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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
काव्यालङ्कार के क्षेत्र में भी की गयी । दर्शन के विभिन्न सम्प्रदायों में प्रमाण की संख्या के सम्बन्ध में अलग-अलग मान्यताएँ रही हैं । उन मान्यताओं में छह प्रमाण ( प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द या आप्तवचन, अर्थापत्ति तथा अभाव ) की मान्यता अधिक लोकप्रिय हुई और उसी के आधार पर काव्य के छह प्रमाणालङ्कारों की कल्पना हुई । शास्त्रीय प्रमाण से काव्य के प्रमाण या प्रमाणालङ्कार का व्यावर्तक है— काव्योक्तिमात्र में अनिवार्यतः रहने वाला सौन्दर्य-तत्त्व । दूसरे शब्दों में, शुष्क तर्क पर अवलम्बित तत्तत् प्रमाण जब * काव्य की उक्तियों में रमणीय रूप में अवतरित होते हैं तो अपने-अपने स्वीकृत नाम से ही काव्य के अलङ्कार के रूप में परिगणित होने लगते हैं ।
छह प्रमाणों में से अनुमान का अलङ्कार के रूप में विशिष्ट स्थान रहा है । उसका अलङ्कारत्व रुद्रट तथा उनके परवर्ती प्रायः सभी समर्थ समीक्षकों के द्वारा स्वीकृत हुआ, जबकि प्रत्यक्ष, उपमान आदि को अलङ्कार के रूप में भोज, अप्पय्य दीक्षित जैसे कुछ आचार्यों ने ही स्वीकार किया है । कारण स्पष्ट है । अनुमान की प्रक्रिया की काव्यात्मक अभिव्यञ्जना में प्रत्यक्ष आदि प्रमाण के उल्लेख की अपेक्षा अधिक चारुता रहती है । उपमान को विशिष्ट अलङ्कार नहीं मानने पर भी आचार्यों ने सादृश्य-निरूपण के सन्दर्भ में उपमान का महत्त्व स्वीकार किया ही है । अस्तु !
भोज ने छह प्रमाणों को अलङ्कार के रूप में स्वीकार कर उनका सभेद विवेचन किया है । प्रमाणों का कोई विशिष्ट लक्षण न देकर भोज ने दर्शन के तत्तत् प्रमाण- लक्षण को ही स्वीकार किया है ।' अप्पय्य दीक्षित ने भोज के द्वारा निरूपित छह प्रमाणालङ्कारों का निरूपण तो किया ही, आप्तवचन के अतिरिक्त श्रुति, स्मृति आदि प्रमाणालङ्कारों की भी स्वतःत्र सत्ता की कल्पना उन्होंने कर ली । २ श्रुति, स्मृति आदि को आप्तवचन प्रमाण या शब्दप्रमाण से स्वतन्त्र मान लेने पर आप्तवचन बच ही क्या रहता है ? श्रुति, स्मृति आदि को स्वतन्त्र अलङ्कार मानने में कोई युक्ति नहीं है । इन अलङ्कारों की कल्पना अलङ्कारों की संख्या बढ़ाने के मोह मात्र को सूचित करती है । कवि जहाँ किसी उक्ति की पुष्टि के लिए श्र ुति, स्मृति आदि की उक्ति का सहारा लेता है, वहाँ अलङ्कार - विशेष की सत्ता मानने में ही दो मत हो सकते हैं;
१. द्रष्टव्य – भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, पृ० ३२५-३ε
२. द्रष्टव्य - अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, पृ० १८७-६०