होता है । समुच्चय में कार्य-कारण का सहभाव नहीं आ सकता। भ्रान्तिमान और मीलित
भ्रान्तिमान् में अन्य वस्तु को (प्राकरणिक को ) देखकर अन्य (अप्राकरणिक ) का निश्चयात्मक ज्ञान होता है; पर मीलित में प्राकरणिक का अप्राकरणिक के रूप में बोध आवश्यक नहीं, उसमें एक वस्तु से समान चिह्न वाली अन्य वस्तु का निगृहन-मात्र विवक्षित होता है। पण्डितराज जगन्नाथ ने दोनों के इस भेद की ओर सङ्कत किया है।४ १. अत्र (समाधौ) 'कारणान्तरयोगतः' इत्युपलक्षणम् । तेनाकस्मादीप्सि
तार्थलाभस्य वाञ्छितसिद्ध्यर्थयत्नात्तदधिकलाभस्य उपायसिद्ध्यर्थयत्नात्साक्षात्फललाभवर्णनस्य च समाधित्वमेव सौकर्यस्य अनायासेन सिद्ध यादिरूपस्येवाकस्मिकत्वादि-रूपस्यापि ग्रहात् । एतेन ईदृशे विषये प्रहर्षणं भिन्नोऽलङ्कार इत्यपास्तम् ।
-काव्यप्रकाश, झलकीकर कृत टीका पृ० ७१७ २. समुच्चये सतोरसतो; कारणयोः समुच्चयः, अत्र (समे) त्वकारण___ योरपि तयोर्योगस्यौचित्याभिधानमिति विशेषः । -वही, पृ० ७१८ ३. (भ्रान्तिमान्लक्षणे ) अप्राकरणिकतादात्म्येनेत्युक्तेर्मीलितसामान्य
तद्गुणवारणम् । भ्रान्तिमात्रमत्रालङ्कारः "।-वही, पृ० ७३३ ४. लक्षणे ( भ्रान्तिमान्लक्षणे ) मीलितसामान्यतद्गुणवारणाय धर्मि
ग्रहणद्वयम् ।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ४२१
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ७४३
तद्गुण और विशेषोक्ति
अतद्गुण में गुण ग्रहण का हेतु रहने पर भी वस्तु के अन्य का गुण ग्रहण न करना विवक्षित रहता है । प्रश्न किया जा सकता है कि हेतु के रहने पर भी फलाभाव - वर्णन रूप विशेषोक्ति से अतद्गुण का क्या भेद है ? उत्तर स्पष्ट है— अतद्गुण का चमत्कार गुण के अग्रहण के वर्णन में है । विशेषोक्ति में कारण के रहते कार्याभाव-वर्णन का चमत्कार प्रधान रहता है । अतः, दोनों का अपना-अपना विशिष्ट सौन्दर्य है ।
यमक और अनुप्रास
।
यमक और अनुप्रास को कई आचार्यों ने एक ही अलङ्कार के अलग-अलग रूप स्वीकार कर दोनों का एक साथ निरूपण किया है । फलतः, किसी आचार्य ने केवल यमक की सत्ता स्वीकार की तो दूसरे ने केवल अनुप्रास की । इस प्रकार एक अलङ्कार के भेद-निरूपण के क्रम में उन्होंने वर्ण, पद आदि की आवृत्ति के स्वरूप पर विचार किया । पीछे चलकर दोनों अलङ्कारों की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार कर ली गयी भामह ने यमक और अनुप्रास; दोनों को पृथक्-पृथक् परिभाषित किया था और दोनों की परिभाषाओं में दोनों के भेदक तत्त्व का भी निर्देश किया था । उनके अनुसार अर्थ-भेद से श्रुति-सम वर्ण- सङ्घ की आवृत्ति यमक है और समान रूप वाले वर्णों का विन्यास अनुप्रास । इस प्रकार यमक के रूप-विधान के लिए दो बातें अपेक्षित मानी गयीं - ( क ) समान श्रुति वाले स्वर- व्यञ्जन समुदाय की आवृत्ति तथा (ख) आवृत्ति होने पर दोनों के वाच्यार्थ का अलग-अलग होना । अनुप्रास में समान रूप वाले वर्णों का विन्यास - मात्र अपेक्षित माना गया है । इस प्रकार र, ल, ड आदि वर्णों के विन्यास में भी अनुप्रास का सद्भाव माना जा सकता है ।
१. अतद्गुण इति । तस्याधिकगुणस्यास्मिन् गुणा न सन्तीत्यद्गुण इत्यर्थः । नन्वस्य विशेषोक्तावन्तर्भावः योग्यतारूपकारणसत्त्वेऽपि गुणग्रहणरूपकार्याभावादिति चेन्न । गुणाग्रहणरूप विच्छित्तिविशेषाश्रयणादिति बोध्यम् । - काव्यप्रकाश, झलकीकरकृत टीका, पृ० ७४७
-
२. सरूपवर्णविन्यासमनुप्रासं प्रचक्षते । तुलनीय - तुल्यश्र ुतीनां भिन्नानामभिधेयैः परस्परम् । वर्णानां यः पुनर्वादो यमकं तन्निगद्यते ।
- भामह, काव्यालं ०, २,५, १७
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७४४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
ने दण्डी ने अलङ्कार-निरूपण के सन्दर्भ में केवल यमक का तथा उद्भट केवल अनुप्रास का निरूपण कर वर्णावृत्ति तथा पदावृत्ति को एक ही अलङ्कार का पृथक्-पृथक् रूप माना ।
वामन ने यमक और अनुप्रास को दो स्वतन्त्र अलङ्कार मानकर दोनों को अलग-अलग परिभाषित किया। उनके अनुसार वर्ण - समुदाय की आवृत्ति यमक है । यदि वर्ण-समुदाय सार्थक पद हो तो उसकी आवृत्ति होने पर दोनों का अर्थ भेद आवश्यक है । यमक में आवृत्त वर्ण-सङ्घका स्थान भी नियत होता है । अनुप्रास का उससे भेद यह है कि अनुप्रास में एकार्थक तथा अनेकार्थक पदों की आवृत्ति हो सकती है और उसमें पदों का स्थान भी अनियत रहता है । इस भेद को स्पष्ट करते हुए वामन ने वृत्ति में यह मन्तव्य व्यक्त किया है कि यमक में स्वर - व्यञ्जन सङ्घात की अर्थ-भेद से आवृत्ति होती है; पर अनुप्रास में स्वरों की भिन्नता के साथ भी समान रूप वाले व्यञ्जनों के समुदाय की आवृत्ति हो सकती है । रुय्यक, मम्मट, विश्वनाथ आदि को अनुप्रास और यमक के भेद के सम्बन्ध में यही मत मान्य है ।
१
लाटानुप्रास में यमक की तरह ही स्वर - व्यञ्जन-समुदाय की आवृत्ति होती है । पर दोनों का भेद यह है कि सार्थक पदों की आवृत्ति यमक में वाच्यार्थ के भेद के साथ ही होती है; पर लाट अनुप्रास में आवृत्त सार्थक पदों में तात्पर्यार्थ मात्र का भेद अपेक्षित रहता है । २ निष्कर्षतः, यमक अनुप्रास का भेद निम्नलिखित है
(क) यमक में स्वर और व्यञ्जन-समुदाय की उसी रूप में आवृत्ति होती है; पर अनुप्रास में स्वर-भेद से भी केवल व्यञ्जन की आवृत्ति हो सकती है ।
(ख) यमक में यदि सार्थक पद की आवृत्ति हो तो दोनों में अर्थ का भेद होना आवश्यक है; पर अनुप्रास में एकार्थ पदों की भी आवृत्ति हो सकती है और अनेकार्थ पदों की भी । लाटानुप्रास में आवृत्त पदों में केवल तात्पर्यार्थ का भेद अपेक्षित होता है ।
१. पदमनेकार्थमक्षरं वाऽऽवृत्तं स्थाननियमे यमकम् । वामन, काव्यालं ० सू० ४,१,१ तुलनीय - शेषः सरूपोऽनुप्रासः ४, १८ तथा उसकी वृत्ति पृ० १७७
२. शाब्दस्तु लाटानुप्रासो भेदे तात्पर्य मात्रतः । तुलनाय - अर्थे सत्यर्थ भिन्नानां वर्णानां सा पुनः श्रुतिः । यमकम्.... ।
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- मम्मट, काव्यप्रकाश, ६, ८१ तथा ६,८३
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ७४५
(प) यमक में वर्ण-सङ्घ की आवृत्ति का स्थान नियत रहता है, अनुप्रास में अनियत ।
(घ) यमक में स्वर तथा व्यञ्जन की उसी रूप में आवृत्ति होती है; पर अनुप्रास में किसी व्यञ्जन के समान श्रति वाले अन्य व्यञ्जन का भी विन्यास हो सकता है। यमक एवं पूनरुक्तवदाभास
यमक में समान शब्द की आवृत्ति होती है; पर आवृत्त शब्दों में अर्थ-भेद आवश्यक माना जाता है। पुनरुक्तवदाभास में आपाततः समानार्थक जान पड़ने वाले शब्दों में तत्त्वतः अर्थभेद रहा करता है। दोनों में मुख्य भेद यह है कि यमक में समान शब्द एकाधिक बार आता है जब कि पुनरुक्तवदाभास में भिन्न आकार वाले शब्द-जो पर्यायवाची-से लगते है; पर वस्तुतः उनके अर्थ भिन्न होते है-प्रयुक्त होते । अर्थान्तरन्यास और उदाहरण
पण्डितराज जगन्नाथ ने विशेष से सामान्य के समर्थन-रूप अर्थान्तरन्यास से उदाहरण का भेद बताते हुए कहा है कि उदाहरण में अवयवावयवी सम्बन्ध का बोध कराने वाले 'इव' आदि पदों का प्रयोग होता है, अर्थान्तरन्यास में ऐसा प्रयोग नहीं होता । दूसरी बात यह कि उदाहरण में सामान्य और विशेष का एक रूप विधेय से अन्वय होता है,जो अर्थान्तरन्यास में नहीं होता।' सामान्य अर्थ का समर्थक विशेष दो प्रकार का हो सकता है, एक वह जिसका केवल उद्देश्य अंश विशेष हो और विधेयांश सामान्यगत हो । ऐसा ही विशेष उदाहरण का रूप-विधान करता है। इसीलिए उदाहरण में सामान्य और विशेष का एक रूप विधेयान्वय अपेक्षित माना गया है। सामान्य के समर्थक विशेष का दूसरा प्रकार वह हो सकता है, जिसमें उद्देश्य और विधेय; दोनों विशेष हों। ऐसा ही विशेष अर्थान्तरन्यास में अपेक्षित होता है। २ इस प्रकार उदाहरण और अर्थान्तरन्यास के दो भेद स्पष्ट हैं१. अस्मिंश्चालङ्कारे (उदाहरणालङ्कारे) अवयवावयविभावबोधकस्येव
शब्दादेः प्रयोगः सामान्यविशेषयोरेकरूप विधेयान्वयश्चार्थान्तरन्यास
भेदावलक्षण्याधायकः...|-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ३४० २. सामान्यार्थसमर्थकस्य विशेषवाक्यार्थस्य द्वयी गतिः । अनुवाद्यांशमात्रे विशेषत्वं विधेयांशस्तु सामान्यगत एवेत्येका। अनुवाद्यविधेयोभयांशेऽपि विशेषत्वमित्यपरा। तत्राद्या उदाहरणालङ्कारस्य विषयः; द्वितीयात्वर्थान्तरन्यासभेदस्य । -वही, पृ० ७४६
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७४६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
(१) उदाहरण में सामान्य का समर्थन ऐसे विशेष से होता है, जिसका उद्देश्य अंश तो विशष होता है; पर विधेयांश समान्यगत होता है; किन्तु अर्थान्तरन्यास में सामान्य के समर्थक विशेष के उद्देश्य अंश तथा विधेय अंश दोनों विशेष होते हैं। दूसरे शब्दों में उदाहरण में सामान्य और विशेष का एक रूप विधेयान्वय होता है; पर अर्थान्तरन्यास में, ऐसा नहीं होता।
(२) उदाहरण में अवयवावयवी भाव के बोधक 'इव' आदि का उल्लेख होता है, अर्थान्तरन्यास में इवादि का उल्लेख नहीं होता। ' विमशिनीकार ने दोनों का भेद निरूपित करते हुए कहा था कि भर्थान्तरन्यास में विशेष से सामान्य का समर्थन इस उद्देश्य से किया जाता है कि उससे सामान्य वाक्यार्थ उपपन्न हो सके, पर उदाहरण में स्वतः उपपन्न सामान्य अर्थ का समर्थन उसकी प्रतीति के विशदीकरण के लिए किया जाता है । पण्डितराज जगन्नाथ ने उदाहरण के एक स्वीकृत उदाहरण में यह दिखाया है कि वहाँ सामान्य का समर्थन उस अर्थ के उपपादन के लिए ही किया गया है। अतः, सामान्य अर्थ का उपपादन अर्थान्तरन्यास का व्यवच्छेदक नहीं माना जा सकता। दोनों अलङ्कारों में भेद-निरूपण पूर्वोक्त दो आधारों पर ही होना चाहिए।' पण्डितराज की मान्यता उचित ही जान पड़ती है । रूपक और निदर्शना
पण्डितराज जगन्नाथ ने रूपक और निदर्शना का भेद निरूपित करते हुए यह मन्तव्य प्रकट किया है कि रूपक में उपमेय तथा उपमान; दोनों का उपादान होता है; पर निदर्शना में उपमेय का उपादान नहीं होता। निदर्शना साध्यवसाना लक्षणा पर आश्रित अलङ्कार है । रूपक में प्रकृत पर अप्रकृत का आरोप होता है पर निदर्शना में दोनों के बीच आर्थ अभेद रहता है जो आरोप और अध्यवसान से भी भिन्न होता है । शोभाकर ने यह शङ्का उठायी है कि यदि प्रकृत वाक्यार्थ पर अन्य वाक्यार्थ का समानाधिकरण से निर्देश निदर्शना है तो वाक्या रूपक से उसका क्या भेद होगा ?3 इसका समाधान यह है कि रूपक में सादृश्यमूला
१. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७५२ २. (रूपकलक्षणे) उपमेयतावच्छेदकपुरस्कारेण ति विशेषणादपह्न ति .... ___ निदर्शनानां निरासः । "अतिशयोक्तिनिदर्शनयोश्च साध्यवसानलक्ष.. णामूलकत्वादुपमेयतावच्छेदकस्य नास्ति पुरस्कारः ।
—वही, पृ० ३५४-५५ ३. द्रष्टव्य-शोभाकर, अलङ्काररत्नाकर, पृ० २१
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[७४७लक्षणा अभेद-प्रतीति का आधार होती है; पर निदर्शना में अभेद की अनुपपत्ति की प्रतीति से ही अभेद का प्रत्यायन होता है। अनुपपत्तिजन्य अभेद-प्रतीति को निदर्शना का तथा लक्षणामूलक अभेद को रूपक का व्यवच्छेदक मानकर उद्योतकार ने दोनों का भेद-निरूपण किया है।' रूपक और सन्देह
पण्डितराज ने रूपक-लक्षण में उपमेय और उपमान में आहार्य ताद्र प्य के निश्चय की चर्चा कर सन्देह से उसका भेद स्पष्ट कर दिया है । २ सन्देह में अनिश्चयात्मक ज्ञान रहता है, पर रूपक में आहार्य ताद्र प्य का निश्चयात्मक ज्ञान । भ्रान्तिमान और उल्लेख
भ्रान्तिमान् में किसी वस्तु को देख कर प्रमाता को उस वस्तु के समान अन्य वस्तु का निश्चयात्मक ज्ञान हो जाता है। उल्लेख का इस भ्रान्तिमान् से मुख्य भेद यह है कि उल्लेख में निमित्त-भेद से अनेक प्रमाता को एक ही वस्तु अनेक रूप में गृहीत होती है। प्रमाता की अनेकता तथा वस्तु के अनेकधा ग्रहण में निमित्त-भेद उल्लेख का व्यावर्तक है। पण्डितराज ने इसी आधार पर भ्रान्तिमान् से उल्लेख का व्यावर्तन किया है। 3 'अलङ्कारसर्वस्व' में भी अनेकधा ग्रहण के चमत्कार को उल्लेख का व्यवच्छेदक माना गया है।४
१. .."अतिशयोक्त: साध्यवसानलक्षणामूलकत्त्वात्तस्य (उपमेयस्य)
पुरस्काराभावात् । अतिशयोक्तिवत् निदर्शनायामपि नातिव्याप्तिः । शब्दादिति विशेषणात्"।-काव्यप्र० उद्योत, उद्धत, बालबोधिनी,
पृ० ५६३ २. उपरञ्जकतामहार्यताद्र प्यनिश्चयगोचरतामित्यनेन सन्देहोत्प्रक्षा.... भ्रान्तिमत्स्वतिव्याप्तिनिरासः । सन्देहोत्प्रक्षयोनिश्चयस्यैवाभावात्...
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ३५७-५८ ३. लक्षण, (भ्रान्तिमान्लक्षणे) चात्रैकत्वं विवक्षितमन्यथा वक्ष्यमाणाने
कग्रहीतृकानेकप्रकारकैकविशेष्यकभ्रान्तिसमुदायात्मन्युल्लेखेऽतिप्रसङ्गा --
पत्त: । अत एवैकवचनमपि सार्थकम् ।-वही, पृ० ४२२ ४. एवं तहि तत्र विषये भ्रान्तिमदलङ्कारोऽस्तु । अतद्र पस्य तद्र पताप्रतीतिनिबन्धनत्वात्। नतत्। अनेकधाग्रहणाख्यस्यातिशयस्यापूर्वस्य भावात् । तद्ध तुकत्वाच्चास्यालङ्कारस्य ।
"-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व पृ० ४६
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०४८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उत्प्रेक्षा और सम्भावना
पण्डितराज जगन्नाथ के अनुसार अन्य वस्तु में अन्य की सम्भावना ही उत्प्रेक्षा है। वस्तु में यदि उससे भिन्न वस्तु की सम्भावना न हो तो वह शुद्ध सम्भावना होगी; उत्प्रेक्षा नहीं। उत्प्रेक्षा में सम्भावना आहार्य होती है, अनाहार्य सम्भावना शुद्ध सम्भावना मात्र है ।' सम्भावना को कुछ आचार्यों ने स्वतन्त्र मलङ्कार माना है । वह उत्प्रेक्षा से भिन्न है । अप्पय्य दीक्षित ने सम्भावना अलङ्कार का जो लक्षण दिया है वह मम्मट आदि के यद्यर्थोक्त-कल्पन-रूप अतिशयोक्ति से अभिन्न है । अतः, उस सम्भावना की उत्प्रेक्षा से समता की 'किञ्चित् भी सम्भावना नहीं। दीपक आर मालादीपक
पण्डितराज जगन्नाथ की मान्यता है कि मालादीपक को दीपक का भेद 'मानने की भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए। मालादीपक स्वरूप की दृष्टि से दीपक की अपेक्षा एकावली के अधिक निकट है । उत्तर-उत्तर के प्रति पूर्व-पूर्व का उपकारक होना मालादीपक का लक्षण माना गया है, जो दीपक से मालादीपक का व्यावर्तन करता है। प्राचीन परम्परा के अनुरोध से ही जगन्नाथ ने दीपक के सन्दर्भ में मालादीपक का स्वरूप दिखाया है। 3 अप्पय्य दीक्षित के अनुसार दीपक और एकावली के स्वरूप का मिश्रण मालादीपक है। व्यतिरेक और प्रतीप
व्यतिरेक में उपमान और उपमेय के गुण का वैशिष्ट्य दिखाकर उससे उपमेय का उत्कर्ष प्रतिपादित किया जाता है। इस प्रकार उसमें उपमेय
१. .."सम्भावनायामतिप्रसङ्गवारणाय तद्भिन्नत्वेन प्रमितस्येति । सम्भा
वनायामाहार्यतां गमयति ।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ४५१। २. सम्भावना यदीत्थ स्यादित्यूहोऽन्यस्य सिद्धये ।-अप्पय्य, कुवलयानन्द १२६ । तथा—'यद्यर्थोक्तौ च कल्पनम्' अतिशयोक्तिभेद इति (१०.
१००) काव्यप्रकाशकारः ।-वही, वृत्ति पृ० १४६ ३. एतच्च (मालादीपकम्) प्राचामनुरोधादस्माभिरिहोदाहृतम्। वस्तुत
स्त्वेतद्दीपकमेव न शक्यं वक्त म् । सादृश्यसम्पर्काभावात् कित्वेकावली
प्रभेद इति वक्ष्यते । -जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ५१८ ४. दीपककावलीयोगान्मालादीपकमिष्यते ।-अप्पय्य दीक्षित,
कुवलयानन्द ,१०७
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[७४६. और उपमान के गुण का वैधर्म्य ही उपमान की अपेक्षा उपमेय के उत्कर्ष का साधक होता है। प्रतीप में उपमान की उपमेय के रूप में तथा उपमेय की उपमान के रूप में कल्पना कर उपमेय का उत्कर्ष-प्रतिपादन होता है; क्योंकि उपमान में अधिकगुणत्व की धारणा स्वीकृत है; और उपमेय को उपमान बना देने से उसका उत्कर्ष-साधन हो जाता है। इस प्रकार प्रतीप में साधर्म्य की ही प्रतीति रहती है। अतः, व्यतिरेक का वैधर्म्य और प्रतीप का साधर्म्य दोनों का प्रधान व्यावर्तक धर्म है। प्रतीप से भेद-प्रतिपादन के लिए ही पण्डितराज जगन्नाथ ने व्यतिरेक की परिभाषा में 'उपमान से उपमेय के गुणविशेषवत्त्वेन' उत्कर्ष प्रतिपादन का उल्लेख किया है।' व्यतिरेक और असम
व्यतिरेक और असम का भेद यह है कि व्यतिरेक में गुणवैशिष्ट्य से उपमेय का उपमान की अपेक्षा उत्कर्ष दिखाया जाता है; पर असम में उपमेय के समान किसी भी अन्य वस्तु का न होना दिखाया जाता है। इस प्रकार औपम्य के अभाव-मात्र का प्रतिपादन असम का तथा उपमान से उपमेय का उत्कर्ष-निरूपण व्यतिरेक का स्वरूप-विधान करता है। अप्रस्तुतप्रशंसा और प्रस्तुताङ कुर
समासोक्ति से प्रस्तुताङ्कर के भेद-निरूपण-क्रम में हमने देखा है कि समासोक्ति में प्रस्तुत अर्थ के वर्णन से अप्रस्तुत अर्थ की व्यञ्जना होती है; पर प्रस्तुताङ्क र में प्रस्तुत अर्थ के वर्णन से अन्य प्रस्तुत अर्थ की ही व्यञ्जना होती है। अप्रस्तुतप्रशंसा से प्रस्तुताङ्क र का मुख्य भेद यह है कि अप्रस्तुतप्रशंसा में अप्रस्तुत अर्थ के वर्णन से प्रस्तुत अर्थ की व्यञ्जना होती है, जबकि प्रस्तुताङ्कर में प्रस्तुत अर्थ के वर्णन से प्रस्तुत अर्थ ही व्यजित होता है । अप्रस्तुतप्रशंसा में अप्रस्तुत वाच्य और प्रस्तुत व्यङ्ग्य होता है; पर प्रस्तुताङ्कर में दोनों अर्थ प्रस्तुत होते हैं जिनमें से एक वाच्य और दूसरा व्यङग्य होता है। पण्डितराज जगन्नाथ ने अप्रस्तुतप्रशंसा तथा प्रस्तुताङ्कर को अलग-अलग अलङ्कार १. उपमानादुपमेयस्य गुणविशेषवत्त्वेनोत्कर्षों व्यतिरेकः । प्रतीपादिवारणाय
तृतीयान्तं वैधर्म्यपरम् । तत्र चोपमानतामात्रकृत एवोत्कार्षों न वैधर्म्यकृतः । साधार्म्यस्यैव प्रत्ययात् ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ५४."
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७५० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
मानने वाले मत का खण्डन किया है। उनकी युक्ति है कि एक अर्थ के वर्णन से अन्य की व्यञ्जना ही अप्रस्तुतप्रशंसा तथा प्रस्तुताङ्कर-दोनों का सौन्दर्य है। अतः, एक अर्थ के अप्रस्तुत तथा अन्य के प्रस्तुत होने और दोनों के प्रस्तुत होने के आधार पर दो स्वतन्त्र अलङ्कारों की कल्पना आवश्यक नहीं।' हम यह देख चुके हैं कि बहुत सूक्ष्म भेद के आधार पर अलग-अलग अलङ्कारों की कल्पना की प्रवृत्ति परवर्ती आचार्यों में रही है। यदि सूक्ष्म भेद से स्वतन्त्र अलङ्कारों की कल्पना स्वीकार्य हो तो प्रस्तुताङ्कर की स्वतन्त्र सत्ता के निषेध का कोई कारण नहीं। समासोक्ति, अप्रस्तुतप्रशंसा और प्रस्तुताङ्क र में समान रूप से एक अर्थ के वर्णन से अन्यार्थ की व्यञ्जना का चमत्कार रहने पर भी भेद यह है कि समासोक्ति में वाच्य अर्थ प्रस्तुत और व्यङग्य अर्थ अप्रस्तुत होता है, इसके विपरीत अप्रस्तुतप्रशंसा में वाच्य अप्रस्तुत और व्यङग्य प्रस्तुत होता है; पर प्रस्तुताङ्कर में वाच्य और व्यङ ग्य; दोनों ही अर्थ प्रस्तुत होते हैं । रूपक और विरोधाभास
पण्डितराज जगन्नाथ ने यह शङ्का उठायी है कि रूपक में प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का आरोप किया जाता है। विचार करने से ऐसा लगता है कि किसी वस्तु पर अन्य का आरोप करना विरोध ही होगा। 'मुख-चन्द्र' कथन मुख और चन्द्र के विरोध का बोधक तो होगा ही। अतः, रूपक को विरोध का ही अङ्ग क्यों न माना जाय ? इस शङ्का का समाधान पण्डितराज ने यह कहकर किया है कि उक्ति का चमत्कार-विशेष ही अलङ्कार-विशेष का अलङ्कारत्व होता है-यह सर्वमान्य सिद्धान्त है। किसी उक्ति में सहृदय के हृदय को आह्लादित करने वाले चमत्कार के आधार पर ही अलङ्कारत्व का निर्णय होता है। रूपक की उक्तियों में मुख्य चमत्कार उपमेय तथा उपमान के विरोध में नहीं रहता; वह रहता है उपमेय में उपमान के सभी धर्मों की प्रतिपत्ति में । रूपक की योजना में कवि इस उद्देश्य से प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का आरोप करता है कि दोनों के अभेद-प्रतिपादन से उपमाननिष्ठ धर्म की प्रतिपत्ति उपमेय में भी हो जाय ! प्रातिभासिक विरोधमात्र
१. एतेन द्वयोः प्रस्तुतत्वे प्रस्तुताङ्क रनामाऽन्योलङ्कार इति कुवलयानन्दा
द्य क्तमुपेक्षणीयम्। किंचि_ लक्षण्यमात्रेण वालङ्कारान्तरताकल्पने - वाग्भङ्गीनामानन्त्यादलङ्कारानन्त्यप्रसङ्ग इत्यसकृदावेदितत्वात् ।
--जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ६४५-४६
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[७५१
दिखाने में जो चमत्कार रहता है, उससे प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का आरोप कर प्रस्तुत में अप्रस्तुतनिष्ठ धर्म की प्रतिपत्ति का चमत्कार भिन्न होता है। अतः, विरोध से रूपक भिन्न अलङ्कार है।' पण्डितराज की यह युक्ति उचित ही है। विचित्र और विषम _ विचित्र में अभीष्ट अर्थ की सिद्धि के लिए इष्ट-विपरीत आचरण का वर्णन होता है। 'उन्नति पाने के लिए किसी के आगे झुकने' आदि का वर्णन इष्टसिद्ध्यर्थ इष्ट-विपरीत आचरण का उदाहरण है। जगन्नाथ ने एक शङ्का की सम्भावना कर उसका समाधान किया है। यह शङ्का की जा सकती है कि 'अननुरूप का सङ्घटन' विषम कहलाता है। विचित्र में भी कारण के अननुरूप कार्य का वर्णन होता है, फिर विचित्र को विषम का ही अङ्ग क्यों न मान लिया जाय? इस शङ्का का समाधान कठिन नहीं। विचित्र का सौन्दर्य इष्टविपरीत कार्य में व्यक्ति के प्रवृत्त होने में है, जबकि विषम में अननुरूप कार्यकारण आदि की घटना में चमत्कार रहता है। व्यक्ति के आचारण से सापेक्ष
और निरपेक्ष होने के आधार पर विचित्र और विषम का भेद स्पष्ट है।' विशेष और प्रहर्षण
विशेष के तीन रूप स्वीकृत है-(१) प्रसिद्ध आधार के अभाव में भी आधेय की स्थिति का वर्णन, (२) एक आधार में रहने वाले एक आधेय की एक ही समय अनेक आधारों में स्थिति का वर्णन तथा (३) किसी कार्य को करते हुए अन्य असम्भावित एवं अशक्य कार्य का सम्पादन कर देने का वर्णन । _ विशेष के तृतीय भेद से प्रहर्षण का भेद यह है कि प्रहर्षण के एक भेद में वाञ्छित से अधिक अर्थ की प्राप्ति का वर्णन होता है; पर विशेष के तीसरे भेद में अशक्य कार्य के अनायास सम्पन्न कर लेने का वर्णन होता है । जगन्नाथ की मान्यता है कि विशेष में अशक्य कार्य का सम्पादनः आरब्ध कार्य के साथ अभेदाध्यवसान के रूप में दिखाया जाता है; पर प्रहर्षण में वाञ्छित फल के
१. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ६८२ २. न च कारणाननुरूपं कार्यमिति विषमभेदोऽयं (विचित्रम्) वाच्यः, विषमे पुरुषकृतेरपेक्षणात् । कार्यकारणगुणवैलक्षण्येनैव तद्भदनिरूपणाच्च ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७१६
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७५२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अतिरिक्त फल की भी अवान्तर सिद्धि का वर्णन होता है। इस प्रकार अशक्य कार्य का साधन विशेष का व्यावर्तक है।' विशेष और विषम
इष्ट साधन करते हुए अनायास अनिष्ट की सिद्धि विषम का एक रूप है । किसी कार्य को करते हुए अन्य अशक्य कार्य को सिद्ध कर देना विशेष का लक्षण है। उक्त विषम-प्रकार से विशेष के इस प्रकार का प्रधान व्यावर्तक अशक्य कार्य-साधन ही है। इसी आधार पर पण्डितराज जगन्नाथ ने दोनों का भेद-निरूपण किया है। विशेष और अतिशयोक्ति
अतिशयोक्ति में विषय का विषयी से निगरण होता है; पर विशेष में विषय का निगरण नह होता । अशक्य कार्य-सम्पादन विशेष के तृतीय भेदः का व्यवच्छेदक है। विशेष और रूपक
प्राचीन आचार्यों ने रूपक से विशेष का भेद इस आधार पर किया है कि विशेष में रूपक की तरह विषय और विषयी का सामानाधिकरण्य-रहित आरोप नहीं होता। विशेष का अशक्य कार्य-साधन भी व्यवच्छेदक है । विशेष और स्मरण
विशेष में एक कार्य को करते हुए किसी अशक्य कार्य के सम्पादन का वर्णन होता है; पर स्मृति में एक वस्तु के ज्ञान से अन्य की स्मृति हो आने का वर्णन होता है । अतः, विशेष का तृतीय भेद स्मरण से स्वतन्त्र है। ५
.. १. अत्र (विशेषालङ्कारें) चाशक्यवस्स्वन्तरनिवर्तने तदभेदाध्यवसाननिबन्ध-.
