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अलङ्कार-धारणा का विकास
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व्याप्ति तथा अनुमान
व्याप्ति और अनुमान की धारणा न्याय दर्शन से गृहीत है। हम देख चुके हैं कि छह प्रमाण-सम्बन्धी न्याय की धारणा को लेकर तत्तदलङ्कारों की कल्पना काव्यशास्त्र में कर ली गयी है। शोभाकर के व्याप्ति, अनुमान आदि अलङ्कार एतद्विषयक न्याय-सिद्धान्त पर ही अवलम्बित हैं। आपत्ति
अनिष्टापत्ति में शोभाकर ने आपत्ति नामक अलङ्कार माना है।' इसके लक्षण में कहा गया है कि यदि कुछ करते हुए किसी को अनिष्ट की प्राप्ति होने का वर्णन हो तो वहां आपत्ति अलङ्कार होगा। विषम के अनर्थोत्पत्ति भेद से पृथक् अनिष्टापत्ति के सद्भाव की कल्पना आवश्यक नहीं जान पड़ती। उत्तर काल में 'कुवलयानन्द' में इसे विषम का अनिष्टापत्ति भेद कहा गया ।' विधि
असम्भावित हेतु अथवा फल का विधान विधि अलङ्कार माना गया है । रुय्यक के अर्थान्तरन्यास का, कारण के द्वारा कार्य-समर्थन का, उदाहरण विधि में उद्ध त है। असम्भाव्य फल का हेतु से समर्थन तथा हेतु का फल से समर्थन अर्थान्तरन्यास का विषय है। विधि में समर्थन की जगह विधान की धारणा है। इसका समावेश अर्थान्तरन्यास के सामान्य लक्षण में सम्भव है। अतः इसके स्वतन्त्र अलङ्कारत्व की कल्पना आवश्यक नहीं। नियम
नियम अलङ्कार की कल्पना मम्मट आदि की परिसंख्या-धारणा से भिन्न नहीं। शोभाकर ने परिसंख्या से नियम के स्वरूप में कुछ सूक्ष्म भेद करने का प्रयास किया है । मम्मट के 'काव्यप्रकाश' में जिसे परिसंख्या का उदाहरण माना गया है उसे ही नियम का उदाहरण शोभाकर ने बताया है।४ नियम का अन्तर्भाव परिसंख्या में सम्भव है। .
१. अनिष्टापादनमापत्तिः।-शोभाकर, अलं० रत्ना० ८० २. द्रष्टव्य-अप्पय्य, कुवलया० ६० ३. असम्भाव्यहेतुफलप्रेषणं विधिः । शोभाकर, अलं० रत्ना० ८२ ४. द्रष्टव्य-अ० रत्ना० पृ० १४३-४४ तथा काव्य प्र०, पृ० २७७-७८