SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [६९ श्लेषोपमाः–भामह के श्लिष्ट अलङ्कार के आधार पर प्रस्तुत उपमा-भेद की कल्पना की गई है। इसमें उपमेय तथा उपमान का युगपत् अभिधान होता है। भामह ने भी श्लिष्ट में ठीक ऐसी ही धारणा व्यक्त की है। समानोपमाः—प्रस्तुत उपमा-भेद का आधार शब्दगत समता है। समान शब्द से अभिहित होने मात्र से प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत में सादृश्य मान लिया गया है। इसके स्वरूप-निर्धारण में विषय एवं विषयी के बीच धर्म-साम्य पर किञ्चित् मात्र भी ध्यान नहीं रखा गया है। दण्डी के द्वारा प्रदत्त उदाहरण द्रष्टव्य है-"यह साल-वृक्ष के वन से सुशोभित उद्यानमाला केशों से युक्त मुख वाली सुन्दर युवती के समान सुशोभित है।''२ अर्थ पर ध्यान देने से यह उपमा हास्यास्पद जान पड़ती है। कहाँ विशाल साल वृक्षों से युक्त सघन उद्यान और कहाँ एक सुन्दरी बाला ! दोनों में कुछ भी धर्म-साम्य नहीं। दोनों में उपमानोपमेय भाव की कल्पना का एकमात्र आधार है दोनों के लिए समान विशेषण का प्रयोग । उद्यानमाला ‘सालकाननशोभिनी' (साल के कानन से सुशोभित) है तथा बाला भी 'सालकाननशोभिनी' (स+अलक+आनन+शोभिनी अर्थात् अलक युक्त आनन से सुशोभित) है। दण्डी के पूर्ववर्ती आचार्यों ने इस प्रकार की उपमा की कल्पना नहीं की थी। वस्तुतः इसे उपमा का भेद मानना युक्तिसङ्गत भी नहीं है । उपमा में दो वस्तुओं में धर्म का साम्य अवश्य होना चाहिए । अन्यथा उपमा से प्रस्तुत की प्रभाव-वृद्धि नहीं हो सकती और इस प्रकार उस अलङ्कार का उद्देश्य ही विफल हो जाता है। दण्डी ने ऐसे धर्म-निरपेक्ष केवल शब्दगत सारूप्य में भी उपमा की सत्ता मानने के कारण ही उपमा के सामान्य लक्षण में 'यथाकथञ्चित् सादृश्य-प्रतीति' में उपमा का सद्भाव स्वीकार किया है। काव्य में केवल शब्द-चमत्कार को श्रेयस्कर नहीं मानकर उसमें भाव की प्रधानता स्वीकार करने वाला आलोचक समानोपमा को अर्थालङ्कार नहीं मानेगा। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की यह उचित मान्यता है कि "यह दूसरे प्रकार की (आलङ्कारिक) रूप-योजना या व्यापार-योजना किसी और (प्रस्तुत) रूप के प्रभाव को बढ़ाने के लिए ही होती है; अतः इसमें लाये हुए रूप या व्यापार ऐसे ही होने चाहिएँ जो प्रभाव में उन प्रस्तुत रूपों या व्यापार के १. तुलनीय-भामह, काव्यालं० ३, १४ तथा दण्डी, काव्याद० २, २८ २. 'बालेवोद्यानमालेयं सालकाननशोभिनी।'-दण्डी, काव्याद०, २, २६
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy