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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[६३६ शब्द प्रमाण के विभिन्न भेदों को अलग-अलग अलङ्कार के रूप में गिनने की व्यर्थता तो अनुभवसिद्ध ही है।
निष्कर्ष यह कि छह प्रमाण को काव्य के अलङ्कार मानने में आचार्यों में मतैक्य नहीं है। भोज, अप्पय्य दीक्षित आदि जिन आचार्यों ने प्रमाणों को अलङ्कार माना है, उन्होंने दर्शन की तत्तत् प्रमाण-विषयक धारणा को ही स्वीकार किया है। अतः उनके स्वरूप में एकरूपता ही रही है । अनुमान को अलङ्कार के रूप में विशेष महत्त्व मिला है। अतः उसके विकास-क्रम का अध्ययन हमने पृथक् किया है। दर्शन में प्रतिपादित तथा अलङ्कारशास्त्र में कुछ आचार्यों के द्वारा अलङ्कार के रूप में स्वीकृत प्रत्यक्ष, उपमान, आप्तवचन अर्थापत्ति तथा अभाव के स्वरूप से भारतीय पाठकों का इतना घना परिचय है कि उनके स्वरूप की परिभाषा प्रस्तुत करना अनावश्यक जान पड़ता है। विकस्वर
विकस्वर का स्वरूप सामान्यविशेष-भाव की एक विशेष स्थिति के आधार पर कल्पित है। जयदेव के पूर्व विकस्वर अलवार के अस्तित्व की कल्पना नहीं की गयी थी। अर्थान्तरन्यास अलङ्कार में सामान्यविशेष-सम्बन्ध का प्रतिपादन हुआ था। जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने सामान्य कथन के समर्थन के लिए विशेष का तथा विशेष के समर्थन के लिए सामान्य का उपन्यास अर्थान्तरन्यास का स्वरूप माना और सामान्यविशेष-भाव की एक विशेष स्थिति की कल्पना करते हुए कहा कि जहाँ बिशेष अर्थ को प्रस्तुत कर उसके समर्थन के लिए सामान्य अर्थ का उपन्यास किया जाय और पुनः उस उपन्यस्त सामान्य के के समर्थन के लिए किसी विशेष अर्थ का उपन्यास किया जाय, वहाँ विकस्वर अलङ्कार होता है।' पण्डितराज जगन्नाथ ने विकस्वर को स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं माना है। विशेष का सामान्य से समर्थन दिखाकर अप्पय्य दीक्षित ने एकत्र उपमा-रीति से तथा अपरत्र अर्थान्तरन्यास-रीति से उस समर्थक सामान्य का पुनः विशेष से समर्थन विकस्वर के उदाहरणों में दिखाया था। पण्डितराज का मत है कि विशेष-सामान्य-भाव तो अर्थान्तरन्यास ही है और पुनः यदि 'उपमा आदि की रीति से समर्थक विशेष का प्रस्तुतीकरण होता है तो वहाँ अलङ्कारान्तर के साथ अर्थान्तरन्यास की संसृष्टि ही मानी मानी जानी चाहिए, १. यस्मिन्विशेषसामान्यविशेषाः स विकस्वरः ।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १२४