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________________ २४८ ] प्रतिप्रसव प्रत्यापत्ति को प्रतिप्रसव कहा गया है । जहाँ निवृत्त अर्थ की पुनः प्राप्ति हो वहाँ प्रतिप्रसव अलङ्कार होगा ।' प्रतिप्रसव की कल्पना नवीन है । अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण तन्त्र तथा प्रसङ्ग तन्त्र और प्रसङ्ग दोनों की धारणा मम्मट आदि के विशेष की धारणा से मिलती-जुलती है । तन्त्र में एक कारण से एक साथ अनेक कार्य होता है, विशेष में भी एक कार्य के प्रयत्न से दूसरा कार्य भी स्वतः सम्पादित हो जाता है । शोभाकर ने स्वयं भी तन्त्र के साथ विशेष का सार्वत्रिक सङ्कर माना है । २ प्रसङ्ग का भी विशेष से थोड़ा भेद सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है । प्रसङ्ग में किसी कार्य के लिये किये गये यत्न से प्रसङ्गात् अन्य अर्थ की प्राप्ति हो जाती है । 3 स्पष्टतः, तन्त्र और प्रसङ्ग का विशेष से इतना स्वरूप-साम्य है कि इन दोनों की स्वतन्त्र सत्ता की कल्पना भावश्यक नहीं । क्रम अर्थ का आरोह-अवरोह क्रम कहा गया है। पर्याय में इस क्रम का अन्तर्भाव सम्भव है । वर्धमानक शोभाकर का वर्धमानक भोज के अर्थगुण रीति से - जिसमें वस्तु की उत्पत्ति आदि क्रिया का क्रम वर्णित होता है— मिलता-जुलता है ।" अवरोह अवरोह वर्धमानक का विपरीत स्वभाव है । इसका समावेश भी पर्याय में सम्भव है । १. प्रत्यापत्तिः प्रतिप्रसवः । - शोभाकर, अलं० रत्ना० ८५ २. नानाफलप्रयुक्तः प्रयत्नस्तन्त्रम् । विशेषालङ्कारेण सह तन्त्रस्य सङ्करः । —शोभाकर अलं० रत्ना० ८६ तथा उसकी वृत्ति, पृ० १४९ ३. प्रसङ्गादन्यार्थः प्रसङ्गः । - वही, ८७ ४. आरोहावरोहादिः क्रमः । वही, ६२ ५. द्रष्टव्य - अलं० रत्ना० ६३ तथा सरस्वती कण्ठाभरण, १,११७
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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