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________________ अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ५०३ के पौर्वापर्य क्रम को सर्वथा उपेक्षणीय माना । दोनों के पौर्वापर्य का व्यतिक्रम भोज के पूर्व भी मान्य हो चुका था । आचार्य मम्मट ने भी अर्थान्तरन्यास - विषयक पूर्व - प्रचलित मान्यता का अनुमोदन करते हुए विशेष या सामान्य का क्रमशः सामान्य या विशेष से साधर्म्य अथवा वैधर्म्य के द्वारा समर्थन इस अलङ्कार का लक्षण माना है । " रुय्यक ने दो अर्थों में सामान्य- विशेष - भाव तथा समर्थ्य - समर्थक-भाव की धारणा पूर्ववर्ती आचार्यों से ली और इसके साथ हो अर्थान्तरन्यास के लक्षण में कार्य-कारण-भाव की धारणा अपनी ओर से जोड़ दी। इस प्रकार उनके मतानुसार सामान्य- विशेष - भाव तथा कार्य-कारण-भाव से पूर्वनिर्दिष्ट प्रकृत का समर्थन अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है । 'अलङ्कार-सूत्र' के टीकाकार जयरथ ने यह आपत्ति की है कि कार्य-कारण-भाव के स्थल में अर्थान्तरन्यास मानने से उसका काव्यलिङ्ग से अभेद हो जायगा; क्योंकि दो अर्थों में कार्य-कारणभाव काव्यलिङ्ग का विषय है । अतः, केवल सामान्य विशेष तक ही अर्थान्तरन्यास का क्षेत्र माना जाना चाहिए । रुय्यक ने कार्य-कारण-भावाश्रित अर्थान्तरन्यास का काव्यलिङ्ग से भेद निरूपित करते हुए कहा कि काव्यलिङ्ग में वाक्यार्थ में हेतु का निबन्धन हेतु रूप में ही होता है, उपनिबद्ध अर्थ हेतु नहीं बनता । उपनिबद्ध अर्थ का हेतु होना अर्थान्तरन्यास का विषय है । श्री विद्याचक्रवर्ती ने कार्य-कारण-भाव में अर्थान्तरन्यास के सद्भाव की मान्यता का समर्थन करते हुए काव्यलिङ्ग से उसका भेद इस आधार पर किया है कि अर्थान्तरन्यास में प्रकृत का समर्थन अर्थतः होता है; पर काव्यलिङ्ग में शब्दतः समर्थन होता है । निष्कर्षतः रुय्यक, विद्याचक्रवर्ती आदि के मतानुसार सामान्य-विशेष के अतिरिक्त कार्य-कारण में भी समर्थ्यसमर्थक सम्बन्ध रहने पर अर्थान्तरन्यास होता है । रुय्यक का कार्य-कारणभावाश्रित अर्थान्तरन्यास उद्भट आदि पूर्ववर्ती आचार्यों के काव्यलिङ्ग से अभिन्न है । उद्भट काव्यलिङ्ग में उपन्यस्त अर्थ की हेतुरूपता मानते थे । १. सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते । यत्तु सोऽर्थान्तरन्यासः साधर्म्येणेतरेण वा । - मम्मट, काव्यप्र ० १०, १६५ २. सामान्य विशेषकार्यकारणभावाभ्यां निर्दिष्टप्रकृतसमर्थनमर्थान्तरन्यासः । - रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, सूत्र सं० ३५
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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