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________________ अष्टम अध्याय अलङ्कार और मनोभाव भारतीय काव्यशास्त्र के आचार्यों ने अलङ्कार को मनोभाव के साथ प्रत्यक्षतः सम्बद्ध न मानकर भावोत्कर्ष में प्रकारान्तर से सहायक माना है। अलङ्कार काव्य के शरीरभूत शब्द-अर्थ के सौन्दर्य का उत्कर्ष कर परम्परया काव्यात्मभूत रस-भावादि का भी उपकार करते हैं। निश्चय ही रसाक्षिप्त या अपृथग्यत्ननिर्वर्त्य अलङ्कार काव्य के बहिरङ्ग धर्म नहीं होते; वे काव्योक्ति में अन्तरङ्ग भाव से मिले रहते हैं; पर इस तथ्य को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि कहीं-कहीं अलङ्कार भाव के बाधक भी बन जाते हैं। कठोर वर्णों का अनुप्रास अपने आप में तो अलङ्कार है; पर रति के कोमल मनोभाव का उससे पोषण नहीं हो सकता। इसी दृष्टि से आचार्यों ने अलङ्कार को काव्य-सौन्दर्य का-भावोत्कर्ष का-अनित्य साधक माना है। प्रस्तुत अध्याय में हम मनोभाव की दृष्टि से काव्यालङ्कार के स्वरूप पर विचार करेंगे। प्राचीन आलङ्कारिकों ने अलङ्कार-विशेष का मनोभाव-विशेष के साथ नित्य सम्बन्ध नहीं माना था। जिन आचार्यों ने अलङ्कार को काव्य-सौन्दर्य का पर्याय मानकर रस-भाव आदि को भी अलङ्कार-विशेष के रूप में निरूपित किया था उन्होंने भी मनोभाव की दृष्टि से अलङ्कार का विषय-विभाग नहीं किया था। रसपेशल को रसवत् अलङ्कार मानने वाले दण्डी आदि आचार्यों ने एक ही अलङ्कार में सभी रसों का-सभी मनोभावों का समावेश मान लिया था । परवर्ती आचार्यों ने भी गुणीभूत रस-भाव आदि को सामान्य रूप से रसवत्, प्रेय आदि अलङ्कार कहा । उन आचार्यों ने चित्त की तीन वृत्तियो-ति, दीप्ति और विकास-स्वीकार कर माधुर्य, ओज और प्रसाद
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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