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अलङ्कार-धारणा का विकास
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कल्पना कर ली गयी है, जिनमें वस्तुतः कोई चमत्कार नहीं। अशक्य आदि चमत्कार-हीन होने के कारण अलङ्कार नहीं।
(ङ) शोभाकर की कुछ अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ अनुपेक्षणीय हैं। असम, विनोद, विवेक, प्रतिप्रसव विपर्यय, व्यत्यास, समता आदि की अलङ्काररूप में कल्पना का श्रेय शोभाकर को है। असम का स्वरूप मम्मट आदि आचार्यों के अनन्वय तथा अन्य आचार्यों की लुप्तोपमा से तत्त्व ग्रहण कर निर्मित है। विनोद की कल्पना का आधार प्रतीप की धारणा है। विपर्यय में समाधि गुण से अन्य धर्म के अन्यत्रारोप की तथा परिवृत्ति अलङ्कार से पारस्परिक विनिमय की धारणा ली गयी है। व्यत्यास तथा समता की स्वरूपकल्पना का मूल आचार्य भरत के कार्य-लक्षण में पाया जा सकता है। स्पष्ट है कि जिन अलङ्कारों की मौलिक उद्भावना का श्रेय शोभाकर को मिलना चाहिए उनके स्वरूप से भी प्राचीन आचार्य किसी-न-किसी रूप में अवगत अवश्य थे। प्राचीनों के गुण, लक्षण तथा अलङ्कार विशेष की धारणा को मिला कर शोभाकर ने नवीन अलङ्कारों की कल्पना की है। शोभाकर के द्वारा कल्पित नवीन अलङ्कारों में से निम्नलिखित पाँच अलङ्कारों का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकृत होना चाहिए-असम, विनोद, विपर्यय, व्यत्यास और समता। असम को पण्डितराज ने उसी नाम से स्वीकार भी किया है । व्यत्यास अप्पय्य दीक्षित तथा जगन्नाथ के द्वारा लेश के रूप में स्वीकृत है। विवेक में उम्मीलित की तथा प्रतिप्रसव में पूर्वरूप की कल्पना का बीज निहित था। इन अलङ्कारों के उद्भावक आचार्य शोभाकर को गौण आलङ्कारिक मान लेना उचित नहीं।
जयदेव जयदेव का 'चन्द्रालोक' अलङ्कारशास्त्र का बहुत ही लोकप्रिय ग्रन्थ सिद्ध हुआ है। अप्पय्य दीक्षित के 'कुवलयानन्द' का यह आधारभूत ग्रन्थ है।' 'चन्द्रालोक' पर आधृत 'कुवलयानन्द' हिन्दी के रीति-आचार्यों की अलङ्कार-- मीमांसा का आदर्श सिद्ध हुआ है। यह जयदेव के अलङ्कार-विवेचन के महत्त्व का द्योतक है।
आचार्य राजानक रुय्यक और जयदेव के बीच लगभग एक शताब्दी का अन्तराल है। रुय्यक का काल बारहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध तथा जयदेव का