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२५० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण __ शोभाकर के द्वारा कल्पित उपरिलिखित अलङ्कारों के स्वरूप के परीक्षण से निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं :
(क) शोभाकर ने पूर्ववर्ती आचार्यों के अनेक अलङ्कारों के भेदोपभेदों को स्वीकार नहीं किया है। अतः पूर्वाचार्यों के अलङ्कार-विशेष के तत्तद् भेदों के आधार पर तत्तद् नवीन अलङ्कारों की कल्पना उन्होंने कर ली है । उदाहरणार्थ; अर्थान्तरन्यास का केवल एक रूप-विशेष का सामान्य से समर्थन-स्वीकार कर उसके अन्य रूपों के आधार पर उदाहरण ( सामान्य का विशेष से समर्थन ), हेतु ( जिसे काव्यलिङ्ग का पर्याय कहा गया है, कार्य कारण भाव पर आधृत ), वैधर्म्य आदि अलङ्कारों की कल्पना की गयी है । उपमा के कल्पिता भेद को लेकर कलितोपमा की गणना स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में कर ली गयी है। अतिशयोक्ति के यद्यर्थोक्त-कल्पन-भेद को क्रियातिपत्ति नाम से स्वतन्त्र अलङ्कार माना गया है।
(ख) कुछ प्राचीन अलङ्कार-धारणा को भी शोभाकर ने नवीन व्यपदेश' से प्रस्तुत किया है। शृङ्खलामूलक अलङ्कारों के स्थान पर शृङ्खला नामक स्वतन्त्र अलङ्कार की ही कल्पना कर ली गयी। प्राचीनों के शृङ्खलामूलक एकावली, सार आदि के आधार पर ही अतिशय का नवीन नाम कल्पित है । पिहित को उद्भद सज्ञा से प्रस्तुत किया गया है।
(ग) कुछ प्राचीन अलङ्कारों के स्वरूप से बहुत सूक्ष्म भेद के आधार पर नवीन अलङ्कार की कल्पना की गयी है। यह भेद इतना नगण्य है कि शोभाकर के तत्तत् नवीन अलङ्कारों की कल्पना ही अनावश्यक जान पड़ती है। कवियों की अनन्त उक्तियों में एक से दूसरी का कुछ-न-कुछ तो सूक्ष्म भेद पाया ही जाता है। ऐसी स्थिति में यदि प्रत्येक उक्ति के लिए उन सूक्ष्म भेदों के आधार पर अलग-अलग अलङ्कार की कल्पना की जाने लगे तो अलङ्कार की कोई सीमा नहीं रह जायगी। नगण्य भेद के आधार पर नवीन-नवीन अलङ्कारों की कल्पना में नवीनता-प्रदर्शन का मोह-मात्र है। परिसंख्या से नियम के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना ऐसी ही है। शोभाकर के नियम अलङ्कार के उदाहरण को मम्मट ने परिसख्या के उदाहरण के रूप में ही उद्ध त किया था। क्रम, अवरोह आदि की पर्याय से स्वतन्त्र सत्ता की कल्पना आवश्यक नहीं।
(घ) शोभाकर के द्वारा कल्पित कुछ अलङ्कारों का अस्तित्व चमत्कार के अभाव के कारण अमान्य है। नवीनता के मोह में कुछ ऐसे अलङ्कारों की.