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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद [६८९ वक्रोक्ति अलङ्कार माना है। इसका स्वरूप उत्प्रेक्षा से कुछ मिलता-जुलता है । अतः इस वक्रोक्ति से उत्प्रेक्षा का भेद-निरूपण अपेक्षित है। अन्य आचार्यों की वक्रोक्ति का स्वरूप वामन की वक्रोक्ति से सर्वथा भिन्न है। वे अन्य व्यक्ति के अन्य अर्थ में कथित वाक्य का श्रोता के द्वारा अन्य अर्थ लगाकर उत्तर देने की वक्र शैली में वक्रोक्ति मानते हैं। इस वक्रोक्ति का उत्प्रेक्षा से कुछ भी स्वरूप-साम्य नहीं। अतः वामन की वक्रोक्ति-परिभाषा को ही दृष्टि में रख कर हम उत्प्रेक्षा से उसका भेद-विवेचन करेंगे। ___ सादृश्य से लाक्षणिक प्रयोग में, अर्थात् वक्रोक्ति में, एक वस्तु के लिए अन्य वस्तु का निश्चयात्मक प्रयोग होता है। मनुष्य को जब सिंह या गदहा कहा जाता है तो यह कथन निश्चयात्मक ही हुआ करता है। ध्यातव्य है कि ऐसी उक्ति में वक्ता मनुष्य तथा सिंह या गदहा आदि के भेद से भी अवगत रहता है। दोनों के भेद का ज्ञान रहने पर भी गुण-सादृश्य से अन्य (मनुष्य) के लिए अन्य (सिंह, गदहा आदि) का प्रयोग किया जाता है। इसी तरह उत्प्रेक्षा में भी अतिशयार्थ किसी वस्तु में उसके अपने यथार्थ रूप से भिन्न रूप का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार किञ्चित् रूपगत साम्य होने पर भी उत्प्रेक्षा और सादृश्य-लक्षणा-रूपा वक्रोक्ति में भेद यह है कि उत्प्रेक्षा में अन्य वस्तु-रूप में अन्य का प्रयोग सम्भावना के रूप में ( उत्कटककोटिक सन्देह अतः अनिश्चय के रूप में ) होता है पर वामन की वक्रोक्ति में (लाक्षणिक प्रयोग में) निश्चयात्मक रूप में। उत्प्रेक्षा और सन्देह
उत्प्रेक्षा में अन्य वस्तु में अन्य वस्तु की सम्भावना की जाती है अर्थात् उपमेय में उपमान की सम्भावना की जाती है। सन्देह में किसी वस्तु में अनिश्चयात्मक द्वकोटिक ज्ञान होता है। इसमें दोनों ही वस्तुओं के ज्ञान में समान बल रहता है। वर्ण्य मुख में 'मुख है या कमल' इस प्रकार का द्वै कोटिक ज्ञान रहता है और दोनों में से किसी ज्ञान में दूसरे की अपेक्षा कम या अधिक बल नहीं रहता। उत्प्रेक्षा और सन्देह का मुख्य भेद यह है कि उत्प्रेक्षा में उपमेय में उपमान का ज्ञान उत्कट कोटि का होता है, जब कि सन्देह में उपमेय और उपमान का ज्ञान समान कोटि का
१. सादृश्याल्लक्षणा वक्रोक्तिः।-वामन, काव्यालङ्कार, सूत्र ४, ३, ८
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