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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
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श्री विद्या चक्रवर्ती ने यह मत प्रकट किया है कि काव्यलिङ्ग में कार्य-कारण का समर्थन शब्दतः होता है, जबकि अर्थान्तरन्यास में अर्थतः । यही दोनों का भेद है।' अस्तु ! अर्थान्तरन्यास में भी कारण-कार्य-भाव का उपन्यास स्वीकार्य रहा है और उससे स्वतन्त्र काव्यलिङ्ग में वाक्यार्थ या पदार्थ का अन्य अर्थ के हेतु रूप में उपन्यास भी स्वीकृत हुआ है। मम्मट के अनुसार हेतु और काव्यलिङ्ग अभिन्न है। वस्तुतः हेतु तथा काव्यलिङ्ग की पृथक्-. पृथक् कल्पना आवश्यक नहीं। दोनों में अर्थ के हेतु का उल्लेख ही अपेक्षित माना गया है।
अप्पय्य दीक्षित ने सामान्य-विशेष-भाव में अर्थान्तरन्यास मानकर काव्यलिङ्ग का क्षेत्र समग्रतः कार्य-कारण भाव से समर्थन तक विस्तृत कर दिया। स्पष्टतः, वे मम्मट की काव्यलिङ्ग-धारणा से सहमत हैं। उनके अनुसार वाक्यार्थ को या पदार्थ को हेतु बना कर समर्थनीय अर्थ का समर्थन काव्यलिङ्ग का लक्षण है । जगन्नाथ ने प्रकृतार्थ के उपपादक-रूप में सामान्य-- विशेषभाव को छोड़ शेष अर्थ का निबन्धन काव्यलिङ्ग का लक्षण मानकर मम्मट आदि के मत का ही समर्थन किया है।४ निष्कर्षतः, मान्य आचार्यों के द्वारा स्वीकृत काव्यलिङ्ग-लक्षण है :-सम्पूर्ण वाक्यार्थ को अथवा पदार्थ को हेतु बनाकर किसी अर्थ का उपपादन अर्थात् किसी अर्थ के प्रति सम्पूर्ण वाक्यार्थ या पदार्थ का हेतु-रूप में उपन्यास काव्यलिङ्ग अलङ्कार है। प्रमाणालङ्कार
अनुमान अलङ्कार के स्वरूप का विकास-क्रम हम देख चुके हैं। उस सन्दर्भ में हम इस तथ्य पर भी विचार कर चुके है कि प्रमा के साधक तत्त्वों का जिस रूप में प्रतिपादन दर्शन-शास्त्र में हुआ था, उसी रूप में उसकी अवतारणा
१. अर्थान्तरन्यासे हि अर्थात् प्रकृतसमर्थनम् । इह (काव्यलिङ्ग) तु शब्दत __इति विभागः ।-संजीवनी पृ० १६६ २. द्रष्टव्य-मम्मट, काव्यप्रकाश, पृ० २६६ ३. समर्थनीयस्यार्थस्य काव्यलिङ्ग समर्थनम् ।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द १२१ ४. अनुमितिकरणत्वेन सामान्यविशेषभावाभ्यां चानालिङ्गितः प्रकृतार्थोप-- पादकत्वेन विवक्षितोऽर्थः काव्यलिङ्गम् ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७३६.