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२३४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण (ग) स्वीकृत अलङ्कारों के लक्षण पूर्ववर्ती आचार्यों के मतानुसार ही
दिये गये हैं। जहाँ कोई नवीनता दीख पड़ती है वह वाग्भट के स्वतन्त्र चिन्तन का फल नहीं, प्राचीन धारणा की अनुकृति की असफलता का परिणाम है। उनका समासोक्ति-विवेचन इस कथन
का प्रमाण है। (घ) धार्मिक दृष्टि से एक सम्प्रदाय के अनुयायी होने पर भी वाग्भट
ने काव्यशास्त्रीय चिन्तन में हेमचन्द्र की पद्धति का अनुगमन नहीं किया है। वाग्भट ने किसी एक आचार्य को आदर्श नहीं मान कर पूर्ववर्ती सभी आचार्यों की रचनाओं से अलङ्कार-विषयक मान्यता का आहरण किया है। उनके अधिकांश अलङ्कारों के स्वरूप मम्मट तथा रुय्यक के मतानुसार अवश्य कल्पित हैं; पर कई अलङ्कारों के रूप-विधान में उन्होंने भरत, भामह, दण्डी, रुद्रट आदि का सीधा प्रभाव ग्रहण किया है। उदाहरणार्थ-उपमा के अनेकोपमेय-मूला भेद का भरत के आधार पर; हेतु, समाहित तथा तृल्ययोगिता का स्वरूप दण्डी के आधार पर ( तुल्ययोगिता दण्डी की तुल्ययोगिता के आधार पर नहीं, उनकी उपमा के एक भेद 'तुल्ययोगोपमा' के आधार पर) तथा अवसर और समुच्चय का स्वभाव रुद्रट के आधार पर कल्पित है।
शोमाकर मित्र शोभाकर मित्र ने 'अलङ्कार-रत्नाकर' में एक सौ नौ शब्दार्थालङ्कारों के स्वरूप का निरूपण राजानक रुय्यक के अलङ्कार-सूत्र की शैली में किया है। अलङ्कार-सूत्र की शैली को अपनाने पर भी उन्होंने रुय्यक की अलङ्कार-धारणा का अनुसरण नहीं किया है। यही नहीं, अपने पूर्ववर्ती किसी भी आचार्य की अलङ्कार-विषयक मान्यता का अन्धानुसरण नहीं कर शोभाकर ने अक नवीन अलङ्कारों के स्वरूप की कल्पना की है। यह ठीक है कि उनके नवोद्भावित अलङ्कारों में से अधिकांश को भारतीय अलङ्कारशास्त्र में स्वीकृति नहीं मिली, यह भी ठीक है कि उनके नवीन अलङ्कारों में से कई प्राचीन अलङ्कारों के ही नवीन नाम हैं, फिर भी शोभाकर की अलङ्कार-धारणा का अपना महत्त्व है।