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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उसका अनुभव-रूप ज्ञान-उत्पन्न हो ( अर्थात् वह वर्णित वस्तु अन्य वस्तु की स्मृति या अनुभव का हेतु हो), वहाँ काव्यलिङ्ग अलङ्कार होता है। यह काव्यलिङ्ग दर्शन में निरूपित व्याप्ति आदि पर अवलम्बित लिङ्ग से विलक्षण होता है। ध्यातव्य है कि उद्भट रस, भाव आदि के अनुभव में रसवत्, प्रेय आदि अलङ्कार मानते थे। इसलिए अन्य वस्तु के अनुभव से उद्भट का तात्पर्य यह रस, भाव आदि के अनुभव का नहीं माना जाना चाहिए। रस भावादि को छोड़ (जो रसवदादि का विषय है) अन्य वस्तु के अनुभव का हेतु बनने पर ही उद्भट काव्यलिङ्ग मानेंगे । ___ मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि आचार्यों ने काव्यलिङ्ग के लक्षण में सामान्य रूप से यह धारणा प्रकट की है कि जहाँ हेतु का (किसी अर्थ के कारण का) सम्पूर्ण वाक्यार्थ से अथवा पद के अर्थ से बोध कराया जाय, वहाँ काव्यलिङ्ग अलङ्कार होता है । ' तात्पर्य यह कि विशेष अर्थ के प्रति जहाँ वाक्य का अर्थ अथवा पद का अर्थ हेतु बनता हो, वहाँ मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि के अनुसार काव्यलिङ्ग अलङ्कार होगा। मम्मट ने सम्भवतः वाक्यार्थों या पदार्थों के कार्य-कारण सम्बन्ध में काव्यलिङ्ग अलङ्कार मानने के कारण ही अर्थान्तरन्यास अलङ्कार का केवल सामान्य-विशेष-भेद ही स्वीकार किया है। रुय्यक ने अर्थान्तरन्यास में कार्य-कारण के समर्थ्य-समर्थक रूप को भी स्वीकार किया और उससे काव्यलिङ्ग के स्वरूप को पृथक् करने के लिए उन्होंने यह युक्ति दी कि काव्यलिङ्ग में वाक्यार्थ-रीति से निबध्यमान अर्थ का हेतु-रूप में उपन्यास होता है, उपनिबद्ध अर्थ को हेतु नहीं बनाया जाता; पर अर्थान्तरन्यास में उपनिबद्ध अर्थ का हेतु रूप में उपन्यास होता है ।२ अभिप्राय यह कि रुय्यक के मतानुसार काव्यलिङ्ग में हेतु का उपन्यास हेतु रूप में ही वाक्यार्थ में होता है । रुय्यक के टीकाकार जयरथ की मान्यता है कि जहाँ दो अर्थों में कार्यकारणसम्बन्ध हो, वहाँ काव्यलिङ्ग ही माना जाना चाहिए, अर्थान्तरन्यास नहीं।
१. काव्यलिङ्ग हेतोर्वाक्यपदार्थता । -मम्मट, काव्यप्रकाश १०,१७४
हेतोर्वाक्यपदार्थत्वे काव्यलिङ्गम् । -रुय्यक, अलङ्कारसूत्र ५७ तथा हेतोर्वाक्यपदार्थत्वे काव्यलिङ्ग निगद्यते ।
-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०, ८१ २. द्रष्टव्य-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १७६-७७ ३. द्रष्टव्य-अलङ्कार सूत्र पर विमशिनी, पृ० १३६