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________________ अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [५३७ के समय तक स्वभावोक्ति अलङ्कार के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी। उक्त 'कथन से यह भी स्पष्ट है कि भामह उसे अलङ्कार नहीं मानते थे; क्योंकि अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के उपमा, रूपक, दीपक आदि अलङ्कारों के लक्षणनिरूपण-क्रम में उन्होंने उन्हें कुछ लोगों के द्वारा मान्य नहीं कहा। आचार्यों की यह शैली रही है कि जो अलङ्कार उन्हें मान्य हैं, उनका लक्षण देने के क्रम में वे किसी पूर्ववर्ती आचार्य के मत का निर्देश करना आवश्यक नहीं मानते, पर जिस अलङ्कार का अलङ्कारत्व उन्हें सन्दिग्ध जान पड़ता है या जिसके अलङ्कारत्व के सम्बन्ध में आचार्यों में मतभेद रहता है उसके लक्षण का निरूपण भी आचार्य-धर्म का पालन करने के लिए कर देते हैं और ऐसे स्थल पर यह निर्देश कर देते हैं कि इसे भी कुछ लोग अलङ्कार मानते हैं। भामह के उक्त कथन से यह तो अनुमान होता ही है कि उन्हें स्वभावोक्ति का अलङ्कारत्व इष्ट नहीं था, यह भी अनुमान किया जा सकता है कि भामह के पूर्व भी उसे कुछ आचार्य अलङ्कार मानते होंगे और कुछ आचार्य उसके अलङ्कारत्व को अमान्य सिद्ध करते होंगे। इसीलिए "भामह ने इस तथ्य की ओर सङ्कत कर सन्तोष कर लिया होगा । यदि भामह के पूर्व स्वभावोक्ति सर्वसम्मत अलङ्कार हो गयी होती तो भामह अलङ्कार के रूप में उसकी सत्ता का युक्तियों से खण्डन करते या; यदि उन्हें भी उसका अलङ्कारत्व मान्य होता तो, 'केचित् प्रचक्षते' का उल्लेख किये बिना केवल उसका लक्षण-उदाहरण दे देते । अस्तु ! भामह ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा स्वीकृत स्वभावोक्ति का स्वरूप इस प्रकार दिया है :-'वस्तु की अवस्था का यथारूप वर्णन अर्थात् उसके स्वभाव का वर्णन स्वभावोक्ति है।'' भामह के उत्तरवर्ती आचार्य दण्डी ने न केवल स्वभावोक्ति का अलङ्कारत्व स्वीकार किया, वरन् उसे 'आद्यालङ कृति' कहकर अलङ्कारों में प्रधान माना। उन्होंने स्वभावोक्ति को ही अलङ्कार-प्रकरण में प्रथम विवेच्य समझा । स्वभावोक्ति का दूसरा नाम उनके अनुसार 'जाति' है। दण्डी ने स्वभावोक्ति के स्वरूप के सम्बन्ध में पूर्वप्रचलित मान्यता को ही स्वीकार किया है। उनके अनुसार विभिन्न अवस्थाओं में पदार्थों (जाति, गुण, क्रिया तथा द्रव्य) के स्वरूप के स्फुट वर्णन को स्वभावोक्ति कहते हैं । शास्त्र आदि में १. अर्थस्य तदवस्थत्वं स्वभावोतभिहितो यथा ।-भामह, काव्यालं २, ६३ २. नानावस्थं पदार्थानां रूपं साक्षाद्विवृण्वती। स्वभावोक्तिश्च जातिश्चेत्याद्या सालंकृतियथा॥-दण्डी, काव्यदर्श २,८
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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