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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
किसी वस्तु के
- यथारूप वर्णित तथा अतिश यया वक्रता के साथ वर्णित । स्वभाव, रूप, क्रिया आदि का यथारूप वर्णन स्वभावोक्ति है । इस प्रकार के वर्णन के सौन्दर्य को दृष्टि में रखते हुए आचार्यों ने अलङ्कार, गुण आदि के क्षेत्र में इसके स्वरूप पर विचार किया है । वामन आदि आचार्यों ने काव्य में 'वस्तु-स्वभाव के स्फुट वर्णन को काव्य का सौन्दर्याधायक गुण माना तो दण्डी आदि आचार्यों ने इसे काव्य का शोभावर्धक अलङ्कार स्वीकार किया । भामह को सम्भवतः स्वभावोक्ति की अलङ्कार के रूप में स्वीकृति अभिमत नहीं थी । कारण अज्ञात है । अनुमानतः वक्रोक्ति या अतिशयोक्ति को अलङ्कार मात्र का प्राण मानने के कारण भामह ने उसके अभाव में स्वभावोक्ति का अलङ्कारत्व अग्राह्य माना होगा । भामह ने स्वभावोक्ति के अलङ्कारत्व के सम्बन्ध में, एक प्रश्नचिह्न-सा लगा दिया था। आगे चलकर मक्रोक्तिवादी कुन्तक ने सबल युक्तियों से वस्तु स्वभाव - वर्णन को अलङ्कार मानने वाले मत का खण्डन किया । उस खण्डन में कुन्तक का आधार सर्वथा मौलिक है । उनकी मान्यता है कि काव्य में अलङ्कार और अलङ्कार्य का भेद स्पष्ट होना चाहिए । अलङ्कार का कार्य अलङ्कार्य को अलङकृत करना है । काव्य की वर्ण्य वस्तु, जिसके सौन्दर्य-संवर्धन के लिए अलङ्कार की योजना होती है, अलङ्कार्यं मानी जाती है । स्वभावोक्ति में वस्तु के स्वभाव का वर्णन अपेक्षित है । वह काव्य के वर्ण्य से - अलङ्कार्यं से – अभिन्न है । यदि उस अलङ्कार्य या काव्य की वर्णनीय वस्तु को भी अलङ्कार मान लिया गया तो फिर अलङ्कार्य क्या बच रहेगा? वह अलङ्कार किसे अलङ्कृत करेगा ? अत:, कुन्त का निष्कर्ष यह है कि वस्तु स्वभाव-वर्णन अलङ्कार से भिन्न अलङ्कार्यं है । इस प्रकार स्वभावोक्ति के सम्बन्ध में निम्नलिखित मत सामने आते हैं
(१) स्वभावोक्ति को काव्य का अलङ्कार मानने वाला मत, (२) उसे काव्य का गुण मानने वाला मत तथा ( ३ ) उसके अलङ्कारत्व का खण्डन कर उसे अलङ्कार्य मानने वाला मत । स्वभावोक्ति-विषयक इन मान्यताओं को दृष्टि में रखते हुए उसके स्वरूप विकास तथा उसके अलङ्कारत्व का परीक्षण वाञ्छनीय है ।
सर्वप्रथम आचार्य भामह ने स्वभावोक्ति के स्वरूप का उल्लेख करते हुए कहा कि कुछ लोग स्वभावोक्ति को अलङ्कार मानते हैं ।' स्पष्ट है कि भामह
१. स्वभावोक्तिरलङ्कार इति केचित् प्रचक्षते । - भामह, काव्यालं० २, ६३