नत्वं विशेषणम् । . -जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७२५, २. द्रष्टव्य-वही, पृ० ७२५ ३. वही, पृ० ७२६ ४. नापि रूपकेण ( विशेषस्य गतार्थत्वम् ) विषयविषयिणोः सामानाधि
करण्यविरहेणारोपासिद्ध: । "तस्मादशक्यवस्वन्तरकरणं विशेषालङ्कारस्यैव प्रभेद इति प्राचामाशयः।
-वही, पृ० ७२६ ५. न च स्मृत्या ( विशेषभेदस्य गतार्थत्वम् )। कालानलस्य वीक्षण
कर्मत्वश्रवणेन स्मृतित्वासिद्धः। तस्मादशक्यवस्त्वन्तरकरणं विशेषा-- लङ्कारस्यैव प्रभेद इति प्राचामाशयः । -वही, पृ० ७२६
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ७५३
सार और वर्धमानक
शोभाकर ने सार से वर्धमानक की स्वतन्त्र सत्ता मानी है। रूप और धर्म से एक की अपेक्षा दूसरे का आधिक्य दिखाना वर्धमानक का लक्षण माना गया है। इस प्रकार शोभाकर के अनुसार दोनों में थोड़ा-सा भेद यह होगा कि सार में जहाँ उत्तर-उत्तर का परावधि उत्कर्ष दिखाने से उत्कर्ष की एक शृङ्खला-सी बन जाती है, वहाँ वर्धमानक में उत्तरवर्ती का उत्कर्ष-मात्र दिखाना पर्याप्त माना जाता है, उसकी शृङ्खला आवश्यक नहीं। पण्डितराज जगन्नाथ की मान्यता है कि सार का भी सौन्दर्य उत्तरोत्तर उत्कर्ष-वर्णन में ही है, केवल शृङ्खला में नहीं। केवल शृङ्खला का सौन्दर्य, कारणमाला आदि का विषय है। अतः, उनकी दृष्टि में दोनों अलङ्कारों का सौन्दर्य अभिन्न है।' उद्योतकार ने वर्धमानक की स्वतन्त्र सत्ता की कल्पना अनावश्यक मानी है। उनकी युक्ति है कि उत्कर्ष की अन्तिम सीमा तक उत्तरोत्तर का उत्कर्ष-वर्णन और रूप-गुण से पूर्ववर्ती की अपेक्षा परवर्ती का आधिक्य-वर्णन तत्त्वतः भिन्न नहीं है । अतः, वर्धमानक भी सार में ही अन्तर्भूत माना जाना चाहिए । २ वस्तुतः, दोनों का भेद नगण्य है। इतने थोड़े भेद के आधार पर नवीन अलङ्कार की कल्पना के पीछे प्राचार्य शोभाकर का मौलिकता-प्रदर्शन का मोह ही है। ऐसे मोह के लिए केवल शोभाकर ही दोषौ नहीं, परवर्ती काल के अनेक आचार्यों में ऐसा कल्पना-विलास देखा जा सकता है ।
सार और पर्याय
पर्याय में एक आधार में क्रम से अनेक वस्तुओं की स्थिति का वर्णन होता है; पर सार में अनेक वस्तुओं में क्रमिक उत्कर्ष-पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर के उत्कर्ष का वर्णन होता है। अतः दोनों का स्वरूप परस्पर भिन्न है।'
१. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७३८ २. एतेनेदृशे विषये वर्धमानालङ्कारोऽतिरिक्तः इति ( रत्नाकराध क्तम् ) __ अपास्तम् ।-काव्यप्रकाश, उद्योत, उद्ध त बालबोधिनी, पृ० ७१३ ३. यदि च वक्ष्यमाण एकाश्रये क्रमेणानेकाधेयस्थितिरूपः पर्यायोऽत्र प्रतीयते
तदा सोऽप्यस्तु तर्हि तेन पूर्वपूर्वापेक्षयोत्तरोत्कर्षरूपः सारोऽन्यथासिद्धः शक्यः कर्तुम् ।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर पृ० ७३७-८
४८
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७५४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण विकल्प और समुच्चय __ दो वस्तुओं में विकल्प-दशा होने पर उनमें औपम्य की कल्पना विकल्प अलङ्कार है। विकल्प में तुल्यबल से परस्पर विरुद्ध वस्तुओं की उपस्थिति होती है। विरुद्ध वस्तुओं की युगपत् ( एक ही समय ) प्राप्ति असम्भव होने से एक का चुनाव करना पड़ता है। समुच्चय विकल्प का विपरीतधर्मा अलङ्कार है। समुच्चय में युगपत् पदार्थों का अन्वय होता है। विकल्प में युगपत् पदार्थों की स्थिति असम्भव होने तथा समुच्चय में युगपत् पदार्थों का अन्वय होने के कारण अलङ्कार सर्वस्वकार तथा पण्डितराज जगन्नाथ ने विकल्प को समुच्चय का प्रतिपक्षी कहा है। ललित और निदर्शना
ललित में प्रकृत व्यवहार का उल्लेख न कर उसके प्रतिबिम्बभूत किसी अप्रकृत वृत्तान्त का वर्णन किया जाता है। दण्डी, मम्मट आदि इसे आर्थी निदर्शना से अभिन्न मानते थे।२ अप्पय्य दीक्षित ने ललित को स्वतन्त्र अलङ्कार मानकर निदर्शना से उसका यह भेद माना है कि निदर्शना में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत वृत्तान्तों का शब्दतः उपादान कर दोनों में ऐक्य का आरोप होता है; पर ललित में प्रकृत वृत्तान्त का शब्दतः उपादान नहीं होता। 3 पण्डितराज जगन्नाथ ने भी इसी आधार पर निदर्शना से ललित का भेद करने के लिए ललित के लक्षण में 'प्रकृतव्यवहारानुल्लेखेन' पद का उल्लेख किया है । निदर्शना में प्रकृत तथा अप्रकृत वृत्तान्तों का उल्लेख तथा ललित में केवल अप्रकृत वृत्तान्त का उल्लेख दोनों का विशेषाधायक है। १. तस्मात् समुच्चयप्रतिपक्षभूतो विकल्पाख्योऽलङ्कारः ।
-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १९८ तथा अयं ( विकल्पः ) च समुच्चयस्य प्रतिपक्षभूतो व्यतिरेक इवोपमायाः ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७७३ २. नेदं ( ललितम्) पृथगलङ्कारान्तरम्, किं तु आर्थी निदर्शनेति दण्डी
मम्मटादयः । -कुवलयानन्द अलङ्कारञ्चन्द्रिका, टीका पृ०१४७ ३. नापि ( ललितम् ) निदर्शना, प्रस्तुताप्रस्तुतवृत्तान्तयोः शब्दोपात्तयोरैक्यसमारोप एव तस्याः समुन्मेषात् ।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द वृत्ति, पृ० १४७ ४. निदर्शनावारणाय तृतीयान्तम् । अत्र प्रकृते मिणिविषयमनुक्त्वैव.. अप्रकृत व्यवहारो विषय्युपात्तः । विषयोपादाने तु निदर्शनैव ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७६२
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ७५५
ललित और अप्रस्तुतप्रशंसा
ललित में प्रस्तुत धर्मी के वृत्तान्त का साक्षात् वर्णन कर उसके प्रतिबिम्ब रूप में किसी अप्रस्तुत वृत्तान्त का वर्णन किया जाता है । अतः, ललित में धर्मी प्रस्तुत ही रहता है । यही उसका अप्रस्तुतप्रशंसा से व्यावर्तक है । अप्रस्तुतप्रशंसा में अप्रस्तुत धर्मी का वर्णन किया जाता है और उससे प्रस्तुत की व्यञ्जना होती है । अप्पय्य दीक्षित तथा जगन्नाथ ने प्रस्तुत धर्मी का होना ही ललित का व्यवच्छेदक माना है ।
ललित और समासोक्ति
अप्पय्य दीक्षित ने ललित और समासोक्ति का भेद बताते हुए कहा है कि समासोक्ति में प्रस्तुत वृत्तान्त का वर्णन होता है और उससे अप्रस्तुत वृत्तान्त की स्फूर्ति होती है, पर ललित में प्रस्तुत वृत्तान्त का वर्णन नहीं किया जाता । इसमें अप्रस्तुत वृत्तान्त से ही प्रस्तुत वृत्तान्त गम्य होता है ।
ललित और अतिशयोक्ति
ललित में प्रस्तुत वृत्तान्त का उल्लेख न कर केवल अप्रस्तुत वृत्तान्त का उल्लेख किया जाता है । यह प्रश्न हो सकता है कि विषय का उपादान न कर केवल विषय के उपादान से अभेदाध्यवसान-रूप अतिशयोक्ति से ललित को अभिन्न क्यों न माना जाय ? अप्पय्य दीक्षित तथा पण्डितराज जगन्नाथ ऐसे प्रश्न की सम्भावना से अवगत थे । अतः, उन्होंने भेद में अभेद-रूप अतिशयोक्ति से ललित का भेद-निरूपण किया है । जगन्नाथ की यह तर्कपुष्ट मान्यता है कि अतिशयोक्ति में किसी विशेष अन्य पदार्थ का ही अन्य पदार्थ से अभेदाध्यवसान होता है, पर ललित का वैशिष्ट्य यह है कि उसमें एक धर्मी के व्यवहार से अन्य के व्यवहार का अभेदाध्यवसान होता है । इस प्रकार पदार्थ का
१. नेयम प्रस्तुप्रशंसा, प्रस्तुतधर्मिकत्वात् ।
- अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, पृ० १४७ तथा अप्रस्तुतप्रशंसावारणाय प्रकृतधर्मिणीति ।
- जगन्नाथ, रसगङ्गा० पृ० ७६२ २. नापि ( ललितम् ) समासोक्तिः, प्रस्तुतवृत्तान्ते वर्ण्यमाने विशेषणासाधारण्येन सारूप्येण वाऽप्रस्तुतवृत्तान्तस्फूर्त्य भावात् ।
- अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द वृत्ति, पृ० १४७
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७५६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अभेदाध्यवसान अतिशयोक्ति का और व्यवहार का अभेदाध्यवसान ललित का विशिष्ट लक्षण है । '
प्रत्यनीक और हेतूत्प्रेक्षा
प्रत्यनीक में प्रतिपक्षी के सम्बन्धी का तिरस्कार होता है। हेतूत्प्रक्षा की तरह प्रत्यनीक में भी हेतु का अंश सम्भावित होता है; पर हेतुत्प्रेक्षा से प्रत्यनीक का वैशिष्ट्य इस बात में है कि उसमें प्रतिपक्षी का साक्षात् बाधन न दिखाकर ' तत्सम्बन्धिबाधन' दिखाया जाता है और इस प्रकार प्रतिपक्षी के सम्बन्धी के बाधन से प्रतिपक्षी का बाधान भी सिद्ध हो जाता है । इस प्रकार क्षा से प्रत्यनीक को स्वतन्त्र अलङ्कार प्रमाणित किया गया है । अवज्ञा और
अतद्गुण
अवज्ञा उल्लास का प्रतिपक्षी है और अतद्गुण तद्गुण का तार्किक पद्धति पर जगन्नाथ का कहना है कि प्रतियोगी के भेद से इन दोनों अलङ्कारों का पारस्परिक भेद सिद्ध ही है । 3 दोनों की प्रकृति की तुलना से दोनों का पृथक्-पृथक सौन्दर्य स्पष्ट हो जाता है कि अतद्गुण में वस्तुविशेष का अपने गुण का त्याग तथा अन्य के गुण का ग्रहण न करना वर्णित होता है, पर अवज्ञा में अन्य के गुण-दोष से अन्य में गुण-दोष का आधान न होने का वर्णन होता है । दूसरे शब्दों में, अतद्गुण में दूसरे के गुण-दोष का अग्रहण दिखाया जाता है तो अवज्ञा
दूसरे के गुण-दोष से भी दूसरे व्यक्ति में गुण-दोष का अनाविष्कृत होना वर्णित होता है । एक में अन्य के गुण के ग्रहण का अभाव है तो दूसरे में अन्य के गुण से प्रभावित रहने के कारण वैसे ही आत्म-गुण के आविष्कार का अभाव । अवज्ञा और विशेषोक्ति
अवज्ञा और विशेषोक्ति को कुछ आचार्यों ने अभिन्न मान लिया है, कारण यह है कि विशेषोक्ति की तरह अवज्ञा में भी (एक के गुण-दोष से दूसरे में गुण
१. न चात्र (ललिते) भेदेऽप्यभेद इत्यतिशयोक्त्या गतार्थतेति वाच्यम् । तत्र हि पदार्थेन पदार्थस्यैवाभेदाध्यवसानं न तु व्यवहारेण व्यवहारविषय एवायमतिशयोक्त े: । - जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७६३ इस सन्दर्भ में कुवलयानन्द, पृ० १४७ - ४६ भी द्रष्टव्य ।
२. द्रष्टव्य – जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७८३-८४
३. न चायं ( अतद्गुणः ) अवज्ञाया नातिरिच्यते । उल्लासविपर्ययोह्यवज्ञा तद्गुणविपर्ययश्चातद्गुण इति प्रतियोगिभेदादेव भेदस्य सिद्ध: ।
- वही, पृ० ८१३
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद [७५७ दोष के आविष्कार का) हेतु रहने पर फलाभाव दिखाया जाता है। यह मान्यता उचित नहीं । अतद्गुण और विशेषोक्ति में भी ऐसी समता के रहते हुए दोनों के विशिष्ट चमत्कार के आधार पर दोनों की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की गयी है । अवज्ञा का विशिष्ट चमत्कार एक के गुण-दोष से अन्य में गुण-दोष के अविष्कार का अभाव दिखाने में है और विशेषोक्ति का कारण के रहते कार्योत्पत्ति का अभाव दिखाने में। अतः, दोनों में एक दूसरे से स्वतन्त्र सौन्दर्य है। उल्लास और तद्गुण
उल्लास और तद्गुण के प्रतियोगी अवज्ञा और अतद्गुण के भेद पर विचार किया जा चुका है। उल्लास में भी अन्य के गुण से अन्य में गुणाधान होता है और तद्गुण में भी अन्य के गुण का अन्य के द्वारा ग्रहण होता है; पर दोनों की प्रक्रिया अलग-अलग है। उल्लास में अन्य के गुण से वस्तुविशेष के अपने ही गुण का आविष्कार होता है; पर तद्गुण में विशेष वस्तु अपने गुण का त्याग कर अन्य वस्तु के उत्कृष्ट गुण को ग्रहण करती है । पण्डितराज जगन्नाथ ने एक उदाहरण से दोनों का भेद स्पष्ट किया है। जैसे हल्दी का अपना रंग ही लाल चूर्ण आदि के रंग के सम्पर्क से लाली ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार उल्लास में किसी वस्तु का अपना ही गुण अन्य वस्तु के गुण के सम्पर्क से विशेष रूप में आविष्कृत हो जाता है। तद्गुण में गुण-ग्रहण की प्रक्रिया इससे भिन्न होती है। जैसे जपा के लाल फूल की लाली से उज्ज्वल स्फटिक लाल हो जाता है वैसे ही किसी वस्तु का अपने गुण को त्याग कर अन्य के गुण को ग्रहण कर लेना तद्गुण है ।२ अन्य के गुण के अन्य में आधान की प्रक्रिया के उक्त भेद के आधार पर उल्लास और तद्गुण का भेद स्पष्ट है। लेश और व्याजस्तुति
लेश में गुण का दोष के रूप में तथा दोष का गुण के रूप में वर्णन किया जाता है । व्याजस्तुति का लेश से मुख्य भेद यह है कि व्याजस्तुति में निन्दा १. विशेषोक्त्यैवगतार्थत्वादवज्ञानालङ्कारान्तरमित्यपि वदन्ति ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ८०७ २. यद्यप्युल्लासेऽप्यन्यदीयगुणेनान्यस्य गुणाधानमस्ति तथापि तत्रान्यदीय
गुणप्रयुक्त गुणान्तरं चूर्णादिक्षारताप्रयुक्त हरिद्रादेः शोणत्वमिवाधीयते प्रकृते (तद्गुणे) तु जपाकुसुमलौहित्यं स्फटिक इवान्यदीयगुणएवान्योति ततोऽस्य भेदः ।-वही, पृ० ८१२-१३
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७५८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
का कथन स्तुतिमुखेन और स्तुति का कथन निन्दामुखेन होता है। लेश में स्तुतिमुखेन या निन्दामुखेन निन्दा-स्तुति का कथन नहीं होता, उसमें केवल गुण को अनिष्टसाधन बताकर दोष के रूप में और इसके विपरीत दोष को इष्टसाधन बताकर गुण के रूप में ग्रहण किया जाता है । पण्डितराज जगन्नाथ ने निन्दास्तुतिमुखेन विपरीतार्थ-प्रतिपादन को व्याजस्तुति का व्यवच्छेदक माना है।' दीपक और सहोक्ति
दीपक में भी अनेक पदार्थों का एक क्रिया से सम्बन्ध दिखाया जाता हैं और सहोक्ति में भी दो पदार्थों की क्रियाओं का समान पद से उल्लेख किया जाता है; पर दोनों में भेद यह है कि दीपक में क्रिया एक पद के साथ अन्वित होकर जब विश्रान्त हो लेती है तब दूसरे पद के साथ अन्वित होती है, जबकि सहोक्ति में दो वस्तुओं से सम्बद्ध क्रिया एक ही समय दोनों पदार्थों से अन्वित होकर दोनों का अर्थ-बोध कराती है। उद्भट ने इसीलिए सहोक्ति की परिभाषा में इस तथ्य पर बल दिया है कि उसमें एक ही साथ वस्तुद्वयसमाश्रित क्रियाएं एक ही पद से कथित होती हैं। विवृतिकार तिलक ने युगपत् या तुल्यकाल शब्द के उल्लेख की सार्थकता दीपक से सहोक्ति के विषय-विभाग में ही मानी है ।२ तात्पर्य यह कि दीपक में अनेक वस्तुओं की एक ही क्रिया का प्रयोग होता है; पर उसमें अर्थ-बोध की प्रक्रिया यह होती है कि पाठक एक-एक पद से उस क्रिया का अन्वय कर क्रम से प्रत्येक पद का अर्थ समझता है। पर, सहोक्ति में सहार्थ-वाचक पद से एक वस्तु को गौण और दूसरी वस्तु को प्रधान बनाकर एक ही समय समान क्रिया से दोनों का अन्वय होता है। निदर्शना और अतिशयोक्ति
'काव्यालङ्कारसारसङग्रह' में निदर्शना के एक उदाहरणको दृष्टि में रख कर यह प्रश्न उठाया गया है कि निदर्शना में भी दो वाक्यार्थों का पर्यवसान अभेद में होता है; अर्थात् जब दो वाक्यार्थों के सम्भव या असम्भव सम्बन्ध में परस्पर उपमानोपमेय-भाव की कल्पना कर ली जाती है तब वास्तविक भेद में भी अभेद स्वीकार किया जाता है, फिर ऐसी निदर्शना को भेद में अभेद प्रकल्पन
१. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ८१०-११ २. न चात्र दीपकतेत्याह तुल्येति । तत्र हि एकविश्रान्तक्रियानुषङ्गे
णोपकारकसम्बन्धमेति । इह ( सहोक्त्यलङ्कारे ) तु युगपदुभयगतत्वेन प्रतिपाद्यते।-उद्भट, काव्यालङ्कारसारसं० विवृति, पृ० ४७-४८
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ७५ε
रूप अतिशयोक्ति से स्वतन्त्र मानने में क्या युक्ति है ? विवृतिकार का समाधान यह है कि निदर्शना में दो वाक्यार्थों में एक ही गुण रहता है । अतः, उसमें एक ही गुण के अभेद की कल्पना की जाती है, जबकि भेद में अभेद-रूप अतिशयोक्ति में स्वरूपतः भिन्न वस्तुओं का अभेदाध्यवसान होता है । निदर्शना में दो वाक्यार्थों का गुण, जिसका अभेदाध्यवसान होता है, वस्तुतः अभिन्न ही रहता है; केवल अपने सम्बन्धी दो वाक्यार्थों के भेद से ही वह भिन्न जान पड़ता है । इस प्रकार निदर्शना में गुण का अभेदाध्यवसान अतिशयोक्ति के अभेदाध्यवसान से — स्वरूपतः भिन्न पदार्थों के अभेदाध्यवसान से - भिन्न प्रकृति का है । अतः, दोनों अलङ्कारों की सत्ता परस्पर स्वतन्त्र है ।' पण्डितराज जगन्नाथ ने अतिशयोक्ति से निदर्शना का भेद स्पष्ट करने के लिए निदर्शना के लक्षण में इस तथ्य पर बल दिया है कि निदर्शना में जिन दो अर्थों में औपम्यपर्यवसायी आथ अभेद दिखाया जाता है, उन दोनों का उपादान होता है । इस प्रकार अतिशयोक्ति से - जिसमें विषय का निगरणपूर्वक अध्यवसान दिखाया जाता है - निदर्शना का भेद स्पष्ट हो जाता है । २
प्रतिवस्तूपमा और तुल्ययोगिता
आचार्य रुय्यक के अनुसार इन दो अलङ्कारों में मुख्य भेद यह है कि प्रतिवस्तूपमा में साधारण धर्म का वस्तुप्रतिवस्तुभाव से असकृत् ( अनेक बार ) उल्लेख होता है; पर तुल्ययोगिता में सकृत् निर्देश | 3
१. ननु भिन्नयोविशोभतयोरैक्यमध्यवसितमिति भेदे अभेद इत्येवमात्मकेयमतिशयोक्तिः । विशोभिताख्यो गुण एकः । न तु स्वरूपभिन्नः । सम्बन्धिभेदात् भिद्यते । स्वरूपभिन्नयोरैक्येऽतिशयोक्तिः ।
—उद्भट काव्यालङ्कार सारसङग्रह, विवृति, पृ० ४५ २. उपात्तयोरार्थाभेद औपम्यपर्यवसायी निदर्शना । अतिशयोक्त्यादीनां वारणायोपात्तयोरिति ।
—जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ५३६, ३. वाक्यार्थगतत्वेन सामान्यस्यवाक्यद्वये पृथङ निर्देशे प्रतिवस्तूपमा । ....इवाद्यनुपादाने सकृन्निर्देशे दीपकतुल्ययोगिते ।
— रुय्यक, अलङ्कारसू०, २५ तथा अलङ्कारसर्वस्व, पृ० ७७
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७६० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उपमा और दीपक
'अलङ्कारसर्वस्व' में उपमा और दीपक के भेदक तत्त्व का निर्देश किया गया है। उपमा में 'इव' आदि सादृश्य वाचक पद का उपादान होता है; पर दीपक में 'इव' आदि वाचक पद का उपादान नहीं होता।' उपमा और तुल्ययोगिता
अलङ्कारसर्वस्वकार ने जिस आधार पर उपमा और दीपक का भेदनिरूपण किया है, उसी आधार पर उपमा और तुल्ययोगिता का भी भेद दिखाया है। उपमा में इवादि का उपादान होता है; पर तुल्ययोगिता में इवादि का उपादान नहीं होता। अप्रस्तुतप्रशंसा और दृष्टान्त ___ अप्रस्तुतप्रशंसा में अप्रस्तुत वाच्य और प्रस्तुत गम्य होता है; पर दृष्टान्त में समान धर्म वाली दो वस्तुएँ बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव से प्रस्तुत की जाती है, इसलिए दोनों ही वाच्य रहती हैं। एक अर्थ का-अप्रस्तुत अर्थ का-वाच्य तथा एक अर्थ का-प्रस्तुत अर्थ का गम्य होना अप्रस्तुतप्रशंसा को दृष्टान्त से-जिसमें दोनों अर्थ वाच्य रहते हैं-अलग करता है। इसी आधार पर 'अलङ्कारसर्वस्व' में दोनों का भेद किया गया है । विरोधाभास और विशेषोक्ति
विभावना की तरह विशेषोक्ति में भी कारण और कार्य में अन्योन्यबाधकता नहीं रहती, जो विरोधाभास से उसका वैशिष्ट्य प्रतिपादित करती है। विशेषोक्ति में कारण तथा कार्य की परस्पर बाधकता के अभाव का तात्पर्य यह है कि उसमें फलोत्पत्ति का अभाव परिमाणतः कारण की सत्ता की बाधा ही प्रमाणित करती है। यद्यपि विशेषोक्ति में समग्र कारण के रहने पर भा
१. तत्र सामान्यधर्मस्येवाद्य पादाने सकृन्निर्देशे उपमा।......"इवाद्यनुपादाने सकृन्निर्देशे दीपकतुल्ययोगिते ।
-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० ७७ २. उपरिवत् । ३. सरूपयोस्तु वाच्यत्वे दृष्टान्तः । अप्रस्तुतस्य वाच्यत्वे प्रस्तुतस्य गम्यत्वे
सर्वत्राप्रस्तुतप्रशंसेति निर्णयः । -वही पृ० १३०
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[७६१
कार्याभाव का वर्णन होता है; पर विचार करने पर वस्तुतः कार्याभाव से कारण की समग्रता ही बाधित होती है। प्रत्यक्षतः समग्र कारण की सत्ता का कथन होने पर भी कार्योत्पत्ति का अभाव प्रकारान्तर से कारण की बाधा प्रतीत कराता है । अतः, विशेषोक्ति में तत्त्वतः कारण-मात्र की सत्ता की बाधा रहती है, जबकि विरोधाभास में दो वस्तुओं में प्रातिभासिक विरोध दिखाये जाने से दोनों पदार्थों में अन्योन्यबाधकता रहती है । निष्कर्षतः, विरोधाभास में दो वस्तुओं में प्रातिभासिक विरोध तथा तात्त्विक अविरोध रहता है। उसमें अन्योन्यबाधकता अनुप्राणक रहती है, जबकि विशेषोक्ति में एक ही अर्थ की बाधा रहती है, अन्योन्यबाधकता नहीं।' यही दोनों का मुख्य भेद है। अपह नुति और सामान्य
अपह्नति में एक वस्तु का निषेध तथा दूसरी वस्तु का स्थापन होता है; 'पर सामान्य में दो वस्तुओं के विशेष का बोध न होने में सामान्य की प्रतीति होती है। अलङ्कारसर्वस्वकार ने एक के निषेध तथा दूसरे की स्थापना को अपह्नति का व्यावर्तक माना है और इसी आधार पर सामान्य तथा अपह्नति का भेद-निरूपण किया है। भाविक और भ्रान्तिमान्
भाविक में भूत और भावी अर्थ का प्रत्यक्ष रूप में वर्णन होता है। अलङ्कारसर्वस्वकार ने कहा है कि इसे भ्रान्तिमान् से अभिन्न समझने की भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए; क्योंकि भाविक में भूत और भावी अर्थ का भूत और भावी अर्थ के रूप में ही उसके यथार्थ रूप में ही ज्ञान होता है, जबकि भ्रान्तिमान में किसी वस्तु का उससे भिन्न वस्तु के रूप में-अयथार्थ रूप मेंज्ञान होता है।
१. अन्योन्यन्यबाधकत्वानुप्राणिताद् विरोधालङ्काराद्भेदः । ..."विशेषोक्तौ कार्याभावेन कारणसत्ताया एव बाध्यमानत्वमुन्नेयम् ।
-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १५२ २. न चेदम् ( सामान्यम् ) अपह्न तिः । किञ्चिन्निषिध्य कस्यचिप्रतिष्ठा
पनात् ।-वही, पृ० २१० ३. न चेदं (भाविक) भ्रान्तिमान् । भूतभाविनो भूतभावितयैव प्रकाश
नात् ।—वही, पृ० २१०
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७६२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण भाविक और अतिशयोक्ति
'अलङ्कारसर्वस्व' में यह तथ्य स्पष्ट किया गया है कि भाविक को भतिशयोक्ति में अन्तभुक्त नहीं माना जा सकता। अतिशयोक्ति में अन्य अर्थ का भन्य रूप में अध्यवसान-विषय का निगरण कर विषरी के साथ अभेदप्रतीति-होता है; पर भाविक में भूत, आदि अर्थ का अभूत आदि अर्थ के रूप में अध्यवसान नहीं होता। उसमें भूत आदि अर्थ का उसी रूप में प्रत्यक्षायमाणत्व अपेक्षित रहता है।' भाविक और उत्प्रेक्षा
भाविक में भूत और भावी अर्थ का प्रत्यक्ष रूप में वर्णन होता है। यह प्रश्न किया जा सकता है कि भूत और भावी अर्थों का, जो वस्तुतः अप्रत्यक्ष अर्थ हैं, जहाँ प्रत्यक्ष रूप में वर्णन होगा, वहाँ अप्रत्यक्ष की प्रत्यक्ष रूप में सम्भावना प्रतीत होगी। इवादि के प्रयोग के अभाव में इवार्थ-सम्भावना-- की प्रतीति होने से भाविक गम्या उत्प्रेक्षा का ही एक रूप माना जा सकता है, फिर भाविक की स्वतन्त्र सत्ता की कल्पना का क्या आधार होगा? अलङ्कारसर्वस्वकार ने भाविक तथा गम्या उत्प्रेक्षा का भेद स्पष्ट करते हुए इस शङ्का का युक्तिपूर्ण समाधान प्रस्तुत किया है। उत्प्रेक्षा का विधायक साध्य अध्यवसान-अन्य वस्तु में अन्य के अभेद की सम्भावना होता है। भाविक में साध्य अध्यवसान नहीं रहता। उसमें अप्रत्यक्ष का प्रत्यक्ष के रूप में भध्यवसान नहीं होता, वरन् सहृदय पाठक कल्पना-दृष्टि से अप्रत्यक्ष अर्थ को प्रत्यक्ष देख पाते हैं। यह अप्रत्यक्ष अर्थ का साक्षात् बिम्बग्रहण भाविक का स्वरूप है, जो उत्प्रेक्षा से स्वतन्त्र है ।२ भाविक और काव्यलिङ्ग
भाविक का काव्यलिङ्ग से केवल इस आधार पर भेद नहीं किया जा सकता कि काव्यलिङ्ग में लिङ्ग से लिङ्गी का बोध होता है; पर भाविक में
१. नापीदम् (भाविकम्) अतिशयोक्तिः अन्यस्यान्यतयाध्यवसायाभावात् ।
-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० २२२ २. नापि भूतभाविनामप्रत्यक्षाणां प्रत्यक्षतयैव प्रतीतेरिवार्थगर्भी
कारेणेयं प्रतीयमानोत्प्रेक्षा, तस्या अभिमानरूपाध्यवसायस्वभावत्वात् । नहि अप्रत्यक्ष प्रत्यक्षत्वेनाध्यवसीयते, किं तर्हि, काव्यार्थविद्भिः प्रत्यक्षं दृश्यत इति ।
-वही, पृ० २२३
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ७६३. अद्भुत पदार्थ के — लिङ्ग के - दर्शन से भूत और भावी अर्थ का -लिङ्गी का - साक्षात्कार होता है । भाविक में भूत और भावी अर्थ का प्रत्यक्षायमाणत्व योगलक्षणसन्निकर्ष के समान होता है । जैसे योगी देश-काल की सीमा को पार कर परोक्ष वस्तु का साक्षात्कार कर लेते हैं, वैसे ही काव्य में सहृदय पाठक भूत और भावी अर्थों को प्रत्यक्ष देख लेते हैं । यही भाविक का स्वरूप है, जो काव्यलिङ्ग के स्वरूप से सर्वथा भिन्न है । '
भाविक और रसवत्
भाविक और रसवत् - दोनों में अर्थ का प्रत्यक्ष बिम्बग्रहण अपेक्षित होता है; पर दोनों का भेद यह है कि रसवत् अलङ्कार में जहाँ अर्थ के साथ भावक : के हृदय का सम्वाद तथा साधारणीकरण की प्रक्रिया से अद्व ेत ज्ञान-दशा में रति आदि चित्तवृत्ति का आस्वादन अपेक्षित होता है, वहाँ भाविक में भावक तटस्थ भाव से अर्थ का - अप्रत्यक्ष अर्थ का - प्रत्यक्ष दर्शन मात्र करता है । अर्थ के साथ सहृदय के हृदय का सम्वाद रसवत् का तथा तटस्थ भाव से भूत-भावी अर्थ का साक्षात्कार भाविक का व्यवच्छेदक धर्म है ।
भाविक और स्वभावोक्ति
-
भाविक में लोकोत्तर वस्तु का — भूत-भावी वस्तु का — स्फुट वर्णन होता है, जबकि स्वभावोक्ति में लौकिक वस्तु का स्फुट वर्णन होता है । दोनों में दूसरा भेद यह है कि भाविक में अर्थ का तटस्थ भाव से साक्षात्कार किया जाता है, जबकि स्वभावोक्ति में लौकिक वस्तु के स्वभाव-वर्णन से उस वस्तु के साथ सहृदय के हृदय का सम्वाद सम्भव होता है । 3
१.
