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पारिभाषिक शब्दावली : व्याख्या [८२१ अपृथग्यत्ननिर्वय् अलङ्कार-जिस अलङ्कार की योजना में कवि को अतिरिक्त श्रम नहीं करना पड़े, उसे अपृथग्यत्ननिर्वत्य कहते हैं। कवि की अनुभूति की अभिव्यक्ति के क्रम में कुछ अलङ्कार अनायास ही आ जाते हैं । ऐसे अपृथग्यत्ननिर्वत्य अलङ्कारों को आनन्दवर्धन ने ध्वनि का अन्तरङ्ग तत्त्व स्वीकार किया है। __ आभास-वस्तु की तात्त्विक स्थिति के न रहने पर भी उसकी प्रतीति आभास कहलाती है। विरोधाभास आदि अलङ्कारों में तात्त्विक अविरोध में विरोध के आभास पर विचार किया गया है।
आरोप्यमाण-वह उपमानभूत वस्तु, जिसका उपमेय पर आरोप किया जाता है।
उत्कटेककोटिक संशय-सम्भावना को 'उत्कटककोटिक संशय' माना गया है । शुद्ध संशय में यथार्थ ज्ञान तथा अयथाथ ज्ञान की दो कोटियां होती हैं और दोनों कोटियाँ समान बलशाली होती हैं, पर सम्भावना में जहाँ एक वस्तु पर अन्य वस्तु की सम्भावना की जाती है, वहाँ उस प्रस्तुत के ज्ञान की एक कोटि रहती है और सम्भावित वस्तु के ज्ञान की दूसरी कोटि, जिनमें से सम्भावित ज्ञान की कोटि प्रबल रहती है। द्वकोटिक ज्ञान की दृष्टि से सम्भावना की संशय से समता है; पर एक कोटि की उत्कटता की दृष्टि से वह उससे भिन्न है।
एकवृन्तगतफलद्वय न्याय-वृक्ष के एक वृन्त पर परस्पर सटे रहने वाले दो फलों का दृष्टान्त । एक वृन्त पर एक दूसरे से सटे रहने वाले फलों की तरह अभङ्ग श्लेष में एक प्रयत्नोच्चार्य शब्द में एकाधिक अर्थ संलग्न रहते हैं।
काकतालीय न्याय-आकस्मिक रूप से किसी घटना के घटित होने का न्याय । कौआ आकर बैठा और उसी समय ताल का फल गिर पड़ा। कोए के आने और ताल-फल के गिरने में केवल आकस्मिक सम्बन्ध है। उसी प्रकार आकस्मिक रूप से एक घटना के साथ किसी दूसरी घटना के घटित होने में काकतालीय अर्थात् आकस्मिक-सम्बन्ध माना जाता है। समाधि अलङ्कार में एक के किसी कार्य में प्रवृत्त होने पर काकतालीय न्याय से अन्य कार्य-साधन का उपस्थित हो जाना वर्णित होता है।
काकु-कण्ठ-ध्वनि का भेद 'काकु' कहलाता है। एक ही वाक्य काकु या