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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
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अलङ्कार मानेंगे। रुय्यक मम्मट आदि ने स्मरण का एक ही रूप माना थाकिसी वस्तु के अनुभव से उसके सदृश वस्तु की स्मृति–पर, जगन्नाथ ने किसी वस्तु के अनुभव से उसके सदृश अन्य की स्मृति और पुनः उस स्मृत वस्तु से किसी दूसरी वस्तु की स्मृति को भी स्मरण का दूसरा रूप माना। उन्होंने स्मृति को परिभाषित करते हुए कहा है कि 'सादृश्य के बोध से उबुद्ध संस्कार के फलस्वरूप होने वाले स्मरण को स्मरणालङ्कार कहते हैं।'
इस प्रकार जगन्नाथ के मतानुसार स्मृति या स्मरण के रूप होंगे—(क) अनुभूयमान अर्थ से उसके सदृश पूर्वानुभूत वस्तु की स्मृति, (ख) स्मर्यमाण अर्थ से उसके सदृश अनुभूत वस्तु की स्मृति और (ग) अनुभूयमान के सदृश की स्मृति से उससे किसी प्रकार सम्बद्ध अन्य वस्तु की स्मृति । निष्कर्षतः, जगन्नाथ केवल अनुभूयमान के सदृश की स्मृति को ही स्मरण नहीं मानते, सादृश्य द्वारा उबुद्ध संस्कार के फलस्वरूप होने वाली स्मृति को वे व्यापक रूप में स्मरण मानते हैं। सादृश्य अनुभूयमान तथा स्मरण होने वाली वस्तु के बीच भी रह सकता है और स्मर्यमाण तथा उससे स्मरण होने वाली वस्तु के बीच भी। सादृश्य साक्षात् हो या परम्परया, दोनों में जगन्नाथ स्मरण मानते हैं । कुछ लोग जगन्नाथ के एक उदाहरण में, जिसमें सेना को देखकर कृष्ण के मन में सादृश्य से समुद्र की स्मृति हो आती है और समुद्र के सम्बन्ध से शेषशय्या
और निद्रा की, अलङ्कारत्व नहीं मानते, क्योंकि वे इसे (निद्रा की स्मृति को) 'सदृश के ज्ञान से उबुद्ध संस्कार द्वारा उत्पन्न या सेना के सदृश विषय की स्मृति नहीं मानते।' किन्तु, तथ्य यह है कि सेना से समुद्र का स्मरण सदृश का ही ज्ञान है और उससे सम्बद्ध शय्या, निद्रा आदि का ज्ञान 'सदृश की स्मृति से उबुद्ध संस्कार से ही उत्पन्न है ।' अतः परम्परया वह भी सादृश्यानुभव पर ही अवलम्बित है और ऐसी स्थिति में अलङ्कारत्व न मानने का कोई सबल आधार नहीं । अनुभूयमान से स्मर्यमाण के सादृश्य-विधान में जो चमत्कार है वही स्मरण का अलङ्कारत्व है। स्मर्यमाण एवं अन्य स्मर्यमाण के बीच सादृश्य-विधान में चमत्कार को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। अतः, स्मृति के इस रूप को भी अलङ्कार मानना उचित ही है । जगन्नाथ ने रुय्यक के स्मरणालङ्कार-लक्षण में स्मर्यमाण से उबुद्ध स्मृति का सङग्रह न
१. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ३४२-४३ तथा उस पर नागेश
की टिप्पणी।