"
नाप्यत्यद्भुतपदार्थदर्शनादतीतानागतयोः प्रत्यक्षत्वप्रतीतेः काव्यलिङ्गमिदम् (भाविकम्) । लिङ्गलिङ्गिभावेन प्रतीत्यभावात् । योगिवत् प्रत्यक्षतया प्रतीतेः । — रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व ; पृ० २२३ २. नाप्ययं (भविकालङ्कारः ) परिस्फुरद्र पतया सचमत्कारप्रतिपत्ते रसवदलङ्कारः । रत्यादिचित्तवृत्तीनां तदनुषक्ततया विभावादीनामपि साधारण्येन हृदयसम्वादितया परमाद्वैतज्ञानिवत् प्रतीतौ तस्य भावात् । इह (भाविके ) तु ताटस्थ्येन भूतभाविनां स्फुटतया भिन्नस - र्व ज्ञवत् प्रतीतेः । -वही, पृ० २२४ ३. नापीयं सूक्ष्मवस्तुस्वभाववर्णनात् स्वभावोक्तिः । तस्यां (स्वभावोक्तौ) लौकिकवस्तुगत सूक्ष्मधर्मवर्णने साधारण्येन हृदयसम्वादसम्भवात् । इह (भाविके) लोकोत्तराणां वस्तूनां स्फुटतया ताटस्थ्येन च प्रतीते: । -वही, पृ० २२४
ܘ
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"७६४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
भाविक और उदात्त ___ भाविक में भूत और भावी अर्थ का यथारूप वर्णन होता है । प्रत्यक्ष रूप में वर्णन किये जाने पर भी भूत-भावी अर्थ की स्थिति पर कुछ आरोप नहीं किया जाता है; पर उदात्त में वस्तु पर समृद्ध वस्तु का वर्णन किया जाता है। इस प्रकार अनारोपित वस्तु-वर्णन भाविक का तथा आरोपित वस्तु-वर्णन उदात्त का व्यवच्छेदक है।' स्वभावोक्ति और रसवत्
स्वभावोक्ति और रसवत्-दोनों में वर्ण्य वस्तु के साथ भावक का हृदयसम्वाद सम्भव होता है; पर दोनों का भेद यह है कि स्वभावोक्ति में केवल वस्तु-स्वभाव के साथ पाठक के हृदय का सम्वाद होता है, जबकि रसवत् में वर्णित विभावादि वस्तु की चित्तवृत्ति के साथ भावक का हृदय-सम्वाद होता है, जिससे रसानुभूति सम्भव होती है । • स्वभावोक्ति और उदात्त
स्वभावोक्ति में वस्तु-स्वभाव का यथारूप वर्णन होता है। उसमें कवि वस्तु के स्वभाव पर कुछ आरोप नहीं करता, पर उदात्त में वर्ण्य वस्तु पर :: कवि समृद्धि का आरोप कर उसका वर्णन करता है। इस प्रकार अनारोपित
वस्तु स्वभाव का वर्णन स्वभावोक्ति का तथा आरोपित वस्तुवर्णन उदात्त का व्यवच्छेदक लक्षण है। सम और विषम
सम और विषम एक दूसरे का विपरीतधर्मा है। सम में योग्य वस्तु के साथ उसके योग्य वस्तु का योग होता है; पर विषम में इसके विपरीत किसी
१. "भाविके"यथास्थितवस्तुवर्णनम् । तद्विपक्षत्वेनारोपितवस्तु
वर्णनात्मन उदात्तस्यावसरः । –रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० २२८ २. न च हृदयसम्वादमात्रण स्वभावोक्तिरसवदलङ्कारयोरभेदः । वस्तु
स्वभावसम्बादरूपत्वात् स्वभावोक्त: चित्तवृत्तिसम्वादरूपत्वाच्च रसवदलङ्कारस्य, उभयसम्वादसम्भवे तु समावेशोऽपि घटते !
-वही, पृ० २२५ ३. स्वभावोक्तौ भाविके च यथास्थितवस्तुवर्णनम् । तद्विपक्षत्वेनारोपितवस्तुवर्णनात्मन उदात्तस्यावसरः ।
-वही, पृ० २२८
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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[७६५: वस्तु की उसके अयोग्य वस्तु के साथ घटना होती है । मम्मट ने वृत्ति में विषम को सम का विपर्यय-रूप कहा है।' सम और विषम को विपरीत स्वभाव का मानने में सभी आचार्य एकमत हैं। अप्रस्तुतप्रशंसा और प्रतिवस्तूपमा
आचार्य वामन ने अप्रस्तुत के कथन से प्रस्तुतार्थ के बोध को समासोक्ति कहा था और उससे प्रतिवस्तूपमा का भेद-निरूपण इस आधार पर किया था - कि समासोक्ति में केवल अप्रस्तुत का न्यास होता है, प्रस्तुत का नहीं; पर प्रतिवस्तूपमा में उपमेय के कथन के साथ समानवस्तु का न्यास होता है । इस प्रकार उपमेय का कथन न कर समान वस्तु का न्यास उनके अनुसार समासोक्ति का तथा उपमेय के कथन के साथ समान वस्तु का न्यास प्रतिवस्तूपमा का व्यवच्छेदक धर्म है। २ वामन की यह समासोक्ति पीछे चलकर अप्रस्तुतप्रशंसा के रूप में स्वीकृत हुई। पण्डितराज जगन्नाथ ने दोनों अलङ्कारों के इस भेदक : तत्त्व का सङ्केत दिया है कि प्रतिवस्तूपमा में एक ही धर्म का शब्दभेद सेवस्तुप्रतिवस्तुभाव से-असकृत् निर्देश होता है; पर अप्रस्तुतप्रशंसा में ऐसा नहीं होता। अतः, अप्रस्तुतप्रशंसा (वामन की समासोक्ति तथा परवर्ती आचार्यों की अप्रस्तुतप्रशंसा) तथा प्रतिवस्तूपमा के निम्नलिखित भेदक तत्त्व हैं
(क) अप्रस्तुतप्रशंसा में केवल उपमान वाक्य ही उक्त होता है और उससे उपमेय वाक्य गम्य होता है, जबकि प्रतिवस्तूपमा में दो परस्पर निरपेक्ष वाक्य-एक उपमानस्थानीय तथा दूसरा उपमेयस्थानीय-उक्त होते हैं।
(ख) प्रतिवस्तूपमा में वस्तु-प्रतिवस्तुभाव से दो बार साधारण धर्म का उल्लेख होता है. पर अप्रस्तुतप्रशंसा में एक ही वाक्य के उक्त होने से साधारण धर्म का असकृत् निर्देश नहीं होता। निश्चय और सन्देह
अपह्नति के विपरीत अप्रकृत का निषेध कर प्रकृत की स्थापना में विश्वनाथ ने निश्चय नामक स्वतन्त्र अलङ्कार माना है। निषेध प्राप्त का ही
१. .."स समविपर्ययात्मा चतूरूपो विषमः।-मम्मट,काव्यप्र० १० पृ०२८५ : २. उपमेय उक्ती समानवस्तुन्यासः प्रतिवस्तु ।-वामन, काव्यालङ्कार
सू०, ४,३,२ तथा-अनुक्ती समासोक्तिः। उपमेयस्यानुक्तौ सामान- .
" वस्तुन्यासः समासोक्तिः ।-वही, सूत्र ४,३,३ तथा उसकी वृत्ति । ३. अप्रस्तुतप्रशंसाया वस्तुप्रतिवस्तुभावस्य भिन्नशब्दोपात्त कप्रतिपाद्य- .
रूपस्यासम्भवात् ।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर पृ० ५२१
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“७६६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
किया जाता है। अतः, जहाँ प्रकृत वस्तु में अप्रकृत के ज्ञान की प्राप्ति सम्भावित हो, वहाँ अप्रकृत का निषेध और प्रकृत की स्थापना में विश्वनाथ के अनुसार, निश्चय अलङ्कार होगा। दण्डी ने ऐसे स्थल में तत्त्वाख्यानोपमा अलङ्कार माना था। अब प्रश्न है कि इसे निश्चयान्त सन्देह से अभिन्न क्यों न माना जाय, जिसमें सन्देह-स्थल में अन्ततः निश्चयात्मक ज्ञान हो जाता है ? विश्वनाथ का उत्तर है कि सन्देह में प्रमाता को द्वै कोटिक ज्ञान रहता है; पर निश्चय में प्रमाता को एक कोटिक तत्त्व का ही ज्ञान रहता है और वह अन्य के अन्यथा ज्ञान की सम्भावना कर प्रकृत वस्तु की स्थापना करता है।' "उदाहरणार्थ, भौंरा नायिका के मुख को कमल न समझ ले, इसलिए प्रमाता कमल का निषेध कर प्रकृत मुख की स्थापना करता है। यह निश्चय, निश्चय ही सन्देह से भिन्न है। इसमें प्रमाता को तो एककोटिक ज्ञान रहता ही है, अन्य को भी एककोटिक ज्ञान ही होता है, जिसके निषेध की आवश्यकता प्रमाता को जान पड़ती है। निश्चय और भ्रान्तिमान
निश्चय में प्रमाता अन्य के प्रकृत वस्तु में अप्रकृत के ज्ञान का ( भ्रमात्मक ज्ञान का ) निवारण करने के लिए अप्रकृत का निषेध और प्रकृत की स्थापना • करता है, फिर भी निश्चय को भ्रान्तिमान् से अभिन्न मानने की भ्रान्ति नहीं
होनी चाहिए; क्योंकि निश्चय का सौन्दर्य केवल भ्रमात्मक ज्ञान दिखाने में * नहीं; अपितु अप्रकृत का निषेध कर प्रकृत की स्थापना करने में है ।२ निश्चय और अपह नुति
निश्चय में अप्रकृत का निषेध तथा प्रकृत की स्थापना होती है, जबकि अपह्नति में प्रकृत का निषेध तथा अप्रकृत का स्थापन होता है। स्पष्टतः, निश्चय अपह्न ति से विपरीत स्वभाव का अलङ्कार है । 3
१. न ह्ययं निश्चयान्तसन्देहः, तत्र संशयनिश्चयोरेकाश्रयत्वेनावस्थानात् __ अत्र त भ्रमरादेः संशयो नायकादेनिश्चयः किञ्च, न भ्रमरादेरपि संशयः, एककोट्यधिके ज्ञाने तथा समीपागमनासम्भवात् ।
-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण पृ० ६४६ २. अस्त नाम भ्रमरादेर्भ्रान्तिः, न चेह तस्याश्चमत्कारविधायित्वम्,
अपित तथाविधनायकाद्य क्तेरेवेति सहृदयसंवेद्यम् । -वही, पृ० ६४६ ३. न चापह्न तिः, प्रस्तुतस्यानिषेधादिति""। वही पृ० ६५०
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सप्तम अध्याय
अलङ्कार और भाषा
अलङ्कारशास्त्र का भाषाशास्त्र से घनिष्ठ सम्बन्ध है। भाषाशास्त्र में भाषा की मूल प्रकृति का-शब्द-अर्थ के पारस्परिक सम्बन्ध का तथा शब्द, वाक्य आदि के स्वरूप का-अध्ययन किया जाता है तो अलङ्कारशास्त्र में शब्द-अर्थ के सुरुचि-पूर्ण विन्यास की विशेष भङ्गियों का अध्ययन किया जाता है । अलङ्कार, गुण, रीति, वृत्ति; शब्दशक्ति आदि का भाषाशास्त्रीय दृष्टि से अध्ययन एक -स्वतन्त्र शोधप्रबन्ध का विषय हो सकता है। प्रस्तुत सन्दर्भ में हम प्रसङ्गानुरोध से केवल अलङ्कारों का भाषाशास्त्रीय दृष्टि से अध्ययन करेंगे।
उक्ति-भङ्गी के विभिन्न प्रकार अलङ्कार कहलाते है।' एक प्रकार की उक्तिभङ्गी से व्यक्त अर्थ अन्य उक्तिभङ्गी से व्यक्त अर्थ से कुछ वैलक्षण्य लिये रहता है। 'नेत्र कमल के समान सुन्दर है' इस उपमा में तथा 'नेत्र-कमल' इस रूपक में नेत्र और कमल का सादृश्य बताना कवि का उद्देश्य होता है; फिर भी दोनों उक्तियों का अर्थ अभिन्न नहीं माना जा सकता। प्रथम उक्ति में नेत्र और कमल का भेद तथा सादृश्य की दृष्टि से दोनों का अभेद अभीष्ट है। दो वस्तुओं में सादृश्य बताने के लिए दोनों के बीच कुछ सामान्य और कुछ विशेष की कल्पना आवश्यक होती है ।२ यदि दो वस्तुओं में किसी सामान्य की कल्पना न की जाय तो दोनों के सादृश्य की कल्पना ही सम्भव न हो और यदि दो वस्तुओं में केवल सामान्य ही कल्पित हो, किसी विशेष की १. अनन्ता हि वाग्विकल्पास्तत्प्रकारा एव चालङ्काराः ।
-आनन्दवर्धन, ध्वन्यालोक, ३, ६३ की वृत्ति पृ० ५११ २. यत्र किञ्चित् सामान्यं कश्चिच्च विशेषः स विषयः सदृशतायाः ।
–रुय्यक के काव्यालङ्कार सूत्र संख्या ११ की वृत्ति में उद्ध त,पृ० २४
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७६८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण कल्पना न हो तो दो वस्तुएं परस्पर भिन्न मानी ही न जा सकें । ऐसी स्थिति में अभिन्न वस्तु में—सादृश्य की कल्पना का कोई अर्थ ही नहीं होगा और न ऐसी कल्पना सम्भव होगी। अतः, सादृश्य के मूल में कुछ सामान्य और कुछ विशेष की कल्पना अनिवार्यतः रहती ही है। उपमा, रूपक आदि अलङ्कार सादृश्यमूलक हैं । उपमा तथा रूपक के उक्त दो उदाहरणों में नेत्र को कमल के सामान सुन्दर बताना वक्ता को इष्ट है। पर, उपमा के उदाहरण में जहाँ नेत्र और कमल दोनों का भेद तथा अभेद समान रूप से व्यक्त है, वहाँ रूपक के उदाहरण में दो वस्तुओं के बीच अभेद की प्रधानता हो गयी है। इस प्रकार एक में भेदाभेद की तुल्य प्रधानता तथा दूसरे में अभेद की प्रधानता दोनों उक्तियों की अर्थगत विलक्षणता है। इसी प्रकार सादृश्य, विरोध, अतिशय आदि तत्त्वों पर आधृत अनेक अलङ्कारों में एक मूल तत्त्व के होने पर भी उक्ति के लक्षण्य के आधार पर उनके पृथक्-पृथक् अस्तित्व की कल्पना की गयी है।
विभिन्न अलङ्कारों में वर्ण, पद, वाक्य आदि की योजना का वैलक्षण्य भी भाषा की दृष्टि से अध्ययन का रोचक विषय है। अनुप्रास, यमक आदि अलङ्कारों में वर्ण, पद आदि के विन्यास, उनके यथास्थान प्रयोग आदि का सूक्ष्म विचार किया जाता रहा है। अर्थालङ्कारों में भी पद, वाक्य आदि के विन्यास का वैलक्षण्य उपेक्षणीय नहीं। उपमा अलङ्कार के ही अनेक भेदों में पद, वाक्य आदि की योजना अलग-अलग रूपों में की जाती है। संस्कृत में इव, यथा आदि उपमा के वाचक पद माने गये हैं। 'इव' वाचक का प्रयोग बहुधा पद के साथ किया जाता है तो 'यथा' वाचक का प्रयोग प्रायः सम्पूर्ण 'उपमान वाक्य की अपेक्षा रखता है । विश्वनाथ ने वाचक पदों का पद तथा वाक्य-विन्यास की दृष्टि से विस्तृत विवेचन किया है।' समासोक्ति आदि अलङ्कारों में उपमेय के साथ ऐसे विशेषण पद का प्रयोग वाञ्छनीय माना गया है, जो उपमान की व्यञ्जना में सहायक हों। परिकर तथा परिकराङ कुर का स्वरूप ही साभिप्राय विशेषण तथा साभिप्राय विशेष्य के प्रयोग पर आधृत है। विरोधाभास में विरोधी अर्थ का आभास देने वाले पद-प्रयोग का कम महत्त्व नहीं। श्लेष में अनेकार्थवाची पद-प्रयोग का ही चमत्कार रहता है। श्लेष के स्वरूप-विवेचन के क्रम में भारतीय अलङ्कारशास्त्र के आचार्यों ने इस तथ्यः
१. द्रष्टव्य-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०-१९ की वृत्ति
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अलङ्कार और भाषा
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पर बड़ी सूक्ष्मता से विचार किया है कि किस प्रकार एक शब्द में एकाधिक अर्थ श्लिष्ट रह सकते हैं । यह भाषा का मान्य सिद्धान्त है कि एक शब्द एक समय एक ही अर्थ का बोध कराता है । अब प्रश्न है कि श्लेष में एक शब्द अभङ्ग या सभङ्ग रूप में अनेकार्थ का वाचक कैसे बन जाता है ? इस प्रश्न के उत्तर में अभङ्ग पदश्लेष में 'जतुकाष्ठ न्याय' (काठ में संसक्त लाह का न्याय) तथा सभङ्ग पद श्लेष में 'एक वृन्तगत फलद्वय न्याय' (एक डाल पर लगे दो फल का न्याय) से अनेक अर्थों के संसक्त रहने की कल्पना की गयी है; जिसका हमने अपरत्र स्पष्टीकरण किया है । भाषा में शब्द के अर्थ- बोध कराने की शक्ति की दृष्टि से यह विचार उपयोगी है ।
भारतीय अलङ्कारशास्त्र के आचार्यों ने अलङ्कार के शब्दगत, अर्थं गत. तथा शब्दार्थोभयगत भेद स्वीकार किये हैं । अनुप्रास, यमक आदि शब्द के अलङ्कार माने गये हैं तो उपमा, रूपक आदि अर्थ के । श्लेष शब्दगत अलङ्कार भी है और अर्थगत भी । इस प्रकार श्लेष के दो अलग-अलग स्वरूप ही मान लिये गये हैं । कुछ अलङ्कार एक ही साथ शब्द और अर्थ - दोनों के अलङ्कार माने गये हैं । हम यह देख चुके हैं कि काव्य के स्वीकृत अलङ्कारों को शब्दगत, अर्थ आदि वर्गों में विभाजित करने के प्रश्न पर आचार्यों में मतभेद रहा है; पर अधिकांश आचार्यों ने अलङ्कार का शब्द अर्थ के आधार पर विभाजन करने का सिद्धान्त एक मत से स्वीकार किया है । भाषाशास्त्रीय दृष्टि से अलङ्कार के शब्दार्थगत भेद का औचित्य विचारणीय है । भाषा में शब्द और अर्थ का अविभाज्य सम्बन्ध माना जाता है । अर्थहीन शब्द का भाषा में कोई महत्त्व नहीं और शब्द के बिना अर्थ का व्यवहार सम्भव नहीं । भारतीय विचारकों ने वाणी और अर्थ को शिव और शक्ति की तरह परस्पर सम्पृक्त माना है । अब प्रश्न है कि शब्दार्थ के परस्पर सम्पृक्त होने का सिद्धान्त मान लेने पर शब्द और अर्थ के अलग- अलग अलङ्कारों की कल्पना
१. (क) एकः शब्दः सकृदेकमेवार्थं गमयते । - परिभाषेन्दुशेखर, (ख) शब्दोविवक्षितार्थं कवाचकोऽन्येषु सत्स्वपि ।
—कुन्तक, वक्रोक्तिजी ० ०१-६
२. वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये । जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरी ॥ कालिदास, रघुवंश १, १ अर्थ : शम्भुः शिवा वाणी । - - लिङ्गपुराण । तथाशब्दजातमशेषं तु धत्त े शर्वस्य वल्लभा । अर्थरूपं यदखिलं धत्तं मुग्धेन्दुशेखरः ॥ - वायुपुराण
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७७० ]
अलङ्कार- धारणा : विकास और विश्लेषण
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में क्या औचित्य होगा ? शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार की प्रकृति की परीक्षा करने से भी यह बात स्पष्ट हो जाती है कि न तो शब्दालङ्कार ही सर्वथा अर्थनिरपेक्ष होते हैं और न अर्थालङ्कार ही सर्वथा शब्दनिरपेक्ष । यमक में सार्थक पद की आवृत्ति होने पर आवृत्त पद में अर्थ -भेद आवश्यक माना जाता है। लाटानुप्रास में शब्द और अर्थ की तात्पर्य-भेद से आवृत्ति आवश्यक मानी जाती है । अर्थालङ्कारों में भी समासोक्ति में अन्यार्थ - व्यञ्जक समान विशेषण पद के प्रयोग का विचार, परिकर में साभिप्राय विशेषण के प्रयोग का विचार, प्रश्नोत्तर में समान वाक्य से प्रश्न एवं उत्तर के बोध का विचार तथा दीपक में स्थान- नियम से उभयार्थ द्योतक पद के प्रयोग का विचार इस प्रमाण हैं कि अर्थालङ्कार शब्द- निरपेक्ष अर्थ मात्र के ही अलङ्कार नहीं हैं; उनकी प्रकृति शब्द - सापेक्ष भी है । उपमा के एक भेद समानोपमा की प्रकृति तो अर्थ की अपेक्षा शब्द पर ही अधिक निर्भर है । 'सकलकलं पुरं चन्द्र इव' में केवल समान विशेषण के आधार पर चन्द्रमा और नगर में उपमानोपमेय भाव की कल्पना के मूल में शब्दमात्र का चमत्कार है । अन्यथा नगर और चन्द्रमा में क्या साम्य ? न रूप का, न प्रभाव का। दोनों में साम्य केवल इतना है कि दोनों का विशेषण समान है— दोनों सकलकल हैं, भले ही दोनों के पक्ष में 'सकलकल' विशेषण का अर्थ अलग-अलग हो । नगर 'सकलकल' है इसलिए कि वह कलकल अर्थात् कोलाहल से युक्त है और चन्द्रमा 'सकलकल' है इस लिए कि वह अपनी सकल कलाओं से युक्त है । स्पष्टतः 'सकलकल' विशेषण की समता के आधार पर नगर की चन्द्रमा के साथ उपमा में उस विशेषण की अर्थात समता का विचार नहीं किया गया है, केवल शब्दगत समता के ही आधार पर उपमानोपमेय भाव की कल्पना की गयी है । स्पष्ट है कि अलङ्कारों का शब्दार्थ विभाग तात्त्विक नहीं, व्यावहारिक मात्र है । अतः, अलङ्कारों के शब्दगत तथा अर्थगत विभाजन को देखकर यह मान लेने की भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए कि यह विभाजन शब्द और अर्थ के पार्थक्य की धारणा पर आधृत है । मम्मट ने इस प्रकार के विभाजन का मूल सिद्धान्त स्पष्ट करते हुए यह मान्यता व्यक्त की है कि अलङ्कार में शब्द और अर्थ; दोनों का विचार रहने पर भी अन्वय और व्यतिरेक के सिद्धान्त के आधार पर शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार का निर्धारण किया जाता है । जहाँ अलङ्कारविशेष के अस्तित्व के लिए शब्द विशेष का प्रयोग आवश्यक हो और उस शब्द के स्थान पर उसका पर्यायवाची शब्द रखने पर अलङ्कार का
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अलङ्कार और भाषा
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अस्तित्व मिट जाता हो, वहाँ अलङ्कार शब्दगत माना जायगा। कारण यह है कि ऐसी स्थिति में वह अलङ्कार मुख्यतः शब्द-सापेक्ष माना जायगा । पर्यायवाची शब्द का प्रयोग तो मूल शब्द का अर्थबोध करा ही देता है, फिर 'भी अलङ्कार की सत्ता के लुप्त हो जाने का तात्पर्य यह होता है कि उस अलङ्कार का अस्तित्व शब्द-विशेष पर अवलम्बित है, उसके अर्थ पर नहीं। जहाँ शब्द-विशेष का उसके पर्यायवाची शब्द से परिवर्तन होने पर भी अलङ्कार की सत्ता अक्षुण्ण रहे, वहाँ अलङ्कार को मुख्यतः अर्थ-सापेक्ष मानकर अर्थालङ्कार के रूप में स्वीकार किया जाता है। निष्कर्ष यह कि शब्द तथा अर्थ के चमत्कार की प्रधानता के आधार पर ही शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार वर्ग की कल्पना की गयी है। यह कल्पना शब्द और अर्थ को परस्पर सम्पृक्त मानने वाले सिद्धान्त को खण्डित नहीं करती। ___अलङ्कार शब्द और अर्थ के उपस्कारक माने जाते हैं। अनुप्रास, यमक आदि में समान वर्ण, पद आदि की आवृत्ति होने से विशेष प्रकार का ध्वनिप्रभाव उत्पन्न होता है, तो उपमा आदि अलङ्कारों में वर्ण्य अर्थ के रूप, गुण, प्रभाव आदि का उत्कर्ष-साधन होता है। सादृश्य मूलक उपमा, रूपक आदि में जब प्रस्तुत अर्थ के मेल में कोई अप्रस्तुत अर्थ रखा जाता है तब उस अप्रस्तुत का मन में जगने वाला प्रभाव प्रस्तुत के प्रभाव को उपस्कृत कर देता है। विरोधमूलक अलङ्कारों में भी विरोधमुखेन उपस्थापित अर्थ वर्ण्य वस्तु में विशेष चमत्कार ला देता है। अतिशयमूलक आदि अलङ्कारों का भी उद्देश्य वर्ण्य पदार्थ का उत्कर्ष ही होता है। जो अलङ्कार वर्ण्य वस्तु में उत्कर्ष न ला सकें, उनकी काव्य में कोई उपयोगिता नहीं। कोई उक्ति अपने-आप में अलङ्कार नहीं। उसके अलङ्कारत्व का निर्णय काव्य में अर्थ के उपस्कार की दृष्टि से ही होना चाहिए । मम्मट आदि आचार्यों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अलङ्कार प्रस्तुत भाव-बोध में उत्कर्ष ला सकते हैं; पर कहीं-कहीं वे भावबोध में बाधक भी हो जाते हैं और कहीं-कहीं तटस्थ रह जाते हैं; अर्थात् न तो भाव-बोध में उत्कर्ष ही लाते हैं न अपकर्ष ही । यह तो हुआ काव्य में अर्थबोध के उत्कर्ष-साधन की दृष्टि से अलङ्कारों की प्रकृति पर विचार । भाषा की दृष्टि से
१. इह दोषगुणालङ्काराणां शब्दार्थ गतत्वेन यो विभागः स अन्वय
व्यतिरेकाभ्यामेव व्यवतिष्ठते ।-मम्मट,काव्यप्रकाश हपृ. २११-१२ २. उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचित् ।
हारादिवदलङ्कारास्तेऽनुप्रासोपमादयः ॥-वही, ८, ६७
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७७२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण शब्दार्थ बोध में अलङ्कार की उपयोगिता पर विचार कर लेना वाञ्छनीय होगा। इस सन्दर्भ में यह निर्देश कर देना आवश्यक है कि जहां एक ओर भारतीयअलङ्कार-शास्त्र में शब्दार्थ के उपस्कार की दृष्टि से अनेक अलङ्कारों की प्रकृति पर विचार किया जा रहा था, वहाँ दूसरी ओर दर्शन और व्याकरण में केवल शब्दार्थ बोध की दृष्टि से भी अलङ्कार के मूलभूत तत्त्व पर विचार किया जा रहा था। उपमा, महत्त्व की दृष्टि से, अलङ्कारों में प्रथम है। अनेक आचार्यों ने-जिनमें वामन, अभिनव, अप्पय्य दीक्षित जैसे समर्थ आचार्य भी सम्मिलित है-समग्र अलङ्कार-प्रपञ्च को उपमा नटी का ही विलास मान लिया है।' शृङ्खला आदि पर आधृत अलङ्कारों की सत्ता स्वीकृत हो जाने पर भी उपमा की प्रधानता सर्वमान्य है। दर्शन में उपमान को प्रमा का-तत्त्वज्ञान का-साधन मानकर उसके स्वरूप का विवेचन किया गया है। व्याकरण में भी ज्ञान के साधन के रूप में ही उपमान का निरूपण किया गया है। उपमान ज्ञात वस्तु से सादृश्य के आधार पर अज्ञात को जानने में सहायक होता है। गवय (नील गाय) गाय जैसी होती है, यह कहने से गाय से परिचित व्यक्ति उसके सदृश गवय का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। ऐसी स्थिति में जब वह पहली बार गवय को देखता है तो गाय से सादृश्य के कारण बिना बताये भी वह गवय को पहचान लेता है।
अर्थ-बोध में उपमान बहुत सहायक हुआ करता है। कभी-कभी तो उपमान अर्थ-बोध का अनिवार्य आधार भी बन जाता है-विशेषतः तब, जब ज्ञेय वस्तु अमूर्त होती है। मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह किसी अपरिचित नवीन वस्तु को अपनी परिचित वस्तु के सन्दर्भ में ही जानने का प्रयास करता है। जब किसी को कोई व्यक्ति किसी नवीन वस्तु के विषय में बताना चाहता है तो वह यह प्रयास करता है कि वह वस्तु को इस प्रकार उपस्थित करे कि वह उस व्यक्ति की किसी ज्ञात वस्तु के मेल में हो और इस प्रकार उसे ज्ञात वस्तु से सादृश्य आदि के आधार पर नवीन वस्तु को समझने १. (क) प्रतिवस्तुप्रभृतिरुपमाप्रपञ्चः-वामन, काव्यालं० सूत्र ४, ३, १ (ख) उपमाप्रपञ्चश्च सर्वोऽलङ्कार इति विद्भिः प्रतिपन्नमेव ।
-ना० शा० अ० भा० पृ० ३२१ (ग) उपमैका शैलूषी सम्प्राप्ता चित्रभूमिकाभेदान् । रञ्जयति काव्यरङ्ग नृत्यन्ती तद्विदां चेतः ॥
-अप्पय्य दीक्षित, चित्रमीमांसा पृ० ६
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अलङ्कार और भाषा
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में सुविधा हो। स्थान, काल आदि की दीर्घता को नापने के लिए बहुधा परिचित वस्तुओं का सहारा लिया जाता है-उँगली, हाथ, डग आदि से स्थान की दूरी नापने की प्रवृत्ति इस बात का प्रमाण है। कोस (संस्कृत-क्रोश, जो नाप की एक इकाई है) को भी कुछ भाषाविदों ने इसी प्रवृत्ति से आविर्भूत माना है। सम्भव है कि क्रोश ( चिल्लाहट ) के फैलने की दूरी की धारणा धीरे-धीरे स्थान की नाप की एक निश्चित इकाई की धारणा में बदल गयी हो। लम्बाई के लिए. ताल, शृङ्ग आदि का प्रयोग बहुलता से हुआ करता है। ताल-सा लम्बा-जैसे पदों का प्रयोग लोक-व्यवहार में सदा हुआ करता है। काल की दीर्घता को नापने के लिए पल, निमेष आदि पदों का प्रयोग, परिचित वस्तु से अपरिचित या अमूर्त वस्तु को निश्चयात्मक रूप से समझने की प्रवृत्ति का प्रमाण है। काल की दीर्घता को मूर्त रूप देने के लिए कई लौकिक वस्तुओं का सहारा लोक तथा काव्य में लिया जाता है। 'जाने के समय प्रिय जो वृक्ष लगा गया था, वह फूलने-फलने लगा, पर अभी तक वह लौट कर नहीं आया' इस प्रकार की उक्ति में वृक्ष का बढ़ना, फूलना-फलना; इस परिचित वस्तु से प्रवास-काल की दीर्घता को निश्चयात्मक रूप प्रदान किया जाता है। कभी-कभी तो काल से स्थान की दीर्घता तथा स्थान से काल की दीर्घता को भी समझने-समझाने का प्रयास किया जाता है। 'दो मिनट का रास्ता', 'गाड़ी से पांच मिनट की दूरी' आदि कहने से स्थान की दूरी का निश्चित बोध हो सकता है। इसी प्रकार 'यहाँ से अमुक स्थान पहुँचने में जितना समय लगता है उतना समय' ऐसे कथन में स्थान से काल की दीर्घता को नापने का प्रयास किया जाता है। आदिम युग में काल, स्थान आदि की दीर्घता को नापने के लिए ये ही साधन थे। आज अनेक वैज्ञानिक साधनों का आविष्कार हो जाने पर भी व्यवहार में ऐसी उक्तियों का सहारा लिया जाता है और काव्य में भी ऐसी उक्तियों का चमत्कारपूर्ण प्रयोग हुआ करता है। ___अमूर्त भाव, स्वाद, वर्ण आदि के स्वरूप को ठीक-ठीक समझने के लिए परिचित उपमान सहायक ही नहीं, अनिवार्य भी हो जाते हैं। अमूर्त भावों को इन्द्रिय-ग्राह्य बनाने के लिए उनके विभिन्न वर्गों की कल्पना कर ली गयी है। रति के लाल वर्ण, हास के शुभ्र वर्ण आदि की कल्पना परिचित वर्ण से उनके निश्चित स्वरूप को समझने के प्रयास का परिणाम है। खट्टा, मीठा आदि स्वाद का सामान्य अर्थ-बोध कराने वाले शब्द हैं। ऐसे स्वाद
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७७४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण को विशिष्ट रूप देने के लिए परिचित वस्तुओं का सहारा लेना अनिवार्य हो जाता है। खट्टी नारङ्गी की खटाई का बोध कराने के लिए 'नीबू-सा खट्टा' का प्रयोग किया जाता है। किसी मीठी वस्तु को मिसरी या गुड़ के समान मीठी कहने में उसकी मिठास को परिचित वस्तु की मिठास से तुलना कर विशिष्ट रूप देने का प्रयास रहा करता है। बोलियों में 'खट्टा चुक्क' अर्थात् नीबू के रस से बने चूक के समान बहुत खट्टा आदि का प्रयोग ऐसा ही प्रयास है। किसी परिचित वस्तु के स्वाद से तुलना किये बिना खट्टा, मीठा आदि कहने का कोई निश्चित अर्थ-ग्रहण नहीं किया जा सकता। वर्गों के लाल, पीला, नीला, हरा, काला, उजला आदि जो नाम हैं, वे तत्तत् वर्णों का केवल सामान्य रूप ही बताते हैं। किसी एक वर्ण के अनेक स्वरूपों को निश्चित रूप में निर्दिष्ट करने के लिए किसी परिचित वस्तु के वर्ण को उपमान के रूप में लाना आवश्यक होता है। इसी क्रम में लाल-टेसू, लाल-बिम्ब, लाल-मजीठ आदि का प्रयोग किया जाता है। टेसू, बिम्ब आदि उपमान ही लाल के विशिष्ट रूप का बोध कराते हैं। अनेक वर्णों के तो नाम भी उसके समान परिचित वस्तु के आधार पर ही रखे गये हैं। नारङ्गी के वर्ण के समान वर्ण को नारङ्गी रङ्ग, बैगन के समान रङ्ग को बैगनी रङ्ग आदि कहा जाने लगा है । मोर वर्ण, मटमैला रङ्ग, धानी रङ्ग, आसमानी रङ्ग, गुलाबी रङ्ग, सिन्दूरी रङ्ग, टमाटर रङ्ग आदि विभिन्न रङ्ग हैं, जिनका नामकरण परिचित वस्तु के रङ्ग के सादृश्य के आधार पर हुआ है । अंगरेजी में Snow white Bottle green, feather brown, orange, cream, आदि वर्ण भी तत्तत् परिचित वस्तुओं के रङ्ग के आधार पर ही व्यवहृत हुए हैं। इन प्रयोगों पर विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मूलतः ऐसे पद अलङ्कार के रूप में प्रयुक्त हुए होंगे। ( इस बात से कोई अन्तर नहीं पड़ता कि इन अलङ्कारों का प्रयोग लोक-मुख में हुआ या काव्य में । ) लाल टेसू में टेसू उपमान है और उस पद का अर्थ है पलास के फूल के समान लाल । ऐसे प्रयोग इतनी अधिक मात्रा में होने लगे कि अब इस बात पर लोगों का ध्यान भी नहीं जाता कि लाल-टेसू, लालबिम्ब जैसे प्रयोग अलङ्कत प्रयोग हैं और उपमानोपमेय भाव पर आधृत हैं।
बहुत-से अलङ्कत प्रयोग व्यवहार में घिसते-घिसते सामान्य उक्तिमात्र बनकर व्यवहृत होने लगते हैं। उनके मूल में निहित अलङ्कार पर किसी का ध्यान भी नहीं जाता। नर-केशरी, नर-पिशाच, कुलाङ्गार, कुलभूषण, कुल-कलङ्क बादि असंख्य प्रयोग बोल-चाल में प्रयुक्त होते हैं। वक्ता ऐसे.
