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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ १०३ ने शब्द या पद की आवृत्ति की विभिन्न अवस्थाओं के आधार पर लाटानुप्रास के पाँच भेदों की कल्पना की है। प्रेय ... प्रेय अलङ्कार का नाम नवीन नहीं है किन्तु 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' में विवेचित उसका स्वरूप नवीन है। उद्भट के पूर्ववर्ती आचार्य प्रिय कथन में प्रेय अलङ्कार मानते थे।' उद्भट ने उसका सम्बन्ध स्थायी भाव, व्यभिचारी भाव, सात्त्विक भाव तथा अनुभाव आदि से जोड़ दिया। इस प्रकार उनके अनुसार जिस काव्य में अनुभावों के माध्यम से रति आदि भावों की सूचना मिलती हो उसमें प्रेय का सद्भाव माना जायगा।२ अनुभाव से रति आदि भावों के सूचन की धारणा नवीन नहीं। आचार्य भरत ने 'नाट्यशास्त्र' में रस-बोध की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए अनुभाव, स्थायीभाव, व्यभिचारीभाव आदि का सविस्तर विवेचन किया है। अनुभाव हृद्गत रति आदि भाव के सूचक स्वीकार किये गये हैं। विभाव, अनुभाव तथा सञ्चारी भाव से पुष्ट होने पर स्थायी भाव रस के रूप में परिणत होते हैं । 3 जहाँ कुछ कारणों से रस में भाव की परिणति सम्भव नहीं होती उसे रसमय काव्य नहीं कह कर भाव-प्रधान काव्य ही कहते हैं। उदाहरणार्थ-श्रेष्ठ व्यक्तियों की रति के वर्णन के समय आश्रय एवं आलम्बन के प्रति भावक के चित्त का पूज्य-भाव उसके रसात्मक परिणाम में बाधक हो जाता है। फलतः पूज्य व्यक्ति के प्रति अन्तर का रति-भाव ( भक्ति-भाव ) रस-दशा तक नहीं पहुँच कर भाव-दशा में ही रह जाता है। उद्भट ने ऐसे भाव-युक्त काव्य को ही प्रेयस्वत् माना है। पुष्ट रति आदि की रस-दशा पर उद्भट ने रसवत् अलङ्कार में विचार किया है। रसवत् से प्रेयस्वत् का भेद स्पष्ट करने के लिए विवृतिकार ने रति शब्द से देवता, गुरु तथा राजा आदि पूज्य व्यक्तियों - १. द्रष्टव्य-भामह, काव्यालं० ३, ५ तथा दण्डी, काव्याद० २, २७५ । ...... २. रत्यादिकानां भावानामनुभावादिसूचनैः। यत्काव्यं बध्यते सद्भिस्तत्प्रेयस्वदुदाहृतम् । -उद्भट, काव्यालं. सार सं० ४, २ ३. विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः । .... . -भरत, ना० शा०, ६, पृ० २७२
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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