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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
तथा साम्भव्यमान वस्तु; इन दोनों का ज्ञान वक्ता को रहता है । विश्वनाथ ने भी इसी आधार पर उत्प्रेक्षा और भ्रान्तिमान् का भेद किया है कि उत्प्रेक्षा में सम्भावना करने वाले को विषय तथा विषयी; दोनों का ज्ञान रहता है, पर भ्रान्तिमान् में भ्रान्त व्यक्ति को विषय का ज्ञान नहीं रह जाता ।
उत्प्र ेक्षा सादृश्यमूलक अलङ्कार है । अतः उपमा की तरह (वाच्या) उत्प्रेक्षा को भी 'इव' आदि सादृश्यवाचक शब्द द्योतित करते हैं । दण्डी ने 'मन्ये" 'शङ्क' आदि उत्प्र ेक्षा वाचक शब्दों का स्पष्ट उल्लेख किया था । कुन्तक ने भी इवादि को उत्प्रेक्षा का प्रकाशक कहा है । २ भ्रान्तिमान् का भी आधार सादृश्यातिशय पर आश्रित भ्रमात्मक ज्ञान ही है, पर उसमें अन्य वस्तु में अन्य वस्तु का एककोटिक निश्चयात्मक ज्ञान वर्णित होता है, दो वस्तुओं के बीच सादृश्य-ज्ञान नहीं । अतः भ्रान्तिमान् में 'इव' आदि वाचक पदो का प्रयोग: नहीं होता । इस विवेचन के निष्कर्ष के रूप में उत्प्रेक्षा और भ्रान्तिमान् के निम्नलिखित दो भेदक तत्त्व उपलब्ध होते हैं ।
(क) उत्प्रेक्षा में सम्भावना करने वाले को प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत दोनों का ज्ञान रहता है, फिर भी वह अतिशयार्थ उपमेय में उपमान की सम्भावना करता है, पर भ्रान्तिमान् में वक्ता भ्रमवश उपमेय को ही निश्चयात्मक रूप से उपमान समझ लेता है । उसे उपमेय का ज्ञान नहीं होता ।
(ख) वाच्योत्प्रेक्षा में 'इव' 'मन्ये' 'शङ्क' आदि वाचक पक्षों का प्रयोग होता है, पर भ्रान्तिमान में अन्य वस्तु में अन्य का निश्चयात्मक या एककोटिक ज्ञान होने के कारण सादृश्य आदि के वाचक का प्रयोग नहीं होता ।
उत्प्रेक्षा और (वामन कल्पित ) वक्रोक्ति
आचार्य वामन ने सादृश्य के आधार पर की जाने वाली लक्षणा में
१. भ्रान्तिमदलङ्कारे 'मुग्धा दुग्धधिया' – इत्यादौ भ्रान्तानां वल्लवादीनां विषयस्य चन्द्रिकादेर्ज्ञानमेव नास्ति, तदुपनिबन्धनस्य कविनैव कृतत्वात् । इह (उत्प्रेक्षायां ) तु संभावनाकत्तु विषयस्यापि ज्ञानमिति द्वयोर्भेदः । - विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, वृत्ति पृ० ६६४
२. द्रष्टव्य - दण्डी, काव्याद०२, २३४ तथा कुन्तक, वक्रोक्तिजी ०. कैर्वाक्यै रुत्प्रेक्षा प्रकाश्यते इत्याह- इवादिभिः । पृ० ४२५