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अलङ्कार और भाषा
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पदों का प्रयोग करने के समय इस बात पर ध्यान नहीं देता कि वह अलङ्कार का प्रयोग कर रहा है। उक्त वाक्यों में केशरी, पिशाच, अङ्गार, भूषण, कलङ्क आदि उपमान हैं, जो नर, कुल आदि वर्ण्य वस्तुओं के साथ प्रयुक्त हैं। ऐसे प्रयोग लोक-व्यवहार तथा काव्योक्तियों में समान रूप से पाये जाते हैं। अब यह निर्णय कौन कर सकेगा कि ऐसे प्रयोग लोकव्यवहार से काव्य की उक्ति में आये या पहले कवि-कल्पना से उद्भूत होकर लोक-मुख में व्यवहृत होने लगे? इतना निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि भाषा में-चाहे वह लोक-भाषा हो या काव्य की भाषा-अलङ्कार का प्रयोग जाने-अनजाने होता ही रहा है। कहीं प्रतिपाद्य अर्थ को अधिक प्रभावपूर्ण और रमणीय बनाने के लिए सायास अलङ्कार की योजना की जाती है; कहीं अर्थ के स्पष्टीकरण के क्रम में अलङ्कार के विना अर्थ का ठीक-ठीक ग्रहण सम्भव नहीं होने पर अलङ्कार का विधान किया जाता है तो कहीं-कहीं प्रस्तुत वस्तु के वर्णन के क्रम में उसके साथ अतिशय सादृश्य आदि के कारण अनायास ही कोई अप्रस्तुत वस्तु वर्णन करने वाले के सामने आ जाती है और वह प्रस्तुत से मिलकर अलङ्कार का विधान कर देती है।
लोक-भाषा और काव्य-भाषा की उक्तियों के बीच कोई स्थिर विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। लोकोक्तियों के साथ भा मानव-हृदय का रागात्मक सम्बन्ध रहता है। अतः, ऐसी उक्तियों में भी रसात्मकता आ जाती है और वे उक्तियाँ काव्योक्तियों की तरह सुन्दर बन जाया करती हैं। कवि लोकोक्तियों को काव्य में ग्रहण करते हैं। अलङ्कार के कुछ आचार्यों ने लोकोक्ति को काव्य का एक अलङ्कार भी माना है ।' लोकोक्ति को अलङ्कार मानने में दो मत हो सकते हैं, पर इस तथ्य में मतभेद का अवकाश नहीं कि असंख्य उक्तियाँ लोक-व्यवहार से काव्य में ली जाती हैं। काव्य की उक्तियां भी जब बहुत प्रसिद्ध हो जाती हैं तब लोक-मुख में उनका निर्बाध व्यवहार होने लगता है। इस प्रकार काव्योक्ति और लोकोक्ति में पारस्परिक आदानप्रदान चलता रहता है। लोक-विश्वास तथा लोक की उक्तियों के आधार पर कितने ही महान् कवियों ने अनेक सुन्दर कल्पनाएँ की हैं। मेघ के गर्जन से छत्रक का आविर्भाव होता है और उसके आविर्भाव से धरती उर्वरा होती है, १. जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि आचार्यों ने लोकोक्ति को अलङ्कार माना है। उन्होंने छेकोक्ति का भी आधार लोकोक्ति को ही माना है।
-द्रष्टव्य, कुवलयानन्द, ६०-६१
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७७६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
इस लोक - विश्वास के आधार पर कालिदास ने मेघदूत में एक सुन्दर कल्पना की है । " तात्पर्य यह कि न तो काव्योक्ति और लोकोक्ति का स्पष्ट भेद सम्भव है और न यह निर्णय सम्भव है कि काव्य और लोक में समान रूप से प्रयुक्त अलङ्कार पहले काव्य में कल्पित हुए या लोक व्यवहार में । स्त्रियों के पदाघात से अशोक का पुष्पित होना, हंस का नीर-क्षीर विवेकी होना आदि कविप्रसिद्धियाँ तथा उन पर आधृत अनेक अनङ्कार कवि - कल्पना से प्रसूत होकर लोक में प्रसिद्ध हुए या लोक व्यवहार में उत्पन्न होकर काव्य में गृहीत हुए, इस बात का निर्णय कठिन ही नहीं, असम्भव है ।
भाषा में लाघव के लिए भी अलङ्कार का प्रयोग किया जाता है। किसी परिचित वस्तु के साथ वर्ण्य वस्तु की तुलना कर देने से उस परिचित वस्तु के प्रायः सभी विशिष्ट गुणों की कल्पना प्रमाता वर्ण्य वस्तु में कर लेता है । इस प्रकार वर्ण्य वस्तु के अनेक गुणों के अलग-अलग वर्णन की आवश्यकता नहीं रह जाती । किसी के व्यक्तित्व का वर्णन करने के क्रम में यदि उसे 'ऋषि तुल्य' कह दिया जाता है तो ऋषि के धीर, प्रशान्त, निस्पृह, करुणामय व्यक्तित्व का प्रभाव जगकर उस वर्ण्य व्यक्ति के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में वैसी ही धारणा जगा देता है । व्यक्ति के बहुत विस्तृत वर्णन से उसके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में जो धारणा बन पाती, वह धारणा एक उपमान संक्षेप में हो उत्पन्न कर देता है। किसी को बालक - सा या विक्षिप्त-सा आचरण करने वाला कह देने मात्र से बालक या विक्षिप्त के अनेक आचरणों का आरोप श्रोता उसपर कर लेते हैं । पौराणिक या ऐतिहासिक उपमान संक्षेप में अर्थ की अभिव्यक्ति की दृष्टि से बहुत उपादेय सिद्ध होते हैं । पुराण, इतिहास के तत्तत् पात्रों के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में लोगों के मन में एक निश्चित धारणा रहा करती है, जिसका आधार उन पात्रों का सम्पूर्ण जीवन-वृत्त हुआ करता हैं । अतः, जब किसी व्यक्ति के लिए इतिहास पुराण के किसी पात्र को उपमान बनाया जाता है तो उस पात्र के सम्बन्ध में लोगों की सम्पूर्ण धारणा ar व्यक्ति के साथ भी सम्बद्ध हो जाती है । 'यह दूसरा युधिष्ठर है' इस
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१. कत्तु यच्च प्रभवति महीमुच्छिलीन्ध्रामवन्ध्यां
तच्छ्रुत्वा ते श्रवणसुभगं गर्जितं मानसोत्काः । कैलासाविस किसलयच्छेदपाथेयवन्तः सम्पत्स्यन्ते नभसि भवतो राजहंसाः सहायाः ॥
- कालिदास, मेघदूत, पूर्व, ११
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अलङ्कार और भाषा
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प्रकार के कथन से युधिष्ठिर की सत्यवादिता, सहिष्णुता आदि की जो धारणा जन-साधारण के मन में पहले से रहती है, वह जाग्रत हो जाती है और वर्ण्य व्यक्ति के सम्बन्ध में भी वैसी ही धारणा उत्पन्न हो जाती है। दधीचि, शिवि, कर्ण आदि का उपमान उनकी अमित दानशीलता का बोध उत्पन्न कर वर्ण्य व्यक्ति में भी दानशीलता के असाधारण गुण का बोध कराता है। कंस, रावण आदि के साथ क्रूरता, अनाचार आदि का भाव प्रधानतः सम्बद्ध है । अतः, ऐसे उपमान संक्षेपतः वर्ण्य व्यक्ति के क्रूर, अनाचारी रूप को श्रोता की कल्पना-दृष्टि के सामने मूर्त कर देते हैं। यह ध्यातव्य है कि इतिहास-पुराण के पात्रों के अनेक गुणों में से प्रधानता के आधार पर जो मुख्य धारणा जन-सामान्य की रहती है, उसी धारणा को वे उपमान जगा पाते हैं। रावण तेजस्वी, ज्ञानी और ईश-भक्त भी था; पर भारतीय पाठकों के मन में उसके अनाचार की ही धारणा मुख्य है। अतः, 'यह रावण जैसा है' यह कहने से रावण के समान दुराचारी का ही बोध लोगों को होता है। बालक, विक्षिप्त आदि उपमान भी उनके प्रधान आचार का ही बोध कराते हैं, व्यवहारगत विविधता का नहीं। अतः, बालक निष्कपट, अबोध व्यवहार का बोधक बन जाता है तो विक्षिप्त सामान्य रूप से विवेकहीन, असङ्गत व्यवहार का। इतिहास-पुराण के पात्र, घटना आदि का जहाँ उपमान के रूप में प्रयोग किया जाता है, उसके अर्थ को ठीक-ठीक समझने के लिए यह आवश्यक है कि पाठक को उपमानभूत पात्र, घटना आदि का सम्यक् ज्ञान रहे। अन्यथा उपमान के सम्बन्ध में ही वह कोई निश्चित धारणा नहीं बना सकेगा, उसके आधार पर उपमेय के सम्बन्ध में 'धारणा बनाने की तो बात ही दूर रहे।
लोक और काव्य में प्रयुक्त अलङ्कार युगविशेष की सांस्कृतिक एवं नैतिक ‘दशा तथा लोक-विश्वास आदि के अध्ययन में भी सहायक हो सकते हैं। भाषा के आधार पर किसी जाति की लुप्त संस्कृति-सभ्यता का इतिहास-निर्माण भाषा शास्त्र का एक अङ्ग है, जो अधिक विकसित नहीं हो पाया है। भाषा में प्रयुक्त अलङ्कार युगविशेष में वस्तुविशेष के प्रति लोगों की सामान्य धारणा तथा अन्य युग में उस वस्तु के प्रति बदलते हुए दृष्टि-कोण का भी सङ्कत देते हैं। उदाहरणार्थ; तुलसी दास ने भरत की ग्लानि का वर्णन करते हुए उनसे कहलाया है
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७७८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
जेहि परिहरि हरि हर चरण, महिं भूतगन घोर ।
तेहि कइ गति मोहि देउ बिधि, जौं जननी मत मोर ॥' यहाँ भूत आदि की साधना करने वाले औघट साधुओं के प्रति कवि का घृणा-भाव स्पष्ट है। यह तुलसी के समय औघटों के प्रति जन-सामान्य की अश्रद्धा का भी सङ्केत देता है; क्योंकि यदि सामान्य पाठक में औघटों के प्रति घृणा-भाव न होता तो उक्त कथन का अलङ्कार अपेक्षित प्रभाव ही उत्पन्न नहीं कर पाता। जिन वामाचारी साधकों के प्रति कभी (दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में) भारतीय समाज में आदर का भाव रहा था, उनके प्रति धीरे-धीरे घृणा का भाव बढ़ता गया। इस परिवर्तित दृष्टिकोण का स्पष्ट सङ्केत उक्त उदाहरण में मिलता है। प्राचीन वाङमय में प्रयुक्त अलङ्कारों के आधार पर ऐतिहासिक तथ्यों का निर्धारण तथा प्राचीन-नवीन साहित्य के समन्वित अध्ययन से उनमें प्रयुक्त अलङ्कारों के आधार पर सांस्कृतिक विकास का अध्ययन एक स्वतन्त्र शोध का विषय हो सकता है। ___ कभी-कभी किसी जाति या वर्ग के सम्बन्ध में लोगों की कोई धारणा बन जाया करती है। यह आवश्यक नहीं कि उस वर्ग या जाति के सभी व्यक्तियों में समान गुण पाये ही जायें, फिर भी लोगों के मन में उस वर्ग के लिए कुछ विशेष धारणा बन जाती है। उस धारणा के आधार पर भी अलङ्कार की योजना हो सकती है । लोक-व्यवहार में सुन्दर और सुकुमार बालक-बालिका को राजकुमार-राजकुमारी के समान कहा जाता है। सभी राजकुमार सुन्दर और सुकुमार हों, यह आवश्यक नहीं; पर सामान्य रूप से राजकुमारों के सुन्दर एवं सुकुमार होने की धारणा लोगों ने बना ली है। इसी प्रकार शब्दशास्त्र, दर्शनशास्त्र तथा वेद आदि का अध्ययन करने वालों के सम्बन्ध में लोगों की यह धारणा बन गयी है कि वे नीरस होते हैं । साहित्य के पाठकों के सरस होने की धारणा लोगों के मन में रहती है । ऐसी धारणाओं के आधार पर काव्य में भी शाब्दिक, तार्किक और वेदपाठी को नीरस व्यक्ति का उपमान बनाया जाता है। ___ अनेक अलङ्कारों का जन्म मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति से होता है कि वह बात को सीधे न कहकर प्रकारान्तर से कहना चाहता है। कभी-कभी प्रकारान्तर से कही हुई बात में सीधी बात की अपेक्षा अधिक तीव्रता आ जाती है। व्यङ ग्य-वाण हृदय में जितना चुभता है, उसकी तुलना में सीधे
१. द्रष्टव्य-रामचरितमानस, अयोध्याकाण्ड ।
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अलङ्कार और भाषा
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कही हुई बात का प्रभाव निश्चित रूप से कम होता है । प्रकारान्तर से कही हुई बात से व्यजित अर्थ का अपना सौन्दर्य होता है। मानस में तुलसी के केवट ने राम से अटपटी वाणी में पाँव धोने की जो अनुमति मांगी, उसका सौन्दर्य पाँव धोने के प्रत्यक्ष अनुरोध में आ ही नहीं पाता। विधिमुख से निषेध तथा निषेधमुख से विधि की प्रवृत्ति के बहुल उदाहरण लोक-भाषा में भी पाये जाते हैं। काव्य में आक्षेप आदि अलङ्कारों की योजना के मूल में यही प्रवृत्ति है । अन्योक्ति या अप्रस्तुतप्रशंसा आदि में भी प्रकारान्तर से कथन की प्रवृत्ति ही अभिव्यक्त होती है।
भाषा में प्रयुक्त वाक्यों के अर्थ का युक्तिसङ्गत होना आवश्यक माना जाता है। इस दृष्टि से व्याकरण में वाक्य-योजना में योग्यता, आकांक्षा तथा आसक्ति का विचार अपेक्षित माना गया है;' पर अलङ्कार में कहीं-कहीं वाक्यार्थ की असङ्गति सायास दिखायी जाती है। आपाततः दीखने वाली असङ्गति पर तो अनेक अलङ्कारों की कल्पना की ही गयी है, यौक्तिक सङ्गति के तात्त्विक अभाव में भी पात्रौचित्य आदि के कारण अलङ्कारत्व की योजना की जा सकती है। प्रस्तुत के लिए असङ्गत अप्रस्तुत की योजना कर कवि किसी पात्र की प्रकृति को स्पष्ट रूप में प्रस्तुत कर देता है। अलङ्कार में सदोष उपमान का प्रयोग हास की सृष्टि का भी अपेक्षित प्रभाव उत्पन्न करता है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं; 'मृच्छकटिक' का एक पात्र संस्थानक नायिका का जो उपमान देता है, वह सर्वथा असङ्गत है, फिर भी पात्रोचित होने के कारण उसे अलङ्कार माना जाता है। वह कहता है—तुम राम से भीत द्रौपदी की तरह क्यों भागी जा रही हो? जैसे हनुमान ने विश्वावसु की बहन सुभद्रा को पकड़ा, उसी तरह मैं तुम्हें पकड़ता हूँ।२ पात्रौचित्य के कारण काव्य की उक्तियाँ प्रभावोत्पादक हो जाती है। अतः, उचित सन्दर्भ में पात्र की विशेष दशा की सूचना के लिए उस पात्र की भाषा में कवि सदोष उपमान की योजना करता है। इस कथन में कि 'जिस प्रकार महाभारत युद्ध में चाणक्य ने सीता को मारा, जटायु ने द्रौपदी को मारा, उसी प्रकार मैं तुम्हें मार
१. आसत्तिर्योग्यताकांक्षातात्पयज्ञानमिष्यते ।-न्यायसिद्धान्तमुक्तावली,
शब्दखण्ड, कारिका ८२ः २. शूद्रक, मृच्छकटिक, १, २५
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• ७८० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण डालूगा'१. कवि की पात्रोचित कल्पना अपेक्षित प्रभावकी वृद्धि में सहायक है। ऐसे उपमान हास्य की ही सृष्टि करते हैं।
__ शब्दों के अर्थ-परिवर्तन में अलङ्कार-प्रयोग का महत्त्वपूर्ण योग रहता है। अर्थविज्ञान के समर्थ विवेचकों की मान्यता है कि अन्य कारणों से शब्द में अर्थ-परिवर्तन धीरे-धीरे होता है; पर अलङ्कार से तत्क्षण अर्थ-परिवर्तन हो · जाता है। शब्द के मुख्य अर्थ के साथ कुछ गौण अर्थ भी मिले रहते हैं।
अलङ्कार-योजना उस गौण अर्थ के आधार पर भी हो सकती है। ऐसी स्थिति में शब्दविशेष के उस गौण अर्थ का ही प्रधान रूप से बोध होने लगता है । फलतः, उसका मुख्य अर्थ गौण पड़ जाता है और कभी-कभी वह मुख्य अर्थ गौण पड़कर धीरे-धीरे लुप्त भी हो जाता है। गदहा, बैल आदि शब्दों के मुख्य अर्थ के साथ उसके बुद्धिहीन आदि होने का गौण अर्थ भी सम्मिलित है। जब किसी मूर्ख व्यक्ति पर बैल आदि का आरोप किया जाता है तो वह · उपमानभूत बैल आदि अपने गौण अर्थ का ही बोध कराते हैं। भाई, बहन, माता आदि शब्दों का अर्थ, जिनका प्रयोग बहुलता से किया जाता है, अब रक्त-सम्बन्ध से अधिक व्यापक हो गया है। इस विस्तार का मूलभूत कारण अपने प्रतिवेशियों पर वैसे पवित्र सम्बन्ध का आरोप ही रहा होगा। प्रजा शब्द का अर्थ 'सन्तान' और 'किसी राजा के राज्य में रहने वाले लोग' है। प्रजा का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ सन्तान ही जान पड़ता है । सम्भव है कि मूलतः सन्तानार्थवाची प्रजा शब्द का राज्यवासी जनता तक भी अर्थ-विस्तार हो गया हो। इस विस्तार का कारण भी अलङ्कार-प्रयोग ही होगा । मातापिता का अपनी प्रजा (सन्तान) के साथ जो स्नेह-सम्बन्ध स्वभावतः रहता है, वही शासक और शासित के बीच आदर्श सम्बन्ध माना जाता है । अलङ्क त रूप में पहले यह प्रयोग हुआ होगा कि राजा राज्यवासी को अपनी प्रजा के समान (सन्तान के समान) मानता है । स्नेह-सम्बन्ध के सादृश्य के कारण जब जनता · पर प्रजा होने का (राजा की सन्तान के समान होने का आरोप होने लगा होगा तो क्रमशः वह शब्द जनता के लिए बार-बार प्रयुक्त होने के कारण उसका भी वाचक बन गया होगा। इस प्रकार संस्कृत में प्रजा शब्द दोनों अर्थों में—सन्तान तथा राज्यवासी जनता के अर्थों में प्रयुक्त है। हिन्दी में १. चाणक्येन यथा सीता मारिता भारते रणे। एवं त्वां मोटयिष्यामि जटायुरिव द्रौपदीम् ॥
-शूद्रक, मृच्छकरिक ८, ३५
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अलङ्कार और भाषा
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प्रजा शब्द का विशेष प्रयोग राज्यवासी लोग के अर्थ में ही होता है। सन्तान अर्थ में उसका प्रयोग इतना कम हो गया है कि उस शब्द में अर्थादेश की स्थिति स्पष्ट हो गयी है । सन्नद्ध, कुशल, प्रणाली आदि शब्दों के अर्थ-परिवर्तन का कारण भी अलङ्कार-प्रयोग ही जान पड़ता है। किसी कार्य के लिए प्रस्तुत होने वाले को आरम्भ में अलङ्कत रूप में ही सन्नद्ध-सा ( सन्नाह पहन कर युद्ध में जाने के लिए प्रस्तुत-सा) कहा जाने लगा होगा। किसी की कार्यविशेष में पटुता देखकर उस पर कुश ले आने की पटुता रखने वाले (कुशल) का आरोप हुआ होगा। प्रणाली के मूल अर्थ नाला के सादृश्य के आधार पर रीति या ढंग को आलङ्कारिक रूप में प्रणाली कहा जाने लगा होगा। इस प्रकार उक्त शब्द आज सामान्य रूप से प्रस्तुत, पटु, रीति आदि के वाचक बन गये हैं। अलङ्कार-प्रयोग के कारण होने वाले अर्थ-परिवर्तन के असंख्य उदाहरण पाये जा सकते हैं।
भाषा और अलङ्कार के सम्बन्ध पर इस दृष्टि से भी विचार कर लेना वाञ्छनीय होगा कि शब्दार्थ के परिवर्तन का अलङ्कार पर क्या प्रभाव पड़ता है। भाषा में निरन्तर विकास होता रहता है। कितने ही प्राचीन शब्द लुप्त होते हैं, नवीन शब्द आविर्भूत होते हैं। किसी प्राचीन शब्द का मूल अर्थ छूट जाता है और नवीन अर्थ उसमें जुड़ जाता है। अर्थ और ध्वनि में विकास की सतत प्रक्रिया भाषा में चलती रहती है। भाषाशास्त्र के आचार्यों ने अर्थ विकास की तीन प्रक्रियाओं-अर्थ सङ्कोच, अर्थ विस्तार तथा अर्थादेश
-का निर्देश कर उस परिवर्तन के अनेक कारणों का उल्लेख किया है। ध्वनिपरिवर्तन के भी अनेक कारण निर्दिष्ट हैं। यहाँ उनका निर्देश अप्रासङ्गिक होगा। इतना सङ्केत ही यहाँ पर्याप्त होगा कि अर्थ-परिवर्तन के कारणों का प्रधान आधार मनोवैज्ञानिक है। शब्दविशेष के साथ मन में अर्थ विशेष का सम्बन्ध बना रहता है। कुछ कारणों से उस अर्थ के साथ अन्य अर्थ आ मिलते हैं, कुछ अर्थ छूट जाते हैं और अर्थ में परिवर्तन हो जाता है। असुर शब्द के साथ वैदिक युग में करुणामय, तेजस्वी तथा उदात्त व्यक्तित्व का अर्थ लोगों के मन में रहा होगा । तभी तो विष्णु की स्तुति में ऋषियों ने 'असुरः पिता नः' कहा था। असुर शब्द के अर्थ-परिवर्तन में-देवतावाची शब्द के राक्षसवाची शब्द बन जाने में-मनोवैज्ञानिक कारण स्पष्ट है। अपने शत्रुओं के असुर (देवता) को शत्रु का सहायक समझ कर आर्यों के मन में शत्रुपक्ष के असुर (शत्रुओं के देवता) के साथ क्षोभ, घृणा आदि का भाव अनजाने
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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
आ मिला होगा। धीरे-धीरे वह गौण अर्थ बढ़ता गया होगा और यह धारणा • बन गयी होगी कि असुर शत्र के उपास्य और सहायक है। वे आर्यों के प्रति
क्रूर व्यवहार करते हैं । जब शत्र के उपास्य असुर कहलाते हैं, जो आर्यों के लिए दुष्ट और क्र र है तो आर्य अपने उपास्य को असुर कैसे कह सकते हैं ? इस मनोवैज्ञानिक कारण से अनेक शब्दों में अर्थ-परिवर्तन होता रहता है। किसी जाति के अनेक भेदों का सामान्य रूप से बोध कराने वाले शब्द प्राधान्य के आधार पर एक ही भेद के बोधक बन जाते हैं। उसके अर्थ का सङ्कोच हो जाता है और अन्य अर्थ छूट जाते हैं। अस्तु, प्रस्तुत सन्दर्भ में हमारा विवेच्य यह है कि शब्द और अर्थ अलङ्कार के आधार हैं। अतः, जब किसी कारण से शब्द-अर्थ में परिवर्तन हो जाता है तब उसपर आधृत अलङ्कार की स्थिति में परिवर्तन भी स्वाभाविक है। वैदिक भाषा में
मृग शब्द पशु-मात्र का वाचक था। उससे वृषभ आदि वीर्यवान् पशु का भी • बोध होता था। मृग शब्द के साथ भीषणता का गौण अर्थ भी तत्कालीन लोगों के मन में रहा होगा। इसलिए 'मृगो नु भीमः' (पशु के समान भीषण ) वैदिक काल की उपमा का एक उदाहरण है। आज जब मृग शब्द के अर्थ का सङ्कोच हो गया है और वह पशु की एक विशेष जाति के अर्थ का वाचक है तब 'मृगो नु भीमः' कथन में कोई अलङ्कार नहीं रह गया है। आज लोगों के मन में मृग (हरिण ) के साथ कोमलता का बोध संसक्त है । अतः, मृग-सा भीषण कहने में न केवल अलङ्कार का अभाव माना जायगा वरन् इस प्रकार का कथन ही असङ्गत माना जायगा । वेद में 'पर्वतान् प्रकुपितान् स्थिरी चकार' इस कथन में कोई अलङ्कार नहीं था, क्योंकि प्रकुपित का अर्थ अस्थिर होने से उक्त कथन का सरल तात्पर्य था 'चञ्चल पर्वत को स्थिर कर दिया।' आज प्रकुपित शब्द क्रुद्ध अर्थ में प्रयुक्त है। पर्वत के लिए प्रकुपित लाक्षणिक प्रयोग है । अतः, आज उक्त कथन, जिसका अर्थ होगा 'क्रुद्ध पर्वत को स्थिर या शान्त कर दिया' अलङ कृत प्रयोग माना जायगा। इस प्रकार शब्द के अर्थ-परिवर्तन से उसके अलङ्कार लुप्त भी हो जाते हैं और कभीकभी अनायास कोई अलङ्कार आ भी जाता है । भाषा की यह प्रकृति भी मम्मट आदि आचार्यों की इस धारणा का ही पोषण करती है कि अलङ्कार शब्दार्थ के अनित्य धर्म हैं। अर्थविशेष के सम्बन्ध में लोगों की धारणा को वातावरण भी प्रभावित किया करता है। एक देश के वातावरण के अनुसार : जिस वस्तु के सम्बन्ध में सुन्दर या असुन्दर होने की धारणा निहित रहती है,
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अलङ्कार और भाषा
[ ७८३ उसी वस्तु के सम्बन्ध में दूसरे देश के भिन्न वातावरण के अनुसार उससे भिन्न धारणा निहित रहा करती है । शीतल जलवायु वाले प्रदेश में सूर्य का प्रकाश सुखद होता है । अतः, उसमें जो सौन्दर्य - भावना निहित रहती है, उसको लेकर सूर्य के प्रकाश को प्रिया के सुखद स्पर्श या मनोरम हास का उपमान कल्पित किया जा सकता है; पर गर्म देश में सूर्य के प्रखर ताप के सम्बन्ध में भिन्न धारणा रहती है । अतः, वहाँ उसमें कोमल या सुखद वस्तु का उपमानत्व नहीं माना जा सकता । गोण्डा ने उपमानविशेष की धारणा में देशगत भेद का निर्देश करते हुए कहा है कि भारत में पूर्णचन्द्र को नारी के मुख का उपमान माना जाता है; पर योरोप में आधुनिक काल में नारी मुख को चन्द्रमा-सा कहना हास्यास्पद हो जाता है ।'
के
शब्दार्थ- धारणा ने अनेक काव्यालङ्कारों की प्रकृति को भी प्रभावित किया है । अलङ्कारों की संज्ञा को कुछ आचार्यों ने अन्वर्था संज्ञा माना है । अधिकांश अलङ्कारों के सम्बन्ध में यह मान्यता उचित ही है । अलङ्कारविशेष की संज्ञा के जहाँ एक से अधिक अथं उपलब्ध थे, वहाँ उनके आधार पर - अलङ्कार की अलग-अलग प्रकृति की कल्पना स्वाभाविक ही थी । अप्रस्तुतप्रशंसा में प्रशंसा का अर्थ वर्णन मानकर 'अप्रस्तुत का वर्णन और उससे 'प्रस्तुतार्थ का भी बोध' उसका लक्षण माना गया है; लेकिन कुछ आचार्यों ने प्रशंसा का अर्थ स्तुति स्वीकार किया और उन्होंने उसका लक्षण यह कर दिया कि अप्रस्तुत की प्रशंसा, जिससे प्रस्तुत की निन्दा गम्य हो अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार है ।' व्याजस्तुति में स्तुति के अर्थ के आधार पर निन्दा के व्याज से स्तुति तथा स्तुति के व्याज से निन्दा को उसका लक्षण माना गया था । कुछ आचार्यों को लगा कि उक्त दोनों रूपों का अर्थबोध कराने की क्षमता व्याजस्तुति शब्द में नहीं है; क्योंकि इस नाम से व्याज से ( निन्दा के व्याज से ) की जाने वाली
१. द्रष्टव्य – J. Gonda, Remarks on Similes In Sanskrit Literature.—पृ० ११९
२. अप्रस्तुतप्रशंसा की दण्डी, भोज आदि के द्वारा प्रदत्त परिभाषा तथा जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि के द्वारा प्रदत्त परिभाषा तुलनीय | दण्डी अप्रस्तुत की स्तुति तथा उससे प्रस्तुत की गम्य निन्दा को अप्रस्तुतप्रशंसा मानते थे, पर अप्पय्य दीक्षित आदि अप्रस्तुत के वर्णन से प्रस्तुत के गम्य होने में अप्रस्तुतप्रशंसा मानते हैं । - द्रष्टव्य, दण्डी, काव्यादर्श, २, ३४०-४२ तथा —
अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, ६६
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७८४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण स्तुति मात्र का ही बोध हो सकता है । अतः, यह दोनों रूपों तक व्याप्त हो सकने योग्य नाम व्याज उक्ति दूलह, रघुनाथ आदि आचार्यों ने सुझाया; पर यह मान्य नहीं हुआ। कुछ अलङ्कारों का नामकरण सादृश्य के आधार पर भी किया गया है। भाषा में स दृश्य अनेक शब्दों के स्वरूप को प्रभावित करता है। द्वादश के सादृश्य के आधार पर एकादश के स्वरूप का निर्माण इसका एक प्रमाण है। एक और दश के योग से .एकादश की व्युत्पत्ति सामान्य दशा में व्याकरण-सम्मत नहीं होती। एकादश में 'आ' ध्वनि द्वादश के 'आ' के सादृश्य से आ गयी है। द्वादश में द्वा ( संस्कृत द्वि के लिए वेद का द्वा शब्द)
