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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
कण्ठ-ध्वनि के भेद से भिन्न भिन्न अर्थ का बोधक हो जाता है । उदाहरणार्थ'मैं नहीं जाऊँगा' यह वाक्य एक प्रकार की कण्ठ-ध्वनि से कथित होने पर निषेधार्थक होता है; पर भिन्न कण्ठध्वनि से कहने पर 'मैं नहीं जाऊँगा ?" का अर्थ होता है कि 'मैं अवश्य जाऊंगा' । काकु वक्रोक्ति में श्रोता काकु के. सहारे वक्ता के भिन्नार्थक शब्द का भिन्न अर्थ लगाकर उसका वक्रता पूर्ण उत्तर देता है ।
खलेकपोत न्याय - खलिहान में कबूतरों के एकसाथ उतरने का न्याय । कबूतरों का झुण्ड एक स्थान में एक ही साथ उतरता है । इसी प्रकार समुच्चय अलङ्कार में अनेक अर्थों का एक साथ एकत्र सद्भाव दिखाया जाता है ।
गृहीतमुक्त रीति- पूर्व- पूर्व स्थित वस्तु के प्रति क्रम से प्रत्येक परवर्ती वस्तु को विशेषण के रूप में प्रस्तुत किया जाना गृहीतमुक्त रीति कहलाता है । एकावली अलङ्कार में अर्थ की श्रेणी गृहीतमुक्तरीति से ही प्रस्तुत की जाती है ।
जनुकाष्ठ न्याय— लकड़ी में चिपकी हुई लाह की रीति । जिस प्रकार लकड़ी में लाह सटी रहती है । उसी प्रकार सभङ्ग श्लेष में शब्द में अनेक अर्थ संसक्त रहते हैं ।
तिलतण्डुल न्याय - तिल और चावल के मिले रहने का दृन्त । और चावल को एक साथ मिला देने पर भी दोनों का भेद स्पष्टतः परिलक्षित रहता है । उसी प्रकार अलङ्कार-संसृष्टि में अनेक अलङ्कार इस रूप में एकत्र रहते हैं कि उनका पारस्परिक भेद स्पष्ट रूप से परिलक्षित रहता है । उनमें परस्पर अङ्गाङ्गिभाव सम्बन्ध नहीं रहता वे एक-दूसरे से स्वतन्त्र रहते हैं ।
दण्डापूप न्याय - डंडे में लगे पूए का न्याय । किसी ने डंडे में पूआ लटका कर रखा। चूहा वह डंडा ले गया । डंडे के साथ स्वभावतः ही उसमें लटकाया पूआ भी चला गया । दण्ड के ले जाने से पूआ का ले जाना स्वतः सिद्ध हुआ । इसी प्रकार अर्थापत्ति अलङ्कार में एक के कथन से दूसरे अर्थ का स्वतः सिद्ध होना दिखाया जाता है ।
देहलीदीप न्याय - देहली पर रखे हुए दीपक का दृष्टान्त । जिस प्रकार घर की देहली पर रखा हुआ दीपक बाहर और भीतर, दोनों ओर प्रकाश डालता है, उसी प्रकार देहली दीपक अलङ्कार में विशेष शब्द अनेक शब्दों को दीपित करता है । उस न्याय के आधार पर ही देहली दीपक अलङ्कार की कल्पना की गयी है ।