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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ १३५ (ख) औपम्य वर्ग-मत, उत्तर, प्रतीप, उभयन्यास, भ्रान्तिमान्, प्रत्यनीक, पूर्व, समुच्चय, साम्य तथा स्मरण । (ग) अतिशय वर्ग-पूर्व, विशेष, तद्गुण, अधिक, विषम, असङ्गति, पिहित, व्याघात और अहेतु । __ तीनों वर्गों के उक्त तैंतीस अलङ्कारों के व्यपदेश सर्वथा नवीन हैं । रुद्रट ने शब्दालङ्कारों में वक्रोक्ति तथा चित्र—इन दो नवीन अलङ्कारों का उल्लेख किया है। वक्रोक्ति नामक अलङ्कार वामन के 'काव्यालङ्कार सूत्र' में भी उल्लिखित है; किन्तु वहाँ वक्रोक्ति की कल्पना अर्थालङ्कार के रूप में की गयी है। शब्दालङ्कार के रूप में वक्रोक्ति की कल्पना सर्वप्रथम रुद्रट ने ही की। श्लेष को शब्दालङ्कार एवं अर्थालङ्कार दोनों मान कर एक ही नाम के दो अलङ्कारों की कल्पना की गयी है। ____ आचार्य भरत से लेकर रुद्रट के पूर्ववर्ती उद्भट तथा वामन तक की रचनाओं में किञ्चित् मतभिन्न्य के साथ जिन एकावन शब्दार्थगत अलङ्कारों के स्वरूप का विवेचन हो चुका था उनमें से निम्नलिखित अलङ्कारों का उल्लेख रुद्रट के काव्यालङ्कार में नहीं हुआ है : शब्दालङ्कार :-छेकानुप्रास तथा लाटानुप्रास । अर्थालङ्कार :-अनन्वय, अतिशयोक्ति, आवृत्ति, आशीः, उत्प्रेक्षावयव, उदात्त, उपमारूपक, उपमेयोपमा, ऊर्जस्वी, काव्यलिङ्ग, तुल्ययोगिता, निदर्शना, पर्यायोक्त, पुनरुक्तवदाभास, प्रतिवस्तूपमा, प्रय, भाविक, रसवत्, विशेषोक्ति, व्याजस्तुति, संसृष्टि, समाहित, व्याजोक्ति तथा अर्थगत वक्रोक्ति । छेकानुप्रास तथा लाटानुप्रास की अनुप्रास से पृथक् सत्ता अनावश्यक समझ कर रुद्रट ने उनकी गणना नहीं की होगी। 'काव्यालङ्कार' में अतिशय मूलक अलङ्कारों के एक वर्ग की ही कल्पना कर ली गयी है; पर अतिशयोक्ति का विशेष अलङ्कार के रूप में पृथक् निर्देश नहीं किया गया है। उत्प्रेक्षावयव तथा उपमारूपक की पृथक् सत्ता स्वीकार करने का सबल आधार नहीं था। अतः उन्हें अस्वीकार कर दिया गया है। रुद्रट को रसवत् अलङ्कार की कल्पना कर उसमें रस जैसे काव्य के महत्त्वपूर्ण तत्त्व को सीमित कर देना युक्तिसङ्गत नहीं जान पड़ा होगा। भामह, दण्डी, उद्भट आदि काव्य में रस का उचित मूल्याङ्कन नहीं कर पाये थे। इसीलिए उन्होंने रसमय वाणी को रसवदलङ्कार युक्त माना था। रुद्रट की स्थिति उनसे भिन्न है। अलङ्कार सम्प्रदाय के उन्नायक होने पर भी रुद्रट ने रस को उपेक्षणीय नहीं माना
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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