और दश का योग होने पर 'आ' स्वभावतः रहता है। इसी आधार पर एक+दश एकादश बन गया होगा। भाषा में सादृश्य के अनेक उदाहरण पाये जाते हैं। अलङ्कार के क्षेत्र में भी सादृश्य का प्रभाव यत्र-तत्र स्पष्ट है। संस्कृत के आलङ्कारिकों ने भ्रान्तिमान् अलङ्कार के नाम में भ्रान्ति के मतुप प्रत्ययान्त रूप का प्रयोग किया था। स्मृति, सन्देह आदि का मतुप, वतुप प्रत्ययान्त प्रयोग आवश्यक नहीं माना गया था। हिन्दी-रीतिशास्त्र के दूलह आदि आचार्यों ने भ्रान्तिमान् के सादृश्य के आधार पर सन्देह के स्थान पर सन्देहवान् तथा स्मृति की जगह स्मृतिमान् संज्ञा का उल्लेख किया है। स्पष्ट है कि लोक-भाषा की तरह अलङ्कार भी सादृश्य आदि से प्रभावित होता रहा है। ___ अलङ्कार-सामान्य और भाषा के इस सम्बन्ध-निरूपण के उपरान्त अलङ्कार के विशिष्ट भेदों का शब्दार्थगत वैलक्षण्य की दृष्टि से अध्ययन अपेक्षित होगा। औपम्यगर्भ सभी अलङ्कारों में उपमानोपमेय-भाव समान रूप से रहा करता है; पर सभी उक्ति-भङ्गियों का अपना-अपना वैशिष्टय होता है । अतिशयमूलक, विरोधमूलक, शृङ्खलामूलक आदि अलङ्कारों के सम्बन्ध में भी यही सत्य है। उनमें अतिशय, विरोध, शृङ्खला आदि का समान तत्त्व रहने पर भी अपना-अपना वैलक्षण्य रहता है और यह उक्तिगत विलक्षणता अनिवार्यतः शब्दार्थगत वैलक्षण्य का बोध कराती है। हम समान तत्त्व पर आधृत तथा आपाततः समान जान पड़ने वाले अलङ्कारों के पारस्परिक भेद पर एक स्वतन्त्र अध्याय में विचार कर चुके हैं। यहाँ इस कथन के प्रमाण में कुछ उदाहरणों का निर्देश ही पर्याप्त होगा। मुख और कमल के सौन्दर्य का साम्य अनेक प्रकार की उक्तियों से दिखाया जा सकता है-उसका मुख कमल के समान सुन्दर है (उपमा), उसका मुख कमल के समान सुन्दर है और कमल
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अलङ्कार और भाषा
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[ ७८५ उसके मुख के समान सुन्दर है (उपमेयोपमा), उसका मुख कमल से भी अधिक सुन्दर है (व्यतिरेक), कमल उसके मुख- सा सुन्दर है ( प्रतीप), यह मुख नहीं, कमल है ( अपह्न ुति), उसका मुख रूपी कमल देखो ( रूपक), उसके मुख को कमल समझ कर उसके पास भौंरे मँडरा रहे हैं (भ्रम), यह मुख है कि कमल ( सन्देह) आदि । इन सभी उक्तियों में कमल और मुख का सादृश्य विवक्षित है; पर अर्थ की दृष्टि से विचार करने पर एक उक्ति का अर्थ दूसरी उक्ति से कुछ विशिष्ट अवश्य है । उदाहरणार्थ, उपमा के उदाहरण में मुख और कमल का सादृश्य- मात्र विवक्षित है; पर उपमेयोपमा के उदाहरण में दोनों के पारस्परिक सादृश्य की विवक्षा के साथ ही तृतीय वस्तु के सादृश्य-निषेध की भी विवक्षा है । मुख कमल के समान सुन्दर है - यह कथन मुख के अन्य उपमान का निषेध नहीं करता; पर मुख कमल के समान है और कमल उस मुख के समान, इस कथन का तात्पर्य यह होता है कि इन दोनों वस्तुओं के अतिरिक्त कोई अन्य वस्तु मुख के समान नहीं है । व्यतिरेक के उदाहरण में सौदर्य के प्रतिमान से भी वर्ण्य मुख के सौन्दर्याधिक्य की विवक्षा है । अत: उपमा वह इस दृष्टि से भिन्न है कि जहाँ उनमा में वर्ण्य का उपमान से सादृश्य- मात्र विवक्षित रहता है, वहाँ व्यतिरेक में उसका आधिक्य उक्त रहता है । प्रतीप में उलटकर प्रस्तुत वस्तु को ही उपमान और अप्रस्तुत को उपमेय बना दिया जाता है । इसमें भी वर्ण्य का गुणाधिक्य प्रतीत होता है, क्योंकि उपमान में गुणाधिक्य की धारणा निहित रहती है । व्यतिरेक की तरह प्रतीप में वर्ण्य के गुणाधिक्य का प्रत्यक्ष निर्देश नहीं होता, फिर भी गुणाधिक्य की प्रतीति हो जाती है । उपमा और रूपक के उक्त उदाहरणों पर विचार करने से दोनों का यह भेद स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ उनमा में मुख और कमल का भेद तथा सौन्दर्य की दृष्टि से अभेद; दोनों की तुल्य प्रधानता है, वहाँ रूपक के उदाहरण में मुख और कमल में भेद होने पर भी मुख पर कमल का आरोप हो जाने से अभेद की प्रधाता हो गयी है । सन्देह के उदाहरण में दो वस्तुओं का सादृश्य अनिश्चयात्मक द्वं कोटिक ज्ञान के रूप में दिखाया गया है तो भ्रान्तिमान् के उदाहरण में सादृश्यातिशय का बोध मुख में तद्भिन्न वस्तु (कमल) के एककोटिक निश्चयात्मक ज्ञान के रूप में दिखाया गया है । सभी उक्तिभङ्गियों का पारस्परिक अर्थ भेद भाषाशास्त्रीय अध्ययन की रोचक सामग्री है । हमने विभिन्न आलङ्कारिक उक्तिभङ्गियों की पारस्परिक सूक्ष्म भिन्नता पर स्वतन्त्र अध्याय में विचार किया है ।
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७८६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
यह भाषावैज्ञानिक तथ्य है कि एक कथ्य की अनेक अभिव्यक्तियां होती हैं तथा इसके विपरीत अनेक कथ्यों की एक अभिव्यक्ति भी होती है। भाषा की ये दोनों प्रकार की विशेषताएँ बहुधा आलङ्कारिक प्रयोग पर निर्भर रहती हैं । अतः, अलङ्कारों के स्वरूप-निरूपण में उक्ति तथा अर्थ के ऐसे अनेक विलक्षण सम्बन्धों का विचार किया जाता रहा है। श्लेष, समासोक्ति, अप्रस्तुतप्रशंसा, अन्योक्ति, गूढोक्ति, गूढोत्तर आदि में एक अभिव्यक्ति में अनेक कथ्यों के तथ्य पर विचार हुआ है, तो पर्यायोक्त आदि में एक ही कथ्य की विलक्षण उक्तिभङ्गी पर विचार किया गया है। उसमें अभिधेय अर्थ को अभिधा से न कहकर व्यञ्जना-वृत्ति से कहा जाता है या व्यङग्य अर्थ का अभिधा से कथन होता है। उसमें वाच्य तथा व्यङग्य अर्थ मूलतः एक ही होता है; पर उसके कथन के प्रकार में भेद होता है।
निष्कर्षतः, अलङ्कारों के स्वरूप में भाषा की असंख्य भङ्गिमाओं का अध्ययन होता रहा है। अतः, भाषा-विशेष की प्रकृति को परखने में उसके आलङ्कारिक प्रयोगों का अध्ययन सहायक होता है।
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अष्टम अध्याय
अलङ्कार और मनोभाव
भारतीय काव्यशास्त्र के आचार्यों ने अलङ्कार को मनोभाव के साथ प्रत्यक्षतः सम्बद्ध न मानकर भावोत्कर्ष में प्रकारान्तर से सहायक माना है। अलङ्कार काव्य के शरीरभूत शब्द-अर्थ के सौन्दर्य का उत्कर्ष कर परम्परया काव्यात्मभूत रस-भावादि का भी उपकार करते हैं। निश्चय ही रसाक्षिप्त या अपृथग्यत्ननिर्वर्त्य अलङ्कार काव्य के बहिरङ्ग धर्म नहीं होते; वे काव्योक्ति में अन्तरङ्ग भाव से मिले रहते हैं; पर इस तथ्य को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि कहीं-कहीं अलङ्कार भाव के बाधक भी बन जाते हैं। कठोर वर्णों का अनुप्रास अपने आप में तो अलङ्कार है; पर रति के कोमल मनोभाव का उससे पोषण नहीं हो सकता। इसी दृष्टि से आचार्यों ने अलङ्कार को काव्य-सौन्दर्य का-भावोत्कर्ष का-अनित्य साधक माना है। प्रस्तुत अध्याय में हम मनोभाव की दृष्टि से काव्यालङ्कार के स्वरूप पर विचार करेंगे।
प्राचीन आलङ्कारिकों ने अलङ्कार-विशेष का मनोभाव-विशेष के साथ नित्य सम्बन्ध नहीं माना था। जिन आचार्यों ने अलङ्कार को काव्य-सौन्दर्य का पर्याय मानकर रस-भाव आदि को भी अलङ्कार-विशेष के रूप में निरूपित किया था उन्होंने भी मनोभाव की दृष्टि से अलङ्कार का विषय-विभाग नहीं किया था। रसपेशल को रसवत् अलङ्कार मानने वाले दण्डी आदि आचार्यों ने एक ही अलङ्कार में सभी रसों का-सभी मनोभावों का समावेश मान लिया था । परवर्ती आचार्यों ने भी गुणीभूत रस-भाव आदि को सामान्य रूप से रसवत्, प्रेय आदि अलङ्कार कहा । उन आचार्यों ने चित्त की तीन वृत्तियो-ति, दीप्ति और विकास-स्वीकार कर माधुर्य, ओज और प्रसाद
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७८८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण गुणों के साथ उनका क्रमिक सम्बन्ध माना और सभी रसों का इस दृष्टि से विषय विभाजन किया; पर चित्त की किसी विशेष वृत्ति के साथ किसी विशेष अलङ्कार का नित्य सम्बन्ध उन्होंने नहीं माना । हिन्दी-रीति-साहित्य के आचार्य राय शिवप्रसाद ने 'रसभूषण' में विभिन्न अलङ्कारो का तत्तत् रसों के साथ सम्बन्ध जोड़ने का प्रयास किया था; पर वह सिद्धान्त मान्य नहीं हो पाया । प्रहर्षण, विषादन आदि अलङ्कारों का सम्बन्ध उल्लास, विषाद आदि के मनोभाव से अवश्य है; पर इस आधार पर विभिन्न अलङ्कारों का विभिन्न मनोभावों से नित्य सम्बन्ध नहीं जोड़ा जा सकता। आधुनिक मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के प्रकाश में कुछ समीक्षकों ने विभिन्न अलङ्कारों के अर्थबोध में मानसिक अवस्था-विशेष के निर्धारण का प्रयास किया है। __ डॉ० नगेन्द्र ने अलङ्कारों के मनोवैज्ञानिक आधार का अन्वेषण करते हुए आचार्य भामह तथा दण्डी आदि की इस मान्यता का समर्थन किया है कि सभी अलङ्कारों का मूलाधार अतिशय का तत्त्व है । काव्योक्ति लोक-व्यवहार की उक्ति से - वार्ता से-भिन्न होनी ही चाहिए। अतः, लोकातिशयत्व को भामह, दण्डी आदि आचार्यों ने काव्यालङ्कार का आधारभूत तत्त्व माना था। डॉ० नगेन्द्र की मान्यता है कि अलङ्कार-मात्र का आधारभूत तत्त्व अतिशयभाव का अतिशय-है जिसके मूल में मन का ओज रहा करता है।' इस प्रकार अलङ्कार-सामान्य का सम्बन्ध डॉ० नगेन्द्र ने मन के ओज से माना है। इस एक आधार से -जो शास्त्र-सम्मत है-आगे बढ़कर डॉ० नगेन्द्र. ने फिर तीन आधारों की कल्पना समस्त अलङ्कारों के मूल में की है। वे हैं-अतिशय, वक्रता और चमत्कार । भारतीय अलङ्कारशास्त्र में अतिशय और वक्रता का प्रयोग पर्याय के रूप में हुआ है। भामह ने अतिशयोक्ति के लिए ही वक्रोक्ति शब्द का प्रयोग कर कहा था कि यह वक्रोक्ति ( अतिशयोक्ति ) सभी काव्योक्तियों का प्राणभूत तत्त्व है। चमत्कार भी वक्रता या अतिशय से तत्त्वतः भिन्न नहीं। काव्यशास्त्र में चमत्कार का प्रयोग लोकोत्तर आनन्द के अर्थ में हुआ है। भट्ट नारायण ने इसी अर्थ में चमत्कार को रस का सार कहा था। आनन्दवर्धन, अभिनव - १. डॉ. नगेन्द्र, रीतिकाव्य की भूमिका, पृ० ८६ २. सैषा सर्वव वक्रोक्तिरनयार्थो विभाव्यते । __ यत्नोऽस्यां कविना कार्यः कोऽलङ्कारोऽनया विना ॥
-भामह, काव्यालङ्कार, २, ८५.
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अलङ्कार और मनोभाव
[७८६ गुप्त, क्षेमेन्द्र, विश्वेश्वर आदि आचार्यों ने इसी अर्थ में चमत्कार शब्द का प्रयोग किया है। विश्वेश्वर ने चमत्कार को आनन्द का पर्याय मान कर गुण, रीति, रस, अलङ्कार आदि को उसका हेतु माना है।' पण्डितराज जगन्नाथ ने रमणीय' शब्द के अर्थ का स्पष्टीकरण करते हुए उसे लोकोत्तर आह्लाद या चमत्कार से अभिन्न बताया है ।२ निष्कर्ष यह कि लोकोत्तरता या अतिशय, वक्रता एवं चमत्कार मूलतः अभिन्न माने गये हैं। पीछे चलकर सङ्कचित अर्थ में चमत्कार का प्रयोग सुखद विस्मय के अर्थ में होने लगा है। डॉ० नगेन्द्र ने उक्त तीनों शब्दों के अर्थ के सम्बन्ध में परम्परागत मान्यता की उपेक्षा कर किञ्चित् अर्थ भेद के साथ उन शब्दों का प्रयोग किया है। वे बढा-चढ़ा कर वर्णन को अतिशय, सीधे न कहकर घुमा-फिरा कर कहने को वक्रता और श्रोता को चमत्कृत अर्थात् विस्मय-विमुग्ध कर देने वाले बुद्धि-कौतुक को चमत्कार मानते हैं । यह प्रश्न किया जा सकता है कि यदि अतिशय सभी अलङ्कारों का मूलाधार मान लिया गया तो तीन आधारों की कल्पना करते हुए वक्रता, चमत्कार तथा अतिशय को अलग-अलग मूलाधार मानने में क्या युक्ति होगी ? यदि तीनों को अलग-अलग मूलाधार मानकर समस्त अलङ्कारों को तीन वर्गों में विभाजित किया जाय, तो अतिशयमूलक अलङ्कारवर्ग में आने वाले कुछ अलङ्कारों का ही मूलाधार अतिशय को मानना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में अतिशय का विषय सीमित हो जायगा और यह मान्यता स्वतः खण्डित हो जायगी कि अतिशय सभी अलङ्कारों का मूलाधार है। इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार सम्भव है कि अतिशय को सामान्य रूप से सभी अलङ्कारों का आधार तत्त्व मान लेने पर अतिशय, वक्रता और चमत्कार, इन तत्त्वों के आधार पर अलङ्कारों के वर्गीकरण में उन तत्त्वों में सामान्यविशेष का सम्बन्ध माना गया है। अतिशय सामान्य रूप से सभी
१. चमत्कारस्तु विदुषामानन्दपरिवाहकृत् ।
गुणं रीति रसं वृत्ति पाकं शय्यामलङ्क तिम् । सप्तैतानि चमत्कारकारणं ब्रवते बुधाः ॥-विश्वेश्वर, चमत्कार चद्रिका उद्ध त, राघवन, Some concepts of Alankarasastra
पृ० २०० २. रमणीया प्रतिपादकः शब्दः काव्यम् । रमणीयता च लोकोतराह्लाद
जनकज्ञानगोचरता । लोकोत्तरत्वं चाह्लादगतः चमत्कारापरपर्यायः अनुभवसाक्षिको जातिविशेषः ।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ६
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७६० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अलङ्कारों में रहता है; पर उसके साथ कुछ अलङ्कारों में चमत्कार रहता है और कुछ में वक्रता तथा कुछ में अतिशय-कथन । सामान्य रूप से सभी अलङ्कारों में रहने वाले अतिशय का अर्थ है-लोकव्यवहार की उक्ति से काव्योक्ति को अलग करने वाली रमणीयता। अतिशय वर्ग के अलङ्कारों का मूल-तत्त्व बढा-चढ़ाकर कथन है। पर इस युक्ति से भी सभी समस्याओं का समाधान नहीं हो पाता। अतिशय, वक्रता तथा उससे उत्पन्न चमत्कार को परम्परा से तत्त्वतः अभिन्न माना जाता रहा है। इन्हें अलगअलग मानने में पाठक का संस्कार बाधक हो सकता है।
और अधिक विस्तृत आधार का अन्वेषण करते हुए डॉ० नगेन्द्र ने अलङ्कारों के छह आधार स्वीकार किये हैं और उनका सम्बन्ध चित्त की छह अवस्थाओं से माना है। वे आधार हैं-साधर्म्य. अतिशय, वैषम्य, औचित्य, वक्रता और चमत्कार । इनका सम्बन्ध स्पष्टता, विस्तार, आश्चर्य, अन्विति, जिज्ञासा और कौतूहल की मनोदशा से माना गया है। इन छह आधारों में से अतिशय, वक्रता और चमत्कार को मूलाधार मानने के औचित्य पर हम विचार कर चुके है । तीन नवीन आधार हैं—साधर्म्य, वैषम्य और औचित्य । साधर्म्यमूलक अलङ्कारों का एक वर्ग भारतीय अलङ्कारशास्त्र में प्राचीन काल से ही मान्य रहा है । वैषम्य, सम्भवतः, विरोध के स्थान पर नवीन शब्द का प्रयोग है। विरोध को भी अनेक अलङ्कारों का समान आधार आलङ्कारिकों ने माना है । औचित्य को कुछ अलङ्कारों का मूलाधार मानने में औचित्य शब्द का प्रयोग कुछ विशिष्ट एवं सङ कुचित अर्थ में किया गया है । औचित्य के सम्बन्ध में भारतीय अलङ्कारशास्त्र के पाठकों की बड़ी व्यापक धारणा रही है।
औचित्य काव्य के सभी तत्त्वों का प्राणभूत तत्त्व माना गया है। अनौचित्य काव्य के अनेक दोषों को जन्म देता है। औचित्य के अभाव में गुण, अलङ्कार आदि के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। औचित्य को मूलाधार मानने में सम्भवतः डॉ० नगेन्द्र की दृष्टि में वे अलङ्कार थे, जो अनुरूप घटना तथा अनुक्रम आदि पर आधृत होते हैं । अनुक्रम या अनुरूपता आदि के लिए औचित्य-जैसे शब्द का, जिसे काव्यशास्त्र में विशेष सङ केत प्राप्त है, प्रयोग उचित नहीं जान पड़ता। उक्त छह आधारों पर वर्गीकृत अलङ्कारों का पूर्वोक्त छह मनोभावों से सम्बन्ध दिखाते हुए कहा गया है कि ऐसा करने के लिए ( उक्ति को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए ) हम सदृश लोकमान्य वस्तुओं से तुलना के द्वारा अपने कथन को स्पष्ट बना कर उसे
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अलङ्कार और मनोभाव
[ ७९१ श्रोता के मन में अच्छी तरह, बिठाते हैं, बात को बढ़ा-चढ़ाकर उसके मन का विस्तार करते हैं, बाह्य वैषम्य आदि का नियोजन करके उसमें आश्चर्य की उद्भावना करते हैं, अनुक्रम या औचित्य की प्रतिष्ठा करके उसकी वृत्तियों को अन्वित करते हैं, बात को घुमा-फिराकर वक्रता के साथ कहकर उसकी जिज्ञासा का उद्दीपन करते हैं अथवा बुद्धि की करामात दिखाकर उसके मन में कौतूहल उत्पन्न करते है ।"
इसमें सन्देह नहीं कि सादृश्यमूलक अलङ्कार स्पष्टतया अर्थबोध में सहायक ही नहीं, कहीं-कहीं उसके लिए अनिवार्य भी हो जाते हैं । हमने अलङ्कारों के भाषाशास्त्रीय अध्ययन में इस तथ्य पर विचार किया है कि अमूर्त भाव, विचार आदि को मूर्त रूप में प्रस्तुत करने में उपमान का सहारा आवश्यक होता है । पर स्पष्टता तक ही सादृश्यमूलक अलङ्कारों का क्षेत्र सीमित नहीं । रूपकातिशयोक्ति भी सादृश्य पर आधृत अलङ्कार है, जिसमें उपमान का कथन सादृश्य के कारण उपमेय का भी बोध करा देता है, फिर भी उसमें चित्त-विस्तार का गुण पाया जा सकता है । निदर्शना में वस्तुसम्बन्ध का अभाव रहने पर उनमें उपमानोपमेय-भाव की परिकल्पना से अन्विति का तत्त्व पाया जा सकता है । अपह्नति में यथार्थ प्रकृत का निषेध और अयथार्थ अप्रकृत की स्थापना में जिज्ञासा का तत्त्व रहता है । प्रकृत वस्तु का निषेध अनिवार्यतः जिज्ञासा उत्पन्न करता है । अनेक उपमान आश्चर्य के मनोभाव को भी जाग्रत करने में सहायक होते हैं । वेग के लिए विद्य ुत् का उपमान आश्चर्य उत्पन्न कर सकता है । 'कन्दुक इव ब्राह्माण्ड उठाऊ' इस कथन में ब्रह्माण्ड के लिए कन्दुक उपमान निश्चय ही आश्चर्य की सृष्टि करता है; क्योंकि वह उपमान लक्ष्मण की असीम शक्ति की व्यञ्जना में सहायक है । पात्रौचित्य के कारण असङ्गत उपमान की योजना भी चमत्कार की सृष्टि की जाती है । 'मृच्छकटिक' में इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं । 3 अलङ्कारशास्त्र के आचार्यों ने कहा था कि जहाँ रसभाव आदि का अभाव हो, वहाँ कोई भी अलङ्कार उक्तिवैचित्र्य मात्र में पर्यवसित होता है । ऐसी स्थिति में वह चमत्कार उत्पन्न किया करता है । अभिप्राय यह कि जहाँ कवि
१. डॉ० नगेन्द्र, रीतिकाव्य की भूमिका, पृ० ८६-८७
२. प्रस्तुत ग्रन्थ, अध्याय ७
३. द्रष्टव्य - शूद्रक, मृच्छकटिक १
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७६२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
का उद्देश्य केवल अलङ्कार-योजना का चमत्कार प्रदर्शित करना हो, वहां उपमा आदि सादृश्यमूलक अलङ्कार भी उक्तिवैचित्र्य मात्र की सृष्टि करते हुए पाठक के मन में कौतूहल ही जाग्रत करेंगे । सादृश्यमूलक अलङ्कार स्पष्टता, विस्तार, आश्चर्य, अन्विति, जिज्ञासा और कौतूहल; इन सभी मनोभावों की सृष्टि कर सकते हैं । यदि काव्य में रस रहे तो एक ही अलङ्कार विभिन्न रसों में सहायक बनकर तत्तत् मनोभावों को तीव्र करने में सहायक होता है । परस्पर विरोधी मनोभावों का उत्कर्ष भी एक ही अलङ्कार कर सकता है। इस दृष्टि से एक उत्प्रेक्षा के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं -प्रसाद ने श्रद्धा के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए यह कल्पना की है--
नील परिधान बीच सुकुमार
खुला था मृदुल अबखला अंग। खिला हो ज्यों बिजली का फूल
मेघ वन बीच गुलावी रंग ।।' इसमें कल्पित उपमान सौन्दर्य-बोध को तीव्र बनाकर शृङ्गार की भावना को पुष्ट करता है। मनोभाव की कोमलता की-काव्यशास्त्र में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्द में कहें तो चित्त की द्र ति की सृष्टि में उक्त उपमानयोजना सहायक है।
लता भवन ते प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ ।
निकसे जन जुग बिमल बिधु जलद पटल विलगाइ ॥२ यह उत्प्रेक्षा भी सौन्दर्य-बोध को तीव्र करने में सहायक है और मन की कोमल अनुभूति को तीव्र करने में सहायक है । पर;
___ जानहु अगिनि के उठइ पहाड़ा."3 इस उत्प्रेक्षा में अग्निपर्वत की कल्पना मन को विस्मित करती है, उसे दीप्त करती है।
मानहु सरोस भुअंग भामिनि विषम मांति निहारई ।।
१. जयशङ्कर प्रसाद, कामायनी २. तुलसी, रामचरितमानस, बालकाण्ड ३. जायसी, पद्मावत ४. तुलसी, रामचरितमानस, अयोध्याकाण्ड
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अलङ्कार और मनोभाव
[ ७६३
इस कल्पना में उपमान कैकेयी के स्वरूप की भीषणता के बोध को तीव्र कर मन को दीप्त करने में सहायक होता है। स्पष्ट है कि उत्प्रेक्षा या किसी भी अन्य सादृश्य, या विरोध आदि मूलक अलङ्कार को किसी विशेष मनोदशा के साथ नियत रूप से सम्बद्ध करना युक्तिसङ्गत नहीं। एक ही उपमान ' परस्पर विरोधी प्रभाव की वृद्धि भी कर सकता है। रमणी की काली लट के लिए नागिन उपमान उसके सौन्दर्य-बोध को तीव्र करता है; पर रमणी को नागिन के समान कहा जाय तो वही उपमान भीषणता का प्रभाव बढ़ाता है । एक ही अलङ्कार भाव-विशेष के साथ रहकर उसकी तीव्रता में सहायक हो सकता है और वही उस भाव के विरोधी भावों के साथ रह कर उनका भी पोषण कर सकता है। हाँ, भाव हीन काव्य में भी अलङ्कार उक्ति-भङ्गी का विलक्षणता से अर्थ-ग्रहग की विभिन्न मानसिक दशाओं की सृष्टि करते हैं । अलङ्कार-सामान्य को दृष्टि में रखते हुए यह कथन ठीक है कि अलङ्कार स्पष्टता, विस्तार, आश्चर्य, अन्विति, जिज्ञासा तथा कौतूहल के मनोभाव को जगाने में सहायक होते हैं। पर इनमें से किसी विशिष्ट मनोभाव के साथ विशिष्ट अलङ्कारों का नित्य सम्बन्ध नहीं जोड़ा जा सकता-इन मनोभावों के आधार पर अलङ्कारों का वर्गीकरण नहीं किया जा सकता । साहित्यशास्त्र में अलङ्कार मनोभाव से परम्परया ही सम्बद्ध माने गये हैं। रस-भाव-पूर्ण काव्य में कोई भी एक अलङ्कार विभिन्न मनोभावों का पोषण करता हुआ देखा जा सकता है। रसहीन काव्य में भी स्पष्टता, चमत्कार आदि उत्पन्न करना अलङ्कार का लक्ष्य होता है।
अलङ्कार के स्वरूप-निरूपण-क्रम में आचार्यों ने जिस मानसिक प्रक्रिया पर ध्यान रखा है, उसका आधुनिक मनोविज्ञान के सिद्धान्त के प्रकाश में अध्ययन रोचक विषय होगा। अपृथग्यत्ननिर्वत्यं अलङ्कार काव्योक्ति के अन्तरङ्ग तत्त्व होते हैं । वे भाव के सहजात होते हैं। उन अलङ्कारों से युक्त उक्ति-विशेष मनोभाव-विशेष को उत्पन्न करते हैं। अतः, विशेष सन्दर्भ में अलङ्कार-विशेष का मनोभाव-विशेष के साथ सम्बन्ध-निरूपण किया जा सकता है। सादृश्य, विरोध, अतिशय आदि के आधार पर अलङ्कारों के स्वरूप का निरूपण मनोवैज्ञानिक धारणा पर आधत है। मनोविज्ञान में साहचर्य को एक वस्तु के ज्ञान से अन्य वस्तु के ज्ञान में सहायक माना जाता है । सादृश्य और विरोध साहचर्य के ही दो भेद हैं। एक वस्तु का ज्ञान उसके सदृश अन्य वस्तु का ज्ञान कराने में सहायक होता है । इसीलिए मीमांसा दर्शन के ज्ञान
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७९४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण विवेचन में उपमान को ज्ञान का एक प्रमाण माना गया है। नीलगाय गाय के समान होती है, इस कथन से गाय का ज्ञान सादृश्य के आधार पर नील गाय के ज्ञान में सहायक होता है। पूर्वानुभूत दो सदृश वस्तुओं में से एक का ज्ञान दूसरे की स्मृति जगा देता है। काव्य में प्रस्तुत वस्तु के लिए जो अप्रस्तुत की योजना की जाती है, उसकी प्रक्रिया पर इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को दृष्टि में रखकर विचार किया जा सकता है । सामान्यतः यह माना जाता है कि प्रस्तुत वस्तु के रूप-गुण आदि को और अधिक उत्कर्ष प्रदान करने के लिए अधिक गुणवान् उपमान की योजना की जाती है। कवि वर्ण्य वस्तु के सम्बन्ध में पाठक की निश्चित धारणा जगाने के लिए उसके मन में किसी ऐसी वस्तु की धारणा जगा देता है, जिसके रूप-गुण के विशिष्ट प्रभाव से पाठक का मन पहले से परिचित रहता है। यह विशिष्ट प्रभाव जगकर प्रस्तुत का भी वैसा ही प्रभावपूर्ण चित्र बना देता है। अप्रस्तुत के रूप-गुण की-सी ही अनुभूति प्रस्तुत के रूप-गुण की भी हो जाती है। काव्य के भावन की प्रक्रिया की दृष्टि से निश्चय ही उक्त रूप में अप्रस्तुत प्रस्तुत के उत्कर्ष में सहायक होता है; पर काव्य की सृजन-प्रक्रिया को दृष्टि से भी सादृश्यमूलक अलङ्कार में उपमान-योजना के मनोवैज्ञानिक महत्त्व पर विचार किया जाना चाहिए। इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि कवि के मन में उपमेय का सौन्दर्य-बोध सादृश्य के कारण अनेक अप्रस्तुतों की स्मृति अनायास ही जगा देता है। ऐसी स्थिति में प्रस्तुत के सौन्दर्य-बोध की अभिव्यक्ति के क्रम में अनेक अप्रस्तुत स्वतः आ मिलते हैं। रससिद्ध कवि की भावाभिव्यक्ति की इसी सहज प्रक्रिया को दृष्टि में रखकर आनन्दवर्धन ने कहा होगा कि उनके काव्य में आगे आकर अभिव्यक्ति पाने के लिए उपमानों में होड़ लग जाती है। इस तरह कहीं-कहीं प्रस्तुत के उत्कर्ष साधन में उपमान सहायक बनाकर लाये जाते हैं तो कहीं-कहीं वे अनायास ही कवि की अनुभूति के अङ्ग बनकर आ जाते हैं।
साधर्म्य के साथ वैधर्म्य के आधार पर भी अनेक अलङ्कारों के स्वरूप का निरूपण किया गया है । एक ही अलङ्कार का स्वरूप-विधान साधर्म्य से भी होता है और वैधर्म्य से भी। अतः साधर्म्य तथा वैधयं के आधार पर अलङ्कारों को अलग-अलग वर्गों में विभाजित करना कठिन है।
विरोधमूलक, अतिशयमूलक आदि अलङ्कारों के स्वरूप-निरूपण में भी आचार्यों की दृष्टि किसी-न-किसी मनोवैज्ञानिक तथ्य पर रही थी। विरोध,
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अलङ्कार और मनोभाव
[७६५.
