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________________ ५०२] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अर्थान्तरन्यास का लक्षण माना। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि हेतु का न्यास अर्थान्तरन्यास का रूप-विधान नहीं करता। रुद्रट ने अर्थान्तरन्यास को औपम्यमूलक अलङ्कार मानकर उसकी परिभाषा में कहा है कि जहां विशेष या सामान्य धर्मी अर्थ का अभिधान कर उसकी सिद्धि के लिए इतर सधर्मी का न्यास होता है. वहाँ अर्थान्तरन्यास अलङ्कार माना जाता है ।२ औपम्य-गर्भ होने के कारण दोनों अर्थों में उपमानोपमेय-भाव-सम्बन्ध तो रहेगा ही। इस तरह उपमेय के सामान्य या विशेष धर्म का वर्णन कर उसके समर्थन के लिए इतर सधर्मी अर्थात् क्रमशः विशेष या सामान्य धर्म वाले उपमान का न्यास रुद्रट के मतानुसार इस अलङ्कार का लक्षण होगा। उपमेय सामान्य होगा तो उपमान विशेष और उपमेय विशेष होगा तो उपमान सामान्य । उपमानभूत विशेष या सामान्य क्रमशः उपमेयभूत सामान्य या विशेष की सिद्धि साधर्म्य एवं वैधर्म्य-दोनों से कर सकता है। कुन्तक ने दो वाक्यार्थों में पूर्वाचार्यों की तरह समर्थ्य-समर्थक-भाव नहीं कहकर समर्प्य-समर्पक-भाव कहा है। कुन्तक का 'समर्पक' उद्भट के समर्थक का पर्याय ही है। कुन्तक के अनुसार अर्थान्तरन्यास में दो वाक्यार्थों के बीच यह समl-समर्पक-सम्बन्ध मुख्य तथा तात्पर्य के साम्य पर अवलम्बित होता है। इसमें प्रथम अर्थ मुख्य होता है और अन्य अर्थ उसका तात्पर्यार्थ होता है। भोज ने रुद्रट की तरह साधर्म्य तथा वैधh; दोनों से एक अर्थ का अर्थान्तर से समर्थन स्वीकार किया। उन्होंने समर्थ्य और समर्थक वाक्यार्थों १. ""उक्तस्यार्थस्य सिद्ध्यर्थं वस्तुनो वाक्यार्थान्तरस्यैव न्यसनमर्थान्तरन्यासः । वस्तुग्रहणादर्थस्य हेतोय॑सनान्नार्थान्तरन्यासः । -वामन, काव्यालं० सू० वृत्ति पृ० २५९ २. धर्मिणमर्थविशेषं सामान्यं वाभिधाय तत्सिद्ध यै । ___ यत्र समिकमितरं न्यस्येत्सोऽर्थान्तरन्यासः ॥ -रुद्रट, काव्यालं० ८,७६ ३. वाक्यार्थान्तरविन्यासो मुख्यतात्पर्यसाम्यतः । ज्ञेयः सोऽर्थान्तरन्यासो यः समर्पकतयाहितः ।। __-कुन्तक, वक्रोक्तिजी० ३,३६ ४. भोज, सरस्वतीकण्ठा० ४,६७-६८
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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