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________________ ७७६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण इस लोक - विश्वास के आधार पर कालिदास ने मेघदूत में एक सुन्दर कल्पना की है । " तात्पर्य यह कि न तो काव्योक्ति और लोकोक्ति का स्पष्ट भेद सम्भव है और न यह निर्णय सम्भव है कि काव्य और लोक में समान रूप से प्रयुक्त अलङ्कार पहले काव्य में कल्पित हुए या लोक व्यवहार में । स्त्रियों के पदाघात से अशोक का पुष्पित होना, हंस का नीर-क्षीर विवेकी होना आदि कविप्रसिद्धियाँ तथा उन पर आधृत अनेक अनङ्कार कवि - कल्पना से प्रसूत होकर लोक में प्रसिद्ध हुए या लोक व्यवहार में उत्पन्न होकर काव्य में गृहीत हुए, इस बात का निर्णय कठिन ही नहीं, असम्भव है । भाषा में लाघव के लिए भी अलङ्कार का प्रयोग किया जाता है। किसी परिचित वस्तु के साथ वर्ण्य वस्तु की तुलना कर देने से उस परिचित वस्तु के प्रायः सभी विशिष्ट गुणों की कल्पना प्रमाता वर्ण्य वस्तु में कर लेता है । इस प्रकार वर्ण्य वस्तु के अनेक गुणों के अलग-अलग वर्णन की आवश्यकता नहीं रह जाती । किसी के व्यक्तित्व का वर्णन करने के क्रम में यदि उसे 'ऋषि तुल्य' कह दिया जाता है तो ऋषि के धीर, प्रशान्त, निस्पृह, करुणामय व्यक्तित्व का प्रभाव जगकर उस वर्ण्य व्यक्ति के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में वैसी ही धारणा जगा देता है । व्यक्ति के बहुत विस्तृत वर्णन से उसके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में जो धारणा बन पाती, वह धारणा एक उपमान संक्षेप में हो उत्पन्न कर देता है। किसी को बालक - सा या विक्षिप्त-सा आचरण करने वाला कह देने मात्र से बालक या विक्षिप्त के अनेक आचरणों का आरोप श्रोता उसपर कर लेते हैं । पौराणिक या ऐतिहासिक उपमान संक्षेप में अर्थ की अभिव्यक्ति की दृष्टि से बहुत उपादेय सिद्ध होते हैं । पुराण, इतिहास के तत्तत् पात्रों के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में लोगों के मन में एक निश्चित धारणा रहा करती है, जिसका आधार उन पात्रों का सम्पूर्ण जीवन-वृत्त हुआ करता हैं । अतः, जब किसी व्यक्ति के लिए इतिहास पुराण के किसी पात्र को उपमान बनाया जाता है तो उस पात्र के सम्बन्ध में लोगों की सम्पूर्ण धारणा ar व्यक्ति के साथ भी सम्बद्ध हो जाती है । 'यह दूसरा युधिष्ठर है' इस ० १. कत्तु यच्च प्रभवति महीमुच्छिलीन्ध्रामवन्ध्यां तच्छ्रुत्वा ते श्रवणसुभगं गर्जितं मानसोत्काः । कैलासाविस किसलयच्छेदपाथेयवन्तः सम्पत्स्यन्ते नभसि भवतो राजहंसाः सहायाः ॥ - कालिदास, मेघदूत, पूर्व, ११
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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