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७८६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
यह भाषावैज्ञानिक तथ्य है कि एक कथ्य की अनेक अभिव्यक्तियां होती हैं तथा इसके विपरीत अनेक कथ्यों की एक अभिव्यक्ति भी होती है। भाषा की ये दोनों प्रकार की विशेषताएँ बहुधा आलङ्कारिक प्रयोग पर निर्भर रहती हैं । अतः, अलङ्कारों के स्वरूप-निरूपण में उक्ति तथा अर्थ के ऐसे अनेक विलक्षण सम्बन्धों का विचार किया जाता रहा है। श्लेष, समासोक्ति, अप्रस्तुतप्रशंसा, अन्योक्ति, गूढोक्ति, गूढोत्तर आदि में एक अभिव्यक्ति में अनेक कथ्यों के तथ्य पर विचार हुआ है, तो पर्यायोक्त आदि में एक ही कथ्य की विलक्षण उक्तिभङ्गी पर विचार किया गया है। उसमें अभिधेय अर्थ को अभिधा से न कहकर व्यञ्जना-वृत्ति से कहा जाता है या व्यङग्य अर्थ का अभिधा से कथन होता है। उसमें वाच्य तथा व्यङग्य अर्थ मूलतः एक ही होता है; पर उसके कथन के प्रकार में भेद होता है।
निष्कर्षतः, अलङ्कारों के स्वरूप में भाषा की असंख्य भङ्गिमाओं का अध्ययन होता रहा है। अतः, भाषा-विशेष की प्रकृति को परखने में उसके आलङ्कारिक प्रयोगों का अध्ययन सहायक होता है।