SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 527
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५०४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण रुय्यक ने उसे अर्थान्तरन्यास मानकर अर्थ का हेतु रूप में उपन्यास काव्यलिङ्ग का लक्षण माना । परवर्ती आचार्यों में विश्वनाथ ने रुय्यक की तरह कार्य कारण तथा सामान्य-विशेष के साधर्म्य और वैधर्म्य से समर्थ्य - समर्थक होने में अर्थान्तरन्यास माना है । शोभाकर ने अर्थान्तरन्यास के क्षेत्र को और भी सीमित कर केवल सामान्य से विशेष के समर्थन को उसका विषय माना है । २ विशेष से सामान्य के विशदीकरण में वे उदाहरण अलङ्कार मानते हैं और कार्य-कारण-भाव को हेतु अलङ्कार का विषय मानते हैं । अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि ने मम्मट की तरह केवल सामान्य विशेष में अर्थान्तरन्यास की सत्ता मानी है । 3 अर्थान्तरन्यास के लक्षणों की परीक्षा से प्राप्त निष्कर्ष निम्नलिखित हैं(क) इसमें दो अर्थों में सामान्य विशेष या कार्य-कारण-सम्बन्ध रहता है । (ख) यह सम्बन्ध समर्थ्य - समर्थक भाव में पर्यवसित होता है । (ग) इसमें प्रकृत का समर्थन होता है और अप्रकृत समर्थक होता है । (घ) समर्थन साधर्म्य और वैधर्म्य; दोनों से हो सकता है । (ङ) साधारणत: इसमें समर्थ्य वाक्य पहले और समर्थक पीछे आता है; पर यह नियम नहीं । समर्थक पहले और समर्थ्य पीछे भी रखा जा सकता है । अर्थान्तरन्यास-भेद दण्डी ने अर्थान्तरन्यास के आठ भेद - विश्वव्यापी, विशेषस्य, श्लेषाबिद्ध, विरोधवान्, अयुक्तकारी, युक्तात्मा, युक्तायुक्त और विपर्यय - किये थे । ४ ये भेद परवर्ती काम में स्वीकृत नहीं हुए । रुय्यक ने सामान्य- विशेष तथा कार्यकारण के पारस्परिक समर्थन के आधार पर चार भेद कर साधर्म्य तथा वैधर्म्य से समर्थन किये जाने के आधार पर चारो के दो-दो भेद माने हैं । १. द्रष्टव्य, विश्वनाथ, साहित्यद० १०,८० २. द्रष्टव्य, शोभाकर, अलङ्कार रत्नाकर, सूत्र ७६ ३. द्रष्टव्य, अप्पय्य दी०, कुवलया० १२२ तथा जगन्नाथ, रसगङ्गाधर पृ० ७४६ ४. विश्वव्यापी विशेषस्थः श्लेषाबिद्धो विरोधवान् । अयुक्तकारी युक्तात्मा युक्तायुक्तो विपर्ययः । - दण्डी, काव्यादर्श २,१७०
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy