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________________ ६९० ] अलङ्कार- धारणा : विकास और विश्लेषण रहता है । उत्प्रेक्षा को इसीलिए उत्कट ककोटिक संशय कहा गया है । जब उपमेय के स्वरूप में उपमान के स्वरूप की सम्भावना की जाती है तो उपमेय और उपमान; दोनों का ज्ञान रहता है पर उपमान का ज्ञान उत्कट कोटि का होता है । उसमें उपमेय के ज्ञान की अपेक्षा अधिक बल रहता है । विश्वनाथ ने इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख किया है । १ कुन्तक ने सन्देह के सभी भेदों को अनिवार्यतः उत्प्रेक्षामूलक ही माना है । २ पण्डितराज जगन्नाथ ने सन्देह के लक्षण में उसके व्यावर्तक धर्म 'समबल' का उल्लेख किया है । 3 दो विषयों के समबल ज्ञान में सन्देह अलङ्कार होता है | अतः, सन्देह उत्कटैककोटिक ज्ञान वाली उत्प्रेक्षा से भिन्न है । उत्प्रेक्षा और सन्देह का यही भेद सर्वमान्य है । समासोक्ति और अप्रस्तुतप्रशंसा समासोक्ति एवं अप्रस्तुतप्रशंसा; दोनों में एक अर्थ के कथन से अन्य अर्थ व्यञ्जित होता है । प्रस्तुत अर्थ के वर्णन से अप्रस्तुत अर्थ के व्यञ्जित होने में समासोक्ति अलङ्कार माना जाता है । हम देख चुके हैं कि वामन, रुद्रट, भोज आदि आचार्यों ने अप्रस्तुत के कथन से प्रस्तुत के गम्य होने में समासोक्ति अलङ्कार माना था; पर पीछे चलकर समासोक्ति और अप्रस्तुतप्रशंसा का क्षेत्र निर्धारित कर दिया गया। प्रस्तुत के कथन से अप्रस्तुत के व्यञ्जित होने में समासोक्ति तथा इसके विपरीत अप्रस्तुत के कथन से प्रस्तुत के व्यञ्जित होने में अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार माना गया । अप्रस्तुतप्रशंसा का कुछ आचार्यों के द्वारा सुझाया गया लक्षण - अप्रस्तुत की प्रशंसा अर्थात् गुणगान - भी मान्य नहीं हुआ । इस प्रकार काव्यशास्त्र में समासोक्ति और अप्रस्तुतप्रशंसा का जो स्वीकृत स्वरूप है, उसमें मुख्य भेद यह है कि समासोक्ति में प्रस्तुत अर्थ का १. सन्देहे तु समकक्षतया कोटिद्वयस्य प्रतीतिः, इह ( उत्पक्षायां ) तु उत्कटा सम्भाव्यभूतैका कोटिः । - विश्वनाथ, साहत्यिदर्पण वृत्ति, पृ० ६६४ २. यस्मिन्नुत्प्रेक्षितं रूपं सन्देह मेति वस्तुनः । उत्प्रेक्षान्तरसद्भावात् विच्छित्त्यै सन्देहो मतः ॥ ३,४२ —— कुन्तक, वक्रोक्तिजी, ३. उत्प्रेक्षाव्यावृत्तये समबलेति । —जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ४०६
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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