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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
प्रश्न के उत्तर में कहा है कि यद्यपि अनन्वय में उपमेय और उपमान एक ही वस्तु होती है, पर उसका शब्दतः दो बार उल्लेख होता है। एक ही वस्तु का शब्दतः दो बार उल्लेख हो तो वस्तु के भिन्न-भिन्न होने का आभास मिलता है। तात्त्विक अभिन्नता होने पर भी वस्तु की विभिन्नता की प्रतीति हो जाती है तथा भिन्न प्रतीत होती हुई वस्तु दूसरी वस्तु ( वस्तुतः उसी वस्तु) के सदृश समझ ली जाती है। अतः 'अर्जुन अर्जुन के ही समान थे' यह कहने में अर्जुन का दूसरे शब्द से अभिहित, अतः भिन्न प्रतीत अर्जुन के साथ सादृश्य अन्वित हो जाता है। विद्याचक्रवर्ती ने इस तथ्य को और भी स्पष्ट शब्दों में प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार अनन्वय में उपमेय के लिए प्रयुक्त शब्द का वाच्य अर्थ ग्रहण होता है और उपमान के रूप में प्रयुक्त उसी शब्द का व्यङ ग्य अर्थ ग्रहण होता है। एक अर्थ वाच्य तथा दूसरा व्यङ ग्य होने से परस्पर भिन्न होता है और इस प्रकार दोनों में (तत्त्वतः एक में ही) सादृश्य-निरूपण सम्भव होता है ।२ निष्कर्ष यह कि उपमा और अनन्वय में सादृश्य निरूपण की बहुत कुछ समता होने पर भी दोनों में निम्नलिखित "भेद है
(क) उपमा में भिन्न-भिन्न वस्तुओं में उपमानोपमेय-भाव की कल्पना कर उपमेय का उपमान से सादृश्य-निरूपण होता है ।
अनन्वय में एक ही वस्तु में-वस्तु का दो बार शब्दतः उल्लेख करउपमानोपमेय-भाव की कल्पना कर उस वस्तु का उसी से सादृश्य-निरूपण होता है।
(ख) उपमा में प्रस्तुत वस्तु का अन्य वस्तु से सादृश्य विवक्षित होता है; पर अनन्वय में प्रस्तुत वस्तु का अन्य सादृश्य-व्यवच्छेद दिखाना अभीष्ट होता है। किसी वस्तु को केवल अपने सदृश कहने का तात्पर्यार्थ उसके समान किसी अन्य वस्तु के नहीं होने का होता है। कल्पितोपमा में भी अन्य-सादृश्य
१. एक एवार्थः शब्देन द्विरभिहितो भिन्नवदवभासते। तस्मादर्जुनोऽर्जुन
इवेत्यादौ एकस्यैवार्जुनशब्दस्य शब्द-वाच्याकारपर्यालोचनेन भेदावभासात् पूर्वनिर्दिष्टस्य साधादिरूपस्यानुगमः सम्बन्धो वेदितव्यः ।
—समुद्रबन्ध, पृ० २६ २. पूर्वरूपमुपमेयत्वम् । तदनुगमो वाच्याभिप्रायेण यत् पुनरपूर्वरूपमुपमानत्वं
तदनुगमो व्यङ ग्यभिप्रायेण। -अलङ्कार सूत्र, संजीवनी, पृ० ४३