विषम आदि में विरूप वस्तुओं की घटना वाञ्छनीय मानी गयी है। मनोवैज्ञानिक तथ्य यह है कि किसी मनोभाव को उसका विरोधी मनोभाव और भी तीव्र करने में सहायक होता है। विरोधी रङ्ग के पट पर रेखा का रङ्ग अधिक उभरता है। चित्र-फलक जितना उज्ज्वल होता है काली रेखा उतनी ही अधिक निखरती है। मनोभाव की भी यही स्थिति होती है। किसी वस्तु की कोमलता की अनुभूति तब और अधिक तीव्र हो जाती है जब मन में उसके साथ ही किसी वस्तु की कठोरता की अनुभूति भी जगा दी जाती है। विचित्र आदि अलङ्कार में भी जहाँ इच्छित फल के प्रतिकूल कार्य का वर्णन-जैसे उन्नति पाने के लिए किसी के आगे झुकने आदि का वर्णन होता है, वहां कर्ता के आचरण की विचित्रता का बोध, उसकी इच्छा और क्रिया के विरोध से, पाठक के मन में तीव्रता के साथ उभर आता है। अतिशयमूलक अलङ्कार में तो कवि का स्पष्ट उद्देश्य ही यही रहता है कि वह वस्तु का सातिशय वर्णन कर उसके प्रति पाठक के मन में तीव्र भाव जगावे । स्मृति, भ्रान्ति, सन्देह आदि अलङ्कारों का सीधा सम्बन्ध तत्तत् मनोदशाओं से माना गया है। स्मृति आदि की मनोदशा का जो स्वरूप अलङ्कारशास्त्र के आचार्यों ने प्रतिपादित किया था वह आधुनिक मनोविज्ञान के विद्वानों को भी मान्य है। निष्कर्ष यह कि समग्रतः अलङ्कारों के स्वरूप में तत्तत् मनोभावों को तीव्र करने की धारणा आचार्यों के मन में अवश्य थी; पर अलङ्कार-विशेष को उन्होंने मनोभाव-विशेष के साथ सयुक्त नहीं किया था। मनोभाव-विशेष के साथ अलङ्कार-विशेष को जोड़ने का कोई भी प्रयास दोष-मुक्त नहीं होगा; साथ ही वह भारतीय अलङ्कारशास्त्र के मान्य मनीषियों के चिन्तन का विरोधी भी होगा।
विभिन्न अलङ्कारों में अर्थबोध की तत्तत् मानसिक प्रक्रिया पर विचार किया जा सकता है। अलङ्कार उक्ति के विभिन्न प्रकार ही हैं। प्रत्येक उक्तिभङ्गी की अर्थग्रहण- प्रक्रिया कुछ विशिष्ट होती ही है । अतः, एक मूल तत्त्व पर आधृत अलङ्कारों के स्वरूप में भी पर्याप्त पारस्परिक भेद रहता है । इसपर हमने स्वतन्त्र अध्याय में विचार किया है । अलङ्कारों के विभिन्न वर्गों की कल्पना के लिए जो मूल तत्त्व आचार्यों ने स्वीकार किये हैं, उनमें अर्थबोध की विशिष्ट प्रक्रिया पर ध्यान रखा गया है। भामह, कुन्तक आदि ने वक्रोक्ति या अतिशयोक्ति को सभी अलङ्कारों का मूल तत्त्व माना था। कुन्तक ने तो इसी आधार पर स्वभावोक्ति आदि को अलङ्कार-क्षेत्र से बहिष्कृत करने का भी प्रयास किया था। निश्चय ही काव्य की उक्तियाँ लोक की उक्तियों
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७६६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण से अपेक्षाकृत अधिक रमणीय या चमत्कारपूर्ण होती हैं; किन्तु लोक की उक्तियों को काव्य के लिए सर्वथा अनुपयुक्त नहीं माना जा सकता। काव्य की उक्तियों की रमणीयता को भी लोकोत्तर कहने का तात्पर्य उसे लोकजीवन से सर्वथा विच्छि न मानने का नहीं है। काव्य में लोक-जीवन का भी चित्रण होता है; उसकी पुनःसृष्टि होती है। काव्य कवि की मानस-सृष्टि है। अतः उसमें चित्रित लोक-जीवन भी नया रूप धारण कर-लोकोत्तर बनकर-हमारे सामने आता है। तथ्य यह है कि कवि की मानस-सृष्टि लोकजीवन के सत्य के जितना निकट पहुँच पाती है, उतना ही अधिक उसका मूल्य होता है। कितनी ही लोकोक्तियाँ, लोक-प्रचलित कहावत और मुहावरे सरस कवि के काव्य में प्रयुक्त हुए हैं। अतः, चमत्कारवादी आचार्यों की यह धारणा–कि काव्य की सभी उक्तिभङ्गियों के मूल में अतिशय का तत्त्व रहना ही चाहिए, मान्य नहीं हुई। एक ओर जहाँ अलङ्कार आदि के अनाव में भी रससिद्ध कवि की सहज रसमय वाणी को काव्य माना गया, वहाँ दूसरी ओर काव्यालङ्कार के क्षेत्र में भी लोकोक्ति, स्वभावोक्ति आदि अलङ्कारों का अस्तित्व स्वीकृत हुआ। कवि के हृदय का भाव द्वग सदा अतिशय के तत्त्व का सहारा लेकर ही व्यक्त हो, यह आवश्यक नहीं। उसके 'भाव को सही-सही व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त अलङ्कारों में सदा लोकोत्तर 'चमत्कार या अतिशय का तत्त्व रहे; यह भी आवश्यक नहीं । इसीलिए अधिकांश
आचार्यों ने अतिशय को कुछ ही अलङ्कारों का मूल तत्त्व स्वीकार किया, सभी अलङ्कारों का नहीं। स्पष्ट है कि सभी अलङ्कारों के मूल में अतिशय का तत्त्व मानकर उसके आधार पर अलङ्कारमात्र को मन के विस्तार की प्रक्रिया से सम्बद्ध मानने में दो मत हो सकते हैं। यदि अतिशयोक्ति या वक्रोक्ति का सामान्य अर्थ-वार्ता या कुशल-समाचार आदि की उक्ति से विलक्षण काव्यात्मक उक्ति अर्थ-माना जाय तब तो भामह आदि की इस मान्यता का औचित्य असन्दिग्ध है कि वक्रोक्ति सभी अलङ्कारों का प्राण है; पर विशिष्ट अर्थ में अतिशयोक्ति-बढ़ा-चढ़ा कर उक्ति-कुछ अलङ्कारों का ही मूल तत्त्व मानी जा सकती है। प्रस्तुत सन्दर्भ में अलङ्कार विशेष के स्वरूप को दृष्टि में रखकर उनके अर्थबोध की मानसिक प्रक्रिया पर विचार कर लेना वाञ्छनीय होगा।
उपमा-ऐतिहासिक दृष्टि से उपमा प्रथम अलङ्कार है, जिसने सादृश्यमूलक अनेक अलङ्कारों को जन्म दिया है। कुछ आचार्यों ने तो केवल
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अलङ्कार और मनोभाव
[७६७.
औपम्यगर्भ अलङ्कारों को ही काव्य के अलङ्कार के रूप में स्वीकार किया है। इस मान्यता में कुछ दुराग्रह हो सकता है; पर इसमें सन्देह नहीं कि अधिकांश महत्त्वपूर्ण अलङ्कार औपम्यगर्भ अलङ्कार-वर्ग में ही आते हैं। उपमा में दो वस्तुओं-प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत-में सादृश्य के आधार पर वर्ण्य वस्तु की अवर्ण्य के साथ तुलना की जाती है। सादृश्य में दो वस्तुओं में कुछ सामान्य तथा कुछ विशेष की धारणा रहती है । दोनों में कुछ समान धर्म न हों तो दोनों की तुलना का कोई आधार ही नहीं होगा और यदि दोनों में अपने-अपने विशेष धर्म न रहें तो, दोनों में कुछ भेद ही नहीं रह जायगा। उपमा आदि में भेद तथा अभेद दोनों समान रूप से प्रधान रहते हैं; अतः उन्हें मेदाभेदतुल्य-. प्रधान अलङ्कार माना गया है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उपमा अलङ्कार पर विचार करने से कई तथ्य सामने आते हैं। प्रस्तुत के समकक्ष जो अप्रस्तुत रखा जाता है उससे प्रमाता का मन अलग-अलग दो बिम्ब ग्रहण करता है। एक साथ मन एक से अधिक अर्थ ग्रहण नहीं करता। अनेक अर्थों के बोध में एक सूक्ष्म क्रम अवश्य रहा करता है। उपमा में पहले उपमान भी रखा जा सकता है और उपमेय भी। इस प्रकार मन एक का बिम्ब-ग्रहण कर अव्यवहित रूप से अन्य का भी बिम्ब ग्रहण करता है। मन में उभरने वाला एक बिम्ब अपने समीपस्थ दूसरे बिम्ब को प्रभावित कर देता है। उपमान के गुणोत्कर्ष की जो धारणा प्रमाता में पहले रहती है, उस गुणोत्कर्ष की धारणा के साथ मन में उभरने वाला अप्रस्तुत का बिम्ब प्रस्तुत के गुणोत्कर्ष की धारणा को जगाने में भी सहायक होता है। इस प्रकार वर्णनीय विषय के साथ अन्य वस्तु के बोध कराने की प्रक्रिया से उपमा मनोभाव का विस्तार करती है। कहीं-कहीं अर्थ की स्पष्टता में भी उपमा सहायक होती है। ऐसी स्थिति में स्पष्टता में सहायक होकर उपमा मन के विकास का भी हेतु बनती है; पर स्पष्टता उपमा का सार्वत्रिक धर्म नहीं है। शास्त्रीय उपमान की कल्पना सभी पाठकों के मन मे अर्थबोध स्पष्ट करने में सहायक नहीं भी हो सकती। जहाँ प्रस्तुत के रूप, गुण, क्रिया आदि के उत्कर्ष के उद्देश्य से ही अत्यन्त उत्कृष्ट गुण आदि वाले उपमान की योजना की जाती है, वहाँ पाठक का मन चमत्कृत भी हो उठता है । शत्रु पर आक्रमण के वेग का बोध कराने के लिए यदि यह कहा जाय कि 'विद्य त् के वेग से वह शत्रु पर टूट पड़ा' तो विद्य त्-वेग का बोध पाठक के मन को चमत्कृत ही करेगा। स्पष्टतः उपमा को किसी एक मनोदशा से सम्बद्ध नहीं किया जा सकता। वह मन के
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'७६८ ].
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
"विस्तार, विकास, चमत्कार आदि विभिन्न वृत्तियों, में सहायक हो सकती है। उपमा के विभिन्न वाचक शब्दों 'इव', 'यथा', 'सदृश', 'तुल्य' 'वत्' आदि के आधार पर न केवल वाक्य-योजना में भेद हुआ करता है; वरन् उनके अर्थबोध में भी सूक्ष्म भेद रहा करता है। मानसिक वृत्तियों के अध्ययन में उपमा के वाचक-भेद पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए । मम्मट, विश्वनाथ, जगन्नाथ आदि आचार्यों ने उपमा के विभिन्न भेदों पर इस दृष्टि से व्यापक विचार किया है। उन्होंने उपमा के त त् भेदों के अर्थबोध की परस्पर विलक्षणता का सङ्कत दिया है। डॉ० गोंडा ने वाचक शब्दों के आधार पर उपमा के विभिन्न भेदों के अर्थबोध में होने वाले अन्तर का उल्लेख किया है। इस एक अलङ्कार के अनेक भेदों पर विचार किये बिना समग्र रूप से उपमा को मन की एक वृत्ति से जोड़ देना युक्तिसङ्गत नहीं।
अनन्वय :-अनन्वय में वर्ण्य वस्तु की उसी के साथ तुलना की जाती है। इस प्रक्रिया में पाठक को वर्ण्य वस्तु की अनन्यसाधारणता का बोध होता है। ऐसा जान पड़ता है कि कवि का मन वर्ण्य वस्तु के लिए अन्य उपमान ढूढ कर थक गया हो और उस वर्ण्य के समान अन्य वस्तु न पाकर उसने उपमेय को ही उसका उपमान भी बना दिया हो। इस प्रकार अनन्वय में वर्ण्य की असाधारणता के बोध से पाठक का मन चमत्कृत होता है। इस असाधारणता के बोध के क्रम में पाठक का मन वर्ण्य के सम्भावित उपमानों की वर्ण्य की तुलना में हीनता का भी बोध ग्रहण करता है ।
उपमेयोपमा :-वर्ण्य तथा अवर्ण्य की परस्पर उपमा में दो ही वस्तुओं का पारस्परिक सादृश्य नियन्त्रित हो जाता है। इससे पाठक का मन किसी भी तीसरी वस्तु के साथ वर्ण्य के सादृश्य की सम्भावना का निषेध करता हुआ दो वस्तुओं के सादृश्य का बोध ग्रहण करता है। अन्य-सादृश्य-व्यवच्छेद की इस प्रक्रिया में भी पाठक का मन एक उपमान को छोड़ वर्ण्य के अन्य सम्भावित उपमानों के साथ वर्ण्य के सादृश्य का निषेध करता हुआ दो वस्तुओं के सादृश्य का बोध करता है ।
रूपक :-उपमेय पर उपमान का आरोप होने पर पाठक का मन प्रधानतः दोनों के अभेद का बोध करता है। यद्यपि रूपक में भी उपमेय और उपमान में कुछ भेद और कुछ अभेद अवश्य रहता है; पर प्रधानता अभेद की हो जाती है। इस अलङ्कार में दो वस्तुओं के गुणों का अभेद-बोध होता है।
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अलङ्कार और मनोभाव
[७६६ प्रतीप-उपमा की प्रक्रिया के विपरीत उपमान को उपमेय तथा उपमेय को उसका ( सामान्यतः स्वीकृत उपमान का ) उपमान बनाये जाने पर पाठक का मन उपमेय के गुणोत्कर्ष का बोध करता है। उपमान में गुण की उत्कृष्टता पूर्व-स्वीकृत रहती है। उसे उपमेय बनाकर जब वर्ण्य विषय को ही उसका उपमान बनाया जाता है तो पाठक का मन उपमान की अपेक्षा भी उपमेय में गुणाधिक्य का अनुभव करता है। प्रत्यक्षतः दो वस्तुओं में किसी के गुणोत्कर्ष का कथन न होने पर भी उपमेय के गुणोत्कर्ष का बोध कर पाठक का मन चमत्कृत हो उठता है।
व्यतिरेक-उपमान की अपेक्षा उपमेय का आधिक्य-कथन (कुछ आचार्यों के मतानुसार उपमेय की अपेक्षा उपमान का आधिक्य-कथन भी) होने पर व्यतिरेक में पाठक का मन वस्तु के गुणोत्कर्ष की धारणा से चमत्कृत हो उठता है। व्यतिरेक में वस्तु का अन्य की अपेक्षा गुणाधिक्य शब्दतः कथित होता है, प्रतीप की प्रक्रिया के समान व्यजित नहीं। उपमेय के सामने उपमान की व्यर्थता, एक की अपेक्षा दूसरे के उत्कर्ष या अपकर्ष का कथन या केवल किसी का उत्कर्ष अथवा अपकर्ष-कथन-सभी प्रक्रियाएं वस्तु के गुणाधिक्य का ही बोध कराती हैं। ___अपह्न ति-प्रकृत वस्तु का निषेध कर अप्रकृत की स्थापना में—निषेध'पूर्वक आरोप में-पाठक का मन प्रकृत तथा अप्रकृत के बीच अभेद की प्रधानता का अनुभव करता है; पर इस अलङ्कार का प्रधान वैशिष्ट्य निषेध की प्रक्रिया में है। प्रकृत का निषेध पाठक के मन में एक प्रकार का कौतूहल उत्पन्न करता है और अन्य का आरोप होने पर दो वस्तुओं के अभेद-प्रधान सादृश्य के अनुभव से पाठक का मन विकसित हो उठता है।
परिणाम-परिणाम को व्यवहारान्त आरोप कहा गया है। इसमें आरोपित उपमान उपमेय के रूप में परिणत होकर क्रिया की अन्विति प्राप्त करता है। उपमान की क्रिया के साथ अनन्विति का बोध होने पर उपमेयात्मना परिणत होकर उपमान का क्रिया के साथ अन्वित होने का बोध पाठक के मन को अन्वित करता है।
उत्प्रेक्षा-उपमेय में उपमान की सम्भावना-असिद्ध अध्यवसायउत्प्रेक्षा का स्वरूप है। इस सम्भावना में संशयात्मक ज्ञान होने पर भी उपमान का ज्ञान उत्कृष्ट कोटि का रहता है। उपमेय और उपमान के अभेद की प्रधानता रहती है और उपमेय की अपेक्षा अमान के ग्रहण में मन का झुकाव
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८०० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अधिक रहता है। इस प्रकार दो वस्तुओं का ज्ञान रहने पर भी उपमेय को उपमान के रूप में ही ग्रहण करने की वृत्ति अधिक प्रबल रहती है। अन्य को (वस्तु, हेतु तथा फल को) अन्य (वस्तु, हेतु तथा फल) के रूप में सम्भावित करने में प्रमाता का उत्कृष्ट ककोटिक संशयात्मक ज्ञान चमत्कार का हेतु होता है। - सन्देह, भ्रान्ति, स्मृति-कवि-निबद्ध पात्र का उपमेय तथा उपमान में सादृश्यातिशय के कारण उत्पन्न संशय, भ्रम एवं स्मरण पाठक के मन को चमत्कृत कर देता है। स्मृति, भ्रान्ति एवं सन्देह; ज्ञान की विभिन्न दशाए हैं। ध्यातव्य है कि कवि तथा पाठक को संशयात्मक या भ्रमात्मक ज्ञान नहीं होता है। कवि की प्रतिभा काव्य में निबद्ध पात्र की तत्तत् मानसिक दशाओं का वर्णन कर उपमेय और उपमान के अतिशय सादृश्य की व्यञ्जना कराती है, जिससे पाठक के मन में चमत्कार उत्पन्न होता है।
दीपक, तुल्ययोगिता-अनेक पदार्थों का एक धर्म से सम्बन्ध-दीपक में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत का एक धर्माभिसम्बन्ध एवं तुल्ययोगिता में अनेक प्रस्तुतों अथवा अनेक अप्रस्तुतों का एक धर्माभिसम्बन्ध–पाठक के मन का विस्तार करता है। एक धर्म से सम्बद्ध अनेक पदार्थों का ग्रहण चित्तविस्तार का द्योतक है।
समासोक्ति, अप्रस्तुतप्रशंसा-समासोक्ति में प्रस्तुत के कथन से अप्रस्तुत की व्यञ्जना होने पर तथा इसके विपरीत अप्रस्तुतप्रशंसा में अप्रस्तुत के वर्णन से प्रस्तुत की व्यञ्जना होने पर पाठक का चित्त एक अर्थ का बोध कर अन्य के ग्रहण के लिए विस्तृत हो जाता है ।
उल्लेख-एक वस्तु का प्रमाता-भेद से अथवा हेतु-भेद से अनेकधाः उल्लेख पाठक के मन को चमत्कार से भर देता है ।
अतिशयोक्ति-विषय का निगरणपूर्वक सिद्ध अध्यवसान अतिशयोक्ति का स्वरूप है। केवल अप्रस्तुत का कथन होने पर जहाँ सादृश्य के कारण प्रस्तुत का बोध होता है, वहाँ मन अप्रस्तुत का बोध करते ही प्रस्तुत के ग्रहण के लिए विस्तार पा लेता है।
प्रतिवस्तूपमा-प्रतिवस्तूपमा में वस्तुप्रतिवस्तु-सम्बन्ध से स्थित दो वस्तुओं—प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत-का बोध होने से मन में विस्तार की दशा रहती है। .. दृष्टान्त-दृष्टान्त में भी बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव से रहने वाले दो पदार्थों का बोध करने में मन विस्तार प्राप्त करता है।
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अलङ्कार और मनोभाव
[८०१ निदर्शना-प्रस्तुत अलङ्कार में वस्तु-सम्बन्ध के सम्भव या असम्भव होने. पर उन वस्तुओं में उपमानोपमेय-भाव की कल्पना की जाती है । उपमानोपमेयभाव से वस्तुओं की सङ्गति बैठ जाने पर पाठक का मन अन्वित हो जाता है।
सहोक्ति, विनोक्ति-एक वस्तु के साथ (सहोक्ति में) तथा एक के अभाव में (विनोक्ति में) दूसरी वस्तु की विशेष स्थिति का बोध क्रमशः इन अलङ्कारों का लक्षण है। इन में दो वस्तुओं की स्थिति का बोध करने के लिए मन विस्तृत होता है।
श्लेष—श्लेष में अभङ्ग या सभङ्ग पद से अनेक अर्थ का ग्रहण कर पाठक का मन चमत्कृत होता है।
स्वभावोक्ति-वस्तु-स्वभाव का यथार्थ वर्णन चित्त के विकास का हेतु होता है।
भाविक-भूत-भावी अर्थ का प्रत्यक्षायमाणत्व पाठक के चित्त को विकसित करता है।
उदात्त-वस्तु की समृद्धि अथवा व्यक्ति के आशय की उदात्तता का वर्णन चित्त का विस्तार करता है।
आक्षेप-आक्षेप में वक्ता के स्वयं कथित अर्थ का पुनः निषेध देख कर पाठक जो तात्पर्यार्थ ग्रहण करता है वह उसके मन को चमत्कृत कर देता है। प्रत्यक्ष कथन की अपेक्षा विधिमुखेन निषेध की व्यञ्जना अथवा निषेधमुखेन विधि की व्यञ्जना अधिक चमत्कारकारी होती है। यही आक्षेप के स्वरूप का चमत्कार है।
व्याजस्तुति-निन्दामुखेन स्तुति या स्तुतिमुखेन निन्दा की उक्तिभङ्गी पाठक के मन को चमत्कृत ही करती है। ___ व्याजोक्ति-प्रकट हो गये तथ्य को किसी बहाने छिपाने की चेष्टा भी पाठक के मन में चमस्कार उत्पन्न करती है।
अत्युक्ति-अद्भत तथा अतथ्य का वर्णन पाठक के मन में विस्मयः उत्पन्न कर देता है।
विभावना और विशेषोक्ति-कारण के अभाव में कार्योत्पत्ति अथवा इसके विपरीत समग्र कारण के रहने पर भी कार्य की अनुत्पत्ति का वर्णन विस्मयमिश्रित आनन्द उत्पन्न करता है।
विचित्र-इच्छित फल के विपरीत चेष्टा का वर्णन भी पाठक के मन में विस्मय उत्पन्न करता है।
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८०२ ]
अलङ्कार- धारणा : विकास और विश्लेषण
प्रहर्षण एवं विषादन – इन अलङ्कारों का प्रत्यक्ष सम्बन्ध कविनिबद्ध पात्र के क्रमशः हर्ष एवं विषाद की मनोदशा से है । पाठक उन पात्रों के प्रयत्न में आकस्मिक साहाय्य या बाधा से विस्मित ही होता है |
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अधिक तथा अल्प — दीर्घ आधार की अपेक्षा भी आधेय की अधिकता का वर्णन तथा सूक्ष्म आधार से भी आधेय की अल्पता का वर्णन पाठक को विस्मित कर देता है ।
तद्गुण - एक वस्तु का अपने गुण को छोड़ कर अन्य वस्तु के गुण का ग्रहण पाठक के विस्मय का हेतु बन सकता है ।
मीलित - दो वस्तुओं के मिलकर एकाकार हो जाने का वर्णन पाठक के मन को विस्मित करता है ।
सामान्य - दो वस्तुओं के विशिष्ट धर्म के लक्षित न होने का वर्णन भी विस्मयकारी होता है |
अतद्गुण, उन्मीलित, विशेष - स्व-गुण का त्याग कर अन्य के गुणग्रहण का हेतु रहने पर वैसा न होने का वर्णन, एकाकार हो गयी वस्तुओं का परिस्थिति- विशेष में अलग-अलग व्यक्त हो जाने का वर्णन तथा वस्तुओं के विशिष्ट धर्म के लुप्त हो जाने के उपरान्त पुनः लक्षित हो जाने का वर्णन भी विस्मयजनक होता है ।
विषम, विरोध - विरूप वस्तुओं का एकत्र घटन या विरुद्ध पदार्थों की एकत्र योजना भी पाठक को विस्मित करती है ।
सम - अनुरूप वस्तुओं का घटन पाठक की वृत्ति को अन्वित करता है । विरोधाभास - आपाततः विरोध से पाठक के मन में कौतूहल जगता है; फिर विरोध का परिहार हो जाने पर पाठक की वृत्ति अन्वित हो जाती है । असङ्गति - असङ्गति में भी कार्य-कारण की भिन्नदेशता कौतूहल जगाती है, पर तात्त्विक अविरोध के बोध से मन अन्वित हो जाता है ।
कारणमाला - कारणों की शृङ्खला चित्तवृत्ति को अन्वित करती चलती है ।
यथासंख्य-क्रम से कही हुई वस्तुओं का उसी क्रम से अन्वय मन को अन्वित करता है ।
एकावली - एकावली में भी क्रम का सौन्दर्य मन को अन्वित करता हुआ चमत्कार उत्पन्न करता है ।
सार-सार में एक की अपेक्षा दूसरे के उत्कर्ष - प्रदर्शन का क्रम जहाँ मन
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अलङ्कार और मनोभाव
[८०३ को अन्वित करता है वहाँ एक वस्तु की सर्वातिशयता का निर्णय मन का 'विस्तार भी करता है।
रसवत, प्रय, ऊर्जस्वो, आदि-रसवदादि अलङ्कारों में रस भाव का गौण पड़ जाना और उक्ति-चमत्कार का प्राधान्य होना मन में चमत्कार उत्पन्न करता है। ___ अनुप्रास, यमक-ध्वनि-साम्य पर आधृत इन अलङ्कारों की ध्वनिगत सङ्गति मन को अन्विति प्रदान करती है । ___चित्र, प्रहेलिका-वर्ण, शब्द आदि का चातुर्यपूर्ण प्रयोग मन में चमत्कार की सृष्टि करता है।
तत्तदलङ्कारों की उक्तिभङ्गी से होने वाले अर्थबोध की इस प्रक्रिया पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि अलङ्कार कहीं अर्थबोध में स्पष्टता लाकर मन को विकसित करते हैं, कहीं अलङ्कारों के अर्थग्रहण की प्रक्रिया में पाठक का मन एक अर्थ के साथ अन्य अर्थ के ग्रहण के लिए विस्तृत हो जाता है, कुछ अलङ्कार अपने अन्तविरोध अथवा असाधारणता के तत्त्व से पाठक को विस्मित कर देते हैं, कहीं अलङ्कार कौतूहल या जिज्ञासा जगा कर उसे शमित करते हैं, तो कहीं उक्तिभङ्गी में सङ्गति से पाठक के मन को अन्वित करते हैं। कुछ अलङ्कार जिज्ञासा या कौतूहल के साथ ही अन्विति भी प्रदान करते हैं। कुछ विस्मय उत्पन्न कर अन्वित करते हैं। अतः, एक अलङ्कार का एक ही भाव के साथ सम्बन्ध जोड़ना कठिन है। इस विवेचन के उपरान्त इस परम्परागत धारणा का मूल्याङ्कन किया जा सकता है कि रस, भाव आदि से निरपेक्ष अलङ्कार उक्तिवैचित्र्य के रूप में मन में चमत्कार की सृष्टि करते हैं। उक्ति की विलक्षण भङ्गी अलङ्कार का प्राण है। यह भङ्गी मन में विशेष प्रकार का चमत्कार उत्पन्न किया करती है। इसी में अलङ्कार की सार्थकता है। अलग-अलग उक्तिभङ्गियाँ जहाँ विस्मय, कौतूहल, अन्विति विस्तार, स्पष्टता आदि उत्पन्न करती हैं; वहाँ सब के मूल में विभिन्न रूपों में मन को चमत्कृत करना ही उद्देश्य रहता है। निष्कर्ष यह कि रस के साथ रहने पर अलङ्कार उनके उत्कर्ष में सहायक होते हैं; पर जहाँ रस न हो वहाँ भी अलङ्कार की विभिन्न उक्तिभङ्गियां पाठक के मन में विस्तार, विकास, अन्विति, कौतूहल, विस्मय आदि का चमत्कार उत्पन्न कर अपनी सार्थकता प्रमाणित करती हैं।
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उपसंहार
* भारतीय साहित्यशास्त्र में अलङ्कार - विषयक चिन्तन की सुदीर्घ परम्परा रही है ।
अलङ्कार को व्यापक अर्थ में कुछ आचार्यों ने काव्य-सौन्दर्य का पर्याय माना और रस, गुण आदि सभी काव्य-तत्त्वों को उसमें समाविष्ट कर दिया; किन्तु विशिष्ट अर्थ में अलङ्कार को शब्द और अर्थ की सौन्दर्य वृद्धि करने वाला तत्त्व माना गया । आधुनिक काल में अलङ्कार शब्द का व्यवहार शब्दार्थ को अलङ्कृत करने वाले तत्त्व के अर्थ में ही होता है ।
* अलङ्कार को अनेक प्रकार से गया है । समग्र काव्यालङ्कारों के सकता है कि
परिभाषित करने का प्रयास किया स्वरूप को दृष्टि में रखते हुए कहा जा
अलङ्कार शब्द और अर्थ का वह धर्म है, जो उन्हें लोक व्यवहार के साधारण प्रयोग से अधिक सुन्दर बनाता है; वर्ण्य वस्तु के रूप, गुण, क्रिया की प्रभाव - वृद्धि करता है; उसे स्पष्टता एवं लाघव के साथ व्यक्त करने में सहायक होता है; सरस काव्य में उचित योजना होने पर रस की व्यञ्जना में सहायक होता है और रस -हीन काव्य में उक्ति में वैचित्र्य का आधान कर श्रोता के मन में विस्मय मिश्रित प्रसन्नता उत्पन्न करता है ।
अनुप्रास, यमक आदि में स्वर- व्यञ्जन की विशिष्ट प्रकार की आवृत्ति से शब्द का सौन्दर्य बढ़ता है । श्लेष, वक्रोक्ति आदि में शब्द की अनेकार्थ-बोध की क्षमता तथा उसका उपयोग कर वक्ता के अन्यार्थक वाक्य में अन्य अर्थ की योजना का कौशल, चित्र, प्रहेलिका आदि में वर्ण कौतुक पाठक के मन को चमत्कृत करता है । सादृश्यमूलक अलङ्कारों में अप्रस्तुत योजना से कहीं प्रस्तुत के रूप, गुण, क्रिया के प्रभाव की वृद्धि होती है, कहीं उसका स्वरूप स्पष्ट होता
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८०६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण है तो कहीं उसके वर्णन में लाघव होता है । समासोक्ति, सहोक्ति आदि में संक्षेप में अर्थ का वर्णन किया जाता है। विरोधमूलक अलङ्कारों में आपाततः दीख पड़ने वाले विरोध का परिहार हो जाने पर तात्त्विक अविरोध देखकर भावक का मन चमत्कृत होता है। विरोध वस्तु के प्रभाव को बढ़ाने में भी सहायक होता है। विलक्षण उक्ति-भङ्गियों पर आधृत उक्तिमूलक अलङ्कारों में उक्ति का वैचित्र्य चमत्कार उत्पन्न करता है। प्रेय, भाविक, उदात्त आदि में वस्तु-वर्णन के विशिष्ट प्रकार से प्रभावोत्पादकता आती है। स्वभावोक्ति में वस्तु-स्वभाव के वर्णन का जो अनूठा ढंग रहता है वह वस्तु के स्वभाव को अधिक सुन्दर बनाकर प्रस्तुत करता है। इसीलिए स्वभावोक्ति को भी अलङ्कार माना जाता है। ___ * काव्य में अलङ्कार के स्थान के सम्बन्ध में दो प्रकार की मान्यताए रही हैं। कुछ आचार्यों ने अलङ्कार-हीन काव्य की कल्पना को उष्णता रहित अग्नि की कल्पना की तरह निराधार माना तो दूसरे आचार्यों ने अलङ्कार को काव्योक्ति का ऐसा अनित्य और बाह्य धर्म माना, जो कहीं-कहीं तो काव्य की आत्मा का उपकार करता है; पर कहीं-कहीं या तो तटस्थ रहता है या भावबोध में बाधक ही हो जाता है। अलङ्कार को यदि व्यापक अर्थ में काव्यसौन्दर्य का पर्याय माना जाय, तब तो उसे अग्नि की उष्णता की तरह काव्य का नित्य धर्म मानना ही होगा; पर विशिष्ट अर्थ में यमक आदि शब्दालङ्कार तथा उपमा आदि अर्थालङ्कार को दृष्टि में रखते हुए पहली मान्यता दुराग्रहपूर्ण ही लगती है। अलङ्कार शब्द यमक, उपमा आदि के विशिष्ट अर्थ में ही रूढ है। इस अर्थ में भी अलङ्कारों को काव्य का बाह्य आभूषण मानना उसके महत्त्व का अवमूल्यन करना होगा। वस्तुतः रस-सिद्ध कवि की उक्तियों में अलङ्कार सहजात होते हैं, ऊपर से लादे हुए नहीं। भाव की अभिव्यक्ति में सहज भाव से आये हुए अपृथग्यत्ननिर्वर्त्य अलङ्कार काव्य के अन्तरङ्ग धर्म होते हैं । जहाँ कवि केवल अलङ्कार-प्रयोग का कौशल प्रदर्शित करने के लिए अलङ्कार-योजना में अतिरिक्त श्रम करते हैं, वहाँ अलङ्कार उक्ति पर बाहर से लादे हुए आभूषण की तरह होते हैं ।
* इस प्रश्न को लेकर बहुत ऊहापोह हुआ है कि यदि यमक, उपमा आदि अलङ्कार हैं तो अलङ्कार्य क्या है, जिसे ये अलङ्कत करते हैं ? इसका सर्वसम्मत उत्तर है कि काव्य के शब्द और अर्थ अलङ्कार्य हैं। यमक, अनुप्रास आदि शब्द को अलङ कृत करते हैं और उपमा. रूपक आदि अर्थ को। किन्तु.
