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उपसंहार
[८०९ इन मान्यताओं के विपरीत आचार्य अभिनव गुप्त के गुरु भट्ट तौत की मान्यता थी कि अलङ्कारों के नये-नये नाम-रूप की कल्पना भरत आदि के द्वारा विवेचित लक्षणों के योग से की गयी है। आचार्य अभिनव ने अपने गुरु की इस मान्यता का समर्थन किया है। उनकी मान्यता का सार यह होगा कि आचार्य भरत काव्य में प्रयुक्त होने वाली सभी उक्तिभङ्गियों के स्वरूप से परिचित थे और उन्होंने उनमें से कुछ का स्वरूप-निरूपण अलङ्कार के रूप में किया तथा कुछ का लक्षण के रूप में।
इन सभी मान्यताओं को दृष्टि में रखकर अलङ्कार-धारणा के विकासक्रम का अध्ययन करने से हमें निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं :
भरत के समय अलङ्कार-धारणा को अविकसित कहकर टाल देना तत्त्वचिन्तन के दायित्व से पलायन की प्रवृत्ति का सूचक है। जब इस बात का प्रमाण है कि भरत से हजारों वर्ष पूर्व कवि अलङ्कार-प्रयोग की असंख्य सुन्दर भङ्गिमाओं से परिचित थे, तब भरत के काल में अलङ्कार-धारणा को अविकसित मानने में कोई सबल युक्ति नहीं।
नाटय-प्रयोग की दृष्टि से भी चार अलङ्कारों की स्वीकृति का औचित्य प्रमाणित नहीं होता, जब तक कि भरत के लक्षणों के स्वरूप पर भी विचार नहीं किया जाय । भरत के समय का नाट्य-साहित्य उपलब्ध नहीं, पर यह अनुमान करने का आधार स्वयं भरत का नाटय-शास्त्र है कि उनके समय तक विपुल नाटय-साहित्य की रचना हो चुकी थी। उनमें प्रयुक्त उक्ति-भङ्गियों को भरत ने केवल चार शब्दार्थालङ्कारों में ही सीमित नहीं कर अनेक लक्षणों में भी उनपर विचार किया था। धीरे-धीरे लक्षण-धारणा लुप्त होती गयी
और उसके तत्त्व से अनेक नये-नये अलङ्कारों की धारणा विकसित होती गयी। ____ अनेक अलङ्कारों की रूप-रचना में लक्षण और अलङ्कार के तत्त्वों का योग पाया जाता है। अप्रस्तुतप्रशंसा, अपह्न ति आदि इसके उदाहरण हैं। अनेक लक्षणों के योग से भी कुछ नये अलङ्कार आविर्भूत हुए हैं। आक्षेप आदि का स्वरूप लक्षणों के योग से निर्मित है। कुछ लक्षण के नाम-रूप भी कुछ परिवर्तन के साथ अलङ्कार के रूप. में स्वीकार कर लिये गये हैं। प्रियवचन तथा दृष्टान्त लक्षण क्रमशः प्रेय तथा दृष्टान्त अलङ्कार के रूप में स्वीकृत हुए हैं। इतना होने पर भी अलङ्कारशास्त्र में विवेचित सभी अलङ्कारों को चार मूल अलङ्कार तथा छत्तीस लक्षणों से आविर्भूत मानना कठिन है। रस-भाव आदि की धारणा के आधार पर रसवदादि अलङ्कार कल्पित हुए हैं । कुछ