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अलङ्कारों का स्वरूप- विकास
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स्मरण के भेद :
अप्यय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि ने इस सादृश्यमूलक अलङ्कार का त्रिविध भेद किया है । यह भेद-निरूपण साधारण धर्म के अनुगामितया निर्देश ( जैसा उपमा आदि में होता है), बिम्बप्रतिबिम्बभाव से ( दृष्टान्त आदि की तरह ) निर्देश एवं वस्तुप्रतिवस्तु भाव से ( प्रतिवस्तूपमा आदि की तरह ) निर्देश के आधार पर है । वैधर्म्यं से स्मृति भी स्मरण का एक भेद माना गया है ।
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भ्रान्तिमान्
भ्रान्तिया भ्रान्तिमान् के अलङ्कार रूप में कल्पित होने के पूर्व दर्शन के ज्ञान-शास्त्र में उसके स्वरूप का निर्धारण हो चुका था । भ्रान्ति किसी वस्तु में उससे भिन्न वस्तु का निश्चयात्मक ज्ञान है । यह ज्ञान अतात्त्विक होने पर भी निश्चयात्मक होता है। जब तक किसी वस्तु में अन्य वस्तु की भ्रान्ति रहती है, तब तक उस यथार्थ वस्तु का आभास भी ज्ञाता के मन में नहीं रहता । भ्रम की दशा में यथार्थ ज्ञान की तरह ही असत्य वस्तु का एककोटिक ज्ञान रहता है ।
सादृश्य भ्रान्ति का हेतु होता है । किसी वस्तु में उसके सदृश अन्य वस्तु का ही भ्रमात्मक ज्ञान होता है । शोक, भय, काम, उन्माद आदि से भी भ्रान्ति उत्पन्न होती है; पर ऐसी भ्रान्ति को अलङ्कार नहीं माना गया है । भ्रान्ति की प्रक्रिया विचारणीय है । मन में पूर्वानुभूत असंख्य वस्तुओं का संस्कार पड़ा रहता है । किसी वस्तु के अनुभव से सामान्यतः उसी वस्तु का पूर्वानुभूतिजन्य संस्कार जाग्रत हो जाता है । इस प्रकार प्रत्यभिज्ञा सम्भव होती है; किन्तु कभी - कभी किसी वस्तु का अनुभव उसी वस्तु का संस्कार न जगाकर उसके सदृश अन्य वस्तु का संस्कार जगा देता है । परिणामतः, उस अनुभूयमान वस्तु के सदृश किसी अन्य वस्तु का मानस- प्रत्यक्ष होने लगता है । यही भ्रम कहलाता है । रास्ते पर पड़ी हुई रस्सी यदि रस्सी का संस्कार मन में जगाती हो, तो उसकी प्रत्यभिज्ञा होगी; पर यदि उससे उसके सदृश साँप का मन में सोया हुआ संस्कार जग पड़े, तो उसमें अन्य वस्तु की भ्रान्ति होगी । किसी वस्तु में जिस अन्य वस्तु की भ्रान्ति होती है उसकी पूर्वानुभूति आवश्यक है । पूर्वानुभूति-जन्य संस्कार के उद्बोध के अभाव में
१. द्रष्टव्य, जगन्नाथ, रसगङ्गा० पृ० ३५३-५४
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