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उपसंहार
[८०७ यही समस्या का समाधान नहीं हो जाता। प्रश्न यह है कि यदि अर्थ को अलङ्कार्य मानें तो वस्तु-स्वभाव-वर्णन-परक स्वभावोक्ति आदि को अलङ्कार मानने में क्या औचित्य होगा ? वक्रोक्तिवादी कुन्तक ने, इसीलिए स्वभावोक्ति के अलङ्कारत्व को अस्वीकार कर उसे अलङ्कार्य की कोटि में रखना उचित समझा, फिर भी अलङ्कारशास्त्र में स्वभावोक्ति को अलङ्कार के रूप में ही परिगणित किया जाता रहा है। इसका कारण यह है कि उसमें वस्तु-स्वभाववर्णन में लोकोत्तर रमणीयता रहती है और उस रमणीयता के कारण ही उसे अलङ्कार माना जाता है। प्रेय, उदात्त, भाविक आदि वस्तु-वर्णन-परक अलङ्कारों के सम्बन्ध में भी अलङ्कार-अलङ्कार्य का प्रश्न उठाया जा सकता है। इन अलङ्कारों के सन्दर्भ में भी स्वभावोक्ति की तरह ही यह युक्ति दी जा सकती है कि वर्णन की लोकोत्तर सुन्दरता के कारण इन्हें अलङ्कार माना जाता है; पर प्रश्न यह होगा कि काव्य की समग्र उक्तियों में लोकोत्तर रमणीयता अनिवार्यतः रहा करती है; तभी तो लोक-व्यवहार की उक्ति से काव्य की उक्ति का भेद होता है। लोकोक्ति भी काव्योक्ति बनती है; पर उस स्थिति में उसमें लोकोत्तर रमणीयता आ जाती है । इस लोक की वस्तु काव्यलोक में लोकोत्तर रमणीय बन कर ही अवतरित होती है। इसीलिए काव्य को ब्रह्मा की सृष्टि से विलक्षण सृष्टि माना गया है। काव्य में वस्तु का जो वर्णन होता है वह लोक-सिद्ध वस्तु का केवल प्रतिबिम्बन नहीं, पुनःसृजन होता है। ऐसी स्थिति में लोकोत्तर रमणीयता के आधार पर यदि स्वभावोक्ति आदि को अलङ्कार माना जाता है तो सम्पूर्ण काव्योक्तियों को अलङ्कार ही मानना पड़ेगा, फिर अलङ्कार्य क्या बच रहेगा, जिसे अलङ कृत करने में अलङ्कार की सार्थकता होगी? ___ अलङ्कार और अलङ्कार्य का भेद तात्त्विक नहीं, व्यावहारिक है। कोई भी उक्ति अपने-आप में पूर्ण अभिव्यक्ति होती है। उसे अलङ्कार, अलङ्कार्य आदि खण्डों में केवल वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए विभाजित किया जाता है। तात्त्विक अभेद में भेद की कल्पना किये बिना-अखण्ड को खण्डित किये बिना-वस्तु के स्वरूप का अध्ययन-विवेचन सम्भव नहीं। अतः, काव्योक्ति को तत्त्वतः अखण्ड अभिव्यञ्जना मानने पर भी भारतीय मनीषियों ने व्यावहारिक दृष्टि से उसके अङ्गों का विभाजन किया है। अलङ्कार और अलङ्कार्य का भेद भी व्यावहारिक ही है। अतः, दोनों के बीच कोई स्थिर विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकी।
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505]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
* सामान्यतः अलङ्कार का अध्ययन काव्य के सौन्दर्य के सन्दर्भ में ही हुआ है । उसे कभी काव्य-सौन्दर्य का पर्याय माना गया, में कभी काव्य सौन्दर्य का आधान करने वाला धर्म कहा गया तो कभी काव्य के सहज सौन्दर्य की वृद्धि में सहायक माना गया । कभी उसे काव्य का अनित्य धर्म मान कर काव्य के शरीर के माध्यम से उसकी आत्मा 'रस' का यदा-कदा उपकार करने वाला तत्त्व कहा गया । किन्तु, अलङ्कार का क्षेत्र काव्योक्ति तक ही सीमित नहीं । काव्य-भाषा की तरह लोक भाषा में भी अलङ्कारों का बहुधा प्रयोग हुआ करता है । कहीं-कहीं तो कथन के प्रभाव का वृद्धि के लिए अलङ्कारों का प्रयोग किया जाता है; पर कहीं-कहीं अलङ्कार अर्थ-बोध के अनिवार्य साधन बन कर आते हैं । एक ही वर्ण के जो आश्रय-भेद से अनेक रूप होते हैं उन्हें लौकिक उमान का सहारा लिये बिना शब्दों से बोधगम्य नहीं बनाया जा सकता। ज्ञात के सहारे अज्ञात को जानने में अलङ्कार सहायक होते हैं । उपमान को ज्ञान का एक साधन माना गया है । लोक व्यवहार का ज्ञान हो, शब्दार्थ का ज्ञान हो या तत्त्वज्ञान हो - सबमें उपमान सहायक होता है । दर्शन में तत्त्व - ज्ञान के साधन के रूप में उपमान के स्वरूप का विशद विवेचन हुआ है । वही उपमान-धारणा काव्यालङ्कार के क्षेत्र में आयी और उपमा आदि औपम्यगर्भ अलङ्कारों के स्वरूप कल्पित हुए । तात्पर्य यह कि सामान्य रूप से भाषा में अर्थ - बोध के अनिवार्य साधन के रूप में तथा अर्थ की प्रभाववृद्धि के साधन के रूप में भी अलङ्कारों के स्वरूप पर विचार किया जाना चाहिए ।
* भारतीय अलङ्कारशास्त्र में अलङ्कारों की संख्या चार से बढ़कर शताधिक हो गयी । आचार्य भरत ने उपमा, रूपक, दीपक तथा यमक; इन चार अलङ्कारों के स्वरूप का तथा उनके कुछ भेदों का विवेचन किया था । भरत के पूर्व वैदिक साहित्य में अनेक अलङ्कारों का सुन्दर प्रयोग हो चुका था । निश्चय ही भरत उन प्रयोगों से परिचित रहे होंगे; पर उन्होंने उनके स्वरूप का निरूपण नहीं किया । भरत की अलङ्कार मीमांसा के सम्बन्ध में विद्वानों की अलग-अलग धारणाएँ रही हैं । कुछ विद्वानों ने भरत के समय अलङ्कार-धारणा को अविकसित मानकर सन्तोष कर लिया है तो कुछ विद्वानों
भरत की सीमा का औचित्य इस युक्ति से प्रमाणित करना चाहा है कि भरत केवल नाटकों में प्रयुक्त होने वाले अलङ्कारों को दृष्टि में रखकर उनका विवेचन किया था; अतः अलङ्कारों की सीमित संख्या उन्होंने स्वीकार की ।
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उपसंहार
[८०९ इन मान्यताओं के विपरीत आचार्य अभिनव गुप्त के गुरु भट्ट तौत की मान्यता थी कि अलङ्कारों के नये-नये नाम-रूप की कल्पना भरत आदि के द्वारा विवेचित लक्षणों के योग से की गयी है। आचार्य अभिनव ने अपने गुरु की इस मान्यता का समर्थन किया है। उनकी मान्यता का सार यह होगा कि आचार्य भरत काव्य में प्रयुक्त होने वाली सभी उक्तिभङ्गियों के स्वरूप से परिचित थे और उन्होंने उनमें से कुछ का स्वरूप-निरूपण अलङ्कार के रूप में किया तथा कुछ का लक्षण के रूप में।
इन सभी मान्यताओं को दृष्टि में रखकर अलङ्कार-धारणा के विकासक्रम का अध्ययन करने से हमें निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं :
भरत के समय अलङ्कार-धारणा को अविकसित कहकर टाल देना तत्त्वचिन्तन के दायित्व से पलायन की प्रवृत्ति का सूचक है। जब इस बात का प्रमाण है कि भरत से हजारों वर्ष पूर्व कवि अलङ्कार-प्रयोग की असंख्य सुन्दर भङ्गिमाओं से परिचित थे, तब भरत के काल में अलङ्कार-धारणा को अविकसित मानने में कोई सबल युक्ति नहीं।
नाटय-प्रयोग की दृष्टि से भी चार अलङ्कारों की स्वीकृति का औचित्य प्रमाणित नहीं होता, जब तक कि भरत के लक्षणों के स्वरूप पर भी विचार नहीं किया जाय । भरत के समय का नाट्य-साहित्य उपलब्ध नहीं, पर यह अनुमान करने का आधार स्वयं भरत का नाटय-शास्त्र है कि उनके समय तक विपुल नाटय-साहित्य की रचना हो चुकी थी। उनमें प्रयुक्त उक्ति-भङ्गियों को भरत ने केवल चार शब्दार्थालङ्कारों में ही सीमित नहीं कर अनेक लक्षणों में भी उनपर विचार किया था। धीरे-धीरे लक्षण-धारणा लुप्त होती गयी
और उसके तत्त्व से अनेक नये-नये अलङ्कारों की धारणा विकसित होती गयी। ____ अनेक अलङ्कारों की रूप-रचना में लक्षण और अलङ्कार के तत्त्वों का योग पाया जाता है। अप्रस्तुतप्रशंसा, अपह्न ति आदि इसके उदाहरण हैं। अनेक लक्षणों के योग से भी कुछ नये अलङ्कार आविर्भूत हुए हैं। आक्षेप आदि का स्वरूप लक्षणों के योग से निर्मित है। कुछ लक्षण के नाम-रूप भी कुछ परिवर्तन के साथ अलङ्कार के रूप. में स्वीकार कर लिये गये हैं। प्रियवचन तथा दृष्टान्त लक्षण क्रमशः प्रेय तथा दृष्टान्त अलङ्कार के रूप में स्वीकृत हुए हैं। इतना होने पर भी अलङ्कारशास्त्र में विवेचित सभी अलङ्कारों को चार मूल अलङ्कार तथा छत्तीस लक्षणों से आविर्भूत मानना कठिन है। रस-भाव आदि की धारणा के आधार पर रसवदादि अलङ्कार कल्पित हुए हैं । कुछ
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८१० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अलङ्कारों का मूल भरत आदि की गुण-धारणा में पाया जा सकता है । अर्थव्यक्ति गुण के आधार पर स्वभावोक्ति आदि अलङ्कार की कल्पना इसका प्रमाण है। स्मृति, वितर्क, परिसंख्या आदि की धारणा के आधार पर तत्तदलङ्कारों की कल्पना की गयी है। इनका विवेचन दर्शन में हो रहा था । प्रमाणालङ्कारों की धारणा का उत्स भी दार्शनिक चिन्तन ही है। एक अलङ्कार के सादृश्य के आधार पर दूसरे अलङ्कार की कल्पना की गयी । एक के वैपरीत्य के आधार पर भी दूसरे अलङ्कार का स्वरूप कल्पित हुआ। अधिक के वैपरीत्य के आधार पर अल्प के स्वरूप की कल्पना इसका एक उदाहरण है। अलङ्कार के प्रति बदलते हुए दृष्टिकोण के फलस्वरूप भी अनेक नवीन अलङ्कारों की उद्भावना हुई। जब वस्तु, भाव आदि के वर्णन को भी अलङ्कार का क्षेत्र मान लिया गया तब वस्तु-भाव-वर्णन-परक अनेक अलङ्कारों की कल्पना की गई। भाविक, उदात्त आदि अलङ्कारों की कल्पना इसीका फल है। अनेक आचार्यों ने समय-समय पर जो अलङ्कार-विषयक नूतन उद्भावनाएं की हैं, उनके महत्त्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती। अतः, भट्ट तौत तथा अभिनव गुप्त की यह मान्यता कुछ परिष्कार के साथ ही स्वीकार की जा सकती है कि लक्षण के योग से ही अलङ्कारों में विविधता आती है। सम्भव है कि केवल औपम्यगर्भ अलङ्कार को लक्ष्य कर उन्होंने यह मान्यता व्यक्त की हो। अभिनव गुप्त अलङ्कारों को उपमा-प्रपञ्च मानते भी हैं । औपम्यगर्भ अलङ्कारों के सम्बन्ध में यह मान्यता ठीक है; किन्तु समग्र अलङ्कार-प्रपञ्च को देखते हुए इस मान्यता की सीमा स्पष्ट है। हाँ, अभिनव की इस व्याख्या से इतना अवश्य प्रमाणित होता है कि भरत की अलङ्कार-धारणा उननी अविकसित नहीं थी, जितनी वह संख्या-परिमिति के कारण आपाततः जान पड़ती है।
* अलङ्कार-धारणा के विकास-क्रम में नवीन-नवीन अलङ्कारों की उद्भावना का ही प्रयास नही हुआ; समय-समय पर वैज्ञानिक पद्धति पर अलङ्कारों की संख्या को सीमित करने का भी प्रयास हुआ है। अनन्त वाग्विकल्प के प्रकार को अनन्त अलङ्कार के रूप में स्वीकार कर लेने पर उनके स्वरूप का अध्ययन कठिन हो जाता। अतः, वैज्ञानिक रीति से अलङ्कारों के स्वरूप-निर्धारण की आवश्यकता समय-समय पर जान पड़ी। अलङ्कार के प्रति विशिष्ट दृष्टिकोण भी इसका दूसरा कारण हुआ। वामन आदि को केवल उपमा-मूलक अलङ्कारों का अलङ्कारत्व ही मान्य था । इसलिए अलङ्कारों की संख्या को उन्होंने सीमित किया । कुन्तक वस्तु-वर्णन को अलङ्कार्य
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उपसंहार
[ ८११ मानकर अलङ्कार की उससे भिन्न सत्ता सिद्ध कराना चाहते थे । फलतः उन्होंने स्वभावोक्ति आदि को अलङ्कार-क्षेत्र से अलग कर अलङ्कार की संख्या को सीमित करने का आयास किया; फिर भी अलङ्कारशास्त्र में वास्तव, औपम्य, अतिशय, शृङ्खला आदि मूल तत्त्वों पर आधृत सभी अलङ्कार स्वीकृति पाते रहे हैं ।
* हिन्दी के रीतिकालीन आचार्यों ने अधिकतर संस्कृत के आचार्यों की अलङ्कार-विषयक मान्यता को ही स्वीकार किया है। अधिकांश आचार्यों के अलङ्कार - निरूपण का उपजीव्य जयदेव का 'चन्द्रालोक' तथा अप्पय्य दीक्षित का 'कुवलयानन्द' रहा है। कुछ आचार्यों ने मम्मट, रुय्यक तथा विश्वनाथ की पद्धति का भी अनुसरण किया है ।
* हिन्दी - रीति- साहित्य में दशाधिक नवीन अलङ्कारों को भी कल्पना की गयी है । उन अलङ्कारों में से कुछ तो केवल नाम्ना नवीन हैं। उनके स्वरूप संस्कृत आचार्यों के अन्य नामधेय अलङ्कारों से अभिन्न हैं । ऐसे अलङ्कारों को स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं मानकर तत्तत् प्राचीन अलङ्कारों में अन्तर्भुक्त माना जा सकता है। कुछ अलङ्कार - परिभाषाओं का असफल अनुकरण होने से भी हिन्दी में उनके स्वरूप कुछ नवीन हो गये हैं । चिन्तन का अभाव होने के कारण ऐसे अलङ्कारों की कल्पना का श्र ेय हिन्दी - आचार्यों को नहीं दिया जा सकता । कुछ नवीन अलङ्कारों के स्वरूप की उद्भावना हिन्दी के आलङ्कारिकों ने अवश्य की है। अमित आदि के स्वरूप की कल्पना स्वतन्त्र चिन्तन की प्रवृत्ति का परिचायक है । हिन्दी की तुकान्त कविता की प्रवृत्ति को दृष्टि में रखकर अन्त्यानुप्रास का विशद विवेचन किया गया है । हिन्दी के विपुल अलङ्कार - साहित्य को देखते हुए ऐसी उद्भावनाएँ नगण्य ही जान पड़ती हैं । इसका मुख्य कारण यह है कि संस्कृत- अलङ्कार-शास्त्र में अलङ्कार विषयक इतने ऊहापोह हो चुके थे कि उस क्षेत्र में नवीन उद्भावना का बहुत कम अवकाश था | हिन्दी - आलङ्कारिकों की मौलिकता मुख्यतः स्वरचित पदों का उदाहरण देने में ही है ।
* कुछ समीक्षकों ने भाविकच्छवि तथा संग्रामोद्दामहुँकरा को हिन्दी आलङ्कारिकों की उद्भावना मान लिया है; किन्तु तथ्य यह है कि ये दोनों अलङ्कार जयदेव के 'चन्द्रालोक' से लिये गये हैं । जयदेव ने भाविकच्छवि अलङ्कार को जिस रूप में परिभाषित किया था उसी रूप में भूषण आदि ने भी उसे परिभाषित किया है । सङ्ग्रामोद्दामहुङ कृति को जयदेव ने स्वतन्त्र अलङ्कार माना था या दृष्टान्त के ही स्वरूप के स्पष्टीकरण के लिए उसका
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...८१२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उल्लेख किया था, यह विवादास्पद है, पर इतना स्पष्ट है कि जिस मल्लप्रतिमल्ल-भाव में उन्होंने सङ्ग्रामोद्दामहुङ कृति की कल्पना की थी उसी को जगत सिंह ने संग्रामोद्दामहु कृति अलङ्कार कहा है ।
* हिन्दी के रीति-काल में चित्र अलङ्कार का बड़ा व्यापक विवेचन हुआ है । अनेक नवीन बन्धों की कल्पना की गयी है । घड़ी -बन्ध तक की · कल्पना कर ली गयी है । अनेक अलङ्कार-ग्रन्थ केवल चित्र अलङ्कार पर लिखे गये हैं । इसका कारण यह है कि रीति-काल मुख्यतः कृत्रिमता का काल था । चमत्कार - प्रदर्शन की प्रवृत्ति कवियों में अधिक थी । अतः, आचार्य भी बुद्धिविलास से नवीन-नवीन चित्रों की कल्पना कर रहे थे । संस्कृत के अलङ्कृत - काल में भी 'विदग्धमुखमण्डन' जैसे ग्रन्थ में चित्रालङ्कार का विस्तृत विवेचन किया गया था ।
* अलङ्कारों के स्वरूप - विकास के साथ उनके वर्गीकरण की आवश्यकता हुई। आरम्भ में शब्द और अर्थ के आधार पर अलङ्कारों के दो वर्ग माने गये। ध्यातव्य है कि प्रत्येक अलङ्कार शब्द और अर्थ; दोनों की अपेक्षा रखता है । यमक में भी सार्थक शब्द की अर्थ-भेद से आवृत्ति अपेक्षित मानी गयी है; अतः यह शब्दालङ्कार सर्वथा अर्थ- निरपेक्ष नहीं । समासोक्ति, परिकर, परिकराङ्क ुर आदि अर्थालङ्कार भी विशेष प्रकार के पद के प्रयोग की अपेक्षा रखते हैं । ऐसी स्थिति में शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार के निर्धारण के लिए यह मानदण्ड स्थापित किया गया कि यदि किसी उक्ति में से किसी शब्द को हटाकर उसका पर्यायवाची दूसरा शब्द रख देने पर अलङ्कारत्व नष्ट हो जाय तो उस अलङ्कार का मुख्य आधार शब्द को माना जाता है और उसे शब्दालङ्कार कहा जाता है । इसके विपरीत यदि शब्दविशेष के स्थान पर उसका पर्यायवाची शब्द रखने पर भी अलङ्कारत्व की हानि नहीं हो तो उसे अर्थालङ्कार माना जाता है । इस प्रकार पर्याय- परिवर्तन को सहन न करने वाला शब्दालङ्कार तथा पर्याय परिवर्तन को सहन करने वाला अर्थालङ्कार माना जाता है । यह वर्गीकरण अलङ्कार के आश्रय के आधार पर किया गया है। दोनों के बीच एक उभयालङ्कार वर्ग भी कल्पित हुआ है।
अलङ्कारों के मूल तत्त्व के आधार पर भी उनका वर्गीकरण किया गया है । सादृश्य, विरोध, अतिशय शृङ्खला, न्याय आदि का तत्त्व समान रूप से
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उपसंहार
[ ८१३
अनेक अलङ्कारों के मूल में रहा करता है । उन तत्त्वों के आधार पर तत्तत् वर्गों में अलङ्कार का विभाजन किया गया है । एक वर्ग के अलङ्कारों को पुनः कुछ उपवर्गों में भी बाँटा जा सकता है । उपमा, रूपक, व्यतिरेक आदि सादृश्यमूलक वर्ग के अलङ्कार हैं; पर उपमा में भेद और अभेद की तुल्यप्रधानता, रूपक में अभेद की प्रधानता तथा व्यतिरेक में भेद की प्रधानता रहती है । इस प्रकार सादृश्यमूलक अलङ्कार वर्ग के तीन उपवर्ग बन जाते हैं ।
अलङ्कारों के वर्गीकरण की कठिनाई यह है कि एक वर्ग के अनेक अलङ्कारों में दूसरे वर्ग के अलङ्कारों के तत्त्व भी पाये जा सकते हैं । इसलिए एक अलङ्कार को दो या अधिक वर्गों में भी रखा जा सकता है । वर्गीकरण केवल अध्ययन की व्यावहारिक सुविधा के लिए उपयोगी है ।
* विशिष्ट अलङ्कार के स्वरूप विकास का अध्ययन इस दृष्टि से रोचक विषय है कि एक ही अलङ्कार के सम्बन्ध में अनेक आचार्यों ने अनेक प्रकार की मान्यताएँ व्यक्त की हैं । कुछ आचार्यों ने पूर्ववर्ती आचार्यों के किसी अलङ्कार का स्वरूप सीमित कर उसके अवशिष्ट स्वरूप के आधार पर दूसरे नवीन अलङ्कार की कल्पना कर ली है । कुछ अलङ्कारों की संज्ञा को अन्वर्था प्रमाणित करने के लिए भी अलङ्कार के स्वरूप में परिवर्तन किया गया। है तथा कहीं-कहीं अलङ्कार - विशेष की संज्ञा के रूप में प्रयुक्त पद के अर्थ के सम्बन्ध में अलग-अलग मान्यता के आधार पर भी अलङ्कार के स्वरूप में परिवर्तन किया गया है । अप्रस्तुतप्रशंसा में प्रशंसा का अर्थ वर्णन है; पर कुछ आचार्यों ने उसका अर्थ स्तुति मानकर उसके स्वरूप का निरूपण किया है | इसके लिए अप्रस्तुतस्तुति नाम का भी प्रयोग कुछ आचार्यों ने किया है। समासोक्ति आदि के सम्बन्ध में तो आचार्यों ने परस्पर विपरीत धारणा भी व्यक्त की है । रुद्रट आदि ने उपमान वाक्य से उपमेय वाक्य के गम्य होने में समासोक्ति अलङ्कार माना था पर पीछे चलकर इसके ठीक विपरीत प्रस्तुत - के वर्णन से अप्रस्तुत की व्यञ्जना में समासोक्ति का सद्भाव माना गया है । रुद्रट की समासोक्ति-धारणा तथा परवर्ती आचार्यों की अप्रस्तुतप्रशंसा-धारणा परस्पर अभिन्न हो गयी है । अलङ्कारों के स्वरूप विकास का एक बड़ा कारण अलङ्कार-सामान्य के प्रति आचार्यों का दृष्टि-भेद रहा है । कुछ आचार्यों का आग्रह यह रहा है कि सभी अलङ्कारों में उपमानोपमेय की धारणा रहनी ही चाहिए । अतः, उन्होंने अलङ्कार - विशेष की धारणा में वस्तुओं के बीच उपमानोपमेय - सम्बन्ध की धारणा भी मिला दी ।
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: ८१४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
* बहुत-से अलङ्कारों के स्वरूप ऊपर से परस्पर अभिन्न जान पड़ते हैं; पर उनके स्वरूप का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उनका पारस्परिक भेद स्पष्ट हो जाता है। आचार्यों ने अलङ्कार-विशेष की परिभाषा में ही उससे मिलते-जुलते स्वरूप वाले अलङ्कार से उसके व्यावर्तक धर्म का उल्लेख कर दिया है। अलङ्कारों के पारस्परिक भेद के सम्बन्ध में किसी आचार्य की मान्यता का परीक्षण करने के समय यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि उस आचार्य के द्वारा स्वीकृत अलङ्कारों के स्वरूप में ही पारस्परिक भेद का विचार किया जाना चाहिए। मम्मट, या रुय्यक-सम्मत समासोक्ति और अप्रस्तुतप्रशंसा की तुलना करने पर तो दोनों का भेद स्पष्ट हो जायगा; पर उनकी अप्रस्तुतप्रशंसा से रुद्रट की समासोक्ति के भेद-निरूपण का आयास व्यर्थ होगा। एक अलङ्कार से बहुत सूक्ष्म भेद के आधार पर दूसरे स्वतन्त्र अलङ्कार की कल्पना आचार्यों ने कर ली है। अतः, उनके स्वरूप को ठीकठीक समझने के लिए उनके पारस्परिक भेद का अध्ययन आवश्यक है।
___* मनोभाव के साथ अलङ्कार का सीधा सम्बन्ध नहीं। वे परम्परया भाव से सम्बद्ध हैं। उनका सीधा सम्बन्ध शब्द और अर्थ से है। वे शब्द और अर्थ को अलङ्कत कर भाव के पोषण में भी सहायक हो सकते हैं। कभीकभी तो वे इसके विपरीत भाव के बाधक भी बन जाते हैं।
कुछ ऐसे भी अलङ्कार स्वीकृत हुए हैं, जिनका मनोभाव से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। विषादन, प्रहर्षण आदि तत्तद् मनोभावों से सम्बद्ध हैं, पर उनका अलङ्कारत्व इन मनोभावों को जगाने वाली विशेष स्थिति के वर्णन के ढंग में है।
कुछ आचार्यों ने भाव-विशेष के साथ अलङ्कार-विशेष का नियत सम्बन्ध जोड़ने का भी प्रयास किया है; पर ऐसा प्रयास सर्वथा दुराग्रहपूर्ण ही सिद्ध हुआ है । प्रहर्षण, विषादन आदि को छोड़ प्रत्येक अलङ्कार की योजना सभी भावों के सन्दर्भ में की जाती रही है। एक ही अलङ्कार परस्पर विरोधी भावों का भी पोषण करता है। उपमा शृङ्गार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक बीभत्स, अद्भ त आदि सभी रसों का उपकार कर सकती है, फिर उसे किस रस या मनोभाव के साथ सम्बद्ध किया जायगा ? एक ही उपमान अलग-अलग सन्दर्भ में दो विरोधी भावों का प्रभाव जगा सकता है। किसी स्त्री की काली लट को नागिन के समान कहने से उसके सौन्दर्य का प्रभाव बढता है; पर स्त्री को नागिन के समान कहने पर उसकी भीषणता का प्रभाव बढता है। स्पष्ट
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उपसंहार
[ ८१५ है कि किसी अलङ्कार का किसी भाव से नियत सम्बन्ध नहीं । किसी भी भाव के साथ किसी भी अलङ्कार की अनुरूप योजना होने पर उस भाव का सौन्दर्य बढ़ता है । नीरस काव्य में अलङ्कार की योजना से शब्द और अर्थ में वैचित्र्य की सृष्टि होती है ।
कथन प्रभाव को बढाने में ही अलङ्कार की सार्थकता है । कवि के वाञ्छित अर्थ को अधिकाधिक प्रभावोत्पादक बनाकर अभिव्यक्त करने में काव्यालङ्कार सहायक होते हैं
विनोत्कर्षापकर्षाभ्यां स्वदन्तेऽर्था न जातुचित् । कवयोऽलङ्कारान्पर्युपासते
तदर्थमेव
11
- महिम भट्ट
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परिशिष्ट १
पारिभाषिक शब्दावली
हिन्दी - अँगरेजी
अतद्गुण – The Non-Borrower अतिशयोक्ति - Hyperbole अधिक — The Exceeding
अनन्वय – Self Comparision अनुप्रास - Alliteration
अनुमान - Inference अन्योन्य – The Reciprocal अपह्न ुति - Concealment
अप्रस्तुतप्रशंसा - Indirect Description अर्थान्तरन्यास - Corroboration
अलङ्कार — Figure of Speech अलङ्कार्य — Thing to be adorned असङ्गति —– Disconnection
आक्षेप – Paralepsis
उत्तर — The Reply
उत्प्रेक्षा – Poetical Probability
उदात्त - The Exalted
उपमा — Simile, Comparision उपमेयोपमा - Reciprocal Comparision
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८१८] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
एकदेशविवर्ति रूपक-Partly-expressed Metaphor एकावली-The Necklace कारणमाला-The Garland of Causes काव्यलिङ्ग-The Poetical Reason गुण-Poetic Excellence तद्गुण-The Borrower तुल्ययोगिता-Eqal Pairing दीपक-Illuminator दृष्टान्त-Exemplification निदर्शना-Illustration निरङ्ग रूपक-Partless Metaphor परम्परित रूपक-Consequential Metaphor परिकर-The Significant परिवृत्ति-The Barter परिसंख्या-Special Mention पर्याय-The Sequence पर्यायोक्त-Periphrasis पूर्णोपमा-Complete Simile प्रतिवस्तूपमा-The Parallel प्रतीप-The Converse प्रत्यनीक-The Rivalry भाविक-The Vision भ्रान्तिमान्-The Error मालादीपक-Serial Illuminator मालारूपक-Serial Metaphor मालोपमा-Serial Comparison मीलित-The lost यथासंख्य-Relative order यमक-Rhyme रशनारूपक-String of Metaphor रशनोपमा-String of Comparison
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पारिभाषिक शब्दावली
(58€
646-Metaphor 779T - Distinctive Mark लुप्तोपमा-Elliptical Simile faalfe-A Speech with 'WITHOUT' farTT261-Peculiar causation fatta-Antithesis fasta—The Extraordinary fastattfi-Peculiar Allegation fact—The Unequal bufa 7-Excellence व्याघात-The Frustration व्याजस्तुति-Artful Praise survifit-The Dessembler 79-Paronomasia, Pun, double entendre संसृष्टि-The Aggregation
-Commixture 4-The Equal ATT-The Facilitation समासोक्ति-Speech of Brevity समुच्चय-The Conjunction ससन्देह-Doubt HETT-A Speech 'WITH' साङ्गरूपक-Entire Metaphor सामान्य-The Sameness
-The Climax
