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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
काल तेरहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जाता है।' सौ वर्षों की इस अवधि में अलङ्कारों के नाम-रूप के विषय में अनेक नूतन स्थापनाएं उपलब्ध होती हैं । पूर्ववर्ती आचार्यों के अधिकांश अलङ्कारों की संज्ञा एवं परिभाषा को स्वीकार करने पर भी जयदेव ने उनकी अलङ्कार-धारणा का अन्धानुसरण नहीं किया है। उन्होंने पूर्वप्रचलित अलङ्कारों में से कई को अस्वीकार कर कई नवीन अलङ्कारों की कल्पना की है। प्रस्तुत सन्दर्भ में जयदेव की नूतन अलङ्कारसृष्टि की समीक्षा ही हमें इष्ट है।
'चन्द्रालोक' में विवेचित अलङ्कारों की संख्या के सम्बन्ध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। डॉ० सुशील कुमार डे के अनुसार जयदेव ने आठ शब्दालङ्कारों का तथा एक सौ अर्थालङ्कारों का स्वरूप-निरूपण किया था। उनके इस कथन का आधार सम्भवतः अप्पय्यदीक्षित की मान्यता है । अप्पय्य दीक्षित ने 'चन्द्रालोक' में निरूपित शब्दालङ्कारों की संख्या आठ तथा अर्थालङ्कारों की संख्या एकसौ मानी है। सेठ कन्हैयालाल पोद्दार ने लिखा है कि 'इसके (जयदेवकृत चन्द्रालोक के) पञ्चम मयूख में आठ शब्दालङ्कार और बयासी अर्थालङ्कारों का निरूपण किया गया है।' अलङ्कारों की संख्या के सम्बन्ध में इस मतभेद का कारण 'चन्द्रालोक' के विभिन्न संस्करणों में प्राप्त पाठ-भेद ही हो सकता है। डॉ० डे ने 'चन्द्रालोक' के अनेक पाठों की चर्चा की है।५ संख्या के अतिरिक्त अलङ्कारों की संज्ञा के सम्बन्ध में भी मत-वैभिन्न्य पाया जाता है। हमारे सामने बम्बई के गुजराती प्रेस से प्रकाशित चन्द्रालोक की जो मूल प्रति है तथा 'कुवलयानन्द' के मुखबन्ध के रूप में उद्ध त 'चन्द्रालोक' की जो अलङ्कारानुक्रमणिका है उन दोनों में अलङ्कारों के नाम में पर्याप्त अन्तर है। 'कुवलयानन्द' की प्रस्तावा में प्रदत्त अलङ्कारानुक्रमणिका में विंशत्यधिक नाम ऐसे हैं जो 'चन्द्रालोक' के बम्बई से प्रकाशित उक्त संस्करण में नहीं हैं। इसके विपरीत 'चन्द्रालोक' के उक्त - संस्करण में विवेचित कुछ अलङ्कारों की चर्चा उक्त अनुक्रमणी में नहीं की गयी १. द्रष्टव्य-डॉ. सुशीलकुमार डे, "History of Sanskrit Poetics,'
खण्ड १ पृ० १८१ तथा पृ० १६८ २. वही, पृ० २०१ ३. द्रष्टव्य-कुवलयानन्द के आरम्भ में उद्ध त चन्द्रालोक की अलङ्कारानु
क्रमणिका, पञ्चम मयूख । ४. द्रष्टव्य-कन्हैयालाल पोद्दार, काव्य कल्पद्रम, खण्ड २ प्राक्कथन, पृ० २१ ५. डॉ० डे, History of Sanskrit Poetics, खण्ड १, पृ० २०२-४