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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [२४६ अतिशय तथा शृङ्खला अतिशय तथा शृङ्खला अलङ्कारों का स्वभाव एकावली, कारणमाला तथा मालादीपक आदि से अभिन्न है। प्राचीनों के एकावली, कारणमाला, मालादीपक आदि को अस्वीकार कर शोभाकर ने उक्त दो अलङ्कारों की कल्पना की है। परम्परा का त्याग कर पुरानी बात को ही नवीन रूप में प्रस्तुत करने के पीछे नवीनता का आतङ्क उत्पन्न करने की प्रवृत्ति-मात्र है। शोभाकर के बहुत पूर्व रुद्रट ने एकावली आदि को शृङ्खलामूलक अलङ्कार कहा था। उनके स्थान पर शृङ्खला नामक अलङ्कार-विशेष की कल्पना उचित नहीं। विवेक विवेक शोभाकर की नवीन उद्भावना है। विवेक शोभाकर के परवर्ती जयदेव के उन्मीलित से अभिन्न है । उन्मीलित की कल्पना पर हमने 'चन्द्रालोक' के उन्मीलित के परीक्षण-क्रम में विचार किया है। परभाग परभाग की स्वतन्त्र अलङ्क र के रूप में स्वीकृति उचित नहीं जान पड़ती। इसके लक्षण में कहा गया है कि जहाँ स्वरूप-मात्र से अवगत वस्तु का अन्य वस्तु की प्राप्ति होने पर उससे भेद जान पड़े, वहाँ परभाग अलङ्कार होता है।' स्पष्ट है कि इस भेद-प्रतीत की परिणति वस्तु की अन्य वस्तु से अधिकता या न्यूनता की प्रतीति में होगी। इस प्रकार इस अलङ्कार का चमत्कार व्यतिरेक से ही अनुप्राणित होने में होगा। अतः व्यतिरेक से पृथक् इसकी सता की स्वीकृति आवश्यक नहीं । उद्भद उद्भद पूर्वाचार्यों के पिहित से मिलता-जुलता है, जिसमें छिपी बात का उद्घाटन किया जाता है। गूढ गूढ को प्रहेलिकादिवत् गूढ कहा गया है। 3 अतः इसकी धारणा प्राचीन आचार्यों की प्रहेलिका-धारणा से गृहीत जान पड़ती है। १. अनुभूतस्यार्थान्तरोपलब्धौ परभागः।-शोभाकर, अलं० रत्ना०, १०० २. नगूढस्य प्रतिभेद उद्भदः।-वही, १०१ ३. गूढसाकांक्षोपनिबद्ध गूढम् । इह तु प्रहेलिकादिवद्गूढार्थत्वम् । -वही, १०२ तथा उसकी वृत्ति, पृ० १७५
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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