—The Subtle स्मरण-Reminiscence स्वभावोक्ति-Description of Nature
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परिशिष्ट २
पारिभाषिक शब्दावली : व्याख्या
अगतिक गति - आश्रयहीन के आश्रय के अर्थ में अगतिक गति पद का प्रयोग किया जाता है । शास्त्र में जहाँ किसी बात का यौक्तिक समाधान नहीं मिलने पर कुछ दूराकृष्ट कल्पना कर ली जाती है उसे 'अगतिक गति कहा जा सकता है । अनन्वय में किसी वस्तु की ठीक उसी वस्तु के साथ उपमा को असम्भव मानकर वाक्यमीमांसकों ने जो यह कल्पना कर ली कि 'ऐसे स्थल में वर्ण्य वस्तु की कल्पान्तर में स्थित उसी वस्तु से उपमा सम्भव होती है' उसे वाचस्पति मिश्र ने अगतिक गति कहकर युक्तिहीन प्रमाणित किया है ।
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अङ्गाङ्गिभाव - दो या अधिक वस्तुओं में जहाँ एक प्रधान तथा अन्य उसकी अपेक्षा गौण हो वहाँ उनके पारस्परिक सम्बन्ध को अङ्गाङ्गि भाव सम्बन्ध माना जाता है ।
अध्यवसाय - वर्ण्य विषय का निगरण कर अर्थात् उसे अप्रधान बनाकर उसके साथ विषयी का अभेद प्रतिपादन अध्यवसाय कहलाता है । यह अध्यवसाय सिद्ध हो तो अतिशयोक्ति और असिद्ध या सम्भावना के रूप में हो तो उत्प्रेक्षा का स्वरूप- विधान होता है ।
अन्वयव्यतिरेक - यह नियम और अपवाद की तार्किक पद्धति है । एक के रहने पर दूसरे के अनिवार्यतः रहने का नियम अन्वय कहलाता है । एक के अभाव में दूसरे का नियमतः अभाव होना व्यतिरेक कहा जाता है । लक्ष्य तथा लक्षण में अन्वयव्यतिरेक के आधार पर ही लक्षण के औचित्य की परीक्षा की जाती है । अन्वयव्यतिरेक के अभाव में लक्षण में अव्याप्ति तथा अतिव्याप्ति दोष आ जाते हैं । मम्मट आदि आचार्यों ने अन्वयव्यतिरेक के आधार पर शब्दालङ्कार आदि का सीमा निर्धारण किया है । इस आधार पर जहाँ किसी शब्द की जगह पर्यायवाची शब्द को रख देने से अलङ्कारत्व नष्ट हो जाय अर्थात् जहाँ पर्याय- परिवर्तन सम्भव न हो वहाँ शब्दालङ्कार तथा जहाँ पर्याय परिवर्तन सम्भव हो, वहाँ अर्थालङ्कार माना गया है ।
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पारिभाषिक शब्दावली : व्याख्या [८२१ अपृथग्यत्ननिर्वय् अलङ्कार-जिस अलङ्कार की योजना में कवि को अतिरिक्त श्रम नहीं करना पड़े, उसे अपृथग्यत्ननिर्वत्य कहते हैं। कवि की अनुभूति की अभिव्यक्ति के क्रम में कुछ अलङ्कार अनायास ही आ जाते हैं । ऐसे अपृथग्यत्ननिर्वत्य अलङ्कारों को आनन्दवर्धन ने ध्वनि का अन्तरङ्ग तत्त्व स्वीकार किया है। __ आभास-वस्तु की तात्त्विक स्थिति के न रहने पर भी उसकी प्रतीति आभास कहलाती है। विरोधाभास आदि अलङ्कारों में तात्त्विक अविरोध में विरोध के आभास पर विचार किया गया है।
आरोप्यमाण-वह उपमानभूत वस्तु, जिसका उपमेय पर आरोप किया जाता है।
उत्कटेककोटिक संशय-सम्भावना को 'उत्कटककोटिक संशय' माना गया है । शुद्ध संशय में यथार्थ ज्ञान तथा अयथाथ ज्ञान की दो कोटियां होती हैं और दोनों कोटियाँ समान बलशाली होती हैं, पर सम्भावना में जहाँ एक वस्तु पर अन्य वस्तु की सम्भावना की जाती है, वहाँ उस प्रस्तुत के ज्ञान की एक कोटि रहती है और सम्भावित वस्तु के ज्ञान की दूसरी कोटि, जिनमें से सम्भावित ज्ञान की कोटि प्रबल रहती है। द्वकोटिक ज्ञान की दृष्टि से सम्भावना की संशय से समता है; पर एक कोटि की उत्कटता की दृष्टि से वह उससे भिन्न है।
एकवृन्तगतफलद्वय न्याय-वृक्ष के एक वृन्त पर परस्पर सटे रहने वाले दो फलों का दृष्टान्त । एक वृन्त पर एक दूसरे से सटे रहने वाले फलों की तरह अभङ्ग श्लेष में एक प्रयत्नोच्चार्य शब्द में एकाधिक अर्थ संलग्न रहते हैं।
काकतालीय न्याय-आकस्मिक रूप से किसी घटना के घटित होने का न्याय । कौआ आकर बैठा और उसी समय ताल का फल गिर पड़ा। कोए के आने और ताल-फल के गिरने में केवल आकस्मिक सम्बन्ध है। उसी प्रकार आकस्मिक रूप से एक घटना के साथ किसी दूसरी घटना के घटित होने में काकतालीय अर्थात् आकस्मिक-सम्बन्ध माना जाता है। समाधि अलङ्कार में एक के किसी कार्य में प्रवृत्त होने पर काकतालीय न्याय से अन्य कार्य-साधन का उपस्थित हो जाना वर्णित होता है।
काकु-कण्ठ-ध्वनि का भेद 'काकु' कहलाता है। एक ही वाक्य काकु या
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८२२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
कण्ठ-ध्वनि के भेद से भिन्न भिन्न अर्थ का बोधक हो जाता है । उदाहरणार्थ'मैं नहीं जाऊँगा' यह वाक्य एक प्रकार की कण्ठ-ध्वनि से कथित होने पर निषेधार्थक होता है; पर भिन्न कण्ठध्वनि से कहने पर 'मैं नहीं जाऊँगा ?" का अर्थ होता है कि 'मैं अवश्य जाऊंगा' । काकु वक्रोक्ति में श्रोता काकु के. सहारे वक्ता के भिन्नार्थक शब्द का भिन्न अर्थ लगाकर उसका वक्रता पूर्ण उत्तर देता है ।
खलेकपोत न्याय - खलिहान में कबूतरों के एकसाथ उतरने का न्याय । कबूतरों का झुण्ड एक स्थान में एक ही साथ उतरता है । इसी प्रकार समुच्चय अलङ्कार में अनेक अर्थों का एक साथ एकत्र सद्भाव दिखाया जाता है ।
गृहीतमुक्त रीति- पूर्व- पूर्व स्थित वस्तु के प्रति क्रम से प्रत्येक परवर्ती वस्तु को विशेषण के रूप में प्रस्तुत किया जाना गृहीतमुक्त रीति कहलाता है । एकावली अलङ्कार में अर्थ की श्रेणी गृहीतमुक्तरीति से ही प्रस्तुत की जाती है ।
जनुकाष्ठ न्याय— लकड़ी में चिपकी हुई लाह की रीति । जिस प्रकार लकड़ी में लाह सटी रहती है । उसी प्रकार सभङ्ग श्लेष में शब्द में अनेक अर्थ संसक्त रहते हैं ।
तिलतण्डुल न्याय - तिल और चावल के मिले रहने का दृन्त । और चावल को एक साथ मिला देने पर भी दोनों का भेद स्पष्टतः परिलक्षित रहता है । उसी प्रकार अलङ्कार-संसृष्टि में अनेक अलङ्कार इस रूप में एकत्र रहते हैं कि उनका पारस्परिक भेद स्पष्ट रूप से परिलक्षित रहता है । उनमें परस्पर अङ्गाङ्गिभाव सम्बन्ध नहीं रहता वे एक-दूसरे से स्वतन्त्र रहते हैं ।
दण्डापूप न्याय - डंडे में लगे पूए का न्याय । किसी ने डंडे में पूआ लटका कर रखा। चूहा वह डंडा ले गया । डंडे के साथ स्वभावतः ही उसमें लटकाया पूआ भी चला गया । दण्ड के ले जाने से पूआ का ले जाना स्वतः सिद्ध हुआ । इसी प्रकार अर्थापत्ति अलङ्कार में एक के कथन से दूसरे अर्थ का स्वतः सिद्ध होना दिखाया जाता है ।
देहलीदीप न्याय - देहली पर रखे हुए दीपक का दृष्टान्त । जिस प्रकार घर की देहली पर रखा हुआ दीपक बाहर और भीतर, दोनों ओर प्रकाश डालता है, उसी प्रकार देहली दीपक अलङ्कार में विशेष शब्द अनेक शब्दों को दीपित करता है । उस न्याय के आधार पर ही देहली दीपक अलङ्कार की कल्पना की गयी है ।
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पारिभाषिक शब्दावली : व्याख्या [८१३ नीरक्षीर न्याय-दूध और पानी के मिलने की रीति । दोनों को मिला देने पर दोनों का भेद परिलक्षित नहीं होता। इसी प्रकार सङ्कर में अलङ्कारों की पारस्परिक स्थिति इस रूप में रहती है कि उनका भेद परिलक्षित नहीं होता।
निगरण-अप्रधानीकरण। किसी अर्थ को अप्रधान या गौण बना देना निगरण कहलाता है। निगरण का शाब्दिक अर्थ है निगलना। जब किसी का कथन न कर या उसका निषेध कर उसे अप्रधान बना दिया जाता है, तब उसे वस्तु का निगरण कहते हैं। रूपकातिशयोक्ति में विषय का उपादान तहीं होने से उसका निगरण होता है।
पृथग्यत्ननिर्वर्त्य-जिसकी योजना के लिए अतिरिक्त श्रम किया जाय उसे पृथग्यत्ननिर्वर्त्य कहते हैं। कवि जहां अपनी अनुभूति को व्यक्त करता हुआ अलग से अलङ्कार-योजना में श्रम करता है, वहाँ पृथग्यत्ननिर्वयं अलङ्कारों की योजना होती है।
बिम्बप्रतिबिम्बभाव-जहां वस्तुतः भिन्न धर्मों का पर्यायवाची शब्दों से दो वार कथन होने से वह धर्म अभिन्न-सा जान पड़ता है वहां वस्तुओं में बिम्बप्रतिबिम्बभाव सम्बन्ध माना जाता है। दो अलग-अलग वस्तुएं दो वाक्यों में कथित हों और उनमें तत्त्वतः भिन्न धर्मों का अभिन्न धर्म के रूप में उपस्थापन हो; ये दो बिम्बप्रतिबिम्बभाव के लक्षण हैं। दृष्टान्त अलङ्कार में दो समान धर्म वाली वस्तुओं में बिम्बप्रतिविम्बभाव आवश्यक माना गया है।
. यौगपद्य-युगपत् अर्थात् एक साथ होने का भाव योगपद्य कहाजाता है। समुच्चय में अनेक वस्तुओं का योगपद्य होता है अर्थात् अनेक वस्तुओं का एकत्र एक साथ सद्भाव दिखाया जाता है जबकि पर्याय आदि में वस्तुओं का अयोगपद्य अर्थात् क्रम से सद्भाव दिखाया जाता है। . __ वर्णसाजात्य-सजातीय वर्णों का विन्यास वर्ण-साजात्य कहलाता है। समान उच्चारण स्थान से उच्चरित होने वाले तथा समान प्रयल वाले वर्ण सजातीय माने जाते हैं। अनुप्रास के स्वरूप में वर्ण-साजात्य पर विचार किया जाता है।
वस्तुप्रतिवस्तुभाव-दो वस्तुओं के तत्त्वतः अभिन्न धर्म का अलगअलग शब्दों से दो वार कथन होने पर दोनों में वस्तुप्रतिवस्तुभाव सम्बन्ध माना जाता है। प्रतिवस्तूपमा में दो वाक्यार्थों में एक ही समान धर्म का दो बार
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८२४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण उपादान होता है अतः वहाँ वस्तुओं के बीच वस्तुप्रतिवस्तुभाव सम्बन्ध रहता है।
वाक्यपद न्याय-तात्त्विक अभेद में भेद-कल्पना का न्याय । वाक्यस्फोटवादी बैयाकरण वाक्य से पृथक् पद की सत्ता नहीं मानते। उनके अनुसार वाक्य वस्तुतः एक अखण्ड अभिव्यक्ति है, फिर भी व्यवहार में पदों में उसके खण्ड की कल्पना कर ली जाती है क्योंकि बिना खण्ड-कल्पना किये विवेचनविश्लेपण सम्भव नहीं। कुन्तक आदि आचार्यों ने अलङ्कार अलङ्कार्य को तत्त्वतः अभिन्न माना है । उक्ति अपने-आप में पूर्ण एक अखण्ड अभिव्यक्ति होती है जिसमें अलङ्कार्य और अलङ्कार का तात्त्विक भेद नहीं रहता, फिरभी व्यावहारिक सुविधा के लिए वाक्यपदन्याय से उस अखण्ड की खण्ड-कल्पना की जाती है।
वैधर्म्य-साधर्म्य के विपरीत वैधर्म्य वस्तुओं के बीच असमान धर्म का सम्बन्ध है।
सादृश्य-दो वस्तुओं में कुछ सामान्य तथा कुछ विशेष का होना सादृश्य का स्वरूप है। यवि वस्तुओं में केवल सामान्य तत्त्व हो तो उनकी पृथक-पृथक् सत्ता ही नहीं रह जाय और यदि केवल विशेष रहे तो उनमें कुछ भी समानता नहीं रहे। ऐसी स्थितियों में उनमें सादृश्य नहीं रह सकता। अतः कुछ सामान्य तथा कुछ विशेष के रहने पर ही वस्तुओं में सादृश्य रहता है।
साधर्म्य-दो सदृश वस्तुओं में समान धर्म का सम्बन्ध साधर्म्य कहलाता है। उपमा का लक्षण दो सदृश वस्तुओं में समान धर्म का सम्बन्ध माना गया है। साधर्म्य पद उपमेय के साथ उसके धर्म के सम्बन्ण का बोध करता है और उपमानभूत वस्तु के साथ उपमेय के समान-धर्म-सम्बन्ध का भी बोध कराता है।
सिंहावलोकन न्याय-सिंह के देखने का न्याय । सिंह जब शिकार की खोज में आगे चलता है तब बीच-बीच में मुड़ कर पीछे भी देखता चलता है यमक में ऐसी पद रचना कि पद के आगे का वर्ण पीछे के वर्ण से मेल खाता हो सिंहावलोकन की रीति की याद दिलाती है। इसी न्याय के आधार पर परवर्ती काल में वमक का एक रूप जिसे पूर्ववर्ती आचार्यों ने पादान्त-यमक कहा था, सिंहावलोकन नाम से स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में कल्पित कर लिया गया है।
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परिशिष्ट ३
अलङ्कार - दोष
शब्द तथा अर्थ के अलङ्कारों की योजना में असङ्गति से अलङ्कार-दोष उत्पन्न होते हैं । अनुप्रास शब्दालङ्कार में वर्ण-योजना की असङ्गति के आधार पर तीन दोषों की कल्पना की गयी है - प्रसिद्धि का अभाव, वैफल्य तथा वृत्ति विरोध । अनुप्रास योजना के अनुरोध से अप्रसिद्ध पदों की योजना करने से प्रसिद्ध्यभाव दोष; चमत्कार की सृष्टि में असमर्थ वर्णों की योजना से वैफल्य तथा उपनागरिका आदि वृत्तियों के प्रतिकूल वर्ण- योजना से वृत्ति-विरोध दोष होता है । मम्मट ने इन तीन अनुप्रास-दोषों को पद आदि के दोषों में ही अन्तर्भूत माना है । उनके अनुसार प्रसिद्ध्यभाव प्रसिद्धि - विरुद्ध से; वैफल्य अपुष्टार्थत्व से तथा वृत्ति विरोध प्रतिकूलवर्णत्व से पृथक् नहीं ।
यमक का त्रिपाद - निबन्धन दोष माना जाता है । मम्मट इसे अप्रयुक्तत्व दोष में अन्तर्भूत मानते हैं ।
अर्थालङ्कारों में उपमा के दोषों का विस्तृत विवेचन हुआ है । उपमेय के लिए जिस उपमान की योजना की जाती है उसका धर्म उपमेय के धर्म के समान होना चाहिए । जहाँ उसमें उपमेय से जातिगत या प्रमाणगत न्यूनता रहती है, वहाँ होनोपम तथा जहाँ आधिक्य रहता है वहाँ अधिकोपम दोष माना जाता है । मम्मट ने इनका क्रमशः हीनपदत्व तथा अधिकपदत्व में अन्तर्भाव माना है । उपमेय और उपमान के बीच भिन्न लिङ्ग और भिन्न वचन का प्रयोग उपमा के दोष के रूप में स्वीकृत है । मम्मट इन्हें भग्नप्रक्रम दोष में अन्तर्भूत मानते हैं । उन्होंने उपमा में काल, पुरुष, विधि आदि के दोष का भी भग्नप्रक्रम में ही अन्तर्भाव माना है । असादृश्य तथा असम्भव
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५२६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण उपमादोषों को मम्मट अनुचितार्थत्व दोष में अन्तभुक्त मानते हैं। उपमाविरुद्धत्व भी उपमा का दोष माना गया है। मम्मट इसे अनुचितार्थत्व दोष के अन्तर्गत मानते हैं।
उत्प्रेक्षा में असमर्थ वाचक शब्द के प्रयोग से दोष आता है । मन्ये, शङ्क, ध्र वं, प्रायः, नूनम्, अवैमि आदि उत्प्रेक्षा के वाचक हैं। 'यथा' आदि सादृश्यवाचक पद का उत्प्रेक्षा में प्रयोग दोष है, क्योंकि यथा आदि सम्भावना के बोध में असमर्थ है। मम्मट ऐसे स्थल में अवाचकस्व दोष मानते हैं।
समासोक्ति में उपमान का उपादान होने पर अनुपादेयत्व दोष होता है । उपमेय के कथन से ही उपमान की प्रतीति समासोक्ति में होनी चाहिए । उपमान का पुनः उल्लेख दोष माना जाता है। इसे मम्मट अपुष्टार्थत्व या पनरुक्त में अन्तभुक्त मानते हैं। नपुसक में नायक आदि के व्यवहार का आरोप समासोक्ति का दोष होगा, जिसे मम्मट अनुचितार्थत्व दोष मानेंगे । इसी प्रकार अप्रस्तुत प्रशंसा में उपमान से उपमेय गम्य होना चाहिए। उपमेय का उपादान दोष है ।
भिन्न आधार में विरोध का वर्णन विरोधालङ्कार का दोष है। एक आधार में ही विरोध के निरूपण में चमत्कार होने से अलङ्कार का सौन्दर्य रहता है। विरोध का भिन्नाश्रयत्व मम्मट के अनुसार अनुचितार्थत्व दोष है।
इसी प्रकार अलङ्कारों के अन्य सम्भावित दोषों को पद, पदार्थ आदि के दोषों में अन्तर्भूत मान कर मम्मट ने उनका स्वतन्त्र विवेचन आवश्यक नहीं माना है।
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ग्रन्थ-सूची
संस्कृत-ग्रन्थ अभिनव भारती-अभिनव गुप्त, (नाट्यशास्त्र की टीका) गायकावाड ओरि--
___एण्टल इन्स्टीच्यूट वरोदा-१९३४ ई० अलङ्कार कौस्तुभ-कर्णपूर गोस्वामी, वारेन्द्र रिसर्च सोसाइटी, राजशाही
-१९२६ ई० अलङ्कार प्रदीप-विश्वेश्वर, चौखम्बा संस्कृत सीरिज, बनारस-१९२३ ई० अलङ्कार महोदधि-नरेन्द्रप्रभ सूरि, गायकवाड ओरिएण्टल सीरीज
१८४२ ई० अलङ्कार रत्नाकर-शोभाकर मित्र,ओरिएण्टल बुक एजेन्सी, पूना-१९४२ ई० अलङ्कार शेखर-केशव मिश्र, निर्णयसागर, बम्बई-१८९५ अलङ्कारसूत्र-रुय्यक (अलङ्कारसर्वस्व तथा सञ्जीवनी), मेहरचन्द्र लक्ष्मण
दास, दिल्ली-१९६५ अलङ्कारसूत्र-रुय्यक (समुद्रबन्धकृत व्याख्या सहित), अनन्तशयन संस्कृत
ग्रन्थमाला, त्रिवेन्द्रम् अष्टाध्यायी–पाणिनि ऋग्वेदसंहिता। ऋग्वेदभाष्य भूमिका-सायण, चौखम्बा संस्कृत सीरिज, बनारस एकावली-विद्याधर,तरलाटीका,गवर्नमेन्ट सेन्ट्रल बुक डिपो-बम्बई १९०३ ई०. औचित्य विचार चर्चा-क्षेमेन्द्र, पूना ओरिएण्टल सीरीज-१९५४ कविकण्ठाभरण-क्षेमेन्द्र, काव्यमाला, निर्णयसागर, बम्बई-१९२६ काव्यादर्श-दण्डी, कुसुमप्रतिमा टीका, मेहरचन्द लक्ष्मण दास, संदमिट्ठा
बाजार लाहौर-१९६० वि०
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-८२८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण काव्यादर्श-दण्डी, वी० रामस्वामी, २६६ इस्प्लेनेड, मद्रास-१६३० काव्यादर्श-दण्डी, हृदयङ्गमा टीका, प्रो० रङ्गाचार्य मद्रास । काव्यानुशासन-हेमचन्द्र, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई-१९३४ काव्यप्रकाश-मम्मट, नागेश्वरी टीका, चौखम्बा संस्कृत पुस्तकालय, बनारस
__-१९५१ काव्यप्रकाश-मम्मट, झलकीकरकृत बालबोधिनी टीका, भण्डारकर ओरि
एण्टल इन्स्टीच्यूट, पूना-१९५० काव्यप्रकाश-मम्मट, भीमसेन दीक्षित, सुधासागर टीका, चौखम्बा संस्कृत
सीरिज, बनारस-१६२४ काव्यप्रदीप-गोविन्द ठक्कुर (काव्यप्रकाश की टीका), निर्णय सागर,
बम्बई-१९३३ काव्यमीमांसा-राजशेखर, जयकृष्ण दास हरिदास गुप्त, बनारस-१६३१ काव्यालङ्कार-भामह, चौखम्बा सस्कृत सीरीज, बनारस-१९८५ काव्यालङ्कार-रुद्रट, नमिसाधु की टीका, निर्णय सागर, बम्बई-१९२८ काव्यालङ्कारसारसङ ग्रह-उद्भट,तिलककृत विवृति, ओरिएण्टल इन्स्टीच्यूट
वरोदा-१६३१ काव्यालङ्कारसारसङ ग्रह-उद्भट, इन्दुराज की लघुवृत्तिटीका, भण्डारकर
___इन्स्टीच्यूट, पूना-१९२५ काव्यालङ्कारसारसङ ग्रह-उद्भट, बनहट्टी की अंगरेजी व्याख्या. प्राच्य
विद्या शोध मन्दिर पूना, १९२५ काव्यालङ्कारसत्रवत्ति-वामन, कामधेनु टीका, बनारस सस्कृत सीरीज
__ -१९०७ कुवलयानन्द-अप्पय्य दीक्षित, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई-१९४७ चन्द्रालोक-जयदेव, रमा व्याख्या, सर्किल फोर्ट बम्बई १६३३ चन्द्रालोक-जयदेव, गुजराती प्रिन्टिंग प्रेस, बम्बई १६७६ वि० चित्रमीमांसा-अप्पय्य दीक्षित, वाणी विहार वाराणसी-१, १९६५ चित्रमीमांसा-अप्पय्य दीक्षित (जगन्नाथकृत खण्डन), काव्यमाला सीरीज,
निर्णयसागर-१९२६ ध्वन्यालोक-आनन्दवर्धन, निर्णय सागर प्रेस बम्बई-१६११ 'ध्वन्यालोक-आनन्दवर्धन (दीधिति टीका), चौखम्बा सस्कृत सीरीज,
बनारस-१६५३
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ग्रन्थ-सूची
[८२६
नजराजयशोभूषण-नृसिंह कवि, ओरिएण्टल इन्स्टीच्यूट, वरादा नाट्यशास्त्र-भरत (अभिनव भारती टीका), ओरिएण्टल इन्स्टीच्यूट, .
वरोदा-१९३४ निरुक्त-यास्क, हरियाणा शेखावाटी आश्रम, भिवानी-१८८३ न्यायसिद्धान्त मुक्तावली-विश्वनाथ न्यायपञ्चानन, नागेश्वर पाठशाला,
बनारस-१६४० प्रतापरुद्रयशोभूषण-विद्यानाथ, (रत्नापण टीका) राजकीय ग्रन्थमाला,
बम्बई, १९०६ भट्टिकाव्य-वत्सभट्टि (जयमङ्गला टीका) निर्णयसागर, बम्बई-१९०६ महाभाष्य-पतञ्जलि (प्रदीप तथा उद्योत टीका) निर्णयसागर, बम्बई
-१६१२ मृच्छकटिक-शूद्रक मेघदूत-कालिदास रघुवंश-कालिदास रसगङ्गाधर-जगन्नाथ (नागेशभट्टकृत टीका) बनारस, सस्कृत सीरीज
-१६०३ लिङ्गपुराण लोचन-अभिनव गुप्त (ध्वन्यालोक पर टीका), निर्णय सागर, बम्बई-१९११ वक्रोक्तिजीवित-कुन्तक, आत्माराम एण्ड सन्स दिल्ली-६ । वाग्भटालङ्कार–वाग्भट, मेहरचन्द लक्ष्मण दास, सैदमिट्ठा बाजार, लाहौर
-१९८६ वि० वायुपुराण सरस्वतीकण्ठाभरण-भोज, जीवानन्द विद्यासागर, रमानाथ स्ट्रीट, कलकत्ता
-१८६४ सरस्वतीकण्ठाभरण-भोज, काव्यमाला सीरीज, निर्णयसागर बम्बई-१९३४ साहित्यदर्पण-विश्वनाथ, कुसुमप्रतिमा टीका, हेमचन्द्र भट्टाचार्य, ४१ देवलेन
कलकत्ता-१८६७ साहित्यसार-अच्युतराय, निर्णयसागर, बम्बई-१९०६ साहित्यसार-सर्वेश्वर कवि, वेंकटेश्वर प्राच्य ग्रन्थमाला-१९५२
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८३०]
हिन्दी ग्रन्थ
अलङ्कारपीयूष– रामशङ्कर शुक्ल 'रसाल', रामनारायण लाल, इलाहाबाद १६५४
• अलङ्कारभ्रमभंजन - ग्वाल, ब्रज भारती, मथुरा १९६८ वि० अलङ्कारमञ्जरी – कन्हैयालाल पोद्दार, जगन्नाथ शर्मा, मथुरा २००२ वि० · अलङ्कारमणिमञ्जरी — ऋषिनाथ, आर्य यन्त्रालय, वाराणसी १६२६ वि० अलङ्कारमञ्जूषा – भगवान दीन, रामनारायण लाल, इलाहावाद २००८ वि०
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अलङ्कार मीमांसा - रामचन्द्र द्विवेदी, मोतीलाल बनारसीदास - १९६५ कवि प्रिया - केशवदास, कल्याणदास एण्ड ब्रदर्स, वाराणसी - २०१४ वि० - कर्णाभरण— गोविन्द कवि, भारत जीवन प्रेस, बनारस - १८६४ वि० कविकुलकण्ठाभरण— दूलह, देवकविसुधा, लखनऊ- १९९२ वि० काव्य निर्णय - भिखारीदास, कल्याणदास एण्ड ब्रदर्स, वाराणसी - १९५६ काव्य प्रभाकर – जगन्नाथ प्रसाद भानु, लक्ष्मी वेंकटेश्वर छापाखाना, कल्याण काव्यदर्पण - रामदहिन मिश्र, ग्रन्थमाला कार्यालय, पटना- १९४७ काव्य में अभिव्यञ्जनावाद - लक्ष्मीनारायण 'सुधांशु', युगान्तर साहित्य मन्दिर, भागलपुर - २००० वि०
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केशव ग्रन्थावली - सं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहावाद - १८५५ ई०
चित्रचन्द्रिका - बलवान सिंह, नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ - १८५७ चेतचन्द्रिका - गोकुल, भारतजीवन प्रेस बनारस - १८९४ ई०
जसवंतजसो भूषण - मुरारिदान, मारवाड़ स्टेट प्रेस, जोधपुर - १९५४ वि० दीपप्रकाश - ब्रह्मदत्त, भारतजीवन प्रेस, बनारस - १९४६ वि० देवग्रन्थावली - काशी नागरी प्रचारिणी सभा - १६१२
देव और उनकी कविता - नगेन्द्र, गौतम बुकडिपो, दिल्ली- १९४९
'पद्माभरण - पद्माकर, सं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र वाणीवितान, वाराणसी २०१५ वि०
प्रिया प्रकाश- भगवान दीन, कल्याणदास एण्ड सन्स - वाराणसी २०१४ फते प्रकाश - रत्नेश, भारत प्रकाशन मन्दिर, अलीगढ - १९६१ निताभूषण - गुलाब सिंह, जगतप्रकाशन, फतेहगढ
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ग्रन्थ
L-538
भारतो भूषण – गिरिधरदास, चौखम्बा पुस्तकालय, बनारस
भारतीय काव्यशास्त्र को भूमिका – नगेन्द्र, ओरिएण्टल बुक डिपो, दिल्ली २०१२ वि० भाषाभूषण – जसवन्त सिंह, हिन्दी साहित्य कुटीर - २००६ वि० मतिरामग्रन्थावलो – गंगा पुस्तकालय, लखनऊ - १९८३ वि० महेश्वर भूषण - महेश्वर, भारतजीवन प्रेस, बनारस - १९५४ वि० रस रहस्य कुलपति मिश्र, इण्डियन प्रेस लि० प्रयाग - १९५४ ई० रसिक रसाल — कुमारमणि शास्त्री, श्रीविद्याविभाग कांकरोली - १९५४ वि० रामचन्द्र भूषण - लच्छिराम, खेमराज श्री कृष्णदास, बम्बई - १९६० वि० रीतिकाव्य की भूमिका – नगेन्द्र, नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली, चतुर्थ सं० १९६१
·
रीतिकालीन अलङ्कार साहित्य का शास्त्रीय विवेचन – ओम प्रकाश शर्मा, हिन्दी साहित्य संसार दिल्ली ७-१९६५ रुद्रप्रणीत काव्यालङ्कार - हिन्दी रूपान्तरकार सत्यदेव चौधरी, वासुदेव प्रकाशन, दिल्ली - १९६५
शब्द रसायन - देव, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग - २००४ वि० साहित्य सागर - बिहारीलाल भट्ट, गंगा ग्रन्थागार लखनऊ - १९६४ वि० (हिन्दी) भामहविरचित काव्यालङ कार - भाष्यकार देवेन्द्रनाथ शर्मा, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद पटना हिन्दी काव्यालङ कार — व्याख्याता, विश्वेश्वर, आत्माराम एण्ड सन्स दिल्ली - ६- १९५४ ई०
हिन्दी वक्रोक्तिजीवित - व्याख्याता, विश्वेश्वर, आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली - १९५५ ई०
हिन्दी साहित्य का इतिहास - रामचन्द्र शुक्ल, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी २००९ वि० हिन्दी काव्यशास्त्र का इतिहास - भगीरथ मिश्र, लखनऊ विश्वविद्यालय, २००५ वि०
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८३२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
बंगला-ग्रंथ अग्निपुराण-सम्पादक, पञ्चानन तर्करल, वंगवासी प्रेस, कलकत्ता,
शकाब्द १३१४ . अंगरेजी ग्रन्थ Aesthetics-Croce Aristotle's Poetics-T. A. Moxon, J. M. Dent & sons ltd.
London. Bhoja's sringaraPrakash-V. Raghavan, Punarvasu Madras. History of Sanskrit Poetics-S. K. DE, Firma K.L. Mukho
padhyaya. cal. 1960 History of Sanskrit poetics—P.V. kane. Girgaon. Bombay
1951 Remarks on Simile in Sanskrit Literature-J. Gonda.
Leiden (Holland) E. J. Brill, 1949 Some concepts of Alamkara shastra-V. Raghavan, Adyar
Library. Adyar, 1942
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