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५१२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण होने के कारण उसका खण्डन करते हुए यह सुझाव दिया है कि उसमें 'सदृश के अनुभव' से स्मृति की जगह 'सदृश के ज्ञान' से स्मृति का उल्लेख होता तो वह लक्षण अव्यानि दोष से मुक्त हो पाता । रुय्यक स्मृति का एक ही रूप मानते थे-अनुभूयमान से सदृश की स्मृति । अतः उनकी दृष्टि को स्पष्ट करने के लिए उनकी परिभाषा पूर्ण है। वे जगन्नाथ की तरह स्मरण से उबुद्ध स्मरण में तो स्मरणालङ्कार मानते ही नहीं थे। अतः, उनकी परिभाषा में परिवर्तन का सुझाव कोई अर्थ नहीं रखता।
स्मरण अलङ्कार के सम्बन्ध में आचार्यों की मान्यता के इस परीक्षण से निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं :
(क) स्मरण सादृश्यमूलक अलङ्कार है । अतः, सदृश वस्तु के ज्ञान से उद्बुद्ध स्मृति ही इसका विषय है ।
(ख) सदृश वस्तु के ज्ञान से साक्षात् या परम्परया सम्बद्ध स्मृति भी वस्तुतः सादृश्यमूलक ही मानी जायगी। अतः, ऐसे स्थल में भी स्मरण अलङ्कार माना जाना चाहिए। इस प्रकार सादृश्यमूलक स्मृति या स्मरण अलङ्कार के तीन रूप हो सकते है-(१) सदृश के अनुभव से सदृश की स्मृति, (२) सदृश के अनुभव से अन्य की स्मृति होने पर उससे किसी प्रकार सम्बद्ध की स्मृति तथा (३) किसी वस्तु के ज्ञान से उसके सम्बन्धी की स्मृति और पुनः स्मर्यमाण के सदृश की स्मृति । मयूरपिच्छ को देखकर सादृश्य से प्रिया के रतिविगलित केश-पाश की स्मृति प्रथम का तथा सादृश्य से केश-पाश की स्मृति होने पर उससे सम्बद्ध रंगरभस की स्मृति द्वितीय का उदाहरण होगी। चातक को देख कर उसके सम्बन्धी सजल मेध की स्मृति तथा उसके सादृश्य से कृष्ण की स्मृति तृतीय का उदाहरण है।
स्मरण अलङ्कार में विचारणीय है कि अनुभूत होने वाली वस्तु तथा उसके कारण स्मरण होने वाली वस्तु में कौन उपमेय होती है और कौन उपमान ? रुय्यक ने दो उदाहरण देकर यह दिखाया है कि एक में अनुभूयमान उपमेय है और दूसरे में अनुभूयमान उपमान । अलङ्कार के क्षेत्र में उपमान और उपमेय के बीच विभाजक रेखा नहीं है । एक स्थिति में जो उपमेय रहता है वह दूसरी स्थिति में उपमान बन जाता है । अतः, रुय्यक की यह मान्यता उचित ही है कि अनुभूयमान से स्मर्यमाण का सादृश्यविधान भी हो सकता है और स्मर्यमाण से अनुभूयमान का सादृश्यविधान भी।